शोध आलेख : स्वतंत्रता-संघर्ष, हिंदी पत्रकारिता और मदनमोहन मालवीय
- डॉ. शत्रुघ्न कुमार मिश्र
शोध-सार : भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान है। भारत की स्वाधीनता की लड़ाई में क्रांतिकारियों के साथ भारतीय पत्रकार भी अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं। मीडिया को हमेशा से सत्ता के प्रतिपक्ष की आवाज माना जाता है। आम जनता की असली आवाज का दायित्व मीडिया ही उठाता है। मीडिया के आज समाज में विभिन्न मध्यम व रूप में मौजूद हैं,जिसे जनसंचार कहा जाता है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी इसीलिए कहा जाता है, क्योंकि समाज के सामने सच की आवाज मीडिया के द्वारा ही उठाया जाता है। आज मीडिया के विभिन्न रूप मौजूद हैं, किंतु सैकड़ों वर्ष पहले आजादी की लड़ाई में मीडिया का एक का एक प्रमुख अंग 'पत्रकारिता' ही स्वातंत्र्य समर में अपनी भूमिका का निर्वहन करता है। पत्रकारिता के माध्यम से ही मदनमोहन मालवीय ने स्वतंत्रता की लड़ाई को आवाज दी। मदनमोहन मालवीय की पत्रकारिता में स्वाधीनता की चिंता, शैक्षिक व सांस्कृतिक जागरण की अनुगूंज सुनाई देती है।
बीज-शब्द : स्वतंत्रता, पत्रकारिता, स्वाधीनता, अभ्युदय, उपनिवेश, प्रेस।
मूल-आलेख : हिंदुस्तान अपनी आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है और हम
आज अपनी आजादी का ‘अमृत महोत्सव‘ मना रहे हैं। यह आजादी हमें यूँ ही विरासत में
नहीं मिली है। इसके लिए हमारे पुरखों ने अपने प्राणों को इस राष्ट्र पर बलिदान
किया है। भारत के लोग इस आजादी की लड़ाई में विभिन्न क्षेत्रों के माध्यम से शामिल
होते हैं। यह आजादी किसी एक रास्ते पर चलकर प्राप्त नहीं हुई है। भारत के लोग
विभिन्न माध्यमों से आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे और विचारों तथा माध्यमों का एक समुच्चय
इस लड़ाई में भारत का प्रतिनिधित्व करता है। क्रांतिकारी दल के लोग सशस्त्र अंग्रेज
से लोहा ले रहे थे तो अनशनकारी गांधीवादी तरीके से आजादी की मांग कर रहे थे। इसी
के साथ-साथ भारत का बौद्धिक वर्ग भी जिसमें लेखक, पत्रकार, विचारक, समाज सुधारक इत्यादि क्षेत्रों से जुड़े
लोग भी आजादी के संघर्ष में हिस्सा ले रहे थे। इनमें क्रांतिकारी जनता में साहस का
संचार करते थे तो उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य पत्रकार और सम्पादक
अपने पत्रों के माध्यम से कर रहे थे। ये पत्र अपने क्रांतिकारी विचारों के माध्यम
से भारत के नागरिकों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत कराते हैं तथा उपनिवेशवादी मानसिकता से भी मुक्ति
देने का प्रयास करते हैं। उस वक्त भारत का प्रत्येक बुद्धिजीवी अपने विचारों को
जनता के सामने लाने के लिए पत्रकारिता का सहारा लेता है। राजाराम मोहन राय, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, शिवप्रसाद गुप्त, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी इत्यादि
स्वतंत्रता संघर्ष के नायक थे और अपने पत्रों तथा साहित्य के माध्यम से भारत में
नवचेतना का प्रसार कर रहे थे। इन विचारकों ने अपने पत्रों के माध्यम से न केवल
जनता को गुलामी के काले धब्बों का एहसास कराया, बल्कि उनके निजी जीवन को भी
सुधारने का प्रयत्न किया। इन्हीं प्रयत्नों के फलस्वरूप भारत में नवजागरणकालीन
चेतना जनता के अंदर व्याप्त होती है और जनता अपनी अशिक्षा, रुढ़िवादिता, धार्मिक पाखण्ड तथा वैज्ञानिक चेतना के
अभाव को पहचान पाती है। अशिक्षा और आपसी सामंजस्य के अभाव के कारण ही अंग्रेज इतने
दिन भारत को इतने दिन गुलाम रख पाए थे। भारतीय बुद्धिजीवी इस बात को जानते और
महसूस करते थे। अतः उन्होंने आजादी के लिए पहले जनता को तैयार करने का काम किया और
इस काम में सर्वाधिक बड़ा योगदान पत्रकारिता के माध्यम से होता है।
पत्रकारिता का इतिहास यूं तो सन् 1826 से भारत में आरंभ होता है और लगातार
अनेक सामाजिक व साहित्यिक पत्र छपने लगते हैं। यह पत्र भारत की सामाजिक
परिस्थितियों और आडंबर के मुद्दों को उठाते थे। 'उदंत मार्तंड', 'बंगदूत' 'प्रजा मित्र', 'बुद्धि प्रकाश', 'समाचार सुधावर्षण', 'बनारस अखबार' इत्यादि सामाजिक व साहित्यिक क्षेत्र के
महत्वपूर्ण पत्र थे। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का प्रथम समर सन् 1857 में हुए गदर को माना जाता है जहां उत्तर भारत के किसानों और सैनिकों
ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बिगुल फूंका। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में
पत्रकारिता का स्पष्ट जुड़ाव यहीं से देखा जाता है। स्वतंत्रता के अगुआ नेता
अजीमुल्ला खाँ ने 1857 में 'पयामे आजादी' नामक पत्र का प्रकाशन किया। 'पयामे आजादी' का प्रकाशन उर्दू भाषा में होता था और
आवश्यकता पड़ने पर हिंदी भाषा में भी इसको प्रकाशित किया जाता था। गदर की समाप्ति
के बाद यह पत्र बंद हो गया, किंतु इस पत्र ने राष्ट्रवादी
पत्रकारिता की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। 'पयामे आजादी' स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने वाला
पहला पत्र था। इस पत्र ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध अपनी जबरदस्त आवाज उठाई। इस
पत्र ने हिंदू-मुसलमान सभी को क्रांति के लिए प्रेरित किया था। इस पत्र से अंग्रेज
सरकार इतनी विचलित हुई कि यह पत्र जिसके पास से भी प्राप्त होता था, उसे कठोर यातनाएं दी जाती थी। 'पयामे आजादी' में क्रांति के नायक बहादुर शाह जफर के
उद्बोधन भी छपते थे। 'पयामे आजादी' के एक संपादकीय में क्रांति की आवाज
स्पष्ट देखी जा सकती है "..... भाइयों! दिल्ली में फिरंगियों के साथ आजादी की
जंग हो रही है। खुदा की दुआ से हमने उन्हें पहली शिकस्त दी है। उससे वे इतना घबरा
गए हैं जितना की पहले ऐसी दस शिकस्तों से भी न घबराते। बेशुमार हिंदुस्तानी
बहादुरी के साथ दिल्ली में आकर जमा हो रहे हैं ऐसे मौके पर आपका आना लाजिमी है आप
अगर वहां खाना खा रहे हों तो हाथ यहाँ आकर धोइये। हमारा बादशाह आपका इश्तकबाल
करेगा। हमारे कान इस तरह आपकी ओर लगे हैं जिस तरह रोजेदारों के कान मुआज्जिन के
अजान की तरफ लगे रहते हैं। हमारी आँखें आपके दीदार की प्यासी हैं।"1 'पयामे आजादी' में ही बहादुर शाह 'जफर' का आजादी के लिए एक उद्बोधन प्रकाशित
हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि “हिंदुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों ! उठो, भाईयों उठो, खुदा ने इंसान को जितनी बरकतें अता की
हैं, उनमें सबसे कीमती बरकत आजादी है।“2
सन् 1857 की क्रांति के बाद प्रेस पर बैन लगा दिया गया। 13 जून 1857 को प्रेस पर नियंत्रण के लिए वायसराय
कैनिंग ने गैगिंग एक्ट (गला घोंटूकानून) लगा दिया। इसके तहत बिना पूर्व सूचना के
प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना पर कठोर नियंत्रण लगा दिया गया। इसी के तहत सन् 1878 में 'वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट' भी लाया गया जिसे भारतीय छापाखाना का
मुँह बंद करने वाला अधिनियम कहा गया। यह पत्रकारिता की ही ताकत थी जिसने अंग्रेज
सरकार की नीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया था। 'वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट' का विरोध भी सन् 1878 में प्रकाशित 'भारत मित्र' पत्रिका ने किया, जिसका संपादन दुर्गा प्रसाद मिश्र व पं०
छोटू लाल मिश्र करते थे। इस पत्र ने पत्रों की स्वाधीनता की वकालत की। देश भर के
बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने इस काले कानून का विरोध किया, जिसके दवाबस्वरूप वायसराय रिपन ने सन 1882 में इस प्रेस एक्ट को समाप्त कर दिया। इस
बीच उत्तर भारत में भारतेंदु और उनके मंडल के लेखक पत्रकारों ने साहित्यिक
पत्रकारिता के माध्यम से भारतीय स्वबोध का जागरण करते हैं और अंग्रेज सरकार के
प्रति क्षोभ व्यंगपूर्ण भाषा में व्यक्त करते थे। इन पत्रों पर अंग्रेज सरकार की
गिद्ध नजर रहती थी। अतः इस समय की पत्रकारिता में प्रेस एक्ट के कारण स्वतंत्रता
की स्पष्ट आवाज मंद पड़ जाती है।
बीसवीं शताब्दी में पत्रकारिता ने अंग्रेज सरकार के प्रतिपक्ष में क्रांतिकारी भूमिका निभाई
थी। बीसवीं शताब्दी का समय वह समय था जब देश के नौजवान, स्त्री, बूढ़े और बच्चे तक स्वातंत्र्य समर में
हिस्सा लेने लगते हैं। अंग्रेज सरकार के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले पत्रों में सन्1897 में प्रकाशित तिलक के पत्र 'केसरी' ने अग्रणीय भूमिका निभाई। यह पत्र मराठी
भाषा में प्रकाशित होता था, किंतु इस पत्र के माध्यम से स्वाधीनता
की आवाज उठाने के कारण तिलक को राष्ट्रीय छवि का पत्रकार माना गया। तिलक एक
निर्भिक पत्रकार थे और 'केसरी' के माध्यम से उन्होंने अंग्रेज सरकार के
दमनपूर्ण नीति के खिलाफ खुलकर लिखा। अपनी पत्रकारिता में मुखर आवाज के कारण ही
तिलक को चार मास की सजा सुनाई गई। भारतीय इतिहास में तिलक पहले पत्रकार थे जिन्हें पत्रकारिता के कारण दंडित किया
गया था।
सन् 1905 में बंगाल क्रांति की भूमि बनता है।
यहीं से क्रांति का बिगुल फूंकने वाले बांग्ला पत्र 'युगांतर' का सन् 1905 में प्रकाशन होता है। इस पत्र ने
सम्पूर्ण भारत की पत्रकारिता को निर्भीकता प्रदान करने का कार्य
किया। इस पत्र ने स्वाधीनता के लिए रक्तक्रान्ति का आह्वान किया था। भारत में
स्वाधीनता का आह्वान करने वाले पत्रों में ‘हिन्दोस्थान', 'हिंदी केसरी', 'स्वराज्य', प्रवासी क्रांतिकारियों का पत्र 'गदर', गणेश शंकर विद्यार्थी का पत्र 'प्रताप' व माखन लाल चतुर्वेदी के संपादन में
निकलने वाले पत्र 'कर्मवीर' प्रमुख थे। 'कर्मवीर' के प्रथम अंक में ही चतुर्वेदी जी ने
स्पष्ट लिखा है, “हमारी ऑखों में भारतीय जीवन गुलामी की जंजीरों से जकड़ा दिखता
है। हृदय की पवित्रता पूर्वक हर प्रयत्न करेंगे कि वे जंजीरें फिसल जायें या
टुकड़े टुकड़े होकर गिरने की कृपा करें। हम जिस तरह भीरूता नष्ट कर देने के लिये
तैयार होंगे, उसी तरह अत्याचारों को भी। किन्तु भीरू और अत्याचारी दोनों ही हमारे
होंगे और उनको दुनिया से हटा देने के लिए नहीं, उनकी प्रवृत्तियों को हटा देने के
लिये हम उनसे लड़ते रहेंगे। हम स्वतंत्रता के हामी है। मुक्ति के उपासक हैं।
राजनीति में या समाज में साहित्य में या धर्म में जहॉ भी स्वतंत्रता का पथ रोका
जाएगा, ठोकर मारने वाले का पहला प्रहार और घातक शस्त्र पहला वार आदर से लेकर मुक्त
होने के लिये प्रस्तुत रहेंगे।”3
स्वतंत्रता संघर्ष के समय में पत्रकारिता क्षेत्र के बड़े
उन्नायकों में इसी क्रम में एक नाम महामना
मदनमोहन मालवीय का है। मदनमोहन मालवीय नवजागरण कालीन समय में भारतीय बौद्धिक जगत
में अपनी एक खास उपस्थिती दर्ज करते हैं। उनका जीवन बहुआयामी व्यक्तित्व वाला रहा
है। वह बड़े अर्थों में राष्ट्र का नायकत्व करते हैं। अपने पत्रकारिता के माध्यम से
वह जनता में राष्ट्र की चिंता के साथ-साथ भारत की शैक्षिक दशा से भी वह परिचित थे।
अतः स्वाधीनता की चिंता के साथ वह शिक्षा के महत्व को समझते हुए सन्1916 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की
स्थापना की। इसके अतिरिक्त देश भर में स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय आदि खोलने में अपनी भूमिका
निभाई। मदनमोहन मालवीय ने पत्रकारिता की शुरुआत जुलाई 1887 में ‘हिन्दोस्थान‘ पत्र के सम्पादन के
साथ किया था। इसके बाद अपने जीवनकाल में कुल 3 पत्रों का प्रकाशन इन्होंने किया।
जिनमें जनवरी, 1907 में इलाहाबाद से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘अभ्युदय’ का प्रकाशन, 24अक्टूबर,1909 में इलाहाबाद से अंग्रेजी दैनिक ‘लीडर’ का प्रकाशन और नवम्बर, 1910 में इलाहाबाद से हिंदी मासिक ‘मर्यादा’ का प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त एक
लेखक के तौर पर इनके लेख अन्य पत्रिकाओं में भी छपते रहते थे। मालवीय जी एक
समर्पित पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी और लेखक थे। इनकी
पत्रकारिता का मूल स्वर राष्ट्र की स्वाधीनता से जुड़ा हुआ था। अपनी पत्रकारिता में
मालवीय जी एक निर्भीक पत्रकार थे। उनकी कलम ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हमेशा
मुखर रही है।
भारतीय स्वाधीन चिंतन में प्रेस एक्ट का विरोध, ब्रिटिश उपनिवेश की आलोचना, स्वाधीनता और स्वतंत्रता की चिंता तथा
स्वदेशी का उद्घोष आदि विषयों के माध्यम से उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई को बल
दिया। पंजाब से प्रकाशित समाचार पत्र ‘पंजाबी‘ के मालिक जसवंत राय और संपादक
मिस्टर अठावले पर सरकार ने जनता को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भड़काने के एवज में
सजा सुनाई। मालवीय जी ने पत्र के मालिक और संपादक की निर्भीकता की तारीफ करते हुए ‘अभ्युदय’ में लिखा, “संतोष हमको इस बात से है कि समाचार पत्र
से संबंध रखने वाले हमारे दो भाइयों ने अपने कर्तव्य को करने में जिस बात को लिखना
अपना कर्तव्य समझा, उसके पीछे उन पर मुकदमा दायर होने पर भी
वे सब प्रकार से निडर और दृढ़ रहे। उनसे अपने कर्तव्य के करने में कोई भूल बन पड़ी
या नहीं, इसका विचार करने का हमको अभी अधिकार नहीं। किंतु अपने
कर्तव्य को जैसा उन्होंने समझा, करने में उन्होंने किसी बुरे परिणाम के
विचार से अपने चित्त को दुर्बल नहीं किया और बुरा परिणाम होने पर भी उसको दृढ़ता और
निर्भयता से सहने को तैयार रहे। इस बात को देखकर सब देश का हित चाहने वालों को
संतोष होना चाहिए।”4
मालवीय जी ने प्रेस की स्वतंत्रता को देश की स्वतंत्रता के
समान महत्वपूर्ण माना है। सन् 1910 के प्रेस एक्ट जिसे सर हर्बर्ट किसले
ने ‘भारतीय प्रेस की सुव्यवस्था के लिए विधान’ के नाम से प्रस्तुत किया था जिसमें प्रेसों की स्वाधीनता को लगभग
समाप्त कर देने की बात की गई थी और ब्रिटिश साम्रज्य के खिलाफ जाने पर राजद्रोह की
वकालत सरकार द्वारा की गई थी, इसका पुरजोर विरोध मालवीय जी ने किया
था। इस प्रेस एक्ट का विरोध अन्य बड़े संपादक भी नहीं कर पा रहे थे जिनमें गोपाल कृष्ण गोखले ने भी मालवीय
जी को सरकार के विरुद्ध न जाने की सलाह दी थी। केवल मालवीय जी और भूपेंद्र नाथ बोस
ने इस प्रेस एक्ट का विरोध किया था। गोखले जी को जवाब देते हुए मालवीय जी ने कहा
कि “भाई, मेरे अंतःकरण की यही प्रेरणा है। अस्तु
जो भी परिणाम होंगे भोग लूंगा। मैं विरोध अवश्य करूंगा।”5 मालवीय जी के इस जवाब से प्रेस की
स्वायत्तता के प्रति उनकी चिंता को साफ देखा जा सकता है। 4अप्रैल,1910 को राजकीय-व्यवस्थापक परिषद् में
मालवीय जी ने प्रेस एक्ट के विरोध में अपना व्यक्तव्य दिया और कहा “श्रीमन! यह सन् 1906 ई० का समय था, जब कुछ प्रेसों ने विरोध-संबंधी कटु
शब्दों का प्रयोग किया और यह सन् 1907 ई० तक जारी रहा,परन्तु मेरी प्रार्थना यह है कि वह
परिस्थिति असाधरण थी। प्रेसों के इन कटु शब्दों का कारण सब लोगों को ज्ञात था।
हमें उसका शोक है, परन्तु हम उनको छिपा नहीं सकते। उसका
कारण सन् 1905 ई० के लगभग कुछ सरकारी कर्मचारियों के
कुव्यवहार तथा अपशब्दों का प्रयोग था जिससे जनता के हृदय में दुर्भाव फैल गया
था। अतएव मुझे दुःख के साथ यह प्रकट करना पड़ता है कि आपके भूतपूर्व अधिकारियों का
शासन इस बात के लिए उत्तरदायी है कि उसने अपने कर्तर्व्यों से प्रेसों को अपने
प्रतिष्ठित कार्य-संचालन से विचलित करवाया जिससे प्रत्येक देश-प्रेमी तथा शुभ
कार्य के अनुयायियों को कष्ट हुआ। श्रीमन! बुराइयाँ हैं, परंतु उनके विनाश के लिए साधनों का
अवलंबन करना भी देश और काल के अनुसार आवश्यक है। हमें यह स्मरण कराने दीजिये की जब
से इन प्रेसों ने अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करना प्रारम्भ किया है तब से सरकार
भी चुप नहीं बैठी है। गत तीन वर्षों में कभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार ने
जनता में सरकार-विरोधी भावों का दमन करने के लिए पूर्ण यत्न नहीं किया। हम लोगों
से यह कहा गया है कि सरकार शांति-प्रिय रही है,परन्तु जनता में यह प्रसिद्ध है कि
सरकार ने इस विषय में असाधरण कठोरता का परिचय दिया है।”6
मालवीय जी की पत्रकारिता का मूल स्वर भारत की चिंताओं से
जुड़ा हुआ था। वह खुलकर भारत के स्वतंत्रता की बात अपने लेखों में करते थे। देश की
अशिक्षा, बदहाली, अकाल, अत्यधिक लगान इत्यादि समस्याओं के लिए
वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना करते थे और इन समस्याओं से छुटकारा के लिए वह
स्वाधीनता की बात करते थे। ‘अभ्युदय’ में प्रकाशित एक लेख ‘मर्यादा के अनुसार आंदोलन’ में वह स्पष्ट लिखते हैं “हम चाहते हैं कि हमको वही स्वाधीनता और
अधिकार मिलें और हम अपने देश में वैसा ही शासन करें, जैसा अंग्रेज अपने देश में करते हैं।
इसके मिलने के दो ही उपाय हो सकते हैं। एक तो बल से युद्ध में मरकर और मारकर उसके
लिए बाहु-बल, धन-बल, बुद्धि-बल, और सेना-बल चाहिए। इंग्लैंड के लोग बिना
युद्ध के अपना इस देश का साम्राज्य नहीं छोड़ेंगे। हमारी दुर्बल, दरिद्र, सब प्रकार से दया के योग्य दशा में उसकी
चर्चा करना पागलपन और पाप होगा, और सामर्थ्य की दशा में आर्यों का यह
धर्म है कि जहाँ तक हो सके युद्ध के सोचनीय परिणामों को सोचकर उससे देश को बचाने
का यत्न करें। दूसरा उपाय यह है कि न्याय के अविरुद्ध उन उपायों से, जिनसे अंग्रेज स्वयं अपनी देश की
गवर्नमेन्ट से काम कराते हैं, हम अंग्रेजी गवर्नमेन्ट से वे सब सत्व
और अधिकार पावें, जो अंग्रेजों को प्राप्त हैं।”7
मालवीय जी ने देश की स्वाधीनता को लेकर विभिन्न लेख
पत्रिकाओं में लिखे। इसके साथ-साथ वह देश की प्रमुख समस्याओं (आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक) के लिए ब्रिटिश सरकार की
जबरदस्त आलोचना करते हैं। इन प्रमुख लेखों में ‘राष्टीयता और देशभक्ति’8, ‘स्वदेशी भाव’9, ‘स्वदेशी आंदोलन’10, ‘हमारी दशा और हमारा मुख्य कर्तव्य’11, ‘हिंदुस्तान के आय-व्यय का विचार’12 में उनके स्वाधीनता संबंधी विचार देखे
जा सकते हैं। मालवीय जी एक निर्भीक पत्रकार थे। देश के प्रमुख समस्याओं को लेकर
उन्होंने सवाल उठाया और खुद उनके निराकरण का प्रयास वह व्यक्तिगत तौर पर भी करते
हैं। उनके लेखन में धर्म, भक्ति, अध्यात्म और हिन्दू समाज का कल्याण
दिखाई देता है तो हिंदू-मुस्लिम एका को भी वह देश की अखंडता के लिए जरूरी मानते
हैं। हिन्दू-मुस्लिम का आपसी बैर हो या हिंदी-उर्दू भाषा के लिपि का विवाद हो इत्यादि समस्याओं की जड़ के रूप में वह ब्रिटिश
साम्रज्य के विभाजनकारी नीति की आलोचना करते हैं। उनकी चिंता में धर्म, अध्यात्म, शिक्षा का महत्व है, तो इसके साथ-साथ राष्ट्र की मुक्ति की
संकल्पना भी उनकी पत्रकारिता का मूल स्वर है। कांग्रेस अध्यक्ष पद से राष्ट्र की
चिंताओं को उजागर करने के साथ-साथ भारत की संगठनात्मक क्षमता को मजबूत करने का
आह्वान मालवीय जी करते हैं। मालवीय जी एक राष्ट्रवादी पत्रकार थे और अपनी
पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई को निर्णायक मोड़ दिया। एक
पत्रकार के साथ-साथ वह खुद स्वतंत्रता के सच्चे सिपाही थे। ‘अन्दलीवे हिन्द नजर’ ने ‘देवता है मालवी’ शीर्षक कविता में मालवीय जी को
स्वंतत्रता की लड़ाई का रहनुमा कहते हुए लिखा है-
“सर बसर मातम है दुनिया, जिस तिलक की मौत पर।
सच तो यह है उस तिलक का रहनुमा है मालवी।।
गोखले ने जो दिया था हमको पैगा़म-ए-अजल।
ए ‘नजर‘ उस इब्तिदा की इंतिहाँ है मालवी।।”13
संदर्भ :
1.अर्जुन तिवारी : हिंदी पत्रकारिता का इतिहास,वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, आवृत्ति, 2013, पृ. 97
2. वही, पृ. 129
3.https://hi.wikipedia.org/wiki/कर्मवीर_(पत्रिका)
4.समीर कुमार पाठक (संपादक) : मदनमोहन मालवीय और हिंदी नवजागरण(‘पंजाबी‘ का मुकदमा, अभ्युदय (5 फरवरी 1907), यश पब्लिकेशंस, दिल्ली, 2013, पृ. 48,49
5.कृष्णदत्त द्विवेदी : भारतीय पुनर्जागरण और मदनमोहन मालवीय, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1981, पृ. 29
6.समीर कुमार पाठक (संपादक) : मदनमोहन मालवीय और हिंदी नवजागरण (भारतीय प्रेस-विधान-1910 पर भाषण),यश पब्लिकेशंस, दिल्ली, 2013, पृ.183
7. समीर कुमार पाठकसंपादक :मदनमोहन मालवीय और हिंदी नवजागरण (मर्यादा के अनुसार आंदोलन, अभ्युदय 12 फरवरी 1907), यश पब्लिकेशंस, दिल्ली, 2013, पृ. 50
8. अभ्युदय, 13 सितम्बर 1907
9. अभ्युदय, 3 अप्रैल 1907
10. अभ्युदय, 5 अगस्त 1907
11. अभ्युदय, 4 जून 1907
12.अभ्युदय, 30 अप्रैल 1907
13.समीर कुमार पाठक :मदनमोहन मालवीय लोकजागरण का लोकवृत्त,नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली, प्र०सं०-2016, पृ. 211
डॉ. शत्रुघ्न कुमार मिश्र, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश
mail-shatrughnam43@gmail.com, 8687424242
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
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