शोध आलेख : आधुनिक हिंदी साहित्य और मुस्लिम समाज की उपस्थिति / तृप्ति त्रिपाठी

शोध आलेख : आधुनिक हिंदी साहित्य और मुस्लिम समाज की उपस्थिति 

-तृप्ति त्रिपाठी


शोध सारसाहित्य मनुष्य को देखने का पक्षपाती है जिसमें समाज का हर वर्ग समाहित होता है| मानव का यदि किसी धर्म, जाति या समुदाय के आधार पर विभाजन किया गया है तब स्वाभाविक है कि इस मानव समुदाय की विशिष्टता उसके जीवन के विभिन्न पहलुओं, आशाओं  और आकांक्षाओं का प्रभाव साहित्य को भी प्रभावितकरेगा| मुस्लिम वर्ग भी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है परन्तु आधुनिक हिंदी साहित्य में 1947 ईस्वी के पूर्व मुस्लिम जीवन या समाज की उपस्थिति का प्रश्न हमेशा से ही विचारणीय रहा है जिस पर विद्वानों को ध्यान देने की जरूरत है|

बीज शब्द : आधुनिक, साहित्य, मुस्लिम, समाज, जीवन, विभाजन, उपस्थिति|

मूल आलेख :

 आधुनिकता का दौर वह दौर है जब भारतीय समाज एक नए युग में प्रवेश कर रहा था| मध्यकालीन अवरोध धीरे-धीरे समाप्त हो रहे थे और लोगों के दृष्टिकोणों में परिवर्तन हो रहा था| सूफी साहित्य, कला और संगीत की अविरल धारा हिन्दू-मुस्लिम एकता के सूत्रों को आपस में पिरोती हुई आगे बढ़ रही थी| 1857 ईस्वी की क्रान्ति तक भारतीय समाज मध्युगीनता को छोड़कर नए युग में प्रवेश कर चुका था| आधुनिक हिंदी साहित्य का आरम्भ भी इसी परिवर्तन के दौर से माना जाता है| डॉ. नगेन्द्र इस सम्बन्ध में अपनी पुस्तक में बताते हैं कि,आधुनिक शब्द दो अर्थो मध्यकालीनता से भिन्नता और नवीन इहलौकिक दृष्टिकोण की सूचना देता है| मध्यकाल अपने अवरोध, जड़ता और रूढ़ीवाद के कारण स्थिर और एकरस हो चुका था, एक विशिष्ट ऐतिहासिक प्रक्रिया ने उसे पुनः गत्यात्मक बनाया|...हिंदी साहित्य के आधुनिक युग का आरम्भ १८५७ में हुआ था|1     

आधुनिक हिंदी साहित्य रीतिकाल के सौंदर्य तथा अलंकरण विधान से अलग तत्कालीन मुद्दों को आधार बनाकर लिखा जा रहा था। अंग्रेजी राज्य का विरोध, राष्ट्रीयता की भावना तथा देश-प्रेम साहित्य का केंद्रीय विषय बन गये थे। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा लोगों को जागरूक करने का कार्य किया जा रहा था| आधुनिक भारत में जहाँ अंग्रेजी शासन की नीतियों के खिलाफ एक वर्ग मोर्चे लेकर खड़ा था वही दूसरी तरफ प्रसिद्ध उर्दू आलोचक एह्तेशाम हुसैन आधुनिक काल में अंग्रेजी शासन की उपलब्धियों को बताते हुए लिखते हैं कि, भारत में अंग्रेजी राज्य विश्व इतिहास का सबसे काला युग कहा जाता है, पर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्ही के संपर्क से भारत को विज्ञान और उसकी कृतियों से परिचित होने का अवसर मिला और भारत के रुके हुए आर्थिक जीवन में उत्पादन और प्रगति के नए यंत्रो से हिलकोरें पैदा हुई|...बहुत से थोड़े लोग ऐसे भी थे जो चेतनापूर्वक अपने युग की आत्मा को समझने और देशोन्नति की सक्रिय भावना अपने भीतर उत्पन्न कर सके| मेरा विचार है की भारतेंदु, ‘आज़ादऔरहालीइसी कोटि से सम्बन्ध रखते हैं|2  

आधुनिकता का प्रभाव साहित्य में जहाँ मुस्लिम रचनाकारों के यहाँ उर्दू भाषा में हिंदी के पहले-पहल दिखाई देने लगता है वहीं हिंदी साहित्य में यह थोड़ा बाद में मुखरित होता है। हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द हिंदू-मुस्लिम एकता तथा सांस्कृतिक समन्वय की बात करते हैं और अपनी रचनाओं जैसेपांचवे पैगम्बरतथाअकबरनामक निबंध में दोनों को साथ लेकर चलने को कहते हैं। रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तकभारतेन्दु हरिश्चन्द और हिंदी नवजागरण की समस्याएँमें लिखा है कि,भारतेंदु ने जो हिंदी आंदोलन चलाया वह केवल हिंदुओं के हित में नहीं था वह मुसलमानों के हित में भी था।3  भारतेंदु जहाँ एक तरफ भारत के लोगों को साथ-साथ रहने का संकेत दे रहे थे वहीं दूसरी तरफ वह भाषायी स्तर पर हिंदी साहित्य में उर्दू, अरबी-फारसी के प्रयोग को बहुत अच्छा नहीं समझते थे, जबकि इसके विपरीत उनका उपनामरसाऔर वह स्वयं फारसी के अच्छे ज्ञाता थे।

सर्वप्रथम भारतेंदु युग के उपन्यासकार किशोरीलाल गोस्वामी ने 1886 ईस्वी मेंनि:सहाय हिन्दूनामक उपन्यास लिखा, जिसमे पहली बार मुस्लिम पात्र को केंद्र में रखकर मुसलमानों के आदर्शवादी तथा कट्टरवादी स्वरुप को अभिव्यक्त किया गया था। हाजी अतुल्लाह कट्टरवादी नेता है जो बकरीद के मौके पर जनता को गो हत्या के लिए उकसाता है वहीँ दूसरी और अब्दुल अज़ीज़ हिंदुओं की भावनाओं की रक्षा करते हुए गो हत्या रोकने का भरसक प्रयास करता है परन्तु अंत में हाजी अतुल्लाह द्वारा उसकी ह्त्या करवा दी जाती है। यह उपन्यास तत्कालीन समाज में व्याप्त एक मनोवृत्ति को अभिव्यक्त करता है|

आधुनिक युग के आरम्भिक हिंदी साहित्य के लेखक या विचारक वैचारिक स्तर पर मुस्लिम प्रबुद्ध, बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों जैसे इकबाल, आजाद, हाली, शिबली आदि के द्वारा भारत देश के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक उत्थान या उन्नति का जो प्रयास चल रहा था उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकें। द्विवेदी युग में आजाद, शिबली और हाली जैसे नयी धारा के उर्दू के रचनाकारों और उनके साहित्य में अभिव्यक्त राष्ट्रीयता के स्वर से प्रेरणा लेकर हिंदी में मैथिलीशरण गुप्त जैसे साहित्यकारभारत-भारतीजैसी राष्ट्रभक्तिपरक रचना का सृजन करते हैं। माना जाता है गुप्त जी राजा रामपाल सिंह के कहने परभारत भारतीहिन्दुओं के लिए लिखते हैं| पुस्तक की प्रस्तावना में मैथिलिशरण लिखते हैं की,इसके कुछ ही दिन बाद उक्त राजा साहब का एक कृपा पात्र मुझे मिला, जिसमे श्रीमान ने मौलाना हाली के मुसद्दस को लक्ष्य करके इस ढंग की एक कविता-पुस्तक हिन्दुओं के लिए लिखने का मुझसे अनुग्रहपूर्वक अनुरोध किया|4 हिंदी साहित्य में गुप्त जी की यह रचना आज भी बेहद महत्त्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है परन्तु 1912 ईस्वी के आस-पास गुप्त जी ने जब यह पुस्तक लिखी उस समय के भारतीय समाज में हिन्दू-मुसलमान दोनों साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे और गुप्त जी यह पुस्तक हिन्दुओं में राष्ट्रप्रेम जगाने के लिए लिखते हैं, भारतवासियों में राष्ट्रप्रेम जगाने के लिए नहीं|    

हिंदी साहित्य में सन् 1918 से 1936 . तक का समय छायावादी रहस्यवाद के रुप में जाना जाता है। प्रमुख छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा की अनेक कविताओं में अज्ञात सत्ता के प्रति रहस्यवादी दर्शन दिखाई देता है, जिस पर रामधारी सिंह दिनकर जैसे बड़े निबंधकार  सूफी रहस्यवादी सिद्धातों की झलक मानते है। इस सन्दर्भ में दिनकर अपनी पुस्तकसंस्कृति के चार अध्यायमें लिखते हैं कि-

सूफियों ने जो यह सिद्धांत चलाया था कि मृत्यु एक माध्यम है जिससे हमारा विकास होता है, उस सिद्धांत की मनोरम एवं अत्यंत सुस्पष्ट कविताएं भारत में महादेवी जी ने लिखी है।5    

वस्तुतः दिनकर ने जिस छायावादी रहस्यवाद पर सूफी रहस्यवाद का प्रभाव माना है यह मुख्यतः एक काव्य शैली है की मुस्लिम जीवन की अभिव्यक्ति अतः कोई अगर कहे की यहाँ मुस्लिम जीवन दिखाई देता है तो यह गलत होगा क्योंकि काव्य शैली के प्रभाव को हम मुस्लिम जीवन की अभिव्यक्ति नहीं मान सकते है|

छायावाद युग के बाद हिंदी में प्रगतिवाद का आरम्भ माना जाता है। प्रगतिवादी लेखक एक नये युग निर्माण की बात करते हैं तथा समाज में शोषित वर्ग के खिलाफ व्याप्त हर प्रकार के भेद-भाव के विरोध में खुलकर बोलने को प्रतिबद्ध हैं। प्रगतिवादी विचारधारा के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद जिन्होंने हिंदी कथा साहित्य को एक नई दिशा दी तथा अपने कथाओं के पात्रों या कथाओं की चारित्रिक विशेषताओं के कारण हर जगह अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं। प्रेमचन्द ही वह प्रथम लेखक हैं जिनके यहाँ पहली बार मुस्लिम जगत के पात्र या चरित्र हिंदी कथा साहित्य में दिखलाई पड़ते हैं। मुंशी प्रेमचन्द चूँकि प्रगतिशील विचारों के पोषक हैं और अपनी प्रगतिशील चेतना के कारण ही वह बहुत समय तक उर्दू साहित्य में लिखते हैं। उर्दू साहित्य में उनके बहुत सारे उपन्यास, कहानियाँ लेख आदि प्रकाशित हुए जैसे इश्के दुनिया हुब्बे वतन, शेख मखबूर, असरारे मवाविद आदि। प्रेमचंद ने अपने साहित्य में समाज के हर उस वर्ग को जगह दी है जो हमारे बीच का ही कहीं कोई है चाहे वह होरी-धनिया हों, विनय-सोफिया हो, जुम्मन शेख-अलगू चौधरी हो या फिर हामिद-अमीना हो। प्रेमचन्द के कथा-साहित्य के सभी पात्र हमारे भारतीय समाज के ही हैं। प्रेमचंद ने अपनेकर्मभूमिउपन्यास में मुख्य पात्र के रूप में मुसलमानों को ही रखा है जिसमे बुढ़िया पठानिन, सकीना और उसके पिता प्रमुख पात्र हैं। यहाँ यह बात गौर करने लायक है की प्रेमचंद के यहाँ मुस्लिम जीवन या मुस्लिम समाज उतना ही है जो गाँवों या शहरों में दिखता है मुस्लिम मन की सच्चाईयों का पता उनके यहाँ भी नहीं चल पाता है। यह सोचने का विषय है कि प्रेमचन्द के पूर्व आखिर किसी लेखक की दृष्टि इस ओर क्यों नहीं जा पाई कि वह समाज के उन लोगों को भी अपने यहाँ समाहित करें जो हमारे बीच का हिस्सा हैं। भारतेन्दु-द्विवेदी युग के लेखकों तथा रचनाकारों के यहाँ हिंदू-मुस्लिम एकता जैसे मुददों विचारों की बात करते लेखक अवश्य दिखाई देते हैं परन्तु मुस्लिम जीवन और मुस्लिम पात्रों की समस्याओं को गहराई से नहीं उतार पाये हैं। समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका के 41 वें अंक में नामवर जी से बातचीत करते वक़्त शानी ने सवाल उठाया था की,नामवर जी कई वर्ष पहले आपने कहा था की हिंदी साहित्य से मुस्लिम पात्र गायब हो रहे हैं| मुस्लिम पात्र जब थे ही नहीं तो गायब कहाँ हो रहे हैं| ...प्रेमचंद फिर भी उदार हैं, जबकि यशपाल के झूठा सच में नाम मात्र के मुस्लिम पात्र नहीं हाड़-मांस के जीवंत लोग हैं|6   

आधुनिकता और मुस्लिम जीवन को जानने के लिए विभाजन की थोड़ी बहुत पृष्ठभूमि को भी समझना जरूरी है। अंग्रेजी षडयंत्रों के चलते अगस्त 1947 . में धर्म के आधार पर हुआ भारत का विभाजन इतिहास की सबसे विध्वंसकारी घटनाओं में से एक था। भारत देश का विभाजन इतिहास की उन कालजयी घटनाओं में से है, जिसका दंश मानव आज तक झेल रहा है। राजनीतिक और साम्प्रदायिक षडयंत्रों के चलते भारत देश का विभाजन ही नहीं हुआ अपितु दो दिलों का विभाजन हो गया। विभाजन की घटना ने वर्षों से साथ रह रहे दो विभिन्न धर्मों को मानने वाले मानव जीवन एवं संस्कृति को छिन्न-भिन्न करके रख दिया, जाने कितने ही लोगों के घर उजड़ गये और जाने कितने ही लोग मृत्यु को प्राप्त हो गये। इस त्रासदी के परिणामों के बारे में कोई ठोस आँकड़े तो प्राप्त नहीं हुये परंतु इतना जरुर कह सकते हैं कि इस दौरान हुई हिंसा, लूटपाट और स्त्रियों के साथ हुये बलात्कार से कम से कम पन्द्रह लाख लोग मारे गये। विभाजन के पश्चात् स्थितियाँ इतनी भयावह, कठिन और बेकाबू हो गयी कि मानवता कराहने लगी। सर्वत्र अशांति, हिंसा तथा तनाव का माहौल कायम हो चुका था। भारत विभाजन और उसके परिणामों को लेकर अरविन्द मोहन लिखते हैं कि-

इतिहास में राजनीतिक रूप से बिखरे रह कर भी सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से एक रहे हिन्दुस्तान का यह विभाजन एकदम ही अजीब चीज़ को आधार मान पर किया गया| मज़हब के आधार पर देश नहीं बंटते हैं| अपने यहाँ यही हुआ| लोग कटे मरे अपनी जमीन से उखड़े| राज्य बदलने या बटने से आबादी का इतने बड़े पैमाने पर सिर्फ एक आधार(मज़हब) पर स्थानान्तरण कभी नहीं हुआ था|7    

अंग्रेजी सत्ता की अगर कोई नीति हमेशा कायम रही तो वह यह थी कि हिंदुओं और मुसलमानों को विभाजित रखा जाए। वे जानते थे कि दोनों समुदायों में भेद उत्पन्न किये बिना वे अपनी सत्ता को चिरस्थायी नहीं बना पाएंगे। अंग्रेजों ने हिंदू-मुसलमानों के बीच ईर्ष्या, द्वेष, दुराव, वैमनस्य, नफरत और कटुता के बीज बोने की हर संभव कोशिश की तथा सैकड़ों वर्षों से साथ रह रही भारत की गंगा-जमुनी सांस्कृतिक एकता को चकनाचूर करके रख दिया।

भारत देश का विभाजन एक ऐसी घटना है जिसने सम्पूर्ण मानव जाति को प्रभावित किया। भारतीय समन्वित संस्कृति जिसे बनने में वर्षों लगे थे विभाजन ने इस समन्वय को छिन्न-भिन्न करके रख दिया। भारत देश में विभाजन के पश्चात् बहुत से ऐसे मुसलमान थे जो भारत को ही अपना घर मानते थे और जन्मभूमि के मोह का परित्याग नहीं कर सके तथा यहीं ठहर गये। परंतु देश के लोगों को यह नागवार गुजरा उनका मानना था कि जब मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र बन चुका है तो वह यहाँ क्यों रह रहे हैं और इस प्रकार से भारत में रह रहे मुस्लिम समुदाय का विविध प्रकार से शोषण किया गया, स्त्रियों के साथ हुए अत्याचारों ने अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी। भारत देश जब स्वतंत्र हुआ और संविधान बनाया गया तो मुस्लिमों को अल्पसंख्यकों का दर्जा देकर उनकी रक्षा, शिक्षा का प्रावधान किया गया परंतु आज भी अपने तुच्छ स्वार्थहितों की पूर्ति के लिए राजनेता मुस्लिम समुदाय को लेकर जाने क्या-क्या मुद्दे उछालता है तथा दंगे भी वही करवाता है। राम मंदिर, बाबरी मंदिर की घटना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

विभाजन की इस घटना से संवेदनशील मानव मन जिस तरह से प्रभावित हुआ उसका यथार्थ चित्रण साहित्य में उस ढंग से नहीं मिलता जितना होना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार ने रश्खांदा जलील के हवाले से हिंदी और उर्दू साहित्य में अभिव्यक्त विभाजन के प्रभावों का जिक्र करते हुए कहा है कि-

विभाजन के प्रति हिंदी और उर्दू लेखकों की प्रतिक्रिया लगभग एक जैसी थी। हिंदी के कथाकारों ने विभाजन पर जितनी कहानियाँ और उपन्यास लिखे, उसकी तुलना में कवियों ने बहुत कम लिखा। जलील बताती हैं कि उर्दू में भी कमोबेश यही स्थिती है। जहाँ विभाजन ने नये उर्दू कहानीकारों को जन्म दिया और उस पर अनेक उच्चस्तरीय उपन्यास लिखे गए, वहीं उर्दू के कवियों की कलम मानों गूगी सी हो गई। हिंदी के मुकाबले तों फिर भी उर्दू में विभाजन से प्रेरित होकर अधिक कविता लिखी गई, लेकिन उर्दू के कथा साहित्य की तुलना में उसका आकार नगण्य ही है।8   

विभाजन और उसके प्रभावों का जितना अधिक वर्णन गद्य साहित्य में परिलक्षित होता है उतना काव्य विधा में नहीं होता और यह स्थिति हिंदी और उर्दू साहित्य दोनों में सामान रूप से दिखाई देती है। अज्ञेय द्वारा लिखी गई लम्बी काव्य श्रंखलाशरणार्थीजिसमें विभाजन के पश्चात फैली भीषण साम्प्रदायिकता एवं मार-काट का बेहद सजीव वर्णन किया गया है, इसके बाद कोई ऐसी कविता नहीं मिलती जिसमें विभाजन के बाद देश में हो रही प्रतिक्रियाओं का इतना सजीव वर्णन कहीं प्राप्त हुआ हो। वस्तुतः काव्य जैसी विधा जिसमे प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से भावों की सघन अभिव्यक्ति होती है बड़े पैमाने पर मुस्लिम जीवन का चित्रण कर पाना इतना आसान नहीं है शायद यही कारण है की मुस्लिम जीवन गद्य साहित्य विशेषकर उपन्यासों में अधिक उभरकर अभिव्यक्त होता है|

भारत विभाजन की विभीषिका को चित्रित करने वाले हिंदी में कुछ प्रतिनिधि कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिसमें देश के आराजक वातावरण और हिंसक माहौल को जीवंत रुप में प्रस्तुत किया गया है साथ ही विभाजन के बाद भारतीय मुसलमानों की मनःस्थिति भी दिखलाई पड़ती है| मोहन राकेश कीमलबे का मालिक, स्वयं प्रकाश कीपार्टीशन, मंजूर एहतेशाम कीतसबीह, भीष्म साहनी कीअमृतसर गया है, अज्ञेय कीबदलाकहानी कुछ ऐसे ही कहानियाँ हैं जिस पर देश विभाजन के बाद देश के हिंसक, आराजक वातावरण को जीवंत रुप में चित्रित किया गया है। मोहन राकेश कृतमलबे का मालिककहानी में अमृतसर के बाजार बांसा नामक मोहल्ले को केंद्र में रखा गया है। जहाँ पर विभाजन पूर्व निचले तबके के मुसलमान रहा करते थे। विभाजन के पश्चात् साम्प्रदायिकता की आग में मुसलमानों के घरों को जलाकर राख कर दिया जाता है। गनी मियां जो लाहौर जाकर बस गये थे और उनके बेटे बहु यहीं रह गए थे, नफरत की आग में किस प्रकार से चिराग और उसके बीवी बच्चों की हत्या कर दी जाती है। देश विभाजन के पश्चात मुसलमानों को लेकर भारतीय हिदू जनता के भीतर की मनःस्थिति को अभिव्यक्त करते हुए मोहन राकेश एक स्थान पर कहते हैं कि, गली में यह खबर इस तरह से फैली कि गली के बाहर एक मुसलमान खड़ा है जो रामदासी के लड़के को उठाने जा रहा था...उसकी बहन वक्त पर उसे पकड़ लाई, नहीं तो वह मुसलमान उसे पकड़ कर ले गया होता।9  गनी मियां को मनोरी के साथ देखकर गली की लड़की मुसलमान का भय दिखाकर रोते बच्चे को चुप कराती है, यह सब मुसलमानों के प्रति हिंदू जनता के नकारात्मक विचारों को दर्शाता है। देश विभाजन के पश्चात भारत में रह गए मुसलमानों को अनेक आर्थिक समस्याओं का सामना करना पडा। स्वयं प्रकाश अपनी कहानीपार्टीशनमें लिखते हैं कि,तभी पार्टीशन हो गया। दुकान जला दी गई, रिश्तेदार पाकिस्तान भाग गये। दो भाई कत्ल कर दिये गए।...धीरे-धीरे बिकने लायक सब चीजें बिक गयी और कहीं कोई काम नौकरी नहीं मिली, जो उस दौर में मसलमानों को मिलना बेहद मुश्किल थी।10  विभाजन के पश्चात् भारतीय मुसलमानों को बहुत सारी ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ा।

1947 . के बाद में मुस्लिम पात्र या समाज हमें कई साहित्यकारों के यहाँ दिखलाई देते हैं परन्तु इन सभी के यहाँ जो मुसलमान पात्र हैं वह देश विभाजन की पीड़ा का भुक्त भोगी मुसलमान है। वृहद पैमाने पर मुस्लिम समाज, परिवेश, रीति-रिवाज आदि का गहन चित्रण करने वाले मुसलमान अब भी नहीं दिखाई देते हैं। सर्वप्रथम आधुनिक युग में गुलशेर खां शानी और राही मासूम रजा ही हिंदी खेमे के संभवतः ऐसे साहित्यकार रहे हैं जिनके यहाँ हमें मुस्लिम समाज का प्रामाणिक या विस्तृत चित्रण प्राप्त होता है। शानी ने अपनेकाला जलउपन्यास तथा राही साहब नेआधा गाँवउपन्यास में मुस्लिम जीवन को गहराई में जाकर झाँका है। गुलशेर खाँ शानी काकाला जलउपन्यास मुस्लिम समुदाय के जीवन का प्रामाणिक और कई मायनों में महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। इसमें पहली बार उपन्यास साहित्य में मुसलमानों को विस्तृत फलक पर रखा गया है। शानी का मानना था कि बहुसंख्यक वर्ग को अपनी तुच्छ और हीन मानसिकता का त्याग करना पड़ेगा तभी वह अल्पसंख्यकों की दशा को समझ सकेंगे। उपन्यास में शानी इसी पक्ष को अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं की,हम सब शक की नज़र से देखे जाते हैं स्कूल में लड़के हम सब को देखकर ताने कसते हैं की भेजो सालो को पाकिस्तान, बांधो सालो को जिन्ना की दुम से और तब मुझे यह सोचकर रोना आता था की लोग हमें बेईमान क्यों समझते है। हमारा दोष क्या सिर्फ इतना है कि हमने मुस्लिम परिवार में जन्म लिया है।11  राही मासूम रज़ा काआधा गाँवउपन्यास मुस्लिम समाज, संस्कृति और मुस्लिम मनःस्थिति का चित्रण प्रस्तुत करता है। चूँकि राही ने भारत विभाजन और उसके बाद की स्थिति को देखा और भोगा था अतः उनकी रचनाओं में यह अभिव्यक्त भी होता है। राही मासूम रज़ा ने मुसलमानों को लेकर उठाये जाने वाले सवालों पर लोगों की प्रतिक्रिया को निकट से देखा है और अपनेआधा गाँवउपन्यास में इसी प्रतिक्रिया का जवाब देते हुए वह लिखते हैं कि,जनसंघ का कहना है कि मुसलमान यहाँ के नहीं हैं मेरी क्या मजाल की झुठलाऊं मगर यह कहना ही पड़ता है कि मैं गाजीपुर का हूँ, गंगौली से मेरा सम्बन्ध अटूट है वह एक गाँव ही नहीं वह मेरा घर भी है और मैं किसी को हक़ नहीं देता कि वह मुझसे यह कहे राही तुम गंगौली के नहीं।12 अनवर सुहैल ने अपने उपन्यासपहचानमें मुसलमानों के पहचान के संकट को अभिव्यक्त किया है। गुजरात में गोधरा काण्ड के बाद मुसलमानों को जिस प्रकार से ढूढ़-ढूढ़ कर मारा जा रहा था उस समय यही जरूरी हो गया था की मुसलमान अपनी वेशभूषा बदल कर हिन्दू लिबास धारण कर ले जिससे वह दंगाइयों, कठमुल्लों की नज़र से बच सकें। बदीउज़्मा के उपन्यासछाको की वापसीमें बिहार में बसने वाले मुस्लिम समुदाय के दर्द, पीड़ा एवं संत्रास का अंकन किया गया है। गाँधी भाई तथा हबीब भाई जैसे इस उपन्यास के पात्र देश की दो विपरीत धाराओं भारतीय राष्ट्रवाद और इस्लामी राष्ट्रवाद में आस्था रखते हैं। मंजूर एहतेशाम के उपन्याससूखा बरगदमें सुहेल नाम पात्र को केन्द्र में रखकर मुसलमानों के धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता जैसे मुद्दे पर चर्चा की गई है। अब्दुल बिस्मिलाह ने अपने उपन्यासकुठाँवमें दलित मुसलमानों और उनकी स्थिति, आरक्षण आदि प्रश्नों को सामने रखा है| इस प्रकार अनेक हिंदी के रचनाकारों ने औपन्यासिक कलेवर के विस्तार के कारण उसमे मुस्लिम जीवन और समाज के प्रश्नों को अभिव्यक्ति प्रदान की|

निष्कर्ष :

 इस प्रकार से भारत ऐसा देश हैं जहाँ अनेक संस्कृतियाँ तथा धर्म पनपे| मुस्लिम भी भारत की इस पली-बढ़ी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं| बावजूद इसके हम देखते हैं की आधुनिक हिंदी साहित्य के आरंभिक युग में मुस्लिम जीवन या समाज की उपस्थिति के बराबर रही है| भारतेंदु जैसे बड़े लेखक भी केवल हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करके स्थिर रह जाते हैं अतः इस पर विचार किया जाना चाहिए| अंग्रेजी नीति और भारतीय राजनेताओं की ढिलाई से सनˎ1947 में भारत देश का धर्म के नाम पर विभाजन हो जाता है| विभाजन के बाद मुसलमानों को लेकर देश का माहौल एकदम बदल जाता है और इससे हिंदी साहित्य भी अछूता नहीं रहा है| वास्तव में मुस्लिम जीवन और समाज देश विभाजन के बाद के हिंदी साहित्य में तब जाकर दिखाई देता है जब मुसलमानों के उपर आरोप-प्रत्यारोप प्रश्न लगने शुरू होते हैं|

सन्दर्भ :

  1. भारतेंदु हरिश्चंद और हिंदी नवजागरण की समस्याएं, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2004, पृष्ठ 158
  2. उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, एहतेशाम हुसैन, लोकभारती प्रकाशन इलाहबाद, संस्करण 2016, पृष्ठ 155
  3. हिंदी साहित्य का इतिहास, सम्पादक डॉ नागेन्द्र डॉ हरदयाल , मयूर पेपरबैक्स नोयडा, संस्करण 2013, पृष्ठ 399-401
  4. भारत भारती, मैथिलीशरण गुप्त, साहित्य सदन प्रकाशन झांसी, संस्करण 1984, पृष्ठ प्रस्तावना से 
  5. संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन संस्करण 2019, पृष्ठ 410
  6. समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका, अंक 41 जुलाई-सितम्बर, सम्पादक शानी, पृष्ठ 194-95
  7. भारतीय मुसलमान मिथक और यथार्थ, सम्पादक राजकिशोर, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली पृष्ठ 89
  8. www.outlookhindi.com भारत विभाजन के आयाम, कुलदीप कुमार  
  9. www.hindisamay.com मलबे का मालिक, मोहन राकेश 
  10. www.hindisamay.com पार्टीशन, स्वयंप्रकाश
  11. काला जल, शानी राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2007, पृष्ठ 311
  12. आधा गाँव, राही मासूम राजा राजकाल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ 303

 

तृप्ति त्रिपाठी

शोधार्थीदयालबाग एजुकेशनल इंस्टिट्यूट, दयालबाग, आगरा, 282005

triptiau2017@gmail.com

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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