डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
शोध सार : मानव अधिकार की सार्वभौमिकता नितांत आवश्यक है। इसके लिए सन 1948 से लगातार संयुक्त राष्ट्र द्वारा कोशिश की जा रही है कि इसकी पहुँच आम-जन तक बने। वस्तुतः विश्व की सरकारें अनेक चुनौतियों का सामना कर रही हैं इससे मानवाधिकार संरक्षण की चुनौतियाँ नए-नए रूपों में हमारे सामने उभरी हैं। मानव अधिकार की यह चुनौतियाँ क्या हैं, इसके लिए की जा रही कोशिशों के आलोक में यहाँ विषयवस्तु को समझने की कोशिश की गई है। राज्य के उत्तरदायित्व और प्रतिबद्धताओं के लिए सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी)-2030 और महामारी के बाद मानव अधिकारों की चुनौतियों पर भी पड़ताल इस प्रपत्र में शामिल है।
बीज शब्द : मानव अधिकार, राज्य, संसद, एसडीजी-2030, संयुक्त राष्ट्र और उम्मीदें।
मूल आलेख : मानव अधिकारों के लिए किए जा रहे प्रयासों का इतिहास द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की पहल के रूप में मिलता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में 73 वर्ष पहले, 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा-पत्र को पारित करके एक बेहतर विश्व के निर्माण में पेश आने वाली विषमताओं का उन्मूलन करने का प्रयास किया गया था। यह विषमताएँ थीं- डिग्निटी, फैटर्निटी और लिबर्टी की। ये विषमताएँ मनुष्य से जुड़ी थीं। मानवाधिकार की थीं। संयुक्त राष्ट्र की श्रेष्ठ पहल के रूप में सार्वभौम घोषणा पत्र की स्वीकृति और उसके अमलीकरण को भी देखा जाता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त बैचलरेट ने ध्यान दिलाया कि समानता, मानवाधिकारों और उन सभी समाधानों के केन्द्र में है, जिनकी आवश्यकता वैश्विक संकटों पर पार पाने के लिये होगी... इसका अर्थ यह नहीं है कि हम सभी एक जैसे दिखें, एक तरह से सोचें या एक तरह से काम करें। इसके बिलकुल विपरीत, इसका अर्थ है कि हम अपनी विविधता बनाए रखें और यह माँग करें कि हर किसी के साथ बिना किसी भेदभाव के बर्ताव किया जाएǀ1 दरअसल, भेदभाव मानवाधिकारों की मूल चिंता है। चाहे वह किसी भी प्रकार से भेदभाव किया जाता हो। स्त्रियों, बच्चों और आदिवासियों के साथ किया जाने वाला भेदभाव हो अथवा कोई जातीय भेदभाव हो, यह सभी मानव अधिकारों के एक प्रकार से अतिक्रमण है। इसे मनुष्य का मनुष्यता के ख़िलाफ़ कार्यवाही समझी जाएगी।
मानव अधिकारों के घोषणा पत्र में 30 सूत्रीय संस्तुतियाँ रहीं जिसकी व्याख्याएँ अब सतत विकास लक्ष्य-2030 के माध्यम से पूर्ण करने की कोशिश की जा रही हैं।2 एसडीजी-2030 में 17 सूत्रीय एजेंडे निर्धारित हुए हैं जिसकी मनुष्य के बुनियादी चीजों से लेकर सतत विकास लक्ष्य तक की वकालत की जा रही है। इसके सन्दर्भ में यह कहा जा रहा है कि हम दुनिया का कायाकल्प करने की दहलीज पर खड़े हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदायों ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से 17 सतत् विकास लक्ष्यों की ऐतिहासिक योजना शुरू की है जिसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक अधिक सम्पन्न, अधिक समतावादी और अधिक संरक्षित विश्व की रचना करना है।3 ऐसी मनुष्यता की कल्पना एसडीजी-2030 द्वारा की जा रही है, जिससे हमारे मानवीय सरोकार सच्चे मायने में हमारे लिए सुखकारी हों। मानवाधिकारों की दिशा में बढ़ने का एक प्रकार से बड़ा दावा है। 2030 बहुत निकट है। हम अनेक दशक ऐसे प्रयास करके 21वीं सदी के उस पड़ाव पर हैं और अब चीज़ें और तेजी से बदल रही हैं। मूल्यों में गिरावट उत्तर-सत्य की ओर बढ़ चुका है और व्यक्ति, समाज, व्यवस्था और राज्य सब ‘सब कुछ बढ़िया’ है, होने का ढोंग रच रहे हैं। ऐसे समय में मानव अधिकारों की चिंता होना आवश्यक है। मनुष्यता और प्रकृति के हितैषी दोनों को सुरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध जो हैं और वे अपने तरीके से कार्य कर रहे हैं।
राज्यों के समक्ष मानव अधिकार की चुनौती –
मानव अधिकारों के हनन के मामले को नियंत्रित करने और संयमित मानव अधिकारों के बुनियादी प्रतिष्ठा की जिम्मेदारी तो राज्यों पर होती है। राज्य संसद-सदन की कार्यवाही से अपना एजेंडा लागू करते हैं और सदन से पारित क़ानून एवं नियम देशों के लिए सहायक होते हैं। सदन तो जनता द्वारा सदन के लिए चुने हुए प्रतिनिधियों के द्वारा किसी न किसी रूप में संचालित है लेकिन चिंताजनक बात यह है कि सदन के प्रतिनिधियों द्वारा भी असुरक्षा और गरिमा के हनन की रिपोर्ट्स सामने आ रही हैं। दुनिया भर में बहुत से सांसद, दुर्व्यवहार, गाली-गलौज और यहाँ तक कि मौत की धमकियों का भी सामना करते हैं और इस समिति की भूमिका, उन सांसदों की हिफ़ाज़त करना व उनकी पैरोकारी करना है। पिछले वर्ष की तुलना में वर्ष 2021 के दौरान ऐसे मामलों में 22 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है और 42 देशों में 552 सांसदों ने अपने साथ उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज कराई हैंǀ4 यदि संसद सदस्य ही शिकायतें लेकर घूम रहे हैं तो आम आदमी की स्थिति क्या होगी? इंटरनेशनल पार्लियामेंटेरियन्स यूनियन (आईपीयू) का कहना है कि इनमें ज़्यादातर मामले, विपक्षी सांसदों से जुड़े होते हैं, जिन्हें अपना कामकाज करते हुए, सरकारी ताक़तों के इशारे पर या उनके हाथों दुर्व्यवहार या उत्पीड़न का सामना करना पड़ा हैǀ सांसदों के विशेषाधिकारों के हनन के ज़्यादातर मामले, संसदीय शासनादेश के अनुचित स्थगन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन, परेशान करने या धमकियाँ देने, और निष्पक्ष मुक़दमे की कमी होने के हैं।5 अफगानिस्तान और म्यांमार के इसी वर्ष के घटनाक्रम वहाँ के मानवाधिकारों के साथ हुए खिलवाड़ से पूरा विश्व परिचित है। असंख्य लोगों के पलायन और शरणार्थी के रूप में तब्दील होते जीवन की दशा देखकर यह लगता है कि मानव अधिकारों से बढ़कर शासन और सत्ता की होड़ है। आम ज़िंदगी से जुड़े प्रश्न गौण हो गए। सत्ता के लिए मनुष्यता को रौंद देने की पूरी कोशिश ने मानवीय संवेदना से जुड़े विषय को पीछे छोड़ दिया है। इंटरनेशनल पार्लियामेंटेरियन्स यूनियन(आईपीयू) की निर्णयकारी संस्था– गवर्निंग काउंसिल ने हाल ही में स्पेन के मैड्रिड में हुई 143वीं सभा में सांसदों के मानवाधिकारों पर समिति द्वारा दाख़िल किए गए अनेक निर्णयों को स्वीकृत किया था। ये मामले 13 देशों से सम्बन्धित थे जो ब्राज़ील, पाकिस्तान, इराक़ और लीबिया सहित अनेक अन्य देशों से थे।6 भारत के राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष ने अपने एक अभिभाषण में कहा- 'राज्य' स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक अवसरों के न्यूनतम स्तर तक पहुँचने के लिए सुविधाएँ प्रदान करने के लिए बाध्य है। राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों वाले संविधान के भाग चार का उपयोग सामाजिक-आर्थिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक नींव के रूप में किया जाता है। लाभ के वितरण और वितरणात्मक न्याय के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन की आवश्यकता है। हमें उपायों में सुधार करके कमजोर वर्गों के वैध अधिकारों और आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को शक्ति, सामग्री, संसाधनों और अवसरों को साझा करना चाहिए।7 प्रत्येक राज्य इसी प्रकार की संकल्पना प्रकट करते हैं। दुनिया के राज्यों के भीतर मानव अधिकारों की स्थिति फिर भी नाजुक क्यों बनी हुई है, सवाल यह भी है। युद्धरत और संघर्षशील देशों के भीतर मानव अधिकार की समस्या आम बात है। अब लेबनान का ही उदाहरण लें तो अध्येता अपने विश्लेषण में राज्य की विफलता की बात करते हैं। डॉ. फज्जुर रहमान सिद्दीकी ने अपने लेख लेबनान : एक असफल राज्य की कहानी में लिखते हैं- वर्तमान उथल-पुथल विभिन्न राजनीतिक संगठनों द्वारा अनन्य राजनीति की खोज की परिणति प्रतीत होती है और अवन्नत राजनीतिक व्यवस्था के साथ लोगों का बढ़ता मोहभंग, पिछली सरकारों का खराब शासन, बेरूत विस्फोट, विभिन्न दलों के बीच खुला सांप्रदायिक टकराव और दोष खेल, एक साल के लिए केंद्रीय प्राधिकार की अनुपस्थिति और बिगड़ते आर्थिक प्रदर्शन ने इस संकट को और बढ़ा दिया है। इन सभी ने मिलकर लेबनान को एक ऐसे राज्य के रूप में लाया है जहाँ कोई लेबनान को विफल राज्य के उदाहरण के रूप में देख सकता है।8 विफल होते राज्यों की इस प्रकार की अंतर्कथा मानवाधिकारों का संरक्षण करने में कितनी सफल हैं, कितनी विफल इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
साभ्यतिक विमर्श में मानव अधिकारों की राजनीति -
सेवानिवृत्त राजदूत दिलीप सिन्हा का मानना है कि बहस और राजनीति के अलावा हर देश को इस बात पर अधिक से अधिक ध्यान है कि दूसरे देशों द्वारा उनके बारे में क्या कहा जा रहा है। वे सभी नकारात्मक धारणाओं के प्रति संवेदनशील हैं। जब तक वे रहते हैं तब तक आशा की किरण है और मानव अधिकारों में आगे भी आंदोलन होगा।9 सभ्यता विमर्श के मापदंड स्थिर नहीं होते। इसलिए मूल्यों और नैतिक साहस में गिरावट से अपने अनुसार सभ्यता प्रत्यारोपित करने की कोशिशें मनुष्य समाज के लिए प्रायः चुनौतियाँ खड़ी करती हैं। अपने हित में राज्यों ने अपने-अपने तरीके से रणनीतियाँ तैयार कीं लेकिन वैश्विक स्तर पर एकरूपता नहीं लाई जा सकतीǀ किसी भी नीति का फायदा उठाकर राज्य को अपने लिए ज्यादा और वैयक्तिक और सामूहिक अधिकारों के लिए जितना प्रभावी कदम उठाना चाहिए उतना कारगर कदम नहीं उठा पाया। यह समस्या भी एक सार्वभौम समस्या बन गई है और इसकी वजह से मानव अधिकारों की व्याप्ति उतने स्तर पर नहीं हो पा रही है जितने स्तर पर होनी चाहिए। यह ऐसा नहीं है कि कुछ खास देश ऐसा कर रहे हैं अपितु यह विकसित देशों में भी समस्या समान रूप से महसूस की जा रही है।
मानवाधिकार रक्षकों के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र में कहा गया है- हर राज्य की यह मूलभूत जिम्मेदारी व कर्तव्य है कि वह समस्त मानवाधिकारों व मूलभूत स्वतन्त्रताओं को लागू व प्रोत्साहित करे। ऐसे कदम उठाए जो कि समस्त ऐसी स्थिति को बनाए जो सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा अन्य क्षेत्रों में कारगर हो और ज़रूरी है कि साथ ही वे समस्त क़ानूनी शर्तें जो यह सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी हैं कि सभी व्यक्ति अपने राज्य क्षेत्र में, व्यक्तिगत तथा दूसरों के साथ सामूहिक रूप से सभी अधिकारों व स्वतन्त्रता का उपभोग करने योग्य हो।10 लेकिन विडम्बना यह है कि राज्यों के नेतृत्वकर्ता यह कभी एहसास नहीं करा पाए कि वे संपूर्ण देशों के लिए प्रेरणा बन सकते हैं। राज्यों की अपनी बहुत सारी कमजोरियाँ 21वीं सदी के इस पड़ाव पर साफ झलक रही हैं। राज्यों की यह कमजोरी मानव समाज और सभ्यता के लिए कोई अच्छी खबर नहीं है।
भारत की पहल
: भारत का सच -
डॉक्टर हंसा मेहता 1947-48 के दौरान संयुक्त राष्ट्र के सार्वभौमिक मानवाधिकार आयोग की दूसरी महिला सदस्या थीं। उन्होंने एक प्रतिवेदन में कहा था- सभी मनुष्य समान पैदा होते हैं। यद्यपि इसमें संशोधन करके यह कहा गया कि सभी मनुष्यगण समान एवं स्वतंत्र पैदा होते हैं।11 भारत ने तो शुरुआती समय से मानव अधिकारों की संकल्पना एवं उसके अनुमोदन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इतने लंबे समय में यद्यपि यह अफसोसजनक है कि कोई उल्लेखनीय कार्य मानव अधिकार संरक्षण के लिए नहीं कर पाया है लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसने कुछ नहीं किया। भारत के राष्ट्रपति श्रीयुत रामनाथ कोविंद ने 10 दिसम्बर, 2021 को राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के एक संबोधन में जैसा कि कहा- घोषणा (मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा) के साथ वैश्विक समुदाय ने बुनियादी मानवीय गरिमा को औपचारिक मान्यता दी है। हालांकि सदियों से यह हमारी आध्यात्मिक परंपराओं का हिस्सा रहा है। 12 भारत अपने आध्यात्मिक होने और अपनी परंपरा में बहुत ही संवेदनशील होने का दावा करता रहा है लेकिन संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार उच्चायोग की उच्चायुक्त रहीं नवी पिल्लई ने लिखा है- मेरे लिए समानता नस्ल, लिंग, वर्ग-आधारित और अन्य प्रकार के भेदभाव के सभी रूपों का उन्मूलन है....13
यह तो ठीक है लेकिन उन्होंने जो अपने एक परिचय में लिखा है वह इसी भारत की कहानी है। अनेकों अतिक्रमण से निकले अपने जीवन की कहानी वह एक बार में कह देती हैं। इसलिए अपनी सभ्यता और सोच की कहानी के भीतर छुपी दूसरी पीड़ाएँ और अंतर्कथा से भी भारत इनकार नहीं कर सकता।14 भारत के उपराष्ट्रपति श्री एम. वैंकैया नायडु ने मानव अधिकार आयोग के एक कानक्ल्यु में कहा कि राज्य का प्राथमिक दायित्व अहस्तांरणीय अधिकारों का संरक्षण करना है। मानव अधिकारों को 2030 तक सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनिवार्य माना गया है। भारत ने वैश्विक स्तर पर मानव अधिकारों के लिए दृढ़ता से आवाज़ उठाई है तथा विभिन्न मानव अधिकार सम्मेलनों के लिए हस्ताक्षर किए हैं। यह ’शेयर एण्ड केयर’ के दर्शन का अनुसरण करता है। मानव अधिकारों में अन्य बातों के साथ-साथ स्वास्थ्य देख-रेख, भोजन, शिक्षा, व्यापार, किशोरों एवं वृद्धजनों के मुद्दे भी शामिल हैं।.....(नायडू ने मानव अधिकारों के उल्लंघन के निपटान एवं अधिकारों के संरक्षण के प्रति एक वॉचडॉग के रूप में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की बढ़ती भूमिका को रेखांकित किया।) मानव अधिकारों के संरक्षण के सामने भ्रष्टाचार, गरीबी, आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन जो इस समय देश एवं विश्व झेल रहा है, गम्भीर चुनौतियाँ हैं।15 नायडू जी ने उस सच को सामने रखा जिससे अवगत होना हर भारतीय का कार्य है। कार्यदायी संस्थाएँ भी इसको उतनी ही गम्भीरता से लें और प्रभावकारी कदम उठाएँ तो निःसंदेह मानव अधिकार संरक्षण के समक्ष खड़ी अनेक चुनौतियाँ सहज ही निपटाई जा सकती हैं। खैर, 11 दिसम्बर 2018 के संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी रिपोर्ट-पहल का अवलोकन करें तो उसमें यह मिलता है कि मानवाधिकारों के प्रति ख़तरों को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में उजागर किया गया, जहाँ परोपकारी संस्थाओं, ग़ैर-सरकारी संगठनों और प्रबुद्ध समाज के सदस्यों ने संयुक्त राष्ट्र के सहायक मानवाधिकार महासचिव एंड्रयू गिलमोर के साथ मिलकर इस बात पर चर्चा की कि आधुनिक चुनौतियाँ अधिकारों पर कैसे असर डाल रही हैं जिनकी 70 वर्ष पहले कल्पना भी नहीं की गई थी। इस दौरान डिजिटल टैक्नॉलॉजी का भी उल्लेख हुआ जिसके अनेक लाभ हैं, लेकिन जो अपने साथ नए जोखिम भी लेकर आई है जो मानव अधिकारों के लिए मौजूदा ख़तरों को दोहराकर और बढ़ा भी सकती है। जलवायु परिवर्तन का जोखिम पृथ्वी के अधिकतर हिस्से को रहने लायक नहीं छोड़ेगा।16 इस वर्ष भी मानव अधिकार उच्चायुक्त की ओर से विषमता मिटाने की पहल उल्लेखनीय है। इसमें शामिल लोग किस प्रकार अनेक पहल को ज़मीनी स्तर पर ले जाते हैं देखने वाली बात यही होती है। उसे तो उन लोगों की पहुँच का हिस्सा बनाना आवश्यक है जो इसके सही मायने में हक़दार हैं।
उम्मीदें....?
दुनिया की प्रत्येक सरकारें किसी न किसी ऐसी परिस्थितियों की मारी हैं जिससे वे वेलफेयर स्टेट होने का दावा तो करती हैं लेकिन उनके कल्याणकारी कार्य उतने ही मानव अधिकारों के संरक्षण की दिशा में निराशाजनक होते हैं। इस प्रकार अतिरेक में जीने वाली सरकारें अपने रिपोर्ट्स में डाटा संकलन अच्छे से करती हैं ताकि उनका चेहरा अकल्याणकारी न लगे। वे दुनिया के सामने अपने ग्लैमर को प्रकट करती हैं किंतु दुर्भाग्य से पोल तो कभी न कभी खुल ही जाती हैं। इसका ताजा उदाहरण कोविड-19 से जूझने के बाद सरकारों का हमारे सामने है। विकसित देशों में भी पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर होने के बावजूद महामारी से निपटने के लिए जिन चुनौतियों से मुकाबला करना पड़ा है, उससे पूरा विश्व सूचना और तकनीकी के माध्यम से विज्ञ है।
किंतु अंधेरे को देखकर घबराने से अंधेरा नाउम्मीद कर देता है। इसलिए आशावादी लोगों के लिए उम्मीद की किरण हमेशा उजाले की ओर ले जाती है। मानव अधिकार की भी अधिकतम लोगों तक पहुँच बन रही है लेकिन यदि राज्य अपनी इच्छाशक्ति पर भरोसा करके मनुष्य केंद्रित उन्नयन के लिए प्रतिबद्ध होंगे, तभी यह सम्भव है। दुनिया के राज्य यदि किसी भी तरीके के अतिक्रमण को रोकते हैं और सबकी गरिमा, स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं तो समानताबोध स्वतः आएगा और सर्वोदयी सभ्यता में सभी लोग सम्मान प्राप्त कर सकेंगे।
संदर्भ :
1.
समानता है मानवाधिकारों के केन्द्र में', विषमताओं
से निपटने की पुकार. https://news.un.org/feed/view/hi/story/2021/12/1050662
2.
17 सतत् विकास लक्ष्य और 169 उद्देश्य सतत्
विकास के लिए 2030 एजेंडा के अंग हैं जिसे सितम्बर,
2015 में संयुक्त राष्ट्रमहासभा की शिखर बैठक में 193 सदस्य देशों ने अनुमोदित किया था। यह एजेंडा पहली जनवरी, 2016 से प्रभावी हुआ है। इन लक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए हुई अभूतपूर्व
परामर्श प्रक्रिया में राष्ट्रीय सरकारों और दुनिया भर के लाखों नागरिकों ने
मिलकर बातचीत की और अगले 15 वर्ष के लिए सतत् विकास हासिल
करने का वैश्विक मार्ग अपनाया।
3.
https://in.one.un.org/sustainable-development-goal/
4.
सांसदों का उत्पीड़न रिकॉर्ड उच्च स्तर पर,आईपीयू/
https://news.un.org/feed/view/hi/story/2021/12/1050632
5.
वही
6.
वही
7.
अरुण मिश्र का 10 दिसम्बर 2021 को दिए गए अभिभाषण से
8.
डॉ. फज्जुर रहमान सिद्दीकी, लेबनान: एक असफल
राज्य की कहानी, ICWA, 8 दिसम्बर 2021
https://www.icwa.in/show_content.php?lang=2&level=1&ls_id=6664&lid=4570&s=08
9.
दिलीप सिन्हा, (सेवानिवृत्त राजदूत), अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मानवाधिकार, विशेषह
व्याख्यान,, 7 मार्च 2016,
https://mea.gov.in/distinguished-lectures-detail-hi.htm?448
10.
मानवाधिकार रक्षकों पर संयुक्त राष्ट्र उद्घोषणा, साधारण सभा 53/144, हिंदी अनुवाद: पीपुल्स वाच,
मुम्बई, एशियन फोरम फ़ॉर ह्यूमन राइट्स एन्ड
डेवलपमेंट, बैंकाक, थाईलैंड,
2010, पृष्ठ 10
11.
https://news.un.org/hi/story/2021/12/1050662
12.
https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1780200
13.
https://spark.adobe.com/page/OvsI0zfOcvJAJ/
14.
वही
15. उप राष्ट्रपति श्री एम. वैंकैया नायडु द्वारा दिनांक 8 अक्टूबर, 2018 को राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की ओर से आयोजित कॉनक्ल्यु में दिए गए अभिभाषण से
16. https://news.un.org/hi/story/2018/12/1009421
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर/डायरेक्टर, यूजीसी- एचआरडीसी
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003
hindswaraj2009@gmail.com, 9818759757
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