'वह भी कोई देस है महराज' में पूर्वोत्तर के अलगाववादी अर्थ संदर्भों की पड़ताल
डॉ. हेमंत कुमार
शोध - सार :
पूर्वोत्तर देश का वह हिस्सा है जो अपने निसर्ग सौन्दर्य में स्वर्ग और राजनीतिक-सामाजिक दृष्टि से अलगाव की भट्टी से धधकता नरक - दोनों है। कोई बड़ी हिंसक घटना को छोड़कर यह इलाका शेष देश की चेतना केंद्र में उपेक्षित पड़ा रहता है। अलगाववाद जन्य स्थितियाँ यहाँ कश्मीर से भी बदतर हैं, पर मीडिया में यह अनदेखी रह जाती है और स्वयं दिल्ली से गए मीडियाकर्मी वहाँ फौज के जासूस समझे जाते हैं। ऐसे में अनिल यादव प्रणीत चर्चित यात्रावृत्त 'वह भी कोई देस है महराज' में पूर्वोत्तर के अलगाववाद की समस्या व्यापक रूप में चित्रित हुई है, जिसकी पड़ताल प्रस्तुत शोधालेख में की गई है।
बीज - शब्द : पूर्वोत्तर, अलगाववाद, उग्रवाद, घुसपैठिए, मुठभेड़, आत्मसर्मपण, चौथ-वसूली, नरसंहार आदि।
मूल - आलेख :
जिसे हम पूर्वोत्तर कहते हैं उसमें असम, अरुणाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड और सिक्किम ये आठ राज्य आते हैं। ये आठों राज्य शेष देश के लिए प्रायः उपेक्षा, अपेक्षा और जिज्ञासा के विषय रहे हैं। उपेक्षा विकास, शिक्षा, आर्थिकी और संस्कृति के प्रति, अपेक्षा प्रचलित और प्रचारित भारतीयता के प्रति एकात्मकता की तो जिज्ञासा इस क्षेत्र के निसर्ग सौन्दर्य के प्रति अधिक रही है। हालांकि आज मेरीकॉम और मीराबाई चानू सरीखी शख्सियत पूर्वोत्तर की ही देन हैं लेकिन पूर्वोत्तर केंद्र की बजाय प्रायः परिधिस्थ ही रहा है। साहित्य जगत् में विशेष कर हिंदी में प्रायः पूर्वोत्तर से आत्मिक परिचय अज्ञेय जी के 'अरे यायावर रहेगा याद' से ही जुड़ता है। न केवल यात्रवृत्त में बल्कि अज्ञेय की कहानियों में भी पूर्वोत्तर की विशिष्ट उपस्थिति रही है, जिसका साहित्यिक स्थानीयमान निकालते हुए रीतारानी पालीवाल ने समीचीन ही कहा है “प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास, पुराण, मिथक साहित्य और लोक विश्वासों के बीच भारत के सांस्कृतिक भूगोल की तलाश इन यात्रा-वृतांतों और कहानियों का एक मूल्यवान पहलू है। दूसरी ओर आधुनिक समय के ज्वलंत प्रश्नों -उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद; जनजाति बनाम मूल धारा; मनुष्य, प्रकृति और वन्य जीवन के बीच संबंध और साहचर्य, महायुद्ध-महाशक्तियों के संघर्षों के नीचे पिसता आम आदमी विशेषकर सीमाक्षेत्रों की औरतें; सैन्य जीवन की विडंबनाएँ; मोर्चे पर तैनात सैनिकों का मानसिक, भावनात्मक अधःपतन; उनकी मानसिक-शारीरिक समस्याएँ; शौर्य और पराक्रम की छलनाएँ, पूर्वोत्तर केंद्रित इन कहानियों और यात्रा संस्थानों में अंतरंग मानवीय पीड़ा बोध और सहानुभूति के साथ मौजूद है।“[1]
अज्ञेय के बाद हिंदी साहित्य के पूर्वोत्तरीय आकाश में पुनः लगभग धुन्ध-सी छा जाती है। वह धुँधुआती धुन्ध छंटती है, इसी सदी के एक दशक बीत जाने के बाद अनिल यादव की यात्रा कृति 'वह भी कोई देस है महराज' के प्रकाशन के साथ। अनिल यादव के पास लेखन का साहसी, खोजी, पत्रकारीय कौशल तो है ही, एक खास किस्म की 'तटस्थई' भी है। तमाम वाद और आग्रहधर्मिता से परे जाकर अनिल कलम से कैमरे का काम भी बखूबी लेते हैं जो निर्मम पत्रकारीय रपटवाद की झलकियाँ देता हुआ सरकार, सेना, प्रशासन, उग्रवादी, राजनेता, पत्रकार आदि सबकी की ढकी-ढकाई हकीकत को परत दर परत उघाड़कर अनावृत करता चलता है। यों तो 'वह भी कोई देस है महराज' में पूर्वोत्तर अपने वन-वैभव, सर्वभक्षी मानुष, भूख, गरीबी, व्यापार-बणिज, आधुनिकता, फिल्म, गीत, जीव-जंतुओं आदि के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है, मगर अलगाव, आतंक और उग्रवाद के प्रामाणिक ब्योरे इसे साहित्यिक महत्त्व के साथ दस्तावेज़ी महत्त्व भी देते हैं।
पूर्वोत्तर की जनांकिकी का स्वरूप -
पूर्वोत्तर की आबादी इतनी विविधता भरी है कि आश्चर्य होना 'आश्चर्य की बात नहीं'। “प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण यह पूर्वोत्तर भारत सुदीर्घ काल से नेग्रिटो, आस्ट्रिक, किरात-मंगोल, द्रविड़, आर्य आदि सभी मानव जाति-प्रजातियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। इन्हीं जाति-प्रजातियों के अवशेष पूर्वोत्तर क्षेत्र में निवास कर रहीं विभिन्न जनजातियों तथा उप जनजातियों में दृष्टिगोचर होते हैं। असम प्रांत की पहाड़ियों व घाटियों में रहने वाली जनजातियों में बोडो-कछारी, राभा, हाजंग, लालुंग(तिवा), कार्बी(मिकिर), मिसिंग(मिरि), फाकियाल, दोवनीया, तुरूंग, आइनतीया, देउरौ (सुतिया), सोनोवाल कछारी, डिमासा-कछारी, मेस, मराण, गारो आदि उल्लेखनीय हैं। अरुणाचल प्रदेश में अका, मनपा, डफला, सेरडुकपेन, भुटिया, चुलुंग, मिजि, खोवा, आबर(आदि), आपाटानि, मिमंग, पादाम पाछि, पांग श्विमाबारि, भांगिन गालुंग, मेम्बा, गाम्बा, पर्वतरीय मिरि, खामटि, मिश्मी, नोक्टे आदि अनेक जनजातियाँ पायी जाती हैं। नगा भूमि में निवास कर रही जन जातियों में उल्लेखनीय हैं आओ, अंगामी, सेमा, लठा, रेंगमा, चांताम आदि। मणिपुर की मेइतेइ, ह्मार आदि जनजातियाँ, मिजोरम की मिजो(लुरोई), कुकिचीन आदि, त्रिपुरा की तिपुरा, मेघालय की गारो, खासी, जयंतिया आदि जनजातियाँ तथा सिक्किम की लेपचा आदि जनजातियाँ पूर्वोत्तर क्षेत्र में विद्यमान हैं।“[2] अतः अनिल यादव के इस कथन कि “रत्ती भर भी संदेह नहीं कि पूर्वोत्तर मिनिएचर एशिया है।[3] में रत्ती भर भी संदेह की गुंजाइश नहीं निकालनी चाहिए। इस वैविध्य भरे पूर्वोत्तर प्रदेशों के जेहन में पृथकतावाद का जरा सा अंश पटेल के नेतृत्व में स्वाधीनता के उषाकाल में हुए राष्ट्रीय एकीकरण के समय से ही है। उसे समय के साथ सीमित होना था पर धीरे-धीरे यह विस्फोटक रूप लेता गया और आज अनियंत्रित और भयावह रूप में वर्तमान है।
पूर्वत्तर में अलगाववादी उभार के कारण –
अनिल यादव की कलम पूर्वोत्तर के भीतरी तहों तक उतर कर सच का बयान नहीं करती वरन सच पर चढ़े तमाम आवरणों को छिलकों की मानिंद उतार कर सच्चाई को उसकी समूची नंगई के साथ सामने रख देती है। पूर्वोत्तर के अलगाववाद के कारणों को तलाशते वक्त वे सरकार, प्रशासन, सुरक्षाबल, स्थानीय राजनीति, आम अवाम, उग्रवादी, देशभक्ति ,विद्रोह नीति आदि किसी के भी पक्षधर बनकर नहीं आते। उनकी पक्षधरता है तो महज सच के प्रति। 'तट पर हूँ तटस्थ नहीं' की उक्ति- सूक्ति से बचकर वे केवल द्रष्टा बनकर दृश्य उपस्थित कर देते हैं। सच को बिना किसी लाग लपेट के प्रस्तुत कर देने के उनके अंदाज़ ने रचना की मूल्यवत्ता को समृद्ध किया है। जब वे अलगाव का कारण बाँस के फूलों को बतलाते हैं तो पाठक एकबारगी चौंक जाता हैं, लेकिन परोक्ष रूप में जब शासन-प्रशासन की संवेदनहीनता उघड़ कर सामने आती है तो उसे लेखक के साथ सहमत होना होता है। “यह फूल बिरले आते हैं लेकिन जब आते हैं तो प्रकृति नया असंतुलन पैदा करती है। चूहे इन फूलों को खाते हैं जिससे उनकी प्रजनन शक्ति असामान्य ढंग से बढ़ जाती है। लाखों की संख्या में पैदा हुए चूहे खेतों की फसलें, घरों में रखा अनाज, फल, सब्जियों समेत जो सामने आता है, सब चट कर जाते हैं। साल बीतते न बीतते अकाल पड़ जाता है। आदिवासी बूढ़ों का कहना था कि अगले तीन साल में इस इलाके में ज्यादातर बाँस की कोठियों में फूल आएँगे। उससे पहले अगर सारे बाँस जला दिए नहीं जाते तो तबाही तय है। इन्हीं फूलों ने मिजोरम में उग्रवाद की नींव रखी थी और पूर्वोत्तर का इतिहास, भूगोल दोनों बदल दिया था। तब मिजोरम असम का एक जिला हुआ करता था जिसे लुसाई हिल्स कहा जाता था। सन् 1959 में बांस के फूल खाकर उन्मत्त चूहों ने खेतों, जंगलों, बस्तियों पर धावा बोल दिया, मौतम(अकाल) की नौबत आ गई। मिजो कछार के गाँवों की तरफ़ भागने लगे, लेकिन स्थानीय आबादी और असम पुलिस ने वापस ठेल दिया। मिजो नेताओं ने असम सरकार से गुहार लगाई। जब तक प्रशासनिक मशीनरी हरकत में आती वहां अगले पच्चीस साल तक चलने वाले रक्तपात की पुख्ता नींव पड़ चुकी थी। सरकार से निराश लोगों ने आपातकालीन संगठन बनाए। इन्हीं में से एक मिजो फेमाइन फ्रंट(एमएफएफ) था जिसे सेना में हवलदार रैंक के क्लर्क रहे लाल गेंडा ने बनाया था।“[4]
इस प्रकार अधिकारी वर्ग की अमानवीय संवेदनहीनता जिस असंतोष को जन्म देती है वह उग्रवाद और अलगाववाद के रूप में सामने आता है। जिस संकट में जन सामान्य के साथ खड़ा होकर उसकी सहानुभूति और दिल जीतकर पृथकतावाद के अवचेतन की मिट्टी में दबे बीज को अंकुरित होने से रोका जा सकता था, उसे प्रशासन की इस अमानवीय और आपराधिक उदासीनता ने पूर्वोत्तर की माटी में दूब के उलझे नाल की तरह बो दिया।
जन असंतोष के कारण और भी हैं जैसे व्यापार-'बिणज' पर मारवाड़ियों का शतप्रतिशत एकाधिकार! और ये व्यापारी व्यापार भी व्यापारी की तरह न करके लुटेरे की तरह करते हैं। साबुन, टूथपेस्ट, बिस्किट आदि रोजमर्रा का सब सामान असली कीमत लेकर नकली बेचा जाता है। हालांकि दुकानदारों को भी सरकार और उग्रवादियों दोनों को टेक्स देना होता है। स्थानीय लोग बेहद गरीब हैं। अशिक्षा, अकर्मण्यता और नशे की लत ने उनकी जिंदगी को पतन के गहरे गर्त में धकेल दिया है। इन सबके अक्स किताब में पृष्ठ दर पृष्ठ उभरते हैं। एक बानगी पेश है “अकेली गुलजार जगह बाटा चौक थी जहाँ शराब की एक बंद दुकान के आगे रूखे बालों वाली लड़कियाँ खड़ी थीं। उनका खुला रेट दो सौ रुपये, साथ में एक निप था। वह च्यूइंगम के गुब्बारे फोड़ती सेना के जवानों को हल्के से सिर झटक कर आमंत्रित कर रही थी। ये शराब और ड्रग्स की लत की मारी गरीब घरों की लड़कियाँ थीं जिनकी कठोर आँखें देखकर भ्रम होता था कि सिर नहीं कुछ और हिला होगा।"[5]
असंतोष का एक कारण इतर प्रांतीय लोगों का रोजगार और रोजगार के साधनों पर आधिपत्य होना भी है। मेघालय में इन बाहरी कहे जानेवाले लोगों को 'डखार' कहा जाता है। शिलांग के परंपरागत राजदरबार के सदस्य द्वारा कागजी हकीकत और जमीनी हकीकत से लेखक को दो -चार करवाया जाता है “वही खाते के हिसाब से यहां 73 प्रतिशत खासी हैं पर असल में 70 प्रतिशत से अधिक दुकानदार डखार हैं।"[6] ऐसी हालत कर्मचारियों की है “आदिवासियों की डेढ़ सौ साल के संगठित प्रतिरोध के बावजूद चार लाख आबादी वाले शिलांग में पैंतालीस प्रतिशत से ज्यादा केंद्रीय सरकार के कर्मचारी बंगाली, असमिया, नेपाली, मारवाड़ी, बिहारी व अन्य डखार बस चुके हैं।"[7] निश्चय ही जन-असंतोष की इन परिस्थितियों को उग्रवादी अपने पक्ष में भुनाते है।
'यह भी कोई देस है महराज' रचना कारणों, परिस्थितियों के उपरी आकलन से काम नहीं चलाती बल्कि वह छुपे राज भी बाहर ले आती हैं। उग्रवाद-अलगाववाद के पीछे चुनावी लाभ-हानि की राजनीति की भूमिका भी सामने लाती है। नरसंहार और हत्या के द्वारा वोटों की गोलबंदी भी हो सकती है, यह हकीकत भी किताब के पन्नों पर दर्ज है “असम में हर चुनाव से पहले विकास और नरसंहार दोनों एक साथ होने लगते हैं। शहरी मिडिल क्लास के लिए विकास और गँवई असमिया के ध्रुवीकरण के लिए नरसंहार आजमाया नुस्खा है जो उन्हें पोलिंग बूथ तक ले ही आता है।"[8]
कभी-कभी पुलिस और सैना के हाथों जाने-अनजाने निर्दोषों की हत्याएँ भी हो जाती हैं। हाल ही में तीन-चार दिसम्बर 2021 को नागालैंड में हुई ऐसी दुखांतिका की रपटें अखबारों की सुर्खियाँ बन चुकी हैं। कहा जा रहा है कि यह अनजाने में हुआ, भ्रमवश हुआ, पर यह 'जाने' भी होता है, इसे अनिल यादव का यह यात्रवृत्त सामने लाता है। “एक पखवारा पहले एक रात किसी घर के निचले हिस्से में किराएदार के रूप में रह रहे एक मणिपुरी परिवार का दरवाजा पुलिस ने खुलवाया। घर में आए एक मेहमान से थोड़ी देर पूछताछ के बाद उसे साथ ले गए। मेहमान इंफाल से रोजगार की तलाश में यहाँ आया था। अगले दिन सुबह के अखबार में दो शवों की तस्वीर थी, जिसमें एक यह मेहमान था। दूसरा 24 साल का एक लड़का था जो गुवाहाटी विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस का कोर्स कर रहा था। अखबार में उल्फा से मणिपुर के उग्रवादी संगठन 'प्रीपाक' का गठजोड़' हेडिंग के नीचे खबर थी कि यह आदमी प्रीपाक का खजांची था था जो यहाँ उल्फा के निर्देशन में काम कर रहा था। दोनों असम के पुलिस महानिदेशक का दफ्तर उड़ाने आए थे। उनके पास से एक मोबाइल फोन, जिलेटिन की छड़, महत्वपूर्ण दस्तावेज और गुहावाटी का नक्शा बरामद हुआ है।[9]
यदि यह सत्य है तो भयानक सत्य है और ऐसे ही भयानक सत्यों को सामने लाने का काम अनिल ने अपनी इस कृति में किया है। ऐसे घटनाओं के बाद की खौफ़जदा और खौफनाक खामौशी भी 'यह भी कोई देस है महराज' में दर्ज है जो उग्रवाद को खाद-पानी मिलने के कारकों पर रोशनी डालती है।
अलगाववाद के कारणों में एक मगर मजबूत कारण ऐसे संगठनों को विदेशी ताकतों से धन, शस्त्र, प्रशिक्षण और खुला या अंदरूनी समर्थन भी है। सीमित रूप में बांग्लादेश और व्यापक रूप में पाकिस्तान की खूफिया एजेंसी आइएसआइ और चीन का समर्थन इन पृथकतावाद के झंडाबरदारों को मिलता है। इस सच को उजागर करते हुए अनिल लिखते हैं “1966 में फिजो ने अपने प्रमुख सहायक मुइवा को बर्मा की तानाशाही सरकार से लड़ रहे कचिन इंडिपेंडेंट आर्मी और उसी रास्ते पर आगे चीन की सरकार से समर्थन मांगने के लिए भेजा। कूटनीति के माहिर मुइवा के कारण चीन और पाकिस्तान दोनों नागा उग्रवाद को पालते रहे हैं। 1975 में फीजो की सहमति से उनके भाई केमियाले ने भारत सरकार से शिलांग समझौता कर लिया जिसने उन्हें अप्रासंगिक कर दिया। 1980 में फीजो को गद्दार घोषित कर मुइवा और इसाक चिशी ने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम बनाई जिसे एनएससीएन(इसाक-मुइवा) के नाम से जाना जाता है। एनएससीएन के भीतर नागा कबीलों के मतभेदों से एनएससीएन(खापलांग) का जन्म हुआ जिसका नेता खापलांग बर्मी नागा है। तब से नागाओं के उग्रवादी ग्रुप आपस में और भारत सरकार से लड़ते रहे हैं।"[10]
अलगाववाद का एक रेखांकनीय कारण पूर्वोत्तर का ईसाईकरण भी है। अलगाववादी संगठन इसे परंपरागत भारतीय धर्मों हिंदू-बौद्ध के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल करने से नहीं चूक रहे “यानी नागाओं ने चर्च और वामपंथ दोनों को अपने हिसाब से मरोड़ कर अपनाया है। उग्रवादी संगठन एनएससीएन(आईएम) की विचारधारा माओवादी है, लेकिन उसका घोषित उद्देश्य 'मसीही समाजवाद' लाना है। उसके घोषणा पत्र में नागाओं को भारत(हिंदू) और बर्मा(बौद्ध) के पतनशील धर्मों से सावधान करते हुए लिखा गया है - हिंदुत्व की शक्तियाँ…. फौज, थोक-खुदरा व्यापारियों, अध्यापकों, हिंदी फिल्मों-गानों, रसगुल्ला बनाने वाले हलवाइयों और गीता..? इन सबके जरिए मसीही भगवान को हमारी धरती से बेदखल करने के मिशन में लगी हुई हैं।"[11] इस प्रकार अनिल यादव की कृति पूर्वोत्तर के अलगाववाद के पीछे सक्रिय तमाम कारणों की खोज खबर लेती है।
पूर्वोत्तर में अलगाववाद की व्याप्ति और स्वरूप-
पूर्वोत्तर में अलगाववाद की यह समस्या कमोबेश यहाँ के सभी राज्यों में व्याप्त है। इतना ही नहीं स्वभावतः हिंसक प्रवृत्ति के ये आदिवासी समुदाय अपनी आपसी टकराहट से भी नए समीकरणों को जन्म देते हैं। यहाँ जितनी तरह की जनजातियाँ हैं, उनके उतनी ही तरह के अलग-अलग उग्रवादी संगठन भी मौजूद हैं। 'वह भी कोई देस है महराज' भी इसी सच का गवाह है। स्थितियाँ अत्यंत भयावह है पर लेखक के शब्दों में “पूर्वोत्तर दिल्ली की मीडिया की चिंता के दायरे से बाहर है। दरअसल उसे ब्लैक आउट कर दिया गया है।“[12]
वह भी कोई देस है महाराज को पढ़ते समय ऐसे लगता है जैसे समूचे पूर्वोत्तर में जंगली पेड़ पौधों की तरह अलगाववादी संगठन उभर आए हैं जो आपस में और राज्य के साथ युद्ध लड़ रहे हैं। हालांकि अलगावाद जिन कारणों से पनपा उनमें से एक कारण बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी भी हैं। असमवासियों के इसी असंतोष को साँवरमल सांगानेरिया का ने ब्रह्मपुत्र को संबोधित करते हुए कहा है “हे ब्रह्मपुत्र! …. तुम इन घुसपैठियों को अपनी उर्वर माटी का उपहार देकर हम असमियों से कौन सी गलती का बदला चुका रहे हो, तुम्हारी बनती बिगड़ती चापरियों पर इन घुसपैठियों ने शस्य उपजा कर अपनी जीविका के साधन जुटाए और अपने संख्या बल को बढ़ाया और धीरे-धीरे शहर कस्बों में अपने लिए रोजगार तलाशे। वोट पिपासु राजनेताओं ने पाला पोसा।"[13] बकौल अनिल यादव ‘इन बांग्लादेशी घुसपैठियों - जिन्हें मैंमनसिंघिया मुसलमान' कहा जाता है, को कठोर श्रम से जी चुरानेवाले असमियों ने ही खेतों में काम करने के लिए बसाया “बांग्लादेश का मैमनसिंधिया भी बिहारियों की तरह मेहनती और जन्म से किसान होता है। यहाँ के नेता मैंमनसिंघिया मुसलमान को भगाने के लिए चिल्ला रहे थे तब असमिया अपनी जमीन पर उन्हें बसा रहा था। क्योंकि मेहनत मजदूरी वाले काम के लिए उनकी जरूरत थी। बॉर्डर पर सिपाही को चालीस टका घूस देकर अभी त्रिपुरा से बांग्लादेशी आता है, लेकिन अब जगह कम और आदमी ज्यादा हो गए हैं। इसलिए सब और मारकाट मची हुई है।"[14]
अलग देश बनाने, बांग्लादेशी घुसपैठियों को भगाने, पारंपरिक राजशाही को पुनः स्थापित करने आदि के मकसद से उगे इन कुकरमुत्तिया उग्रवादी समूहों का रूप काफी बदल चुका है और निजी स्वार्थ के चलते ये संकीर्ण क्षेत्रवादी, भाषावादी, अर्थपिपासु हिंस्र आपराधिक गिरोहों में तब्दील हो चुके हैं। 'वह भी कोई देस है महराज' के मात्र 151 पृष्ठों में ही इतने आपराधिक, हिंसक ब्योरे दर्ज हैं, जिनमें इन उग्रवादी संगठनों के गुर्गों द्वारा हफ्तावसूली, तस्करी, हत्या-व्यवसाय आदि रूप सामने आते हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है –“चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी वेतन का दस प्रतिशत, ग्रेड-2 कर्मचारी बीस प्रतिशत और ग्रेड-1 सेवाओं के अफ़सर न्यूनतम तीस प्रतिशत टैक्स देते हैं। साथ ही अंडरग्राउंड के प्रतिनिधि होने का स्वांग करने वाले लफंगों की वसूली अलग चलती है। …... हर उग्रवादी संगठन मणिपुर के सीमावर्ती कस्बे मोरे पर अपना दबदबा रखना चाहता है जो ड्रग और अन्य सामानों की तस्करी का सबसे बड़ा अड्डा है। वहाँ टैक्स वसूली को लेकर जब एनएससीएन की कुकी उग्रवादियों से झड़प होती है तो मणिपुर नागालैंड नॉर्थ कछार में कुकी नागा दंगे शुरू हो जाते हैं। औरतें, बच्चे मारे जाते हैं, गाँव जलाए जाते हैं और दोनों तरफ के सिद्धांत कार नरसंहारों की राजनीतिक, समाजशास्त्रीय व्याख्या करने लगते हैं।"[15]
अब पूर्वोत्तर का उग्रवाद किसी बड़े व सामूहिक मकसद को भूलकर एक उगाही का और कमाई का धंधा बन चुका है लेखक ने ठीक ही लिखा है कि “उग्रवाद अब उद्योग है। सभी नागा उग्रवादी संगठन फीस लेकर पूर्वोत्तर के नए ग्रुपों को जंगल युद्ध का प्रशिक्षण और हथियार देते हैं। इस चीज का बड़ा हिस्सा टैक्स वसूली, अपहरण की फिरौती, नशे का कारोबार और तस्करी से आता है।“[16] उस उग्रवाद के आतंक तले अनेक टुच्चे किस्म के असामाजिक-आपराधिक तत्त्व फर्जी आतंकी बनकर दुकानदारों, व्यवसायियों, नौकरीपेशा लोगों से वसूली के कारोबार में लगे हैं।
उग्रवादी नेताओं के बदलते चरित्र
अनिल यादव की इस यात्राकृति से उग्रवादी संगठनों के शीर्ष नेताओं के शिथिल चरित्र, स्वार्थ, लालच और चारित्रिक पतन के कई उदाहरण सामने आते हैं। अब ये उग्रवादी अपने निजी हितों को अधिक महत्व देने लगे हैं। वसूली के पैसे से निजी संपत्ति खड़ी करने लगे हैं और उसे विभिन्न व्यवसायों में लगाने लगे हैं। उनके चारित्रिक पतन का प्रमाण देते हुए नॉर्थ ईस्ट फाउंडेशन के ऑफिस इंचार्ज पीकूमणि दत्ता जो उग्रवादी संगठन छोड़कर एनजीओ में अपना राजनीतिक भविष्य तलाश रहा था, उसके हवाले से लेखक लिखता है “उल्फा का अब पूरी तरह पतन हो चुका है। सेना को पहले उनके बंकरों में मार्क्सवाद की किताबें मिला करती थी, लेकिन अब हिंदी फिल्मों की हीरोइनों की तस्वीरें, रंजीत बरुआ के उपन्यास, कंडोम और शराब की खाली बोतलें मिलती हैं।"[17]
इतना ही नहीं उग्रवादी संघटनों के नेताओं के बच्चे आम आदमी के बरअक्स मँहगे स्कूलों में शिक्षा पा रहे हैं। 'अपने बच्चों' के भविष्य के लिए ये उग्रवादी नेता सरकार से अघोषित समझौता भी किए रहते हैं।
पूर्वोत्तर के अलगाववाद के बीभत्सता के चित्र –
'वह भी कोई देस है महराज' में पूर्वोत्तर के अलगाववाद के विवरणों में सबसे लोमहर्षक विवरण उग्रवादियों द्वारा हिंदी भाषियों, जिनमें बिहारियों की संख्या सर्वाधिक है, के नरसंहारों के विवरण हैं जो पाठक हो भय, क्षोभ और जुगुप्सा से भर देते हैं। आम आदमी के भय, आशंका और सिहरन को काग़ज पर उकेरते ये चित्र दो-चार नहीं दर्जनों की संख्या में दर्ज है। आम आदमी उग्रवादियों और सुरक्षाबलों, इन दो पाटों के बीच फँसा है। वारदात के बाद की फौज और पुलिस की सख्ती पूर्वोत्तर वासियों में दिल्ली के प्रति अविश्वास, असंतोष और अलगाव को और मजबूत करती है। उग्रवादियों के अमानवीय चेहरे को पूरी बीभत्सता से बेनकाब करने के लिए एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा “पुलिस के पहरे के उस पार फर्श पर खून चिपचिपा रहा था। कीचड़ के बीच जूतों के लाल निशान थे, दुकान में बारूद और जलते मांस की गंध मंडरा रही थी। कर्मचारी पथराई आंखों से सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देख रहे थे। काउंटर के पीछे दो कुर्सियों की पुस्तकें गोलियों से छलनी थी। एक गोली काला शीशा भेजते हुए सड़क पर निकल गई थी, जहां खासी वंडर मारा गया था। एक बेत की कुर्सी के कोने में अचानक ढेर सारा गाढ़ा खून था। यहाँ जोनास गिरा था। ठीक सामने दो नए टेलीविजन सेटों के पीछे के बाहरी क्षेत्रों पर मांस के टुकड़े चिपके थे। फर्श पर दो जगह ज्यादा खून था, इसे गैजेट्स के विज्ञापन वाले बेनरों से ढक दिया गया था।"[18]
जितना जुगुप्साजनक उपर्युक्त दृश्य है उतना ही चिंताजनक और पीड़ादायी वह विवरण है, जब 1921 में ब्रिटिश राज में बनी महत्त्वपूर्ण और कलात्मक इमारत अविभाजित असम और अब मेघालय विधानसभा आतंक के हाथों जलती हुई चिटक-चिटक कर गिरती है और लेखक व्यंग्यपूर्वक कहता है 'लोग विधानसभा ताप रहे थे।' यात्रवृत्त के एक और प्रसंग की चर्चा की जानी जरूरी है जिसके अभाव में अलगाववाद का पूरा अक्स नहीं उभर सकता। वह प्रसंग है मेघालय में आतंक के साये में गणतंत्र दिवस मनाने की रश्म अदायगी “सुबह संगमा मुझे एक कमरे में ले गया जहाँ मिस्कीन सूरत के चार पांच कर्मचारी बैठे थे। अचानक तनाव के तीन मिनट आए। खिड़कियों के पर्दे एक बार फिर खींच कर जाँचे गए, दरवाजे पर कुंडी लगा दी गई। एक झंडा लाकर मेज पर रखा गया, सब लोग खड़े हो गए। उसे हटाकर बिस्कुट नमकीन की प्लेटें लाई गई। एक दायित्व पूरा हो जाने के आश्वस्त भाव से सभी चाय पीने लगे।"[19]
इस तरह 'वह भी कोई देस है महराज' पूर्वोत्तर में वर्तमान अलगाववाद की असली रूप को बेबाकी और समग्रता के साथ प्रस्तुत करता है । एक अकेली पुस्तक पाठक को पूर्वोत्तर की हकीकत से रूबरू करवाती है। जहाँ फर्जी मुठभेड़ और फर्जी आत्मसमर्पण के खेल चलते हैं, वसूली और तमाम तरह के गैर कानूनी धन्धे चलते हैं। मौत साये की तरह साथ-साथ चलती है और प्रकृति अपने सम्पूर्ण रूप-वैभव के साथ घायल,उदास अमन की उडीक लिए अपने मौन में पत्थराई खड़ी है।
सन्दर्भ :
[1] रीतारानी पालीवाल : अज्ञेय और पूर्वोत्तर भारत, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2010, पृ.1
[2] .पूजा शर्मा : पूर्वोतर भारत का जनजातीय साहित्य,(सं.
अनुश्ब्द) वाणी प्रकाशन,
दिल्ली ,2010,पृ. 58-59
[3] अनिल यादव : वह भी कोई देस है महराज, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद,2014,पृ. 47
[4] वही,पृ.51
[5] वही,पृ.51
[6] वही, पृ.80
[7] वही, पृ.17
[8] दैनिक भास्कर, 6दिसम्बर 2021, मुखपृष्ठ
[9] अनिल यादव : वह भी कोई देस है महराज, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद,2014,पृ. 59
[10] वही, पृ.60
[11] वही, पृ.18
[12]वही,
पृ.18
[13] साँवरमल सांगानेरिया : ब्रह्मपुत्र के किनारे-किनारे, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली,2006, पृ.145
[14] अनिल यादव : वह भी कोई देस है महराज, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, 2014,पृ. 27
[15] वही,पृ.54
[16] वही, पृ.70
[17] वही, पृ.70
[18] वही, पृ.28
[19] वही, पृ.82-83
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : प्रकाश सालवी, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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