कबीर का समाज
अजय कुमार साव
अपने समय की तत्कालीन जड़ता पर अपने संपूर्ण बल से प्रहार करना और जनता को उस नशे से मुक्त करने का प्रयास कोई साधारण कार्य नहीं है। यह असाधारण व साहसी कार्य करने वाले मध्यकालीन संतों में मुझे केवल कबीर ही नज़र आते हैं, जो समतामूलक समाज की स्थापना हेतु सुधार के बजाय संपूर्ण क्रांति के द्वारा आमूल परिवर्तन की बात करते हैं – “कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाटी हाथ। जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ।।“
कबीर को परिवर्तनकारी मानना तो दूर कुछ कथित बड़े विद्वान उन्हें सामाजिक एवं समाज सुधारक तक स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। डॉ. रामचंद्र तिवारी कहते हैं, “वे समाज रचना के लिए किसी प्रकार के सुधारवादी आंदोलन के पुरस्कर्ता न होकर मानव आत्मा की मुक्ति के लिए आध्यात्मिक संघर्ष करने वाले साधक थें।“8 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के भी मत कुछ इसी प्रकार के हैं, “कबीर ने ऐसी बहुत-सी बातें कही है जिनसे(यदि उपयोग किया जाए तो) समाज सुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसलिए हमें उनको समाज सुधारक समझना गलती है।“4 इन विचारकों से भिन्न डॉ. रामकुमार वर्मा कहते हैं, “जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, तब तक किसी विचार या सिद्धांत का प्रसार संभव नहीं है। यही कारण है कि कबीर अनुभूति संपन्न कवि और संत होते हुए भी समाज की अनिश्चित परिस्थितियों के प्रति उदासीन न रह सकें और वे भक्ति आंदोलन के प्रमुख प्रवर्त्तकों में होते हुए भी समाज सुधार में अग्रणी बने।“7 कबीर कथित विद्वानों द्वारा समाज और साहित्य में इतने उपेक्षित क्यों हैं इसपर विचार करते हुए डॉ. शिवकुमार मिश्र लिखते हैं, “जब तक वर्ग, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, जाति और नस्ल की दीवारों को ढहाती हुई इंसानियत और इंसानी संस्कृति की वह छवि नहीं उभरती जिसे कबीर ने देखा था और अपने युग को निर्मम होते हुए भी दिखाना चाहा था, तब तक तमाम प्रकार के झूठे दावों को मिटाता गिराता सच्ची मानवता का वह स्रोत अपने समूचे वेग से नहीं फूटता, जिसके लिए कबीर आजीवन फावड़ा और कुदाल लिए श्रमरत रहें, तब तक कबीर इसी प्रकार उपेक्षित रहेंगे, इसी प्रकार त्याज्य बने रहेंगे, इसी प्रकार बे-पहचान होंगे।“11
कबीर साहित्य के अध्येताओं के उपर्युक्त निष्कर्षों का मूल भाव है कि कबीर भक्त, आध्यात्मिक साधक, अनुभूति संपन्न कवि पहले हैं; समाज सुधारक बाद में। कबीर की सामाजिक चेतना या समाज सुधारक व्यक्तित्व पर विचार करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि क्या मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी हुई समस्याओं को धार्मिक तथा राजनीतिक समस्या से बिल्कुल अलग करके देखा जा सकता है? एक क्षण के लिए कबीर कालीन या मध्यकालीन समाज को दरकिनार करके अपने आधुनिक समाज को ही देख लिया जाए तो बात कुछ अधिक स्पष्ट हो जायेगी। आज के समाज की अनेक समस्याओं में से सबसे बड़ी और प्रमुख समस्या है धार्मिक कट्टरपन। इसी धार्मिक कट्टरता या सांप्रदायिकता के कारण एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के खून का प्यासा बन जाता है। उसके कारण समाज में व्यक्तियों का सह-अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है जो सामाजिक संगठन की मूलभूत आवश्यकता है। एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के साथ कुछ मान्यताओं, परंपराओं एवं समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सहयोग करने की बात तो दूर रही यदि यह अगल-बगल रह भी नहीं सकते तो समाज को क्या स्थिति होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था को धार्मिक व्यवस्था से बहुत अलग करके नहीं देखा जा सकता। जहां जाति-पाति, वर्ण-भेद धार्मिक व्यवस्था का ही परिणाम है, जहां पति-पत्नी का संबंध आध्यात्मिक बंधन है, जहां व्यक्ति, परिवार और समाज के पारस्परिक संबंधों का मूलाधार धर्म है, वहां की सामाजिकता धार्मिकता से अलग कैसे हो सकती है! ब्राह्मण अस्पृश्यता को इसलिए बढ़ावा देता है कि वह इसे धर्म मानता है। यही नहीं एक बधिक जानवरों का वध इसलिए करता है कि यह उसका धर्म (ईश्वर द्वारा निर्धारित कार्य) है। शूद्रों को सभी वर्णों की सेवा इसलिए करनी चाहिए कि ईश्वर ने उसे उसी लिए पृथ्वी पर भेजा है। जिस देश में अमीरी-गरीबी, जाति-पाति, सुख-दुख, ऊंच-नीच सब कुछ ईश्वर की इच्छा से निर्धारित है उस देश में यदि किसी भी तरह का सामाजिक परिवर्तन लाना है तो उसके लिए धार्मिक परिवर्तन की दिशा में ही प्रयत्न करना होगा। कबीर के समय में सामाजिक टूटन का मुख्य कारण था धर्म। इसलिए कबीर जैसा ओजस्वी और विद्रोही रचनाकार यदि इस प्रकार का भाव व्यक्त करता है तो उसमें भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं नहीं रह जाती – “पूरब जनम हम बाभन होते ओछे करम तप हीना। रामदेव की सेवा चूका पकरि जुलाहा कीना।।“ इसलिए यह कहना कि कबीर केवल भक्त हैं समाज सुधारक नहीं, यह समीचीन नहीं। कबीर जिस तरह के भक्त हैं वह स्वयं में ही एक नवीन सामाजिक पद्धति एवं मानवीय समता की स्वीकृति तथा पक्षधरता का प्रमाण है। यह भक्ति मार्ग ऐसा है जहां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का अलगाव नहीं है; सभी एक हैं और केवल मनुष्य हैं। इस साधना में ब्राह्मणों का वर्चस्व नहीं है क्योंकि भक्तों का गुरु ब्राह्मण नहीं होता, कोई संत या भक्त ही होता है। ब्राह्मण के महत्व को अस्वीकार करना, सभी वर्गों के लिए एक नए आध्यात्मिक मार्ग की खोज करना; वेद-शास्त्रों में प्रतिपादित उन मान्यताओं को अस्वीकार करना जो ब्राह्मणों के महत्व को स्वीकार करता है आदि बातें युग-युग से निर्मित सामाजिक व्यवस्था पर गहरी चोट है। डॉ. रामकिशोर शर्मा कहते हैं, “शास्त्र और संप्रदायों का निषेध करके कबीर केवल एक नई भक्ति पद्धति को ही नहीं जन्म दे रहें थे बल्कि ढोल पीट-पीटकर जता रहे थे कि मुक्ति का मार्ग ब्राह्मण के घर से होकर नहीं जाता, जैसा कि युगों-युगों से प्रचारित किया जा रहा है। ब्राह्मण, वेद तथा वेदमार्ग की महत्ता को अस्वीकार करके कबीर ने वस्तुतः सामंती व्यवस्था के मर्म पर आघात किया है। उनके भक्त रूप को महत्व देना प्राकारांतर से उनके सामाजिक विद्रोह को हाशिए में डालना है।“2 चूंकि सामाजिक व्यवस्था से जुड़े हुए अनेक मुद्दों के संदर्भ में धर्म की ही दुहाई दी जाती थी, इसलिए कबीर ने उनका विरोध करने के लिए धर्म की व्यवस्था में से तर्क ढूंढने का प्रयत्न किया है। जाति-पाति, छूआ-छूत, ऊंच-नीच के भेद भाव को मिटाने के लिए उन्होंने आध्यात्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं का आधार ग्रहण किया। कबीर ने अद्वैत दर्शन का उपयोग सामाजिक समता के लिए किया है। वे कहते हैं – “एकहि जोत सकल घट व्यापक, दूजा तत्त न कोई। कहै कबीर सुनो रे संतो, भटकि मरै जनि कोई।।“ , “जल में कुंभ कुंभ में जल बाहिर भीतर पानी। फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तथ कथ्यों ज्ञानी।।“ और “कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढे बन माही। ऐसी घटि घटि राम है, दुनिया देखत नाहिं।।“ कबीर कहते हैं कि यदि ब्राह्मण श्रेष्ठ है तो उसने ब्राह्मणी से उसी तरह क्यों जन्म लिया जिस तरह शूद्र या अन्य जातियां लेती हैं। उसे तो किसी पवित्र मार्ग से उत्पन्न होना चाहिए था। इसी तरह मुसलमानों को भी बताया कि यदि अल्लाह को मनुष्य से अलग मुसलमान की जरूरत होती तो वह स्वयं भीतर से ही खतनी करके भेजता। ये सब मानव-निर्मित भेद-भाव है। इसलिए इन्हें ईश्वरीय नहीं मानना चाहिए। यदि कर्त्ता(ईश्वर) वर्ण का विचार करता तो वह मनुष्य को जन्मजात ही वर्णों में विभाजित करके भेजता। अतः यहां कोई हीन नहीं, हीन वही जो राम नहीं कहता-
“जौ पै करता बरण बिचारै, तौ जनमत तीनि डाँड़ि किन सारै।
उतपति ब्यंद कहाँ थैं आया, जो धरी अरु लागी माया
नहीं को ऊँचा नहीं को नीचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।
जे तूँ बाँभन बभनी जाया, तो आँन वाँट ह्नै काहे न आया।
जे तूँ तुरक तुरकनी जाया, तो भीतरि खतनाँ क्यूँ न कराया।
कहै कबीर मधिम नहीं कोई, सौ मधिम जा मुखि राम न होई।।“
हम देखते हैं कि धर्म के संबंध में भावात्मकता का सवाल अब भी बना हुआ है। विगत आठ सौ वर्षों से एक साथ रहते हुए भी हिंदू-मुसलमान के बीच तनाव की समस्या बनी हुई है। फलतः देश के किसी न किसी भाग में सांप्रदायिक दंगों के कारण खून-खराबा होता रहता है। मंदिर-मस्जिद के विवाद समय-समय पर उठते रहते हैं। मंदिर-मस्जिद विवाद के कारण ही कितने ही निरीह और निर्दोष लोग मार दिए जाते हैं। धर्म के विखंडन और अलगाव की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसी पर कबीर चेतावनी देते हैं –
‘कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलन हारा तुरक न हिंदू।‘
समाज में ऊंच-नीच की भावना अब भी बरकरार है। हम अपने इर्द गिर्द आज भी भेद-भाव, छूआ-छूत की कई घटनाएं सुनते हैं। राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व को स्थापना की होड़ में छूआ-छूत थोड़ा कम जरूर हुआ है, किंतु जातिवादी मानसिकता से समाज अब भी बहुत बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। अब तो जातिवाद स्वार्थ से जुड़कर और भी विषाक्त तथा घातक हो गया है। इसलिए कबीर इसके खंडन की बात करते हुए कहते हैं –
“जाति न पूछो साधु की पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तरवार का पड़ा रहन दो मयान।।“
“जाति-पाति पूछे नहीं कोय, हरि को भजे हरि को होय।।“
कबीर ने अपने समाज में जिन समस्याओं का सामना किया उनके पदों ने उन्हीं सब का वर्णन मिलता है। और आज वे समस्याएं थोड़ा रूप बदलकर आज भी हमारे सामने उपस्थित है। इसलिए कबीर आज और अधिक प्रभावशाली और प्रासंगिक जान पड़ते हैं। कबीर का धर्म विशुद्ध भावमूलक और मानव समतावादी है। कबीर ने छह सौ साल पहले जो संघर्ष छेड़ा था उसे ही आज आगे बढ़ाने की जरूरत है। कबीर जैसे मार्गदर्शक की ही जरूरत आज हमारे समाज को है। जो खुलकर सच को सच और झूठ को झूठ कहना सिखाए, जो प्रचलित धर्मों के आडंबरपूर्ण परस्पर विरोधी तत्वों को निर्ममतापूर्ण काटकर विशुद्ध मानव हितकारी एक भारतीय धर्म की स्थापना की पहल कर सकें। कबीर के इसी मानव हितकारी प्रतिष्ठित धर्म की ओर जब मुक्तिबोध का ध्यानाकर्षण होता है तो वे कहते हैं, “कबीर(और नानक) मानव समानता के प्रचारक, शील और स्नेह के पुरस्कर्त्ता तो थे ही, उन्होंने मानव मात्र के लिए सामान्य धर्म की प्रतिष्ठा करनी चाही – वह धर्म जो किताबों और ग्रंथों में बंधा रहता है, जो रूढ़ियों और रिवाजों में फंस जाता है, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच गर्व और दंभ, पाखंड और द्वेष की दीवालें खड़ी करके मानवता को अलग-अलग टुकड़ों में काटकर तितर-बितर कर देता है। वरन् उन्होंने उस धर्म को प्रतिष्ठित किया जो मानव मात्र के अंतःकरण में मानव गुण के रूप में विराजमान है, जो हृदय का गुण और आत्मा का स्वभाव है, जिसके द्वारा मानवता अखंड हो जाती है, जनता एक हो जाती है।“3 कबीर ने कहा था –
“कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लियो बनाय। ता पर मुल्ला बांग दे, बहरो हुआ खुदाय।।“
कबीर ने सामाजिक विषमता पर प्रहार करने के बाद सामाजिक शोषण के अस्त्रों को कुंठित करना आवश्यक समझा। पुरोहितों, पंडितों तथा मुल्लाओं के लिए धार्मिक आधार पर समाज के शोषण का सबसे बड़ा साधन था पुस्तकीय ज्ञान और धर्म साधना के विविध विधान। वेद, कतेब,
पुराण, शास्त्र आदि का ज्ञान कुछ विशेष व्यक्तियों या वर्ग के पास सीमित होता था। भारतीय वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों की उच्चता का एक प्रमुख मापदंड उनका वेद-शास्त्र में पारंगत होना है। वेद-शास्त्र के अध्ययन से अधिकांश जनता संसाधनों के अभाव के कारण वंचित थी। शूद्रों तथा स्त्रियों के लिए वेद का अध्ययन लगभग वर्जित ही था। सामान्य रूप से अंत्यजों तथा स्त्रियों की शिक्षा व्यवस्था तो पूरे मध्यकाल में चौपट ही थी। कबीर इसलिए शास्त्रीय ज्ञान को महत्व नहीं देते हैं – “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय।।“ कबीर जब कहते हैं- “मसि कागद छुयो नहीं कलम गह्यो नहीं हाथ।“ इस पंक्ति के पीछे कितनी गहरी और त्रासद ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। जिस भूमि पर शंकर जैसे बड़े बड़े प्रकांड विद्वान हुए क्योंकि वे लोग वर्ण व्यवस्था की के ऊपरी स्तर से आते थे किंतु कबीर जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने कभी पुस्तक और कलम नहीं छुई, यह कितनी विडंबनात्मक स्थिति है कि इस धरती पर शताब्दियों से प्रतिभाएं जाति की मोहताज रही हैं। कबीर निम्न जाति के थें शायद इसलिए वे पुस्तकीय शिक्षा कभी प्राप्त नहीं कर पाएं। जब कबीर कहते हैं – “तू कहता कागद की लेखि, मैं कहता आखिन की देखि।“ यहां कागद की लेखि क्या है? ये भी वेद-शास्त्र का ज्ञान है जो सदियों से एक विशेष तबके का सर्वाधिकार बना रहा। इसलिए कबीर शास्त्र ज्ञान को अस्वीकार करके आखिन देखी लोक ज्ञान को महत्व देते हैं।
कबीरदास बाह्याडंबरों के पीछे भी इसलिए हाथ धोकर पड़े हैं कि उन्हें छह दर्शनों में छियानवे पाखंड दिखाई देते हैं। उनके विचार से जप, तप,
संयम, पूजा, अर्चना और ज्योतिष में ही जग पागल हुआ बैठा है। कबीर धर्म के नाम पर हिंसा का कड़ा विरोध करते हैं। वे हिंदू और मुसलमान दोनों को पाखंडों के प्रति सचेत करते हैं – “पाहन पूजै हरी मिले तो मैं पूजूँ पहाड़। ताके यह चाकी भली, पीसी खाए संसार।।“, “यह सब झूठी बंदगी, विरिथा पंच निवाज। सांचे मारे झूठी पढ़ि, काज़ी करै अकाज।।“ पंडितों द्वारा प्रचारित स्वर्ग-नर्क की परिकल्पना को भी मिथ्या सिद्ध करते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि कबीर हर कोण से वर्ण व्यवस्था की खिलाफत करते नज़र आते हैं। ब्राह्मण धर्म की श्रेष्ठता किसी भी तरह से अवशिष्ट न रहे इसलिए वेद-पुराण, तीर्थ, दान, मंदिर आदि की निंदा करते हैं। समाज में व्याप्त छूआ-छूत, ऊंच-नीच की घातक बुराइयों को समूल नष्ट करने का जो अदम्य साहस कबीर में परिलक्षित होता है और वे जिस निर्भीकता से अपने प्राण की परवाह न करके धर्म की भित्ति पर टिकी हुई व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाते हैं और समाज को जाग्रत करने का प्रयास करते हैं; इस तरह उन्हें दीन-दुनिया से निरपेक्ष भक्त सिद्ध नहीं किया जा सकता।
कबीरदास अपने समय के समाज के अन्य पक्षों को भी उजागर करते हैं। जिस तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि से आज हम रीति-रिवाजों की सार्थकता एवं औचित्य की परख करते हैं ठीक उसी दृष्टि से कबीर ने भी पारिवारिक संबंधों की औपचारिकताओं का भंडाफोड़ करते हैं। निर्धनता और दारिद्र्य में जीने वाले लोगों के लिए मृत्यु भोज या श्राद्ध भोज की अनिवार्यता कितनी कष्टसाध्य होती है। पुत्र का पिता के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए, उसके लिए भी समाज ने आदर्श निर्धारित कर रखे हैं। किंतु व्यावहारिक धरातल पर आदर्श बराबर ही खंडित होते रहते हैं। जीवित पिता के प्रति पुत्र अपने व्यवहार में तब भी चूक करते थे और आज भी करते हैं किंतु मरणोपरांत तरह-तरह के लोकाचारों का पालन करते हैं। वेद और धर्म ग्रंथ इन लोकाचारों को पूरा पूरा समर्थन देते हैं। कबीर इस कृत्रिम और हास्यास्पद लोकाचार के विषय में कहते हैं-
“जीवत पित्रहिं मारहिं डंडा, मूंवां पित्र ले घालै गंगा।
जीवत पित्रकूं अन न ख्यांवे, मूवा पाछैं प्यंड भरावैं।
जीवत पित्रकूं बोलैं अपराध, मूंवा पीछें देहि सराध।
कहै कबीर मोहि अचरज आवै, कउवा खाइ पित्र क्यूं पावै।।“
कबीरदास ने समाज की आर्थिक व्यवस्था तथा सामंती शोषण का भी कड़ा विरोध किया है। धन-संपत्ति को दीवार एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से अलग कर देती है। धन अहंकार में भी वृद्धि करती है। तरह-तरह के सामाजिक अपराध के पीछे भी धन की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इसी तरह मध्यकाल में सुंदरियों के पीछे भी भयानक संघर्ष होते रहते थे। सामंतों को भोगेच्छा की तृप्ति के लिए कामिनी और कंचन दोनों की आवश्यकता होती थी। कबीर को यह रहस्य बहुत गहराई से सूझ गया थी इसलिए वे जीवन पर्यंत कामिनी और कंचन से दूरी बनाए रहें। उनकी इच्छा थी कि समाज में रहने वाले लोगों में पारस्परिक ईर्ष्या, बैर का अभाव हो, परस्पर प्रेम हो, हर काम व्यक्ति निष्काम भाव से करे। पुत्र और परिवार के सुख-समृद्धि के लिए बुरे तथा पाप करने न किए जाएं क्योंकि कर्मों का जो फल होगा वो कर्त्ता को ही भोगना पड़ेगा, परिवार के लोग साथ नहीं देंगे – “कुटंब कारणी पाप कमावै, तूं जौनै घर मेरा। ए सब मिले आप सवारथ, इहां नहीं को तेरा।।“
बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के कारण प्राचीन आश्रम व्यवस्था विशृंखल हो गई थी। फलतः युवावस्था में ही बहुत से लोग संन्यास ग्रहण करने लगे थे। इस तरह साधुओं, संन्यासियों की निरर्थक भीड़ बढ़ती जा रही थी, जिनकी जीविका का बोझ मेहनतकश किसानों को धर्म भीरूता के कारण झेलना पड़ता था। कबीरदास ने संगठित साधुओं की जमात का विरोध किया और कर्महीन साधना का तिरस्कार किया। वे वैराग्य के संबंध में कहते हैं – “कबीर बैरागी विरकत भला, ग्रीहि चित्त उदार। दुहुं चूकां रीता पड़ै, ताकूं वरन पार।।“ अहंकारहीनता, करुणा, दया, प्रेम, परमार्थ, विनय आदि नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्नशील कबीर के विचारों में एक श्रेष्ठ समाज की परिकल्पना निहित है। उनके सामाजिक दर्शन का मूल तत्व कर्म और त्याग है।
निष्कर्ष :
हम कह सकते हैं कि कबीर की आध्यात्मिक मुक्ति सामाजिक मुक्ति से एकदम अलग नहीं है। उनका परमात्म चिंतन लोक चिंतन की उपेक्षा नहीं करता। उनकी धार्मिक मान्यताएं सामाजिक संदर्भों से निरपेक्ष नहीं है। उनके सामाजिक सुधार की मान्यताएं आध्यात्मिक विचारों की परिधि में ही समाहित है। उन्होंने आध्यात्मिक साम्यता में ही सामाजिक समता की परिकल्पना की है। भक्त होते हुए भी वे अपने सामाजिक दायित्व का पूरा पूरा निर्वाह करते हैं। वे ऐसे भक्त कवि हैं जिनके रचना कर्म का एक प्रमुख पक्ष है – सामाजिक विषमता का उन्मूलन।
संदर्भ :
1. कबीर ग्रंथावली: सं. श्यामसुन्दर दास, इंडियन प्रेस, प्रयाग
2. कबीर ग्रंथावली सटीक: सं. डॉ. रामकिशोर शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली
3. कबीर ग्रंथावली सटीक: सं. डॉ. रामकिशोर शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली
4. कबीर ग्रंथावली: सं. माताप्रसाद गुप्त, साहित्य भवन, इलाहाबाद
5. कबीर: आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिंदी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, मुंबई
6. कबीर अनुशीलन: सं. डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी, श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता
7. भक्ति के तीन स्वर – मीरा, सूर, कबीर: जॉन स्ट्रैटन हौली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
8. संत कबीर: रामकुमार वर्मा, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद
9. कबीर मीमांसा: रामचंद्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
10. प्राचीन कवि: विश्वम्भर मानव, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
11. हिंदी के प्राचीन प्रतिनिधि कवि: द्वारिका प्रसाद सक्सेना, अग्रवाल पब्लिकेशंस, आगरा
12. भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य: शिवकुमार मिश्र, लोकभरती प्रकाशन, इलाहाबाद
13.https://www.sahchar.com/2018/02/07/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%A8-%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%A1%E0%A5%89-%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE/
14. आधुनिक परिप्रेक्ष्य में कबीर की प्रासंगिकता: एक अनुशीलन – अफसर अली (शोधकर्ता), अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़
अजय कुमार साव
छात्र, परास्नातक हिंदी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
8759077245,
ajaykumarshaw9898@gmail.com
शानदार व विचारशील आलेख
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