शोध आलेख : भारतीय संघीय
व्यवस्था और नये राज्यों की मांग
- ज्योति चायल एवं डॉ. कान्ता कटारिया
शोध सार : भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत जैसे विविधापूर्ण देश के लिये संघीय शासन व्यवस्था अपनाने का निर्णय लिया था। भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक, बहुनस्लीय और बहुभाषीय स्वरूप वाले देश में सिर्फ संघवाद की भावना ने देश की अंदरूनी विविधता में सामंजस्य बनाये रखा है। आपसी सहयोग और सामंजस्य की भावना से परस्पर विरोधी समूहों (क्षेत्र, जाति, भौगोलिक विविधता, आर्थिक, भाषागत आधार) की उग्रता को थाम रखा है। आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद अनेक समस्याएं भारतीय संघीय व्यवस्था के समक्ष रही हैं; जिनमें से प्रमुख नए या छोटे राज्यों की मांग है। प्रस्तुत शोध-पत्र में संघीय व्यवस्था के अर्थ, राज्य पुनर्गठन का इतिहास तथा गठन के महत्त्वपूर्ण कारकों का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है।
मुख्य
शब्द: संघीय व्यवस्था, राज्य पुनर्गठन, राष्ट्रीय सुरक्षा, भौगोलिक आकार, प्रशासनिक, आर्थिक आधार।
मूल
आलेख : भारतीय संविधान ने देश में ऐसी राजनीतिक प्रणाली की व्यवस्था की है जिसका
स्वरूप संघीय है; अर्थात सरकार के दो स्तर है- राष्ट्रीय स्तर तथा राज्य स्तर। साथ
ही भारतीय संविधान में केन्द्र को राज्य की तुलना में अधिक शक्तिशाली बनाया गया
है। इसीलिए भारत में ‘केंद्रीकृत संघवाद’ की स्थिति दिखाई देती है। संविधान सभा
में चर्चाओं के दौरान प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘कमजोर
केंद्रीय सरकार देश के हितों के लिए हानिकारक होगी और ऐसी केंद्रीय सरकार शांति
सुनिश्चित करने, साझा सरोकार वाले अहम मसलों में तालमेल कायम करने और अंतरराष्ट्रीय
क्षेत्र में समन्वित रूप से भारत की आवाज को उठाने में सक्षम नहीं होगी।’ संविधान
सभा के अन्य जाने-माने सदस्यों ने भी भारत में धर्म, भाषा, जाति और वंश की व्यापक
विविधताओं को देखते हुए अपना अस्तित्व बनाए रखने और राजनीतिक स्थिरता के लिए अधिक
मजबूत संघीय सरकार की मांग की।1
भारतीय संविधान के भाग-1 के अनुच्छेद 1 में
भारत को ‘राज्यों का संघ’ कहा गया है। अनुच्छेद 2 में कहा गया है कि ससंद; विधि
द्वारा नये राज्यों का प्रवेश व स्थापना कर सकेगी । अनुच्छेद 3 में कहा गया है कि
संसद; विधि द्वारा किसी राज्य के क्षेत्र को बढ़ा सकेगी, घटा सकेगी, राज्य की सीमाओ
में परिवर्तन कर सकेगी, किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकेगी ।
भारत
राज्यों का संघ (Union of States) है, राज्यों का समूह नही है । भारत संघ अविनाशी
है, राज्यों को इससे अलग होने का अधिकार नही है । हालांकि प्रशासनिक सुविधा के लिए
लोगो को अलग राज्य में विभाजित होने का अधिकार है, लेकिन वे भारत के अभिन्न अंग
रहेंगे। भारतीय संघ अमेरिका या कनाडा जैसे संघीयता संम्बंधी लक्षणों से संपन्न
नहीं है और ना ही यह राज्यों के साथ किए गए करार का परिणाम है। भारतीय संघवाद में
मूल बात है शासन की वह प्रणाली जिसमें केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच
सत्ता तथा अधिकार विभाजित हो। डॉअंबेडकर ने संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय
कहा था कि यह देखने योग्य बात है कि प्रारूप समिति ने संघ की बजाय समुच्चय
(यूनियन) शब्द का प्रयोग किया। दरअसल वे यह चाहते थे कि भारत संघवाद के लिए शब्द
कोई भी प्रयुक्त किया जाए; लेकिन इसे सार रूप में एक समुच्चय के अर्थ में लिया
जाए। ग्रेनविल आस्टिन ने भारतीय संघवाद को सहकारी संघवाद की संज्ञा दी। लेकिन भारत
संघ की व्यवस्था; राजनीतिक परिस्थिति के अनुसार बदलती गई, इसीलिए संघवाद को उसी के
अनुरूप परिवर्तित किया गया या वह स्वयं ही परिवर्तित होता गया जिसे समय-समय पर केन्द्रीकृत
संघवाद, एकात्मक
संघवाद, और
सौदेबाजी संघवाद के नाम से व्यक्त किया
गयाहै ।2
भारतीय संघीय ढांचा काफी हद तक
प्रशासनिक, आर्थिक और राजनीतिक रूपरेखा तैयार करने में सफल रहा; परंतु पिछले कुछ
वर्षों में जिस तरह भारतीय परिसंघ की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और संघ ने काम किया
तथा जिस प्रकार का राज्य शासन प्रस्तुत किया, उससे आर्थिक और सामाजिक लाभों की
अवास्तविक स्थिति का पता चलता है और यह जान पड़ता है कि राजनीतिक रूप से रियायतें
पाने के लिए इसे अपनी सुविधा के अनुसार प्रयोग में लिया गया है।3
राज्य पुनर्गठन
और इतिहास
भारत अंग्रेजों के आने से पूर्व 21
प्रशासनिक इकाइयों (सूबों) में बंटा हुआ था। इनमें से कई सूबों की सांस्कृतिक
पहचान सुस्पष्ट थी और कुछ में संस्कृतियों का मिश्रण था। किंतु भारत को अपना
उपनिवेश बनाने के बाद अंग्रेजों ने प्रशासनिक सुविधा का ख्याल करते हुए मनमाने
तरीके से भारत को नए सिरे से बड़े-बड़े प्रांतों में बांट दिया। एक भाषा बोलने
वालों की भू-क्षेत्रीय समरसता पूरी तरह से भंग कर दी गई। बहुभाषी व बहुजातीय
प्रांत बनाए गए। इतिहासकारों की मान्यता है कि भले ही इन प्रांतों को “फूट डालो और
राज करो” के हथकंडे का इस्तेमाल करके नहीं बनाया गया था, पर उसमें अपनी सत्ता
टिकाए रखने के लिए इस नीति का जमकर उपयोग किया गया। 1920 के दशक में जब गांधी के
हाथ में नेतृत्व की कमान आई तब कांग्रेस ने अंग्रेजों द्वारा स्थापित औपनिवेशिक
प्रांत की जगह प्रदेश नामक प्रशासनिक इकाई के इर्द-गिर्द स्वयं को संगठित करने का
प्रयास किया। यह इकाई अपने बुनियादी चरित्र में अधिक लोकतांत्रिक, सांस्कृतिक (जातीय
और भाषाई) अस्मिता के प्रति अधिक संवेदनशील और क्षेत्रीय अभिजनों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं
के प्रति जागरूक थी। कांग्रेस के प्रयासों से राष्ट्रीय आंदोलन में भी भाषा के
आधार पर राज्यों के गठन की मांग होती रही । प्रथम असहयोग आंदोलन की जबरदस्त सफलता
के पीछे मुख्य कारण यही था। 1928 में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति
गठित की गई जिसे कांग्रेस का पूरा समर्थन था। इस समिति ने भाषा, जन-इच्छा,
जनसंख्या, भौगोलिक और वित्तीय स्थिति को राज्य के गठन का आधार माना। आजादी के बाद
562 देसी रियासतों का एकीकरण व पुनर्गठन के लिए श्याम कृष्ण दर आयोग का गठन किया
गया । इस आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया । उसी वर्ष जे.वी.पी.
आयोग (जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, पट्टाभिसीतारामैय्या) का गठन किया गया । जिसने
प्रभावित जनता की आपसी सहमति, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवहार्यता पर जोर देते हुए
भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का सुझाव दिया । इसके फलस्वरूप सबसे पहले 1953 में
आंध्र प्रदेश का तेलुगू भाषी राज्य के तौर पर गठन किया गया।4
यह मांग हालांकि 1952 से मद्रास राज्य के तेलुगु भाषी क्षेत्रों में जोर पकड़
रही थी। मांग करने वाले प्रमुख लोगों में पोट्टी श्रीरामुलू की अनशन के दौरान मौत
हो गयी थी। बाद में आंध्र प्रदेश का गठन हुआ तथा साथ ही भाषाई आधार पर राज्य की
मांग को लेकर देशभर में व्यापक प्रदर्शन शुरू हो गए, लिहाजा सरकार को एस.आर.सी.
(State Relation Commission) का गठन करना पड़ा।5 22 दिसंबर 1952 में न्यायाधीश फजल अली
की अध्यक्षता में प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया। इसमें तीन सदस्य-
न्यायमूर्ति फजल अली, हृदयनाथ कुंजल और के. एम.पाणिकर शामिल थे। इसने अपनी रिपोर्ट
30 दिसंबर 1955 को सौंपी। जिसमें राष्ट्रीय एकता, प्रशासनिक और वित्तीय व्यवहार्यता,
आर्थिक विकास, अल्पसंख्यक हितों की रक्षा तथा भाषा को राज्यों के पुनर्गठन का आधार
बनाया गया। सरकार ने कुछ सुधार के साथ संस्तुतियों को मंजूर कर लिया। 1956 में
राज्य पुनर्गठन अधिनियम संसद से पास हुआ। इसके तहत 14 राज्य तथा 6 केंद्र शासित
प्रदेश बनाए गए, फिर 1960 में पुनर्गठन का दूसरा दौर चला जिसके तहत बम्बई राज्य
विभाजित कर महाराष्ट्र और गुजरात का गठन किया गया। 1963 में नागालैंड, 1966 में
पंजाब (पंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल प्रदेश में बांटा गया) का पुनर्गठन, 1972 में
मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा, 1987 में मिजोरम और केंद्र शासित राज्य अरुणाचल
प्रदेश और गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा, 2000 में उत्तराखंड, झारखंड तथा
छत्तीसगढ़ एवं 2014 में तेलंगाना 29 वाँ राज्य बना।6 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू और कश्मीर
राज्य को दो नए केन्द्र शासित प्रदेशो में विभाजित किया गया: जम्मू और कश्मीर और
लद्दाख। 26 जनवरी 2020 के दिन दो केन्द्र शासित प्रदेशों दमन और दीव एवं दादर नागर
हवेली का विलय करके, एक नया केन्द्र शासित प्रदेश दादर-नागर हवेली और दमन-दीव
बनाया गया; जो कि भारत का 8वां केन्द्र शासित प्रदेश है। भारत में निकट भविष्य
लगभग 50 राज्य हो सकते हैं; यदि सभी नये राज्यों की मांग को स्वीकार कर लिया जाये।
पहले नए राज्यों की मांग भाषा, जाति और संस्कृति के आधार पर की जाती थी। वर्तमान
में नए राज्यों की मांग विकास और प्रगति के संदर्भ में की जाती है। लेकिन ऐसे
निर्णय सरकार द्वारा राज्य के गठन के बाद; भविष्य की अनुकूल एवं प्रतिकूल
परिस्थितियों के सभी पहलुओ का गहन अध्ययन के बाद ही किए जाने चाहिए।
राज्यों के गठन में महत्त्वपूर्ण कारक
हाल ही के वर्षों में भारत में राज्य की
स्वायत्तता की मांग तेज रही है, परिणामस्वरूप छोटे राज्यों की मांग और राजनीतिक विकेन्द्रीकरण
के लिए दबाव मौजूद रहा है और बढ़ा भी है। इसीलिए इसके कारण तथा निर्णय प्रक्रिया
में इसकी गतिशील संबंधों की समीक्षा करना आवश्यक है, क्योंकि यह राज्यों के
पुनर्गठन तथा उनकी सीमाओं में फेरबदल से जुड़ा हुआ है। इसके महत्त्वपूर्ण कारक
निम्न है:-
(1) भाषा –
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। यहाँ के विभिन्न क्षेत्रों में रहने
वाले लोगों में भाषागत विविधता विद्यमान है। इसी भाषागत विविधता के कारण देश के
विभिन्न भागों में भाषाई आंदोलनों का उदय हुआ। भाषाई आधार पर उत्तर तथा दक्षिण
भारत के राज्यों में आंदोलन भी हुए। हालांकि हमारे देश में भाषागत विविधता से होने
वाले संघर्ष का प्रारंभ ब्रिटिश युग से ही हो गया था। ब्रिटिश शासन काल से ही भाषा
के आधार पर प्रदेशों व प्रांतों के निर्माण की मांग की जाती रही थी। आज भी देश के
विभिन्न भागों से भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण के लिए आवाजें उठ रही हैं।
भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश,बम्बई, पंजाब का विभाजन हुआ तथा बुंदेलखंड की मांग की
जा रही है।7
(2) एकता, सुदृढ़ता और राष्ट्रीय सुरक्षा-
घटक इकाइयों की प्रशासनिक सीमाओं में फेरबदल में एकता, सुदृढ़ता
और राष्टीय सुरक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। इसमें प्रशासनिक, राजनीतिक और
सामाजिक संरचनाएँ शामिल होती हैं जिनमें राष्ट्र को प्रमुखता दी जाती है और भाषायी
संकीर्णता और प्रांतवाद को हतोत्साहित किया जाता है। जिससे भाषा, संस्कृति और
लोगों की परंपराओं को काफी महत्त्व मिल जाता है।8
(3) भौगोलिक
आकार और प्रशासनिक इकाई की समीपता-
भौगोलिक दृष्टि से भारत एक विशाल देश है।
समस्त भारत की भौगोलिक स्थिति एक समान नहीं है। उत्तर में हिमालय तथा
दक्षिण-पश्चिम समुद्रों से घिरा है। परिणामस्वरूप विभिन्न प्रदेशों व क्षेत्रों का
जो विभाजन हुआ; उसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर पड़ा। प्रत्येक क्षेत्र-
भाषा, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि की दृष्टि से एक दूसरे से काफी भिन्न है।
इन्हीं विभिन्नताओं के कारण विभिन्न क्षेत्रों में पृथकतावादी आंदोलन प्रारंभ हुए।
भारत की सीमा पर स्थित राज्यों में यदि कभी पृथकतावादी प्रवृतियां पाई गई है, तो
उसका मुख्य कारण उनकी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति है। जैसे असम के पूर्वी क्षेत्रों
में नागा और मिजो जनजातियों द्वारा पृथक स्वतंत्र राज्य के लिए संघर्ष, तमिलनाडु
में स्वतंत्र द्रविड़स्तान की मांग व पंजाब में होने वाले पृथकतावादी आंदोलन को
देखा जा सकता है ।9
(4) ऐतिहासिक परिपाटियां एवं जातिगत आधार-
इतिहास किसी क्षेत्र को एकता के सूत्र में बांधता है, इसकी परिपाटियाँ
सामान्य चेतना को मजबूत बनाती हैं। लेकिन इस बात को कितना महत्त्व दिया जाएगा,
इसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। भारत में विभिन्न धर्म, जाति, संस्कृति
के लोग निवास करते हैं। आरंभ से ही जातिगत विषमता विद्यमान रही है। कई बार जातियों
के बीच आपसी तनाव,इर्ष्या व मतभेद भी देखने को मिलते हैं। राज्यों में जातिगत आधार
पर संघर्ष जैसे महाराष्ट्र में ब्राह्मण व गैर-ब्राह्मण, आंध्र में कम्मा तथा रेड्डी,
केरल में नायर तथा एजवाह दिखाई देते हैं। आज भारत में जातिगत आधार पर पृथक राज्यों
की मांग भी की जाने लगी है। असम के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में बोडो जाति द्वारा
पृथक बोडोलैंड राज्य की मांग, बिहार में पृथक झारखंड वनांचल राज्य की मांग(जो
झारखंड के रूप में पृथक राज्य बन गया है) आदि शामिल है।10
(5) प्रशासनिक और आर्थिक आधार-
भारत आर्थिक दृष्टि से संपन्न देश है परंतु आर्थिक रूप से संपन्न
होने के बावजूद विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक विषमता विद्यमान है जिसके कारण
असंतोष व्याप्त है। यही कारण है कि अनेक क्षेत्रों में पिछड़ेपन को आधार बनाकर पृथक
राज्यों की मांग की जा रही है। तेलंगाना, उत्तराखंड और महाकौशल राज्य की मांग इसी
आधार पर की गई। महाकौशल राज्य जिसकी मांग ‘महाकौशल मुक्ति मोर्चा’ द्वारा की जा
रही है जिसमें जबलपुर, सागर, दमोह, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सतना, रीवा, सीधी,
शहडोल आदि शामिल करने की मांग की जा रही है।11
इन आधारों पर देश में अलग-अलग राज्यों की
मांग देखने को मिलती है। उत्तरप्रदेश में हरितप्रदेश, अवधप्रदेश, बुंदेलखंड,
पूर्वांचल तथा पूर्वोत्तर भारत में बोडोलैंड तथा दक्षिण-पश्चिम कर्नाटक से कुर्ग तथा
पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से से गोरखालैंड तथा गुजरात के तटीय भाग से सौराष्ट्र तथा
महाराष्ट्र के पूर्वी हिस्से से विदर्भ
आदि की पृथक राज्यों के रूप में मांग उठती रही है।12
उपर्युक्त सभी कारकों के साथ उनके गुण-दोषों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए
परिस्थितियों की अनदेखी नहीं की जा सकती है। ज़रूरत इस बात की है कि राज्यों की
सीमाओं में फेरबदल तथा नए राज्यों का सृजन एक ऐसा साधन माना जाए जिससे लोग संतुष्ट
हों तथा वह उनके कल्याण पर आधारित हो ।
यहाँ यह भी आवश्यक है कि देश की एकता और अखंडता पर भी बल दिया जाए।
निष्कर्ष : इस प्रकार आज के समय में देश के विभिन्न भागों में पृथक
राज्यों की मांग भौगोलिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक एवं भाषागत आधार पर की जा रही है। शासन की नीतियों
के अभाव में स्थानीय समस्याएँ; पृथक्करण की बढती हुई मांग का एक प्रमुख कारण बनती
जा रही है । कुछ स्थानों पर पृथक राज्य की मांग करते हुए यह तर्क भी दिया गया है
कि अगर राज्यों का आकार छोटा होगा तो विकास की गति तीव्र होगी एवं प्रशासनिक
क्षमता में भी वृद्धि होगी, जिससे जन समस्याओं का निराकरण आसानी से हो पाएगा ।
लेकिन इन आधारों पर पृथक राज्य की मांग कर; आंदोलन व उपद्रव की स्थिति पैदा करना
कदापि उचित नहीं है । इस प्रकार की प्रवृत्ति देश की राष्ट्रीय एकता और संप्रभुता
के लिए खतरनाक है। जिस प्रकार आज भारत में नए राज्यों की मांग बढ़ती जा रही है,
इससे भविष्य में भारतीय संघवाद के एकात्मक स्वरूप के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है,
जो कि राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अनुकूल नहीं है। वर्तमान एवं भविष्य
की परिस्थितियो पर विचार करते हुए इस पृथकतावादी प्रवृत्ति पर विराम लगाना आवश्यक
हो गया है। भारतीय संघवाद का अखण्ड स्वरूप बनाये रखने के लिए इस समस्या का समाधान
राजनीतिक व नीतिगत आधार पर सर्व दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर किया जाना आवश्यक हो
गया है। किसी भी राज्य की आवश्यकताओं के मापदंड का निर्धारण कर, राज्य पुनर्गठन पर
विचार किया जाना चाहिए। प्रादेशिक एकता की भावना राष्ट्रीयता के मार्ग में एक
चुनौती है, अतः राज्यों का पुनर्गठन स्पष्ट नीतियों के आधार पर देशहित व जनहित को
ध्यान में रखते हुए ही किया जाना चाहिए।
सन्दर्भ :
- 1. समीर सौरभ "संघवाद की चुनौतियां और आगे का रास्ता" योजना, मई 2021, पृ.38।
- रहिससिंह "सहयोगी और प्रतिस्पर्धी संघवाद को मिली राह", योजना, मार्च 2015, पृ 17-18 ।
- के.गुलजीत अरोड़ा "छोटे राज्यों की मांग और खतरे,योजना, अक्टूबर 2013,पृ.43।
- https://m.dailyhunt.in/news/india/hindi/gsjunction-epaper-gsjun/rajy+ punargathan +aayog-newsid-n146525902? listname=topics List&index=0& topic Index =0&mode=pwa&action=click as on 19 November 2021.
- https://www.jagran.com/editorial/apnibaat-state-reorganization-commission-11114354.htmlas on 19 November 2021.
- https://m.dailyhunt.in/news/india/hindi/gsjunction-epapergsjun /rajy+ punargathan +aayog-newsidn146525902? listname=topicsList& index= 0&topicIndex=0&mode=pwa&action=click as on 20 November 2021.
- https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/reasons-behind-the-birth-of-regionalism-in-india-in-hindi-1546509898-2 as on 20 November 2021.
- के.गुलजीत अरोड़ा "छोटे राज्यों की मांग और खतरे" योजना, अक्टूबर 2013, पृ. 44 ।
- डॉ सुमनयादव, मधु "भारत में क्षेत्रवाद की राजनीति तथा नए राज्यों की मांग", अनिकिस पब्लिकेशन, नई दिल्ली पृ. 3 ।
- वही , पृ. 43-44 ।
- वही , पृ. 23-31 ।
- https://www.aajtak.in/india/photo/Other-statehood-demands-55264-009-12-15-1 as on 20 November 2021.
ज्योति चायल व डॉ. कान्ता कटारिया
राजनीति विज्ञान विभाग, जय नारायण व्यास
विश्वविद्यालय, जोधपुर (राजस्थान)
navyajyoti2011@gmail.com, 97823-18132
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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