मीडिया-तटस्थता, सामाजिक यथार्थ और मूल्य
-डॉ. दीपक श्रीवास्तव
मीडिया विषयक यह तथ्य, कि ‘मीडिया जनमानस में व्याप्त अप्रकट विचार एवं प्रवृत्तियों को स्वर देता है और प्राय: विचार को क्रिया में परिणित करवाने में सहायक होता है’, विशेषकर भारत में, स्वयं को चुनाव जैसे अवसरों पर, तब और अधिक स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है जब साधारणतया उदासीन मतदाता को मीडिया कवरेज द्वारा न केवल वोटिंग के लिए प्रेरित किया जाता है अपितु प्रमोट किये जाने वाले प्रत्याशी अथवा दल के लिए समर्थन एवं धन और संसाधन जुटाने के लिए भी फुसलाया जाता है। राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक इत्यादि विचारधाराओं से सम्बद्ध इंटरेस्ट समूह, बहुधा अनधिकारिक और अव्यवस्थित ओपिनियन पोल आयोजित करवाते हैं और स्थापित मीडिया में अपने वांछित नतीजे प्रकाशित करवाकर अपनी छद्म रिपोर्टों और तदनुरूप छद्म उद्देश्यों को मान्यता दिलवाने का कार्य करते हैं। अतः यह कथन कि, “मीडिया दर्शक-ग्राहकों के सम्मुख सूचनाएं परोसने और उन्हें बिना किसी आलोचनात्मक और सचेत विश्लेषण के स्वीकार करवाने की उद्भुत क्षमता से संपन्न होते हैं”[2]- निरर्थक नहीं है।अपनी सुस्पष्ट भूमिका के विपरीत, आधुनिक मीडिया बहुधा अपने निष्पक्ष मत-निर्माण के दायित्व को त्याग कर ऐसे नेरेटिव गढ़ने का कार्य करते हैं जो हकीक़त से बहुत दूर होते हैं, और इस प्रकार मीडिया एक समानान्तर सामाजिक सत्य के सृजक और नियंता बन बैठते है । मीडिया-नैतिकता पर तनिक चिंतन यह उजागर कर सकता है की मीडिया की वास्तिविक भूमिका क्या है अथवा होनी चाहिए, और वास्तव में, या तो अज्ञानवश या फिर सोची समझी नीति के तहत, वह क्या करते हैं ? ठीक ही विचार व्यक्त किया गया है कि, “मीडिया का एक कार्य सामाजिक घटनाओं, वस्तुस्थितियों, प्रविधियों और हलचलों का ब्यौरा प्रस्तुत करना है। मीडिया का कार्य विभिन्न सामाजिक घटकों, व्यक्तियों, समूहों, समाजों और संस्थाओं इत्यादि के मध्य मध्यस्तता करना; जनसंचार का माध्यम बनना है। किन्तु मीडिया प्राय: सूचनाओं की पक्षपातपूर्ण व्याख्या और भ्रामक विश्लेषण से ऐसे सामाजिक यथार्थ का ‘निर्माण’ करते हैं जो इंटरेस्ट समूहों अथवा सत्ता के केन्द्रों के हितसाधक होते है । ”[3] ...“ऐसी ख़ूबसूरती की कल्पना कीजिये जिसमे समस्त वीभत्सता समाहित हो: यह फैशन है। ऐसे सत्य की कल्पना कीजिये जिसमे झूठ की सम्पूर्ण शक्ति समाहित हो : यह अनूरूपण (सिम्युलेशन) है । ”[4]
सामाजिक यथार्थ-निर्माण के अर्थ को भली प्रकार से समझने के लिए यथार्थवाद की दार्शनिक अवधारणा जानना आवश्यक है। दार्शनिक यथार्थवाद के दो प्रमुख रूप हैं – तत्वमीमान्सीय यथार्थवाद और ज्ञानमीमान्सीय यथार्थवाद।तत्वमीमान्सीय यथार्थवाद के अनुसार जड़ अन्ततोगत्वा सत है। जड़ के सत होने से बाह्य (अनात्म) जगत, जिसे हम भौतिक जगत कहते हैं, भी सत है। ज्ञानमीमान्सीय यथार्थवाद के अनुसार ज्ञान का विषय ज्ञाता से स्वतन्त्र है तथा ज्ञाता द्वारा नहीं जाने जाने की स्थिति में भी उसकी सत्ता (विज्ञानवादी दृष्टिकोण के विपरीत[5]) अप्रभावित है। ज्ञाता चेतन है और ज्ञान के विषय से सम्बद्ध होने पर अनुभव द्वारा प्रभावित होता है। इस प्रकार सामाजिक यथार्थ का अर्थ हुआ समाज की वह वास्तविक (वैचारिक, सांस्कृतिक राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक इत्यादि ) स्थितियां जो किसी भी विशिष्ट समाज सदस्य पर आश्रित न होकर सम्पूर्ण समाज की गत्यात्मकता का वर्तमान परिणाम हों। सामाजिक यथार्थ का स्वरूप ज्ञाता की चेतना (उसके विचार, संवेग प्रतिक्रिया, अदि ) को प्रभावित करता है। ज्ञाता के मनस पर अंकित होने वाले प्रारूप - प्रतिमानों, छविओं और धारणाओं का रूप ले लेते हैं और व्यक्ति के व्यवहार में परिलक्षित होते है। पुन: व्यक्ति के विचार और व्यवहार से सामाजिक-यथार्थ निर्मित होता है। व्यक्ति और समाज के मध्य यह अन्तरक्रिया निरंतर गतिमान रहती है।पीटर बर्गर एवं थॉमस लुकमान [6] जैसे समाजविज्ञानियों ने यही तथ्य बार-बार दोहराई जानेवाली आदतों के रूप में प्रस्तुत किया है। समाजविज्ञानी थॉमस दम्पति के अनुसार, “मनुष्यों का व्यवहार वस्तुनिष्ठ सत्य की अपेक्षा उनके सत्य के आत्मनिष्ठ निरूपण (निर्मिति) द्वारा नियत हो सकता है।”[7] अन्य शब्दों में किसी समूह के प्रबल विश्वास और विश्वासजन्य व्यवहार, यदि क्रियान्वित किये जाएँ, तो स्व-साधक मिथ्यात्मक भविष्य-कथनों को भी यथार्थ में परिणत कर सकते हैं।”[8]
यदि मनुष्य ऐसे मिथ्या विश्वास पर अमल करते हैं तो वह परिणामतः यथार्थ बन जाता है। यदि मनुष्य किन्ही स्थितियों को सत्य के रूप में परिभाषित करते हैं तो वह स्थितियां परिणामतः सत्य हो जाती हैं।”[9]
मीडिया की अप्रतिम प्रभाव उत्पादक क्षमता को दृष्टिगत रखते हुए यह प्रश्न सदैव उठता रहा है कि मीडिया का वास्तविक कार्य क्या केवल सत्य दिखाना है, अथवा जनमत को प्रभावित करना भी मीडिया के प्रमुख कार्य का अंग है? विभिन्न प्रकार से उठनेवाले इस प्रश्न का निचोड़ यह है कि मीडिया मूल्य-तटस्थ होना चाहिये अथवा मीडिया कुछ (मूलभूत) मूल्यों का वाहक/पोषक भी होने चाहिये? मीडिया एवं बहुत से अन्य क्षेत्रों से यह स्वर मुखरित होता है कि मीडिया का सरोकार केवल तथ्यों की प्रस्तुति होता है, प्रस्तुति के प्रभाव अथवा परिणाम नहीं। मीडिया को तथ्यों का केवल वैसा ब्यौरा प्रस्तुत करना चाहिए जिस रूप में वह प्राप्त होते हों : बिलकुल सादा और अविकृत (असंशोधित ) रूप में।तथ्यों को पर्याप्त और पवित्र माननेवालों का यह निश्चित मत है कि सत्य तथ्यपरक होता है और मीडिया का दायित्व केवल तथ्यों को बिना किसी छेड़खानी के साथ प्रस्तुत करना है। इस प्रकार मीडिया किसी भी प्रकार के मूल्यों के दबाव से मुक्त रहते हैं, अर्थात मूल्य-तटस्थ अथवा मूल्य-निरपेक्ष रहते हैं और किसी भी प्रकार के जनमत का निर्माण मीडिया प्रस्तुति पर आधारित होते हुए भी मीडिया प्रस्तुति से स्वतन्त्र क्रिया होती है। मत निर्माण मीडिया की प्रस्तुति क्रिया का अनंतर परिणाम न होकर एक अधिलक्षण होता है। मीडिया के दायित्व के प्रति यह दृष्टिकोण एवं इसके समर्थक तर्क, प्रथम दृष्टया, अत्यंत प्रभावी और स्वीकार्य प्रतीत होते हैं। किन्तु मीडिया के इस तथ्यमूलक दृष्टिकोण के विपरीत एक प्रखर मत यह भी है कि मीडिया को संयम का निर्वाह करना चाहिए; मीडिया को प्रस्तुत्य तथ्यों के विषय में न केवल चयनात्मक होना चाहिए अपितु प्रस्तुति की शैली भी संतुलित होनी चाहिए ।इस दृष्टिकोण का आशय यह है कि मीडिया का यह नैतिक दायित्व है कि वह प्रस्तुति के संभावित प्रभावों का भी प्रसारण-पूर्व विश्लेषण करे और प्रस्तुति में विवेकशीलता बरते। इस विचार का स्पष्ट अर्थ यह हुआ के मूल्य-तटस्थता मीडिया का सद्गुण नहीं है। यह निष्कर्ष इस आधार पर निकलता है कि मीडिया प्रस्तुति स्वभावतः मूल्यपरक और चयनात्मक होती है और मूल्यपरकता एवं चयनात्मकता के रहते मीडिया मूल्य-तटस्थ नहीं हो सकते। संयम, उत्तरदायित्व, उचित, उनुचित, इत्यादि संप्रत्ययों के नैतिक मायने ही यह हैं कि मीडिया तटस्थता जैसी धारणा अप्रासंगिक है। मीडिया के चरित्र के प्रति इस दृष्टिकोण को मूल्यांकनपरक-चयानात्मक दृष्टिकोण कहा जा सकता है। कुछ आलोचकों को यह दृष्टिकोण अस्वीकार्य प्रतीत हो सकता है, किन्तु इस दृष्टिकोण का भी एक न्यायसंगत आधार है। असंख्य तथ्यों,क्रियाओं और घटनाओं में से मीडिया कुछ को ही रिपोर्टिंग अथवा प्रस्तुति योग्य पाते हैं। प्रश्न यह उठता है कि प्रस्तुति योग्य पाए जाने या चुने जाने का आधार क्या है ? वह कौन से तत्व हैं जो असंख्य तथ्यों और घटनाओं में से कुछ को ही मीडिया हेतु उपयुक्त चयन बनाते हैं। अन्य शब्दों में किस अन्तःप्रज्ञा अथवा अंतर्ज्ञान से यह निश्चित होता है कि अनेक में से कौन सा तथ्य या घटना मीडिया प्रस्तुति योग्य है ? निश्चित ही कोई मूल्य-चेतना; कोई मूल्यापेक्षा ऐसे चयनों का आधार होती है ; निश्चय ही कोई मूल्यबोध तथ्य और घटना के चयन और प्रायिकता निर्धारण में अन्तर्निहित होता है। न केवल चयन की क्रिया, अपितु क्रिया के मूल में चयन की अवधारणा, जिसका आवश्यक प्रस्थापन है कि असंख्य में से कुछ ही (तथ्य या घटनाएँ) प्रस्तुति हेतु चयन के योग्य हैं। यह चयन ही मूल्यांकन के मानदंड की पूर्वधारणा रखता है। यह चयन आकस्मिक नहीं होता। चयन की क्रिया मीडिया या मीडिया कर्मी की मान्यताओं पर आधारित होती है। कोई भी चयन तटस्थ नहीं हो सकता। प्रत्येक चयन आवश्यक रूप से मूल्यांकन की पूर्वापेक्षा रखता है और चेतना में अवस्थित मूल्यों के द्वारा निर्धारित होता है। मीडिया द्वारा प्रस्तुति हेतु चयन के उपरांत भी घटना के विषय में यह प्रश्न उपस्थित रहता है कि घटना के कारक क्या थे तथा घटना का कोई विशिष्ट प्रयोजन था अथवा घटना कुछ कारणों के रहते निष्प्रयोजन ही घटी ? इस प्रकार के कारणों और प्रयोजनों के विश्लेषण स्वभावतः विवरणात्मक न होकर मूल्यात्मक होते हैं और मीडिया एवं मीडिया-कर्मी के मूल्य-बोध से प्रभावित होते हैं। यही मूल्यांकन प्रस्तुति की शैली को भी प्रभावित करता है। मीडिया की इस स्वभावगत चयनात्मकता, विश्लेषण और प्रस्तुति से मीडिया वास्तविक रूप में मत-वातावरण का निर्माण करता है तथा बहुधा एक इमोटिव (संवेगात्मक) कार्य निष्पादित करता है ।
मीडिया की कार्य-विधि के सम्बन्ध में संक्षिप्त रूप से उपरोक्त प्रस्तुत दो मत यह स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि मूल्य-तटस्थता मीडिया का वांछनीय गुण हो सकता है, किन्तु यह न केवल व्यवहार मैं अप्राप्य है बल्कि सैद्धांतिक रूप से भी असंभव है । इस प्रकार मीडिया की भूमिका के सम्बन्ध में उपयुक्त प्रश्न यह नहीं है कि मीडिया को मूल्य-तटस्थ होना चाहिए अथवा मूल्य-सापेक्ष ? मीडिया की भूमिका के विषय में उपयुक्त प्रश्न वास्तव में यह है कि मीडिया को किस प्रकार के मूल्यों का संवाहक होना चाहिए ? यह प्रश्न एक (मीडिया) नीतिशास्त्रीय प्रश्न है। नैतिक सिद्धांत स्वभावतः सार्वभौमिक होते हैं। अतः हमारे लिए, प्रश्न की गंभीरता और व्यापकता को रेखांकित करते हुए, इस प्रश्न पर नीतिशास्त्रीय विमर्श हेतु, किसी व्यापक, गंभीर और पर्याप्त रूप से प्रासंगिक समूहों द्वारा पक्ष समर्थित, समस्या को उदाहरण के रूप में लेना उचित होगा। हम आतंकवाद की समस्या को उदाहरण के रूप में लें- जो व्यापक, गंभीर और पर्याप्त रूप से प्रासंगिक समूहों द्वारा पक्ष समर्थित समस्या के रूप में चिन्हित है। आतंकवाद की समस्या की मीडिया कवरेज के आधार पर मीडिया की मूल्य तटस्थता और मूल्य सापेक्षता की स्थिति संभवततया अधिक स्पष्ट हो सकेगी।
यदि एक ओर मीडिया आमजन को अपने सूचना देने के कार्य हेतु सराहे और प्रेरित किये जाते रहे हैं तो वहीं दूसरी और मीडिया पर पक्षपात के आक्षेप भी लगते रहे हैं । तथ्यों को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करने, जनभावनाओं को भड़काने, तुष्टिकरण करने, इत्यादि के लिए मीडिया जनालोचना के शिकार बनते रहे हैं । अप्रत्याशित विश्व्यापी आतंकवाद और उसकी मीडिया रिपोर्टिंग के स्वरूप के कारण मीडिया नीतिशास्त्र का प्रश्न वर्तमान में अत्यधिक प्रासंगिक हो गया है। एक विशेष प्रकार के मूल्य-समूह का संवर्धन करनेवाले मीडिया की किसी अन्य प्रकार के मूल्यों के पक्षधर समूहों द्वारा आलोचना का एक बड़ा कारण यह है कि आतंकवाद स्वयं में एक अत्यधिक नकारात्मक अवधारणा है। क्योंकि आतंकवाद का अभिप्राय: हत्या, निर्लिप्त-निर्दोष लोगों को डराना-धमकाना, स्वतंत्रता का हरण, वहशत, दहशत और अन्यायपूर्ण हिंसा, मानवाधिकारों का हनन, इत्यादि है- अतः कोई भी देश आतंकवाद का पक्षधर नहीं कहलाना चाहता। किन्तु साथ ही कोई भी राष्ट्र स्वयं के द्वारा की गयी न्यायसंगत (उसकी स्वयं की दृष्टि में) हिंसा को आतंकवाद (का रूप) नहीं मानना चाहता। पुरानी कहावत है – ‘एक मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए हथियार उठानेवाला किसी अन्य मनुष्य की दृष्टि में आतंकवादी होता है’[10],
और इस प्रकार जब मीडिया किसी एक समूह के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करता है, जैसा कि वह करने के लिए बाध्य है, तो वह विरोधी पक्ष द्वारा आलोचना का पात्र बनता है। यह गहरा और जटिल विरोधाभास अनेक लोगों को वास्तविक नीतिशास्त्रीय मुद्दा न होकर, केवल राजनैतिक चातुर्य के विषय के रूप में अनावश्यक प्रतीत हो सकता है।
किन्तु एक अधिक गंभीर स्थिति तब उत्पन्न होती है जब आतंकवाद के मीडिया से सम्बन्ध के विषय में विशुद्ध रूप से निष्पक्ष और निर्लिप्त चिंतन कुछ चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है। आतंकवाद और युद्ध विश्व और मानवता के सम्मुख सर्वाधिक गंभीर चुनौतियाँ हैं। आधुनिक विश्व में मीडिया के उपयोग, प्रभाव और अपरिहार्यता के चलते मीडिया के मूल्यों के प्रश्न को न तो अनदेखा ही किया जा सकता है और न ही स्थगित किया जा सकता है। आतंकवाद पर हुए आधुनिक शोध और आलोचनात्मक अध्ययन यह स्थापित करते हैं कि मीडिया का ध्यान और कवरेज आकर्षित करना आतंक अथवा विध्वंस की क्रिया का एक महत्वपूर्ण तत्व है। उदाहरण के लिए एक शोध-परक अध्ययन के अनुसार “– विभिन्न विशेषज्ञ आतंकी घटनाओं के कुछ सामान्य तत्वों को चिन्हित करते हैं – आतंकी अपने निशाने और क्रिया का चयन समाज और सरकारों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने के उद्देश्य से करते हैं। मीडिया कवरेज आतंकी घटना के प्रभाव को विस्तृत दर्शक उपलब्ध करवाती है ; भय के प्रसारण से आतंक के आवर्धन द्वारा आतंकी उद्देश्य की पूर्ति में (मीडिया कवरेज) सहायक होती है ।”[11] आतंक बनाम मानवता के सम्बन्ध के अध्येताओं के लिए इस प्रकार के निष्कर्ष चौंकानेवाले हैं ।
एक ओर तो
मीडिया तकनीकी ने जटिल और सुभेद्य समाज में, आतंकियों के बल, क्षमता और छवि में वृद्धि की है, वहीं दूसरी ओर इसी तकनीकी ने मीडिया को भय का एक ऐसा अपरिहार्य उपकरण बना डाला है जिसके उपयोग से बहुत कम समय और अपेक्षाकृत कम लागत में बहुआयामी एवं मिश्रित प्रभाव आतंकियों द्वारा अर्जित किये जा सकते हैं । आतंकी संगठनों को यह सत्य भली प्रकार विदित है और वह प्राय: अपने कृत्यों और निशानों के स्थान और समय का प्रबंधन इस प्रकार से करते हैं कि मीडिया अधिकाधिक आकर्षित हो। वह केवल हिंसा नहीं करते बल्कि उतने ही कौशल से मीडिया आकर्षण के बल पर सूचना या प्रसारण युद्ध भी करते हैं।
कितने लोग सहानुभूति करेंगे ? आतंकी के लिए यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि कितने लोग देखेंगे और सुनेंगे और जानेंगे - अर्थात विस्तारण प्रभाव; घटना-क्रिया स्थान पर उपलब्ध दर्शक संख्या से कहीं अधिक लोग ! आतंकी कृत्य अधिकांशतया ‘कृत्य द्वारा प्रोपेगंडा’ होता है । प्रोपेगंडा का यह हिंसक प्रकार लाखों वैश्विक दर्शक उपलब्ध करवाता है, आतंकी अपनी घटना को कुछ इस प्रकार से अंजाम देते हैं कि मीडिया उनके उद्देश्यों और उनके दर्शकों के मध्य एक महत्वपूर्ण कड़ी बन जाने के लिए बाध्य हो जाता है। यह आतंकियों के लिए बड़ा लाभकारी होता है। आतंकवाद विषय के विशेषज्ञ ब्रायन जेन्किन्स का मत है, “आतंकवादी अधिकाधिक दर्शक और अधिकाधिक श्रोता चाहते हैं न की अधिकाधिक लोगों की हत्या --- मैं आतंकवाद को प्रभाव के लिए हिंसा मानता हूँ। आतंकवादी नाटकीय शैली में अपने कृत्यों का संयोजन – मंचन कुछ इस प्रकार करते हैं कि उन्हें अधिकाधिक प्रचार प्राप्त हो सके, और इस अर्थ में आतंकवाद एक थिएटर है। ”[12]
आधुनिक आतंकवाद और हिंसा के प्रयोजन प्रचार से सिद्ध होते हैं। मीडिया की लोलुपता के चलते, आतंकियों को यह प्रचार मुफ्त उपलब्ध होता है। हमने देखा है कि ऐसे समाचार चैनल भी हैं जो बहुधा सूचना के स्थान पर आतंक की आवाज की भूमिका अदा करते नज़र आते हैं। यह संभव है की ऐसे मीडिया चैनल भूमिगत संगठनों द्वारा वित्तपोषित भी होते हों। आतंकवाद के कारणों, विकास, प्रभाव और निराकरण के विश्लेषकों ने मीडिया के मूल्य-पतन पर गहरी चिंता दर्शायी है। उदाहरण के लिए विभिन्न क्षेत्रों के शोधकर्ताओं के यह निष्कर्ष कि, “आतंकवादी मीडिया से मिलनेवाले प्रचार पर आश्रित हैं और मीडिया को आतंकवादियों से अनपेक्षित हिंसा की सनसनी निरंतर प्राप्त होती है, जिसे सुनने, देखने और पढने के लिए जनता को (मीडिया द्वारा) आकर्षित किया जाता है।”[13], “मीडिया,जो कि सनसनीखेज़ समाचारों पर जीवित रहता है, और आतंकवाद, जो इस सनसनी को उपलब्ध करवाने में सदैव तत्पर रहता है, के हितों का सामंजस्य, आधुनिक मीडिया की आतंकवाद में सह-अप्राधिकता का प्रश्न खड़ा करता है। ”[14] इसी प्रकार यह विचार कि, “यदि संचार माध्यम न होते तो आतंकवादियों को उनका निर्माण करना पड़ता।” – फ्रेडरिक हेकर, ”मीडिया आतंकियों के श्रेष्ठ मित्र हैं“ - वाल्टर लाकुएर”[15] तथा “क्योंकि आतंक का लक्ष्य मीडिया और शिकार दोनों होते हैं, अतः उनकी सफलता मीडिया कवरेज से परिभाषित होती है। ” प्रोफेसर रेमंड टेंटर, जैसे मतों से ज्ञात होता है कि न केवल आतंक की सफलता एक सीमा तक मीडिया पर निर्भर करती है बल्कि मीडिया भी अपनी सनसनी की खोज, रेटिंग की लोलुपता और बहुत संभव है की धन के लिए भी, आतंकवाद का पोषक बन बैठता है।''[16]
यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि आतंकवाद अपने हर रूप में निंदनीय है। अकारण विध्वंस, और युद्ध से भी मानवता की हानि होती है। किन्तु इनकी मीडिया प्रस्तुति अक्सर कुछ ऐसी होती है - मानो मानवीय जीवन में काल्पनिक असुरों से भी विशाल चरित्रों को पाकर मीडिया-समूह हर्षित और गौरवान्वित होते हों। निसंदेह आतंकवाद, हिंसा और विध्वंस मानव जाति और मानवीयता के सम्मुख गहन चुनोतियाँ हैं, किन्तु मीडिया द्वारा इन्हें जीवन के विनाश, स्वातंत्र्य, संपत्ति और शांति के हरण के अपराजेय विजेता के रूप में प्रस्तुत किया जाना अनुचित मूल्यों का पोषण करना है। इज़राइली विचारक बोअज़ गनोर के अनुसार, “प्रजातान्त्रिक समाजों में (आतंकवाद जैसे) समस्यात्मक और संवेदनशील मुद्दों पर भी सेंसरशिप के लिए कोई स्थान नहीं है ।यद्यपि पत्रकार को अपनी पत्रकारिता-वृत्ति का निर्वाह करना चाहिए, फिर भी निज समाज के सदस्य के रूप में उसे अपने उत्तरदायित्व को नहीं भूलना चाहिए तथा आतंकवादियों के राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति का मोहरा बनने से बचना चाहिए । ”[17]
जहाँ तक मीडिया द्वारा वैकल्पिक अथवा छद्म सामाजिक यथार्थ गढ़े जाने या आरोपित किये जाने का प्रश्न है[18] – इसके परिणाम त्वरित अनुभूत न होते हुए भी अत्यंत घातक हैं। मीडिया यदि अपनी नैतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर यथार्थ चित्रण और यथार्थ आधारित मत निर्माण के कार्य को त्यागकर स्वयं ही छलपूर्वक सामाजिक यथार्थ के अवैध परिवर्तन अथवा आरोपण का कार्य करने लगें तो यह न केवल प्रजातंत्र के आधार स्तम्भ का स्खलन होगा बल्कि मानवीयता का पतन भी होगा। मनुष्य सामाजिक यथार्थ को क्यों जानना चाहता है ? निश्चय ही सत्य जानने की जिज्ञासा एक बौद्धिक प्राणी की स्वाभाविक जिज्ञासा है। यथार्थ ज्ञान ही वास्तविक समस्याओं को समझने का आधार है। समस्त सामाजिक लक्ष्य, प्रगति, नीति-राजनीति, सामंजस्य, अंतर-सामाजिक सम्बन्ध, सहकार और शांति सामाजिक यथार्थ की समग्रतापूर्ण समझ एवं सटीक विश्लेषण पर ही आधारित होते हैं। सामाजिक यथार्थ के ज्ञान के अभाव में वास्तविक समाज कल्याण और सामाजिक स्वातंत्र्य और उत्थान असंभव हैं। सामाजिक यथार्थ पर सत्ता स्वार्थ का आरोपण-विक्षेपण, स्थानीय से लेकर अंतरर्राष्ट्रीय स्तर तक गंभीर चुनौतियाँ उपस्थित करता है ; स्थानीय और अंतरर्राष्ट्रीय सम्बन्धों और व्यवस्थाओं को प्रभावित करता है; पंगु करता है। मीडिया-समूह सत्ता केन्द्रों की कठपुतली बन कर, अपनी प्रभावोत्पाद्कता की क्षमता का दुरूपयोग कर, जनमत का अपहरण कर सकते हैं और सामाजिक यथार्थ को तिरोहित कर प्रछन्न यथार्थ विक्षेपित कर सकते हैं। अतः मीडिया से अपेक्षा है कि उन्हें विवेकशीलता, संवेदनशीलता और संयम का परिचय देते हुए विरोध और संघर्ष के नैतिक रूपों और आतंकवाद, अवसादी हिंसा, विस्तारवादी युद्धों आदि के मध्य स्पष्ट भेद करना चाहिए, क्योंकि यह स्वरूपतः अनैतिक हैं। मीडिया की सहानुभूति नैतिक पक्ष के साथ इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए कि प्रसिद्धि अथवा कोई अन्य लालच उन्हें विचलित-पराजित न कर सके। एक विवेकशील और संवेदनशील पत्रकारिता सत्यशोध-परक होने के साथ-साथ मानवीय मूल्यों से प्रतिबद्ध भी होनी चाहिए। तथ्य महत्वपूर्ण हैं किन्तु तथ्यों का चयन और चयनित तथ्यों से निसरित होने वाली सूचनाओं-समाचारों के प्रभाव का उत्तरदायित्वपूर्ण पूर्वाकलन मीडिया को सदैव करना चाहिए। मीडिया की क्षमताओं का उचित उपयोग यथार्थ की निष्पक्ष प्रस्तुति में है, न कि निजी हित के भ्रामक यथार्थ गढ़ने (मिथ्यारोपण/मिथ्या-मत-स्थापन) में। मीडिया के सन्दर्भ में निष्पक्षता और पारदर्शिता का अर्थ मूल्य-तटस्थता न होकर मानवीय मूल्यों से प्रेरित पूर्वाग्रह-रहित जनसंचार है। मीडिया के लिए निर्नैतिकता असंभव है, अनैतिकता अत्यंत प्रलोभनकारी है और नैतिक प्रतिबद्धता प्रबल सद्गुण है।
सन्दर्भ :
[1]
https://www.britannica.com/topic/public-opinion/Mass-media-and-social-media
[2]वंजा निसिक एवं दिविना पल्वानिशिक https://www.researchgate.net/publication/323633502 , द रोले ऑफ़ मीडिया इन थे कंस्ट्रक्शन ऑफ़ सोशल रियलिटी, 2017
[3] वही.
[4] जीन बौद्रिल्लार्ड, ‘सिमुलेशन एंड रियलिटी’, ज़ाग्रेब : नक्लादा जेस्नेसकी तुर्क-कोरेशियन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन, 2001. प्र.
131
[5] विज्ञानवादी दृष्टिकोण के अनुसार ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता आश्रित है; उससे स्वतन्त्र नहीं। प्रतिनिधि दार्शनिक बिशप बर्कले का प्रसिद्द मत – ‘एसेस इस्ट पर्सेपिए’ अर्थात दृष्टि सृष्टि वाद । सत्ता केवल उसकी है जिसका अनुभव है । जिसका अनुभव नहीं उसकी सत्ता भी नहीं।
[6] पीटर बर्गर और थॉमस लुकमान ने ‘द सोशल कंस्ट्रक्शन ऑफ़ रियलिटी’ शीर्षक से 1968 में एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में इन्होने तर्क प्रस्तुत किया कि समाज का निर्माण ‘आदतों’ (habitualization), जो कि मनुष्यों और मनुष्यों के मध्य पारस्परिक व्यवहार द्वारा होता है, का परिणाम है । समाज वस्तुतः आदत है।
[7] सोशल कंस्ट्रक्शन ऑफ़ रियलिटी – इंट्रोडक्शन तो सोशियोलॉजी : अंडरस्टैंडिंग एंड चेंजिंग द सोशल वर्ल्ड, प्र. 4 https://pressbooks.howardcc.edu/soci101
[8]रॉबर्ट. के. मर्टन ने यह विचार थॉमस प्रमेय के आधर पर विकसित किया है, सोशल कंस्ट्रक्शन ऑफ़ रियलिटी – इंट्रोडक्शन तो सोशियोलॉजी : अंडरस्टैंडिंग एंड चेंजिंग द सोशल वर्ल्ड, प्र. 4 https://pressbooks.howardcc.edu/soci101
[9] 1928 में विलियम इसाक थॉमस एवं उनकी पत्नी डोरोथी थॉमस द्वारा रचित द थॉमस थिओरम, एक समाजशास्त्रीय सिद्धांत है जिसके अनुसार, ‘यदि मनुष्य किसी स्थिति को सत के रूप में परिभाषित करते हैं, तो वह परिणामतः सत है’| इस थिओरम ने बहुत से अन्य समाजशास्त्रीय सिधान्तों को प्रभावित किया है।
[10] एक ओर, यदि भगत सिंह जैसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी का उदहारण है जिन्हें अँगरेज़ औपनिवेशिक सरकार ने आतंकी करार देकर फांसी पर लटकाया, तो दूसरी ओर कश्मीर के आतंकवादी हैं जो स्वयं द्वारा की जाने वाली हिंसा को न केवल स्वतंत्रता संग्राम का नाम देते है बल्कि विश्व पटल पर मानवाधिकारों की दुहाई भी देते हैं। हाल ही रिलीज़ हुई, निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की, फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ लोकोक्ति के इस द्वन्द्व को रेखांकित करती है |
[11] Constitutional
Rights Foundation, ‘What Is Terrorism’, http://www.crf-usa.org
[12] ‘टेररिज्म फाउंड राइजिंग, नो ऑलमोस्ट एक्सेप्टेड’, वाशिंगटन पोस्ट, दिसम्बर 03,
1985
[13] सी. ए. दम्म,
‘मीडिया एंड टेररिज्म’https://www.ojp.gov/ यू.एस. डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस, 1982
[14] सिंडी. सी. कोम्ब्स, टेररिज्म इन द 21स्ट. सेंचुरी, प्रेन्टिस हॉल, न्यू जर्सी, 1997 पृ.
143.
[15] 1921 में जन्मे वाल्टर लाकुएर, एक अमेरिकी इतिहासकार एवं राजनैतिक टिप्पणीकार हैं तथा इन्होने आतंकवाद पर प्रचुर लेखन कार्य किया है | 1938 से 1853
के मध्य यह फिलिस्तीन में रहे तथा 1968
से 1972
तक ब्रन्दिएस विश्वविद्यालय में यह हिस्ट्री ऑफ़ आइडियाज के प्रोफेसर रहे। यह शिकागो- हार्वर्ड, तेल-अवीव और जॉन होपकिंस विश्वविद्यालयों में हिस्ट्री एंड गवर्नमेंट विषय के प्रोफेसर रहे हैं । यह सिस्टेमेटिक स्टडी ऑफ़ पोलिटिकल वायलेंस, गौरिल्ला वारफेयर एंड टेररिज्म के संस्थापक सदस्य भी रहे हैं । इनकी पुस्तकें अनेक भाषाओँ में अनुवादित हुई हैं तथा यह आतंकवाद विषय के प्रतिष्ठित विद्वान समझे जाते हैं।
[16] नील हिकेय, गैनिंग द मिडिया अटेंशन , न्यू यॉर्क,
1977 , प्र. 113-114
[17] बोअज़ गनोर, टेररिज्म : नो प्रोहिबिशन विदआउट डेफिनिशन, http://www.ict.org.il/counter_ter/counter-terror_frame.htm, आतंकवाद विषय पर अनेक शोध-पत्रों के लेखक बोअज़ गनोर, इंटरनेशनल पालिसी इंस्टिट्यूट फॉर काउंटर टेररिज्म के निदेशक रहे हैं। तेलावीव विश्वविद्यालय से आतंकवाद पर पीएच. डी. उपाधि प्राप्त बोअज़ गनोर ने इस्राइली सरकार के सुरक्षा एनालिस्ट एवं प्रधानमंत्री नेतान्युहू के अकादमिक सलाहकार के रूप में कार्य किया है। गनोर आतंकवाद के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्लेषक हैं |
[18] वंजा निसिक एवं डीविना पल्वानिशिक द रोले ऑफ़ मीडिया इन थे कंस्ट्रक्शन ऑफ़ सोशल रियलिटी, 2017
https://www.researchgate.net/publication/323633502
डॉ. दीपक श्रीवास्तव
एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, दर्शनशास्त्र विभाग,
बी. एन. डी. राजकीय कला महाविद्यालय, चिमनपुरा, जयपुर
सम्पर्क : deepvastava@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
अत्यंत उत्कृष्ट और सम्यक मीमांसा।
जवाब देंहटाएंNice interpretation on Human rights and also described the value of Human rights for a Human being.
जवाब देंहटाएंExcellent 👌
जवाब देंहटाएंगहन,निष्पक्ष आलोचनात्मक भाव से लिखा गया उम्दा लेखन।
जवाब देंहटाएंआशीष शर्मा
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय चिमनपुरा।
Nicely written paper on media and values. Beginning with human rights, communication system and questioning the social reality as constructed by the media.
जवाब देंहटाएंअत्यंत उत्कृष्ट, शानदार व बहुत ही उपयोगी लेख।
जवाब देंहटाएंUmrav singh yadav
Research scholar
RRBMU UNIVERSITY ALWAR
Nice interpretation and excellent bhaisahab
जवाब देंहटाएंDr Mahendra Singh associate professor philosophy
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