हिन्दी नवजागरण के स्त्री सरोकार और दयानन्द सरस्वती के विचार
-दीपिका दत्त
शोध सार : नवजागरणकालीन समाज सुधार आंदोलनों में स्त्री से जुड़े मुद्दे केन्द्रीय महत्त्व के मुद्दे बन गए थे। जहाँ स्त्रियों की दशा में सुधार लाने में ये समाज सुधार आंदोलन निर्णायक भूमिका निभा रहे थे वहीं स्त्रियों को लेकर सामाजिक वैचारिकी में बदलाव लाने में भी योगदान दे रहे थे। हिन्दी प्रदेश को हालाँकि अधिक समाज-सुधारक नहीं मिले तथापि यहाँ समाज सुधार का कार्य स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित ‘आर्यसमाज’ द्वारा आगे बढ़ा। कहना न होगा कि 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में महर्षि सरस्वती एक प्रभावशाली सुधारक के रूप में सामने आए। उन्होंने नवजागरण काल में स्त्री से जुड़े विभिन्न मुद्दों जैसे स्त्री-शिक्षा के समर्थन तथा बालविवाह, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, बहुविवाह जैसी कुरीतियों के विरोध में मुखरता से अपनी बात रखी। उनकी प्रेरणा से आर्यसमाज ने नारी जागरण की दिशा में बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य किए जिनका प्रभाव समाज पर प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों रूपों में पड़ा।
बीज शब्द :
नवजागरण, सुधार आंदोलन, स्त्री सुधार, स्वामी दयानन्द सरस्वती, आर्य समाज, वेद, सत्यार्थ प्रकाश, स्त्री-शिक्षा, बालविवाह, पुनर्विवाह, आदि।
मूल आलेख : भारतीय पितृसत्तात्मक समाज धर्म, संस्कृति, परंपरा, संस्कार, मर्यादा न जाने कितने ही नामों पर स्त्रियों को बेड़ियों में जकड़ता रहा है। उन्नीसवीं सदी की स्त्रियाँ भी इन बेड़ियों से सर्वथा मुक्त नहीं थीं। वे तरह-तरह की सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों और परंपराओं में बंधी थीं। उनका कार्यक्षेत्र उनके घर की दहलीज तक सीमित था, इससे बाहर की दुनिया में न तो उनकी कोई भूमिका थी और न ही अधिकार। स्त्री शिक्षा के प्रति सामाजिक उदासीनता के चलते अधिकांश स्त्रियाँ अशिक्षित थीं। ऐसे में उनके मानसिक-बौद्धिक विकास के मार्ग भी अवरुद्ध थे। अशिक्षा, अज्ञानता, आर्थिक पर-निर्भरता, सुरक्षा जैसे कारणों से स्त्रियाँ पुरुषों के अधीन थीं। विडंबना है कि पुरुष वर्ग भी स्त्रियों की इस पराधीनता तथा उन पर अपने वर्चस्व को बनाए रखना चाहता था। ऐसे में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ के प्रचलित आदर्श के तहत स्त्रियाँ कभी ‘देवी’ तो कभी ‘माँ’ के रूप में महिमामंडित तो होती रहीं लेकिन अपने हिस्से के वास्तविक आदर और सम्मान से प्रायः वंचित रहीं। उनकी इस हीनावस्था को देखते हुए नवजागरण कालीन सुधारकों ने स्त्री मुक्ति के लिए आवाज उठाई। उन्होंने समाज सुधार आंदोलनों में स्त्री सरोकारों को केंद्रीय मुद्दा बनाया और नारी जागरण के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए सभा-समितियाँ स्थापित कीं। इस प्रकार “उन्नीसवीं सदी को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा क्योंकि इस सदी में सारी दुनिया में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएँ एवं उर्वरा गर्मागर्म बहस के विषय थे।”[1]
हिन्दी प्रदेश में नवजागरण की प्रक्रिया का आरंभ 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ। यहाँ सामाजिक संशोधन के ज्यादातर प्रयास समाज सुधारकों के अभाव में इस प्रदेश के लेखकों तथा साहित्यकारों द्वारा क्रियान्वित हुए। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि “यह चेतना हिन्दी क्षेत्र में भी महसूस की जाने लगी थी कि समाज के सर्वांगीण विकास में स्त्री शोषण एवं अशिक्षा एक बहुत बड़ी बाधा है और उसे सामाजिक अत्याचारों से मुक्त कराए बिना समाज का सम्पूर्ण विकास संभव नहीं है।”[2] इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए हिन्दी प्रदेश के सुधारकों द्वारा स्त्रियों को शिक्षित करने और उन्हें एक जागरूक नागरिक बनाने की योजनाएँ सामने आईं। स्त्रियों को कैसी और किस हद तक स्वतंत्रता दी जाए, उनको शिक्षित करने के उद्देश्य और विषय क्या हों, उनके विवाह की सही उम्र, बालविवाह, बहुविवाह, पुनर्विवाह आदि मसलों को लेकर हिन्दी क्षेत्र में जो बहसें चलीं उनका अध्ययन करना अपने आप में एक दिलचस्प विषय है।
बहरहाल, आलोच्य काल में हिन्दी प्रदेश में समाज सुधार का सबसे बड़ा संगठन ‘आर्य समाज’ था, जिसकी स्थापना 1875 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा बम्बई में हुई। यह नवजागरण काल के दौरान उभरे प्रभावशाली समाज सुधार संगठनों में से एक था। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा पंजाब इसके मुख्य प्रभाव क्षेत्र थे। वीरभारत तलवार का अभिमत है कि “पश्चिमोत्तर प्रान्त में सुधारों के मामले में सबसे बड़ा और असरदार संगठन आर्य समाज का ही था। आर्यसमाजियों ने निडर होकर, जोश-खरोश के साथ सुधारों के लिए आवाज़ उठाई।”[3]
आर्य समाज ने जहाँ गतिहीन हो चुके हिन्दू धर्म में व्याप्त कर्मकांड और पाखंडपूर्ण प्रवृतियों पर जमकर प्रहार किया वहीं स्त्री प्रश्नों पर भी बेबाकी से अपनी बात रखी। इन्होंने हिन्दी प्रदेश में स्त्रियों की स्थिति सुधारने और उन्हें जागृत करने के उद्देश्य से बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य किए।
अखिल भारतीय नवजागरण में स्त्री से जुड़े मुद्दों में शिक्षा का मसला शीर्ष पर था और हिन्दी प्रदेश भी इसका अपवाद नहीं है। अशिक्षा के कारण स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार की सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों में जकड़ी हुई थीं। उनमें जागृति लाने के लिए आवश्यक था कि उन तक शिक्षा का प्रसार किया जाए। कहना न होगा कि हिन्दी प्रदेश में स्त्री शिक्षा के प्रसार की मुहिम को आगे बढ़ाने में ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती’ और उनके ‘आर्य समाज’ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के तृतीय समुल्लास में प्रश्न किए जाने पर कि ‘क्या स्त्री और शूद्र भी वेद पढ़ें?’ का उत्तर देते हुए दयानन्द सरस्वती ने वेदों में कन्याओं के पढ़ने के प्रमाण प्रस्तुत करते हुए स्त्री शिक्षा का समर्थन किया। उन्होंने स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकारी घोषित करते हुए वैदिक मंत्रों का हवाला दिया और यह प्रमाणित किया कि सभी स्त्री और पुरुष अर्थात मनुष्य मात्र वेदों के पठन-पाठन के अधिकारी हैं। “जो स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हो वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है।”[4]
उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में विदुषी गार्गी का उदाहरण देते हुए वैदिक युग में स्त्री शिक्षा के साक्ष्य प्रस्तुत किए। “गार्गी, सुलभा, मैत्रेयी, कात्यायन्यादि बड़ी-बड़ी सुशिक्षिता स्त्रियाँ होकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की शंकाओं का समाधान करती थीं।”[5]
इस तरह दयानन्द सरस्वती ने शिक्षा पर लड़के और लड़कियों के समानाधिकार की बात उठाई। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “...आठ वर्ष के हों तभी लड़कों को लड़कों की और लड़कियों को लड़कियों की शाला में भेज देवें।”[6] इसी क्रम में उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए उपयोगी विषयों पर भी अपनी राय रखी “वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिए।”[7]
इस तरह दयानन्द सरस्वती ने स्त्री शिक्षा का पुरजोर समर्थन किया और लोक मान्यता के विपरीत स्त्रियों को भी वेद पढ़ने का अधिकारी माना।
स्त्री शिक्षा के प्रति दयानन्द सरस्वती के विचारों का आर्य समाज के सदस्यों पर गहरा प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप आर्य समाजियों ने स्त्री शिक्षा के उद्देश्य से कई एंग्लो वैदिक स्कूल और कन्या पाठशालाएँ खोलीं, गुरुकुलों की स्थापना की तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। “सन 1890 में जालंधर के आर्य समाज ने एक कन्या पाठशाला खोली तथा एक वर्ष के भीतर ही समाज ने पाठशाला में अविवाहित लड़कियों की भाँति ही विधवाओं को भी प्रवेश देने का निर्णय ले लिया।”[8] आर्य समाजी लाला देवराज ने लाला मुंशी राम (स्वामी श्रद्धानंद) के सहयोग से 1890 ई. में जालंधर में ही ‘कन्या महाविद्यालय’ स्थापित किया। कुछ ही समय बाद 1898 ई. में यहाँ से ‘पांचाल पंडिता’ नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ जो कालांतर में ‘जलविद साखा’ नाम से निकलने लगी। यह एक द्विभाषी पत्रिका थी जो हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में निकलती थी। इस पत्रिका में महाविद्यालय की छात्राओं तथा अध्यापिकाओं को लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। इस तरह ‘पांचाल पंडिता’ स्त्रियों की रचनात्मकता को मंच प्रदान करती थी। कहना न होगा कि 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ‘पांचाल पंडिता’ जैसी पत्रिकाएँ स्त्री शिक्षा के विकास में निर्णायक भूमिका निभा रही थीं।
नवजागरण काल में ‘बालविवाह’ स्त्री सरोकारों से जुड़ा एक अन्य प्रमुख मसला था। शास्त्रोक्त होने के नाम पर भारतीय समाज में यह कुप्रथा सर्व स्वीकृत थी। काशीनाथ भट्टाचार्य के ‘शीघ्रबोध निर्णय’ में आए श्लोक ‘‘ततश्चौर्द्धरजस्वला’ के आधार पर लोगों के बीच यह मान्यता प्रचलित थी कि दस वर्ष की होने पर भी विवाह न करके, रजस्वला कन्या को देख उसके माता, पिता और भाई नरक को जाते हैं इसलिए प्रायः दस-बारह वर्ष की अल्पायु में ही माता-पिता अपनी पुत्री का विवाह कर अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाते थे। लेकिन बालपन में विवाह के कारण लड़कियाँ न केवल शिक्षा से वंचित रह जातीं बल्कि उनका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य भी इससे प्रभावित होता। दयानन्द सरस्वती ने ब्रह्मोक्त वेदों को सत्य प्रमाण बतलाकर बाल विवाह का खंडन किया। उन्होंने सुश्रुत से संदर्भ उद्धृत करते हुए बालविवाह को अतार्किक ठहराया और स्पष्ट किया कि सोलह वर्ष से चौबीस वर्ष तक विवाह होने पर पुरुषों का वीर्य परिपक्व, शरीर बलशाली तथा स्त्रियों का गर्भाशय विकसित और शरीर मजबूती पा लेता है, जिससे भावी संतान भी स्वस्थ उत्पन्न होती है। ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा उन्होंने यह सिद्ध किया कि बाल्यावस्था का विवाह पुरुष से भी अधिक स्त्री के लिए अहितकारी और नाशक होता है। अतः छोटी उम्र का विवाह किसी भी दृष्टि से श्रेयस्कर नहीं है।
उल्लेखनीय है कि आर्य समाज से जुड़े काशीनाथ खत्री ने बाल विवाह की समस्या को गंभीरता से लेते हुए लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उन्होंने ‘बाल विवाह’ नाम से पैंफलेट छपवाकर बाल विवाह के दुष्परिणामों से समाज को अवगत कराने कोशिश की। इस पैंफलेट में उन्होंने बताया कि अल्पायु में विवाह के कारण लड़कियाँ अशिक्षित रह जाती हैं,
भविष्य में उनकी संतानें पूरी तरह से स्वस्थ पैदा नहीं होतीं तथा विधवा समस्या के पीछे भी बाल विवाह की कुप्रथा उत्तरदायी बनती है। अतः बालकों का विवाह बचपन में नहीं किया जाना चाहिए। विवाह की यह रीति केवल समस्याएँ ही उत्पन्न करती है इसलिए न केवल परिवार अपितु समाज व राष्ट्र के हित की दृष्टि से भी बालविवाह हानिकर है।
दयानन्द सरस्वती ने विवाह हेतु उपयुक्त उम्र के विषय पर भी अपनी बात रखी। जहाँ तत्कालीन समाज में दस-बारह वर्ष की उम्र में बालकों का विवाह कर दिया जाना सामान्य बात थी वहीं दयानन्द सरस्वती ने इस उम्र को बढ़ते हुए लड़कों के विवाह हेतु पच्चीस तथा लड़कियों के विवाह के लिए सोलह वर्ष की आयु को उचित ठहराया। उन्होंने लिखा “सोलहवें वर्ष से लेकर चौबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से लेकर
48 वें वर्ष तक पुरुष का विवाह समय उत्तम है...
जिस देश में इसी प्रकार विवाह की विधि श्रेष्ठ और ब्रह्मचर्य विद्याभ्यास अधिक होता है वह देश सुखी और जिस देश में ब्रह्मचर्य, विद्या ग्रहण रहित बाल्यावस्था और अयोग्यों का विवाह होता है वह देश दुःख में डूब जाता है।”[9] इस प्रकार उन्होंने विवाह के मुद्दे को देश की उन्नति और विकास के साथ भी जोड़कर देखा।
बाल विवाह की प्रथा ने समाज में जिस नई समस्या को जन्म दिया वह विधवा समस्या के रूप में सामने आई। तत्कालीन समाज में पुरुषों को विधुर हो जाने पर दूसरा विवाह करने का अधिकार था लेकिन स्त्रियों के समक्ष ऐसा कोई विकल्प मौजूद नहीं था। इसलिए विधवा स्त्रियों की संख्या विधुर पुरुषों के मुकाबले काफी ज्यादा थी, इनमें भी बाल विधवाएँ सर्वाधिक थीं। स्त्रियों के लिए वैधव्य जो पहले ही दुखदाई था, वह तरह-तरह की सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों के भार से और भी कष्टकर हो जाता था। ऐसे में बहुत से नवजागरण कालीन सुधारकों ने इस समस्या का समाधान बाल विवाह निषेध तथा विधवा पुनर्विवाह के रूप में देखा। दयानन्द सरस्वती ने भी विधवा स्त्रियों के पुनर्विवाह का समर्थन किया लेकिन इसके लिए उन्होंने केवल उन्हीं द्विज स्त्रियों को योग्य माना जो अक्षत योनि हों अर्थात जिनका पाणिग्रहण संस्कार मात्र हुआ हो, समागम नहीं। यही नियम उन्होंने पुरुषों के लिए भी प्रतिपादित किया। इस तरह सरस्वती ने प्रकारांतर से बाल विधवाओं के पुनर्विवाह को ही मान्यता दी। अन्यत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों की क्षत योनि स्त्रियों और क्षत वीर्य पुरुषों के पुनर्विवाह का निषेध किया लेकिन शूद्र वर्ण की स्त्रियों को इस बंधन से मुक्त रखा।
इसी प्रसंग में सरस्वती ने भ्रूणहत्या का मुद्दा भी उठाया। गर्भहत्या को कुकर्म तथा पाप की कोटि मे स्थान देते हुए इसे ब्रह्महत्या के समान घोर पाप कृत्य बतलाया और व्यभिचार को इसका एक मुख्य कारण माना। इससे बचने के लिए उन्होंने नियोग का मार्ग सुझाया। जो क्षत योनि विधवाएँ और क्षत वीर्य विधुर पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन न कर सकें वे नियोग के द्वारा संतानोत्पत्ति करें। उन्होंने वेदों में नियुक्त स्त्री-पुरुष द्वारा मिलकर दस-दस संतान उत्पन्न करने का प्रमाण दिया। लेकिन “वास्तव में आर्य समाजी सुधारकों ने नियोग प्रथा पर कभी जोर नहीं दिया। दयानंद की सहमति न होने पर भी वे विधवा पुनर्विवाह का समर्थन करते थे,
न कि नियोग प्रथा का। पंजाब आर्य समाज की पत्रिका आर्य मैगजीन में विधवा विवाह के लिए लगातार विज्ञापन छपते थे।”[10]
उल्लेखनीय है कि आर्य समाजियों द्वारा दयानन्द सरस्वती के विचारों के विरुद्ध जाने पर भी विधवा पुनर्विवाह की दिशा में किए उनके प्रयासों के बाद कुछ ही विधवाओं के विवाह हो सके। इनमें भी बाल विधवाएँ अधिक थीं। अन्यों के प्रति सामाजिक मानसिकता में परिवर्तन आना अभी बाकी था। अतः इस स्थिति को देखते हुए आर्य समाजियों ने बेघर और बेसहारा विधवाओं के लिए विधवा आश्रमों की स्थापना की।
नवजागरणकाल के स्त्री सरोकारों में एक मुद्दा बहुविवाह का भी शामिल रहा। दयानन्द सरस्वती निस्संदेह बहुविवाह के विरुद्ध थे। ‘सत्यार्थप्रकाश’ में उन्होंने बहुविवाह के विषय पर अपनी असहमति प्रकट करते हुए इसका खंडन किया लेकिन विशेषकर ऊँची कही जाने वाली जातियों के लिए। उन्होंने लिखा की “द्विजों में पुनर्विवाह या अनेक विवाह कभी न होने चाहिए।”[11]
स्वामी दयानंद ने अपने समय की सोच से आगे जाकर लड़के और लड़कियों का विवाह उनकी प्रसन्नता से किए जाने का मार्ग सुझाया ताकि उनके वैवाहिक जीवन में समरसता बनी रहे। उन्होंने स्पष्ट किया कि विवाह में मुख्य प्रयोजन कन्या और वर का होता है, उनके माता-पिता का नहीं। अतः विवाह में उनकी रजामंदी का होना आवश्यक है। “जो माता पिता विवाह करना कभी विचारें तो भी लड़के लड़की की प्रसन्नता के बिना न होना चाहिए। क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम होता है और संतान उत्तम होती है। अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है।”[12] उस दौर में उनका यह विचार निश्चित ही प्रगतिशील कहा जाएगा क्योंकि वर्षों के अंतराल के बाद आज भी हमारा समाज इस विचार को उन्मुक्त होकर स्वीकार कर पाने में सहज नहीं हो पाया है।
इसके अतिरिक्त दयानन्द सरस्वती ने अनमेल विवाह का भी विरोध किया। इस विषय पर अपना मत प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा कि लड़के और लड़की का विवाह वहीं होना चाहिए जहाँ दोनों के गुण आपस में मेल खाते हों। उनके अनुसार “चाहे लड़का लड़की मरणपर्यंत कुमार रहें परंतु असदृश अर्थात परस्पर विरुद्ध गुण,
कर्म, स्वभाव वालों का विवाह कभी न होना चाहिए।”[13]
उनके इस कथन से स्पष्ट है कि वे अनमेल विवाह के समर्थकों में नहीं थे।
निष्कर्ष :
कहा जा सकता है कि हिन्दी प्रदेश में दयानन्द सरस्वती स्त्री उद्धारक के रूप में सामने आए। उन्होंने तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति को गंभीरता से लेते हुए उस स्थिति में परिवर्तन लानेकी दिशा में कार्य किया। समाज में स्त्रियों से जुड़ी विवेकहीन प्रथाओं की कड़ी आलोचना करने के साथ ही साथ उन्होंने स्त्री के सम्मान तथा अधिकारों की बात उठाई। स्त्री शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया और स्त्रियों तथा शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकारी माना। उन्होंने नवजागरणकालीन स्त्री सरोकारों जैसे बालविवाह, विधवा विवाह, बहुविवाह, अनमेल विवाह आदि के संबंध में सुधारवादी दृष्टिकोण से अपनी बात रखी; हालाँकि विधवा पुनर्विवाह के मसले पर वे अपने समय की सोच का अतिक्रमण नहीं कर पाए। इस विषय पर उन्होंने बाल विधवाओं के विवाह का तो समर्थन किया लेकिन वयस्क विधवाओं के लिए नियोग की सलाह दी। तथापि यह कहना गलत न होगा कि जहाँ हिन्दी प्रदेश के लेखक स्त्री मुद्दों को लेकर अंतर्विरोधों से ग्रस्त दिखाई देते हैं वहीं दयानन्द सरस्वती उन मुद्दों को लेकर अधिक मुखरता के साथ आगे आए। उनके मार्गदर्शन में आर्य समाजियों ने स्त्री उत्थान के कार्यों को निष्ठापूर्वक आगे बढ़ाया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि दयानन्द सरस्वती और आर्य समाज द्वारा किए जा रहे सुधार कार्यों का हिन्दी प्रदेश के रूढ़िवादियों द्वारा विरोध किया गया लेकिन इसके बावजूद भी आर्य समाजियों ने स्त्री उत्थान के प्रयास जारी रखे बल्कि 1880 के बाद हिन्दी प्रदेश में आर्यसमाज की सक्रियता में वृद्धि देखी गई।
संदर्भ :
[1]राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 23
[2]सुनन्दा पराशर, हिन्दी नवजागरण और स्त्री अस्मिता, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2021, पृ. 20
[3]वीरभारत तलवार, रस्साकशी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017,पृ. 170
[4]महर्षि दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 2016, पृ. 68
[5]पंडित बदरीदत्त शर्मा (अनु.),उपदेशमंजरी,महाशय श्यामलाल वर्मा आर्य-पुस्तकालय, 1925, पृ. 20
[6]महर्षि दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 2016, पृ. 40
[7]महर्षि दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 2016, पृ. 68
[8]राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 72
[9]महर्षि दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 2016, पृ. 72
[10]वीरभारत तलवार, रस्साकशी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017,पृ.
177
[11]महर्षि दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 2016, पृ. 96
[12]वहीं, पृ. 74
[13]वहीं, पृ. 74
दीपिका दत्त
शोधार्थी (पीएच.डी), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली- 110067
duttdeepika2015@gmail.com, 8700350102
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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