आदमी की निगाह में औरत
-विष्णु कुमार शर्मा
राजेंद्र यादव हिंदी के जाने-माने कथाकार हैं। ‘हंस’ के संपादक के रूप में राजेंद्र जी का हिंदी साहित्य जगत को महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ‘हंस’ के संपादक के रूप में आपने स्त्री व दलित विमर्श को नई ऊंचाइयां प्रदान की। आप स्वयं इन दोनों विमर्शों के झंडाबरदार रहे हैं। यह पुस्तक ‘आदमी की निगाह में औरत’ स्त्री-विमर्श और स्त्री-लेखन को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है। पुस्तक के शामिल अनेक लेख ‘हंस’ के सम्पादकीय ‘तेरी मेरी उसकी बात’ के रूप में लिखे गए थे। स्वानुभूति व सहानुभूति की बात स्त्री व दलित दोनों लेखन के संदर्भ में बार-बार उठाई जाती रही है। अनेक सहृदय पुरुषों द्वारा स्त्री उद्धार की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए गए हैं, जो सर्वविदित हैं। हिंदी जगत में अनेक साहित्यकार व चिंतक ऐसे हुए हैं जिन्होंने स्त्री की पीड़ा को समझा, जाना और व्यक्त किया। राजेंद्र जी का मानना है कि स्त्री कथाकारों के खुद सामने आने से यह स्थिति बदली है। बहुतों का मानना है कि एक स्त्री ही स्त्री की पीड़ा को सही ढंग से व्यक्त कर सकती है, कोई पुरुष नहीं। ऐसे में हिंदी साहित्य जगत व आम आदमी की निगाह में क्या है औरत ? उसी की नब्ज टटोलने का एक प्रयास इस पुस्तक में लेखक के द्वारा किया गया है, जिसमें प्रमुख रुप से इस संबंध में उनके अपने विचार भी शामिल है। वे लिखते हैं –“सामंती समाज ने स्त्री को सिर्फ तीन नाम दिए हैं : पत्नी, रखैल और वेश्या। इसके अलावा वह किसी चौथे संबंध को स्वीकार नहीं करता है। ........ लोहिया ने कृष्ण और द्रौपदी के बीच मैत्री संबंध को आदर्श, बराबरी का बताया जरूरी है, लेकिन आगे वह कहीं दिखाई नहीं देता।”[1] हालांकि अब समय थोड़ा बदला है लेकिन यह स्थिति महानगरों व बड़े शहरों तक ही सीमित है।
‘अग्निपरीक्षाएं’ शीर्षक अध्याय में नैना साहनी, रूपकंवर(देवराला
सती कांड), सुषमा सिंह के उदाहरण देते कहते हुए वे कहते हैं कि सतयुग हो त्रेता,
जलना तो नैना साहनी (स्त्री) को ही होगा। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता स्त्रियों को
आत्मविश्वास भले ही देती हो, मगर सामाजिक सम्मान तो सेक्स नैतिकता से ही तय होता
है। “स्त्री-व्यक्तित्व के तो बड़े से बड़े गुब्बारे को ‘नैतिक स्खलन’ की छोटी सी
सुई से फोड़कर ध्वस्त किया जा सकता है। ”[2]
‘औरत ही औरत की दुश्मन होती है’ जुमले की
पड़ताल करते हुए वे कहते हैं कि अवसर मिलते ही दबी-कुचली बहू निरंकुश सास बन जाती
है। पुरुषों द्वारा सहानुभूति या परकाया-प्रवेश के नाम पर लिखे गए स्त्री-विमर्श
को वे छलावा ही मानते हैं। उनका मानना है कि जब से स्त्री ने अपनी पीड़ा को
अभिव्यक्ति देने और अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु कलम उठाई है, स्त्रियों में
वास्तविक चेतना का संचार हुआ है। स्त्री-मुक्ति की कामना में उन्होंने रुकैया
सखावत की ‘सुल्ताना का सपना’ को सबसे महत्त्वपूर्ण कृति माना है। इस्मत चुगताई,
कृष्णा सोबती, महाश्वेता देवी, कुर्रतुल एन हैदर की रचनाएँ भी औरतों को समझने में
मदद देती है। ‘गिरिजाघर में मौत :
महादेवी वर्मा’ अध्याय में राजेंद्र जी स्त्री-लेखन में महादेवी वर्मा के साहित्य
की पड़ताल करते हैं। तत्कालीन समाज में
नारी की स्थिति व नियति को केंद्र बनाकर लिखी उनकी पुस्तक ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ को
लेखक ने हिंदी की अत्यंत समृद्ध, सशक्त और बेबाक गद्य कृति माना है। “एक तरफ इतना
यथार्थवादी विश्लेषण और दूसरी तरफ ऐसी रूमानी कविताएं..... आलोचक इस अंतर्विरोध
में कोई संगति ही नहीं बैठा पाते। वस्तुत: यह एक ही चेतना है जो संवेदन और भावना
के स्तर पर नीरजा, नीहार, रश्मि, सांध्यगीत, दीपशिखा, यामा के गीतों में व्यक्त
होती है तो अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, मेरा परिवार, पथ के साथी या
श्रृंखला की कड़ियां में अपने आसपास को खुली आंखों समेटती हैं।”[3]
‘व्यक्तित्व की खोज : कृष्णा सोबती’ में राजेंद्र जी ने कृष्णा
सोबती के व्यक्तित्व को खूबसूरती के साथ उजागर किया है। साथ ही उनके रचना कर्म पर
बात करते हुए वे बताते हैं कि “उनकी सारी कथा – यात्रा, औरत की वास्तु से प्राणी
और व्यक्ति बनने की कहानी है।”[4]
कृष्णा जी की ‘मित्रो मरजानी’ के बारे में वे लिखते हैं - “मुझे मित्रो हिंदी की
अकेली ऐसी कथा-नारी लगती है जो सदियों से नारी पर लादे के संस्कारों-संबंधों,
सुंदर-सुंदर उपमाओं को ललकारती, मुंह-चिढाती और उन्हें झुठलाती हुई अपनी मूलभूत
जरूरत और जबान के साथ हमारे सामने आ खड़ी हुई हो, छिन्नमस्ता काली की तरह और मानो
हम उसके तेज को बर्दाश्त नहीं कर पाते ........कहां पाशो और शाहनी जैसी सब कुछ
बर्दाश्त करती और ‘सब जिए जागे’ का आशीर्वाद देती ममतामयी नारियां, कहां मन्नो और
जया जैसी भावना और सपनों में ही घुलती-मरती, आत्महत्याएं करती स्वप्निल प्रेयसियाँ
और कहां पति, सास-ससुर, देवरानी-जिठानियों को सीधे मुंह-चिढ़ाती, आपने आपको एसर्ट करती
यह मित्रो ...”[5]
मित्रो कृष्णा जी के साहित्य की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण हिंदी अमूल्य निधि है।
तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य की बात करें तो कृष्णा सोबती को हिंदी साहित्य की
प्रतिनिधि स्त्री कथाकार के रूप में खड़ा किया जा सकता है |
‘सुनीता का पत्र जैनेंद्र के नाम’
अध्याय में उन्होंने जैनेंद्र के प्रसिद्ध उपन्यास ‘सुनीता’ की नायिका सुनीता के
माध्यम से उनकी सर्जक जैनेंद्र व विचारक जैनेंद्र के द्वंद को उभारते हुए कुछ
प्रश्न खड़े किए हैं। सुनीता के पत्र के माध्यम से वे लिखते हैं कि “आप
मेरी नारी को जगाकर हरिप्रसन्न को दें या ना दे, लेकिन असमर्थ जानते हुए भी
श्रीकांत को न दें। यों उसका गला घोट कर उसी गड्ढे में धकेलने के लिए उसे क्यों जगाते
हैं ? क्यों, उसकी जागृति को सुषुप्ति जैसा निस्तेज, निरानंद और जड़ बनाते हैं ?”[6]
सामाजिक कुरीतियाँ और स्त्री-हृदय
जैनेन्द्र के लेखन के दो बीज शब्द है, उनका समस्त रचनाकर्म इन्हीं के इर्दगिर्द
घूमता है। जैनेन्द्र के सम्पूर्ण उपन्यास साहित्य में उनका अंतर्द्वंद्व उजागर
होता है, वे शेक्सपीयर के नायक की तरह ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ की स्थिति में है। यह
द्वंद्व सर्जक जैनेन्द्र व विचारक जैनेन्द्र का है। जैनेन्द्र यथास्थितिवादी हैं,
उनका स्त्री-विमर्श सती की प्रतिष्ठा (सुनीता, कट्टो, मृणाल, कल्याणी) करते हुए
इसी व्यवस्था के परकोटे मजबूत करता है।
“स्त्रीत्व की प्रतिष्ठा और मर्दवादी स्त्री की स्त्री-सशक्तीकरण के उदाहरण
के रूप में प्रस्तुति – यही है जैनेन्द्र की स्त्री-दृष्टि का सार-तत्व – मूलतः
प्रतिगामी, यथास्थितिवादी और स्त्री-विरोधी।”[7]
जैनेन्द्र विचारक जैनेन्द्र व साहित्यकार जैनेन्द्र में संगति नहीं बैठा पाते।
‘अनुभव से अर्थ तक पहुंचने की प्रक्रिया : राजी सेठ’ अध्याय में
राजी सेठ को लिखे पत्र में राजेंद्र जी राजी सेठ की कहानियों का मूल्यांकन करने के
साथ-साथ साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर भी अपने विचार व्यक्त करते हैं। दर्शन और
साहित्य के संबंध में विचार प्रकट करते हुए वे कहते हैं कि “जीवन को समझने के लिए
दर्शन ही पर्याप्त नहीं है; राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र, धर्म, मनोविज्ञान और
विज्ञान के बिना हम जिंदगी और उसे संचालित करने वाली शक्तियों को नहीं समझ सकते।”[8]
अच्छी कहानी किसे कहा जाए ? इस विषय पर विचार करते हुए वह कहते हैं कि शास्त्रीय
परिभाषाओं को एक तरफ रख कर मोटे रूप में मुझे तो यही परिभाषा सबसे सही लगती है कि “अच्छी
कहानी वह है जो अपने को दुबारा पढ़वा लेने में समर्थ है या जिसे आप ललककर दूसरी-तीसरी बार पढ़ना चाहे।”[9]
साहित्यकार की भाषा पर पकड़ के मामले में राजेंद्र यादव का मानना है कि इन दिनों
निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव बैद, मृणाल पांडे और शिवानी आदि दो-तीन लेखक ही ऐसे हैं
जिनके हाथों में भाषा खेलती है। भाषा के दृष्टिकोण से राजेंद्र जी ने जैनेन्द्र के
बाद विनोद कुमार शुक्ल को महत्त्वपूर्ण लेखक माना है।
‘यथास्थिति में लौटती हुई कद्दावर औरतें’ अध्याय में नासिरा
शर्मा के उपन्यासों शाल्मली’ और ‘ठीकरे की मंगनी’ के उदाहरण के द्वारा लेखक का
कहना है कि इनकी नायिकाओं का शहीदी संकल्प-दृढ़ता के साथ यातना-घुटन व पुराने
मूल्यों का चुनाव ‘नारी-मुक्ति आन्दोलन’ से पलायन है। कुछ ऐसा ही विचार मृदुला
गर्ग का भी है। ‘सदी का औपन्यासिक अंत’ अध्याय में लेखक ने बीसवीं सदी के अंतिम दो
दशकों में स्त्री-दलित व अल्पसंख्यक लेखन की पड़ताल की है। उनका कहना है कि बहुत-सी
लेखिकाएँ आपने लेखन के लिए ‘महिला-लेखन’
शब्द का इस्तेमाल करना उचित नहीं मानती। ऐसा ही कुछ आलोचकों का मानना है कि लेखक,
लेखक होता है, स्त्री-पुरुष नहीं। राजेंद्र यादव का कहना है कि “साहित्य में
स्त्री-पुरुष या दलित-सवर्ण के भेद से इनकार करना मीरा और सूरदास या कबीर और तुलसी
को घिस-ठोक कर एक कर देना है। दूसरे शब्दों में यह वर्चस्ववादी सवर्ण मानसिकता या
पुरुष व्यवस्था में सुर-में-सुर मिलाने का दबाव है। जिस तरह एक दलित को जन्म और
जाति के अपमान से निरंतर गुजरना पड़ता है या अल्पसंख्यक को बाहरी होने के दंश को झेलना पड़ता है उसी तरह न जाने
कितनी यंत्रणाए हैं जिन्हें सिर्फ स्त्री ही भोगती है। मासिक धर्म, प्रजनन,
बलात्कार, परनिर्भरता जैसे न जाने कितने अनुभव हैं जिन्हें स्त्री के सिवा कोई
नहीं जानता।”[10]
प्रभा खेतान ने ‘आओ पेपे घर चले’, ‘छिन्नमस्ता’, ‘अपने-अपने चेहरे’, ‘पीली आंधी’
जैसे उपन्यासों में सामाजिक अंतर्विरोधों को गहराई से उजागर किया है। कृष्णा
अग्निहोत्री की आत्मकथा ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ और कुसुम अंचल की ‘जो कहा नहीं
गया’ इस सदी के बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। मैत्रयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता से
लेकर जया जादवानी तक लंबी श्रृंखला है जो इस पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था की पोल
खोलती नजर आती हैं।
‘दुर्ग द्वार पर दस्तक’ अध्याय में लेखक लिखते हैं कि “सांस्कृतिक
राष्ट्रवादियों के लिए अतीत और इतिहास स्वर्ग है, दलित और स्त्रियों के लिए नरक
.... एक लौट-लौट कर वहां जाना चाहता है, दूसरा उन यातना गृहों की याद से कांप उठता
है।”[11]
यादव जी ने बीसवीं की सबसे बड़ी उपलब्धि
जनतंत्र को माना है इसके माध्यम से हाशिए पर पड़ी मानवता केंद्र में आई। उनका कहना
है कि जनतंत्र-संविधान आने के बाद से हिंदी कथा साहित्य में इतिहास-ग्रस्त रचनाएँ
एकदम अनुपस्थित है। हिंदी कथा साहित्य में स्त्री-विमर्श की विकास यात्रा में
उन्होंने यशपाल को पहला उपन्यासकार माना है जिसने मध्यवर्गीय स्त्री को सामाजिक
संघर्ष से जोड़ा। कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और उषा प्रियंवदा के यहां स्त्री
वस्तु से व्यक्ति और व्यक्ति से व्यक्तित्व बनने की यात्रा तय करती है। मृदुला
गर्ग ने ‘कठगुलाब’ में स्त्री अस्मिता से जुड़ी निजी समस्या सेक्स और संतति को
उठाया है । “कितना बड़ा छद्म और आडम्बर है कि देहाचार के परिणामस्वरूप प्राप्त
मातृत्व को स्त्री-जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता बताने वाले, उसे ईश्वर के समकक्ष
रखने वाले ही मातृत्व की इस वैध-अवैध प्रक्रिया को लेकर सबसे ज्यादा हाय-तौबा
मचाते हैं।”[12]
मातृत्व स्त्री को प्रकृति का उपहार है | वह सृजन है | इसी से सृष्टि का विकास
होता है | “प्रकृति ने यौनेच्छा को संतानोत्पत्ति के उपकरण के रूप में रचा, मनुष्य
ने उसमे प्रेम और सुख के प्रतिमान जोड़ दिए | प्रकृति ने एकनिष्ठा की भी कोई
बाध्यता नहीं रखी थी | संतानोत्पादन पर भी कोई नियंत्रण नहीं रखा था | मनुष्य ने
समाज के भीतर आने के बाद ये नियम रचे।”[13]
चित्रा मुद्गल के ‘आवां’ की नमिता पांडे और प्रभा खेतान के ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया
हिंदी कथा-नायिकाओं को सर्वथा नया आयाम देती हैं। ये ऐसी नायिकाएँ हैं जिन्हें अपनी प्रतिभा और अस्मिता की पहचान है।
सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ की नायिका वर्षा वशिष्ठ ‘विमेन
एंपावरमेंट’ का सबल उदाहरण है। उषा प्रियंवदा के ‘अंतर्वंशी’ नायिका वना का
बांसुरी से वनश्री और फिर वाना के रूप में रूपांतरण एक तरह से हिंदी कथा-नायिकाओं
के रूपांतरण की प्रक्रिया है। मैत्रेयी पुष्पा ने ‘झूलानट’, ‘इदन्नमम’, ‘चाक’ व ‘अल्मा कबूतरी’ में ठेठ गंवई नायिकाएं प्रस्तुत
की जो पहले कभी हिंदी उपन्यासों में नहीं दिखाई दी। ये नायिकाएं सामंती परिवेश को
तोड़ती और पुरुष वर्चस्व से लड़ती हुई अपने व्यक्तित्व निर्मित करती हैं।
पुस्तक में राजेंद्र यादव ने स्त्री-विमर्श व स्त्री-लेखन के
मर्म-बिन्दुओं की ही पड़ताल नहीं की अपितु साथ-साथ अनेक साहित्यिक पहलुओं पर भी
तीखी टिप्पणी की है जिसके लिए वे जाने जाते रहे हैं। साथ ही अपने समकालीन
साहित्यकारों पर भी उन्होंने बेबाक टिप्पणियां की हैं। अपने समकालीन साहित्य का
मूल्यांकन दुष्कर कार्य है जिस पर हाथ डालने का काम बहुत कम साहित्यकार करते हैं
लेकिन राजेंद्र यादव ‘खतरों के खिलाड़ी’ हैं। वे यह खतरा उठाते नज़र आते हैं।
सन्दर्भ :
[1] राजेंद्र यादव : आदमी की निगाह में औरत , राजकमल
पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पाँचवा संस्करण, 2019 पृष्ठ सं. 19
[2] वही, पृष्ठ सं. 42
[3] वही, पृष्ठ सं 119
[4] वही, पृष्ठ सं 23
[5] वही, पृष्ठ सं. 129
[6] वही, पृष्ठ सं. 139
[7] रोहिणी अग्रवाल, हिंदी उपन्यास का स्त्री-पाठ,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,पृष्ठ सं. 65
[8] राजेंद्र यादव : आदमी की निगाह में औरत , राजकमल
पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पाँचवा संस्करण, 2019, पृष्ठ सं. 149
[9] वही,पृष्ठ सं. 151
[10] वही, पृष्ठ सं. 167
[11] वही, पृष्ठ सं. 225
[12] वही पृष्ठ सं. 244
[13] सुशोभित : पवित्र पाप, सेतु प्रकाशन, प्रथम संस्करण,
2022, पृष्ठ सं. 36
विष्णु कुमार शर्मा, सहायक आचार्य, हिंदी
मातुश्री शांताबा हजारीमलजी के पी संघवी राजकीय महाविद्यालय रेवदर
vishu.upadhyai@gmail.com, 9887414614
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