शोध आलेख : आरंभिक फिल्म पत्रकारिता, फिल्म इंडिया और बाबूराव पटेल : सिनेमाई-बोध और युग-चेतना / डॉ. समरेन्द्र कुमार

शोध आलेख : आरंभिक फिल्म पत्रकारिता, फिल्म इंडिया और बाबूराव पटेल : सिनेमाई-बोध और युग-चेतना

- डॉ. समरेन्द्र कुमार


शोध-सार : भारत में फिल्म-निर्माण के आरंभिक दशक में ही फिल्म पत्रकारिता की शुरुआत हो गई। तत्कालीन दैनिक समाचार-पत्रों में सिनेमा से संबंधित सूचनाएँ और जानकारियाँ प्रकाशित होने लगी थी। फिल्मों के प्रति जनता की उत्सुकता को देखते हुए शीघ्र ही अलग-अलग भाषाओं में फिल्म केंद्रित पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आरंभ हो गया। इन्हीं आरंभिक पत्रिकाओं में एक ‘फिल्म इंडिया’ का प्रकाशन मुंबई में सन् 1935 में शुरू हुआ, इस पत्रिका ने फिल्मी पत्रकारिता के गंभीर, संयमित और सूचनाप्रद रूप को स्थापित किया। निरर्थक वाद-विवाद और उत्तेजनापूर्ण खबरों के स्थान पर इसमें फिल्म और फिल्म-निर्माण से संबंधित ज्ञानवर्धक सूचनाएँ होती थी। फिल्मों को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए भी इस पत्रिका ने अपनी भूमिका निभाई। इतना ही नहीं भारतीय समाज को अपमानित करने वाली फिल्मों को प्रतिबंधित करने को लेकर इस पत्रिका और इसके संपादक ने आंदोलन चलाया और उसमें इन्हें सफलता मिली। इस पत्रिका ने आरंभिक फिल्म पत्रकारिता में एक मानक स्थापित किया, जिसकी बराबरी करना वर्तमान फिल्म पत्रिकाओं के लिए कठिन है।

 

बीज शब्द : सिनेमाई-बोध, युग-परिवेश, स्तंभ, समीक्षा, निर्देशक, साम्राज्यवादी, औपनिवेशिक।

 

मूल आलेख : 7 जुलाई, 1896 को बंबई के वाटसन होटल में लुमिएर ब्रदर्स के फिल्म-प्रदर्शन ने भारतीय दर्शकों को एक ऐसा अद्भुत अनुभव दिया कि वे चमत्कृत रह गए। इस प्रदर्शन ने कई भारतीय छायाकारों को फिल्म निर्माण के लिए प्रेरित किया, इनमें से एक थे हरिश्चंद्र सखाराम भाटवडेकर, जिन्हें लोग आदरपूर्वक सावे दादा कहते थे और दूसरे थे हीरालाल सेन। इन्होंने अपने आस-पास घटित दृश्यों का फिल्मांकन कर उसे प्रदर्शित किया। आगे चलकर, 3 मई, 1913 को धुंडिराज गोविंद फालके ने बंबई के कोरोनेशन थिएटर में ‘राजा हरिश्चंद्र’ का प्रदर्शन कर भारत में फिल्म निर्माण के नए युग का सूत्रपात किया। आज भारतीय सिनेमा ने सौ साल से अधिक की यात्रा पूरी कर ली है और इस दौरान सिनेमा भारतीय जनता के लिए मनोरंजन के सबसे लोकप्रिय माध्यम के रूप में विकसित हुई। फिल्म निर्माण में संख्या की दृष्टि से आज भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है।

आरंभिक फिल्म पत्रिकाएँ: आरंभ से ही फिल्म ने एक ओर जहाँ आम जनता को अपनी ओर आकृष्ट किया, वहीं दूसरी ओर शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग का ध्यान भी इस ओर गया। फिल्म निर्माण के आरंभिक दौर में सिनेमा देखने के प्रति आम जनता और शिक्षित लोगों की उत्सुकता और रुझान को देखते हुए उस समय के पत्र-पत्रिकाओं ने फिल्मों से संबंधित सूचनाएँ और आलेख प्रकाशित करनी आरंभ कर दी। इतना ही नहीं फिल्म निर्माण का पहला दशक पूरा होने से पहले ही भारत में फिल्म केंद्रित पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आरंभ हो गया। इस दृष्टि से सबसे पहला नाम बांग्ला भाषा में प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘बिजॉली’ का मिलता है। इससे पहले कोई फिल्मी पत्रिका निकलती थी अथवा नहीं, यह ज्ञात नहीं है। सन् 1924 में जे. के. द्विवेदी ने बंबई (अब मुंबई) से गुजराती भाषा में ‘मौज मजाह’ नाम से फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसके बाद वर्ष 1926 में कोलकाता से ‘फोटोप्ले’ तथा 1927 ई. में मद्रास (अब चेन्नई) से ‘मूवी मिरर’ और बंबई से ‘किनेमा’ का प्रकाशन आरंभ हुआ। सन् 1929 में नगीन लाल शाह ने बंबई से गुजराती में ‘चित्रपट’ नाम से एक फिल्मी पत्रिका शुरू की। इसके बाद 1930 ई. में कोलकाता से अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका “फिल्म लैंड’ प्रकाशित हुई। इसी वर्ष कोलकाता से शैलजा नन्द मुखर्जी के संपादन में फिल्म साप्ताहिक ‘बायोस्कोप' निकली। सन् 1931 में दो अन्य फिल्म साप्ताहिक पत्रिकाएँ ‘बातायन’ और ‘चित्रलेखा’ की शुरुआत कोलकाता में हुई। वर्ष 1934 में दिल्ली से हृषण चरण जैन के संपादन में ‘चित्रपट’ पत्रिका की शुरुआत हुई। इसी वर्ष एक अन्य साप्ताहिक ‘रूपरेखा’ भी प्रकाशित हुई। सन् 1935 में पी. एस. चेट्टियार ने तमिल में ‘सिनेमा उलागम’ निकालना शुरू किया।1935 में ही बंबई से बाबूराव पटेल ने अपनी फिल्म पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ का प्रकाशन आरंभ किया, आरंभिक दौर में फिल्म पत्रकारिता को सम्मान दिलाने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। 1938 में बंबई से ‘इंडियन स्क्रीन गज़ट’ और 1939 में ‘फिल्म इंडस्ट्री’ नाम से पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ। 1930 के दशक में बड़ी संख्या में फिल्म आधारित पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ होना आम जनता के बीच सिनेमा की बढ़ती लोकप्रियता का प्रमाण तो है ही, पत्रकारिता जगत में इसकी स्वीकार्यता और फिल्म संबंधी सूचनाओं के प्रति जनता की उत्सुकता और जिज्ञासा को भुनाने का भी प्रयास है। इस समय तक सभी प्रमुख पत्रों में अलग से फिल्म एडिटर भी नियुक्त होने लगे थे, ख्वाजा अहमद अब्बास ‘बॉम्बे क्रानिकल’ में, सुश्री क्लारा मेनडॉनका ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में, जीतूभाई मेहता ‘जन्मभूमि’ में, पी. वेंकटरमन ‘बॉम्बे सेन्टिनेल’ में, डी. सी. शाह ‘संडे स्टैन्डर्ड’ में कार्यरत थे।

 

फिल्म इंडिया और बाबूराव पटेल: भारत में फिल्म पत्रकारिता को एक पूर्णकालिक ठोस आकार देने में बाबूराव पटेल का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने सन् 1935 में बंबई (वर्तमान मुंबई) से अंग्रेजी में मासिक पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ का प्रकाशन आरंभ किया और अल्प अवधि में ही यह अपने समय की सर्वश्रेष्ठ फिल्म पत्रिका के रूप में स्थापित हो गई। इस पत्रिका को उन्होंने आधुनिक लोगों की फिल्मी पत्रिका (Motion Picture Magazine for Modern People) कहा, इससे उनका अभिप्राय निश्चित रूप में नई सोच और विचार रखने वाले शिक्षित वर्ग से था। फिल्मी पत्रिका होने के बावजूद भी यह पत्रिका सनसनीखेज और अफवाह फैलाने वाली खबरों से दूर थी। 1970 के दशक से लेकर आज वर्तमान समय में जिस तरह से फिल्मी पत्रिकाओं में मसालेदार, बेबुनियाद और आपत्तिजनक गॉसिप प्रकाशित होते हैं, उस लिहाज से इस पत्रिका ने पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों का पालन किया। विशुद्ध सिनेमा केंद्रित रूप में यह पत्रिका सन् 1961 तक चलती रही, उसके बाद नाम बदलकर ‘मदर इंडिया’ कर दिया गया और राजनीतिक मुद्दों को भी शामिल कर पत्रिका का रूप बदल दिया गया।   

 

आरंभिक दौर में पत्रिका ने सिनेमा के प्रति आम जनता को जागरूक कर पूर्वाग्रहों से मुक्त करने की कोशिश की। पाठकों तक फिल्म संबंधी सही जानकारी पहुँचाने के साथ-साथ पत्रिका में बाबूराव पटेल ने फिल्म निर्माण से जुड़ी समस्याओं को भी उठाया। उन्होंने केवल निर्देशक या अभिनेता और अभिनेत्री के बारे में ही नहीं लिखा बल्कि तकनीकी पक्ष से जुड़े लोगों, मसलन कैमरामैन, लैब टेक्निशियन और जूनियर सहायकों आदि के सामने आने वाली चुनौतियों को भी प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं सिनेमाघर में सुरक्षा-व्यवस्था का मुद्दा भी उन्होंने उठाया। सिनेमाघर में आग लगने से ऊटी में 14 लोगों की मृत्यु होने की घटना पर लिखे संपादकीय में पटेल एक साल पहले हैदराबाद में आग लगने से हुए मौत का उल्लेख करते हुए सरकार से ज़रूरी कदम उठाने की मांग करते हैं। वे कहते हैं कि अमूमन यह आग प्रोजेक्शन रूम से शुरू होती है। आग लगने की घटनाओं के लिए कर्मचारी की तकनीकी अयोग्यता को कारण बताते हुए वे कुशल और दक्ष व्यक्ति को नियुक्त करने और इसके लिए लाईसेंस देने की मांग तत्कालीन सरकार से करते हैं।[1]

 

फिल्म इंडिया के स्तंभ और सिनेमाई-बोध: ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका में कुछ स्थायी कॉलम थे, जैसे- बॉम्बे कॉलिंग, एडिटर्स मेल, राउन्ड दि टाउन, स्टूडियो क्लोज़-अप, हाउलर्स ऑफ दि मंथ, न्यूज फ्रॉम अक्रॉस आदि। इसके अतिरिक्त हॉलीवुड फिल्मों से संबंधित जानकारियाँ भी इसमें दी जाती थी। पत्रिका के प्रत्येक अंक में लगभग 4-5 अभिनेत्रियों की तसवीर होती थी, जिसमें कम से कम एक तसवीर हॉलीवुड अभिनेत्री की होती थी। आगे चलकर 1940 के दशक में कुछ कॉलम के नाम बदल दिए गए, जैसे ‘राउन्ड दि टाउन’ का नाम ‘आवर रिव्यू’ तथा ‘स्टूडियो क्लोज़-अप’ का नाम ‘पिक्चर्स इन मेंकिंग’ कर दिया गया। शुरू में पत्रिका में भविष्यफल का एक कॉलम रखा गया था, लेकिन फिर उसे हटाकर उसकी जगह चुटकुलों का स्तंभ ‘किक्स एंड किसेस’ शुरू किया। बाद में, पत्रिका में ‘बुक्स ऑफ दि मंथ’ नाम से एक स्तंभ शुरू किया गया।

 

‘बॉम्बे कॉलिंग’ स्तंभ के माध्यम से फिल्म निर्माण और प्रदर्शन से जुड़ी समस्याओं और चुनौतियों को सामने लाने की कोशिश की गई। दिसम्बर, 1937 अंक में इस स्तंभ के अंतर्गत अच्छे निर्देशक और दक्ष एवं कुशल कैमरामैन के साथ अच्छी कहानीकार और कहानी की ज़रूरत पर बल दिया गया। अच्छी कहानी को फिल्म की रीढ़ बताते हुए इसमें कहा गया कि ऐसा बहुत बार हुआ है कि अच्छी कहानी होते हुए भी कोई फिल्म असफल हुई हो लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि कमजोर कहानी के बाद भी कोई फिल्म सफल हो जाए; मिथकीय और ऐतिहासिक फिल्म की प्रसिद्धि का समय गुजर चुका है और अब ऐसी फिल्में बहुत पसंद नहीं की जाती हैं। आगे इसमें लिखा गया है कि भविष्य की सफल फिल्में संवेदनशील ज्वलंत मुद्दों पर बनने वाली सामाजिक फिल्में होंगी। निर्माताओं से अच्छी कहानी के लिए कहानीकारों को उचित भुगतान करने का आग्रह भी इस स्तंभ में किया गया।[2] जनसामान्य और समाज में फिल्मी कलाकारों, विशेषकर अभिनेत्रियों के जीवन और चरित्र से जुड़ी भ्रांतिपूर्ण धारणाओं और मिथ्या अफवाहों को खंडित करने का काम भी इस पत्रिका ने अपने आलेखों और स्तंभों के माध्यम से किया। इस रूप में पत्रिका ने अपने पाठक को सिनेमा के बारे में शिक्षित कर समाज में सिनेमाई समझ को विकसित करने का प्रशंसनीय कार्य किया।

 

‘एडिटर्स मेल’ पत्रिका का सबसे लोकप्रिय हिस्सा था और चार-पाँच पृष्ठों का होता था। इस कॉलम में बाबूराव पटेल पाठकों के सवालों का जबाव अपने मनोरंजक और बेबाक अंदाज में दिया करते थे जिसमें कई बार हास्य-विनोद और व्यंग्य भी हुआ करता था। इन प्रश्नों से पता चलता है कि भारतीय दर्शक-वर्ग को फिल्मी ग्लैमर आकर्षित कर रहा था तथा अभिनेता-अभिनेत्रियों और निर्देशक के संबंध में, विशेष रूप से उनके निजी जीवन के बारे में जानकारी की इच्छा बढ़ रही थी। कई पाठक अभिनेत्रियों के चित्र मंगवाने के लिए पता पूछते थे तो कई उनकी आमदनी के बारे में जानना चाहते थे। कानपुर के किसी पाठक द्वारा अभिनेत्रियों का पता माँगने पर बाबूराव पटेल जवाब देते हुए लिखते हैं कि मैं आपको उनका पता दे रहा हूँ, लेकिन आप वादा करें कि आप उनको प्रेम-पत्र नहीं लिखेंगे, इसलिए नहीं कि आप उनसे प्रेम नहीं कर सकते बल्कि इसलिए कि ये लड़कियाँ डर जायेंगी, अगर कोई उनसे सच्चा प्रेम करे क्योंकि वे नकली प्रेम की अभ्यस्त हैं।[3]

 

‘राउन्ड दि टाउन’ स्तंभ में फिल्म की समीक्षाएँ होती थी, बाद में इसके रूप को उन्होंने बदल दिया और ‘आवर रिव्यू’ नाम से अधिक विस्तृत समीक्षाएँ प्रकाशित करनी शुरू की। ये समीक्षाएँ बिलकुल स्पष्ट और निर्मम होती थी, फिल्म के विभिन्न पक्षों का सूक्ष्म विश्लेषण इसमें देखा जा सकता है। उस समय के निर्माता-निर्देशक इन बेबाक टिप्पणियों से सशंकित रहते थे क्योंकि नकारात्मक समीक्षा फिल्मों को विफल बनाने की शक्ति रखती थी। बाबूराव पटेल बड़े से बड़े निर्देशक अथवा अभिनेता-अभिनेत्रियों या फिल्म निर्माण करने वाली स्टूडियो की तीखी आलोचना करने से पीछे नहीं हटते थे।पत्रिका के अक्तूबर,1948अंक में उन्होंने पायोनियर पिक्चर्स द्वारा निर्मित फिल्म ‘चंद्रशेखर’ के लिए दिग्गज निर्देशक देवकी बोस के कमजोर निर्देशन और कल्पनाशीलता की कमी की तीखी आलोचना की, जबकि वे देवकी बोस को भारत के बेहतरीन निर्देशकों में एक मानते थे; फिल्म को उबाऊ बताते हुए इसे निर्देशक का ‘सिनेमाई अपराधिक बर्बादी’ (criminal waste of celluloid) करार दिया। फिल्म की धज्जियाँ उड़ाते हुए पटेल इसे महान लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी की मानहानि बताते हुए लिखते हैं कि देवकी बोस ने कहानी की संवेदना को निचोड़कर रख दिया है और एक शुष्क विषय सामने परोस दिया। वे कहते हैं कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी प्रशंसा की जा सके, यह अक्षम्य सिनेमाई अपराध है तथा एक बुद्धिजीवी महान निर्देशक के रूप में उनकी पूर्व प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है।[4] इस फिल्म में उस समय के बड़े कलाकारों, जैसे अशोक कुमार, कानन देवी, बिमान बनर्जी आदि ने अभिनय किया था।

 

‘स्टूडियो क्लोज़-अप’ स्तंभ में फिल्म-निर्माण के विभिन्न केंद्रों में निर्माणाधीन फिल्मों की सूचना दी जाती थी। बाद में इस स्तंभ का नाम बदलकर ‘पिक्चर्स एंड प्रोड्यूसर्स’ और फिर ‘पिक्चर्स इन मेकिंग’ कर दिया गया। इस स्तंभ में भारत में फिल्म निर्माण के सभी केंद्रों- बंबई, कोल्हापुर, पुणे, कोलकाता और दक्षिण भारत में बन रही फिल्मों की प्रगति की सूचना दिया जाता था। इस स्तंभ में दी गई सूचनाएँ अत्यंत ऐतिहासिक महत्त्व की हैं क्योंकि आज इनमें से कई फिल्में उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन इसके आधार पर सूची तैयार कर फिल्म के विकास की धारा और परंपरा को रेखांकित किया जा सकता है।     

 

प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास, जो इस समय ‘बॉम्बे क्रानिकल’ में फिल्म संपादक के रूप में कार्यरत थे, इस पत्रिका के प्रत्येक अंक में नियमित रूप से लिखा करते थे। उनके आलेखों में सिनेमा के सामाजिक पक्ष और जनवादी सरोकारों पर जोर होता था। उदाहरण के लिए फरवरी,1940 अंक में उन्होंने फिल्म निर्माण में सांप्रदायिक आधार पर गुट बनाने की कोशिशों के लिए मुस्लिम लीग जैसे कट्टरपंथी संगठन पर हमला किया और इसे अयोग्य लोगों का सहारा बताते हुए ऐसे तत्त्वों को दरकिनार करने पर जोर दिया।[5] महात्मा गाँधी के फिल्म विषयक दुराग्रहों को दूर करने की कोशिश में अब्बास अक्तूबर,1939 के अंक में उन्हें एक खुला पत्र लिखते हैं। महात्मा गाँधी फिल्म को सामाजिक बुराई के रूप में देखते थे, नैतिक मूल्यों के पतन का कारण मानते थे और जुआ, घुड़दौड़ आदि की तरह गंदी लत मानते हुए इससे दूर रहने की बात करते थे। गाँधी जी के ऐसे ही एक वक्तव्य को पढ़कर अब्बास ने यह पत्र लिखा था। बापू कहकर संबोधित करते हुए अब्बास उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हैं और फिर लिखते हैं कि आज भारत ही नहीं विश्व भर में आप जिस उच्च स्तर पर बैठे हुए हैं उस स्थिति में आपका एक कथन लाखों लोगों को वैचारिक रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखता है। वे लिखते हैं कि यह सच है कि बहुत सारी फिल्में नैतिक और कलात्मक दृष्टि से खराब बनती हैं तथा धन अर्जित करना ही निर्माता का उद्देश्य होता है; लेकिन जैसे वायरलेस, रेडियो, हवाई जहाज आदि नए आविष्कारों ने हमें सहूलियत दी है, हमारी समस्याओं को कम किया है, उसी तरह सिनेमा के द्वारा हम लोगों को जागरूक कर सकते है, उन तक समाचार, सामान्य ज्ञान तथा राजनीतिक जानकारी पहुँचा सकते हैं। तुकाराम, तुलसीदास, सीता, विद्यापति, धरती माता, आदमी जैसे फिल्मों का उदाहरण देते हुए ख्वाजा अहमद अब्बास गाँधी जी से अपनी राय को बदलने का अनुरोध करते हैं।[6] फिल्मी पत्रकारिता की दृष्टि से यह पत्र एक ऐतिहासिक महत्त्व रखता है केवल इसलिए नहीं कि यह महात्मा गाँधी को संबोधित है, बल्कि इसलिए भी कि इस पत्र के माध्यम से आम जनता के बीच फिल्मों को लेकर बनी गलत धारणा और पूर्वाग्रह को तोड़ने की कोशिश की गई है। यह खुला पत्र नए संचार माध्यम के रूप में फिल्म की उपयोगिता को समझने और अपना नजरिया बदलने के लिए आम लोगों से भी एक आह्वान था।   

 

फिल्म इंडिया में अभिव्यक्त युग-चेतना: जिस कालखंड में ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका का प्रकाशन बाबूराव पटेल ने आरंभ किया, वह आज़ादी की लड़ाई का समय था। स्वतंत्रता-संघर्ष अपने निर्णायक चरण की ओर अग्रसर था। इस दौर में कोई भी सजग व्यक्ति स्वतंत्रता की भावना से अछूता नहीं था। फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन करने के बाद भी संपादक बाबूराव पटेल अपने युग-परिवेश के प्रति सजग थे। इसलिए पत्रिका मेंसमय-समय पर उन्होंने स्वतंत्रता-संघर्ष की छवियों को प्रमुख स्थान दिया है।सामान्यतः पत्रिका के मुखपृष्ठ पर किसी न किसी अभिनेत्री की तसवीर होती थी, लेकिन पत्रिका ने अक्तूबर,1939 से मई,1940 तक के आठ अंकों में लगातार लाल किले की ओर देखते हुए गाँधी जी तसवीर के साथ हाथ में तिरंगा लिए आम लोगों के समूह का चित्र ‘leading the nation’ कैप्शन के साथ मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया।[7] तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए यह एक साहसिक काम था और उनकी निर्भीकता और देशप्रेम का परिचायक भी।

 

बाबूराव पटेल ने ब्रिटिश फिल्मकारों के भारत विरोधी नस्लवादी रवैये पर हमला बोला और उनकी औपनिवेशिक मानसिकता को उद्घाटित किया। यूरोपीय फिल्मकारों द्वारा अपनी फिल्मों में भारतीय लोगों और भारतीय संस्कृति को अपमानित करने वाले दृश्यों पर उन्होंने आपत्ति जताते हुए प्रतिबंध लगाने के लिए मुहिम चलाई। उन्होंने पत्रिका में संपादकीय और आलेखों के माध्यम से ‘दि ड्रम’ और ‘गूँगा दीन’ जैसे भारत विरोधी फिल्मों के खिलाफ सन् सितंबर,1938 से 1939 तक अभियान चलाया। उनके इस अभियान को तत्कालीन दैनिक समाचार पत्रों का साथ मिला, इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कॉग्रेस के नेताओं तथा राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित अन्य समूहों और आम जनता ने भी इसका समर्थन किया। हंगरी के फिल्मकार अलेक्जेंडर कॉर्डा की ब्रिटिश फिल्म ‘दि ड्रम’ पर प्रतिबंध लगाने के लिए बाबूराव पटेल ने अक्तूबर, 1938 अंक में संपादकीय के साथ ही अलग से भी एक आलेख लिखा और अपनी आपत्ति के कारण बताए। ‘दि ड्रम’ को एक शैतानी फिल्म बताते हुए वे लिखते हैं कि यह फिल्म पूरी तरह से भारत विरोधी भावना से ग्रस्त है और फिल्म में आरंभ से ही गोरों की श्रेष्ठता सिद्ध करने का पूरा प्रयास है। वे बताते हैं कि इसमें पठानों को गलत तरीके से चित्रित किया गया है और फिल्म में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पात्र ‘साबू’ को अधनंगे रूप में दिखाया गया है, जिसका उद्देश्य उसके काले रंग को प्रदर्शित करना है, जबकि नस्लीय दृष्टि से पठानों का रंग साफ होता है। पटेल इसके लिए निर्देशक के नस्लवादी सोच को जिम्मेदार ठहराते हैं। इस फिल्म के एक दृश्य में पठान सरदार की भूमिका निभाने वाला अभिनेता रेमण्ड मैसी एक गोरी अभिनेत्री पात्र से कहता है कि “मैं आपके पैरों को चूमता हूँ। मैं आपका गुलाम हूँ।”[8] इस फिल्म के विरोध में चलाए गए अभियान के परिणामस्वरूप लोगों ने बंबई के ‘एक्सेलसिअर’ सिनेमाघर के बाहर प्रदर्शन किया, जिसमें 83 लोगों को गिरफ्तार किया गया।[9] इस फिल्म के राष्ट्रव्यापी व्यापक विरोध को देखते हुए प्रांतीय सरकारों ने अंततः इस पर प्रतिबंध लगाने का फैसला लिया, सबसे पहले मद्रास सरकार (वर्तमान तमिलनाडु) ने इस फिल्म को प्रतिबंधित किया और जनवरी, 1939 तक इस फिल्म के प्रदर्शन पर बंगाल, बिहार, बंबई, पंजाब,दिल्ली आदि प्रांतों में भी रोक लगा दी गई थी।

 

ऐसा ही एक अभियान पत्रिका ने ‘गूँगा दीन’ नाम से बनी फिल्म के विरोध में चलाया। फिल्म की आलोचना करते हुए ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा है कि फिल्म में पानी ढोने वाले गूँगा दीन की कहानी कही गई है, जो एक ब्रिटिश सैनिक को बचाते हुए अपनी जान दे देता है; उसकी मृत्यु के बाद वह पात्र कहता है कि गूँगा दीन तुम मुझसे बेहतर आदमी थे। लेकिन अब्बास का मानना है कि यह समान स्तर वाले एक दोस्त का बलिदान नहीं है बल्कि यह अपने मालिक के लिए एक नौकर का बलिदान है, इसलिए इस संवाद का कोई मतलब ही नहीं है और यह ब्रिटिश साम्राज्यवादी दुष्प्रचार का एक हथकंडा मात्र है।[10] इस फिल्म में भारतीय हिन्दू समुदाय को अपमानित करने वाले दृश्यों की भरमार थी। भारतीय संस्कृति और आस्था पर प्रहार करते हुए फिल्म में ब्रिटिश औपनिवेशिक श्रेष्ठता को स्थापित करने वाले दृश्य थे। फिल्म में भारतीय व्यक्ति को ठग बताते हुए हत्या को उसका धर्म कहा गया और उसकी बर्बरता को प्रमुखता से उभारा गया। फिल्म के एक दृश्य में ब्रिटिश सार्जेंट मंदिर में बूट पहनकर घुस जाता है और उसे अपवित्र करता है। इस फिल्म में देवी काली की गलत छवि को प्रस्तुत किया गया था।[11] फिल्म के विरोध के बाद बंगाल में इस फिल्म पर सबसे पहले पाबंदी लगा दी गई। 

 

बाबूराव पटेल वैश्विक घटनाक्रम के प्रति भी सजग दिखाई देते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध की आहट वे अपने अमेरिका और यूरोप की यात्रा के दौरान सुन चुके थे, उनकी दृष्टि में ‘युद्ध’, इस एक शब्द ने पूरी मानवता को जड़ बना दिया है। अक्टूबर, 1939 अंक के संपादकीय में वे हिटलर और नाजीवाद का विरोध करते हैं और एक तानाशाह की सनक से होने वाली असंख्य प्राणों की संभावित हानि पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए प्रभावित होने वाले लोगों के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट करते हैं। वे युद्ध के कारण फिल्म निर्माण से संबंधित सामग्रियों के मूल्य में वृद्धि पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए निर्माण-लागत में होने वाली बढ़ोत्तरी को नियंत्रित करने के लिए फिल्म की लंबाई को 12000 फीट तक सीमित करने का सुझाव देते हैं।[12] आगे चलकर जब 1942 में विश्व युद्ध की आंच एशिया में पहुँचती है और उसकी दस्तक भारत में सुनाई देने लगती है, तब वे फिर फिल्म उद्योग की समस्याओं पर अपनी चिंता जनवरी, 1942 के अंक में पाठकों तक पहुँचाते हैं।

 

कुल मिलाकर, ‘फिल्म इंडिया’ के माध्यम से बाबूराव पटेल ने फिल्मी पत्रकारिता के स्वस्थ मूल्यों को स्थापित किया है। फिल्मी पत्रकारिता के शैशव-अवस्था में ही उन्होंने जितनी गंभीरता के साथ सूचनाएँ और जानकारियाँ लोगों तक पहुँचाने की कोशिश की, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। उनका उद्देश्य जनता और समाज में एक सिनेमाई बोध और संस्कृति का निर्माण करना था। इस समय सिनेमा को समाज हेय दृष्टि से देखता था, इसलिए समाज में फैली मिथ्या धारणाओं को तोड़ने के उद्देश्य से उन्होंने तार्किक तरीके से सही जानकारी देने की कोशिश की एवं आपत्तिजनक अफवाहों को अपनी पत्रिका से दूर रखा। ‘फिल्म इंडिया’ जिस तरह से युगीन परिवेश के प्रति सचेत था, वह इस पत्रिका को एक भिन्न धरातल पर प्रतिष्ठित करता है। मुख्य धारा की पत्रकारिता के लिए निर्धारित आदर्श मापदंडों को अपनाकर इसने अपने लिए  एक अलग ही स्थान बना लिया। इस पत्रिका ने अपने समय में जो मानक स्थापित किए, वे आज की फिल्म पत्रकारिता से गायब हो चुकी है। आज की फिल्मी पत्रकारिता में सनसनीखेज गॉसिप, अफवाहों पर आधारित खबर और शोर-शराबा हावी होकर रह गई है, लेकिन इस पत्रिका ने जिस तरह से तथ्यपरक खबरों को केंद्र में रखने की नीति बनाई और पत्रकारिता के सिद्धांतों का पालन किया, वह आज के लिए अनुकरणीय है। 

 



[2] Film India, December, 1937, Page-9-11(https://archive.org/details/filmindia19373803unse/page/n21)

[6] Film India, October, 1939, Page -21 (https://archive.org/details/filmindia193905unse/page/n285)

[7] Film India, January, 1940, Cover Page (https://archive.org/details/filmindia194006unse/page/n5)

[8] Film India, October, 1938, Page-25 (https://archive.org/details/filmindia193804unse/page/n221)

[9] Film India, October, 1938, Page-25 (https://archive.org/details/filmindia193804unse/page/n223)

[12]Film India, October, 1939, Page-3 (https://archive.org/details/filmindia193905unse/page/n269)

 

डॉ. समरेन्द्र कुमार, एसोसिएट प्रोफेसर

हिंदी विभाग, श्यामलाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

samrendrakumarslc@gmail.com, 9868096180


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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