इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं लोकतंत्र
- डॉ. साकेत सहाय
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने सक्रिय उद्गम के बाद से ही सरकार की प्रशासनिक भूलों, घोटालों और कमियों का पर्दाफश करता आया है। साथ ही यह माध्यम सक्रियता से सरकार के अच्छे कार्यों को भी उजागर करता है। सरकार की अच्छाइयों, बुराइयों को उजागर कर यह माध्यम अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों का निर्वहन करता आया है। हालांकि कई बार यह माध्यम अपने कर्तव्यों से विमुख भी नजर आता है। कई बार इसे सरकार की खामियों, जन शिकायतों और जन कठिनाइयों को अभिव्यक्त करने में तथा सरकारी नीतियों के कार्यान्वयन के बारे में तटस्थ रिपोर्ट तैयार करने में संघर्षो का सामना भी करना पड़ता है। दो-तरफा संवाद द्वारा यह माध्यम जनता और सरकार के बीच महत्त्वपूर्ण और सशक्त संपर्क बनाए रखता है। ऐसा कर यह लोकतंत्र की प्रमुख व्यवस्था यानी जनता के साथ संवाद और जनता की समस्याओं को सरकार तक पहुँचाने के महत्त्वपूर्ण कार्य को सफलतापूर्वक अंजाम दे रहा है। इस प्रकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपने कर्तव्यों व दायित्वों के उचित निर्वहन द्वारा भारतीय राष्ट्र राज्य की मजबूती में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है।
आज की युवा पीढ़ी पहले से ज्यादा अपने मौलिक अधिकारों, नागरिक अधिकारों, मानवाधिकारों के प्रति जागरुक हुई है। आज का नागरिक समाज स्त्री-पुरुष समानता, जाति समानता जैसे मुद्दों के प्रति पहले से अधिक संवेदनशील और जागरुक बना है। लोग अपेक्षाकृत अधिक परिवर्तनोमुखी हुए है। जीवन गुणवत्ता के प्रति अधिक जागरुक हुए है। आधुनिक प्रायोगिक तकनीक को स्वीकार कर रहे है। इन सभी से हमारा लोकतंत्र मजबूत हुआ है और इन सभी में मीडिया की जबरदस्त भूमिका रही है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी ज़रूरत है जनता के साथ उचित व परस्पर संवाद। उचित और परस्पर संवाद के लिए सबसे बड़ा तत्त्व है जनभाषा का प्रयोग। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपने बेहतर प्रसार के लिए जनभाषा हिंदी को चुना। जनभाषा हिंदी के बल पर ही इस माध्यम ने इतने कम समय में देशभर में अपनी पहचान बनाई है। इस माध्यम ने हिंदी को देश की प्रमुख संपर्क भाषा, राष्ट्रभाषा के रूप में बल प्रदान किया है। जो वास्तव में सैकड़ों साल से राष्ट्रभाषा के रूप में विद्यमान तो थी, लेकिन इसने हिंदी को सशक्तता के साथ उसकी वास्तविक जगह देने में मदद की।
इस माध्यम ने भारत की विविधता और इसकी गहराई को दिखाकर भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने दक्षिण और उत्तर भारत के राज्यों के बीच जो भाषायी कारणों से दूरी थी उसे भी संपर्क भाषा हिंदी के माध्यम से कम कर भारतीय लोकतंत्र को मजबूत किया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी खबरों के द्वारा देश में राजनैतिक जागरुकता बढ़ाई है। 2014 का आम चुनाव, दिल्ली में वर्तमान में सत्तासीन आम आदमी पार्टी का जन्म, इसकी मजबूती में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बहुत बड़ा योगदान है। मीडिया का आधार सरल शब्दों में पत्रकारिता है। पत्रकारिता, लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ (सामंत, पादरी, जनता, पत्रकारिता) के रूप में जानी जाती है। अत: राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका पर विचार करते समय पत्रकारिता को केंद्र में रखना आवश्यक है। इस संदर्भ में भारतीय समाज के प्रथम आधुनिक पुरुष तथा भारतीय पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष राजा राममोहन राय के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं कि ‘पत्रकारिता से तात्पर्य जनता या पाठकों के समक्ष बौद्धिक निबंध प्रस्तुत करके उनके अनुभव को बढ़ाकर सामाजिक प्रगति में सहायता देना है। इसलिए पत्रकारिता का दृष्टिकोण पाठकों या प्रेक्षको को नींद से हिलाकर उठाने वाला तथा राष्ट्र की सर्वांगीण प्रगति हेतु प्रयत्नशील बनाने वाला होना चाहिए।’ एक पुरानी कहावत है ‘जहाँ शब्द अपना सामर्थ्य खो बैठता है, वहाँ पर मौन बोलता है’ टेलीविजन पत्रकारिता के ऊपर यह कथ्य काफी हद तक लागू होता है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए यह आवश्यक है कि इस व्यवस्था में देश–विदेश में होने वाली विभिन्न घटनाओं की सूचना यथारूप एवं तत्काल देश के कोने–कोने में पहुँचे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यह कार्य सफलतापूर्वक कर रहा हैं। इसके जरिए नेता एवं अधिकारीगण अपने विचार जनता तक पहुंचाते है और साधारण जनता अपनी शिकायतें, समस्याएं सरकार तक पहुंचाती है। आज वीडियो कॉंफ्रेसिंग के द्वारा आम लोग अपनी फरियादें सरकार तक पहुचाते हैं। कोरोना महामारी के बाद तो यह आम हो चला है। भारत में दूरदर्शन तथा निजी मीडिया चैनल अपने कार्यक्रमों द्वारा सरकार के विकास योजनाओं की जानकारी समाज के हर वर्ग विशेषकर वंचित तथा कमजोर वर्ग तक फैलाते है। उदाहरण के लिए कृषि दर्शन कार्यक्रम को ही लें। दूरदर्शन ने इस कार्यक्रम के द्वारा कृषि के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किया है। निजी मीडिया चैनल भी लोकतंत्र को मजबूत करने में अपने तरीके से सहयोग कर रहे है। स्टिंग ऑपरेशन, सिटिजन जर्नलिस्ट इत्यादि के जरिए निजी चैनलों ने भी अपनी भूमिका सशक्तता से दर्शायी है। विमुद्रीकरण, कोरोना महामारी के दौरान जनता ने लोक प्रसारण सेवाओं का बेहतर उपयोग देखा। हालांकि कोरोना महामारी के दौरान लोगों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कार्य को नकारात्मक नजरिए से भी देखा।
यह भी तथ्य है कि हाल के वर्षों में अधिकांश साधन संपन्न व विकसित टेलीविजन चैनल देश व देशवासियों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को निभाने में उदासीन रहे हैं। कहा जाता है, कि पत्रकारिता का सूचना प्रवाह देश की धरती को उर्वर रखता है। लेकिन यह तभी तक, जब तक पत्रकारिता की सूचनात्मक टी.वी., अखबारी खबरें शिक्षाप्रद एवं मनोरंजक हो। किंतु जब सूचना का प्रवाह देशहित को नकार दें और अखबारी और टी.वी. की सुर्खिया राष्ट्रद्रोह का पर्याय बन जाएँ तो कई बार ये देश की एकता और अखंडता के लिए ये खतरा भी साबित होने लगती है। ऐसे में कई बार पत्रकारिता के लिए स्वतंत्रता–निर्धारण की बात स्वत: अनिवार्य लगने लगती है। परंतु ऐसी स्थितियों में भी पत्रकारिता के आदर्श एवं सिद्धांत ही इसकी स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं।
वर्तमान में मीडिया में लोकतंत्र के विकास का एक बड़ा अवरोध यह है कि अधिकांश मीडिया चैनलों की कमान बड़े–बड़े कारोबारियों के हाथों में है। इन कारोबारियों की आर्थिक शक्ति और स्वार्थपरकता मीडिया की स्वतंत्रता का गला घोंट रही है। इन चैनलों का कोई भी समाचार प्रसारण देश सेवा के लिए नहीं बल्कि स्वार्थ साधने के लिए होता है। चूँकि इन चैनलों में कार्यरत् अधिकांश संपादक/ रिपोर्टर वेतनभोगी नौकर हैं इसलिए चाहकर भी वे सत्य का समर्थन और अनौचित्य का विरोध नहीं कर सकते। यह उनकी पेशागत लाचारी है और वर्तमान पत्रकारिता का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है। आज ज़्यादातर चैनल समाज के सामने सही सच को उजागर करने में असमर्थ है। सभी बड़े या छोटे चैनल किसी–न–किसी वाद से प्रेरित है और यह वाद ही उन्हें पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों से अलग राह पर ले जाता है।
पराड़कर जी ने कहा था - “समाचार पत्र के दो मुख्य धर्म हैं। एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरा उसे सदुपदेश देना। पत्रकारिता लोक शिक्षण का सच्चा धर्म है। इसी के द्वारा ही पत्रकार इस देश की और जनता की सच्ची सेवा कर सकते है। यदि हममें योग्यता हो और सचमुच हम कुछ देश सेवा करना चाहते हों तो हमें अपने पत्रों में सदा सब प्रकार से उच्च आदर्श को स्थान देना चाहिए।” वैचारिक स्वतंत्रता का अस्तित्व उच्च आदर्श के कारण ही संभव है।
लेकिन आज की इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता आम आदमी और लोक शिक्षण से कोसों दूर है। जिसका नतीजा है भारत जैसे कृषि प्रधान अर्थव्यस्था वाले राष्ट्र जिसकी 70 फीसदी आबादी गांवों में निवास करती है और इस ग्रामीण विकास का मेरुदंड है, खेती–बाड़ी की तरक्की। परंतु अधिकांश चैनल खेती और किसानी जैसे विषय को आकर्षण रहित विषय मानते हैं। जिससे किसानों की समस्याओं से ये चैनल कोसों दूर रहते हैं। वस्तुत: इन चैनलों में आम आदमी के लिए स्थान बहुत कम है। इसमें आम आदमी से जुड़ी उन्हीं खबरों के लिए जगह है जिनमें सेंसेसन हो, जो दर्शकों में उत्तेजना पैदा कर सके। इन चैनलों में ज़्यादातर उन्हीं खबरों के लिए जगह रहती है, जिससे बड़े और रसूखदार लोगों का संबंध हो। जिसका नतीजा है देश की ग्रामीण आबादी से इन चैनलों से कोसों दूर रहना। क्या चैनलों के ऐसे कार्यों से लोकतंत्र मजबूत होगा ?
आज की पत्रकारिता में व्यक्ति का दर्द, आनंद तो अवश्य उजागर होता है पर उसमें मात्र शहरी जीवन होता है। सामाजिक मूल्यों की भी अनदेखी होती है। हमारे देश की एक बड़ी आबादी आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन–बसर कर रही है। कृषि भूमि का जल स्तर गिरता जा रहा है। कृषि जोत की भूमि भी दिन–प्रतिदिन कम होती जा रही है। गरीब लोग और गरीब होते जा रहे है। न्यायालयों में हजारों मुकदमें लंबित पड़े है। इससे आम आदमी में इस व्यवस्था के प्रति विक्षोभ उत्पन्न हो रहा है। बड़े शहरों में मैट्रो परियोजनायें शुरु की जा रही हैं। लेकिन छोटे शहरों, गांवों में पैदल चलने लायक तक सड़कें मौजूद नहीं है। हालांकि विकास परियोजनाओं में गति आई है। हमारा देश कम्प्यूटर के क्षेत्र में एक बड़ी शक्ति है और इस शक्ति का इस्तेमाल देश के विकास में करने की ज़रूरत है।
देश में जबरदस्त असमानता विद्यमान है। लेकिन हमारा मीडिया से इन मुद्दों से दूरी बनाए रखता है।बाजारवाद की वैशाखी पर खड़े इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास देश की मूल और ज्वलंत समस्या के लिए पर्याप्त स्लॉट तक नहीं है। अगर है भी तो उसमें पर्याप्त तटस्थता की कमी रहती है। यह माध्यम केवल नेताओं के बयानबाजी तक सीमित रह गई है। जिससे पत्रकारिता का गौरव प्रभावित हो रहा है। इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता में एक तरह की इमीडियसी यानी पल दो पल का चिंतन विकसित होना सबसे चिंताजनक तथ्य है। इसके लिए सबसे ज़्यादा दोषी है मीडिया का विज्ञापन पर आधारित होना। आज बाजार मीडिया को संचालित कर रहा है। कभी-कभी लगता है स्वस्थ पत्रकारिता, समृद्ध साहित्य सबकुछ बीते समय की बात लगती है। दरअसल, पत्रकारिता, बेहतर साहित्य के माध्यम से ही एक समय में हमारे लोकतंत्र की मजबूत नींव रखी गई थी। लेकिन उसकी नींव को आज की पत्रकारिता जाने–अनजाने में कमजोर कर रहा है।
मीडिया की इस कमजोरी से युवा और मध्यवर्ग एक संतुलित सोच या वैचारिक स्वतंत्रता के अभाव से जूझ रहा है। किसी भी समाचार चैनल पर प्राइम टाइम प्रसारण को ही देख लें। ज्यादातर चैनल इस दौरान देशहित के मुद्दे पर केवल नेताओं के बहस को दिखाते है। चैनलों के लिए एकमात्र लक्ष्य है, टी.आर.पी.वृद्धि से। मीडिया के ऐसे कार्यों से क्या लोकतंत्र मजबूत हो पाएगा? अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है, यह ज़रूरी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनल अपने असरदार प्रसारण द्वारा संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने हेतु कार्य करें। इस हेतु पत्रकारों को बजट, विधेयक एवं संसदीय समितियों की रिपोर्टों का गंभीरतापूर्वक विश्लेषण करना होगा। ताकि उसके नतीजों की आम आदमी को जानकारी मिल सके। चुनाव किसी भी लोकतंत्र का अहम हिस्सा होते है। बिना चुनाव के कोई भी लोकतंत्र जिंदा नहीं रह सकता है। लोकतंत्र में चुनाव और चुनाव में मीडिया की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है। लोकसभा के पहले आम चुनाव से लेकर 17 वीं लोकसभा के चुनाव या बाद के चुनाव सभी में इनकी भूमिका बढ़ती जा रही है।
एक स्वस्थ और शक्तिशाली लोकतंत्र के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि मीडिया पूर्ण रूप से आजाद रहे। अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करें। खबरों की रिपोर्टिंग में जवाबदेही बरते। निष्पक्षता और पारदर्शिता रखें। यदि चैनलों को वास्तव में लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में काम करना है तो अपनी खबरों की रिपोर्टिंग में उसे निष्पक्षता से काम लेना होगा। आज की पत्रकारिता पूंजी, मुनाफा की होड़ के बीच भी टिकी रह सकती है, बशर्ते वह मुनाफे की होड़ के बदले आम आदमी की बात करे और ब्रांड के बदले जमीनी उत्पाद की महक बताए। लेकिन इसके लिए उसमें दृढ़ इच्छाशक्ति का होना अत्यंत ज़रूरी है।
जनसंचार माध्यमों को लोकतंत्र का बड़ा स्तंभ माना जाता है। मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश आखिर में लोकतंत्र को ही नुकसान पहुँचेगी। लेकिन लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह ज़रूरी है कि मीडिया मन, वचन और कर्मों से खुद को जिम्मेवार साबित करने की कोशिश करें। उदाहरण के लिए 26/11/07 के दिन मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के दौरान मीडिया की गलत रिपोर्टिंग की याद आती है। आलोचना का मुख्य आधार था मुंबई में आतंकी हमलों के वक़्त ताज होटल के सामने मौजूद दुनियाभर की समाचार एजेंसियां तथा चैनलों की विभिन्न सरकारी एजेंसियां अपने-अपने ढंग से सूचनाएं देने में एक दूसरे से होड़ कर रही थीं। इन खबरों का गलत फायदे के रूप में इस्तेमाल होटल में रुके दहशतगर्द अपना बचाव कर रहे थे। मीडिया की इस गलत रिपोर्टिग का फायदा देश व समाज के दुश्मन उठा रहे थे। ऐसे संवेदनशील मामलों पर मीडिया को रिपोर्टिंग अनुभवी पत्रकारों के माध्यम से करवानी चाहिए।
आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में रिर्पोटर से ज्यादा एंकर की भूमिका हो गई है। जिसका एक ही कार्य है वाक् या प्रेस की स्वतंत्रता की आड़ में आम आदमी की बुद्धि, शक्ति और विवेक को कुंठित कर अपनी टी.आर.पी. बढ़ाना। मीडिया के इस अतिवाद से समाज में पत्रकारिता का मूल अर्थ खोता जा रहा है। हालांकि मीडिया के इस अतिवाद में हमारे सामाजिक, राजनीतिक परिस्थियों का भी बहुत योगदान है। अधिकांश सरकारें भी मीडिया को उस हद तक स्वतंत्र नहीं देखना चाहती। इसी का नतीजा है कि सरकारी समाचार चैनल भी एक सीमा से अधिक तटस्थता के साथ पत्रकारिता के दायित्वों का निर्वहन नहीं करते। सरकार के बाहर के निजी चैनलों के अधिकांश मालिक भी बनिए है जिनका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है। इन परिस्थितियों में उम्मीद की किरण धुंधली पड़ जाती है। यह मीडिया के लिए सोचने का समय है कि उसे लोकतंत्र के प्रति जो दायित्व मिला है उसकी पूर्ति का दायित्व क्या केवल सरकारी खबरिया चैनलों का ही है। निजी चैनलों की ऐसी भूमिका का ही नतीजा है कि दूसरे देशों के मुकाबले भारत में सरकारी मीडिया पर लोग ज़्यादा भरोसा करते हैं।
मीडिया हमारे लोकतंत्र का बड़ा स्तंभ है। उसे नियंत्रित करने की कोई भी कोशिश आखिर में लोकतंत्र को ही नुकसान पहुँचाएगी। लेकिन यह भी ज़रूरी है कि पूरा मीडिया मन, वचन और कर्मों से खुद को जिम्मेदार साबित करने की कोशिश करे। मीडिया को अपनी गैर जिम्मेदारी को जायज ठहराने के बहाने नही बनाना चाहिए। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है। ऐसे में क्या मीडिया की ऐसी नकारात्मक भूमिका से मीडिया के चौथे खंभे का दर्जा कमजोर पड़ जाएगा। अब तो यह भी सवाल उठाया जाता है कि मीडिया संस्थानों को भी सूचना के अधिकार कानून के तहत लाया जाना चाहिए। लोकतांत्रिक भारत के निर्माण में मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका आलोचनाओं के बावजूद अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कोई भी मीडिया माध्यम अपने–आप में निर्जीव होता है। मीडिया में प्राण प्रतिष्ठा होती है तो उसके कथ्य के रूप में। इसलिए कथ्य हमेशा राष्ट्रहित में हो, यह बहुत ज़रूरी है। अर्थात मीडिया की भूमिका तभी सही तरह से निभाई जा सकती है, जब मीडिया एक मिशन के रूप में राष्ट्रहित को समर्पित हो। इसके लिए पत्रकारिता के दृष्टिकोण में सुधार लाना आवश्यक है। इसमें आम जनता का सहयोग आवश्यक है।
मीडिया की साख और प्रतिष्ठा को बचाने के लिए भी यह आवश्यक है समाचार चैनल आत्म-मूल्यांकन करें। विज्ञापन और समाचार के बीच की धुंधली या खत्म होती जा रही लक्ष्मण रेखा को ढृढ़ता से खींचने की ज़रूरत है। विज्ञापन को आधार बनाकर एडवोटोरियल दिखाने का प्रयत्न मीडिया की साख पर भी खतरा पैदा कर रहे हैं। भ्रष्ट्राचार और मिलीभगत में शामिल संपादकों और रिपोर्टरों पर सरकार तथा मीडिया संस्थान दोनों को मिलकर लगाम कसनी चाहिए। ऐसी कार्रवाइयों से ही मीडिया की साख बचेगी और हमारा लोकतंत्र सशक्त होगा।
अध्ययन स्रोत
- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : भाषिक संस्कार एवं संस्कृति
डॉ. साकेत सहाय
लेखक एवं शिक्षाविद
संप्रति- पंजाब नेशनल बैंक के मण्डल कार्यालय,पटना (दक्षिण) में मुख्य प्रबंधक-राजभाषा के रूप में कार्यरत।
hindisewi@gmail.com, 8800556043
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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