- ओम प्रकाश
शोध सार : स्वतंत्र भारत में पूँजीवादी व्यवस्था तथा देश की शासन व्यवस्था द्वारा भारतीय श्रमशीलों में जो व्यवस्था-हीनता जारी है, उसी का चित्रण प्रस्तुत शोध आलेख में किया गया है। देश में श्रमिकों को मजबूर बनाने का खेल जारी है। देश विकास के पथ पर एक कदम आगे की ओर बढ़ तो गया है, किन्तु देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने वाले मेहनतकश अभी भी आर्थिक विपन्नता में जी रहे हैं। अर्थात वे विकास के इस चकाचौंध में जरा भी सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं। इनकी समस्याएँ और परिस्थितियाँ इतनी विकट तथा जानलेवा हैं कि मेरी अत्यंत संवेदनशीलता ने इसके शास्वत निदान का मार्ग ढूंढने और अपनाने के लिए बाध्य कर दिया है। इनकी इन्हीं समस्याओं का अभिव्यंजन नयी सदी में प्रकाशित हिन्दी उपन्यासों की संबद्धता के साथ किया गया है।
बीज शब्द : गरीबी, बेकारी, बेरोज़गारी, विकल्पहीनता, पलायन, पीड़ा, आत्महत्या, अंतर्द्वंद्व, लूट-खसोट, भ्रष्टाचार, चुनौतियाँ, मटियामेट, भूमण्डलीकरण, अस्तित्व-संकट, संघर्ष आदि।
मूल आलेख : आज देश को आजाद हुए लगभग 74 वर्ष हो गए हैं, किन्तु स्वतंत्र भारत का श्रमिक वर्ग आज भी अनेक चुनौतियों से सामना करते हुए अपने सुखी जीवन की आकांक्षा संजोए हुए है। आजादी से पूर्व और पश्चात् कई श्रमिक संघों की स्थापना हुई है और आज भी यह प्रक्रिया चल रही है। किन्तु इसके बावजूद श्रमिक वर्ग अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अनवरत संघर्षरत हैं। पूँजी और सत्ता की जुगलबंदी से श्रमिकों के जीवन में ऐसी भीषण दुश्वारियाँ उत्पन्न हुईं हैं कि उनका अस्तित्व ही खतरे में नजर आ रहा है। देश की तरक्की और विकास होने के बावजूद भी आम श्रमिक तबका अपने को निस्सहाय महसूस कर रहा है। पूँजीपति वर्ग अपनी पूँजी के बल पर बड़े-बड़े उद्योगों का विकास तो कर लिया है, लेकिन उन उद्योगों में काम करने वाले श्रमसाध्य वर्ग को नियमानुसार कोई लाभ अर्जित नहीं करा पा रहा है। वरन् उनकी मेहनत का दोहन करके अपना आर्थिक लक्ष्य पूर्ण करने में लगा हुआ है। उनका मुख्य उद्देश्य अधिकाधिक लाभ कमाना है। उन्हें श्रमिक वर्ग के जीने-मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। 'पत्ताखोर' उपन्यास का पात्र सहदेव कहता है- "हमारे इसी भोले विश्वास और संतोष का नतीजा है कि सुबह से शाम तक हड्डी तोड़ मेहनत के बावजूद हम भूख से, गर्मी से, हैजा से, कुपोषण से, ठंड से मर रहे हैं। और हमारे बच्चे... जिनके हाथों में किताबें होनी चाहिए... उनके हाथों में झाड़ू है... चाय की केतली है... उगलती आग की भट्टी है। सिर पर सामर्थ्य से अधिक बोझा है। इस जंगली समय में वे सारी चीजें महँगी हो रही है जो हमारे काम की हैं, रोटी, चावल, सत्तू, चाय, तेल, किरासन... सिर्फ एक ही चीज दिनोंदिन सस्ती हो रही है- मजदूरी और मजदूर की जान।"1
पूँजीवाद की अतिशयता से हमारा किसान समुदाय कृषि से दूर होता जा रहा है, अर्थात वह श्रमिक बनता जा रहा है। आज आजाद देश में कृषि संकट बहुत बड़ी समस्या बन गया है। भारत की एक बहुत बड़ी आबादी कृषक है जिसका जीवन कृषि पर ही अवलंबित है। परंतु वह भी आज स्वतंत्र भारत में विकल्पहीनता का शिकार हो गयी है। वर्तमान समय में कृषि पर निर्भर किसानों के समक्ष दो ही विकल्प हैं- पहला विकल्प है कि वे स्वयं कृषि को बचाए रखने के लिए घाटे में रहकर लगातार खेती करते रहें। परन्तु तमाम कृषकों के लिए यह कदम आत्मघाती साबित होता है। घाटे में रहकर खेती करते रहना अत्यन्त दुष्कर है। ऐसी स्थिति उन्हें घोर निराशा की ओर ले जा रही है, जिससे वे निकलने की कोशिश करते हैं। पूँजी एवं सत्ता के जाल से निकलने के लिए वे लड़ते हैं, संघर्ष करते हैं। जो किसान अलग-थलग पड़ जाते हैं वे अंततः मारे जाते हैं जिसे आत्महत्या की संज्ञा से संबोधित किया जाता है। ये सत्ता, समाज, व्यवस्था द्वारा प्रायोजित हत्याएँ लगती हैं। उनके आस-पास ऐसा वातावरण बना दिया जाता है कि वे अंततः आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं। जैसे ‘गोदान’ के ‘होरी’ की मृत्यु को स्वाभाविक मौत नहीं कहा जा सकता, वैसे ही आज के किसानों की आत्महत्याओं को स्वाभाविक आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। प्रेमचंद के समय के देशी पूँजीवाद और आज के विदेशी पूँजीवाद ने गठजोड़ कर किसानों को कुछ इस क्रूरता और शातिरपन से निचोड़ रहे हैं कि किसान मर भी रहे हैं और दोनों के माथे कोई कलंक भी नहीं आ रहा। फिर भी वे इनका मुकाबला कर रहे हैं। किसानों का एक बड़ा वर्ग एकताबद्ध, संगठित हो संघर्ष कर रहा है, आन्दोलन कर रहा है। आज यही रास्ता अधिक कारगर लग रहा है, क्योंकि आन्दोलन के रास्ते चलकर ही उन्हें कुछ सफलताएँ मिली हैं। दूसरा विकल्प है कि खेती-किसानी छोड़कर वे जीवन निर्वाह के लिए रोजगार की तलाश में शहर की ओर पलायन कर जाएं। कृषि संकट एवं गाँवों में रोजगार के अवसर उपलब्ध न होने के कारण बड़े स्तर पर गाँवों से शहरों की ओर उनका पलायन जारी है जिसे सरकार भी रोकने में नाकामयाब है।
उत्तर प्रदेश राज्य का बुन्देलखण्ड क्षेत्र पलायन जैसी समस्या का ज्वलंत उदाहरण है। देश के अन्य राज्यों की भी लगभग यही स्थिति है। आँकडे़ बताते हैं कि पिछले कुछ ही वर्षों में लगभग 80 लाख लोगों ने खेती किसानी छोड़कर गाँवों से शहरों की ओर पलायन किया है। कृषक से श्रमिक में तब्दील हुए इस श्रमसाध्य वर्ग का जीवन सहज एवं सुखमय हो, ऐसा भी नहीं है। सुनील चतुर्वेदी के उपन्यास ‘कालीचाट’ का पात्र जगमोहन कहता है- "पतरे की एक छोटी सी खोली है। उसमें हम तीन लोग रहते हैं। खोली भी शहर में नहीं बाहर गंदे नाले के किनारे बनी है। बड़े-बड़े घरों की पक्की टट्टियों का गन्दा पानी नाले में आता है। अंदर औार बाहर चोवीस घंटे बास गुंड़ाती रहती है।... मच्छर इत्ते के सवेरे तक पूरा शरीर सूजा दे।...शहर में दिहाड़ी मजूर की कोई गत नहीं है दादा।"
खेती-किसानी छोड़कर बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों में जाने पर उन्हें किसानी से भी बद्तर सड़ाँधपूर्ण नारकीय जिन्दगी नसीब होती है। इसके साथ ही शहरों में स्थापित उद्योगों में उन्हें छँटनी, हड़ताल, कम पारिश्रमिकता, रहन-सहन की किल्लत जैसी अनेक समस्याओं से भी सामना करना पड़ता है। किसान से मजदूर बनने की यह प्रक्रिया बड़ी पीड़ादायक होती हैं। अत्यंत दुखद स्थिति है कि आज लगभग प्रत्येक छोटे किसान को जो श्रमिक में रूपांतरित हुआ है, इस दर्द से गुजरना पड़ रहा है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि जहाँ एक तरफ विकास के बडे़-बड़े दावे किए जा रहे हैं, वहीं श्रमिक वर्ग के जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पाती हैं। सरकार की तमाम नीतियाँ और बड़े-बड़े दावों, वादों के बावजूद भी उनके जीवन में कोई सकारात्माक सुधार देखने को नहीं मिलता। श्रमिक वर्ग के जीवन की ये चुनौतियाँ तथा उनके अस्तित्व का यह संकट अचानक नहीं उत्पन्न हुआ है और न ही ऐसी परिस्थितियाँ एकाएक उत्पन्न हुई हैं। श्रमिकों की ये सभी समस्याएँ आजादी के पूर्व ही जन्म ले चुकी थीं। भारत में विदेशी हुकूमत के आगमन से देश के पुराने छोटे-मोटे उद्योग धंधे नष्ट हो गए थे। उनकी जगह पर विदेशी औद्योगिकीकरण का विकास हुआ। शिल्पकार, बढ़ई, नाई आदि लोगों को भूमि पर निर्भर रहना पड़ा। किन्तु खेती भी स्वामित्व का दर्जा ग्रहण कर चुकी थी जिसके फलस्वरूप उसका क्रय-विक्रय करना संभव हो गया था। छोटे-छोटे किसान कर्ज और लगान का बोझ उठाने में असमर्थ हो गए और भूमि जमींदारो और महाजनों के हाथों में चली गयी। फलत: किसान, कृषि श्रमिक, औद्योगिक श्रमिक और बँधुवा मजदूर बनने को बाध्य हो गए। प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक सुकोमल सेन अपनी पुस्तक 'भारत का मजदूर वर्ग उद्भव और विकास' में कुछ इसी तरह के मतों को प्रतिपादन किया है, वे अपनी पुस्तक में लिखते हैं- "ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के औपनिवेशिक शासन और शोषण ने भारत की परंपरागत उत्पादन व्यवस्था और स्वावलंबी समाज व्यवस्था को मटियामेट कर दिया।.....ब्रिटिश सेना द्वारा अधिकृत इलाकों में पुरानी आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक श्रम-विभाजन को भी चकनाचूर कर दिया गया। इलाके पर कब्जा करने के साथ ही उस इलाके का अतिरिक्त उत्पादन भी साम्राज्यवादियों को प्राप्त हो गया।"3
अंग्रेजों की यही कूटनीतिक चाल की छाप आज भी हमारे देश के पूँजीपतियों पर स्पष्ट दिखाई देती है। स्वतंत्र भारत में श्रमिक वर्ग की स्थिति पर गंभीरता से विचार करने वाली बात यह है कि श्रमिक वर्ग के श्रम का उपभोग करके आज हजारों-लाखों उद्योगपति अपने कम्पनियों से हजारों गुना मुनाफा कमा रहे हैं जबकि श्रमिक वर्ग जहाँ का तहाँ बना हुआ है। आखिर उनकी कौन सी समस्याएँ हैं जो उन्हें मजदूरी से पीछा नहीं छुड़ाती? क्या श्रमिक वर्ग ईमानदारी से श्रम नहीं करता या इनके श्रम से पूँजीपति मालिकों का कोई लाभ नहीं होता? ऐसा तो संभव नहीं, क्योंकि यह जो विकास की चकाचौंध है, पूँजीपतियों की गगनचुंबी इमारतें हैं और उन इमारतों में पूँजी की अतिशयता से इठलाते हुए लोग हैं, ये सब श्रमिक वर्ग के परिश्रम का ही फल है। उनके खून-पसीने से उनके रंगमहलों की रंगाई-पुताई की गई है। मेहनतकश लोगों के जीवन संकट की वास्तविकता एवं उनकी समस्याओं को गहराई से जानने, समझने की दिशा में बढ़ने से पहले यह अनिवार्य हो जाता है कि देश में हुए 1990 के आार्थिक उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण की भूमिका को समझा जाए। इस नयी वैश्विक व्यवस्था को लागू हुए तीसरा दशक ही पूरा हुआ है और इसके भयंकर दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। उदाहरण के लिए भारतीय कृषि को देख सकते हैं जिसके कारण कृषक तबकों के पलायन में बढ़ोत्तरी हुई है। भूमंडलीकरण से सिर्फ भारतीय कृषि पर ही संकट नहीं आया, बल्कि दुनिया के अनेक गरीब देशों की भी कृषि व्यवस्था इससे तबाह हुई है। इस विषय में वैश्विक मामलों के विशेषज्ञ पुष्पेश पंत लिखते है- "21वीं शताब्दी के पहले दशक की समाप्ति तक भूमंडलीकरण का कुरूप और भयंकर चेहरा अच्छी तरह साफ हो गया है। इसका एक पहलू वह है जिसमें विश्वभर में परिष्कृत टैक्नोलॉजी पर आधारित औद्योगीकरण तो तेजी से बढ़ा है पर इसके साथ-साथ दुनियाभर में कृषि का ह्रास भी उसी गति से हुआ है।"4
वर्तमान समय में तेजी से बढ़ते औद्योगीकरण ने जहाँ एक ओर किसानों को उनकी खेती के योग्य जमीन से बेदखल किया, तो वहीं दूसरी तरफ विभिन्न औद्योगिक तकनीकी उपकरणों ने श्रमिक वर्ग को मानों अपंग सा कर दिया है। पहले जब उद्योगों में मशीनों का आगमन नहीं हुआ था, तब श्रमिकों को भारी तादाद में काम आसानी से मिल जाता था तथा उनके जान-माल का ज्यादा खतरा भी नहीं था। लेकिन मशीनों के आगमन से श्रमिकों के जीवन में बेरोज़गारी की समस्या भी उत्पन्न हो गई। यदि कैसे भी करके उनको काम मिल भी जाता है तो उन्हें रजिस्टर्ड, नॉन रजिस्टर्ड जैसी बहुसंख्यक समस्याओं से जूझना पड़ता है। यदि किसी मशीन पर काम करते हुए निश्चित समय में अपना काम पूरा न कर पाए तो पेनाल्टी स्वरूप मेहनताने के कुछ हिस्से से दण्ड भुगतना पड़ता है। मशीन पर काम करते हुए यदि शरीर का कोई हिस्सा चोटिल या जख्मी हो जाता है तो उसकी समस्याएँ अलग से। मालिकों का उस समस्या से कोई सरोकार नहीं होता है। यदि कोई श्रमिक काम करते हुए हाथ, पैर, आँख जैसे अंगों से अपंग हो जाता है या मर जाता है तो उद्योगपति द्वारा दो-चार महीनों का गुजारा भत्ता देकर उस श्रमिक से पीछा छुड़ा लिया जाता है। औद्योगिक क्षेत्रों में मशीनों के आगमन से श्रमिक वर्ग में उपजे असंतोष तथा बढ़ती बेरोजगारी, बेकारी का चित्रण करते हुए राजेश झरपुरे अपने उपन्यास 'कबिरा आप ठगाइये' में लिखते हैं- "कम वेतन, अधिक काम उनके असन्तोष का प्रमुख कारण था, पर वे सब विवश थे। वे सब अपने असन्तोष को लेकर किसी तरह का विरोध भी प्रकट नहीं कर सकते थे। उनके द्वारा हाथ खींच लेने से कोयला खदानों का उत्पादन ठप्प हो जाता था और वे यह काम उस वक्त अधिक करते जब देश में कोयले की जरूरत ज्यादा होती, इसलिए मैनेजमेंट ने खदानों में कोयला लोड करने वाली मशीन उतरवाकर उनके हाथ ही काट दिये।"5
'आवां' उपन्यास में लेखिका चित्रा मुद्गल ने कामगार अघाड़ी (मुम्बई) में काम करने वाले उन श्रमिकों के जीवन संघर्ष की महागाथा वर्णित की है जो घाटकोपर, कांजुरमार्ग, भांडुप, मुलुंड आदि छोटी-छोटी झुग्गी झोपड़ियों से बनी बस्तियों में रहकर पापड़, ग्लास आदि उद्योगों में काम करते हैं। यह श्रमिक वर्ग पूँजीपतियों की दृष्टि में मनुष्य कम डुकर अधिक नजर आता है। ऐसी स्थिति में इन श्रमिकों का हृदय स्वयं को धिक्कारता है कि वे किस व्यवस्था में जी रहे हैं जहाँ एक स्त्री की कोंख भी सुरक्षित नहीं है। लेकिन करें तो क्या करें, यह कमबख्त पेट की क्षुधा जो नहीं मानती। उनके परिवार में भूख से उठ रही आहें उन्हें इस काम को करने के लिए विवश करती हैं। करुणाशंकर बंधोपाध्याय ने इस उपन्यास की हृदय विदारक श्रमिक समस्याओं को उजागर करते हुए लिखा है- “कुछ पाने के लिए कुछ बनने के लिए जिस तरह सोने को तपना पड़ता है, मिट्टी के बर्तनों को आवें में पकना होता है तब कहीं जाकर वे बर्तन सामने आते हैं। यह आवां प्रतीक लगता है जीवन की ज्वलंत समस्याओं का, उसमें जूझते हुए लोगों का जीवन की कठिनाइयों को झेलते, परिस्थितियों से लड़ते हुए भी कुछ बनने और पाने का।”6 उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि उपन्यास में वर्णित श्रमिक वर्ग अपने तथा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए विभिन्न परिस्थितियों में भी अपने श्रम को बेचने में जरा भी असहज महसूस नहीं करता, भले ही वह इस श्रम रूपी आवें में जलकर काला झावाँ ही क्यों न बन जाए।
प्रेस उद्योग में काम करने वाले श्रमिकों की व्यथा-कथा पर आधारित है योगेश गुप्त का उपन्यास 'उनका फैसला'। इस उपन्यास में यूनियन लीडर और उद्योग में काम करने वाले श्रमिकों के बीच चल रहे अंतर्द्वंद तथा उनकी दैनिक समस्याओं के साथ ही साथ पूँजीपति वर्ग की कूटनीति का भी उल्लेख किया गया है। पूँजीपतियों की लूट-खसोट की नीति तथा यूनियनों में एकता का अभाव आदि श्रमिक वर्ग को शारीरिक और मानसिक रूप से दोहित करते हुए दिखाई देते हैं। इसी तरह रमाकांत द्वारा लिखित उपन्यास 'जुलूस वाला आदमी' में भी सुदूर ग्रामीण अंचलों से आए हुए उन श्रमिकों की व्यथा चित्रित की गई है जो गाँव की सामंतवादी अतियों और विकृतियों से ग्रसित होकर देश के विभिन्न औद्योगिक नगरों और महानगरों में अपनी आजीविका का साधन खोजने को विवश हैं। 'आदमी, बैल और सपने' उपन्यास में स्वतंत्र भारत के उन समस्त भारतीय श्रमिकों की व्यथा-कथा चित्रित की गई है जो काम और पूँजीपतियों की मार से हताश होकर टूट से गए हैं। उपन्यास में जमीनी संघर्ष से लेकर श्रमिक वर्ग की आर्थिक विपन्नता, राजनीतिक उठा-पटक, सामाजिक दुश्वारियाँ, गरीबी, भुखमरी, बेकारी, बेरोजगारी आदि समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। अलका सरावगी का उपन्यास 'एक ब्रेक के बाद' तथा कमल कुमार का उपन्यास 'पासवर्ड' देश में पूँजी की अतिशयता से उपजे औद्योगिक जगत तथा कारपोरेट हाउसिंग की परिवर्तित भूमंडलीकृत स्थितियों को केन्द्र में रखकर लिखे गये हैं। इस भूमंडलीकरण के औद्योगिक घरानों को विस्तारित करने के लिए किस प्रकार शाइनिंग इंडिया में श्रमिक वर्ग के श्रम का दोहन कर, उनकी झुग्गी झोपड़ियों को उजाड़ कर मात्र कुछ चंद रुपयों का मुआवजा देकर आम श्रमिक से भिखारी जीवन जीने के लिए विवश किया जाता है जिसका यथार्थ वर्णन उपन्यासकार ने किया है। 'पासवर्ड' उपन्यास में भूमंडलीकरण के औद्योगिक विकास के नए मॉडल ने श्रमिक वर्ग को झकझोर कर रख दिया है। ऐसी स्थिति में बद से बद्तर हो रहे श्रमसाध्य लोगों का जीवन तथा विकास से महरूम हो रही उनकी दैनिक जिंदगी का चित्रण करते हुए लेखिका ने लिखा है- "लेकिन विकास हो रहा है देश का! देश यानी सेठ-साहूकार, उद्योगपति, भूमाफिया? उद्योगपति देश हैं, पूंजीपति देश हैं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिक देश हैं, सच तो यही है, यही देश है। इनके विकास की कीमत चुका रहा है किसान, आदिवासी, मेहनतकश और दलित। आज हमारी जमीन, जल और जंगल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले किए जा रहे हैं।"7
भूमंडलीकरण के दौर में औद्योगिकरण की अतियों और विकृतियों का स्पष्ट उल्लेख रणेन्द्र का उपन्यास 'ग्लोबल गाँव के देवता' और महुआ माँझी का उपन्यास 'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ' में देखा जा सकता है। इन दोनों उपन्यासों में खनन क्षेत्रों की समस्याओं पर बहुविध रूप से प्रकाश डाला गया है। ये दोनों उपन्यास खनन क्षेत्र के जन-जीवन के साथ ही साथ सामान्य आदिवासी श्रमिक वर्ग की विवशता, बेबसी, लाचारी, बेकारी, बेरोजगारी तथा विस्थापन आदि समस्याओं को भी उजागर करते हैं। कुणाल सिंह का उपन्यास 'आदिग्राम उपाख्यान' मध्यवर्ती पश्चिम बंगाल के पूर्वी प्रांत में स्थित आदिग्राम गाँव के अतीत और वर्तमान में झांकता हुआ कंपनी शासन के दौर के शोषण से लेकर, राजनीतिक चालों और श्रमिक संगठनों की कारगुजारियों तथा उनके अनैतिक काइयांपन का चित्रण करता है। अश्विनी कुमार पंकज द्वारा लिखित उपन्यास 'माटी माटी अरकाटी' में मजदूर जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार, पूँजीपतियों का उनके साथ अनैतिकता पूर्ण व्यवहार और उनके संघर्षशील जीवन को उजागर किया गया है। इसके साथ ही उपन्यास में कलकत्ता, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश आदि प्रांतों से अरकाटियों द्वारा गरीबी, भुखमरी, लाचारी का शिकार हुए लोगों को बहला-फुसलाकर प्रवासी बँधुआ मजदूर बनाने का चित्रण भी किया गया है।
नारायण सिंह द्वारा लिखित उपन्यास 'ये धुआँ कहाँ से उठता है' तथा रमणिका गुप्ता का उपन्यास 'सीता मौसी' झारखंड प्रांत की कोयला खदानों में काम करने वाले उन हजारों-हजार श्रमिकों की दयनीय दशा का अवलोकन किया गया है जो दिन-रात कोयलांचल के धूल-धूसरित वातावरण में खटते हुए तथा अपने हाड़-मांस को कोयले से तरबतर करते हुए पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने में लगे हुए हैं। रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास 'सह्पुरवा' और 'हरियल लकड़ी' की कथावस्तु एक ऐसे छोटे से गाँव की है जहाँ पर दबंगों का दबदबा अपने उत्कर्ष पर है। दबंगों के अत्याचारों से पीड़ित आम श्रमिक वर्ग त्रासद जीवन जीने के लिए मजबूर सा हो गया है। दबंगों की दबंगई तथा उनकी स्वार्थपरता के साथ-साथ गाँव के उन बँधुआ मजदूरों के संघर्षशील जीवन की व्यथा दर्ज की गई है जो दलालों, दबंगों तथा ठाकुरों की जीवन पर्यंत गुलामी करने के लिए मजबूर हैं। जिनकी स्त्रियों का शारीरिक शोषण गाँव के दबंगों और दलालों के द्वारा मनचाहे रूप से किया जाता है। एमएस चन्द्रा द्वारा लिखित उपन्यास 'प्रस्तोर' 1990 के दशक की एक सच्ची घटना पर आधारित है। इस उपन्यास में 90 के दशक में सैकड़ों धागा मिल बंद हो जाने के कारण श्रमिक वर्ग के जीवन में उपजे असंतोष को स्पष्ट देखा जा सकता है। इस असंतोष के चलते श्रमिकों के जीवन में व्याप्त कलह, लाचारी, गरीबी तथा आर्थिक विपन्नता का मार्मिक स्वर सुनाई देता है।
उमेश प्रसाद शर्मा ‘उमेश’ का उपन्यास 'व्यर्थ सातत्य' जहाँ अमीर, जालसाज, षड्यंत्रकारी, फरेबी, शासकों, शोषकों तथा दलालों से भरे विश्व में सीधे-साधे, सदाचारी, भोले-भाले कर्मठ तपस्वी श्रमिकों के जीवन संघर्ष की व्यथा-कथा कह रहा है, वहीं उनका 'जानों पहचानों' तथा 'आज का सच' उपन्यास तत्कालीन समय और समाज के परिवेश का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है। जयनंदन द्वारा लिखित उपन्यास 'रहमतों की बारिश' तथा 'चिमनियों से लहू की गंध' औद्योगिक शहरों में स्थित कल-कारखानों में काम करने वाले उन हजारों-लाखों श्रमिकों की पीड़ा के स्वर सुनाई देते हैं जो चाहकर भी ऐसी विषम परिस्थितियों से बाहर नहीं निकल पाते। ‘रहमतों की बारिश’ उपन्यास में ट्रेड यूनियनों का काला चिट्ठा प्रस्तुत किया गया है जो श्रमिक वर्ग के प्रति सहानुभूति के पीछे अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगी हुई हैं। अर्थात यह कहना गलत नहीं होगा कि ये ट्रेड यूनियन श्रमिकों को शोषण से उबारने की जगह खुद उनके शोषण का केंद्र बन गई हैं। ऐसी स्थिति में श्रमिक वर्ग दोहरे रूप में शोषित हो रहा है। 'चिमनियों से लहू की गंध' जयनंदन के उपन्यास 'श्रमेव जयते' का विस्तार रूप है। इस उपन्यास में इस्पात कारखाने में काम करने वाले उन श्रमिकों की दयनीय दशा का अवलोकन किया गया है, जो दिन-रात कड़ी मेहनत करने के बावजूद भी सहजता से जीवन यापन नहीं कर पा रहे हैं। इसके पीछे पूँजीपति वर्ग की स्वार्थपरता की बहुत बड़ी चालें हैं। उपन्यास का श्रमिक पात्र बद्री अपनी दयनीय दशा को बयां करते हुए कहता है- "मत पूछो, केदार। दिमाग काम नहीं कर रहा है। एक तो महँगाई डायन ने कमर तोड़ दी है, ऊपर से हरामखोर लोग वेतन-पुनरीक्षण को भी टाले जा रहे हैं। एक कहावत है कि खस्सी की जान जाये और खवैया को स्वाद ही नहीं मिल रहा।"8
सुनील प्रसाद शर्मा का उपन्यास 'लॉकडाउन रोज़नामचा : मौत मिले, पर माटी में' तथा महेन्द्र भीष्म का उपन्यास 'बैरी' में कोरोना महामारी की विभीषिका में संघर्षरत श्रमिकों की कराहें, कड़ी धूप से जलती रोड पर नंगे पैर चलने से पैरों में पड़े हुए छालों से उठते दर्द की व्यथा तथा भूखे लाचार छोटे-छोटे दूधमुंहे बच्चों की चीखें, गर्भवती श्रमशील महिलाओं की पीड़ा, उनका लाचार जीवन तथा अपने घर सुरक्षित पहुंचने की लालसा आदि के स्वर स्पष्ट सुनाई देते हैं। इसके साथ ही महामारी के समय में शासन और प्रशासन तंत्र की नेकनामी और उनकी कारगुज़ारियों का काला चिट्ठा भी इन उपन्यासों में देखने को मिलता है। कोरोना महामारी के समय में श्रमिक वर्ग के प्रति शासन और प्रशासन के रवैये को चित्रित करते हुए उपन्यासकार सुनील प्रसाद शर्मा ने लिखा है- "बस हवा में बातें हो रही हैं। जो इसी प्रदेश के रहने वाले हैं, उनके लिए तो यहाँ की सरकार ने बसों की व्यवस्था कर दी है और हम दूसरे प्रदेश से हैं तो हम ग़ैर हो गए। वाह री सरकार! "एक भारत, अखंड भारत" का नारा तो महज छलावा है। हक़ीक़त में गरीबों की कोई बखत नहीं है। मजदूरी करते वक्त हम ग़ैर नहीं थे, तब हम मेहनतकश, स्वाभिमानी मजदूर थे और अब परदेसी उपेक्षित मजदूर।"9 इसी तरह कोरोना कालीन श्रमिक वर्ग की त्रासद जिंदगी का चित्रण करते हुए उपन्यासकार महेन्द्र भीष्म ने लिखा है कि- “काय मार रए साब? हमसे कौन सो अपराध हो गओ?....काय मारो तुमने?... अरे दिल्ली से कोनउ तरा साइकिल पे चले आ रहे, गरीब, लाचार, बेबस मजदूर हाँ सताए से तुम्हें का मिल गओ?... तुमने साइकिल की हवा जुदी निकार दई...ई महामारी ने रोजगार खत्म कर दये जीसे शहर छोड़कर अपने गाँव जा रहे। आफतकाल में अपनी जन्मभूमि में जावो भी गुनाह हो गओ का? दो दिना के भूखे हैं, हम ओरें ...राई भरे मोड़ा हाँ तक कछु नहीं खबा पा रहे। हमाए आदमी के हाथ सुजा दये तुमने..."10
निष्कर्ष : स्वरूप यह कहा जा सकता है कि नयी सदी में श्रमिक जीवन की चुनौतियाँ एवं उनकी समस्याएँ नई नहीं हैं, वरन् ये बीसवीं सदी से ही चली आ रही हैं। अंतर बस इतना हुआ है कि शोषक वर्ग का मुखौटा बदल गया है। नई सदी के श्रम और श्रमसाध्य तथा बीसवीं सदी के श्रम और श्रमसाध्य में विशेष अंतर लक्षित नहीं होता है। जो भी अंतर है, वह यह कि आधुनिकीकरण की अतिशयता से औद्योगिक जगत में मशीनों का आगमन तीव्र गति से हुआ है जिससे श्रमिक वर्ग के पांव उखड़ गए हैं। इसके चलते उन्हें दोहरी मार सहनी पड़ रही है। इन सबका चित्रण उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में भली-भांति किया है।
सन्दर्भ :
2.- सुनील चतुर्वेदी : ‘कालीचाट’, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, 2015, पृष्ठ संख्या- 80
3.- सुकोमल सेन : ‘भारत का मजदूर वर्ग उद्भव और विकास’, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृष्ठ
संख्या- 29
4.- पुष्पेश पंत : ‘21वीं शताब्दी में अंतर्राष्ट्रीय संबंध’, एमसी ग्राव हिल एजूकेशन (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड,
चेन्नई, 2019, पृष्ठ संख्या- 1.7
5.- राजेश झरपुरे : 'कबिरा आप ठगाइये', साहित्य भंडार प्रकाशन, इलाहाबाद, 2015, पृष्ठ संख्या- 76
6.- करुणाशंकर बंधोपाध्याय : ‘आवां विमर्श’, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ संख्या- 141
7.- कमल कुमार : ‘पासवर्ड’, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ संख्या- 63
8.- जयनंदन : ‘चिमनियों से लहू की गंध’, प्रलेक प्रकाशन, मुंबई, जून 2021, पृष्ठ संख्या- 41
9.- सुनील प्रसाद शर्मा : ‘लॉकडाउन रोज़नामचा : मौत मिले, पर माटी में’, साहित्यगार प्रकाशन, जयपुर,
2020, पृष्ठ संख्या- 57
10.- महेन्द्र भीष्म : ‘बैरी’, प्रलेक प्रकाशन, मुंबई, मार्च 2021, पृष्ठ संख्या- 67
ओम प्रकाश
शोधार्थी, हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ, उत्तर प्रदेश।
opji2020@gmail.com, 9451692485
बहुत श्रम पूर्वक लिखा गया शोध आलेख . शोधार्थी श्री ओम प्रकाश अत्री को हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद गुरु जी।
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