स्वाधीनता संग्राम में प्रिंट मीडिया की भूमिका
- लखवीर कौर लैजिया
शोध सार : सूचना क्रांति के इस युग में सूचनाओं को साधनों और संसाधनों द्वारा लोगों तक पहुँचाने का कार्य मीडिया करता रहा है। भले ही वह प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रानिक्स मीडिया, सोशल मीडिया या कोई और साधन हों, इनका प्रमुख उद्देश्य सकारात्मक चेतना पैदा करना होना चाहिए। अब तक प्रिंट मीडिया लोगों तक सूचना पहुँचाने का प्रमुख माध्यम रहा है। इसमें अख़बार और मैगज़ीन प्रिंट मीडिया के प्रमुख रूप हैं। अख़बार आज भी लोगों के लिए जानकारी का मुख्य स्रोत है। अब तक के तथ्यों के अनुसार पूरे देश में लगभग एक लाख से ज़्यादा पब्लिकेशन हाऊस हैं। जिसमें करीब चौबीस करोड़ अख़बार प्रिंट होते हैं। इनको पढ़ने वालों की संख्या लगभग पचास करोड़ के करीब है। इसी तरह यदि हम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की बात करें तो इसमें प्रिंट मीडिया ने निर्णायक भूमिका निभाई। ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य के शासनकाल के दौरान हुए भारत और भारतीयों पर अत्याचारों की समीक्षा करनी रही हो या फिर हमारे क्रांतिकारी, समाज सुधारको के कार्य का प्रचार करना रहा हो अथवा राजनेताओं की विचारधारा का आम जन में प्रचार-प्रसार करना रहा, प्रिंट मीडिया ने स्वाधीनता के संग्राम में हमें एक नई दिशा दी।
बीज शब्द : प्रिंट मीडिया,
इलेक्ट्रानिक्स मीडिया,
सोशल मीडिया‚
आंदोलन‚
स्वाधीनता‚
पत्रकारिता।
मूल लेख : भारतीय इतिहास युद्धों का इतिहास भी कहा जा सकता है। इसका प्रमुख कारण है- भारत
सदियों तक ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा। मुग़लों
के आगमन से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना तक का समय भारतीयो
के संघर्ष का समय रहा है। मुग़लों के बाद 1498 में यूरोपीय जातियों का प्रवेश भारत में आरंभ हो गया था। जून 23, 1757 ईस्वी में प्लासी का युद्ध हुआ। लार्ड क्लाईव को इस युद्ध में छल कपट से जीत हासिल हुई। जिसका निष्कर्ष यह निकला
कि भारत में ईस्ट
इंडिया कंपनी का शासन स्थापित हो गया।
100 साल तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने शासन किया। इस सदी के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीयों पर तरह-तरह के ज़ुल्म किए। जिसके फलस्वरूप 1857 ईस्वी में भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम अपनी चरम सीमा पर था। भले ही यह सफल नहीं हो सका परंतु इस आंदोलन ने भारत को
एकजुट करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। यही कारण था कि 1857 ईस्वी में ब्रिटेन की
रानी विक्टोरिया ने ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता को बरखास्त कर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की। ईस्ट इंडिया कंपनी के अत्याचार दिन-ब-दिन भारत में बढ़ रहे थे। अनेक इतिहासकारों, लेखकों और चिंतकों ने इसका ज़िक्र किया है। पंडित सुन्दर लाल अपनी पुस्तक 'भारत में अंग्रेज़ी राज’ में अंग्रेज़ विद्वान हर्बर्ट स्पेंसर, डा. रसेल
आदि विद्वानों की पुस्तक को उद्धृत करते हुए लिखते हैं,
“ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय शासन को आरंभ से ही पापों से रंगा था। लगातार
अनेक पीढ़ियों तक, बड़े से बड़े सिविल और फ़ौजी अफसरों से लेकर छोटे से छोटे कर्मचारियो तक कंपनी के मुलाजिमों का एकमात्र महान लक्ष्य और उदेश्य यह रहता था कि जितनी जल्दी हो सके, बड़ी से बड़ी पूंजी इस देश से निचोड़ ली जाए। हारी हुई जनता को बर्बर और देसी पूंजीपतियों
के बड़े से बड़े ज़ुल्म इतने घातक नहीं लगते थे जितने कंपनी के छोटे से छोटे ज़ुल्म।” 1 यह भारतीय इतिहासकार नहीं बल्कि अँगरेज़ इतिहासकार ही लिख रहा है जो ब्रिटिश साम्राज्य
की शोषक और दमनकारी प्रकृति के बारे में बात कर रहा है इससे यह स्पष्ट होता है कि इस
तरह के अत्याचार किए गए थे जो अमानवीय थे।
ईस्ट इंडिया कंपनी के
इन ज़ुल्मों का लेखा-जोखा ब्रिटेन के समाचार पत्रों, अख़बारों लन्दन टाईमज़
में खुलेआम हो रहा था। यहाँ तक कि ब्रिटेन की संसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर
के ख़िलाफ़ गंभीर आरोप लगाए परंतु इससे अधिक करुणादायक बात यह थी कि जिस देश
की जनता पर यह अत्याचार, ज़ुल्म,
दमन शोषण किया जा रहा था उसके पक्ष में खडा होने वाला कोई प्रेस नहीं था और न ही कोई
संस्था थी जो आमजन की किसी न किसी प्रकार से सहायता कर सकती हो। इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी को इस
पक्ष से कोई मुश्किल पेश आने वाली नहीं थी। भारत में प्रिंटिंग प्रेस आरंभ करने का श्रेय
मूलभूत अंग्रेज़ पत्रकारों को भी बहुत
से संकटों का सामना निजी रूप में करना पड़ा। उसका मुख्य कारण यह था कि ईस्ट इंडिया कंपनी यह नहीं
चाहती थी कि उनके ऐसे दुराचार के बारे में ख़बर इंग्लैंड तक पहुँचे। वह जानते
थे कि यदि ऐसा हुआ तो उनको वापस इंग्लैंड बुला लिया जाएगा। इस कारण उन्होंने अंग्रेज़ पत्रकारों का पुरज़ोर विरोध किया। वास्तव
में ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ असंतुष्ट कर्मचारियों की तरफ से जो पत्र व्यवहार निकाले गए वास्तव
में वही भारतीय पत्रकारिता की ऐतिहासिक रूप-रेखा बनी। इसका एक प्रमाण
यह हुआ कि ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़कर विलियम वोलटस ने कलकत्ता से 1768 ईस्वी
में समाचार-पत्र निकालने का पहला प्रयास किया। परंतु इसके साथ ही उन्हें व्यक्तिगत
रूप में इसका भुगतान करना पड़ा। उनके इस प्रयास से पत्रकारिता के बीज पड़े और देश का हाल बयान
किया। इसका ही प्रभाव था कि 29 जनवरी 1780 ईस्वी को जेम्स अगस्टस हिकी ने बंगाल गज़ट और केलकट्टा जनरल एडवर्टाइजर का प्रकाशन किया। इन पत्रों के द्वारा ही ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों का असली रूप सामने आया
कि वास्तव में भारत में किस तरह
शोषण, दमन और ज़ुल्म करते हैं।
हालांकि पत्रकारिता का प्रतिकार करने
के लिए पीटर रीड और बी. मेनजेक ने 18 नवंबर 1780 ईस्वी को साप्ताहिक इंडियन गज़ट का प्रकाशन आरंभ किया। धीरे - धीरे यह प्रकाश साप्ताहिक से दैनिक हो गया। ब्रिटिश साम्राज्य का मंतव्य
भारतीय पत्रकारिता को मजबूत करना या उस का मार्ग दर्शन करना नहीं था बल्कि अपने विरुद्ध खड़ा होने वाले किसी भी तरह के
विरोध को नष्ट करना था। इससे सम्बन्धित अंग्रेज़ी शाशक मेटकाफ ने अपनी जीवनी में लिखा है,
“उन दिनों में हमारी नीति थी कि भारत के
लोगों को जहाँ तक हो सके बर्बरता और अंधकार में रखा जाये-
- -- और देसी
जनता में ज्ञान फैलाने के किसी भी प्रयत्न का उन दिनों में कड़ा विरोध किया जाता था।----- कैप्टन सिडेनहाम ने निज़ाम की एक इच्छा
पूरी करने के उद्देश्य के साथ कि वह आधुनिक विज्ञान के कुछ प्रयोगों को देख सकें, कुछ चीजें भेंट की, उन में से एक एयर पंप, एक छापाखाना और एक आधुनिक योद्धा का
माडल था। चीफ़ सेक्रेटरी को भेजे गए अपने पत्रों में कैप्टन ने इस बात का वर्णन किया था, फलस्वरूप उन पर दोष लगाया गया कि उन्होंने
एक देसी शासक के हाथ में छापेखाने जैसी ख़तरनाक वस्तु रख दी थी।” 3 इसके बाद
लार्ड हेस्टिंगस
ने प्रेस के
साथ सम्बन्धित कुछ कानून बनाऐ जो
निम्नलिखित थे,
● किसी तरह की ऐसी ख़बर न प्रकाशित की जाये जो कोर्ट आफ डाइरेकटस ब्रिटिश सरकार
के आधिकारियों, कौंसिल के सदस्यों, सुप्रीम कोर्ट के जजों तथा कलकत्ता के बड़े पादरी के सार्वजनिक कार्य या प्रतिष्ठा के विरुद्ध
हो।
● किसी के धार्मिक विश्वासों
और भावनाओ पर चोट करने वाली तथा भारतीय प्रजा में आतंक करने वाली बातों का प्रकाशन न किया जाये।
● किसी के व्यक्तिगत आचरण पर आघात करने वाली खबरें न छापी जाएँ।
● किसी विदेशी पत्रिका से ऐसीं बातें को उद्धृत करके उस का पुर्नप्रकाशन
न किया जाये जो असंतोष की सुर्ष्टि का कारण बने। 4 भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता की आवाज को शुरू से ही दबा दिया
गया था। उनकी शोषणकारी और दमनकारी नीतियों का पर्दाफाश पत्रकारिता के माध्यम से ही
होना था।वे उनके खिलाफ नहीं लिख सकते थे तथा उन्होंने स्वतंत्र पत्रकारों को पहले ही
दबा दिया ।दूसरा , ईसाई धर्म की रक्षा के लिए, उन्होंने किसी भी धर्म के खिलाफ बोलने से
पहले ही प्रतिबंधित कर दिया है। ब्रिटिश शासन में उनकी नीतियां दमनकारी और शोषक दोनों
थीं। शासन उनका था लेकिन वे स्वयं दोनों के खिलाफ नहीं लिख सकते, इसका मतलब है कि उन्होंने
इसे स्पष्ट रूप से दबा दिया है।
भारतियों को मानसिक तौर पर अपंग
बनाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने
तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। उनको सब से अधिक ख़तरा भारतीयों के बुद्धिजीवी वर्ग से था कि यदि यह
लोग जागृति करने आ गए तो हमें गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। यही कारण था
कि उनके प्रेस से सम्बन्धित कानून दिन- ब-दिन सख़्त होते गए। इस के साथ
ही उन का दूसरा मनोरथ वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य भारत को अधिक से अधिक लूटना चाहता
था। यहाँ की पूँजी को हर तरह के अमानवीय
व्यवहार द्वारा हासिल करना चाहता था। ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक
नीतियाँ जब दिन- ब-दिन लूट में बदल गई
तो ब्रिटिश शासकों की ऐसी स्थिति को अखबार के ज़रिये सामने लाया जा सकता है,
ब्रिटिश साम्राज्य भारत और भारतीय जनता के पक्ष में नहीं है, आदि इस तरह के सवाल
जब भारतीय बुद्धिजीवियों के मन में आए तो उन्होंने अपनी क्षेत्रीय भाषायों को अपनी पत्रकारिता
का माध्यम बनाया जिस के फलस्वरूप 1857 ईस्वी
का पहला स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ। जिस की शुरुआत 1857 ईस्वी
में मेरठ में हुई। स्थिति को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने समाचार पत्रों पर सख्ती करने के
लिए और नये कानून बना दिए। इन कानूनों के अनुसार समाचार पत्र
प्रकाशित करने से पहले भारत सरकार से लाइसेंस लेना ज़रूरी था।
“उन दिनों में भारतीय समाज की पहचान अज्ञान, अंधविश्वास, बीमारी, भुखमरी, कुप्रथाये,
कुसंस्कार, कूपमण्डूकता आदि विकारों से ग्रस्त समाज की थी। ईस्ट इंडिया कंपनी का शिकंजा कस रहा था और ग़ुलामी के अभिशाप से भारतीयों का मनोबल पस्त
था। हिंदु विधवाओं को सती प्रथा के नाम पर पति की चिता में ज़िंदा झोंक देने की बर्बरता भारतीय समाज के मानसिक पतन की प्रकाष्ठ ही मानी जायेगी क्योंकि यह कोई प्रथा के रूप में स्थापित नहीं थी। लाखों मसलों में कहीं एक घटना ऐसी होती थी। फिर भी राजा राम मोहन राय की संवाद कौमुदी ने अमानवीय सती प्रथा के विरुद्ध ज़िहाद छेडा ।” 5 इसी तरह उन्होंने तत्वबोधनी पत्रिका के माध्यम से
भारतीय समाज, धर्म और संस्कृत की रक्षा की बात की। अंग्रेज़ सरकार भारतीयों के साथ किस तरह भेद- भाव करते थे इसका उदाहरण
इस एक , तरह
है, जिस पद पर एक अंग्रेज़ काम करता है उसे एक हज़ार वेतन दिया जाता है, “ परंतु उस ही पद पर काम करने वाले भारतीयों को सिर्फ़ 100-150 रुपए
ही मिलते हैं। इस तरह हम अपनी स्वतंत्रता को कम कीमत में बेच रहे हैं। पत्रिका ने खेती
करने वाले मज़दूरों और कामगरों की समस्याएँ को भी उजागर किया। समाज सुधार और कूप्रथाएँ बंद करने की मुहिम चलाई।
इस ने विधवा विवाह विषय पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर के लेख प्रकाशित किये और समाज को
नई सोच की ओर मोडा ।” 6 इसमें कोई संदेह नहीं है कि ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीयों
पर अत्याचार और शोषण किया गया लेकिन उन्होंने कई अमानवीय सामाजिक बुराइयों को मिटाने
में अपना पूरा सहयोग दिया। उदाहरण
के लिए, राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ
आवाज उठाई थी, लेकिन वर्ष 1928 में जो अधिनियम पारित किया गया था, वह सती प्रथा के विरोध में
अंग्रेजों द्वारा पारित किया गया था। उन्होंने ऐसी बुराइयों को अवैध घोषित कर दिया।
भारतीय समाज इस समय बहुत सी
सामाजिक क्रूरताओं के साथ संघर्ष कर रहा था। अमानवीयता का ऐसा अंधकार चारों तरफ़ फैला हुआ था। ऐसे समय
में हमारे कुछ समाज- सुधारकों ने समय की नब्ज़ को पहचानते हुए इन पत्रकारो के द्वारा स्वतंत्रता संग्राम की लहर को जन्म दिया। इन का मुख्य उद्देश्य ईस्ट इंडिया कंपनी की अनैतिकताओ के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए भारतीयों के अधिकारों की रक्षा करना था। उन्हों ने भारतीयों में एक सामाजिक चेतना
को जन्म दिया। इस समय कुछ पत्रिकाए ऐसी थी जो ईस्ट इंडिया कंपनी का विरोध नहीं कर रही थीं और न ही वह स्वतंत्रता संग्राम
के पक्ष में थे। जिन में टाईमज़ आफ इंडिया, स्टेटसमैन, पायनयर आदि ब्रिटिश सरकार के पक्ष में थीं । राष्ट्रीय एकता और सामाजिक विकास
के साथ भारतीय पत्रकारिता को विकसित करने में बहुत से नायकों की भूमिका रही। जिन में राजा राम मोहन राय, पत्रकार बाल गंगाधर
शास्त्रीय, केशव चंद्र सेन,
दयानन्द सरस्वती,
स्वामी विवेकानन्द, महाॠषि अरविन्द बंकिम चंद्र चैटर्जी आदि। विवेकानन्द को इस बात का आभास हो चुका था कि संस्कृत और हिंदी
के साथ अंग्रेजी का ज्ञान ग्रहण करना भी ज़रूरी है। उन का कहना था कि,
“ उन्नति की पहली शर्त है स्वाधीनता।
मानव को जिस प्रकार विचार और वाणी में स्वाधीनता मिलनी चाहिए, उसी प्रकार खान-पान रहन - सहन, विवाह आदि हर एक बात
में स्वाधीनता मिलनी चाहिए-जब तक उस के द्वारा दूसरों को कोई हानि नहीं पहुँचती। ”7 पश्चिमी शिक्षा ने हमारे विकास में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है। हम उनकी पश्चिमी शिक्षा प्रणाली की राष्ट्रवादी भावना की ओर आकर्षित
हुए। इसने राष्ट्रीय एकता के माध्यम
से एकजुट होने की प्रक्रिया ने मदद की। इसने शोषण, दमन और अत्याचार के साथ-साथ लोगों में जागरूकता भी
पैदा की।
उस समय के समाज में फैली
सामाजिक कुप्रथाए,
अंधविश्वास और अज्ञानता के विरोध
में हमारे नायकों ने आवाज़ बुलंद की। 1885 में
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म समय राज नेताओं और बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया
गया। उन में से अनेक संपादक और प्रकाशक उन के प्रतिनिधि भी शामिल थे। इन लोगों में इंडियन मिरर के संपादक नरेद्रनाथ
सेन, हिंदू के संपादक जी सुबहमन्य, मराठा और केसरी के प्रतिनिधि
श्री आम्टे और जी अगरकर सपैकटेटर के प्रतिनिधि मलिक बारी
के अतिरिक्त ट्रिब्यून हिंदुस्तान, इंडियन यूनियन, कैसट के संपादक भी उपस्थित
थे। कांग्रेस के जन्म के बाद भारतीय समाचार पत्रों की प्रसार संख्या और वाणी की शक्ति
में तेज़ी से विकास हुआ। भारतीय
राष्ट्रवाद और भारतीय पत्रकारिता दोनों में सबसे अधिक तेज़ी बीसवीं शताब्दी के पहले
दशक में आरंभ हुई थी। यहाँ एक ओर
क्रांतिकारी आंदोलन तेज हुआ,कांग्रेस की गतिविधिया तेज़ हुई वही भारतीय पत्रकारिता
का भी नया दौर शुरू हुआ। जिस में 1905 का बंग- भंग आंदोलन प्रमुख माना
जाता है। भारतीय राष्ट्रवाद के विस्तार में पत्रकारिता ने जीवन और चिंतन के विकास में
बड़ी भूमिका निभाई थी। राजनीति,
स्वतंत्रता,
आर्थिक, पुनरवाद के साथ शिक्षा और संस्कृति की दशा सुधारने में समाचार पत्रों और संपादकों के योगदान को राष्ट्र
निर्माता की श्रेणी में रखा जाता है।
“प्रेस की स्वाधीनता के सवाल
पर अंग्रेज़ों में दो धारनाये , उन्नीसवी सदी बेलेजली, मिंटो एडम, केनिंग और लेटने प्रेस की आज़ादी के ख़िलाफ़ थे, परन्तु हैंगिंस, मेटकाफ, मैकाले और रिबन ने स्वतंत्र प्रेस का समर्थन किया। जब
कि सर टामज़ मुनरो और लार्ड एल. फिंस्टन जैसे उदारवादी ब्रिटिश
नेताओं ने भारतीय प्रेस पर सख़्त प्रतिबंधों का समर्थन
किया। उनका तर्क था कि पिछड़े हुए देश पर विदेशी शासन बनाये रखना कठिन होगा। यदि प्रेस को आज़ादी दे दी गई तो इसका सेनाओं के अनुशासन पर बुरा
प्रभाव हो सकता है।” 8
ब्रिटिश अधिकारियों के मध्य में इस बात को लेकर भी मतभेद थे
कि भारतीय प्रेस पर किस तरह के कानून लागू किए जाने चाहिए।
पहले स्वतंत्रता संग्राम
के बाद ब्रिटिश शासकों ने पत्रकारिता के कानून पर अधिक से अधिक बन्दिशें लगई
थीं। इस का प्रमुख कारण यह था कि वह नहीं चाहते थे कि
यहाँ की जनता के संघर्ष को देश भर में प्रकट किया जाये। उनका ब्रिटिश सरकार के प्रति विद्रोह की भावना जो
पूरे देश में पनप रही थी वह उसे दबाने के लिए हर तरह की दमित नीति अपना रहे थे। उन
का ऐसा करने का मुख्य मंतव्य यह था कि यहाँ के पत्रकारों को डरा- धमका कर क्रांति की
चेतना पैदा करने से
रोका जा सके। स्वराज उर्दू का एक ऐसा ही अखबार था जिस के आठ संपादक
जेल की यातना सहन कर चुके थे। शायद और किसी समाचार पत्र को इतनी बड़ी कीमत नहीं उठनी
पड़ी थी। “भारतीय पत्रकारिता पर सरकारी दमन के दो कानून अत्यंत बदनाम रहे। एक
था साल 1878 का
भारतीय भाषा प्रेस कानून(( वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट) और दूसरा 1908 का
भारतीय प्रेस अधिनियम। इन दोनों कानूनों में सरकार को उन्होंने समाचार पत्रों, जिन को वह आपत्तिजनक
समझते हो, ज़मानत मांगने का अधिकार दिया गया
था और यदि ज़मानत न दी जाऐ तो पत्र बंद करना पड़ता
था। बाल कृष्ण भट को हिंदी प्रदीप चलाने के लिए दोनों अधिनियमों का सामना करना पड़ा।
दूसरे अधिनियम के कारण इस पत्र को जिस को भट जी ने अपनी ३१ इकतीस साल की तपस्या के साथ
सींचा था बंद करना पड़ा।” 9 ब्रिटिश नीतियों ने निस्संदेह
व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को नुकसान पहुंचाया, लेकिन सामाजिक स्तर पर वे
इतने जागरूक हो गए थे कि उन्हें रोकना असंभव था।
सर चार्ल्स मेटकाफ ने हिम्मत से काम लेते प्रेस को स्वतंत्र कर दिया।
जिस के परिणाम स्वरूप कोर्ट आफ डायरेक्टर उस के साथ नाराज़ हो गई। यह प्रत्यक्ष
है कि सरकारी कर्मचारियों में दो ग्रुप थे। सर थामस मुनरो के शब्दों में, ‘’ एक ग्रुप का मानना
था कि स्वतंत्र प्रेस और अजनबी व्यक्तियों
का राज दो विरोधी बातें हैं और यह बहुत देर साथ नहीं
चल सकते। 10’ ’ इस
ग्रुप के अनुसार, ‘ स्वतंत्र प्रेस और स्वतंत्र संस्थाओं का प्राकृतिक मेल है।
दूसरी ओर यह प्राकृतिक तौर पर तानाशाही राज और विशेष रूप में
विदेशी राज का विरोधी था। 11’ मेटकॉफ ने भारतीय प्रेस से पाबन्दियाँ समाप्त करन
से सम्बन्धित सभी शक यह कह कर दूर कर दिए, “ यदि भारतीयों को अंधेरे में रख कर ही भारत को बर्तानवी हुकूमत का एक भाग बना कर रखा
जा सकता है तो हमारा राज देश के लिए एक श्राप होगा यह समाप्त हो जाना चाहिए।” 12 इस
प्रकार आरंभ किये गए स्वाधीनता के दौर ने लोक राय और प्रेस को बहुत उत्साहित किया।
सन 1835 से 1857 के
काल में 100 से
अधिक पत्र चालू हुए। इन के क्षेत्र में विचार और कार्य की लगभग सभी पक्ष अर्थात धर्म, सदाचार, रस्म, रिवाज, साहित्य, विज्ञान, सांसारिक मामले, इतिहास, आर्थिकता और राज प्रबंध आते थे।
स्वतंत्रता से पहले की भारतीय पत्रकारिता लोगों के मन में एक चेतना जगाने का कार्य
करती थी। बच्चों को पढ़ाने के कार्य से लेकर लड़कियों के स्कूल जाने तक जिससे उन में
ज्ञान विज्ञान का प्रसार हो
, ज्ञान विज्ञान और तकनीक के साथ जोड़ना, देश दुनिया की जानकारी
के साथ किस प्रकार जोड़ना,
बच्चों के भविष्य को संवारना, हम जिस व्यवस्था द्वारा
शासित हैं वह कैसी है? ऐसे में हमारी भूमिका क्या हो सकती है आदि। आम जनता को शिक्षित करना
पत्रकारिता का प्रमुख उद्देश्य था। यही कारण था कि स्वाधीनता संग्राम दौरान महात्मा गांधी और दूसरे नेताओं की
प्रेरणा के साथ देश भर से बुद्धिजीवी आंदोलन के साथ जुड़े। विचार धारनायें अलग हो सकतीं
हैं परंतु उन का उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्त करना, स्वदेशी शिक्षा और सामाजिक
कुरीतियों को ख़त्म करना था। भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष और भारत में पत्रकारिता
का विकास दोनों एक समय में प्रफुल्लित होते गए। इन दोनों कामों में साहित्यकारों और
पत्रकारों के योगदान के साथ राजनैतिक नेताओं की भूमिका को आँखों से अदृश्य नहीं किया जा सकता। दोनों की कार्य प्रणाली अलग थी किन्तु मनोरथ
भारत की स्वाधीनता ही था । गांधीजी इस को विचार क्रांति मानते थे। गांधीजी
ने दक्षिणी अफ्रीका में ‘इंडियन ओपिनियन’ और
भारत में ‘यंग इंडिया’,’ हरिजन’ और ‘नवजीवन’
जैसे
पत्रों के माध्यम के साथ संवाद की परंपरा को जीवित रखा।
इसीलिए गांधी जी का व्यक्तित्व लोगों
को आकर्षित करता था। हंस पत्रिका के प्रवेश अंक में महात्मा गांधी को देश का कर्णधार मानते
हुए प्रेम चंद ने लिखा है,
“ स्वाधीनता केवल मन की वृति है। इस वृति का जागना ही स्वाधीन
हो जाना है। अब तक इस विचार ने जन्म ही नहीं लिया था। हमारी चेतना इतनी मंद, शिथिल और निर्जीव हो
गई थी कि उसमें ऐसी कल्पना का अवि
भाव ही नहीं हो सकता था। परन्तु भारत के कर्णधार महात्मा गांधीजी ने इस विचार की सृष्टि
कर दी इस संग्राम में भी एक दिन विजयी होंगे। वह दिन देर में आएगा या जल्द यह हमारे
पराक्रम बुधि और साहस पर मुनहसर है। हमारा यह धर्म है कि
उस दिन को जल्द ही लाने के लिए निरंतर तपस्या करते रहें। यही हंस का मनोरथ होगा और
इस ध्येय के साथ उस की नीति होगी।” 13 आत्म-जागरूकता का ज्ञान ब्रिटिश
शासन की क्रूरता से संभव हुआ। उनका ज्ञान-मीमांसा आधुनिक था, यह मनुष्य को जगाने वाला था
लेकिन उसका शासन दमनकारी और क्रर था। दोनों में मतभेद उत्पन्न हो गए। जब भारतीय मन
जाग्रत हो रहा धा, उस ज्ञान को अपने ऊपर लागू करने का प्रयास
कर रहा होता है, तब उसे अंतर्विरोध दिखाई दा रहा था। इन अंतर्विरोधों से ही ऐसी दमनकारी स्थिति
को समाप्त करने की चेतना पैदा हुई है।
निष्कर्ष : सार रूप में यह कहा जा सकता
है कि भारतीय स्वाधीनता में प्रिंट मीडिया की भूमिका को आँखों से अदृश्य नहीं किया जा सकता। आरंभिक दौर
में ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापारिक दृष्टि से भारत में प्रवेश किया परंतु यहाँ के प्रकिर्तिक साधनों और संसाधनों को देखते हुए उन की नीयत बदल गई। यहाँ
की पूँजी को अधिक से अधिक हासिल करने के लिए उन्हों ने भारतीयों पर 190 साल
तक अत्याचार किये। इसको प्रकट करने के लिए यहाँ के मूलभूत समाज - सुधारकों ने प्रेस का सहारा लिया। इसके
माध्यम से उन्हों ने भारतीयों को एकजुट किया। यह इसी का ही परिणाम था कि स्वतंत्रता प्राप्ति की
इच्छा के लिए 1857 ईस्वी
में सारा देश एकजुट हुआ। लोगों में ऐसी चेतना और जागृति पैदा करने का कार्य उस समय की भारतीय प्रेस ने किया। इस
प्रकार आज की इस एडवांस टैकनॉलॉजी में हमारे लिए मीडिया
की भूमिका और भी अधिक हो जाती है वह प्रिंट मीडिया हो, सोशल मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया हो उन की अपने
देश और देश के लोगों के प्रति किस प्रकार का कर्तव्य बनता है उसे देखते हुए ही उनको अपनी पत्रकारिता द्वारा
लोगों में चेतना पैदा करनी चाहिए।
इसके साथ ही राष्ट्र का पावन उद्देश्य पूरा होगा।
संदर्भ
- सुंदरलाल, भारत में अंग्रेजी राज, पृ. 23-24
- विजयदत श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोश, पृ. - 9
- कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, जातीय चेतना और खड़ीबोली साहित्य की निर्माण-भूमि, पृ - 46
- वही, पृ 47
- विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोश, - पृ 34-35
- वही, - पृ- 87
- कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, जातीय चेतना और खड़ीबोली साहित्य की निर्माण-भूमि, पृ- 95
- जगदीश्वर चतुर्वेदी, हिंदी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका, पृ -141-142
- विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोश, पृ -230-231
- तारा चंद, भारतीय स्वतंत्रता
आंदोलन का इतिहास, पृ -251
- वही, पृ -251
- वही, पृ -251
- कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, जातीय चेतना और खड़ीबोली साहित्य की निर्माण-भूमि, - पृ -81
डॉ. लखवीर कौर लैजिया, सहायक प्रोफेसर
पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा
Lezia.lakhvir@gmail.com, 75890- 88435
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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