शोध आलेख : दलित बचपन और पारिवारिक हिंसा
- डॉ. रितु अहलावत
शोध सार : ‘पारिवारिक हिंसा’ रिश्तों के बीच हुई हिंसा से संबंधित है। अक्सर बच्चे इस प्रकार की घरेलू हिंसा के शिकार बन जाते हैं। वैसे तो पारिवारिक हिंसा के अंतर्गत परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा किसी भी सदस्य पर की जाने वाली हिंसा समाहित होती है, परन्तु इसके सर्वाधिक शिकार बच्चे होते हैं। दलित बाल पीढ़ी पारिवारिक हताशा व मानसिक अंतर्द्वंद के कारण दिन-प्रतिदिन हिंसा भोगने को विवश है। इस प्रकार घरेलू हिंसा के बीच पलता-बढ़ता बच्चा जब बड़ा होता है तो वह संकोची, अवसाद से भरा, भयाकुल स्वभाव वाला बन जाता है। कभी अंधविश्वास तो कभी बुरी आर्थिक स्थिति की मार झेल रहा दलित बचपन समय-समय पर परिवार के सदस्यों द्वारा हिंसा झेलता नजर आ जाता है, जैसे।
बीज
शब्द : पारिवारिक हिंसा, दलित बचपन, दलित बच्चे, पितृसत्ता, बाल मजदूरी, शारीरिक
हिंसा, मानसिक हिंसा।
मूल
आलेख : बचपन में परिवार में बालक के साथ किया गया प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार उसके
जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। यदि परिवार में बच्चे को
उपेक्षा और हिंसा झेलनी पड़ती है तो वह कुंठित और संकोची व्यवहार वाला बन जाता है।
व्यवहार की यह विपन्नता जीवन भर उसका पीछा नहीं छोड़ती। “घरेलू हिंसा की सबसे मासूम
शिकार होती है बाल पीढ़ी जो पारिवारिक हताशा व मानसिक अंतर्द्वंद्व को नाजायज रूप
से अपने बालमन में एक परजीवी की तरह प्रवेश करने देने को बाध्य है। घरेलू हिंसा के
परिदृश्य के बीच ऊँघता बचपन जब सक्रीय जीवन की दहलीज पर आता है तो कुंठा, प्रतिरोध
नकारात्मक प्रतिक्रिया जैसे अवसाद सदैव साथ होते हैं, जो पुन: एक अंतर्द्वंद को
जन्म देकर प्रकरावृत्तिक चक्रीय क्रम का निर्धारण कर देते हैं।”1 यही
बच्चा जब बड़ा होता है तो वह अवसाद से भरा और भयाकुल स्वभाव वाला बन जाता है।
परिवार में बालक को अपनेपन और सुरक्षा का एहसास होता है, परन्तु दलित परिवारों में
माता-पिता को इतना अवकाश ही नहीं होता कि वे बालक के लिए ऐसा वातावरण तैयार कर
सकें। दलित अभिभावक अपने भरणपोषण की मूलभूत आवश्यकता को पूर्ण करने में इतने
व्यस्त रहते हैं कि बच्चों के प्रति उतने सजग नहीं हो पाते जितना एक बालक के लिए
आवश्यक होता है। इस प्रकार की अनेकों पारिवारिक स्थितियाँ दलित बच्चों के लिए
हिंसा का कारण बन जाती हैं। दलित आत्मकथाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की पारिवारिक
हिंसा देखने को मिलती है जिनका उल्लेख आगे किया जा रहा है।
मोहनदास अपनी आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ में वर्णन कहते
हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में दलित परिवार अंधविश्वास में अधिक जकड़े रहते थे।
मोहनदास के पिता अपने शरीर में माता के आने का दावा किया करते थे और उनका उस समय
का व्यवहार इनके लिए बेहद खौफनाक हुआ करता था। वे लिखते हैं- “वे आल बवाल बकते,
चीखते-चिल्लाते अड़ोसी-पड़ोसी इकट्ठे हो जाते, वे हँसते और हम रोते...उस शोर-शराबे
से मुझे डर लगता था।”2 बच्चों के लिए इस प्रकार का डर पैदा करने वाला
वातावरण उत्पन्न करना उनके प्रति हिंसा ही थी। पिता की अंधभक्ति और पाखंड बच्चों
के लिए मानसिक पीड़ा पहुंचाने वाला होता था। बचपन में पिता का इस प्रकार का
गैरजिम्मेदाराना व्यवहार देख कर आगे चलकर मोहनदास जी स्वयं भी एक गैरजिम्मेदार
पिता का व्यवहार करते नजर आते हैं, हालाँकि उसके पीछे का कारण समाजसेवा था न कि
अंधविश्वास। परिवार के स्वास्थ्य की देखरेख करना पिता का कर्त्तव्य होता है।
परन्तु मोहनदास जी को सामाजिक कार्यों में संलग्न रहने का इतना शौक पैदा हो गया था
कि वे परिवार की तरफ से गैरजिम्मेदार हो गये। इनकी पत्नी और बेटा मनीष अक्सर बीमार
रहते थे। उनकी सुध लेने के स्थान पर ये अपनी सरकारी नौकरी छोड़ कर दलित आंदोलनों
में लिप्त रहते - “मुझे क्या मालूम था कि आन्दोलन में रत और घर-परिवार से हुई
बेखबरी मेरे ही घर को एक दिन जला डालेगी। अंतत: वही हुआ जिसका मुझे भय था। मनीष
लम्बी बीमारी के कारण चल बसा।”3 इन्होने दो दिनों से बेटे का हाल-चाल
भी पता नहीं किया था। इनके पड़ोस की महिलाओं ने इन्हें बताया कि मनीष कल चल बसा।
दलित परिवारों में पारिवारिक दबाव और बुरी आर्थिक स्थिति
के चलते बच्चों को ऐसे अनेकों काम करने पड़ते थे जो उनके मन पर बेहद बुरा असर डालते
थे। एक बार ओमप्रकाश जी के गाँव में एक बैल मर गया तो पिताजी की अनुपस्थिति में
माँ ने मजबूरन इनको इनके चाचा के साथ भेज दिया। वहाँ खाल उतारने के लिए चाचा ने
इन्हें बाधित किया, तब इनकी स्थिति कुछ ऐसी थी- “छुरी पकड़ते हुए मेरे हाथ काँप रहे
थे। अजीब से संकट में फंस गया था...मैं जैसे स्वयं ही गहरे दलदल में फँस रहा था,
जहाँ से मैं उबरना चाहता था...चाचा के साथ तपती दोपहरी में जिस यातना को मैंने
भोगा था, आज भी उसके जख्म मेरे तन पर ताजा हैं।”4 इतना ही नहीं कुछ दूर
चलने के बाद इनके चाचा ने सारा बोझ इनके सर पर रख दिया था, जो इनकी उम्र और देह के
हिसाब से बहुत ज्यादा था। घर पहुँचने तक ये बदहवास हो गये थे। थकान के साथ-साथ
मानसिक रूप से भी पीड़ित होते रहे।
दलित परिवारों में बिमारियों का इलाज ओझाओं द्वारा करवाया
जाता था,
क्योंकि अक्सर डॉक्टर दलितों को दवा नहीं देना चाहते थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि जब
देहरादून चले गये तो वहाँ इन्हें पेचिस लग गये जो लम्बे समय तक ठीक नहीं हुए। घर
वापस लौटने पर ओझा वाला प्रकरण किया गया। ये ओझा के व्यवहार के विषय में बताते हैं
कि उसने - “कोड़ा हवा में लहराया और सटाक से मेरी पीठ पर पड़ा। एक तो कमजोर ऊपर से
कोड़े की मार। मैं तिलमिला गया था। उन्होंने दोबारा कोड़ा हवा में लहराया...तीन-चार
कोड़े सटका दिए...मेरी जान निकल रही थी।”5 ये पिता से अपनी जान बचाने की
गुहार लगाते रहे, परन्तु इनकी सुनने वाला कोई नहीं था। तब इन्होने खुद ही उसका
कोड़ा पकड़ लिया और उसके द्वारा की जा रही हिंसा का विरोध किया। ग्रामीण क्षेत्रों
में अंधविश्वास का इतना बोलबाला था कि कुछ व्यक्ति अपने फायदे के लिए ओझाओं के कहे
अनुसार किसी की जान तक लेने से पीछे नहीं हटते थे। गाँव में लोग अपनी बचत के रूपए
पैसे या जेवरात जमीन में गाड़ कर रखा करते थे। तुलसीराम बताते हैं, “ऐसे ही छिपे हुए खजानों की तलाश के
लिए गांवों में उस समय रहने वाले ओझा और तांत्रिकों के चक्कर में कई व्यक्ति अपने
बच्चों की बलि चढ़ा देते थे।”6 ऐसा नहीं है कि ऐसी घटनाएँ अब बंद हो
चुकी हैं। आज भी बहुत से ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी हत्याओं की ख़बरें सुनने को मिल
जाती हैं।
तुलसीराम ने मुर्दहिया में अपने साथ हुई पारिवारिक हिंसा
के कई किस्सों का वर्णन किया है। “अपमान अनादर, उपेक्षा और कड़की की वेदना से
गुजरते दलित बालक की मनोदशाओं की सच्ची कहानी है मुर्दहिया’।"7
तुलसीराम बताते हैं कि एक बार जब ये जंगल में बकरियों को चराने ले गये तो सियार ने
एक बकरी को मार दिया- “मेरी तत्काल जो धुनाई हुई, वह तो हुई ही, किन्तु कई दिनों
तक समय-समय पर चेचक की शिकार मेरी ज्योतिविहीन दाईं आँख उनके रौद्र संचालित जबान
का असली निशाना बनी रही।”8 वे बार-बार ‘कनवा-कनवा’ नाम की बौछार कर
तुलसीराम के मन को व्यथित करते थे। दलित परिवारों में बच्चों पर हिंसा भी होती है
और उन्हें बलि चढ़ाने के लिए जीवों पर हिंसा करना भी जबरन सिखाया जाता है। उनके
कोमल मन पर इसकी अमिट और दर्दनाक छाप छूट जाती है। एक बार तुलसीराम को जब एक छोने
की बलि चढ़ाने को कहा गया तो उस समय की अपनी अवस्था के विषय में ये कुछ यूँ लिखते
हैं- “लाठी से दबाते समय छोना जोर-जोर से
चीखने लगा। मैं बिल्कुल डर गया, किन्तु दादी की हिदायत के अनुसार मैंने हिम्मत
जुटाकर साथ ले गये एक छोटे से गंडासे को फिर पत्थर पर घिसाकर उसकी धार को और तेज
किया... फिर मैं गंडासे को छौने की नटई की तरफ खड़ा करके आँखें मूंदकर अंधाधुंध
रेतने लगा।”9 इस प्रकार जीव हत्या की प्रवृत्ति का विकास उनमें किया
गया।
दलितों के जीवन की जटिलता उनके बच्चों के प्रति हिंसक व्यवहार
अपनाने को मजबूर कर देती थीं। माता-पिता को पता भी नहीं होता था कि वे किस तरह
बच्चों पर हिंसा कर रहे हैं। जब माता-पिता दोनों घर से बाहर काम करने जाते थे, तब अनजाने में ही वे बच्चे के साथ
हिंसा कर बैठते थे। काम पर जाना उनकी विवशता थी और घर में किसी अन्य बड़े व्यक्ति
के न होने पर उन बच्चों के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाता था, उसके विषय में कौशल्या बैसंत्री ‘दोहरा
अभिशाप’ में लिखती हैं कि - “रेंगने वाला बच्चा हो तो उसके पांव में लम्बी रस्सी
बांधकर उसका एक सिरा किसी खाट से बाँध देते थे और आसपास कुछ खाना कटोरे में रख
देते थे या मुरमुरे जमीन पर ही डाल देते थे। बच्चा उन्हें बीन-बीनकर खाता रहता था।
रो-रोकर जमीन पर ही सो जाता टट्टी-पेशाब में। ऐसे में उन्हें बीमारियाँ होना
स्वाभाविक था और मृत्यु भी। बच्चा ज्यादा देर सोता रहे इसलिए उन्हें अफीम खिलाकर
भी सुलाते थे।”10 एक बार एक बच्ची को उसकी माँ ने अनजाने में ज्यादा
अफीम खिला दी थी, तब वह बच्ची मरते-मरते बची थी।
परिवार में बच्चे अधिकतर बड़ों द्वारा की गयी हिंसा का
शिकार हो जाते हैं, कभी-कभी तो उन्हें पता भी नहीं होता कि आखिर पिटाई क्यों की जा
रही है। एक बार खेत में दिशा मैदान जाते समय सूरजपाल ने अपने चाचा को ठकुराइन
भगवंती के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया। तब चाचा ने इन पर हिंसा की- “बस, वह
मेरे ऊपर लात-घूसे लेकर पिल पड़े। बरसात कर दी थी उस समय चाचा ने मेरे ऊपर थप्पड़ों
की। मैं भौचक्का उस समय कुछ समझ नहीं पाया। चाचा ने मेरे कान ऐंठते हुए कहा-
“सूरजपाल, तूने यह बात किसी कू बताई तो तोये जिन्दा ही धत्ती में गाड दूंगौ”।”11
अबोध बालक इस प्रकार की स्थिति में व्यवहार करना नहीं जानते। वे बस यूँ ही बड़ों की
हिंसा का शिकार हो जाते हैं।
बच्चों को जन्म देकर उन्हें भूखे मरने के लिए छोड़ देना
उनके प्रति होने वाली पारिवारिक हिंसा नहीं तो और क्या है। सूरजपाल जी के साथ इस
प्रकार की हिंसा कई बार हुई और जब ये भूख से विचलित होकर भोजन चुराने को मजबूर हो
जाते तो इन पर और अधिक हिंसा होती थी। इनके पिता ‘रामो’ नाम की औरत के साथ इतने व्यस्त रहते कि भोजन माँगने पर
इनकी पिटाई कर देते- “उन्हें बहुत गुस्सा आता। तरस खाने के बजाय लात घूँसे बरसाते
हुए कहते- “ठहर साले, अभी तुझे पकवान बनाकर खिलाता हूँ।” रामो को भी बुरा लगता कि
मैं वहाँ क्यों आ गया। वह मुझे गुस्से से घूरती हुई बड़बड़ाती थी।”12 इस
प्रकार तिहरी हिंसा इन्हें झेलनी पड़ती, एक तो भूख के कारण पीड़ा होती, दूसरे भोजन
चुराने पर सजा मिलती और तीसरे पिता द्वारा भी पीटे जाते। इतना ही नहीं भोजन के
लालच में सूरजपाल जी को यौन हिंसा तक का शिकार होना पड़ा। इनके दूर के मामा ने
इन्हें सूअर का गोश्त देने का लालच दिया और अपने कमरे में बुलाया - “एक बार नहीं
उसने उस समय थोड़ी-थोड़ी देर बाद मुझसे दो बार हस्तमैथुन करवाया। मुझे यह सब करते
घिन आ रही थी... मेरी बात सुनकर पिता ने कीकर की संटी से मुझे बहुत मारा। वह तब तक
मुझ पर संटी बरसाते रहे जब तक वह टूट न गयी। मेरे शरीर पर संटी की मार के निशान पड़
गये।”13 इसी प्रकार भोजन का लालच देकर संतो ताई ने भी इनका यौन शोषण
किया। यह स्थिति सूरजपाल जी के बाल मन पर बहुत गहरी हिंसा के निशान छोड़ गयी थी।
सूरजपाल जी ने अपनी आत्मकथा में केवल स्वयं पर होने वाली
हिंसा के विषय में ही नहीं लिखा है, बल्कि अपने वैवाहिक जीवन में आए तूफ़ान के कारण अपने
बच्चों पर होने वाली हिंसा का भी वर्णन वे ‘संतप्त’ में करते हैं। पत्नी के जय से
विवाहेतर सम्बन्ध होने के कारण परिवार जब दो हिस्सों में बंटा तो बेटी अपने पिता
के पक्ष में आ गयी जिसका परिणाम यह हुआ कि इनकी पत्नी विमला अपनी बेटी से नफरत
करने लगी थी। एक बार मधुर पापा के कहने पर चाय बनाने रसोई में गयी तो- “विमला ने
उस पर थप्पड़ों की बरसात शुरू कर दी। मैं मधुर को छुड़ाने आगे बढ़ा ही था कि भानु ने
सोचा कि शयद मैं विमला से झगड़ने जा रहा हूँ, उसने बिना सोचे-समझे मेरे सर के बाल
पकड़कर सोफे में दबोच दिया।”14 यहाँ पारिवारिक कलह का शिकार बच्चे हो
रहे थे।
अधिकतर दलितों के परिवार बड़े होते हैं, बच्चे अधिक होने के
कारण अभिभावक उन पर ध्यान नहीं दे पाते, जब घर के बच्चों में झगड़ा होता है तो
अक्सर माता-पिता बच्चों की पिटाई करते हैं। सुशीला जी की माँ के पास समय न होने पर
इनकी बहन इनके बाल बनाती- “मझली बहन मेरी चोटी बनाते समय जरा भी हिलने पर धमाधम
मारने लगती, फिर तो चोटी बनवाना एक तरफ रहता और मैं जमीन पर लोट लगाते हुए रोना
शुरू कर देती। तब माँ हम दोनों को मारती थी। किसी भी गलती की सजा थी, खाना नहीं
देना। ज्यादा परेशान करने पर माँ रस्सी से हाथ-पैर बाँध देती, रोने पर ज्यादा मार
पड़ती।”15 दलित परिवार में से बड़े बच्चे ही छोटे बच्चों को संभालते थे।
ऐसे में उन्हें अपने से छोटे भाई-बहनों की पिटाई करने का अधिकार मिल जाता था। सुशीला
के बड़े भाई जब अपने भाई-बहनों पढ़ाने बैठते तो छोटी सी गलती पर गुस्सा होकर फटैक से
कसकर उन्हें चाँटा मार देते। भारतीय संस्कृति में परिवारों में बेटों की बहुत पूछ
रहती है। शिक्षा का क्षेत्र हो या खेल-कूद का अनेकों पारिवारिक बंदिशों के कारण
लड़कियों का सामान्य विकास बाधित किया जाता रहा है। लड़कियों के उचित पोषण की भी
अनदेखी की जाती है। सुशीला जी की माँ भी इनके साथ ऐसा ही व्यवहार किया करती थी। वे
अपने भाई के प्रति माँ का अतिरिक्त प्रेम देख कर लिखती है- “माँ उसका ध्यान रखती
थीं। अधिक मेहनत मजदूरी करके, पैसे जोड़ कर उसके लिए घी खरीदकर लाती। दूध और अंडा
छिपाकर उसे देती। घी लोहे की कोठी में ताला लगाकर रखती...ठंडी के दिनों में
माँ मेथी के दवा के लड्डू बनाकर ताले में
रखती। सुबह चाय के साथ पिताजी को देती। “गरम दवाई है”-कहकर हमें नहीं देती।”16
सुशीला जी को माँ के ऐसे व्यवहार पर गुस्सा आता था।
परिवार में छोटे बच्चे होने पर अक्सर महिलाओं की व्यस्तता
बहुत बढ़ जाती है। यदि कामकाजी महिला हो तो स्थिति और अधिक व्यस्तता भरी हो जाती
है। काम ज्यादा और समय कम। ऐसे में यदि बच्चे शरारतें करें तो अक्सर महिलाएं
परेशान होकर बच्चों की पिटाई करने लगती हैं। सुशीला टाकभौरे जी के साथ कुछ ऐसा ही
होता था। इनको काम पर जाने के लिए तैयार होना, सुबह का खाना बनाना और बच्चों को भी
देखना आदि सभी कार्य एक साथ करने होते थे, वहीं टाकभौरे जी को निश्चिंत बैठकर
अखबार पढ़ रहे होते थे। यह सब देख इन्हें झुंझलाहट होती, पति को तो ये कुछ कह नहीं
सकती थीं, ऐसे में बेटे पर अक्सर सारा गुस्सा उतर जाता था- “चिंटू मेरे हाथों बहुत
मार खाता था। गुस्से के कारण मैं उसे मारती और रोने भी नहीं देती थी। हर समय, हर
बात में डांट-डपटकर रखने से बेटे का स्वभाव दब्बू और कुंठित सा बनता जा रहा था।”17
यहाँ पति के सहयोग की कमी नजर आती है, पति की अनदेखी के कारण यहाँ बच्चे माँ की
खीझ का शिकार होते नजर आते हैं। हद तो तब हो जाती है जब इस व्यवहार के कारण सुशीला
जी अपने अजन्मे बच्चे को गिराने का फैसला ले लेती हैं। इन्हें अपने तीसरे भ्रूण को
गिरवाना पड़ा, क्योंकि इनके दोनों बच्चे छोटे थे और ये तीसरे बच्चे की जिम्मेदार
उठाने के लिए तैयार नहीं थी। एबोर्शन के बाद नर्स ने सुशीला की रिश्तेदार को कहा-
“मना करने के बाद भी नहीं मानी। लड़के का भ्रूण था, चार महीने की बात थी। बाद में
अपरेशन करवा देना था।”18 लड़का होने की बात सुनकर सुशीला भी पश्च्याताप
में डूब गयी। अपने इस पुत्र मोह को सुशीला जी ने स्वयं स्वीकार है।
पिता का साया सर से उठ जाना किसी भी बालक के लिए बहद दुखद
होता है। वहीं सौतेले पिता का सौतेला व्यवहार बालक के बचपन को और अधिक दुखद बना
देता है। श्यौराज सिंह बेचैन ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ में बताते हैं कि भिकारी
ने इन पर मानसिक और शारीरिक हर प्रकार की हिंसा की। समाज को दिखाने के लिए कि वह
एक अच्छा पिता हैं, श्यौराज जी को नहलाने का ढोंग रचता- “उस वक्त वे दांतों की
बत्तीसी दबाकर बार-बार मेरी देह पर ऐसा रगड़ा लगाते जिससे मैं तिलमिला उठता। उनका
सौतेला भाव रगड़ के साथ आक्रोश में मेरी देह पर उतर आता था। वे इतनी निर्दयता से
मसलते थे मानो बढई लकड़ी पर रंदा फेर रहा हो। मैं छूट कर भाग रहा होता तो उन्हें
इसी बहाने मेरे मुँह पर तमाचा मारने का मौका मिल जाता।”19 सौतेला पुत्र
होने का दंश श्यौराज जी ने कई वर्षों तक झेला। भिकारी प्रतिदिन किसी न किसी बहाने
से इनकी और इनके भाइयों की पिटाई कर दिया करता था। एक बार भिकारी श्यौराज के छोटे
भाई रामभरोसे को रोटी खाता देख आगबबूला हो गया- “रामभरोसे को जमीन पर गिराकर उसके
एक गाल में किसी धारदार औजार से चीरा लगा दिया। “तेरे गाल नाय भरत ससुरे, मैं तेरे
गाल ही काट दूंगै।””20 सौतेले पिता का बहुत विभत्स रूप इन्होंने अपने
जीवन में देखा है। वह बच्चों का खर्चा नहीं उठाना चाहता था इसलिए उसने बच्चों से
मजदूरी करवानी शुरू कर दी थी। इनकी उम्र और शारीरिक क्षमता से अधिक काम जैसे भैंस
की खाल उतारने और उसे उठाकर एक जगह से दूसरी जगह पर लेजाने का काम भी इनसे करवाया
जाता था।
दलित बच्चों का जीवन बेहद कष्टों से भरा है, न जीवन जीने के उपयुक्त साधन, न
अभिभावकों के पास बच्चों से प्यार करने का समय, ऊपर से असमय की मार-पीट। इन सब
कारणों से बच्चे कुंठित मानसिकता वाले बन जाते हैं। गाँव और शहर दोनों ही जगह पर
बसे दलित परिवारों में बच्चे अपने-अपने तरीके से हिंसा के शिकार होते नजर आते हैं।
कहीं अंधविश्वास, कहीं पारिवारिक कलह, कहीं पितृसत्ता तो कहीं भूख आदि अनेकों कारणों
से दलित बचपन हिंसा ग्रस्त नजर आता है।
सन्दर्भ :
- नरेश शुक्ल : घरेलू हिंसा : कारण
व् निवारण, आविष्कार पब्लिशर्स - 2011, पृ.28
- मोहनदास नैमिशराय : अपने-अपने
पिंजरे भाग-2, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति-2009, पृ.48
- वही, पृ.158
- ओमप्रकाश वाल्मीकि : जूठन भाग-1,
राधाकृष्ण प्रकाशन, चौथी आवृत्ति-2009 पृ.47
- वही, पृ.55
- तुलसीराम : मुर्दहिया, राजकमल
प्रकाशन, दिल्ली, तीसरी आवृत्ति-मई, 2015, पृ.27
- राम चन्द्र, (संपा.) और प्रवीण
कुमार : हिन्दी दलित आत्मकथाएँ : स्वानुभूति एवं सर्जना का परिदृश्य
(श्रृंखला दो), एकेडमिक पब्लिकेशन, दिल्ली- 2018 पृ.65
- तुलसीराम : मुर्दहिया, राजकमल
प्रकाशन, दिल्ली, तीसरी आवृत्ति-मई, 2015, पृ.44
- वही, पृ.44
- कौशल्या बैसंत्री : दोहरा
अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली -2012, पृ.33
- सूरजपाल चौहान : तिरस्कृत,
अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, द्वितीय संस्करण-2005, पृ.35
- सूरजपाल चौहान : संतप्त, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, -2006, पृ.31
- वही, पृ.40
- वही, पृ.107
- शिकंजे का दर्द : सुशीला टाकभौरे, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली -2011, पृ.20
- वही, पृ.66
- वही, पृ.180
- वही, पृ.180
- मेरा बचपन मेरे कन्धों पर :
श्यौराज सिंह बेचैन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय प्रकाशन-2013, पृ.52
- वही, पृ.164
डॉ. रितु अहलावत
ritialwt@gmail.com, 7683055158
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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