खाप पंचायतें और समकालीन भारत में उनकी प्रासंगिकता
प्रदीप
खाप पंचायतों के महत्त्व को जानकर हमें उन्हें वर्तमान समय के अनुसार उपयोगी एवं सशक्त जनकल्याण इकाई के रूप में पुनर्स्थापित करना होगाl परिवर्तन तो प्रकृति का नियम हैl अतः एक ऐसा संगठन जो समाज की आवश्कताओं को समझ उनके त्वरित समाधान हेतु कारगर सिद्ध हो सके। हमें खाप पंचायतों में समय के साथ लचीलापन लाना होगा। वर्तमान दौर में खापों में कुछ स्वयंभू खाप प्रधान बने हुए हैं, उनसे खापों व समाज को निपटना होगा, साथ ही साथ पुराने समय की तरह खाप पंचायतों में महिलाओं व सभी जातियों को उचित स्थान देना होगा, जिससे खाप पंचायतों के प्रति सभी जातियों व महिलाओं में विश्वास की भावना उत्पन्न हो सके। इसके साथ-साथ खाप पंचायतों को निर्णय लेने की पुरानी प्रक्रिया पंच निर्णय(पाँच व्यक्तियों का समूह) जिसमें प्रत्येक जाति व क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल करने चाहिए और इन पाँच व्यक्तियों का चयन खुली चौपाल या पंचायत में सर्वसम्मति से वहाँ मौजूद व्यक्तियों के द्वारा किया जाना चाहिए। इन पाँच व्यक्तियों के साथ ही साथ संबंधित खाप के प्रधान को इन पंचो की अध्यक्षता करनी चाहिए। तब इन छह लोगों के समूह को सर्वसम्मति से फैसला देना चाहिए। निस्सन्देह ऐसा फैसला भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी से परे एक निष्पक्ष फैसला होगा जो कि गाँव/क्षेत्र के छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़ों का मौके पर ही निपटान करेगा। इससे न्यायपालिका का बोझ भी घटेगा व साथ ही साथ लोगों को निश्शुल्क, निष्पक्ष, सुलभ न्याय भी मिलेगा।
बीज शब्द : सर्व-खाप, इतिहास खाप,आजादी के
बाद पुनर्गठन, खाप प्रधान का चुनाव, कार्य, सर्व-खाप
के पंचों और फैसलों की अहमियत, वर्तमान
परिस्थिति।
मूल आलेख : खाप शब्द ख+आप के योग से बना हैl यहाँ ख का अर्थ है आकाश तथा आप का अर्थ हैं जल अर्थात् पवित्र एवम शांतिदायक पदार्थ। अर्थात् जो सब स्थानों पर आकाश की भाँति व्यापक हो ओर जल की भाँति निर्मल और शांतिमय हो। सर्व-खाप का अर्थ है- व्यापक अर्थात् सभी खापों का मिलाप। ये खापें भारतवर्ष के उत्तर में सिन्ध, पश्चिम में गुजरात, दक्षिण में वर्तमान मध्यप्रदेश का मध्य भाग तथा पूर्व में वर्तमान बिहार के पश्चिम बिहार तक विद्यमान थीं। इनका जन्म कब हुआ, इसका इतिहास उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह सत्य है कि खाप आदिकाल से विद्यमान थी।
सत्ता विकेंद्रीकरण का सबसे बड़ा
लोकतंत्र सातवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के अंतिम राजा हर्षवर्धन(जो स्वयं बैंस
गोत्री जाट राजवंशी थे) का राज इन्हीं
खापो़ं के क्षेत्र पर स्थापित था। इन बिखरी हुई खापों की शक्ति को राज की मान्यता
देकर उन्हें संगठित करने के लिए महाराजा हर्षवर्धन ने बल्लभीपुर, गुजरात के राजा
ध्रुवभट्टसेन की सहायता से कन्नौज में 699 विक्रमी
संवत्(सन 643) चैत्र सुदी
प्रतिप्रदा को राज़ सम्मेलन करवाकर इनका नामकरण सर्व-खाप पंचायत के तौर पर किया। ये
उस काल मे एक महान प्रजातांत्रिक क्रांति थी क्योंकि महाराजा हर्षवर्धन ने अपनी
राजकीय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण करके अपनी शक्ति की बागडोर का एक हिस्सा आम आदमी
के हाथ तक पहुँचाने का कार्य किया जो उस काल में ऐसा विचार करना कठिन ही नहीं, असंभव भी था।
एक खाप का क्षेत्र निश्चित था, जिस क्षेत्र
में रहने वाले सभी जातियों के लोग इसमें सम्मलित थे। इस क्षेत्र में कोई एक गाँव
या घर खाप से बाहर नहीं था।
जातपात/ भाई-भतीजावाद से रिक्त
जनतंत्र-- इनके गठन में जात-पात का कोई भेदभाव नहीं थाl प्रजातांत्रिक
तरीके से जिस जाति व गोत्र के गाँव का बाहुल्य था, उसीके नाम से
खाप का नाम दिया गया। इसलिए आज भी हरियाणा व उत्तर प्रदेश में कुछ खाप ब्राह्मण, अहीर, राजपूत और
गुर्जरों के नाम पर भी हैं। पहले पंजाब के होशियारपुर क्षेत्र में एक खाप सैनी के
नाम से भी हुआ करती थी तथा इन सभी खापों, जिनकी संख्या
उस समय लगभग 360 थी, को सर्व-खाप
पंचायत का नाम दिया गया। सर्व-खाप का मुख्यालय सौरम गाँव में निश्चित किया गया, जो वर्तमान
में उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले में पड़ता है। खाप तथा सर्व-खाप पंचायत की
बनावट इस प्रकार तय की गई कि प्रत्येक खाप का एक प्रधान तथा एक सचिव होता था। इसके
बाद खापों को निचले स्तर पर कन्नियों, पालों तक बांट दिया गया था। खाप स्तर पर
केवल दो ही पदाधिकारी खाप प्रधान व खाप सचिव होते थे। सर्व-खाप स्तर पर केवल एक
सचिव होता था, जो हमेशा सौरम गाँव से होता था
जहाँ पर सर्व-खाप पंचायत का मुख्यालय है।
शोध प्रविधि - इस शोध-पत्र के लिए
शोध सामग्री अधिकांश रूप में द्वितीयक स्रोतों से ग्रहण की गई है। इसमें ऐतिहासिक
विश्लेषण व वर्णनात्मक दृष्टिकोण के साथ-साथ शोधकर्ता ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों
को भी स्थान दिया है। शोध सामग्री प्रसिद्ध पुस्तकों,
पत्र-पत्रिकाओं व इंटरनेट से प्राप्त की गई है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - खापों का
प्रचलन उत्तर भारत में लंबे समय से रहा है। लोगों के छोटे-मोटे आपसी विवाद निपटाने
के लिए ग्राम समूह का अस्तित्व किसी से छिपा नहीं है। खाप पंचायतों का ढांचा लगभग
1350 साल से भी पुराना है। जनतांत्रिक प्रणाली को आधार मानकर 643 ईस्वी में
महाराजा हर्षवर्धन ने अपने शासनकाल में सर्व-खाप पंचायत की स्थापना की थी। लेकिन
इससे पहले भी आदि काल से ही पंचायतें समाज विकास के लिए किसी ने किसी रूप में चली
आ रही हैं। खाप पंचायतों ने अपने असल स्वरूप में कभी कोई स्थायी नेतृत्व धारण नहीं
किया। यह तो वर्तमान में ही पनपा एक नया रोग है। खाप पंचायतों में नेतृत्व या किसी
पद के लिए कोई चुनाव नहीं होता। रोज़मर्रा के विवादों को निपटाने में अपनी क्षमता व
प्रतिभा के बूते कुछ गण्यमान्य लोग समाज में उभरकर आते थे, जिनकी
उपस्थिति विवाद निपटाने में ज़रूरी होती थी और ये लोग भाई-भतीजावाद से
ऊपर उठकर संबंधित पार्टी के द्वार पर ही मुफ़्त में उसके विवाद का निपटारा कर देते
हैं। जिससे लोगों का पुलिस थाने, कोर्ट
कचहरी के चक्कर लगाने से वक़्त जाया होने से बच जाता था। निष्पक्ष एवं सर्वमान्य
ढंग से विवादों का निपटारा करने में ही इनकी ताकत निहित थी, जो आज भी
जारी है।
आजादी के बाद खापों का पुनर्गठन - देश आजाद
होने के बाद सर्व-खाप की पहली पंचायत 93 वर्ष के बाद सन् 1950 में श्री जगदेव सिंह
सिद्धान्ती की अध्यक्षता में 60,000 लोगों की उपस्थिति में सोरम गाँव में सामाजिक
मुद्दों को लेकर सम्पन्न हुई। उसके बाद इन पंचायतों का कार्य छोटे-मोटे सामाजिक
झगड़ों को निपटाना तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने तक ही सीमित रह गया। यूनाइटेड
प्रोविंस बनने के बाद उत्तर प्रदेश में यह खापें केवल पश्चिम उत्तरप्रदेश में सिमट
कर रह गयी तथा राजस्थान, मध्यप्रदेश
व पूर्वी गुजरात में मुगल राज आने के बाद हिंदू राजाओं ने मुगलों की शरण लेने पर
(महाराणा प्रताप, महाराजा
सूरजमल, महाराजा रणजीत सिंह और महाराजा शिवाजी इत्यादि को छोड़कर) इन क्षेत्रों में
खापें स्वयं ही दम तोड़ती चली गई। पंजाब में सिक्ख धर्म आने पर खापों का स्थान मोर्चों
ने ले लिया, जिस कारण पंजाब अर्थात सिंध
आदि क्षेत्र में भी खापें समाप्त हो गईं। वर्तमान में केवल हरियाणा के फतेहाबाद से
लेकर उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ तक तथा उत्तर प्रदेश के बिजनौर से लेकर राजस्थान के
भरतपुर के बीच ही मुख्य रूप से खापें रह गई हैं। बाकी जगह जो भी ग़ैर-सरकारी
पंचायतें कार्य कर रही है, वे आमतौर पर
सभी जाति आधार पर है।
सोरम में विधिगत खाप इतिहास-- सन् 643 से लेकर
वर्तमान तक लगभग 1400 वर्ष तक का पंचायती इतिहास का रिकॉर्ड सोरम गाँव में
स्वर्गीय चौधरी कबूल सिंह पूर्व सचिव सर्व-खाप के घर पर बड़ी सूझबूझ से कठिन समय से
ही छिपाकर रखा गया और इस रिकॉर्ड के आधार पर अभी तक डॉ एमसी प्रधान, डॉक्टर
मैनफोर्ट, डॉक्टर जीसी द्विवेदी, डॉ बालकिशन
डबास जैसे अनेकों विद्वान शोध करके पीएचडी की डिग्री प्राप्त कर चुके हैं। बादशाह
बाबर से लेकर बादशाह अकबर तक कई बादशाह राजा व नवाब स्वयं सर्व-खाप के मुख्यालय
सोरम गाँव में पहुँचकर सर्व-खाप के सम्मान में सर्व-खाप के सचिव को पगड़ी बाँधकर ₹1
से सम्मानित करते रहे। इनके पत्र फ़ारसी भाषा में लिखित पंचायती दस्तावेजों में
उपलब्ध हैं। ये पंचायती रिकॉर्ड कई किलो वजनी है जो कि आज भी सोरम गांव में सर्व-खाप
मंत्री सुभाष बाल्यान के पास मौजूद है।
खाप के प्रधान का
चुनाव - सर्व-खाप का कोई प्रधान
नहीं होता था। जब भी कभी सर्व-खाप की पंचायत होती तो उसी दिन उसी जगह सर्व-खाप
पंचायत का प्रधान सर्वसम्मति से मनोनीत किया जाता था, जो कभी स्थाई
नहीं होता था। आमतौर पर जिस खाप में सर्व-खाप पंचायत होती थी, उसी खाप के
प्रधान को उसी दिन के लिए सर्व-खाप का प्रधान मनोनीत किया जाता था। सर्व-खाप की
पंचायत कराने की सूचना देने की जिम्मेवारी तथा कर्तव्य सर्व-खाप सचिव का होता था, जो किसी राजा
या खाप की प्रार्थना पर बुलाई जाती थी। इसके बंदोबस्त की जिम्मेवारी राजा की या उस
खाप की होती थी, जिस क्षेत्र में सर्व-खाप की
पंचायत होती थी। ये परंपराएँ लगभग आज तक प्रचलन में हैं, केवल राजा वाली बात को
छोड़ कर। गोत्र व क्षेत्र आधारित खाप के
प्रधान का चुनाव भी सर्वसम्मति से किया जाता था, जो कि आज तक
प्रचलन में है। न्याय करने वाले पंचों की घोषणा मौके पर ही होती थी और कार्यवाही
खुले प्रांगण में आम जनता के समक्ष होती थी और यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके तहत
रिश्वत लेने या देने की संभावनाएँ शून्य होती है क्योंकि जब प्रधान और न्याय करने
वाले पंच मौके पर चुने जाएँगे तो अपराधी पक्ष और पीड़ित पक्ष को अंतिम क्षण तक यह
तो पता होगा कि न्याय करेंगे तो समाज के ज्ञानी लोग ही, लेकिन करेगा
कौन वह नहीं पता होता था और जब पता ही नहीं होगा तो कोई रिश्वत देखकर खरीदेगा भी
किसको? इसलिए इस तंत्र में रिश्वत लेने
की संभावना शून्य होती थी।
खापों के कार्य - खापें के
उस समय मुख्यतः तीन कार्य थे, सबसे पहले खापों को सेना रखने का अधिकार था जिसमें
खाप के गाँव के मल्ल(पहलवान) सैनिक माने गए, जो
राजनीतिक स्तर पर अवैतनिक होते थे परन्तु उनके खान-पान, वस्त्र, स्वास्थ्य
और प्रशिक्षण का खर्च गाँव के समर्थ लोग मिलकर वहन करते थे। दूसरा समाज में फैली
हुई कुरीतियों को दूर करना तथा सामाजिक परंपराओं को बनाए रखने तथा उनमें समय के
अनुसार सुधार करने का पूरा अधिकार था। तीसरा खापों को सामाजिक न्यायालयों का दर्जा
प्राप्त था जिसमें उनको सामाजिक तौर पर होने वाले अपराधों व झगड़ों को निपटाने का
सम्पूर्ण अधिकार था। इसके साथ ही साथ खाप पंचायतों का मुख्य उद्देश्य गाँवों में
शिक्षा को बढ़ावा देना, विशेषकर
महिला शिक्षा को, सामाजिक सौहार्द बनाए रखना, अनेकों
सामाजिक बुराइयों पर रोक लगाना जैसे बाल विवाह, दहेज प्रथा,
भ्रूण-हत्या, जाति-प्रथा, नशा-खोरी व समाज
में व्याप्त अनेक कुरीतियों के खिलाफ़ कार्य करना इत्यादि खाप पंचायतों का मुख्य
उद्देश्य होना चाहिए साथ ही साथ खापों को समाज में होने वाली अनेक सामाजिक
गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा
लेना चाहिए।
सर्वखाप के पंचों और फैसलों की
अहमियत - सर्व-खाप पंचायत में खापों के
सामाजिक फैसले बहुत अहम हुआ करते थे जो पंच परमेश्वर के नाम से सत्य पर आधारित
सर्वमान्य फैसले होते थेl जिनकी कभी
कोई आलोचना नहीं हुई। डॉक्टर एम. सी. प्रधान ने
अपने शोध में खापों के फैसले को उच्च कोटि का माना और उन्होंने इनको क्रमबद्ध लिखा
है। इस शोध को 1966 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के द्वारा अंजाम दिया गया तथा
इसकी रिपोर्ट भी वहीं पर अंग्रेजी में छपी थी। इसी प्रकार से सर्व-खाप पंचायत ने
पूरे उत्तर भारत में एक संगठित सामाजिक आधार पर विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरने
वाली परंपरा निर्धारित की जिसका विश्व में कोई जवाब नहीं है। इसके अतिरिक्त इन
खापों के पंचों को राजा और नवाब भी अपने यहाँ फैसले निपटाने के लिए बुलाते थे ऐसे
अनेक उदाहरण खाप के अभिलेखागार में उपलब्ध हैं।
वर्तमान परिस्थिति - आजादी के
बाद खापें केवल सामाजिक फैसलों तक सीमित रह गईं और धीरे-धीरे उनमें नीतियों का
प्रभाव स्पष्ट रूप दिखने लगा। वर्तमान खापों के क्षेत्र में जाट बाहुल्य होने के
कारण लोग इन्हें केवल जाटों की खाप मानने लगे तथा स्वयं जाट भी ऐसा ही समझने लगे
और स्थिति यहाँ तक आ पहुंची कि आज जब दूसरी जातियों को सम्मिलित करने की बात आती
है, तो उन्हें सर्व-जातीय खाप
कहना पड़ रहा है। जबकि खापें तो शुरू से ही सर्वजातीय थी और इनका नाम केवल खाप और
सर्व-खाप था। वर्तमान में कोई भी 15-20 व्यक्ति
इकट्ठे होकर कोई फैसला कर लेते हैं और उसे खाप का नाम(मीडिया के अनजान पत्रकारों
द्वारा) दे दिया जाता है जबकि खाप की पंचायत बुलाने का तौर-तरीका निश्चित है। ऐसे
ही कुछ लोगों ने(जिनका खापों से कोई लेना देना नहीं) इकट्ठा होकर एक जाट लड़का और
एक जाट लड़की जो कि भिन्न गोत्र के होते हुए एक ही गाँव के थे, आपस में
शादी कर के पहले ही गांव छोड़ चुके थे, को इन्हें
दोबारा से बहिन-भाई बनाने का फतवा जारी कर दिया गया, जो बहुत ही
शर्मनाक था, जबकि इसके लिए खापें बदनाम
हुई, हालाँकि उनका कोई योगदान
इसमें नहीं था।
इसी प्रकार कुछ लोग खापों के
नाम से बयान देते रहे कि पुश्तैनी जमीन में लड़की का हिस्सा नहीं होना चाहिएl कुछ ने
बयान दिया कि शादी के लिए लड़की की उम्र 16 वर्ष हो,
उत्तरप्रदेश में खापों के नाम से तो यहाँ तक कह दिया गया कि लड़कियों को जींस-पैंट
नहीं पहननी चाहिए(जबकि वो पंचायत मुस्लिम समाज की थी) और मोबाइल फ़ोन नहीं रखने
चाहिए। यहाँ तक कि 40 वर्ष से कम उम्र की औरतों को अकेले बाजार में नहीं जाना
चाहिए। ये फैसले जिन लोगों ने लिए, वे
मूर्खतापूर्ण थे, लेकिन
बदनाम खापें हुई और दुष्प्रचार का प्रभाव यह हुआ कि आँनर किलिंग का ठीकरा भी खापों
के सिर फोड़ दिया गया और इसे तालिबानी कहा जाने लगा। लेकिन याद रहे, खापें रहें
या न रहे, उत्तरी भारत की स्थानीय
जातियां अपने ही गोत्र में शादी करने की कभी भी इजाजत नहीं देंगी क्योंकि ये प्रथा
पूर्णतया विज्ञान पर आधारित है।
खाप पंचायतों को समय के साथ अब
खुद में भी बदलाव लाना होगा। खाप पंचायतों को आपसी मतभेदों को छोड़कर वर्तमान में
एक छत के नीचे आना होगा जिससे सभी खापें अपनी एकता का प्रदर्शन कर सकें। साथ ही
खाप पंचायतों को वर्तमान समय में पढे-लिखे युवा शहरी वर्ग को भी अपने साथ जोड़ने के
लिए डिजिटलाइज होने की भी ज़रूरत है। खाप पंचायतों को अपने गौरवशाली इतिहास के साथ-साथ अपनी
खाप के गाँवों के प्रमुख मौजिज व्यक्तियों के नाम, संपर्क
सूत्र, खाप के गांवों के नाम व जिला, अपनी खाप
के प्रसिद्ध व्यक्तियों, खिलाड़ी, अधिकारी, बड़े पदों
पर बैठे व्यक्तियों के नाम, पता, संपर्क-सूत्र, उनकी जीवनी
व उनके संघर्ष के दिन, उनके इंटरव्यू इत्यादि एक वेबसाइट बनवाकर उस पर डाल देना
चाहिए। ताकि युवा पीढ़ी उन्हें पढ़कर प्रेरित हो सकें और वो भी भविष्य के ओलंपियन, राजनेता, आईएएस, आईपीएस व
अपने देश के प्रबुद्ध नागरिक बन सकें। इस मामले में नरवाल खाप ने शानदार काम किया
है।
केस अध्ययन - सन 1985 में
गाँव खेड़ीनरू, जिला करनाल, हरियाणा में
दो सगे भाइयों के बेटों व पोतों के बीच जमीन विवाद हुआ। जो कि दो सगे भाइयों
ताराचंद व रुलियाराम, जिसमें
ताराचन्द के पाँच बेटों सतबीर, दलबीर, बलबीर, रणबीर व महाबीर
बनाम रूलियाराम के चार पोतों अजयवीर, अमित, नरेश व
अमरीश के बीच करीब चार एकड़ जमीन पर विवाद हुआ दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर
प्राथमिकी रपट दर्ज करवा दी और मामला न्यायालय में Ajayveer
Singh Etc. VS Satbir Singh Etc. के नाम से जिला न्यायालय करनाल
में दाखिल हुआ और मामला न्यायालय में चलता रहा। समय के साथ-साथ दोनों पक्षों की रंजिशें
बढ़ती गयी। नतीजतन रुलियाराम के पोतों ने ताराचन्द के बेटों पर अपने राजनीतिक
प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए 2007 से 2009 तक 12 झूठी प्राथमिकी रपट दर्ज करवाई।
फलस्वरूप चाचा भतीजों में रंजिश बढ़ती गई और आपस में एक दूसरे की हत्या करने पर
उतारू हो गए। लिहाजा गाँव के प्रबुद्ध व्यक्तियों ने इकट्ठे होकर दोनों पक्षों से
बातचीत की व चूंकि गाँव नरवाल गोत्र का था, इसलिए पूरी
नरवाल खाप की पंचायत गाँव के लोगों ने 8 मार्च 2009 को बुलाई। पंचायत की अध्यक्षता
नरवाल खाप के प्रधान चौधरी भलेराम नरवाल ने की। पंचायत ने दोनों पक्षों के साथ
न्याय करते हुए, एक ऐसा फैसला दिया, जिससे
दोनों भाइयों के बीच विवाद खत्म हुआ और पुन: भाईचारा शुरू हो गया। इसके बाद मामले
में केसों को समाप्त करवाने के लिए जिला न्यायालय में अर्जी दाखिल करके पंचायती
समझौता माननीय न्यायाधीश श्री रजनीश बंसल जिला सेशन जज व श्रीमती वाणी गोपाल शर्मा
एडीजे करनाल के समक्ष रखा तो उन्होंने पंचायती फैसले की तारीफ की और हूबहू वही
फैसला करते हुए न्यायालय ने मामले को 2012 में 27 वर्ष बाद सुनाया। साथ ही साथ
जिला सेशन जज ने टिप्पणी की कि खाप पंचायत का फैसला न्यायालय के फैसले से भी अच्छा
है और न्यायालय ने भी इस फैसले से सीखा है और ऐसा फैसला तो हम भी नहीं कर सकते थे।
इसी प्रकार एक अन्य विवाद गांव
धनाना, जिला सोनीपत में दो पड़ोसियों
सुरेश, रमेश, बलवान बनाम
बदलू पुत्र जोगा के बीच में एक गली को लेकर विवाद हुआ। इन दोनों पक्षों ने 1953
में जिला न्यायालय में मुकदमा दायर किया और मामला 2002 तक चलता रहा, पर न्यायालय
इस केस का निपटारा नहीं कर पाया। अंत में गांव के प्रबुद्ध लोगों ने गाँव में
शांति व भाईचारा कायम करने हेतु दोनों पक्षों से बातचीत की और पंचायती ढंग से मामले
को निपटाने के लिए दोनों पक्षों को सहमत किया। 2002 में कथूरा बारहा (12 गाँवों की
पंचायत) की पंचायत बुलाई गई, जिसकी
अध्यक्षता नरवाल खाप व कथूरा बारहा के संयुक्त प्रधान चौधरी भलेराम नरवाल ने की और
मामले का निपटारा पंचायती ढंग से हो गया। जिसका दोनों पक्षों ने स्वागत किया और
दोनों के बीच विवाद खत्म हो गया व गाँव में शांति व्यवस्था कायम हो गई।
खापों के कुछ निंदनीय फैसले - खाप
पंचायतों के अच्छे फैसलों के साथ-साथ कुछ निंदनीय फैसले भी रहे हैं, जिनमें अगर
हम वर्तमान संदर्भ को ही देखे तो उत्तरप्रदेश के गठवाला खाप के थांबा बहावड़ी
चौधरी बाबा श्याम सिंह मलिक ने केंद्र सरकार द्वारा नए ड्राफ्ट हुए बिल में
लडकियों की शादी की उम्र 18 से 21 करने का विरोध किया है। जबकि केंद्र सरकार का यह
फैसला लड़कियों के पोषण, स्वास्थ्य
और शैक्षिक स्थिति में काफी सुधार लाएगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह फैसला इस खाप
का निंदनीय फैसला था। ऐसे ही कुछ निंदनीय फैसले कुछ खापों व खाप प्रधानों द्वारा
समय-समय पर राजनीतिक व आपसी स्वार्थ और मीडिया में बने रहने के लिए मृत्युदंड, ऑनर-किलिंग, सामाजिक बहिष्कार
व रूढ़िवादी फैसले लेते रहे हैं जो कि पूर्णतया गलत है। खाप प्रधानों व पंचायतों
को ऐसे निंदनीय फैसले नहीं करने चाहिए।
निष्कर्ष :
आज ज़रूरत है खापों को अपनी मूल
संस्कृति और पहचान पर वापस लौटाने की। अपनी सामाजिक चिंतन-मंथन, मानवीय
एकता और सुदृढ़ता की नीतियों पर सामूहिक रूप से वापस लौटने की। अपने समाजशास्त्र और
मनोविज्ञान को लिखने की, नई पीढ़ी के
साथ बैठ उनकी तर्कसंगत विवेचना की। आपके जो सिद्धांत आज के दिन इतिहास-से बने
दिखते हैं, उनको नए साँचे में ढालने की।
अगर ऐसा कुछ नहीं किया गया तो विख्यात अधिवक्ता राम जेठमलानी का खापों को “तालाब
का ठहरा पानी” कहना और आने वाले समय की बड़ी हकीकत न बन जाए।
संदर्भ :
1- हरियाणा की
दुविधा समस्याएँ और संभावनाएँ, डी.आर.चौधरी, राष्ट्रीय
पुस्तक न्यास भारत, पृष्ठ
संख्या 14-19
2- सर्व-खाप
पंचायतों का इतिहास, जसबीर सिंह
मलिक, मुख्य संपादक जसबीर मलिक के
स्वामित्व में दुर्गेश्वरी प्रिंटिंग प्रेस गोहाना स्टैंड रोहतक से प्रकाशित,पृष्ठ
संख्या 18-22
3- जाट महान
पत्रिका,संपादक राजवीर राज्याण के
स्वामित्व में काकडोलिया प्रिंटिंग प्रेस, झज्जर रोड
रोहतक से प्रकाशित, मई 2017 अंक, पृष्ठ
संख्या- 36-38
4- सर्वखाप के
बलिदान का इतिहास, संपादक
महिपाल सिंह आर्य, न्यू एकता प्रिंटिंग प्रेस हिसार, पृष्ठ
संख्या 52-63
5- खाप
पंचायतों की प्रासंगिकता, डी.आर.चौधरी, राष्ट्रीय
पुस्तक न्यास भारत, पृष्ठ
संख्या 4-155
6- NDTV की
विशेष रिपोर्ट,अक्टूबर,11,2014https://youtu.be/48xBeFfEdeo
7- नरवाल खाप
के प्रधान चौधरी भलेराम नरवाल के साथ इंटरव्यू(लेखक के पास सुरक्षित है)
8- खाप नेता
बाबा श्याम सिंह मलिक का बयान दैनिक भास्कर के 17 दिसंबर 2021 को दिए गए अंक से
https://dainik-b.in/WSPZaHzW1lb
10- http://vpatrika.com/khaap_india_91124.html
11- http://www.countercurrents.org/rawat181012.htm
12- http://intersections.anu.edu.au/issue34/thapar-bjorkert_sanghera.htm
14- http://www.azadindia.org/social-issues/khap-panchayat-in-india.html
प्रदीप
छात्र, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सेक्टर-1, पंचकुला, हरियाणा
pardeepsigroha100@gmail.com ,7404360100
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : Yukti sharma Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
Very good
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