21 वीं सदी में राजस्थान में
हिन्दी लघु पत्रिका आन्दोलन
- डॉ. प्रणु शुक्ला
शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख में लघु पत्रिकाएं क्या है, इनका विकास कैसे हुआ तथा वर्तमान समय में लघु पत्रिकाएं क्या विमर्श वाची भूमिकाएं निभा रही है तथा राजस्थान में 21वीं सदी में लघु पत्रिका आंदोलन का क्या स्वरूप रहा इस बात पर गंभीर दृष्टि डाली गई है। वास्तव में लघु पत्रिकाएं वह पत्रिकाएं हैं जो मानव के आत्मा को प्रकाशित करती हैं तथा मानव मन के सृजन धर्मी साहित्य को प्रकाश में लाती है वर्तमान समय में जब मुख्य धारा का मीडिया निरंतर धन, धर्म और पैसे के कारण कहीं ना कहीं प्रभावित होता नजर आ रहा है ऐसे में ये लघु पत्रिका ही हैं जो मानव धर्म ही मूल्यों का साहित्य बन कर प्रकाशित हो रही है। 70 के दशक से चलने वाला यह आंदोलन लिटिल मैगजीन मूवमेंट पर आधारित है तथा इसका राजस्थान पर क्या प्रभाव पड़ा तथा राजस्थान में 21वीं सदी में कौन-कौन सी पत्रिकाएं निरंतर प्रकाशित हो रही हैं इस पर मैंने इस शोध आलेख में विस्तार से प्रकाश डाला है।
बीज शब्द- लघु पत्रिकाएं, लिटिल मैगजीन, बुलेटिन, भाषा सभ्यता एवं संस्कृति, मुख्य धारा का मीडिया, लिटिल मैगजीन मूवमेंट, जाग्रत संचेतना, प्रतीक चिन्ह, मानव मूल्यों का साहित्य, सेठाश्रयी पत्रकारिता, लघु पत्रिका दिवस, वैश्वीकरण, विचार-संगोष्ठी, संपादक, लेखन, संप्रेषण, विचार अभिव्यक्ति सांस्कृतिक
अवमूल्यन, उदारीकरण, वैकल्पिक मीडिया, दलित अल्पसंख्यक और स्त्री
विमर्श, पीत पत्रकारिता।
शोध प्रविधि- प्रस्तुत शोध आलेख में
आगमन- निगमन विधि के अलावा प्रश्नावली एवं तुलनात्मक विधि का सहारा लिया है
तथा इसके साथ ही कई सामग्रियों का संकलन एवं
समीक्षा करके जो भी शोध आलेख प्रस्तुत किया है वह पूर्णतया निष्पक्ष एवं सकारात्मक
मानदंडों के आधार पर लिखा गया है। प्रस्तुत आलेख में राजस्थान की समस्त चर्चित और बहु
चर्चित लघु पत्रिकाओं की जानकारी भी दी गई है ताकि प्राप्त निष्कर्ष पूर्णतया सत्यापित
हो सके, पाठक प्राप्त जानकारी का सदुपयोग कर सके।
मूल आलेख : किसी भी देश की भाषा,
संस्कृति, सभ्यता को यदि जानना है तो वहां पर छपने और बिकने वाले साहित्य का अध्ययन
करना चाहिए। पत्र पत्रिकाएं महज विचारों के संवाहक नहीं होते बल्कि समस्त राष्ट्र की
जाग्रत संचेतना का प्रतीक चिह्न भी होते हैं। सांस्कृतिक बेचैनी और प्रतिरोध के स्वर
को भी इन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ध्वनित किया जाता रहा है ऐसे में लघु पत्रिकाएं
अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
'आलोचक पल्लव' का कथन है-मुख्य धारा का मीडिया बाजार की शक्तियों के दबाव से साहित्य और संस्कृति
के लिए पहले जितना सुलभ नहीं बचा है,
वहीं छोटे और सीमित साधनों वाली ये पत्रिकाएं ही हैं जो दृढ़ता से पाठकों
के सांस्कृतिक बोध को उन्नत कर सकती हैं। वैश्वीकरण और बाजारवाद के भयानक सांस्कृतिक
आक्रमण से हमारे मूल्य तिरोहित हो रहे हैं, लघु पत्रिकाएं इस अपसंस्कृति
के खिलाफ सांस्कृतिक चेतना की वाहक हैं।"1
लघु पत्रिका व्यक्तिगत अथवा निजी स्तर पर लघु आकार लघु कलेवर प्रसार
का लघु क्षेत्र निर्माण की लघु भावभूमि है किंतु मुख्य धारा के पत्र-पत्रिकाओं से अलग यह व्यक्ति
की स्वच्छता का प्रतिनिधित्व करती है।
"लघु पत्रिका’ का नामकरण, संभवत: पश्चिमी देशों में चले ‘लिटिल मैगज़ीन’ आन्दोलन की तर्ज पर ही किया गया है क्योंकि
भारतीय (हिंदी) लघु पत्रिका आन्दोलन तथा विदेशी ‘लिटिल मैगज़ीन मूवमेंट’ की प्रकृतिगत विशेषताओं
में बहुत समानता है | स्वयं को लघु –पत्रिका या लिटिल मैगज़ीन कहने वाले प्रकाशनों की शुरुआत द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान फ़्रांस
के रजिस्टेंस समूह से मानी जाती है | ज्यां-पाल सार्त्र जैसी हस्तियाँ भी इसमें शामिल थीं| चूँकि रजिस्टेंस
समूह की पत्रिका का तेवर सत्ता के खिलाफ था इसलिए उसे प्रतिरोध की आवाज़ होने की पहचान
मिली"2 जबकि भारत में आधुनिक हिंदी के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 9 सितंबर, 1868 को कविवचनसुधा' नाम की एक पत्रिका
का प्रकाशन प्रारंभ किया था। इसे हिंदी की पहली लघु पत्रिका माना जाता है, जिसमें साहित्यिक व सामाजिक, नैतिक कई विषय एक साथ
थे। वरिष्ठ पत्रकार 'अनंत विजय' के अनुसार स्वतंत्रता के बाद हिंदी की प्रथम लघु पत्रिका का दर्जा (जिससे हिंदी में
लघु पत्रिका आन्दोलन की शुरुआत हुई) विष्णुचन्द्र की पत्रिका ‘कवि’ को देना चाहिए जो बनारस से सन् 1957 में
प्रकाशित हुई थी | वहीँ दूसरी ओर ‘युवा’ के सम्पादक उद्भ्रांत का कहना है कि हिंदी में ‘लघु पत्रिका’ शब्द का प्रथम प्रयोग
मार्कण्डेय के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘कथा’ (1968) में
हुआथा | 'रामकृष्ण पाण्डेय' इस बात की और पुष्टि कर रहे है-
"लघु पत्रिका यद्यपि आकार में लागू होगी तथा उसका प्रकाशन का दायरा भी
लघु होगा लेकिन वह फिर भी खास तरह की जागरूकता व चेतना का प्रसार करने वाली होगी, इस कारण भी लघु पत्रिका
का महत्व बढ़ जाता है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के इस दौर में जब सांस्कृतिक अवमूल्यन, पत्रकारिता के अवमूल्यन की बात करते हैं तो हम लघु पत्रिकाओं के माध्यम
से ही इस भाव बोध को जागृत कर सकते हैं। दर असल यह लघु पत्रिकाएं मस्तिष्क के लिए वह
पाथेय है जो उसे कण कण व क्षण क्षण समन्वित करता रहता है। यह पत्रिकाएं समाज में लोकतंत्र
की स्थापना तो करती ही हैं साथ ही मानव धर्म ही मूल्यों के समावेशन में भी इनका महत्वपूर्ण
योगदान है।"3
जब 1960 और 70 के दशक में लघु पत्रिका
आंदोलन जोरों पर था तथा धर्मयुग, सारिका तथा साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे पत्र-पत्रिकाएं है या यूं कहें
सेठाश्रयी पत्रिकाएं बंद होने की कगार पर थी तो पहल, संवेद, शेष, लहर,कसौटी,संचेतना आदि पत्रिकाएं
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हुई सी प्रतीत हुई और संपूर्ण देश में लघु पत्रिकाओं
को लेकर एक बहस छिड़ गई।
21 वीं
सदी में राजस्थान में लघु पत्रिका आंदोलन-
जब संपूर्ण देश में लघु पत्रिका आंदोलन
अपने पूरे चरम पर था तो राजस्थान भी अछूता नहीं रहा, राजस्थान में भी विविध
तरह की लघु पत्रिकाएं जन्म लेने लगी। लहर, बिंदु, क्यों, चर्चा, तटस्थ, वातायन, पुरोवाक, सम्बोधन, शेष, अक्सर, एक और अंतरीप, सम्प्रेषण, कृतिओर, अभिव्यक्ति, लूर, कुरजां सन्देश जैसी तमाम हिंदी की लघु पत्रिकाएं राजस्थान में निकाली जाने
लगी। जयपुर में 24 -25 फरवरी 2001 को चौथा राष्ट्रीय लघु पत्रिका दिवस मनाया गया यह वह समय था जब लघु
पत्रिका आंदोलन का राजस्थान में शंखनाद हुआ तथा यह तय हुआ कि प्रतिवर्ष 9 सितंबर को लघु पत्रिका
दिवस मनाया जाए। लघु पत्रिकाओं को मानव धर्मी साहित्य की प्रबल पक्षधर माना जाने लगा।
मुख्य धारा का मीडिया बाजार की शक्तियों के दबाव से साहित्य व संस्कृति के लिए पहले
जितना सुलभ नहीं रहा है, वहीं लघु पत्रिकाएं दृढ़ता से पाठकों के सांस्कृतिक बोध को उन्नत कर
सकती हैं। इस सम्मेलन के मुख्य वक्ता एवं आयोजक राजा राम भादू के अनुसार-
"समन्वय समिति का चौथा सम्मेलन जयपुर में 24-25 फरवरी, 2001 को आयोजित हुआ। इसकी
मेजबानी पिंक सिटी प्रेस क्लब और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने की थी। लघु-पत्रिका आंदोलन का यह
आखिरी बड़ा सम्मेलन साबित हुआ। 'स्वायत्तता के साथ सहयात्रा' का सूत्र लेकर आंदोलन
हेतु जो समन्वय समिति बनी थी, उसमें बिखराव के स्पष्ट संकेत इस सम्मेलन में दिखे। समिति के संयुक्त
संयोजक शंभुनाथ ने सम्मेलन में कहा कि
'हमारे जमाने की एक बड़ी विडंबना है
कि संवाद के अत्याधुनिक साधन जितने बढ़ते जा रहे हैं, समाज में संवादहीनता भी
बढ़ती जा रही है और लघु-पत्रिकाओं के संपादकों-लेखकों के बीच तो यह चरम पर है। आज चुनौतियों और आंदोलन के मुद्दे जितने
स्पष्ट हैं, दुर्भाग्यवश बिखराव उतना ही ज्यादा है।"4 "जयपुर
में आयोजित इस सम्मेलन में एक तरफ इसके संयुक्त संयोजक ने आपसी संवादहीनता और बिखराव
को रेखांकित किया; वहीं दूसरी तरफ ठेठ सामाजिक-राजनीतिक मोर्चे पर काम
कर रहे किशन पटनायक औरअरुणा रॉय को भी इसमें आमंत्रित किया गया था।"5 "पटनायक
और रॉय को बुलाना इस बात की तरफ इशारा है कि साहित्य से जुड़े ज्यादातर संपादकों और
लघु-पत्रिका आंदोलन के नेताओं ने, इसे सीधे तौर पर सामाजिक-राजनीतिक मोर्च पर काम
करने वाले-समूहों की चिंताओं से,
जोड़ने की कोशिश की थी। इस सम्मेलन में आयोजित विचार-गोष्ठी के विषय से भी
आंदोलन की चिंता के विस्तार का सबूत मिलता है। 'लघु-पत्रिकाओं की अंतर्वस्तु : दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और स्त्री-प्रश्न' और 'लघु-पत्रिकाओं की अंतर्वस्तु : साहित्येतर चिंतन
और ज्ञान का समावेश' विषय पर विमर्श ठेठ साहित्य के दायरे से व्यापक सवालों की दिशा में
विस्तार का सूचक है। यही वह बिंदु है,
जहाँ लघु-पत्रिकाएँ या उनका आंदोलन अपनी सार्थकता और तत्कालीन अर्थवत्ता जाहिर
कर सकते थे।"6
"जयपुर सम्मेलन में 'लघु-पत्रिका आंदोलन : भविष्य के कार्यभार' विषय पर भी विचार-विमर्श हुआ।इस दौरान यह सवाल उठा कि लघु-पत्रिका का आंदोलन वास्तव
में आंदोलन है या नहीं? कारण कि 'आंदोलन से संगठन बनते हैं, संगठन से कोई आंदोलन नहीं
चलता। जब जनता आंदोलन कर रही होती है तो कई तरह से संगठन बन जाते हैं।राजनीतिक संगठन
भी, सांस्कृतिक संगठन भी और अन्य संगठन भी।"7 ऐसी हालत में समन्वय
समिति लघु-पत्रिका को वैकल्पिक मीडिया के तौर पर विकसित करने पर बल देतीहै। इस
पर लघु-पत्रिका आंदोलन के एक सदस्य ने कहा कि 'हमारी पत्रिकाएँ तो हजार-दो हजार से ज्यादा पाठकों
तक पहुँचती ही नहीं, ठीक से। लेखक आपस में ही पढ़ते हैं।' लिहाजा, इस प्रसार संख्या के बल पर आंदोलन खड़ा करने और वैकल्पिक मीडिया बनने
पर चिंता प्रगट की गई। 'राष्ट्रीय लघु-पत्रिका समन्वय समिति'
की अगुवाई करने वाले लोगों के मन में ही, इसे आंदोलन माना जाए या
नहीं, यह साफ नहीं था। हजार-दो हजार की प्रसार संख्या के बल पर क्या हो सकता है – यह सवाल ज्यादातर
लोगों को चिंतित करता लगा। पर इतना तो साफ था कि 'वर्तमान परिप्रेक्ष्य
में... कोई आंदोलन नहीं है।' इसलिए कहा गया कि 'हम लेखकों का, लघु-पत्रिकाओं का यह दायित्व बनता है कि आंदोलन की स्थिति पहले पैदा करें।' क्योंकि आंदोलन पैदा
होने के बाद ही 'संगठन उभर कर आएँगे और मजबूत बनेंगे।'आंदोलन की स्थिति पैदा
करने, लघु-पत्रिकाओं और उसके संगठन को मजबूत बनाने और इसे व्यापक जनता से जोड़ने
हेतु कुछ प्रस्ताव पारित किए गए। इसी सम्मेलन में
यह फैसला लिया गया कि हर वर्ष नौ सितंबर को लघु-पत्रिका दिवस के रूप में
मनाया जाए।
"जयपुर सम्मेलन में कुछ विद्वानों द्वारा की गई लघु-पत्रिका आंदोलन की आलोचना
को भी लोगों ने महसूस किया। पिछले सम्मेलनों में इस बात पर खास बातचीत नहीं होती थी
कि लघु-पत्रिकाओं के संपादकों द्वारा शुरू की गई यह कोशिश 'आंदोलन' है या नहीं, लेकिन समन्वय समिति द्वारा
प्रकाशित 'लघु-पत्रिका अभियान' (बुलेटिन संख्या-6)
को 'पुनर्गठन के लिए संवाद-1'
कहा गयाहै। इस उपशीर्षक से स्पष्ट है कि 'पहले' कुछ गठन हुआ था, जो कालांतर में बिखर गया और फिर से उसका गठन करने हेतु संवाद की कोशिश
की जा रही है।' जयपुर सम्मेलन के बाद समन्वय समिति की तरफ से कोई राष्ट्रीय सम्मेलन
आयोजित नहीं हुआ।"8 राजस्थान के साहित्यकार रामकृष्ण, ईश मधु तलवार, रोहित धनकड, अरविंद सिंह, हेतु भारद्वाज, कैलाश मनहर, जितेंद्र राठौर, जितेंद्र सिंह महान, राजा राम भादू, अंबिका दत्त, प्रेम भटनागर, हरि राम मीणा, फारूक अफरीदी, प्रेमकृष्ण शर्मा, श्याम महर्षि, सत्यनारायण, प्रेमचंद गांधी जैसे साहित्यकार
लघु पत्रिका आंदोलन में सक्रिय रहे हैं। इसके बाद स्थानीय स्तर पर भी एक सम्मेलन का
आयोजन 2013 में किया गया। जयपुर में राजस्थान लघु पत्रिका सम्मेलन में यह बात प्रमुखता
से उभरी राजस्थान धीरे-धीरे अब लघु पत्रिकाओं का केंद्र बनता जा रहा है तथा राजस्थान साहित्य
अकादमी, उदयपुर एवं समांतर संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में 25 मई 2013 को राजस्थान विश्व
विद्यालय परिषद परिसर जयपुर में आयोजित हुआ जिसकी अध्यक्षता डॉ वेद व्यास ने की। राजा
राम भादू ने लघु पत्रिकाओं के लिए कहा है "अब से करीब डेढ़
दशक पहले राज्य के लघु पत्रिकाओं संपादकों का पहला सम्मेलन जयपुर में प्रगतिशील लेखक
संघ के बैनर तले हुआ था इसके बाद जयपुर में ही 2001 में चौथा राष्ट्रीय
सम्मेलन हुआ जो ऐतिहासिक था समांतर सबाल्टर्न साहित्यिक सांस्कृतिक समूहों के लिए काम
करता है लघु पत्रिकाएं भी इन्हीं समूहों की
आवाज है इसलिए हम इस सम्मेलन को बहुत प्रासंगिक मानते हैं। यह सम्मेलन दो सत्रों में
विभाजित था जिसमें पहला सत्र राजस्थान की लघु पत्रिकाएं परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य विषय
पर केंद्रित रहा।"9
21 वीं
सदी की राजस्थान की प्रमुख हिन्दी लघु पत्रिकाएं- "ज्ञानरंजन और कमला प्रसाद के संयुक्त प्रयास से निकलने वाली पहल लघु
पत्रिका आंदोलन की सिरमौर पत्रिका बनी।"10
राजस्थान में भी लहर,सम्बोधन, बिन्दु आदि पत्रिकाएं 60 से 70 के दशक में प्रभावी
रही लेकिन फिर धीरे-धीरे की 21
वीं सदी तक आते-आते जब जयपुर में लघु पत्रिका सम्मेलन का आयोजन हुआ तो इन पत्रिकाओं
का भी अपने तरीके से शोधन परिशोधन होता चला गया। अक्सर के प्रधान संपादक डॉ. हेतु
भारद्वाज ने कहा
कि लघु पत्रिकाओं के लिए दो चीजें मुख्य होती हैं एक तो प्रतिरोध तथा दूसरा संघर्ष
यह सब सब बड़े बड़े लेखक लघु पत्रिकाओं में छपते रहते हैं हमें यह सोचना चाहिए कि पत्रिका अपने मंतव्य को पूरा
कर रही है या नहीं उन्होंने कहा कि हमें यह भी विचार करना चाहिए कि हम अपने आचरण में
ईमानदार है क्या, क्या हम अपनी पत्रिकाओं में सामग्री छापने वाली सामग्री के प्रति ईमानदार हैं तो हमारा
लघु पत्रिका निकालना सार्थक कहा जाएगा।"11
वर्तमान समयमें 21 वीं सदी में निम्नलिखित
पत्रिकाएं नियमित रूप से प्रकाशित होती चली जा रही हैं-
सृजन कुंज- शोध साहित्य और संस्कृति की पत्रिका के रूप में जाने वाली पत्रिका सृजन
कुंज राजस्थान में श्रीगंगानगर जिले से निकलती है इस के संपादक कृष्ण कुमार 'आशु' है वर्तमान समय में यह
पत्रिका त्रैमासिक है।
सम्बोधन- कांकरोली राजसमंद से निकलने वाली है संबोधन पत्रिका सांस्कृतिक रूप
से काफी सशक्त पत्रिका है इसके संपादक कमर मेवाड़ी हैं तथा यह भी त्रैमासिक है। यह
पत्रिका 1966 से सतत निकल रही है। इसके लिए अनामी शरणब बल लिखते हैं- "यह महज एक पत्रिका
नहीं थी बल्कि एक इतनी दुर्लभ पत्रिका का एक खास अंक है जिसके लिए संबोधन और इसके सदस्यों
को 50 साल तक श्रम करनी पड़ी थी। सरकारी खर्चे पर तो आजकल समेत प्रकाशन विभाग
की कई पत्रिकाएं 65-70 साल से निकल रही है , मगर 1966 में एक पत्रिका का स्वप्न देखने वाले युवा लेखक कमर मेवाड़ी की जिस
लगन समर्पण और संबोधन को भी अपने बच्चों की तरह ही देखभाल करने की अदम्य लालसा का ही
यह फल है कि आज भले ही श्रीकमर मेवाड़ी
78 साल के बुजुर्ग हो गए, मगर इनकी देख रेख और संरक्षण
में पचास हो गया संबोधन
तमाम साहित्यकारों लेखको को हैरत में डाल देता है। अपने बूते किसी पत्र- पत्रिका को जीवित रखने
का दो उदाहरण मेरे मन को हमेशा रोमांचित करता है।"12
कृति ओर-कवि,आलोचक चित्रकार विजेंद्र जी की पत्रिका अब बदायूं के आलोचक अमीर चंद
वैश्य के सम्पादन में निकल रही है. विजेंद्र जी के बाद पत्रिका के
अंक डॉ. रमाकांत शर्मा निकालते थे लेकिन अस्वस्थता के कारण ७४-७५ अंक अब अमीर चंद वैश्य
ने उत्तरदायित्व वहन किया है। कृतिओर मूलतः कविता केन्द्रित लघु पत्रिका है और प्रारम्भ
से ही लोकोन्मुख, जनपक्षधर कविताओं का मंच बनी हुई है। हिंदी को अब तक ‘कृतिओर’ ने अनगिनत जेनुइन और ज़िम्मेदार कवि दिए
हैं। विजेंद्र जी कविता की लोकोंमुखता के पक्षधर हैं।
अपनी माटी - साहित्य
और समाज के दस्तावेजीकरण के नाम से मशहूर कविता अपने माटी ने राजस्थानी लघु पत्रिकाओं
में अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है। यह अप्रैल 2013 से प्रकाशन में आई
एक त्रैमासिक ई पत्रिका है जिसके संपादक द्वय माणिक एवं जितेंद्र यादव हैं यह विभिन्न
प्रकार के कलेवरों को अपने भीतर समेटे हुए हैं। इस पत्रिका को यूजीसी केयर लिस्ट में स्थान प्राप्त है।
मीरायन- यह मेरा संस्थान चित्तौड़गढ़ की लघु पत्रिका है इसमें शोध इत्यादि अन्य
विषयों को स्थान दिया जाता है राजस्थान की कला और संस्कृति को परिचित कराने में भी
इस पत्रिका की महत्वपूर्ण भूमिका है।
एक और अन्तरीप - लगभग 25 वर्षों से लघु पत्रिका की धारा को सतत प्रवाहमान रखते हुए एक और अंतरीप
लगातार जयपुर से प्रकाशित होती जा रही है। प्रेमकृष्ण भारद्वाज इसके संपादक हैं जयपुर
से अजय अनुरागी के प्रतिनिधित्व में निकलती है, यह पत्रिका मानव मुक्ति
को समर्पित है। इसके अंक नियमित निकल रहे हैं तथा व्यक्तिगत प्रयासों से जो भी अंक निकाले जाते हैं वह सराहनीय है। इस पत्रिका द्वारा विद्यार्थियों के शोध को तो प्रोत्साहन दिया ही जाता
है, साथ ही साथ कविता कहानी जैसे समस्त सृजनात्मक तत्वों को भी अपने कलेवर में समेटा
जा रहा है।
अलख- अलख पत्रिका यूं तो लंबे समय से प्रकाशित होती रही है लेकिन फिर भी
अजय अनुरागी संपादक के रूप में इस पत्रिका का नया कलेवर सामने लेकर आए हैं यह पत्रिका
सभी सृजनात्मक रचनाओं को अपने कलेवर में समेटे हुए हैं कविता कहानी, उपन्यास अंश, आलेख, शोधालेख लगभग सभी कुछ
इस पत्रिका में है।
अक्सर- जयपुर से लम्बे समय से प्रकाशित अक्सर पत्रिका एक त्रैमासिक पत्रिका
है जिसके प्रधान संपादक डॉ. हेतु भारद्वाज है यह पत्रिका उन्होंने मानव संघर्ष की रचनात्मक
अभिव्यक्ति के रूप में प्रकाशित की है। अक्सर पत्रिका राजस्थान की पुरानी पत्रिका है
तथा यूजीसी केयर लिस्ट में इसे भी शामिल किया गया है मानीखेज सम्पादकीय तथा लघु पत्रिका
आंदोलन के लिए इस पत्रिका का महत्वपूर्ण योगदान है।
शेष - शेष पत्रिका के संपादक जोधपुर के हसन जमाल हैं हालांकि 21वीं सदी में इस पत्रिका
के अंक कुछ कम ही आ रहे हैं, फिर भी यह पत्रिका निरंतर
साहित्य सृजन में रत है।
माही सन्देश- जयपुर से प्रकाशित इस मासिक पत्रिका के संपादक रोहित कृष्ण नंदन है
यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है। यह पत्रिका निरंतर सामाजिक और साहित्यिक सरोकारों
से जुड़ी हुई है। सभी प्रकार के कॉलम इस पत्रिका में आते हैं।
अरावली उद्घोष – आदिवासी विषयक पत्रिका अरावली उद्घोष
के संस्थापक-संपादक बी पी वर्मा 'पथिक' (3 जुलाई 1920 - 25 जनवरी 2012) रहे हैं। अपनी सीमाओं के बावजूद अरावली
उद्घोष आदिवासियों की एक मुकम्मल पत्रिका रही है। राजस्थान के आदिवासियों की
चिंताएं इसके केन्द्र में रही हैं। यह पत्रिका पूरी तरह आदिवासी विमर्श को समर्पित है।
जगमग दीप ज्योति-विलुप्त होती भारतीय संस्कृति के पुनर्जीवन की जीवंत मासिक पत्रिका
जगमग दीप ज्योति का प्रकाशन निरंतर 36
वर्षों से हो रहा है। यह अलवर से प्रकाशित होती है तथा इसके प्रधान
संपादक श्री सुमति कुमार जैन है अभी हाल ही में इसके महिला अंक का लोकार्पण किया गया
था।
साहित्य समर्था – स्त्री विमर्श को समर्पित संस्थान स्पंदन की यह पत्रिका त्रैमासिक पत्रिका
है जिसकी प्रधान संपादक 'नीलिमा टिक्कू' है यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है तथा इसके विभिन्न अंक स्त्री
लेखिकाओं से संबंधित हैं, जो स्त्री विमर्श
तथा साहित्य में अपना नाम कर रही हैं। "साहित्य समर्था जयपुर की संपादक नीलिमा टिक्कू ने लघु पत्रिकाओं में
प्रकाशित होने वाली विषयवस्तु पर भी ध्यान देने की जरूरत को रेखांकित किया। उन्होंने
कहा है सीमित संसाधनों के बावजूद संपादक के समक्ष उत्सव से प्रेरणा देते रहते हैं संपादकों
की लागत से दूर रह कर नई पीढ़ी को जोड़ने के उपाय भी सोचना चाहिए ताकि पत्रिका युवाओं
तक पहुंचकर विचार को आगे बढ़ा सके । लघु पत्रिकाओं के संपादक जमीन से जुड़े होते हैं
और सीमित संसाधनों से लघु पत्रिकाओं का निकलना काफी मुश्किल काम होता है।"13
अनुकृति- अनुकृति एक त्रैमासिक पत्रिका है जिसकी संपादक 'डॉ. जयश्री शर्मा' हैं। उन्होंने लघु पत्रिकाओं
के लिए कहा था- "अनुकृति जयपुर की संपादक डॉक्टर जयश्री शर्मा ने कहा कि लघु पत्रिकाएं
भारत के कोने-कोने से निकलकर अपनी आवाज बुलंद कर रही है। इस कलम की ताकत के पीछे लघु
पत्रिकाओं के संपादक एवं सहयोगियों का जुनून ही सामने आता है कि वे सब कुछ लगा कर लघु
पत्रिकाएं निकाल रहे हैं। लेखन के माध्यम से सामाजिक सोच को बदलने की कोशिश में लगी
लघु पत्रिकाएं समाज में जागृति पैदा करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही है। इस सम्मेलन
ने सभी संपादकों को एक साथ मिलने और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का मौका दिया
है।14
कुरजां सन्देश – कुरजां संदेश जयपुर से निकलने वाली छमाही पत्रिका है। जिसके संपादक 'प्रेमचंद गांधी' है। इसका प्रवेशांक 2011 में निकला। कुरजां
सन्देश जयपुर के संपादक सलाहकार ईश मधुतलवार का कहना था कि "लघु पत्रिका ज्यादा
से ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचे, इसकी नीति बननी चाहिए। वैचारिक आंदोलन लघु पत्रिकाओं के माध्यम से ही
जन-जन तक पहुंचेंगे, तभी सामाजिक परिवर्तन संभव हो सकेगा। हमें यह देखना होगा कि हम किस
प्रकार अपने विचारों से युवा वर्ग को आकर्षित कर सकेंगे। लघु पत्रिकाओं को अपने मतभेद
कम करते हुए साझा संगठित रणनीति बनानी चाहिए।"15
राजस्थानी की लघु पत्रिकाएं-
1- माणक [मासिक] सम्पादक-पदम मेहता
जलते दीप भवन, जालोरीगेट ,जोधपुर
2- जागती जोत [मासिक]
राजस्थानी भाषा,साहित्य एवं संस्कृति
अकादमी, बीकानेर
3- सम्पर्क- पृथ्वीराज रतनू
मोबाइल-9414969200
4- राजस्थली
[त्रैमासिक ] सम्पादक-श्याम महर्षि
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति , श्रीडूंगरगढ़ [बीकानेर]
5-घूमर [मासिक]
जोधपुर
6- राजस्थानी गंगा [त्रैमासिक] सम्पादक- डॉ. किरण नाहटा
नागरी भंडार ,रेलवे स्टेशन रोड़, बीकानेर
7-बिणजारो [ वार्षिक ] सम्पादक - नागराज शर्मा
पिलाणीं , जिला झुझुनूं
8-उपरंच [ त्रैमासिक ] सम्पादक - पारस अरोडा़
9-नैणसी [ त्रैमासिक ] सम्पादक – अम्बू शर्मा
10-देश दिसावर [ मासिक ]
11-कुरजां [ द्विमासिक] सम्पादक – मनोहर लाल गोयल
गोयल भवन ,आर रोड ,बिष्ठुर,जमशेद
12-ओळख [ द्विमासिक ] सम्पादक - डॉ.भंवर कसाणां
वत्सला प्रताप नगर, डीडवाणां
13-सूरतगढ़ टाइम्स[ पक्शिक ] सम्पादक – मनोज स्वामी
पुराना बस अड्डा, सूरतगढ़।
इनके
अतिरिक्त गोरबन्द , नगर्श्री, परम्परा, बातां री सोरम, उमाव, अपणायत, मरवण, नेगचार, मरुवीणां, जलम भोम , हरावळ , ईसरलाट, मरु भारती, आगूंच, दीठ, बागड़ पत्रिका , अपरंच, मरुधरा, मूमल, ओळी-ओळी, कचनार, मरुवाणी, मनवार, लोकसंस्कृति , बतळावण , मारवाडी़गोरव , ओळमो ,राजस्थानीगोरव , हेलो ,लाडेसर ,मारवाडी़हितकारक , पंचराज , आगीवाण , मारवाड़ , मारवाडी़ , मरुवाणी, ओळभो, वाणी , म्हारोदेस, कानियां मानियां कुर्र
, धरातल, राजस्थानी , राजस्थान भारती , मरु-भारती, वरदा , परम्परा , वाग्तर , प्रेमाश्रय , शोधपत्रिका , लूर , कूंपळ , सरवर, म्हारो देस ,जाणकारी, जोग लिखी , उजास , वाग्वर , हाडो़ती पत्रिका, चिदम्बरा , मायड़ रो हेलो , मरुधर ज्योति आदि
आदि।
निष्कर्ष- निष्कर्ष रूप में कहा
जा सकता है कि मुख्य धारा के मीडिया की अनिर्णित स्थिति के बावजूद यह लघु पत्रिकाएं
मानव मन के अंतर की सांस्कृतिक चेतना धर्मिता का प्रतिनिधित्व करने के लिए हमारे सामने
उपस्थित हैं लघु पत्रिकाएं जन आंदोलन का आईना है यह धीरे-धीरे ही सही लेकिन समाज
में परिवर्तन की आवाज उठाती हैं उनका एक संयुक्त अभियान आज के समय की मांग है। लघु
पत्रिकाओं का छपना इस बात का द्योतक है कि मानव सदा से ही उस परिवर्तन का हामी रहा
है जो परिवर्तन समाज के लिए एक नई दिशा का संधान करता है। यह लघु पत्रिकाएं सांस्कृतिक
विकास का प्रतीक चिन्ह हैं। ऐसे में राजस्थान में लघु पत्रिका आंदोलन बहुत ही तीव्र
गति से पनपा। डॉक्टर हरि राम मीणा ने राजस्थान की लघु पत्रिकाओं का कालक्रमानुसार विश्लेषण
करते हुए कहा है कि 21वीं सदी राजस्थान की साहित्यिक पत्रकारिता का स्वर्ण युग है आज की लघु
पत्रिकाएं समस्याओं से सीधे मुठभेड़ कर रही हैं तथा वर्चस्व के विरोध में सामने आ रही
हैं। पूंजीवादी ताकतें आज समस्त सामाजिक स्तोत्र
एवं प्राकृतिक संसाधनों पर काबिज है लघु पत्रिकाएं हाशिए पर पड़े आदिवासी और वंचित
वर्ग की आवाज को भी बुलंद कर रही हैं । इस समय अमेरिका व यूरोप आर्थिक मंदी के शिकार
हैं जब आर्थिक रूप बदलता है तो साहित्य व संस्कृति का ध्रुव भी बदलता है। ऐसे बदलते परिवेश में लघु पत्रिकाएं
नवजागरण का शंखनाद कर रही हैं।"
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संदर्भ :
1- पल्लव नंदवाना, हिंदुस्तानअखबार>ओपिनियन>नजरिया, लास्टमॉडिफाई- मंगलवार 2017, 11: 13 पी. एम, अभिगमन तिथि 9 जनवरी 2022।
2- राजेंद्र यादव, प्रतिरोध की आवाज रही है लघु पत्रिकाएं शीर्षक लेख,नई दुनिया, रविवार 26 सितंबर 2010 ।अभिगमन तिथि 8 जनवरी 2022।
3- रामकृष्ण पांडेय
"छोटी पत्रिका और एक लिटिल मैगजीन" शीर्षक लेख, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय संस्करण, नई दिल्ली, 20 जून 2009, अभिगमन तिथि 10 जनवरी 22।
4- राजा राम भादू, लघु पत्रिका अभियान, लघु पत्रिका समन्वयक समिति का मुखपत्र (बुलेटिन 5), संपादक राजा राम
भादू, जयपुर फरवरी
2001।
5- वही,बुलेटिन 5
6- डॉ. हेतु भारद्वाज, अक्सर पत्रिका, अक्सर
का जुलाई सितम्बर माह, प्रवेशांक, जुलाई 2007।
7- शंभूनाथ,
"लघु पत्रिका आंदोलन सामर्थ्य और सीमा" नाम से बहस (उत्तरार्ध) में लेख प्रकाशित, अंक 40, संस्करण 54,1995।
8- राजीव रंजन गिरि, "लघु पत्रिका आंदोलन संरचना और सरोकार" शीर्षक से लेख हिंदी
समय डॉट कॉम (ई वेव जनरल) में
प्रकाशित, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी वर्धा का अभिक्रम, अभिगमन तिथि 9 जनवरी 22।
9- जयपुर में लघु पत्रिका सम्मेलन का बुलेटिन विविधा फीचर्स, चेतना सिहं एवं लवलीन
शर्मा की रिपोर्ट, अंक-281, जून 2013।
10- धर्मेंद्र
गुप्त, लघु पत्रिका एवं साहित्यिक पत्रकारिता, लेखक- धर्मेंद्र गुप्त, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ क्रमांक 52।
11- हेतु भारद्वाज,जयपुर से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका, 'अक्सर' का लघु पत्रिका अंक 40, अप्रैल - जून 2017 प्रकाशित।
12- अनामी शरण बबल का आलेख-
कमर मेवाडी जी के संबोधन को सलाम,पत्रकारिता/जनसंचार ब्लाग,अभिगमन तिथि-18/1/22
13- निलिमा टिक्कू- साहित्य समर्था ,अंक-1-2 संयुक्त,दिसम्बर
2013,त्रैमासिक साहित्य पत्रिका, जयपुर।
14- जय श्रीशर्मा का वक्तव्य,
जयपुर में लघु पत्रिका सम्मेलन का बुलेटिन विविधा फीचर्स, चेतना सिहं एवं लवलीन
शर्मा की रिपोर्ट, अंक- 281, जून 2013।
15- ईश मधुतलवार, कुरजा संदेश, प्रवेशांक, मार्च से अगस्त
2011, संस्करण- प्रथम, जयपुर, पृष्ठ-7।
16- हरिराम मीणा- अस्मिता ही नहीं अस्तित्व का सवाल, नामक साक्षात्कार, दैनिक हिंदुस्तान पत्र, लाइव हिन्दुस्तान।
डॉ. प्रणु शुक्ला
सहायक आचार्य, हिंदी, राजकीय कन्या महाविद्यालय, चौमूँ, जयपुर,राजस्थान
pranu.rc55@gmail.com, 7597784917
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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