शोध आलेख : सत्ता के वर्चस्ववाद का स्त्रीवादी दृष्टिकोण / मेघना यादव

शोध आलेख : त्ता के वर्चस्ववाद का स्त्रीवादी दृष्टिकोण

मेघना यादव


शोध सार : स्त्री लेखन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्णपक्ष है ‘स्त्रीवादी दृष्टिकोण’। समय और समाज में निरन्तर प्रगति के साथ बदलाव होते रहें, परन्तु स्त्री का आत्मसंघर्ष प्रत्येक देश-काल में विद्यमान् रहा। सम्पूर्ण विश्व इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सामाजिक-धार्मिक व्यवस्थाओं ने पुरुषसत्तात्मक ढाँचे को इतना मजबूत किया कि स्त्री की कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही नहीं रह गई। इसी बदलते समय और समाज में अपनी अधीनस्थ स्थिति, शोषण से मुक्ति तथा मानवीय अधिकारों की प्राप्ति ही स्त्रीवादी लेखन का प्रमुख आधार रहा है। प्रस्तुत शोध आलेख इसी पुरुषसत्ता को जानने समझने तथा सत्ता के वर्चस्ववाद को पाश्चात्य तथा भारतीय स्त्रीवादी विचारकों के दृष्टिकोण के सन्दर्भ में व्याख्यायित करता है।

 

बीज शब्द : सत्ता, पुरुषसत्ता, वर्चस्ववाद, स्त्रीवादी दृष्टिकोण, स्त्री लेखन, स्त्री मुक्ति।

 

मूल आलेख : स्त्रीवादी दृष्टिकोण को समझने के लिए हमें स्त्रीवाद को समझना पड़ेगा। स्त्रीवाद को दुनिया में मौजूद लैंगिक असमानता के विरूद्ध खड़ी हुई एक अवधारणा के रूप में समझा जा सकता है, जहाँ समाज व्यवस्था के भीतर पुरुष प्रभुत्वशाली केन्द्रीय सत्ता है, वहीं स्त्री हर प्रकार से प्रभुत्वहीन हाशिएकृत प्राणी है। स्त्रीवाद इसी जेंडर निर्माण प्रक्रिया को देखने-समझने का एक नजरिया है, कि किस प्रकार स्त्री और पुरुष दो भिन्न अस्मिताएँ हैं तथा इन्हें किस प्रकार पितृसत्ता के भीतर एक सामाजिक व्यवस्था के साँचे में ढाल दिया जाता है। स्त्रीवाद इन दो अस्मिताओं के वर्चस्वशाली तथा अधीनस्थ होने के साथ ही देश-काल में मौजूद सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाजों तथा नियमों के आधार पर विकसित होते हैं। स्त्रीवादी विचारक इसी वर्चस्ववादी सत्ता को पुरुषसत्ता की अवधारणात्मक दृष्टि में देखते हैं। पुरुषसत्ता जिसे सामान्यतः पितृसत्ता के नाम से सम्बोधित किया जाता है, का अर्थ पुरुष-प्रधान समाज से लिया जाता है, जिसमें वंश पिता के नाम से चलता है तथा पिता की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी पुत्र होता है, लेकिन स्त्रीवादी दृष्टिकोण में पुरुषसत्ता के शासन की संरचनात्मक अवधारणा बहुत व्यापक है, जो समाज के विभिन्न स्तरों में भिन्न-भिन्न रूप में कार्य करती है। स्त्रीवादी मानते हैं कि पितृसत्ता को समग्र रूप में एक साथ नहीं देखा जा सकता बल्कि देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार उसकी विवेचना होनी चाहिए, साथ ही वर्ग, नस्ल, जाति, धर्म और संस्कृति को भी इससे अलगाया नहीं जा सकता। पूरी दुनिया में मौजूद पुरुषसत्ता के प्रभाव यद्यपि अलग-अलग हो सकते हैं तथापि प्रत्येक स्थिति में वह पुरुष द्वारा किसी न किसी रूप में शासित है। कुछ स्त्रियों का सम्बन्ध भले ही सत्ता पक्ष के साथ हो, फिर भी सामाजिक सम्बन्धों यथा पत्नी, बेटी, बहन के रूप में उनकी स्थिति अधीनस्थ की ही होती है। स्त्रीवादी इसी सामाजिक दृष्टिकोण के भीतर समाज में स्त्री की अधीनस्थ भूमिका को समझने तथा उसे लैंगिक भिन्नता व पुरुषसत्ता के सिद्धांतों से जोड़कर व्याख्यायित करती हैं। पुरुषवर्चस्व की सामाजिक अवधारणा को यदि ठीक से समझा जाये तो पुरुषवर्चस्व जैविक कम, सामाजिक रूप से थोपा गया अधिक लगता है। श्रीप्रकाश मिश्र स्त्रीवादियों के इसी दृष्टिकोण पर बात करते हुए लिखते हैं कि- ‘‘स्त्रीवादी समाजशास्त्रियों ने इसकी तीन तरह की भूमिका को दिखाया है। एक तो यह कि यह विचारधारा के रूप में काम करती है। इसका विचारक लाकाँ है, वह कहता है कि समाज की संस्कृति पर पुरुष लिंग का वर्चस्व होता है, कुछ ऐसा कि जरूरत पड़ने पर पुरुष अपने लिंग का प्रयोग स्त्री पर हथियार के रूप में करता है। दूसरे यह कि पुरुष सत्तावाद का आधार परिवार व्यवस्था है, जिसमें पुरुष स्त्री पर दबदबा आर्थिक, सांस्कृतिक और सम्भोग क्रिया के आधार पर कायम करता है। ऐसे में विवाह का संविदा वास्तव में मजदूर बनाकर स्त्री के श्रम पर नियन्त्रण कायम करना है। कुछ मार्क्सवादी स्त्रीवादी कहते हैं कि स्त्री पर पुरुष का वर्चस्व पूँजीवादी व्यवस्था की देन है। घर परिवार के भीतर स्त्री का परिवार सम्बन्धी श्रम पुरुष की सहायता करते है,,, यह तीसरी भूमिका है।’’1

 

अब यदि इस पुरुषसत्ता को विस्तार से समझें तो पायेगें कि हमारा समाज धर्म, जाति, लिंग, वर्ग-वर्ण, अलग-अलग नस्लों, श्रेणियों तथा अन्य कई आधारों पर बँटा हुआ है, अतः कहना असंगत न होगा कि अलग-अलग समाज में रहने वाली स्त्रियों के पितृसत्तात्मक अनुभव भी अलग-अलग है, परन्तु पितृसत्ता की मौजूदगी प्रत्येक समाज में है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार भारतीय, एशियाई, अफ्रीकी तथा पश्चिमी समाज में रहने वाली स्त्रियों के पुरुषसत्ता को लेकर अलग-अलग अनुभव, संघर्ष और समस्याएँ हैं, उसी प्रकार भारतीय समाज में मौजूद विभिन्न धर्मों, जातियों और समुदायों में रहने वाली स्त्रियों के सत्ता से जुड़े अनुभव अलग-अलग हैं। उच्च वर्गीय हिन्दू स्त्री और दलित स्त्री के संघर्ष और समस्याओं को एक साथ नहीं देखा जा सकता है, इसी प्रकार हिन्दू-मुस्लिम, साथ ही अन्य धर्मों में भी वर्चस्ववादी पुरुषसत्ता अलग-अलग रूपों में मौजूद है। दलित तथा अन्य अछूत कही जाने वाली जातियों में स्त्रियों की बात करें तो वे भले ही श्रम से जुड़ी होने के कारण घर की चहारदीवारी की कैद से मुक्त है, परन्तु पितृसत्ता के तले उनका जीवन भी रौंदा-कुचला जा रहा है, साथ ही  ब्राह्मणवादी वर्चस्व की जातिगत मानसिकता के शोषणों का भी सामना करना पड़ता है। इस प्रकार देखा जाए तो वे न केवल उच्च जाति के पुरुषों द्वारा बल्कि उच्च जाति की स्त्रियों द्वारा भी शोषित होती हैं। मुस्लिम समाज का पुरुषसत्तात्मक स्वरूप तो स्त्रियों से स्वतंत्र होने की सभी सुविधाएँ छीन लेता है। अब इसे प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक समझें तो पितृसत्ता का स्वरूप लगातार बदलता रहा तथा कठोर से कठोरतम होता रहा, आधुनिक काल में इस स्थिति में थोड़ी ढील अवश्य मिली, परन्तु पितृसत्ता के भीतर स्त्रियों की स्थिति हमेशा से दूसरे दर्जे के प्राणी की ही रही। स्त्रीवादी लेखिका अनामिका लिखती हैं कि- ‘‘स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहाँ कहीं दमन है-चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल, जिस आयु, जिस जाति की स्त्री त्रस्त है- उसको अंकवार लेता है। बूढ़े-बच्चे-अपंग-विस्थापित और अल्पसंख्यक भी मुख्यतः स्त्री ही हैं-’’2

 

रेखा कस्तवार भी लिखती है कि- ‘‘भिन्न-भिन्न श्रेणी, वर्ग, जाति, नस्ल की होते हुए भी ‘जेंडर’ के धरातल पर सारी दुनिया में स्त्री का संघर्ष एक सा है क्योंकि उसकी लड़ाई हर जगह पितृसत्तात्मक व्यवस्था से है।’’3

 

अब तक ज्ञात मानव सभ्यता के इतिहास पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि परिवार तथा सम्पत्ति के उदय के साथ वर्ग-संघर्ष के इतिहास का भी प्रारम्भ हुआ, जैसे-जैसे सम्पत्ति बढ़ती गयी परिवार के भीतर पुरुष का महत्त्व भी बढ़ता गया, इसके बाद कितनी ही सभ्यताओं ने जन्म लिया, कितने ही राज्य बने और विनाश हुआ परन्तु प्रत्येक देश-काल के भीतर प्रत्येक समाज में सत्ता के केन्द्र में सदैव पुरुष ही रहा है, सभी सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संस्थानों का नेतृत्व उसके हाथ में रहा, जहाँ पुरुषों द्वारा बनाये गये सभी नियम-कानून, विधि-विधान, रीति-रिवाज उसके अनुकूल रहें, वहीं स्त्रियों की निर्भरता सदैव से पुरुषों पर ही रही। पुरुषसत्ता सदियों से चली आ रही एक ऐसी व्यवस्था के रूप में स्थापित हो गयी जिसमें सदा-सदा के लिए स्त्री को द्वितीय लिंग घोषित कर दिया गया। पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा ही धर्म बने, इतिहास और संस्कृति बनी और उन्हें बनाने वालों ने प्रत्येक स्थिति अपने अनुकूल बनायी जिसमें स्त्रियों को कोई स्थान नहीं दिया गया। लवीसत्रास के हवाले से सम्पूर्ण आदिम समाज के अध्ययन के बाद सिमोन लिखती हैं कि- ‘‘सत्ता चाहे सार्वजनिक हो या सामाजिक, वह हमेशा पुरुष के हाथ रही।... आदिम समाज से आज तक स्त्री को हमेशा पुरुष के संरक्षण में रहना पड़ा।’’4

 

जॉन स्टुअर्ट मिल स्त्रियों की अधीनस्थ स्थिति को दासता के आदिम रूप को व्याख्यायित करते हुए कहते है कि - ‘‘मानव समाज के उदय से ही, हर स्त्री, पुरुषों द्वारा उसके साथ कुछ मूल्य जोड़ दिये जाने के कारण (साथ ही शारीरिक बल में तुलनात्मक रूप से कम होने की वजह से) किसी न किसी पुरुष के अधीन ही रही।... स्त्रियों की निर्भरता दासता की आदिम अवस्था का ही एक रूप है।’’5

 

आधुनिक इतिहासकार युवाल नोआ हरारी पुरुष तथा स्त्री के मध्य सामाजिक-सांस्कृतिक तथा वैधानिक विषमता तथा लैंगिक विभेदीकरण को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि- ‘‘अलग-अलग समाज अलग-अलग तरह के कल्पित सोपानक्रमों को अपनाते हैं। नस्ल आधुनिक अमेरिकी लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन मध्ययुग के मुसलमानों के लिए अपेक्षाकृत महत्त्वहीन थी। वर्ण मध्ययुगीन हिन्दुस्तान के लिए जीवन-मरण का प्रश्न था, जबकि आधुनिक यूरोप के लिए वह वास्तव में अस्तित्वहीन चीज़ है, लेकिन एक श्रेणीबद्ध क्रम ऐसा है, जो तमाम ज्ञात मानव समाजों में सर्वोच्च महत्त्व का रहा है: लैंगिक श्रेणीबद्ध क्रम। हर कहीं के समाजों ने अपने को पुरुषों और स्त्रियों में विभाजित किया हुआ है। लगभग हर कहीं पुरुष को बेहतर सुलूक मिलता रहा है, कम से कम कृषि क्रान्ति के बाद से।’’6

 

पितृसत्ताधारी समाज के सम्पूर्ण रूप से विकसित हो जाने के बाद पुरुष के अस्तित्व में स्त्री को पूरी तरह विलीन कर दिया गया। पितृसत्तात्मक समाज को स्थापित होने में धर्मसत्ता तथा उसकी सहायक सामंती राज्य व्यवस्था के नियम और कानून ने स्थायित्व प्रदान किया। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने दुनिया के हर एक समाज में अपनी जड़े स्थापित की है। पुरुषसत्ता घर, परिवार, राज्य, शिक्षा, धर्म, कानून तथा अन्य सभी संस्थानों पर स्थापित हुई। सामंतवाद भले ही कल की बीती हुई बात हो गई हो, परन्तु उसके मूल्य अभी भी जीवित हैं, कम से कम स्त्रियों के सन्दर्भ में यह बात सच ही है। पितृसत्ता, भारत के सन्दर्भ में कहें तो ब्राह्मणवादी पुरुषवर्चस्ववादी सत्ता सामन्ती समाज का आधार रही तथा स्त्रियों का शोषण सदियों से इस सामन्ती समाज में जारी रहा। पितृसत्ता भले ही सामाजिक व्यवस्था का रूप रही हो परन्तु यह धार्मिक सत्ता तथा राज्य सत्ता के साथ मिलकर स्त्रियों-दलितों का उत्पीड़न करती रही है। रेखा कस्तवार स्त्री की अधीनता के सामाजिक और आर्थिक कारणों की पड़ताल करते हुए लिखती हैं- ‘‘उसकी अधीनस्थ की भूमिका असमानता को जन्म देती है और शोषण के अवसर प्रचुर हो जाते हैं। स्त्री एक ऐसी मादा में तब्दील हो जाती है जिसकी जिन्दगी रोटी, कपड़ा और मकान की उपलब्धता के अहसान तले सीमित हो जाती है। जिसके बदले में वह हर तरह की जहालत झेलने की अधिकारिणी है। माँ, बहन, पत्नी, बेटी की भूमिकाओं में सीमित स्त्री अपनी स्वतंत्र सत्ता के अवसर कम करती है।’’7

 

इन्हीं पूरी स्थितियों की पड़ताल करने से लेकर अपनी स्वतंत्रता-समानता तथा अधिकारों की मांग करना स्त्रीवाद का सरोकार रहा है। आधुनिक विश्व इतिहास में देखें तो स्त्रीवाद पूँजीवादी दौर में आया, जब वर्ग समाज में प्रतिरोधी चेतना जन्म ले रही थी, उसी समय पितृसत्तात्मक पुरुषवादी समाज के प्रति भी विरोधी चेतना उत्पन्न हुई, जहाँ पहली बार धार्मिक सत्ता द्वारा पोषित सामाजिक-राजनीतिक सत्ता के विरूद्ध मानवीय अस्मिता की बात की गयी। वर्ग-वर्ण आधारित शोषण के साथ यौन आधारित शोषण से संघर्ष के लिए आवाज़ उठायी गयी। सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में स्त्रियों की लगातार बढ़ती भागीदारी ने उन्हें अभिव्यक्ति का भी माध्यम प्रदान किया। स्त्री स्वतंत्रता की सर्वप्रथम मांग अमेरिकी क्रान्ति के दौरान हुई। मर्सी वारेन व एबिगल एडम्स ने स्त्रियों के लिए सामाजिक समानता के साथ मताधिकार व सम्पत्ति के अधिकार की मांग की। फ्रांसीसी क्रान्ति के विचारधारक ए. कोंदोर्सो का विश्वास था कि वैधानिक समानता तथा शिक्षा के द्वारा ही स्त्रियाँ बने-बनाये पारम्परिक ढाँचे से मुक्त हो सकती हैं। ओलिम्प द गाउजेस ने ‘मनुष्य और नागरिक अधिकारों की घोषणा’ के आधार पर ‘स्त्रियों के अधिकारों की घोषणा’ पत्र तैयार किया। जॉन स्टुअर्ट मिल अपनी पुस्तक ‘स्त्रियों की पराधीनता’ में स्त्रियों की अधीनस्थ स्थिति के बारे में प्रश्न करते हैं। स्त्री द्वारा स्त्री अधिकारों का सबसे मुखर रूप पहले-पहल मेरी वोल्सटोनक्राफ्ट की पुस्तक ‘स्त्री अधिकारों का औचित्य साधन’ में दिखाई पड़ता है। मेरी वोल्सटनक्राफ़्ट लिखती हैं कि- ‘‘स्त्रियों के सामाजिक अधिकारों की और स्त्री-पुरुष समानता की माँग सबसे पहले बुर्जुआ क्रान्तियों की पूर्वबेला में, प्रबोधनकाल (Age of Enlightenment) के दौरान मुखर होकर सामने आई। प्रबोधनकाल के दार्शनिकों के क्रान्तिकारी भौतिकवाद तथा वैज्ञानिक तर्कपरकता, सामाजिक न्याय और जनवाद की अवधारणाओं ने सामाजिक उत्पादन के साथ ही राजनीतिक संघर्ष में भी सीधे भागीदारी कर रही स्त्रियों को गहराई से प्रभावित किया।’’8

 

एक व्यापक आन्दोलन के रूप में स्त्रीवाद उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में दिखाई पड़ता है जब 1848 ई. में एलिजा़बेथ कैण्डी स्टैण्टन, लुकेसिया कफ़िन मोट, सूसन ब्राउनवेल एन्थनी तथा अन्य नेत्रियों ने नारी अधिकार काँग्रेस का आयोजन किया। कात्यायनी अपनी पुस्तक ‘दुर्ग द्वार पर दस्तक’ में लिखती हैं कि-‘‘एक सुनिश्चित कार्यक्रम के साथ नारीवादी आन्दोलन की शुरूआत का प्रस्थान बिन्दु जुलाई 1848 को माना जाता है जब एलिजा़बेथ कैण्डी स्टैण्टन, लुकेसिया कफ़िन मोट और कुछ अन्य ने सेनेका फ़ॉल्स, न्यूयार्क में पहली बार नारी अधिकार काँग्रेस आयोजित करके नारी स्वतन्त्रता का एक घोषणा पत्र जारी किया जिसमें पूर्ण क़ानूनी समानता, पूर्ण शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसर, समान मुआवज़ा और मज़दूरी कमाने के अधिकार तथा वोट देने के अधिकार की मांग की गयी थी।’’9

 

उन्नीसवीं सदी के सबसे बड़े विचारक मार्क्स तथा एंगेल्स ने मानव समाज की ऐतिहासिक व्याख्या के क्रम में स्त्री-शोषण को वर्ग संघर्ष के इतिहास और मानव समाज के साथ देखा। चूँकि मार्क्स पूँजीवाद को शोषण का सर्वप्रमुख कारण मानते हैं अतः स्त्री शोषण को उन्होंने आर्थिक आधारों से जोड़ा। मार्क्सवादी सिद्धांतो में सर्वहारा नारी के सैद्धान्तिक आधार को आगे चलकर लेनिन, स्तालिन, माओ ने कामगार स्त्री के उत्पीड़न के रूप में देखा। स्त्रीवादी दृष्टिकोण से मार्क्सवादी चिन्तन को आगे बढ़ाने का कार्य क्लारा जेटकिन, क्रुप्सकाया, अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई और अनेसाँ आरमाँ आदि ने किया, इन्होंने स्त्री-मुक्ति के विभिन्न पक्षों पर मार्क्सवादी विचार दिये। मार्क्सवादी स्थापना में आर्थिक स्थितियों को स्त्रियों के शोषण व उत्पीड़न से देखने के साथ ही स्त्रीवादियों ने माना की सामाजिक व सांस्कृतिक संरचना के भीतर उन्हें शिक्षा व रोजगार के उचित अवसर भी नहीं मिलते हैं। स्त्रीवादियों का यह भी मानना है कि शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी उनका दमन व शोषण किया जाता है। स्त्रियों की मुक्ति के सम्बन्ध में क्लारा जेटकिन लिखती हैं कि-

‘‘वे लोग जो अपनी आजादी के बैनर पर मनुष्य के समर्थन में लिखते हैं उन्हें आधी मनुष्य जाति की आर्थिक पराधीनता व सामाजिक दासता को नकारने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जिस प्रकार मजदूर पूँजीपतियों के अधीन हैं, उसी तरह स्त्रियाँ पुरुषों के वश में है और इसी तरह पराधीन रहेंगी, अगर वह आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर रहेंगी। आर्थिक आजादी के लिए जरूरी है, कि वे काम करें व आत्मनिर्भर बने। अगर महिलाओं को स्वतंत्र मानव व समाज में पुरुषों के बराबर सदस्य बनाना है।’’10

 

आधुनिक स्त्रीवाद की बात करें तो यह बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से माना जाता है, जब फ्रांसीसी लेखिका सिमोन द बोउवार ने ‘द सेकंड सेक्स’ (1949 ई.) नामक पुस्तक लिखी, जिसमें ऐतिहासिक क्रम में स्त्री की अधीनता तथा उसके पीछे के कारणों की विस्तृत व्याख्या की गयी है। प्रभा खेतान ‘द सेकंड सेक्स’ के हिन्दी रूपान्तर ‘स्त्री उपेक्षिता’ की प्रस्तुति संदर्भ में लिखती हैं कि- ‘‘स्त्री की स्थिति अधीनस्थता की है। यह बात सिमोन बड़े स्पष्ट रूप में कहती हैं। स्त्री के अधीनस्थ बने रहने के करण की व्याख्या वे जीवविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र और जातीय इतिहास आदि सभी दृष्टिकोणों से व्यापक व गंभीर रूप में करती हैं। विश्लेषण के दौरान वे उदाहरण देती हैं आदिकाल के कृषि समाज आधुनिक युग तक, खासकर फ्रेंच स्त्री के सम्बन्ध में।’’11

 

इसके पश्चात् यूरोप और अमेरिका में कई लेखिकाओं ने सत्ता व स्त्री जीवन पर अपने विचारों से सम्बन्धित अनेकों पुस्तकें लिखी। बेट्टी फ्रीडन (द फेमिनिन मिस्टीक,1963 ई.), मैरी एलमन (थिंकिंग अबाउट वीमेन,1968ई.), वर्जीनिया वुल्फ (ए रूम ऑफ वंस ओन), केट मिलेट (सेक्सुअल पॉलिटिक्स) जूलिया क्रिस्टीव (विमेन टाईम) हेलेन सिक्सस, एलेन शोवाल्टर, एंजिला कार्टर, मैरी जैकोबर्स, एड्रियन रीच आदि अनेक स्त्रीवादी लेखिकाओं की पुस्तकें प्रकाशित हुई।

 

भारतीय सन्दर्भ में देखें तो स्त्रीवाद की एक लम्बी परम्परा दिखाई पड़ती है। भारतीय साहित्य में प्रारम्भिक स्त्री विद्रोही स्वर भारतीय वाङ्मय से लेकर बौद्धकालीन थेरी गाथाओं में दिखाई पड़ता है। आठवीं शताब्दी के भक्ति आन्दोलन में आन्दाल तथा बारहवीं शताब्दी में अक्कमहादेवी ने सामाजिक रूढ़ियों और पुरुषवर्चस्व को चुनौती दी। मराठी संत मुक्ताबाई ने अध्यात्म के क्षेत्र में पुरुष की भोगासक्ति व पुरुष सत्ता के विरूद्ध आवाज उठायी। संत जनाबाई ने अपने ‘अभंगों’ में शूद्र जाति की होने कारण अपने साथ हुए अन्याय की अभिव्यक्ति की है। सोलहवीं शताब्दी में मीराबाई अकेले पितृसत्ता प्रधान सामन्तवादी समाज से लड़ी तथा स्त्रियों के लिए भक्ति एवं प्रेम का मार्ग स्थापित किया। आधुनिक काल में ताराबाई शिन्दे (स्त्री पुरुष तुलना), एक अज्ञात हिन्दू औरत (सीमन्तनी उपदेश), पंडिता रमाबाई (स्त्री धर्म नीति व हिन्दू स्त्री का जीवन) आदि ने तत्कालीन स्त्री संघर्ष को स्वर दिया व मनुवाद का विरोध किया। डॉ. के. एम. मालती भारतीय स्त्री विमर्श के संदर्भ में लिखती हैं कि-

‘‘भारतीय नारीवाद भारत की प्रबुद्ध नारियों और विचारकों के चिन्तन की उपज है जिसका प्रमुख ध्येय सामन्ती व्यवस्था द्वारा स्थापित गुलामी से स्त्री को मुक्त करना है। इसमें एक ओर पुरुषवर्चस्व एवं मनुवाद का विरोध है, दूसरी ओर भारतीय जीवन मूल्यों की नवीन सन्दर्भों में पुनर्व्याख्या एवं पुनःस्थापन का प्रयास भी है। भारतीय स्त्री विमर्श का स्वरूप भारतीय साहित्य की लेखिकाओं में बौद्धकाल से लेकर समकालीन युग तक अनवरत रूप से प्राप्त होता है। भक्ति आन्दोलन, राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन, आधुनिक भारतीय नवजागरण एवं समकालीन स्त्री मुक्ति आन्दोलन का इसमें विशेष योगदान रहा है।’’12

 

आधुनिककालीन हिन्दी साहित्य में महादेवी वर्मा की ‘श्रृंखला की कड़िया’ में भी स्त्री की आक्रमकता व प्रगतिशीलता दिखाई पड़ती है। पश्चिम तथा भारतीय संस्कृति से प्रभावित स्त्री विमर्श का प्रारम्भ बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों से माना जाता है तथा घोषित तौर पर प्रथम स्त्रीवादी लेखिका प्रभा खेतान मानी जाती हैं। |प्रभा खेतान ने अपनी पुस्तक ‘उपनिवेश में स्त्रीः मुक्ति कामना की दस वार्त्ताएं’ में स्त्रियों की अस्मिता व स्वतन्त्रता की बात की। इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ होने के साथ ही हिन्दी क्षेत्र में कई लेखिकाओं ने स्त्री विमर्श से सम्बन्धित पुस्तकें व आलोचना लिखी, जिनमें प्रभा खेतान (स्त्री उपेक्षिता), मृणाल पाण्डेय (परिधि पर स्त्री, जहाँ औरते गढ़ी जाती हैं), अनामिका (स्त्री विमर्श का लोकपक्ष, स्त्रीत्व का मानचित्र), रमणिका गुप्ता (स्त्रीमुक्ति संघर्ष और इतिहास), मैत्रेयी पुष्पा (तब्दील निगाहें, खुली खिड़कियाँ), मनीषा (हम सभ्य औरतें), ममता कालिया (खाँटी घरेलू औरतें), क्षमा शर्मा (समकालीन स्त्री विमर्श), रेखा कस्तवार (स्त्री चिन्तन की चुनौतियाँ), कात्यायनी (दुर्ग द्वार पर दस्तक), नमिता सिंह (स्त्री प्रश्न) आदि प्रमुख हैं।

 

स्त्री के प्रामाणिक दृष्टिकोण को व्याख्यायित करते हुए रमणिका गुप्ता लिखती हैं- ‘‘जब मनुष्य का मूल्य आँका जाने लगा और उसके हक का सवाल उठा तो मनुष्यों की ही एक प्रजाति-स्त्री-के हक का सवाल भी उठा, जिसे पितृ-प्रधान समाज ने दोयम-दर्जे का बना दिया था। उसकी मुक्ति-कामना भी जागी। नारी स्वयं भी जागी। उसने अपने अनुभवों के आधारित ऐसा साहित्य रचा जो उसके प्रति बरते गये भेदभाव को दर्शाने के साथ-साथ उसकी अनुभूतियों को दर्शाने लगा, जो प्रेम, घृणा, आपसी व्यवहार, सेक्स के रिश्ते, विवाह के बन्धनों और दुश्मनी तथा दोस्ती में भी एक अलग अहसास की पहचान कराता है।... स्त्री की अपनी दृष्टि अलग है, इसलिए वह साहित्य भी अपने दृष्टिकोण तथा अपने बिम्बों एवं अपने मिथकों के माध्यम से रचती है।’’13

 

निष्कर्ष : अंततः हम कह सकते है कि वर्तमान समय में स्त्री-विमर्श का प्रमुख प्रश्न पितृसत्ता ही है। स्त्रीवादी विद्वान स्त्री-मुक्ति तथा उसके विकास में सबसे बड़ी बाधा पितृसत्ता को ही मानते हैं, इसके साथ ही स्त्री-विमर्शकारों ने यौन-शुचिता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, निर्णय लेने की स्वतंत्रता, परिवार में स्त्री की भूमिका तथा स्त्री-अस्मिता जैसे प्रमुख मुद्दों को उठाया है। इस प्रकार स्त्री-विमर्श के भीतर पहली बार स्त्री के हित, संघर्ष, स्वतंत्रता तथा अधिकारों की बात उठायी गयी। स्त्रीवादी लेखन में स्त्री-हित के विरूद्ध पितृसत्तात्मक मूल्यों, अवधारणाओं, व्यवस्थाओं तथा हजारों वर्षों से चली आ रही परम्पराओं के खिलाफ़ आवाज़ उठाते हुए उन मूल्यों को खारिज किया गया है। स्त्रीवादी रचनाकार इस बात की भी पड़ताल करते है कि पुरुष वर्चस्व की स्थिति में क्यों है? क्यों स्त्रियाँ गुलामी भरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त है? वैसे किसी भी सामाजिक सत्ता-संरचना की उत्पत्ति और निरंतरता के पीछे किसी एक ही कारक की भूमिका नहीं होती। स्त्रीवादियों का मत है कि स्त्री-अधीनता के विभिन्न कारणों को समझने के लिए उनके बीच के अंतर्संबंधों को समझने की जरूरत है- समाज और परिवार में स्त्रियों की भूमिका, प्रजनन और मातृत्व, घरेलू अनुत्पादक श्रम में लगे रहने की मजबूरी आदि के कारण स्त्रियों की पुरुषों पर निर्भरता रही है। स्त्रीवादी लेखिकाएँ जीवन और साहित्य में स्त्रीदृष्टि का विवेचन और मूल्यांकन करती हैं।

 

सन्दर्भ :

  1. श्रीप्रकाश मिश्र : उत्तर आधुनिक अवधारणाएँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2018, पृ.181
  2. अनामिका : स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2017, पृ. 23-24
  3. रेखा कस्तवार : स्त्री चिन्तन की चुनौतियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2016, पृ. 26
  4. सिमोन द बोउवार : प्रस्तुति डॉ0 प्रभा खेतान, स्त्रीः उपेक्षिता, हिन्दी पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड, दिल्ली, संस्करण 1998, पृ. 53
  5. जॉन स्टुअर्ट मिल : स्त्रियों की पराधीनता, अनुवाद प्रगति सक्सेना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2016, पृ. 37
  6. युवाल नोआ हरारी : सेपियन्स मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास, अनुवाद मदन सोनी, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, मालवीय नगर, भोपाल, संस्करण 2018, पृ. 161
  7. रेखा कस्तवार : स्त्री चिन्तन की चुनौतियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2016, पृ. 25
  8. कात्यायनी : दुर्ग द्वार पर दस्तक, परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ, संस्करण 2018, पृ. 102
  9. मेरी वोल्सटनक्राफ़्ट : स्त्री-अधिकारों का औचित्य-साधन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृ. 15
  10. मधु मृणालिनी : क्लारा जेटकिन उनका समय और संघर्ष, संवाद प्रकाशन, मेरठ, संस्करण 2015, पृ. 185-186
  11. सिमोन द बोउवार : स्त्रीः उपेक्षिता, प्रस्तुति डॉ0 प्रभा खेतान, हिन्दी पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड, दिल्ली, संस्करण, 1998, पृ. 21
  12. डॉ. के. एम. मालती : स्त्री विमर्शः भारतीय परिप्रेक्ष्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृष्ठ- भूमिका से
  13. सुमन राजे : हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, , भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण 2019, पृ. 307

 

मेघना यादव

(शोधार्थी) हिन्दी विभाग, कला संकाय, दयालबाग़ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट (डी.ई.आई.) दयालबाग़,आगरा- 282005

meghanasneh@gmail.com


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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