सलाम आखिरी में अभिव्यक्त वेश्या जीवन का यथार्थ
-अंशिता शुक्ला
शोध सार : वेश्यावृत्ति समाज में व्याप्त एक सामाजिक समस्या है। मानव सभ्यता के विकास के साथ ही वेश्यावृत्ति का विकास हुआ। निश्चित रूप से यह कहना कि भारत में वेश्यावृत्ति का विकास कब हुआ, अत्यन्त कठिन है। विद्वानों के अनुसार सिन्धु सभ्यता में जब तक विवाह संस्था एवं रीति-रिवाजों का पूर्ण रूप से विकास नहीं हुआ उस समय भी वेश्यावृत्ति विद्यमान थी क्योंकि पुरूषों के अनेक स्त्रियों के साथ संबंधों का वर्णन इतिहास एवं भित्तिचित्रों से प्राप्त होता है। सभ्यता के विकास एवं विवाह संस्था के कठोर होने के साथ वेश्यावृत्तिका स्वरूप भी बदलने लगा और इसी क्रम में गणिका, वारांगना, रूपजीवा, चेतिका एवं नगरवधू आदि नामों से वेश्याओं को संबोधित किया गया। वर्तमान समय में प्राचीन काल की प्रतिष्ठित गणिकाएँ एवं कलावंतियां अब राजा-महाराजाओं तक सीमित न होकर सड़कों पर उतर आई हैं। अब कोई भी व्यक्ति जो पैसे खर्च करने में सक्षम है, वेश्याओं के साथ संबंध रखने का अधिकारी है। इस कारण प्राचीन काल में जहाँ गणिकाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था वहीं आज वे केवल सस्ते दामों पर मिनटों के हिसाब से शरीर बेचने के लिए मजबूर हैं। यहाँ तक कि वे स्वयं को सेक्स वर्कर्स घोषित किए जाने की मांग कर रही हैं।
उपन्यास गद्य की एक ऐसी विधा है जिसमें सामाजिक यथार्थ का चित्रण विशद रूप में होता है। हिन्दी साहित्य में वेश्या जीवन को आधार बनाकर अनेक उपन्यास लिखे गए हैं जिनमें ‘मधु कांकरिया’ का ‘सलाम आखिरी’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस उपन्यास के माध्यम से वेश्या जीवन के यथार्थ से परिचित कराने का प्रयास किया जाएगा जो अंधेरी गलियों में कहीं खोए हुए हैं। ये वे गलियाँ हैं जहाँ बाजार, ग्राहक और विक्रेता के साथ वेश्यावृत्ति का साम्राज्य फैला हुआ है और रोज न जाने कितनी मासूमों का सौदा होता है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में वेश्या जीवन के यथार्थ का अध्ययन करने से पहले संक्षेप में यह जानना आवश्यक है कि वेश्या होती कौन है?
बीज शब्द : गणिका, वारांगना, चेतिका, रूपजीवा, वेश्या
मूल आलेख :
वेश्या एवं वेश्यावृत्ति का अर्थ एवं परिभाषा-
वेश्या शब्द संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है ‘‘नाचगान तथा करतब से जीविका चलाने वाली स्त्री।’’1 संस्कृत में वेश्या को परिभाषित करते हुए कहा गया है- वेशम् अर्हति या सा वेश्या अर्थात् जो वेश को प्रतिक्षण बदलती रहे वह वेश्या कहलाती है। वैदिक भाषा में वेश्या के लिए ‘विश’ शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है सामान्य जनता अर्थात् जो सामान्य जनता के द्वारा भोगी जाए वह वेश्या है।2 वेश्या के अतिरिक्त गणिका शब्द का उल्लेख संस्कृत साहित्य में मिलता है जो गण+ठन्+टाप् से मिलकर बना है।3 अंग्रेजी में वेश्यावृत्ति के लिए ‘Prostitution’ शब्द मिलता है जो दो लैटिन शब्द ‘प्रो’ और ‘स्टैट्यूएट’ की संधि से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘उघाड़ना’ या ‘आगे रखना’।4 इस प्रकार अंग्रेजी में ‘प्रॉस्ट्टियूट’ का अर्थ हुआ ‘जो उघाड़े हुए’ या ‘खुद को आगे रखे हुए’ है। ‘जापान’ में वेश्या के लिए ‘गेश्या’ शब्द मिलता है वहाँ की स्त्रियाँ स्वयं को ‘गेश्या’ कहकर रहती हैं।5 वेश्या के अतिरिक्त वारवनिता, वारांगना, रूपजीवा, रंडी, कोठेवाली, कॉल गर्ल तथा एस्कॉर्ट आदि अनेक शब्द वर्तमान समय में प्रचलित हैं। जातकों में गणिका के लिए ‘नगर मण्डना’ एवं ‘नगर शोभिनी’ जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं। जिसका अर्थ है ‘नगर को सुशोभित करने वाली’। ‘दामोदरगुप्त’ रचित संस्कृत ग्रंथ ‘कुट्टनीमतम्’ में वेश्या के लिए ‘वेश्या’, ’चेतिका’, ’जीविका’, ’अनियपुमसा’, ’झुला’ आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।6
यद्यपि वेश्यावृत्ति एवं वेश्या को परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि इसके कई स्वरूप एवं वर्ग समाज में देखने को मिलते हैं। किन्तु इतना होते हुए भी विभिन्न विद्वानों ने अपनी रचनाओं में वेश्या को अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया है। जैसा कि-
‘महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश’ के अनुसार- ‘‘फायदे के लिए शरीर विक्रय करने वाली स्त्रियों को वेश्या कहते हैं।’’7
‘हिन्दी शब्दसागर’ में गणिका को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ‘‘वह नायिका या स्त्री जो द्रव्य के लोभ से नायक से प्रीति रखे उसे गणिका कहते हैं।’’8
‘डॉ सुधा काळदाते’ के अनुसार- ‘‘वेश्या व्यवसाय केवल पैसे पाने के लिए ही किया जाता है। ‘वेश्या’ अपना शरीर दूसरों को भोग के लिए देती हैं, उसके बदले में उन्हें पैसे कपड़ा, इत्र या अन्य चीजें मिलती हैं।’’9
‘Suppression of Immoral Traffic in Women and Girl’s
act, 1956’ में वेश्यावृत्ति को परिभाषित करते हुए कहा गया है- ‘वेश्या का अर्थ उस स्त्री से है जो आर्थिक लाभ या अन्य उद्देश्य हेतु यौन संबंध स्थापित करती है।’10
‘एलेक्जर’ ने वेश्यावृत्ति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि- ‘वेश्यावृत्ति वह यौन-संबंध है जो खरीद, संकरता और संवेगात्मक उदासीनता के अर्थ में समझाया जा सकता है।’11
‘इलियट एवं मैरिल’ ने अपनी पुस्तक ‘Social
Disorganization’ में वेश्यावृत्ति के संबंध में कहा है कि- ‘‘वेश्यावृत्ति एक भेदरहित तथा धन की प्राप्ति के लिए स्थापित किया गया अवैध यौन-संबंध है जिसमें भावात्मक उदासीनता पाई जाती है।’’12
इस प्रकार विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं के आधार पर वेश्यावृत्ति को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
1.
इसका संबंध अवैध यौन संबंधों से है जो पूर्णतया व्यावसायिक होता है।
2.
यह धन लाभ हेतु स्थापित संकर यौन संबंध है।
3. इसमें किसी भी प्रकार के प्रेम एवं भावात्मक संबंधों का अभाव होता है क्योंकि यह संबंध ले और दे(Give and Take) के सिद्धान्त एवं काम वासना पर आधारित होते हैं न कि किसी भावनात्मक लगाव के कारण।
4.
अर्थ पर केन्द्रित होने के कारण यह संबंध पूर्णतया भेदभावरहित होते हैं क्योंकि वेश्या का संबंध केवल धन से होता है न कि ग्राहक की आर्थिक स्थिति एवं व्यक्तित्व से।
वेश्यावृत्ति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य -
वेश्यावृत्ति का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है, सम्पूर्ण विश्व के साथ-साथ भारत में भी अत्यन्त प्राचीन काल से विद्यमान रही है। यद्यपि यह सुनिश्चित करना अत्यन्त कठिन है कि वेश्यावृत्ति की शुरूआत कब हुई लेकिन उपलब्ध प्रमाणों एवं साहित्य के आधार पर यह ज़रूर कहा जा सकता है कि सम्पत्ति के अधिकार, वैवाहिक संस्था के कठोर नियमों एवं युद्धों के फलस्वरूप वेश्यावृत्ति का विकास हुआ। इतिहास में वैदिक काल से वेश्यावृत्ति के साक्ष्य मिलते हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार वैदिक काल के पूर्व सिन्धु सभ्यता में वेश्यावृत्ति के प्रमाण मिलते हैं। ‘मेहरगढ’ एवं ‘मोहनजोदड़ों’ से नर्तकी की मूर्ति मिली है लेकिन इसे पूर्णतया प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त जो मूर्तियाँ उपलब्ध है वह अधजली अवस्था में प्राप्त हुई है। अतः प्रामाणिक रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वेश्यावृत्ति का प्रारंभ सिन्धु सभ्यता से हुआ है। आगे चलकर वैदिक काल में आर्यो के आगमन एवं युद्धों के परिणामस्वरूप वेश्यावृत्ति के प्रमाण देखने को मिलते हैं। किन्तु यहाँ वेश्या की जगह दासियों या रखैल के प्रमाण मिलते हैं जिनका क्रय-विक्रय किया जाता था। इसके अतिरिक्त यह कई व्यक्तियों के पास रहती थी। जीते गए क्षेत्रों की स्त्रियों का शोषण आर्यों ने करना प्रारंभ किया और यही से वेश्यावृत्ति के प्रमाण देखने को मिलते हैं। जैसा कि-
‘भारत में पहुँचने पर आर्यों ने अपने शत्रुओं(दास-दासियों) जो अपने लौह-दुर्गों में भली भाँति रक्षित थे, युद्ध किया। भिन्न भाषाई शत्रुओं के प्रति भी इनके मन में घृणा थी। आर्यों की विजय ने विजेताओं को पराजित लोगों की नारियों को रखैल के रूप में रखने और कभी-कभी गुलाम बनाने का अधिकार दिया।’13
चाहे युद्ध हो, विरोध प्रदर्शन हो अथवा साम्प्रदायिक दंगे, स्त्रियों के यौन शोषण की एक सामान्य परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। प्रत्येक आक्रमणकारी स्वयं की स्त्रियों को तो पवित्र मानता था किन्तु शत्रु की स्त्रियों को दासी या रखैल बनाना अपना धर्म समझता था। इसी कारण प्रथम विश्वयुद्ध एवं द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भी वेश्याओं एवं अवैध संतानों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।14 वैदिक युग में आगे चलकर ‘उत्तरवैदिक काल’ में आठवीं-सातवीं शताब्दी ई. पू. से वेश्यावृत्ति के प्रमाण मिलने लगते हैं। ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ में वर्णित घटनाओं के आधार पर भी वेश्यावृत्ति का प्रमाण मिलता है। ‘महाभारत’ के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि गान्धारी जब गर्भवती थी, उस समय उनकी परिचर्या एवं सेवा हेतु गणिकाओं को लगाया गया था। पाण्डवों की सेनाओं में वेश्याओं के होने का वर्णन भी मिलता है।15 ‘रामायण’ में ‘गान्धर्वी’ और ‘देवी’ नामक वेश्या का उल्लेख मिलता है।
बौद्ध साहित्य जिसमें जातकों का प्रमुख स्थान है, में ‘आम्रपाली’ जैसी गणिकाओं का उल्लेख मिलता है जिसकी इच्छा जाने बगैर गण परिषद ने अपने विधान के अनुसार उसे जनपद कल्याणी अर्थात् गणिका के पद पर अधिष्ठित कर दिया गया था। आम्रपाली की प्रसिद्धि के कारण महात्मा बुद्ध ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया था और अपने संघ में शरण भी दी थी जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था।16
जैन पुराणों में भी वेश्याओं का वर्णन मिलता है। जैन मुनियों को निःसंकोच ‘कोशा’ नामक वेश्या की शाला में चर्तुमास व्यतीत करने की आज्ञा प्रदान की गई है।17 ‘कौटिल्य’ ने ‘अर्थशास्त्र’ में वेश्याओं को तीन भागों- कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम में विभक्त किया है।18 ‘अर्थशास्त्र’ में भी ऐसी गणिकाओं का उल्लेख मिलता है जिनका प्रयोग गुप्तचर के रूप में किया जाता था। ये गणिकाएँ शत्रुओं के गुप्तचर के हाव-भाव को पढ़ने में समर्थ होती थी।19 पुराणों में भी वेश्यावृत्ति का उल्लेख मिलता है और वेश्याओं के दर्शन को शुभ माना गया है। सार्वजनिक उत्सवों में इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी गई है।20
संस्कृत साहित्य में ऐसी गणिकाओं का उल्लेख मिलता है। ‘आचार्य विश्वनाथ’ ने नायिका के तीन भेद स्वकीया, परकीया और सामान्य तीन भेद किए हैं। जिसमें सामान्य को गणिका के अन्तर्गत रखा है जो चौसठ कलाओं में निपुण होती थी और धन के आधार पर अनुराग का प्रदर्शन बिना किसी भेदभाव के करती थी। ‘मृच्छकटिकम्’ में गणिका वसन्तसेना के लिए इस प्रकार का उल्लेख मिलता है- ‘चारूदत्त के गुणों पर अनुरक्त वसन्त ऋतु की शोभा के समान वसन्तसेना नामक गणिका थी।’21
‘दण्डी’ की ‘दशकुमारचरितम्’
में ‘काममंजरी’ और ‘रागमंजरी’ का उल्लेख किया है। ‘वात्स्यायन’ के ‘कामसूत्र’, ‘शूद्रक’ के ‘मृच्छकटिकम्’, ‘राजशेखर’ के ‘काव्यमीमांसा’
व ‘दामोदरगुप्ता’ के ‘कुट्टनीमतम्’ आदि रचनाओं में भी वेश्या के अनेक रूपों का वर्णन किया गया है। ‘शूद्रक’ के ‘मृच्छकटिकम्’ में वेश्या की तुलना उस बावड़ी से की गई है, जिसमें द्विजवर तथा मूर्ख दोनों ही स्नान कर सकते हैं। उसे वह लता बताया गया है, जहाँ पर मयूर तथा कौवे समान रूप से बैठते हैं। उसकी तुलना उस नौका से की गई है, जहाँ पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र सभी बैठ सकते हैं।22
हर्षवर्धन के साम्राज्य के पतन के पश्चात् देश में अनेक छोटे बड़े राजाओं का उदय हुआ जिन्होंने वेश्यावृत्ति को बढ़ावा दिया। ‘कल्हण’ की ‘राजतरंगिणी’, ‘क्षेमेन्द्र’ की ‘समयमातृका’ एवं ‘नीलमत्तपुराण’,
‘चन्दबरदाई’ के ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘नरपति नाल्ह’ की ‘बीसलदेव रासो’, ‘गणपति’ की ‘माधवानलकामकंदला’
तथा अरब यात्री ‘अलबरूनी’ की ‘तहकीक-ए-हिन्द’ में भी वेश्याओं का उल्लेख मिलता है।
दक्षिण भारत में वेश्यावृत्ति का एक स्वरूप ‘देवदासी प्रथा’ के रूप में देखने को मिलता है। मंदिर में स्त्री के अर्पण का प्रचलन प्राचीन काल से ही समाज में विद्यमान है। वास्तव में एक संस्था के रूप में इस प्रथा का कब विकास हुआ इस पर विद्वानों में मतभेद है किन्तु पश्चिम के अधिकांश विद्वान 10वीं शताब्दी से इसकी शुरूआत मानते हैं। भारत में साहित्य एवं पुरालेखीय प्रमाणों में देवदासियों के लिए बासवी23, जोगती24, सुले25 तथा सानी26 जैसे शब्द मिलते हैं। कन्नड़ तथा तेलुगू में इन शब्दों का अर्थ वेश्या है। ‘उड़ीसा’, ‘आन्ध्र प्रदेश’, ‘तमिलनाडु’ और ‘कर्नाटक’ इस प्रथा के प्रमुख केन्द्र थे। इस प्रथा के अन्तर्गत किसी मान्यता के फलस्वरूप माता-पिता अपनी बेटियों को मंदिरों में दान कर देते थे। इन कन्याओं का दान मंदिरों में देवताओं की सेवा एवं पूजा अर्चना के लिए किया जाता था किन्तु इनका भोग मंदिर के पुजारी के द्वारा किया जाने लगा और धर्म की आड़ में वेश्यावृत्ति को बढ़ावा दिया गया।
आगे चलकर बारहवीं शताब्दी में मुगलों के आक्रमण के फलस्वरूप वेश्यावृत्ति का विकास हुआ। भारत में प्रवेश के समय ये अकेले थे और अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए इन्होंने पराजित राजाओं की स्त्रियों को अपनी यौन इच्छाओं की तृप्ति हेतु शिकार बनाया। ‘मिनहाज-उस-सिराज’ की ‘तबकात-ए-नासिरी’ में सुल्तान ‘कैकूबाद’ की और ‘मौलाना जियाउद्दीन बर्नी’ की ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ में ‘अलाउद्दीन खिलजी’ एवं ‘मुबारक शाह खिलजी’ की समलैंगिक रंगरेलियों के प्रमाण मिलता है। मुगल काल में आकर वेश्याओं के लिए तवायफ और रंडी जैसे शब्द प्रयुक्त होने लगे थे। इसके अतिरिक्त कोठा, चकला एवं परी बाजार जैसे शब्दों का प्रयोग होने लगा था।27
पेशवाओं के अतिरिक्त ‘होल्कर’, ‘सिंधिया’ और ‘गायकवाड़ों’ ने वेश्यावृत्ति को बढ़ावा दिया। आगे चलकर नावबों के काल में भी वेश्यावृत्ति बनी रही। ‘अवध’ के नवाब ‘वाजिद अली शाह’ ने वेश्याओं को विशेष रूप से आश्रय दिया। उनके काल को ‘वेश्याओं का स्वर्ण युग’ कहा जाता है। बंगाल के ‘नवाब मीरजाफर’ के ‘मुन्नीजान’ नामक वेश्या के साथ संबंधों का विवरण प्राप्त होता है। आगे चलकर अंग्रेजों ने भी वेश्याओं प्रश्रय दिया जिसके कारण ‘कलकत्ता’ में ‘सोनागाछी’, ‘बम्बई’ में ‘कामाठीपुरा’ जैसे रेड लाइट एरिया का विकास हुआ। यह रेड लाइट एरिया आज भी बहुत प्रसिद्ध हैं। अधिकतर विदेशी व्यापारी भारत में बिना परिवार के आए थे। इस कारण अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति हेतु उन्होंने हिन्दुस्तानी स्त्रियों को अपना निशाना बनाया और अपनी रखैल के रूप में उनका उपभोग किया।
अंततः यह कहा जा सकता है कि प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक वेश्याओं की उपस्थिति समाज में पाई गई है किन्तु प्राचीन काल में जहाँ इन वेश्याओं ने समाज को एक अलग कला एवं संस्कृति से युक्त किया वहीं आज वह सिर्फ वासनापूर्ति का यंत्र मात्र बनकर रह गई है। समय की माँग के अनुसार वेश्याओं ने अपना पुराना प्रतिष्ठित रूप त्यागकर केवल अपनी देह को वासना के बाजार में विक्रय की वस्तु के रूप में उपलब्ध करा दिया है जो किसी भी देश तथा समाज के लिए अत्यन्त भयावह है।
सलाम आखिरी में अभिव्यक्त वेश्या जीवन का यथार्थ -
‘वेश्यावृत्ति’ को नगर जीवन की एक कुरूप घटना कहा जाए तो गलत न होगा। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों के अन्तर्गत ‘मधु कांकरिया’ का ‘सलाम आखिरी’ विशेष रूप से महानगरों में व्याप्त वेश्यावृत्ति के यथार्थ को बयान करता है। अनेक कारणों से वेश्यावृत्ति की समस्या भारत के अनेक नगरों में तेजी से फैलती जा रही है। साथ ही यहाँ हर तरह की वेश्या एवं वेश्यालय मिल जाएगें जहाँ ग्राहक अपनी हैसियत के अनुसार यौन संतुष्टि प्राप्त कर सकते हैं। ‘क्षमा गोस्वामी’ ने अपनी पुस्तक ‘नगरीकरण और हिन्दी उपन्यास’ में नगरों व्याप्त वेश्यावृत्ति की समस्या पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि-
‘‘वास्तव में वेश्यावृत्ति नगरों की भयंकर सामाजिक समस्या बनती जा रही है। विश्व के सभ्य कहलाये जाने वाले अनेक नगर-पेरिस, स्विट्जरलैण्ड, वेनिस आदि तो वेश्यावृत्ति के नंगे अड्डे हैं। भारतीय नगरों में इस समस्या का स्वरूप कम उग्र नहीं है। ........ निर्धनता, बेरोजगारी, पारिवारिक विघटन, औद्योगिक क्षेत्रों में स्त्रियों की तुलना में पुरूष-संख्या में वृद्धि, अधिक से अधिक धनार्जन की आकांक्षा तथा पूंजी का आधिक्य आदि ने सम्मिलित रूप से इस समस्या को एक निश्चित युग की प्रघटना बना दिया है।’’28
भारत के बड़े-बड़े महानगरों में जहाँ चारों तरफ भीड़-भाड़, चौड़ी सड़के, चमचमाती कारें और मॉल्स देखकर यह लगता है कि भारत विकास की ओर अग्रसर है और वह दिन दूर नहीं जब वह विकसित देशों की कतार में शामिल हो जाएगा। लेकिन अगर महानगरों की चमक-दमक से हटकर एक ऐसी भी दुनिया है जिसका अपना एक अलग इतिहास है-
‘‘ये वे दरवाजे हैं शहर के जो खुलते ही उस दुनिया में ले जाते हैं जिसके होने एवं जीवित रहने के विधान वे नहीं है जो आप अपने घरों में देखते-सुनते हैं या अपनी पुस्तकों में पढ़ते हैं। सभ्यता के अनुशासन से परे, इस दुनिया के विधान दूसरे हैं, जीने की शर्तें अलग हैं।’’29
यहाँ हर रोज न जाने कितनी आत्माओं का दमन होता है। महानगरों में वेश्या जीवन के स्वरूप को अगर देखना एवं उसका अध्ययन करना हो तो उसके लिए ‘सलाम आखिरी’ नामक उपन्यास की यह पंक्तियाँ ही भारत के महानगरों की सच्चाई को बयान कर देगीं-
‘‘यह दुनिया कलकत्ता महानगर के विभिन्न दरवाजों-सोनागाछी, बहु बाजार, कालीघाट, बैरकपुर, खिदिरपुर आदि में खुलती है। यहाँ जीवन के कुरूप से कुरूप एवं भयंकर से भयंकर नग्न रूप मिल जाएँगे क्योंकि यहाँ संस्कृति, मर्यादा एवं परम्पराओं का कोई डर नहीं है। बन्धन नहीं है।…….. इन सभी लालबत्ती इलाकों में सबसे प्राचीन, सबसे स्थापित, बदनाम, खासी आबादीवाला इतिहास और विरासत वाला इलाका है सोनागाछी।’’30
यह है हमारे देश के महानगरों की सच्चाई। इस उपन्यास की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह एक स्त्री लेखिका ‘मधु कांकरिया’ द्वारा लिखा गया है और वह इसकी स्वयं प्रत्यक्षदर्शी भी हैं। साथ ही इस उपन्यास की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह पुरूषों को समर्पित करके लिखा गया है। ‘महेश दर्पण’ ने इस उपन्यास को पुरूषों के लिए लताड़ मानते हुए कहा है कि-
‘‘सलाम आखिरी को समर्पित किया है मधु कांकरिया ने पुरूषों के लिए, तो यह ठीक भी है। दरअसल यह लताड़ पुरूष की उस आदिम लालसा के प्रति ही है जो स्त्री को वस्तु में तब्दील कर डालती है। यही नहीं पुरूष की नीच पौरूष भी यहीं सर्वाधिक एक्सपोज होता है।’’31
‘सलाम आखिरी’ ‘कलकत्ता’के ‘सोनागाछी’ नामक रेड लाइट एरिया को आधार बनाकर लिखा गया है जो पूरे विश्व में सबसे प्राचीन और स्थापित वेश्याओं की मंडी के रूप में प्रसिद्ध है। मधु कांकरिया ने बंगाल में वेश्यावृत्ति के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि-
‘‘यह सोनागाछी है। मध्य कलकत्ता का ऐतिहासिक लालबत्ती इलाका जहाँ सत्रहवीं शताब्दी के ढलते वर्षों से ही सामन्ती जमींदार, सेठ, रईस, कलाप्रेमी, रसिक और बौद्धिक वर्ग कई-कई आकर्षणों में बँधे यहाँ की कामिनियों, नगर-वधुओं, सर्वभोग्या बाईजियों और वेश्याओं की महफिलों को रोशन करते हैं।’’32
वेश्याओं के जीवन एवं उसकी मनःस्थिति को इस उपन्यास में लेखिका ने अत्यन्त समीप से देखा-परखा है। काफी गहन अध्ययन के पश्चात् लेखिका इस निष्कर्ष पर पहुँची हैं कि अधिकांश वेश्याएँ आर्थिक कारणों से इस व्यवसाय में प्रवेश करती हैं। उपन्यास की प्रमुख पात्र महिला पत्रकार ‘सुकीर्ति’ पेशे से पत्रकार है और लेखिका की प्रतिनिधि के रूप में हमारे सामने आती है। वह अपनी एक सहकर्मिणी के तीन वर्ष पहले और उसके यहाँ काम करने वाली एक बाई की तेरह वर्षीय पुत्री के कुछ महीने पहले सोनागाछी रेड लाइट एरिया में खो जाने के कारण वह उन्हें इन गलियों में अक्सर ढूँढने के लिए आ जाती है। जब वह रेड लाइट एरिया जाती है तो उसके मन में यही सवाल होता है कि आखिर क्यों एक स्त्री इस व्यवसाय को अपनाती है? रेड लाइट एरिया का माहौल, तंग गलियाँ और वेश्याओं की समस्याओं को देखकर वह अत्यन्त व्यथित हो जाती है। जब वह इनके कारणों की पड़ताल करती है तो जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण निकल कर सामने आता है वह कुछ इस प्रकार से है-
‘‘तुम्हें डर नहीं लगता, अपनी इज्जत को इस प्रकार पराए मर्द के हवाले करते......’’
‘‘क्यों नहीं लगता है, बहुत लगता है.....एकदम शुरू-शुरू में तो बोटी-बोटी अकड़ गई थी....’’
‘‘तो फिर क्यों करती हो तुम ऐसा?’’
‘‘क्योंकि इससे भी ज़्यादा डर एक और चीज़ है, उससे लगता है।’’
‘‘क्या है वह?’’
‘‘भूख.....!’’33
आर्थिक कारणों में भूख को वेश्यावृत्ति अपनाने के सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों में से एक माना जाता है। ‘मद्रास निगरानी आयोग’ का भी यह मानना है कि ‘अधिकांश रूप से वेश्यावृत्ति का व्यवसाय जीविकोपार्जन के लिए किया जाता है।’34
‘लोंड्रस’ ने भी इस बात का समर्थन करते हुए कहा है कि भूख वेश्यावृत्ति का आधार है।35 भूख व्यक्ति को कुछ भी करने के लिए मजबूर कर देती है। संस्कृत में ‘विभूक्षितः किम् न करोति पापम्’ कहकर यह बताया गया है कि भूखा व्यक्ति कोई भी पाप करने के लिए तैयार हो जाता है। यही वजह है कि जब कमाई का कोई और जरिया इनके लिए शेष नहीं रह जाता है तब स्त्रियाँ अपनी व अपने परिवार की क्षुधा को शान्त करने के लिए यह व्यवसाय अपनाने के लिए मजबूर होती हैं। ‘गीताश्री’ ने अपनी पुस्तक ‘औरत की बोली’ में बांग्लादेश की एक ऐसी बाल वेश्या का वर्णन किया है जो कुछ पैसों के कारण दलाल के माध्यम से शरीर बेचने के लिए मजबूर है क्योंकि वह दलाल उसे दिन में दो बार भरपेट भोजन देता है।36 इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि किस प्रकार भूख एक व्यक्ति को देह से समझौता करने के लिए मजबूर कर देती। मात्र दस रू0 से लेकर हजार रू0 के लिए कतार में लगी ये देह न जाने कितनी अतृप्त आकांक्षाओं को तृप्त करती हैं और यह सिलसला एक के चले जाने के पश्चात् समाप्त नहीं होता है बल्कि अगली अतृप्त वासना के लिए इंतजार करना पड़ता है क्योंकि एक देह काम की मारी है और दूसरी भूख की और इन्हीं दोनों भूख की तृप्ति के लिए एक देह तैयार होती है बिकने के लिए और दूसरी खरीदने के लिए।
अधिकांश वेश्याएँ आर्थिक कारणवश इस पेशे को अपनाती हैं और जब वह इस पेशे योग्य नहीं रह जाती हैं तब वह एक घर खरीदकर उसमें स्वतंत्र चकलाघर चलाती हैं जिससे वह आगे की ज़िन्दगी आराम से बिता सके। इसके अतिरिक्त इस पेशे को अपनाने के पश्चात् समाज इनको स्वीकार करने से इंकार कर देता है जिससे वह इस व्यवसाय से बाहर निकलने का साहस भी नहीं कर पाती हैं और मजबूरन इस व्यवसाय में लिप्त रहती हैं। अंत में वे इसी व्यवस्था का अंग बनकर रह जाती हैं।
वर्तमान समय में मानव कितना संवेदनहीन हो चुका है जिसे केवल स्त्री देह से ही मतलब है। वो क्या सोचती है, क्या समझती है एवं क्या चाहती है उससे इन पुरूषों का कोई सरोकार नहीं। ऐसे संबंध तथा मानव को किस नाम से संबोधित किया जाए जहाँ प्रेम एवं इंसानियत ही शेष नहीं रह गई है। प्रेम एवं यौन तृप्ति मात्र एक क्रय-विक्रय तक सीमित होकर रह गई है। ‘बटरोही जी’ ने अपने लेख ‘हिन्दी उपन्यास में देह व्यापारः स्त्री की नजर से’ में ऐसे रिश्तों को कीट-पतंगों से भी निकृष्ट माना है।37
ऐसे समाज की निर्मिति के पीछे शायद प्रमुख कारण यह है कि वहाँ जाने वाला हर वेश्यागामी पुरूष संवेदनाहीन हो चुका है और उसके अंदर स्त्री जाति के लिए सम्मान भी शेष नहीं रह गया। तभी उसे इस बात का अपराधबोध नहीं होता। दूसरी ओर वेश्याएँ भी इस पेशे को मजबूरीवश अपनाती हैं इस कारण वह अपने हर आने वाले ग्राहक से घृणा करती हैं। यद्यपि यह सत्य है कि ऐसे समाज एवं वातावरण में सिर्फ मृत आत्मा और जीवित शरीर की कल्पना ही की जा सकती है।
अन्ततः यह कहा जा सकता है कि हिन्दी उपन्यासों समय-समय पर वेश्याओं को आधार पर उपन्यास रचना की गई जिसके फलस्वरूप वेश्या जीवन के विविध स्वरूप उभरकर हमारे सामने आते हैं। उपर्युक्त उपन्यास इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण हैं कि ये न केवल वेश्या जीवन के यथार्थ को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं बल्कि वेश्याओं को वेश्याओं की तरह नहीं बलिक एक मनुष्य के रूप में देखे जाने और उनके साथ वैसा व्यवहार किए जाने की मांग भी करते हैं।
संदर्भ :
1. कालिका प्रसाद, वृहत हिन्दी कोश, ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस, प्रथम संस्करण, संवत् 2009, पृ0 1149।
2- डॉ0 देवी प्रसाद मिश्र, जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1988, पृ0 123।
3- वमन शिवराव आप्टे, संस्कृत हिन्दीकोश, मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन, 12वाँ संस्करण, दिल्ली, 2015 पृ0 33।
4. बलभद्र प्रसाद मिश्र, मानक अँग्रेजी हिन्दी कोश, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, प्रथम संस्करण, 1971 पृ0 1082।
5. डॉ0 सुधा काळदाते, भारतीय सामाजिक समस्या, पिंपळापुरे एण्ड कं0 पब्लिशर्स, नागपुर, द्वितीय आवृत्ति, जून 1991, पृ0 97।
6. विभूति नारायण राय, संपादक, पत्रिका-वर्तमान साहित्य, मार्च 2013, पृ0 14।
7. श्रीधर व्यंकटेश केतकर, महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश, महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश मंडल लिमिटेड नागपुर, 1926, पृ0 282।
8. हिन्दी शब्दसागर, भाग 3, नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस,
1969, पृ0 122।
9. डॉ0 सुधा काळदाते-मनोहर पिंपळापुरे, भारतीय सामाजिक समस्या, पिंपळापुरे एण्ड कम्पनी पब्लिशर्स, नागपुर, दूसरी आवृत्ति, जून 1991, पृ0 97।
10. दृष्टव्य है, डॉ0 गणेश पाण्डेय, अरूणा पाण्डेय, नगरीय समाजशास्त्र, राधा प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण,
2004, पृ0 सं0 343।
11. दृष्टव्य है, डी0 एस0 बघेल, नगरीय समाजशास्त्र, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, 1980, पृ0 351।
12. दृष्टव्य है,वही,पृ0 सं 349।
13. देवराज चानना, अनुवादक शंभुदत्त शर्मा, प्राचीन भारत में दास प्रथा, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय,
सं0
1989, पृ0 सं0 309।
14. सरला मुद्गल, आज की आम्रपाली, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1993, पृ0 सं0 17।
15. विभूति नारायण राय, संपादक, पत्रिका-वर्तमान साहित्य, मार्च 2013, पृ0 16।
16. सरला मुद्गल, आज की आम्रपाली, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1993, पृ0 सं0379।
17. सं0 डॉ0 देवी प्रसाद मिश्र, जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1988, पृ0 124।
18. ‘‘सौभाग्यालंकारवृद्धया सहस्त्रेण वारं कनिष्ठं मध्यममुत्तमं वा रोपयेत्।’’
अर्थशास्त्र, अधिकरण 2/वार्ता 27/अध्याय 27।
‘‘रूपयौवनशिल्पसम्पन्नां सहस्त्रेण गणिकां कारयेत्। कुटुम्बार्धेन प्रतिगणिकाम्।’’
अर्थशास्त्र, अधिकरण 2/वार्ता 1/अध्याय 27।
कौटिल्य, प्रो0 इन्द्र (रूपान्तरकार), राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ0 सं0 164।
19.संज्ञा भाषान्तरज्ञाश्च स्त्रियस्तेषामनात्मसु। चारघातप्रमादार्थ प्रयोज्या बन्धुवाहनाः। श्लोक 43 अध्याय 27 अधिकरण 2, वही, पृ0 सं0 180।
20. दृष्टव्य है, विभूति नारायण राय, संपादक, पत्रिका-वर्तमान साहित्य, मार्च 2013, पृ0 15।
21. ‘गुणानुरक्ता गणिका च यस्य वसन्तशोमेव वसन्तसेना’
शूद्रक, डॉ0 विद्यानिवास शास्त्री (टीकाकार), मृच्छकटिकम्, साहित्य भण्डार, मेरठ, चतुर्थ संस्करण, 1980, पृ0 सं0 56।
22. ‘‘वाप्यां स्नाति विचक्षणो द्विजवरो मूर्खोऽपि वर्णाधमः।
फुल्लां नाम्यति वायसोऽपि हि लतां या नामिता वर्हिणा।।
ब्रह्मक्षत्रविशस्तरन्ति च यया नावातयेवेतरे।
त्वं वापीव लतेव नौरिव जनं वेश्यासि सर्वं भज।।’’
शूद्रक, डॉ0 विद्यानिवास शास्त्री (टीकाकार), मृच्छकटिकम्, साहित्य भण्डार, मेरठ, चतुर्थ संस्करण, 1980, पृ0 सं0 32।
23. बासवी ‘बासव’ का स्त्रीलिंग है। बासव यानि बैल (साँड़)। हिन्दू मत में यह जनन क्षमता का सूचक है। बासवी शब्द का सबसे आरंभिक जिक्र नौंवी सदी के शिलालेख (अभिलेख) में मिलता है। प्राचीन काल में देवताओं को बैल अर्पित किए जाते थे। इसी तरह महिला (बसवी) भी देवी को अर्पित की जाने लगी।
दृष्टव्य है, प्रियदर्शिनी विजयश्री, अनुवाद विजय कुमार झा, देवदासी या धार्मिक वेश्या, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ0 सं0 95।
24-.जोगती शब्द ‘जोगी’ का स्त्रीलिंग है, जिसकी व्युत्पत्ति‘योगी’ से हुई है। योगी, जो सांसारिक बंधनों से मुक्त हो और जिसे सत्य का ज्ञान हो। योगिनी योगी का स्त्रीलिंग है। निजाम शासित क्षेत्र में ये जोगिनीनाम से लोकप्रिय थीं।वही, पृ0 सं0 95।
25. सुले कन्नड़ शब्द है जिसका अर्थ वेश्या होता है। किन्तु इसकी उत्पत्ति संस्कृत पद सुला से हुई है जिसका प्रयोग वेश्या या रंडी के संदर्भ में किया गया है। आगे चलकर औपनिवेशक काल में इनके लिए देवदासी शब्द का प्रयोग होने लगा था।
दृष्टव्य है, टी0 एन0 बरॉ और एम0 बी0 मेन्यू, ए द्राविड़ियन इटिमोलोजिकल डिक्शनरी, (ऑक्सफोर्ड, 1984), द्वितीय संस्करण, पृ0 247।
26-.सानी तेलुगू भाषा का शब्द है जिसका प्रयोग वेश्या के संदर्भ में होता है। इसकी उत्पत्ति संस्कृत के शब्द ‘स्वामिनी’ से हुई है। जिसका अर्थ रूतबेदार स्त्री, दाई और नृत्यांगना के अर्थ में हुआ है। औपनिवेशिक काल में सानी का प्रयोग नृत्यांगना और रूतबेदार स्त्री के अर्थ में ही हुआ है।
दृष्टव्य है, एम0 वेंकटरत्नम, डब्ल्यू एच0 कैम्पबेल और के0 विरसोलिंगम (सम्पादक), चार्ल्स फ्लीप ब्राउन्स तेलुगु इंग्लिश डिक्शनरी, एशियन एजुकेशनल सर्विसेज, मद्रास, 1999, पृ0 1330।
27. सरला मुद्गल, आज की आम्रपाली, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1993, पृ0 सं0 22।
28.‘क्षमा गोस्वामी’ ने अपनी पुस्तक ‘नगरीकरण और हिन्दी उपन्यास’जयश्री प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं0 1981,
पृ0 214.
29. मधु काँकरिया, सलाम आखिरी, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2007, पृ0 13।
30. वही, पृ0 13।
31. महेश दर्पण, लेख- दिए गए विषय पर सोचने को मजबूर करता है सलाम आखिरी, हंस पत्रिका, जून 2003, पृ0 90।
32. मधु काँकरिया, सलाम आखिरी, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2007, पृ0 8।
33. वही, पृ0 19।
34. दृष्टव्य है, दृष्टव्य है, डॉ0 गणेश पाण्डेय, अरूणा पाण्डेय, नगरीय समाजशास्त्र, राधा प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण,
2004, पृ0 सं0 352।
35. दृष्टव्य है, वही, पृ0 352।
36. गीताश्री, औरत की बोली, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं0 2011, पृ0 सं0 131।
37. बटरोही, लेख- हिन्दी उपन्यास में देह व्यापार’; स्त्री की नजर से, समयांतर, संपादक पंकज बिष्ट,जून 2012, पृ0 55।
अंशिता शुक्ला
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, एम0 जे0 के0 कॉलेज, बेतिया, बिहार
anshitashukla06@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022 UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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