शोध आलेख : विष्णु प्रभाकर की आत्मकथा ‘पंखहीन’ में
स्त्री अस्मिता
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वीनू व डॉ. प्रमोद कुमार तिवारी
शोध सार : एक स्त्री अपनी व्यथा-कथा स्वानुभूति के आधार पर कहती है किंतु, एक पुरुष रचनाकार अपनी आत्मकथा में स्त्री पक्ष के सम्बन्ध में लिखते हुए स्वयं अनुभूत सत्य के बजाय सहानुभूति के अंश के माध्यम से उसे प्रस्तुत करता है । विष्णु प्रभाकर ने अपनी आत्मकथा ‘पंखहीन’ में स्त्री के विविध रूपों को और ‘पुरुष जीवन’ में उनकी अनिवार्य आवश्यकता से लेकर उनकी विवशताओं, परम्पराओं और मान्यताओं के नाम पर समाज और परिवार के दबाव की बेड़ियों को तोड़ देने की उत्कट आकांक्षा को दर्शाया है । वे पितृसत्तावादी मानसकिता के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं और तर्क करते हैं उस व्यवस्था से जो स्त्री के अधिकारों को नियंत्रित करके रखने के हरसंभव प्रयास करती है और पुरुष को स्त्री का ‘संरक्षक’ घोषित करती है । विष्णु प्रभाकर की आत्मकथा ‘पंखहीन’(2012) में स्त्री के इन विभिन्न रूपों की भूमिका और लेखक द्वारा उनके प्रस्तुतीकरण का मूल्यांकन होना एक गहन शोध का विषय है। पंखहीन में लेखक ने अपने जीवन के विविध पहलुओं और प्रभावपूर्ण घटनाओं को दर्शाया है ।
बीज शब्द : पितृसत्ता(PETRIARCHY),यौनशुचिता(CHASTITY),
स्त्री अस्मिता(FEMALE IDENTITY), पौरुष(MASCULINE), परित्यक्ता पत्नी(ABANDONED WIFE)
मूल आलेख : ‘आत्मकथा’ हिंदी साहित्य की प्राचीन विधा है, जिसका आरम्भ हिंदी
साहित्य में सन् 1641 में बनारसीदास जैन द्वारा रचित ‘अर्द्धकथानक’ से माना जाता
है । कहने को तो ‘स्व जीवन की कथा’ आत्मकथा है किंतु वास्तव में यह अपने आप में
जीवन और जगत के बहुत से आयामों कोसमेटने वाली विशाल, विस्तृत और साहित्य की सबसे
समृद्ध विधा है ।आत्मकथा धर्म, राजनीति, संस्कृति और इतिहास के भूतकाल एवं वर्तमान साक्ष्यों, काल-क्रमानुसार होने वाले परिवर्तनों को जानने, समझने और एक नैतिक
दृष्टिकोण विकसित करने का बेहतरीन माध्यम है ।
बहुत-सी आत्मकथाओं में स्त्री के विविध रूपों जैसे माँ सहायिका, सहकर्मी,
पुत्रवधू, बेटी, बहन, साहित्यकार, पारिवारिक, आर्थिक, सेविका और उनकी सामाजिक,
अनैतिक पृष्ठभूमि परिवार और समाज में तत्कालीन स्त्री की स्थिति और हिस्सेदारी
देखने को मिलती है।हिंदी में बहुत से लेखकों और लेखिकाओं ने आत्मकथाएँ लिखी हैं ।
किंतु नब्बे के दशक से इस विधा के लेखन में अधिक वृद्धि हुई। जब स्त्री और दलित
रचनाकारों की आत्मकथाएँ साहित्य और समाज में उनके जीवन-संघर्षों के कारण चर्चा में
रहीं । जानकी देवी बजाज, दिनेश नंदिनी डालमिया, शिवरानी देवी, कृष्णा अग्निहोत्री, मैत्रेयी पुष्पा, प्रभाखेतान,
सुशीला टाकभौरे, कौसल्या बैसंत्री, मन्नू भंडारी आदिलेखिकाओं
ने अपनी आत्मकथाओं में उन संघर्षों और उत्पीड़न को सिलसिलेवार ढंग से लिखा है, जो
स्त्री होने के नाते उन्हें उम्र की हर दहलीज पर भुगतने पड़े । एक स्त्री अपनी
व्यथा-कथा स्वानुभूति के आधार पर कहती है, किंतु एक पुरुष रचनाकार अपनी आत्मकथा
में स्त्री पक्ष के सम्बन्ध में लिखते हुए स्वयं अनुभूत सत्य के बजाय सहानुभूति के
अंश के माध्यम से उसे प्रस्तुत करता है । विष्णु प्रभाकर ने अपनी आत्मकथा ‘पंखहीन’ में स्त्री के विविध रूपों को और ‘पुरुष जीवन’ में उनकी अनिवार्य
आवश्यकता से लेकर उनकी विवशताओं, परम्पराओं और मान्यताओं के
नाम पर समाज और परिवार के दबाव की बेड़ियों को तोड़ देने की उत्कट आकांक्षा को भी
दर्शाया है । वे पितृसत्तावादी मानसकिता के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं और तर्क
करते हैं उस व्यवस्था से जो स्त्री के अधिकारों को नियंत्रित करके रखने के हरसंभव
प्रयास करती है और पुरुष को स्त्री का ‘संरक्षक’ घोषित करती है ।विष्णु प्रभाकर की
आत्मकथा ‘पंखहीन’(2012)में स्त्री के
इन विभिन्न रूपों की भूमिका और लेखक द्वारा उनके प्रस्तुतीकरण का मूल्यांकन होना
एक गहन शोध का विषय है। हालाँकि लेखक ने अपनी आत्मकथा तीन खण्डों में लिखी है
क्रमशः –‘पंखहीन’,‘मुक्त गगन में’, ‘और पंछी उड़ गया’।पंखहीन में
लेखक ने अपने जीवन के विविध पहलुओं और प्रभावपूर्ण घटनाओं को दर्शाया है ।
पितृसत्ता और
यौनशुचिता के प्रश्न–
भारतीय
परिप्रेक्ष्य में देखें तो पितृसत्ता एवं यौनशुचिता के प्रश्न सदियों से स्त्री
अस्मिता को प्रभावित करते रहे हैं ।‘पंखहीन’ में पितृसत्ता के पारंपरिक रूप को
देखा जा सकता है, जहाँ बनी-बनाई परिपाटी से भिन्न व्यवहार किये जाने पर लेखक के
पिता को भाई द्वारा ताने दिए जाते हैं ।यथा -“वर्षों बाद मेरे बड़े चाचा ने पिताजी को उलाहना देते हुए कहा था–‘हर वक्त लुगाई के गोड्डे से लगा बैठ्ठा रहे है, यों नहीं कि दुकान खोल के बैठ्ठे ।’ उस समय वे चौके में बैठे आग ताप रहे थे । माँ रोटी बना रही थी । बिना एक शब्द बोले
वे चुपचाप उठ कर चले गए थे । मुझे बड़ा क्रोध आया था चाचा पर ।”1पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त लेखक के चाचा के लिए एक पुरुष
द्वारा स्त्री को सम्मान देना एवं उसके साथ स्वामी की बजाय सहयोगी का व्यवहार करना
कदापि ग्राह्य नहीं था । पितृसत्तावादी समाज में लाभ के सभी अधिकार पुरुष के पास
ही रहे हैं, जहाँ वह स्वामी और स्त्री सेविका की भूमिका का निर्वाह करती है ।इस
सम्बन्ध में अपना मंतव्य प्रकट करते हुए लेखिका सुजाता लिखती हैं कि –“पुरुषवादी
वर्चस्व को स्थायी रूप देने के लिए स्त्री को लगातार कमतर सिद्ध किया गया ।यह एक
ऐसी व्यवस्था है जो निर्णय और सामाजिक उत्पादन, मुनाफ़े और सम्पत्तीसे स्त्रीको बाहर करती है । लिंगों के बीच वह ताक़त का
ऐसा असमान बँटवारा करती है कि स्त्री की देह, अर्थ और श्रम अधीन किए जा सकें ।”2
पितृसत्ता ने सभी कार्यव्यवहारों का ढांचा कुछ इस प्रकार से बनाया है, जिसके
अंतर्गत पुरुष लगभग सभी प्रकार के उनअधिकारों का लाभ नि:संकोच उठा सकता है,जिनके
माध्यम से वह स्त्री को अपने नियंत्रण में रख सके ।पितृसत्ता की कार्यप्रणाली और
नियमों के सम्बन्ध में अपना मंतव्य प्रकट करते हुए छायावादी साहित्यकार जयशंकर
प्रसाद ने कंकाल उपन्यास में लिखा भी है कि –“पुरुष नारी को उतनी ही शिक्षा देता
है, जितनी उसके स्वार्थ में बाधक न हो ।”3 अहमवादी मानसिकता से ग्रस्त
पुरुष ने स्त्रियों के अधिकार अपनी सुविधानुसार घटाए और बढ़ाए हैं । स्त्री को
पारंपरिक बेड़ियों से आज़ादी उतनी ही मिली, जितनी पुरुष के ‘पौरुष’ को क्षति से सुरक्षित रखने हेतु आवश्यक थी ।वर्तमान समय में भी भारत के
अधिकाँश भाग में यह व्यवस्था अपने पूर्ण रूप में विद्यमान है।
यह भी कैसी विडंबना है कि जहाँ एक ओर स्त्री और पुरुष को
एक-दूसरे का पूरक माना जाता है, वहीं दूसरी ओर घर, परिवेश और समाज में स्त्री को धरती की उपमा से विभूषित कर त्याग की मूरत
घोषित कर दिया जाता है । वर्तमान समय में शिक्षा के प्रचार-प्रसार और अपने
अधिकारों एवं कर्त्तव्यों का बोध होने पर जो स्त्रियाँ अपने अधिकारों की मांग करने
लगी हैं वे पुरुष-प्रधान समाज द्वारा बहिष्कृत एवं तिरस्कृत की गई हैं ।यह भी
गौरतलब है कि अपनी गलतियों को स्त्री के चरित्र पर आरोपित कर देने की प्रवृत्ति
अधिकाँश पुरुषों में देखी जा सकती है । कथाकार हृदयेश भी अपनी आत्मकथा ‘जोखिम’ में यह स्वीकार करते हैं कि वे अपनी गलतियों एवं नाकामियों को छुपाने के
लिए बहुत ही सहजता से पत्नी पर दोषारोपण कर देते थे । इसी प्रकार लेखक विष्णु
प्रभाकर अपने दूसरे दादा द्वारा संतान प्राप्ति की चाह में चार शादियाँ करने और
संतानोत्पत्ति न हो पाने पर उसका सारा दोष अपनी पत्नियों पर मढ़ देने के प्रसंग के
विषय में लिखते हैं कि -“उनकी परित्यक्ता
पत्नी की, जिन्हें
हम ‘मेरठवाली’ दादी कहते थे, हमें
खूब याद है । गोरा रंग, मांसल
देह, शब्द-शब्द में प्यार झरता था उनके, न जाने बाबा ने उन्हें क्यों छोड़ दिया था? शायद वे संतानवती नहीं हो सकी थीं इसलिए पर, सन्तान तो उन्हें दूसरी पत्नी से भी नहीं
हो सकी थी । दोष कहीं उन्हीं में था पर दोष किसी का हो, दण्ड
नारी को ही मिलता रहा है पुरुष-प्रधान समाज में । ये दादीजी हम सब भाइयों को बहुत प्यार
करती थीं । माँ जब हमें मारती तो हम भागकर उन्हीं की शरण में जाते थे । वे तब मेरी
माँ को जी भर कर डांटती थीं और माँ हँसती रहती थी । मेरे मोटे गालों को खींच-खींच
कर चूमने में उन्हें बहुत रस आता था । बहुत बाद में समझ आया कि उनके भीतर जो कामवृत्ति दब कर रह गई थी, उसी
की अभिव्यक्ति थी यह।”4 लेखक
का यह कथन पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता को अपने लाभ और
हानि के दृष्टिकोण से देखने की ओर इंगित करता करता है । जहाँ पुरुष ही सभी
संसाधनों का संरक्षक और उपभोक्ता हो वहाँ स्त्री की अस्मिता और उसका अस्तित्व कैसे
सुरक्षित रह सकता है? यही कारण है कि लेखक के दादाजी को अपनी पहली
पत्नी को त्याग कर दूसरा विवाह करने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई ।अहमवादी एवं
पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त पुरुष के लिए यह सर्वथा ग्राह्य नहीं है कि कोई
स्त्री उसके पौरुष पर ऊँगली उठाए । यही कारण है कि पहली पत्नी से संतानोत्पत्ति न
होने पर लेखक के दादा एक के बाद एक, चार शादियाँ करते हैं । तत्कालीन समय में एक
स्त्री के लिए भी यह संभव न था कि वह अपने पति (जिसे समाज द्वारा परमेश्वर की
संज्ञा दे दी गई) की इस कमी को घर-समाज में जाहिर कर सके । ऐसा करने पर उसका
परित्याग किया जा सकता था या उसे भांति-भाति प्रकार से प्रताड़ित किया जाता। आर्थिक
निर्भरता एक ऐसी समस्या है जिसके कारण लम्बे समय से स्त्री केवल आश्रिता बनकर, दासी बनकर पुरुष की अनुगामिनी ही बनी रह गई थी। परजीवी बने रहने के
दुष्परिणाम के रूप में स्त्री की अपनी इच्छाओं पर से ही उसका अधिकार छिनता चला गया
। यही कारण है कि लेखक की दादी अपनी काम इच्छाओं को स्पष्ट रूप में पति के समक्ष
रखने की चेष्ठा नहीं कर पाती है और छोटे बालकों को चूमने लगती है ।
अपने दादा के
चौथे विवाह से जुड़े संस्मरण को साझा करते हुए लेखक स्त्री अस्मिता के प्रश्न एवं
तत्कालीन समाज में विवाह-संस्था के ढाँचे के सम्बन्ध में लिखते हैं कि –47-48 वर्ष
की आयु में मेरे चाचा ने चौथा विवाह किया।उस उम्र में भी वे मोड़ बांधकर और घोड़े पर चढ़कर ससुराल गए थे ।
लोगों ने बड़ी फब्तियां कसी थीं कि शर्म नहीं आई बूढ़े ढींग को मोड़ बांधते । गाँव के
एक सेठ ने बहुत दिन बाद मुझ से कहा था, “क्या ज़रूरत थी शादी करने की इस उम्र में । ग़रीब घर की लड़की है पर
उसके अरमान भी तो हैं। इस बूढ़े में इतनी गरमी थी तो कोठे पर चला जाया करता ।”5पुत्र
की आकांक्षा और कामेच्छा की पूर्ति हेतु अधेड़ उम्र में अपने से आधी उम्र की गरीब
लड़की से विवाह करने पर लेखक के दादा को घर और समाज से ताने सुनने पड़ते हैं ।यह
विवाह इसलिए भी संभव होता है क्योंकि स्त्री पूर्ण रूप से परिवार के पुरुषों पर
निर्भर थी। इस निर्भरता का एक बड़ा कारण आर्थिक रूप से सक्षम न होना, निरक्षरता और अपने जीवन से जुड़े निर्णयों का
अधिकार अपने हाथ में न होकर पुरुष के हाथ में होना । यही कारण है कि वह गरीब
बालिका अपने से दोगुनी उम्र के व्यक्ति से विवाह करने को विवश कर दी जाती है ।
वरन् उसकी सहमति या असहमति पूछी ही नहीं जाती । यह स्थिति केवल इस आत्मकथा का ही
हिस्सा नहीं है बल्कि, एक लम्बे समय से उत्तर भारत के अधिकाँश हिस्से में स्त्री
की यही स्थिति रही है ।शिक्षा के अभाव एवं आर्थिक विपन्नता के कारण वर्तमान समय
में भी भारत भूमि के सुदूर इलाकों में अपने से दोगुनी उम्र के दुल्हे से बालिकाओं
के विवाह किये जाने की परम्परा अस्तित्व में है ।
परदादी की
मृत्यु से जुड़े एक प्रसंग को साझा करते हुए विष्णु प्रभाकर ने जन्म और मरण से
सम्बंधित परम्पराओं और रीति-रिवाजोंके सम्बन्ध में लिखा है कि - जाने के अर्थ से
अनभिज्ञ मैं बाबा की गीली होती आँखों को देखता रहता हूँ । पड़दादी भाग्यशाली थीं ।
उनके पोते-पड़पोते थे । उनके लिए विमान बनना था। अच्छे दिन होते
तो गाजे-बाजे के साथ उन्हें गंगा तट पर ले जाते । वहाँ उनका विधिपूर्वक दाह-संस्कार होता। लेकिन तब तो हाहाकार मचा हुआ था । स्वस्थ
आदमी विरल ही मिलते थे । फिर भी बाबा ने विमान बनवाया। परिवार के बीमार लोग और
गाँव के स्नेही-जन सब इकट्ठे हुए । पोते-पड़पोतों ने चंवर ढुलाया । घण्टी बजाई। गंगाजल छिड़का । खी, बताशे और पैसे वारे गए । मैं कोतुहल से उस दृश्य को देखता रहा और
चाचा के कहने पर गंगाजल छिड़कता रहा । एक पुरजन मेरे ज्वरग्रस्त छोटे भाई को गोद
में लिए हुए थे और उससे चंवर ढुलवा रहे थे । लेकिन गंगा पर जाना ही नहीं हो सका, कस्बे के बाहर तालाब पर दाह-संस्कार करके बाबा लौट आए ।”6हालांकि ऐसे बहुत से संस्मरण ‘पंखहीन’ में आये हैं जिनसे यह
सिद्ध होता है कि लेखक ने स्त्री विरोधी पम्पराओं को सिरे से नकार दिया है या फिर
उनकी आलोचना की है किंतु इस पूरेसंस्मरण में जितने भी धार्मिक अनुष्ठानों का
उल्लेख किया गया है,
उनमें कहीं भी स्त्री की भूमिका का कोई सन्दर्भ नहीं दिया गया है ।पड़दादी के लिए
विमान बनाने, चवर ढुलाने, घंटी बजाने या गंगाजल छिड़कने जैसे किसी भी रीति-रिवाज के
समय किसी महिला की हिस्सेदारी का कोई भी प्रसंग उद्धृत नहीं है ।जबकि अंतिम क्रिया
एक स्त्री की ही की जा रही थी ।विचित्र बात तो यह है कि लेखक के ज्वरग्रस्त छोटे
भाई से भी चंवर ढुलवाया जा सकता है किंतु एक स्त्री के लिए इस प्रकार के किसी भी
रिवाज को निभाने की मनाही है और इस सन्दर्भ में लेखक की ओर से भी कोई टिपण्णी नहीं
की गई है ।
पुरुष प्रधान
समाज ने जिन वर्जनाओं,
आचार-व्यवहार के तौर-तरीकों को स्त्री पर आरोपित कर दिया है, उसके एक अंश का भी
अनुपालन करने को वह बाध्य नहीं है किंतु स्त्री के लिए ऐसा व्यवहार जो पुरुष
द्वारा प्रदत्त अधिकारों से परे है अथवा वर्जित है, कदापि ग्राह्य नहीं है । यदि
कोई स्त्री ऐसा आचरण करती है तो उसका सामजिक बहिष्कार कर दिया जाता है या अधिक से
अधिक उसका परित्याग कर नाना प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है । यही कारण है कि
दैनिक व्यवहार एवं ऐसे सामजिक कार्यक्रम जहाँ पुरुष की मौजूदगी रहती है वहां
परम्परागत बेड़ियों से जकड़ी स्त्रियाँ ठीक वैसा ही व्यवहार करती हैं, जिसकी आज्ञा
पुरुष स्वामी द्वारा प्रदत्त है । किंतु मन के किसी कोने में दबी रहने वाली वह
आकांक्षा जो स्त्री को पुरुष की अनुगामिनी, दासी से कहीं अधिक उसके स्त्रीत्व का
बोध कराती है, उसी का खुला व्यवहार वह उन कार्यक्रमों में खुल कर करती हैं जहाँ पुरुष
की उपस्थिति वर्जित होती है । ऐसी ही परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों के सम्बन्ध में
लेखक एक संस्मरण साझा करते हुए कहते हैं कि -“दूसरे कई अवसरों पर भी उनकी महफ़िलें जमती थीं ।
तीज के अवसर पर झूले के गीतों की मस्ती के साथ उनका मन भी चंचल हो उठता था ।
सामूहिक रूप से चर्खा कातने के समय वे सूत के तार अवश्य खींचती थीं पर मन के तार
ढीले कर देती थीं । उसे वे एक ऐसी दुनिया में ले जाती थीं जहाँ रति-रंग के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता था । अचानक एक दिन मैं एक ऐसी महफ़िल में पहुँच
गया । आयु होगी दस-ग्यारह वर्ष की, वैज्ञानिक समझ न
हो पर एक सहज समझ अवश्य थी । इसलिए उनके मुँह से मैंने जो कुछ सुना उसने मेरे
किशोर मन को विचलित कर दिया । तभी सहसा किसी की दृष्टि मुझ पर पड़ी, वह चिल्लाई, -‘देखो, देखो एक लोग आ गया है हमारी महफ़िल में । उसे निकालो ।’’7
इन रीति-रिवाजों के माध्यम से
स्त्री अपने भीतर की उन इच्छाओं और आकांक्षाओं को जीवंत रूप प्रदान करती हैं, पुरुष के उस आचरण का अभिनय करती हैं, जिसकी
अपेक्षा सदैव मन के एक कोने में लिए वे जीती हैं और अपने पति , बेटे, ससुर, पिता आदि पुरुषों
से उस सम्मानीय व्यवहार की अपेक्षा रखती हैं ।स्त्री को दोयम दर्जे का आंकने की
प्रवृत्ति के सम्बन्ध में लेखिका मृणाल पांडे लिखती हैं कि –“समाज में स्त्रीत्व
की मूल अवधारणा नकारात्मक है । लगभग सभी धार्मिक और दार्शनिक दायरों में स्त्री को
पुरुष के सन्दर्भ में एक अपूर्ण और सापेक्ष जीवन के रूप में ही देखा गया है ।”8यही
कारण है कि स्त्रियाँ ऐसे धार्मिक या परम्परागत अवसर की तलाश में रहती हैं जहाँ वे
पुरुष, उस व्यव्हार को आभासी रूप में ही सही किंतु जी सकें जिसकी पूर्ती वास्तविक
जीवन में संभव नहीं है ।
काम भावना को
विशुद्ध ऊर्जा बताते हुए लेखक तत्कालीन समय में उससे जुड़े लिंगभेद को उजागर करते
हुए लिखते हैं कि - “तब मनिहारिनों की आवाज़ और चूड़ियाँ पहनाने का ढंग बड़ा आकर्षक लगता
था। बीच-बीच में हास्य रस की फुलझड़ियाँ भी छोड़ती रहती थीं – ‘अरी बहू तेरा मियां कैसा रीझता है, तेरे ये चूड़ियों से भरे हाथ देख कर ।’ यह सुनकर बहू लजा जाती और ननद शरारत से खिलखिला पड़ती ।
अब जब मैं नारियों की उन वर्जनाहीन बातों के
बारे में सोचता हूँ तो उनका रहस्य दिन के प्रकाश की तरह स्पष्ट हो जाता है । काम-भावना विशुद्ध ऊर्जा है । वह नाना रूपों में अभिव्यक्त होती रहती
है । यह उसका सहज स्वभाव है । मनुष्य उसे नियंत्रित करके रूपान्तरित कर सकता है, पर नियंत्रण का अर्थ ‘वर्जन’ नहीं
है। वर्जनाएं प्रतिक्रिया पैदा करती हैं । वर्जनाएँ हैं तो
अभिव्यक्ति कभी सहज नहीं हो सकती । इसीलिए वे ऐसे एकांत अवसरों की टोह में रहती
थी, जहाँ वे अपने मन को अपनी इच्छा के अनुसार बहने दें । मुक्ति का आनन्द कोई बंधन
स्वीकार नहीं करता ।”9पुरुष की ही भांति स्त्री के भीतर भी काम-भावना का संचार उसी
सहजता के साथ प्रवाहित होता है जो स्त्री और पुरुष दोनों को ही प्रकृति द्वारा
प्रद्दत है ।किंतु पुरुषप्रधान-समाज में काम भावना के खुले प्रदर्शन का भी अधिकार
केवल पुरुष के ही पास रहता है । यही कारण है कि लेखक द्वारा भी इस तथ्य को स्वीकार
किया गया है कि स्त्रियाँ अपनी इस भावना को सहज रूप से अभिव्यक्त करने के अवसर की
तलाश में रहती हैं ।
पितृसत्ता एवं पुरुष प्रधान समाज के संरचनात्मक ढांचे के अंतर्गत स्त्री पक्ष
से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करते हुए लेखक कहते हैं
कि –“वे मुक्ति की माँग न कर बैठें इसीलिए उनकी श्रृंगार प्रियता को खूब सहलाया है
पुरुष ने । उस समय जो गहने एक नारी पहनती थी उनकी सूची बहुत लम्बी है । नख से शिख
तक वे दासता की निशानी सुनहले रूपहले गहनों से आवेष्टित रहती थीं। वे बाहर के
संसार के बारे में सोच भी न सकें, इसको लेकर पुरुष-समाज की चिंता का पार नहीं रहता था । कहावतों और गीतों में इस चिंता का आभास
मिल सकता है । मेरे बाबा कहा करते थे, ‘औरत, भैंस औरबच्चों का मुँह हमेशा चलते रहना चाहिए ।’
नारी की तुलना धरती से इसीलिए तो की गई है । बड़े प्रेम और आदर के साथ ‘पुरुष’ ने
धरती के सारे गुण नारी पर आरोपित किये हैं...धरती सहिष्णु है, अन्नपूर्णा है, वह
विद्रोह कर ही नहीं सकती ।’
ये प्रश्न धीरे-धीरे मेरे किशोर मन को परेशान करते आ रहे थे ।
प्रारम्भ में उनकी कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं थी, पर जैसे-जैसे
प्रबुद्ध होता गया और बाहरी संसार के संसर्ग में बढ़ता गया वैसे-। ।वैसे मेरी दृष्टि स्पष्ट होती गई।”10लेखक ने तत्कालीन समाज के पुरुष समुदाय की मानसिकता को इंगित
करते हुए स्त्रीवादी दृष्टि से उन सभी परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर प्रश्न उठाया
है जिनके माध्यम से पुरुष ने ऐसे सभी प्रयास किये हैं जिनके द्वारा स्त्री
श्रृंगारप्रियता के जाल में फंस कर अपने अधिकारों के सम्बन्ध में तर्कशील न बन सके
। इसी प्रयास के अंतर्गत धरती के सहिष्णु, त्यागी और ममतामयी रूप को आरोपित करके इन सभी गुणों को स्त्री का सहज
स्वभाव पुरुष ने ही बनाया है ।लेखक के अनुसार पुरुष द्वारा बनाए गए स्त्री-अस्मिता
से जुड़े नियम-कानूनों का वह विरोध ही न कर सके, उसमें बौद्धिक कौशल का विकास ही न
हो सके, इसके लिए पुरुष ने स्त्री को साज-श्रृंगार में ही उलझाए रखा ।
स्त्रियों को
अनुकूलित करने की व्यवस्था–
जातिगत शुद्धि और अशुद्धि के पैमाने में मनुष्यता को तोलने के कारण ही लेखक के
परिवार में आई एक पढ़ी लिखी महिला भी इस रूढ़गित जंजाल से निकलने का प्रयास नहीं
करती है। वरन् वह उन सभी मान्यताओं,, परम्पराओं और अंधविश्वासों का अन्धानुकरण करती हुई दिखाई देती है
जो केवल श्रेष्ठ जाति से होने के
कारण निम्न जाति की महिला से व्यवहार किये जाने योग्य है ।
अपनी माँ द्वारा पुत्र को दण्ड से बचाने के लिए ही सही अंधविश्वासपूर्ण खोज और
माँ द्वारा सफ़ाई कार्य करने वाली चंदो चाची के साथ किये जाने वाले भेदभाव के
सम्बन्ध में विष्णु प्रभाकर लिखते हैं कि - “माँ आख़िर माँ होती है । मेरी इन शरारतों से बहुत परेशान हो उठती ।
लेकिन उसने मुझे बचाने का एक रास्ता भी निकाल लिया था । वैसे यह रास्ता कोई नया
नहीं था । हिन्दू जाति के कर्णधारों ने अपनी रक्षा करने के लिए बहुत पहले ही इसका
आविष्कार कर लिया था ।...मैं यह पाप बार-बार करता था और हर बार माँ अपनी अँगूठी पानी में डाल कर और उस पानी
के छींटे देकर मुझे शुद्ध कर लेती थीं । पिताजी को पता लगता तो बहुत क्रुद्ध होते
। मुझे याद है, एक दिन मेरी माँ चंदो चाची से बहुत घुल-घुल कर बातें कर रही थी । दोनों को पान खाने का बहुत शौक था । चंदो
चाची जब सफ़ाई कर चुकती तो देहरी पर बैठ कर कहती-‘भाभीजी, पान खिलाओ ।’ और तब मेरी माँ पान का बीड़ा बनाकर या तो दूर से उसकी अंजलि में फेंक देती या ऊपर से उसकी झोली में गिरा
देती । कभी-कभी मैं माँ से पान लेकर चाची को देता और उसके हाथ को छू देता ।
तब माँ और चाची दोनों ही चिल्ला उठतीं और मैं हँस पड़ता । चंदो चाची मुझे बड़े प्यार
से समझातीं-‘न लाल्ला, हमें न छुओ ।”11यह कैसी विडंबना है कि जो
स्त्री पढ़ी-लिखी है और सन् 1890 के आसपास के समय में (जबकि स्त्री उस समय विभिन्न
प्रकार की स्त्री उन्नति की विरोधी सामाजिक परम्पराओं, मान्यताओ से घिरी थी जैसे-घूंघट प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, शिक्षा
के अधिकार का न होना आदि ) अपने विवाह के समय दहेज़ के रूप में धन-संपदा,गहनों आदि के स्थान पर पुस्तकें लेकर जाती है, वही स्त्री ‘व्यवस्था’
द्वारा इस प्रकार अनुकूलित कर दी जाती है कि अपने ही जैसी शारीरिक संरचना वाली
दूसरी स्त्री ‘चंदो चाची’ को केवल जाति
के आधार पर अपने से हेय समझने और उस के अनुरूप व्यवहार करने में तनिक भी संकोच
नहीं करती है । पितृसत्तावादी मानसिकता इस प्रकार समाज का हिस्सा बन गई है कि चंदो
चाची भी इस अपमान का प्रतिकार नहीं करती है वरन् इसी को अपनी नियति समझकर वह बालक
को भी इस खोखली व्यवस्था का अनुपालन करने का आग्रह करती है ।इसी स्थिति से न जाने
कितनी ही बार गुजरने वाले अनुभव के पिटारे से एक संस्मरण साझा करते हुए लेखक
मोहनदास नैमिशराय अपनी आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ में लिखते हैं कि –“मंदिर और
सवर्णों के लिए हम शुद्र थे । अछूत थे, दलित थे पर इंसान न
थे । हमारी छाया भी उनके लिए अपवित्र थी । एक दिन मंदिर के बाहर प्रसाद लेते समय
पुजारी की उँगलियाँ जब लेखक के हाथ से छू गई तो पुजारी ने गुस्से और घृणा से कहा
था – तू चमार है न, सब भ्रष्ट कर दिया । कितनी बार कहा तुम ढेरों से प्रसाद दूर से
लिया करें ।”12तत्कालीन दलित जीवन संघर्ष से जुड़ी जितनी विकट स्थितियां
तब थीं, वर्तमान समय में संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों द्वारा जातिगत शोषण में
कमी तो आई है किंतु भारत-भूमि के अधिकांश क्षेत्रों में यह शोषणकारी व्यवस्था अपने
सजीव रूप में पढ़े-लिखे और अनपढ़ तबके में ज्यों-की-त्यों विद्यमान है ।
स्त्री के प्रति दृष्टिकोण में बदलावों के स्तर–
पंखहीन में स्त्री के प्रति समाज, व्यवस्था और परिवार के दृष्टिकोण में बदलाव के कई स्तर दिखाई देते हैं
जिनमें से कुछ प्रगतिगामी प्रतीत होते हैं तो वहीं कुछ प्रतिगामी दिखाई देते हैं ।लेखक
अपने माता-पिता के विवाह से जुड़े संस्मरण को साझा करते हुए स्त्री संघर्ष के
इतिहास में होने वाली एक ऐसी घटना का उल्लेख करते हैं जो स्त्री के प्रति तत्कालीन
परम्परावादी दृष्टिकोण के सर्वथा विरुद्ध है । यथा - “पिताजी को पढ़ने का इतना शौक कैसे हुआ इसकी
कहानी निश्चय ही रोमांचक है । जब उनकी शादी हुई तो उन्हें पता लगा कि उनकी पत्नी
पढ़ी-लिखी है । वे तब तक बहीखाते की भाषा ही जानते थे ।
तुरन्त पण्डितजी के पास पहुँचे, बोले-‘पण्डितजी, आपको सात दिन में मुझे हिन्दी पढ़ानी होगी ।
और सचमुच उन्होंने हिन्दी पढ़ी । वहीं
नहीं रुके, निरंतर अध्ययन करते रहे पुराने ग्रंथों का ।”13यह अपने आप में किसी क्रांति से कम नहीं था कि उस समय में कोई
पुरुष एक स्त्री को ज्ञान और कौशल के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन द्वारा स्वयं को उसका
स्वामी घोषित करने की बजाय उसका सहयोगी, मित्र एवं सहचर बनना चाहता हो । यही कारण
है कि जैसे ही लेखक के पिता को यह ज्ञात होता है कि उनकी होने वाली पत्नी एक
पढ़ी-लिखी महिला है, वे तुरंत हिंदी पढ़नाऔर लिखना सीख लेते हैं । यहाँ सम्भावना इस
तथ्य की भी है कि अहंकारी पुरुष, स्त्री की योग्यता और श्रेष्ठता को स्वयं की
श्रेष्ठता से कम होना तो सहर्ष स्वीकार लेता है किंतु एक स्त्री का अपने से अधिक
पढ़ा-लिखा होना वह कभी सहन नहीं कर सकता । अत: यह संभव हो सकता है कि लेखक के पिता
ने हिंदी पढ़नाऔर लिखना इसलिए सीखा ताकि उन्हें लोगों द्वारा यह सुन कर लज्जित न
होना पड़े कि इसकी पत्नी तो हिंदी लिखना-पढ़ना खूब जानती है किंतु यह अक्षर ज्ञान के
अतिरिक्त कुछ नहीं जानता । यह स्थिति दम्भी पुरुष के लिए सर्वथा ग्राह्य नहीं है ।
तत्कालीन समय में पत्नी को पति द्वारा पीटे जाने का रिवाज़ था क्योंकि वह पूर्ण
रूप से अपने स्वामी पर निर्भर होने के कारण उसकी संपत्ति का हिस्सा बन कर रह गई थी
। स्त्री शोषण के इतिहास से जुड़े कुछ ऐसे ही साक्ष्य को प्रस्तुत करते हुए विष्णु
प्रभाकर लिखते हैं कि - “उन दिनों पत्नी को पीटने का आम रिवाज था । वह पुरुष की सम्पत्ति मानी जाती थी ।
लेकिन मेरे पिता ने मेरी माँ पर कभी हाथ नहीं उठाया । शब्द का प्राकृतिक अर्थ लें
तो, एक बार उठाया अवश्य था पर छोड़ नहीं सके थे ।”14लेखक के पिता के अन्तस् में
बैठा अहमवादी पुरुष बार-बार उन्हें अपनी पत्नी पर हाथ उठाने को विवश करता रहा
किंतु वह ऐसा केवल अपने नारीवादी और प्रगतिशील दृष्टिकोण के कारण नहीं कर पाते हैं
।ऐसे ही गुण विष्णु प्रभाकर को विरासत के तौर पर अपने पिता से प्राप्त हुए । स्त्री को प्रताड़ित करने की परंपरा के सम्बन्ध में
लेखिका मृणाल पांडे लिखती हैं कि “मायके में माता-पिता या भाइयों द्वारा अपनी बेटी
पर की जानेवाली या एक ब्याहता स्त्री पर पति या ससुरालियों द्वारा की जानेवाली हिंसा
को जब तक लड़की मर न जाए, हम
लोग प्राय: देखकर भी नहीं देखते । लगभग सभी स्त्री-कल्याण स्वायत्त संस्थाओं का
अनुभव है कि पति द्वारा पत्नी या पिता द्वारा पुत्री के साथ मारपीट के मामलों में
थाने जाने पर पुलिस ज़्यादातर यही कहती है कि ये तो मियाँ-बीवी या बाप-बेटी का
मामला है । तुम्हें-हमें क्या? या आख़िर अपनी ही जोरू (या
बेटी) को तो पीटा है ।”15 जिस समाज में पुरुष के स्त्री से श्रेष्ठ
होने और उसका स्वामी(नियंत्रक) होने की रीति को परम्परागत रूप से स्वीकार लिया गया
हो, जहाँ स्त्री का अपना अस्तित्व केवल पुरुष की आश्रिता से अधिक कुछ न हो वहां
समाज के प्रत्येक नागरिक को संरक्षण देने का दावा करने वाली न्यायिक व्यवस्था ही
स्त्री को प्रताड़ित होते रहने की अनुशंसा करे तो इससे निंदनीय बात और क्या होगी? जो स्त्री ऐसे दम्भी पुरुषों को जन्म देती है उसकी लगाम मायके में पिता
और भाइयों के पास तथा विवाह पश्चात पति और ससुरात पक्ष के अन्य पुरुषों के हाथों
में आजीवन हस्तांतरित होती रहती है ।
परम्परा और रीति-रिवाज के नाम पर दिए गए पितृसत्तावादी संस्कार न चाहते हुए भी
स्त्री को त्याग,
समर्पण और अनुसरण सीखा ही देते हैं। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी तब तक हस्तांतरित होता रहा जब
तक स्त्री शिक्षा ने जोर नहीं पकड़ा था, जब तक अपने अधिकारों
के प्रति आधी आबादी सजग नहीं हुई थी, जब तक उसने परम्परा के
नाम पर पुरुष-प्रधान समाज द्वारा पहनाई गई बेड़ियों को तोड़ने और अपने हिस्से का
आकाश हासिल करने की चेष्ठा नहीं की थी । पढ़ी-लिखी पर परम्परा की बेड़ियों से निकलने
का साहस न जुटा सकने वाली माँ के माध्यम से लेखक उस स्त्री का चित्रण करते हैं जो
भारत भूमि के अधिकाँश घरों में पितृसत्तात्मक समाज द्वारा गढ़े गए नियमों और
कानूनों का अनुसरण करने को बाध्य है ।घर की निरंतर बिगड़ती आर्थिक स्थिति और माँ के
त्याग और समर्पण के सम्बन्ध में लेखक कहते हैं कि -“पिता की आर्थिक स्थिति को लेकर माँ की चिंता का पार नहीं था पर
वह चिंता कभी असन्तोष बन कर अनियंत्रित हो रही हो ऐसा मुझे याद नहीं ।
बस एकांत में जब-तब अपने दर्द को मुझ अबूझ के सामने ऐसे व्यक्त करती जैसे स्वयं
से बातें करती हो । मैं बस उनके मुँह की ओर देखता भर रहता । बहुत सवेरे
चक्की पीसती, फिर दहीबिलोती, फिर
गोबर पाथती और फिर चौका-बासन
करती । कभी उदास-उदास, कभीगीतों
में जागती बड़े घर की बेटी थीबड़े घर की बहू बनकर ही रही।
उनके हाथ की बनी घई में सिकी मोटी रोटी और उड़द की बघारी दाल-उसके स्वाद पर मैं आज भी त्रिलोकी निछावर कर सकता हूँ ।”16
लेखक की माँ ‘बड़े’
अर्थात् संपन्न घर-परिवार की बेटी थीं। जहाँ आर्थिक विपन्नता की स्थिति उन्होंने
कभी अनुभव नहींकी थी किंतु ससुराल में आकर वह उस आर्थिक विपन्नता से झूझते हुए भी
कभी अपना संयम नहीं खोती हैं अपितु अपनी ओर से किसी न किसी प्रकार से घर की आर्थिक
स्थिति को मजबूत करने के उपाय ढूँढ़ती दिखाई देती हैं । एक तो बड़े घर की बेटी होने
का सामाजिक दबाव और घर की आर्थिक स्थिति की ओर पति की उदासीनता और बड़े परिवार के
नित-नए खर्चों के बोझ की पीड़ा उस स्त्री के हृदय को इस प्रकार व्यथित कर देती है
कि वह सारी वेदना घरेलु कार्य करते हुए अपने अबोध बालक से कहने को विवश हो जाती है
क्योंकि बाह्य जगत अर्थात् घर-समाज में कहने से संभवतः उसके घर की जग-हंसाई हो
सकती है । वह स्त्री अपने सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन में मिलने वाली प्रताड़ना, शोषण और अत्याचार का प्रतिकार या इस सम्बन्ध में
किसी से अपने मन का हाल कहने का प्रयास मात्र कुल-परिवार की मान-मर्यादा को बनाए
रखने के लिए कह ही नहीं पाती है और खून का घूँट पीकर जीने को विवश रहती है ।
आर्थिक
निर्भरता और संपत्ति के प्रश्न–
स्त्री स्वातंत्र्य के इतिहास में आर्थिक निर्भरता के प्रश्न, अपने होने का बोध, अपने
अधिकारों के प्रति जागरूकता एवं अपने लिए आवाज़ उठाने जैसे प्रश्नों और उनसे जुड़ी
क्रांतियों के बहुत से संस्मरण बिखरे पड़े हैं ।इसमें भी सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न
आर्थिक निर्भरता और संपत्ति पर अधिकार से सम्बंधित हैं । स्त्री स्वयं सदियों से
किसी की बेटी, बहू, पत्नी बन कर इस हाथ
से उस हाथ तक हस्तांतरित होती रही है । अर्थात् वह सदियों से दासता की ही बेड़ियों
में जकड़ी रही है । जो स्वयं ‘संपत्ति’ बनकर एक कुल-परिवार से दूसरे कुल -परिवार तक
हस्तांतरित होती रही हो, वह अपने अधिकारों की मांग करती कैसे ? जिसे शिक्षा का
अधिकार नहीं था, जो सदैव घूंघट में रहकर घर के सभी कार्य
पूर्ण करने पर भी पति, सास और अन्य घरवालों द्वारा प्रताड़ित
की जाती रही हो, भला वह कैसे संपत्ति में अपने अधिकार की मांग कर सकती थी ? ऐसे ही
स्त्री-सन्दर्भों से जुड़े एक संस्मरण को साझा करते हुए लेखक घर की आर्थिक स्थिति
और माँ की वेदना के सम्बन्ध में लिखते हैं कि -“माँ ने वे रुपए लिए ।बहुत देर तक शून्य में न जाने कहाँ देखती
रही । फिर धीरे-धीरे बोली, ‘इतने
रूपए रोज़ नहीं आ सकते?’
मैं अबूझ क्या जवाब देता । पर माँ के चेहरे पर उतरती व्यथा को पहचानने लगा था ।
खर्च सबसे ज्यादा, आमदनी सबसे कम । फिर पिताजी बीमार । आज कल्पना कर सकता
हूँ कितना दर्द सहा होगा मेरी माँ ने । वह दर्द अनजाने मेरे अन्तर में उतर कर मुझे
छोटा करने लगा, हीन भावना भरने लगा ।”17इन पंक्तियों के माध्यम से लेखक के भीतर की ‘स्त्री’ व्याख्यायित
हुई है, जहाँ वे अपनी माँ के संघर्ष, वेदना और व्यथा के माध्यम से सम्पूर्ण स्त्री
जाति के उस संघर्ष और पीड़ा को महसूस कर रहे हैं जिसे वे अपने दैनिक जीवन में हर
क्षण भुगतने को विवश रहती हैं । लेखक की माँ यदि आर्थिक रूप से सक्षम होती और अपनी
पढ़ाई-लिखाई का सदुपयोग कर धनार्जन कर रही होतीं तो संभवतः आर्थिक संकट से अपने
परिवार को बचा सकती थीं ।किंतु स्त्री के लिए वे अवसर ही नहीं बनने दिए गए, जिनका
उपयोग वे स्वयं के अस्तित्व को सुदृढ़ करने में कर सकें । यही कारण है कि पति के
बीमार पड़ जाने पर और बड़े परिवार का भरण-पोषण करने लायक संपदा के न होने पर वह गहरी
उदासी से घिर जाती हैं ।
इसी प्रकार एक
और संस्मरण साझा करते हुए लेखक अपनी माँ के चरित्र के माध्यम से उस भारतीय स्त्री
के स्थायी भाव को व्याख्यायित करते हैं, जो अपने घर-परिवार को बचाने के लिए अपना
सर्वस्व त्याग देती है किंतु बदले में सराहे जाने की बजाय उसे परिवार, परिवेश और समाज से केवल और केवल शोषण ही प्राप्त
होता रहा है। यथा -“परिवार की आर्थिक स्थिति रसातल तक पहुँच चुकी थी ।
वे निरंतर क़र्ज़ में डूबते जा रहे थे । सारी जायदाद क़र्ज़दारों के कब्ज़े में थी ।
मेरी महिमामयी माँ ने अपना एक-एक ज़ेवर बेच दिया था परिवार की लाज बचाने को ।”18लेखक का सम्पूर्ण परिवार जब कर्ज के बोझ तले दब चुकाथा तब उसे
किसी प्रकार बचाने के लिए लेखक की माँ अपने सारे गहने तक बेच कर आर्थिक स्थिति को
सुधारने हेतु अपना सहयोग देती हैं । सदियों से किये गए स्त्री के त्याग को कभी भी
वह सराहना और सम्मान प्राप्त नहीं हुआ जिसकी वह अधिकारिणी है, उसे धरती की उपमा
देकर, ‘त्याग की देवी,
ममतामयी’ आदि शब्दाभूषणों से अलंकृत करके मौन सधाए रखने के हरसंभव प्रयास किये गए
हैं । किंतु इस आत्मकथा में लेखक का स्त्रीवादी दृष्टिकोण साफ़ देखा जा सकता है,
जहाँ वे अपने जीवन में आने वाली स्त्रियों का चित्रण स्त्री दृष्टि से करते हैं।
स्त्री-पुरुष
एक-दूसरे के पूरक हैं–
स्त्री और
पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं किंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहाँ
अधिकांशत: स्त्री और पुरुष को बाल्यकाल से ही आचरण और सामाजिक व्यवहार से जुड़े
नियमों-कानूनों को उनके मस्तिष्क में परिवार एवं समाज द्वारा स्थायी कर दिया जाता
है, जिनके अंतर्गत पुरुष और स्त्री के कार्यक्षेत्र का बँटवारा लिंग के आधार
परहोता है । जैसे कि स्त्री को घर की चारदीवारी के भीतर के कामों तक सीमित कर दिया
गया और पुरुष के संरक्षण में रह कर उनकी अनुगामिनी बनी रहने, प्रतिकार न करने, तर्क
अथवा प्रश्न न करने जैसी तमाम वर्जनाओं के बोझ से लाद दिया गया । इसके ठीक विपरीत
पुरुष को स्त्री से श्रेष्ठ होने, उसे संरक्षण प्रदान करने,
अनुगामिनी बनाए रखने के तमाम प्रयत्न करने और घर से बाहर के कार्य-व्यवहार का वहन
करने से सम्बंधित अधिकार दिए गए । यह कहना गलत न होगा कि स्त्री को जन्मजात
कर्त्तव्य मिले हैं और पुरुष को अधिकार।किंतु इस आत्मकथा में स्त्री और पुरुष के
वह रूप भी दिखाई देते हैं जहाँ वे एक-दूसरे के पूरक के रूप में प्रस्तुत होते हैं ।
यथा – “माँ बताया करती थी कि एक बार मेरा छोटा भाई मरणासन्न हो गया था । उन्होंने
उसको ज़मीन पर लिटाने के लिए आस-पास पड़ी चीजों को हटाया और दुकान पर चले गए ।
उन्होंने जैसे मान लिया था कि मरना-जीना तो प्रभु के हाथ में है, फिर हम क्यों चिंता! माँ ने ही पाला-पोसा हम। माँ ने ही हमारे भविष्य को बनाने का
प्रयत्न किया । पिता तो हर काम में निमित्त मात्र थे ।”19आत्मकथा में लगभग हर उस स्थान पर जहाँ लेखक के जीवन में माँ के
महत्त्व और उनके प्रगतिशील दृष्टिकोण से जुड़े सन्दर्भ आते हैं, वहां लेखक अपनी माँ
को घर-परिवार की अघोषित मुखिया और तारणहार के रूप में व्याख्यायित करते हैं । लेखक
के पिता जहाँ अपनी पत्नी पर अपना सकारात्मक प्रभाव बनाने हेतु एक सप्ताह में हिंदी
पढ़नाऔरलिखनासीख लेते हैं,वहीं लेखक की माँ अपने विवाह पश्चात के सम्पूर्ण जीवन में
पति की अनुगामिनी बने रहने की बजाय सहचरणी के रूप में हर उस भूमिका का भी निर्वहन
करती दिखाई देती हैं जिसकी अपेक्षा तत्कालीन समाज में घर के पुरुष सदस्यों से की
जाती थी ।यहाँ यह गौरतलब है कि सम्पूर्ण पुरुष और स्त्री जाति अपनी
महत्वाकांक्षाओं,
इच्छाओं और कर्त्तव्यों के वहन हेतु एक-दूसरे पर आश्रित है ।
घर की
चारदीवारियों में कैद स्त्री और उसकी अस्मिता के प्रश्न-
इस आत्मकथा
में उस स्त्री का प्रस्तुतीकरण किया गया है, जो किसी न किसी कारणवश घर की
चारदीवारियों में स्वयं को कैद महसूस करती है, उस कैद की घुटन से स्वतंत्र होने की आकांक्षा रखती है किंतु
पितृसत्तावादी सामाजिक दबाव, मान-मर्यादा के नाम पर किये
जाने वाले शारीरिक एवं मानसिक शोषण की जकड़न में फंसी बस छटपटाती रह जाती है । अपनी
तीन खण्डों में विभाजित आत्मकथा के प्रथम खंड ‘पंखहीन’ में
मूर्धन्य साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने ऐसी ही स्त्री का चित्रण किया है, जो इन
वर्जनाओं से जकड़ी हुई है, किंतु अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जीने और मात्र उपभोग
की वस्तु न बन कर रह जाने की उत्कट आकांक्षा रखती है । यथा –““पुरुषों में ही नहीं, नारियों में भी मैंने इस प्रवृत्ति को नाना रूपों में अभिव्यक्त
होते देखा था । बड़ा सख्त परदा था उन दिनों । वे असूर्यपश्यायें घर से बाहर जाती
भी थीं तो सिर से पैर तक ढंकी-दबी जाती थीं, लेकिन
घर के अन्दर उनकी अपनी दुनिया थी । इसलिए वहाँ उन्हें ऐसे अवसर मिलते थे जब
वे सब वर्जनाओं से मुक्त होकर अपने को व्यक्त कर सकती थीं । बेटे के विवाह के अवसर
पर ‘खोड़िया’ होता
था। इस शब्द का वास्तविक अर्थ तो मैं नहीं जानता लेकिन बारात जाने के
बाद घर की सब नारियाँ विशेषकर युवतियाँ सारी रात नाचतीं थीं । उसे ही खोड़िया कहते
थे । तरह-तरह के नाटक करती थीं वे उसमें । पति-पत्नी बनकर वे खुलकर वर्जित शब्दों और नारी समलैंगिकता के
दृश्यों का अभिनय करती थीं ।”20 विवाह के अवसर पर किये जाने वाले इस प्रकार के स्वांग और अभिनय
के माध्यम से परिवार के समक्ष मौन साधे रहने वाली स्त्री ‘मुखिया’ की आभासी भूमिका
के आनंद में सराबोर हो जाती है । वह
स्त्री अपने पति के उस व्यव्हार को अभिनय द्वारा प्रदर्शित करने का प्रयास करती
है, जिसकी अपेक्षा वह दैनिक जीवन में करती है ।परम्परा और संस्कृति के नाम
पर स्त्री को सिर से लेकर पाँव तक ढँक देने की प्रथा, रिवाज़ या रीति के बंधन से
कुछ क्षणों के लिए ही सही, वह
स्वयं को मुक्त अनुभव करती है ।यह ऐसा समय था जब मूलत: गाँवों में घूँघट प्रथा का
प्रचलन बहुत था, जिसके कारण न जाने कितनी बार कुँए से पानी भर कर लाती स्त्रियाँ
घूँघट के कारण ठोकर खाकर राह में गिरी होंगी, न जाने कितनी
ही बार चिलचिलाती गर्मी में पूरा परिधान पहने रहने के कारण शरीर पर घाव जैसे निशान
बन आये होंगे ।किंतु यदि वर्तमान समय की बात की जाए तो कोरोना काल की भीषण मार से
गुजर रहे विश्व में जहाँ पुरुषों को मुंह पर सुरक्षा कवच के रूप में उपयोग होने
वाले मास्क को लगाने से ही दम घुटने जैसा अनुभव होता है,वहीं
वे एक बार भी यह अनुभव नहीं करते कि उन्होंने तो एक लम्बे समय से पर्दा प्रथा को
प्रचलित कर स्त्री के स्त्रीत्व को ही दबाने के हरसंभव प्रयास किये हैं ।
स्त्री
प्रतिकार और अस्मिता–
जिस प्रकार
स्त्री शोषण, छूआछूत, जांत-पांत सम्बन्धी प्रश्नों को लेकर विष्णु प्रभाकर तर्क करते हैं ठीक
वैसा ही मानना है स्त्री और आदिवासी स्वर की मुखर आवाज़ लेखिका रमणिका गुप्ता का ।स्त्री
को सदैव अपने से कमतर आंकने की पुरुष की प्रवृति के सम्बन्ध में वे लिखती हैं कि –“औरत
के साथ व्यव्हार दुनिया की सभी संस्कृतियों में एक जैसा रहा है, लोग उसे संपत्ति
मानते रहे हैं, पर स्तर का अंतर है, व्यव्हार का अंतर है । औरतों से पेश आने के
अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग तौर-तरीकें हैं ।”21लेखिका के कथनानुसार
विश्व के सभी देशों में स्त्री शोषण के विभिन्न तरीकों की एक लम्बी परम्परा रही है
। बस उनके व्यवहृत रूप सब स्थानों पर भिन्न-भिन्न रहे हैं ।स्त्री के लिए कभी
स्थितियां अनुकूल नहीं रही हैं। उसे सदैव अपना मार्ग बनाने के लिए हर उस व्यवस्था
से टकराना पड़ा है जो स्त्री को घर की साज-सज्जा के सामान से अधिक कुछ नहीं समझती
है। उसे संपत्ति के रूप में देखे जाने की प्रवृत्ति पुरुष-प्रधान समाज की विशेषता
है । यही कारण है कि अपने अधिकारों की मांग करने वाली हर उस स्त्री का इस समाज
द्वारा बहिष्कार और चरित्र हनन करने का प्रयास किया गया है जिसने पुरुष के समान ही
स्वयं को आदर-सम्मान और प्रतिष्ठा दिए जाने के प्रति आवाज़ उठाई है ।
विष्णु प्रभाकर की आत्मकथा में वे स्वयं माँ, दादी, चाची, बहन
के साथ परम्परा, रीति-रिवाजों के नाम पर होने वाले भेदभाव का
विरोध करते हुए दिखाई देते हैं । वे स्त्री की सहभागिता को स्वीकारते हैं और उसे
पुरुष के समान अधिकार और सम्मान दिए जाने की वकालत करते हैं ।किशोरावस्था में सगाई
हो जाने और भावी पत्नी की अकाल मृत्यु हो जाने से जुड़े संस्मरण को साझा करते हुए
लेखक लिखते हैं कि- मेरी कम उम्र में शादी कर दी गई। कुछ दिनों बाद ही मेरी पत्नी
की मृत्यु हो गई। उसके पिता ने तब उसकी छोटी बहिन से विवाह करने का प्रस्ताव मेरे
सामने रखा । मैं तब विवाह नहीं करना चाहता था । मैंने निश्चय कर लिया था कि 26वें वर्ष में ही शादी करूँगा और जातपांत तोड़कर करूँगा ।
मेरे भावी ससुर स्वयं मेरे पास आए । लेकिन मैं अडिग था।”22इस संस्मरण के माध्यम से जहाँ तत्कालीन बाल-विवाह परम्परा के साथ
ही विवाह संस्था को लेकर आ रही जन-समाज में जागरूकता दिखाई देती है, शिक्षित और
सजग किंतु सीमित पुरुष तबके में जांत-पात के बंधन से परे मनुष्य को मनुष्य के रूप
देखने की प्रवृत्ति उभर रही थी, वहीं एक ऐसा प्रश्न भी आ खड़ा होता है जो स्त्री की
अस्मिता और पुरुष के जन्मजात अधिकार से जुड़ा है । भावी पत्नी की अकाल मृत्यु हो
जाने पर लेखक को न किसी प्रकार के अपशब्दों द्वारा ससुराल और समाज द्वारा ही
सुशोभित किया जाता है और न ही भविष्य में होने वाले उनके विवाह की संभावनाएं ही
समाप्त हो जाती हैं अपितु उनके ससुर द्वारा अपनी छोटी बेटी का विवाह लेखक से कर
देने का प्रस्ताव भी उनके सामने विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है ।
किंतु प्रश्न यह है कि इस के ठीक विपरीत यदि लेखक की अकाल मृत्यु हो गई होती तब
क्या उनकी भावी पत्नी को भी समाज अपशकुनी जैसे भांति-भांति के शब्दाभूषणों से
अलंकृत किये बिना स्वीकार लेता? या उनके पास भी भविष्य में किसी अन्य पुरुष से विवाह करने का विकल्प खुला
होता? तत्कालीन समाज में स्त्री जिस पुरुष-प्रधान समाज का
हिस्सा थी, संभवत: वहां तो उसे ये अवसर कभी प्राप्त हो ही
नहीं सकते थे ।
निष्कर्षत: कहा जा सकता
है कि इसआत्मकथा में स्त्री की अस्मिता और उसके अस्तित्व से जुड़े गंभीर प्रश्नों
को उठाया गया है किंतु एक ओर जहाँ इस आत्मकथा में स्त्री को लेकर प्रगतिशील
दृष्टिकोण का उत्थान देखने को मिलता है वहीं
दूसरी ओरस्त्री पर होते अत्याचारों, शोषण और उत्पीड़न में साझेदारी के अव्यक्त लक्षण दिखाई देते हैं ।इस
आत्मकथा में पुरुष के उन सभी रूपों को देखा जा सकता है जहाँ वह शोषक और सहचर दोनों
ही भूमिकाओं का निर्वहन करता है ।किंतु सहचर की भूमिका उसके लिए हर बार नई चुनौती
लेकर आती है जब लेखक के पिता द्वारा पत्नी को घर के कामों में सहयोग करने पर अपने
छोटे भाई द्वारा ताने सुनने पड़ते हैं। इसका कारण यह भी रहा है कि पितृसत्तावादी
समाज में पुरुष कभी भी स्त्री का सहचर बनकर नहीं रहा है अपितु वह मालिक और संरक्षक
की भूमिका में रहा है । ऐसे में किसी पुरुष द्वारा इस परम्परा के विरुद्ध जाकर
स्त्री का सहयोगी हो जाना पुरुष-प्रधान समाज के लिए कदापि ग्राह्य नहीं था ।
यही कारण है कि स्त्री का सहयोगी बनने की कामना रखने वाले हर प्रगतिशील पुरुष
को समाज के एक ‘अहमवादी तबके’ द्वारा सदैव तिरस्कृत किया जाता रहा है ।जहाँ विष्णु
प्रभाकर ने अपने जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली परिवार और समाज की
स्त्रियों की अस्मिता के प्रश्नों को पाठकों के सामने प्रगतिशील दृष्टि के साथ रखा
है वहीं उनके परिवार के अन्य पुरुष अपने सभी स्त्री सम्बन्धी रिश्तों-नातों में इस
ओर उदासीन दिखाई देते हैं ।विष्णु प्रभाकर की आत्मकथा ‘पंखहीन’ में स्त्री के वे
सभी रूप दिखाई देते हैं जिनमें वह दासी, अनुगामिनी से लेकर निडर, निर्भीक, साहसी और तारणहार
की भूमिका में दिखाई देती है। स्त्री संघर्ष के इतिहास की एक छोटी सी झाँकी इस
आत्मकथा के माध्यम से देखी जा सकती है ।
इस आत्मकथा में विशेष यह है कि लेखक ने अधिकांशत: पुरुष दृष्टि से नहीं अपितु
अपने भीतर की स्त्री दृष्टि से स्त्री के विविध रूपों को व्याख्यायित किया है,जहाँ
एक ओर वह हरियाणा की लोक-संस्कृति की परिचायिका है, घर की पढ़ी-लिखी और समझदार बेटी
है, एक घर की डगमगाती आर्थिक स्थिति को संभालने वाली रक्षक है, अबोध से समझदार और
किशोर होते अपने बालकों की शिक्षिका, मार्गदर्शक है तो वहीं दूसरी ओर वह पढ़ी-लिखी लाचार महिला जो परिवार की
अनुमति के बिना घर से बाहर की दुनिया से साक्षात्कार न कर पाने को विवश है, जो
दिन-प्रतिदिन बिगड़ती आर्थिक परिस्थितियों को देखकर भी निष्क्रिय बने रहने को मजबूर
है, वह जो अपने जातिगत व्यवसाय जैसे नाइन, मनिहारिन और सफाईकर्मी के रूप में बेगार करने को बाध्य है ।स्त्री के ऐसे
ही विभिन्न रूपों को इस आत्मकथा द्वारा देखा और समझा जा सकता है । जो न केवल
जातिगत शोषण झेलने को विवश है वरन् दोहरी मार झेलते हुए ‘स्त्री होने के नाते’
पुरुष से मिलने वाली यातना को बिना प्रतिकार किये भुगतने को बाध्य है । वह जातिगत
व्यवसाय करने के अतिरिक्त घर के सभी कार्यों को करने को बाध्य है, जिसका वेतन उसे
किसी भी रूप में कभी नहीं मिलता है । वह बेगार के रूप में हर स्थान पर मजदूरी करने
को विवश की जाती है । दैनिक शोषण के इस जंजाल से निकलने या फिर इसका प्रतिकार करने
के मानसिक बोध का विकास तक उसमें न होने पाए इस बात का ख़याल बहुत व्यवस्थित ढंग से
पुरुष-प्रधान समाज द्वारा रखा गया है । जिसके तहत स्त्री को शिक्षा के अधिकार से
वंचित रखा गया, बाल विवाह द्वारा बाल्यकाल से ही उसे संपत्ति
के रूप में माता-पिता के घर से सास-ससुर के घर में हस्तांतरित किया जाता रहा । जहाँ
सिवाय घर की सेविका के उसका अपना कोई अन्य अस्तित्वदिखाई नहीं देता है ।लेखक ने
तत्कालीन समाज और पारिवारिक माहौल में स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री शोषण के
मानसिक और व्यावहारिक ढ़ांचे के उन रूपों को दृश्य-बिम्ब के माध्यम से प्रस्तुत
किया है जिसे अपने घरों में हम सबने देखा
और जिया है किंतु कलम के माध्यम से उसे व्यक्त करने का साहस,
पुरुष प्रधान समाज की कुटिल नीति को कुछ गिने-चुने लेखक और लेखिकाएं ही जुटा सकी
हैं । इस आत्मकथा का मूल्यांकन करने पर और लेखक की आत्मकथा के शेष दोनों अंश
क्रमशः ‘मुक्त गगन में’, ‘और पंछी उड़ गया’ में उनके दो
व्यक्तित्व उभर कर सामने आते हैं । जहाँ एक ओर वे पंखहीन में स्त्री अधिकारों का
पुरजोर समर्थन करते हुए अपनी माँ के निर्भीक, साहसी और तारणहार जैसे व्यक्तित्व का
गुणगान करते नहीं थकते वहीं आत्मकथा के
शेष दोनों अंशों में स्वतंत्रता आन्दोलन और उसके बाद के समय में अपनी पत्नी के
प्रति उनकी उदासीनता, उसी इतिहास को दोहराने लगती है जिसका उल्लेख वे अपने पिता
द्वारा उनकी माँ के साथ किये गए व्यवहार के रूप में पंखहीन में करते हैं । जहाँ एक
ओर वे अपने घर-परिवार, समाज और परिवेश की स्त्रियों के अधिकारों की लड़ाई को
क्रांति का रूप देने को प्रयासरत दिखाई देते हैं वहीं उन्हीं के परिवार के ऐसे
सदस्य जो स्त्री को संपत्ति से अधिक कुछ नहीं समझते हैं, उनके द्वारा किये जाने
वाले अत्याचारों के विरुद्ध कलम चलाते हैं ।इस आत्मकथा में स्त्री अस्मिता से जुड़े
लगभग हर पहलू का संस्मरणों के माध्यम से अतीत से वर्तमान तक का सफ़र दिखाया गया है ।
सन्दर्भ :
- प्रभाकर, विष्णु, पंखहीन, राजपाल एण्ड सन्ज़ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2012, पृष्ठ– 36
- सुजाता, आलोचना का स्त्री पक्ष : पद्धति परम्परा और पाठ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2021, पृष्ठ 21
- यादव, राजेन्द्र,आदमी की निगाह में औरत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2014, पृष्ठ-16
4.
प्रभाकर, विष्णु, पंखहीन, राजपाल
एण्ड सन्ज़ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
संस्करण-2012, पृष्ठ–26
- वही, पृष्ठ–37-38
- वही, पृष्ठ-53
- वही, पृष्ठ- 76
- पांडे,मृणाल, स्त्री : देह की राजनीति से देश की राजनीति तक, राधाकृष्ण
प्रकाशन, दिल्ली, तृतीय
संस्करण-2011,पृष्ठ-14
- प्रभाकर, विष्णु, पंखहीन, राजपाल एण्ड सन्ज़ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2012,पृष्ठ- 77
- वही, पृष्ठ-77
- वही, पृष्ठ-56
- अपने-अपने पिंजरे, भाग-1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी
प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2000, पृष्ठ 61
- प्रभाकर, विष्णु, पंखहीन, राजपाल एण्ड सन्ज़ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2012, पृष्ठ -35
- वही,पृष्ठ-36
- पांडे,मृणाल, स्त्री : देह की राजनीति से देश की राजनीति तक, राधाकृष्ण
प्रकाशन, दिल्ली, तृतीय संस्करण-2011,पृष्ठ-71
- प्रभाकर, विष्णु, पंखहीन, राजपाल एण्ड सन्ज़ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2012, पृष्ठ-46
- वही, पृष्ठ-62
- वही, पृष्ठ-111
- वही, पृष्ठ-37
- वही, पृष्ठ-75
- गुप्ता, रमणिका, आपहुदरी, दोहरे मापदण्ड, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम प्रकशन-2015, पृष्ठ-70
- प्रभाकर, विष्णु, पंखहीन, राजपाल एण्ड सन्ज़ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2012, पृष्ठ-130
हिंदी अध्ययन केंद्र, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सेक्टर-29, गांधीनगर, गुजरात-382030
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अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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