शोध आलेख : नई आशा का सौन्दर्य है त्रिलोचन की कविताएँ
- डॉ. प्रवीण कुमार
शोध सार : प्रस्तुत शोध-पत्र त्रिलोचन के काव्य परिदृश्य पर केन्द्रित है जिसमें उनकी कविताओं में व्यक्त रचना सौन्दर्य के विविध फलक पर विचार किया गया है। उनकी रचना के उत्स में भारतीय समाज का आमजन है और उनकी भाषा भी आमजन की है। आमजन की इच्छाएँ, आशाएं किस प्रकार की हैं और कैसे उसे प्राप्त करने के लिए उन्हें दिन-रात संघर्ष करना पड़ता है। इसे समग्रता में समझना है तो त्रिलोचन का काव्य दर्शन को समझाना जरुरी है। आधुनिक कल के विविध आयाम में उनकी कविताएँ आम जन को एक नया सौन्दर्य बोध देती है जीवन को बेहतर बनाने के लिए।
बीज शब्द : त्रिलोचन, काव्य-सौन्दर्य, मानवीय संस्कृति, भाषा, जीवन सौन्दर्य, पर्यावरण, किसान, मानवीय संकट, सॉनेट, जनपद का कवि, देशज आधुनिकता, आत्मसंघर्ष, बाजारवाद, मजदूर|
मूल आलेख : त्रिलोचन
की रचना का देशकाल औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक भारत का है। निश्चय ही यह समय
औपनिवेशिक शासन व्यवस्था से मुक्ति का है। इसमें भारत और भारत के आमजन की अनुगूंज
व्याप्त है। इस मुक्ति में जहां एक तरफ आधुनिकता का दबाव है वही दूसरी तरफ देशज के
साथ भी अनूठा संबंध है। कुछ इतिहास का भी सच है। इसी बीच साहित्य अपनी जमीं की
तलाश करता हुआ यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और आदर्श के बीच आवाजाही करता
है। त्रिलोचन के काव्य संसार में इस आधुनिकता और ग्रामीण संस्कृति की अर्थवत्ता को
सहज समझा जा सकता है। भारत की यह विडम्बना है कि उसने राष्ट्रीयता के रूप में
समग्र चेतना का खंडित रूप पाया है। सन् 1947 का वह
खंडित रूप है । इस खंडित भारत का अखंड रूप मानव सभ्यता-संस्कृति को हमेशा के लिए
ही खंडित कर दिया। आज भी वह अखंडित का जाप जपते हैं लेकिन ‘मैं’ और ‘तुम’ में विभाजित है। इसके लिए समग्र चेतना और सम्यक दृष्टि के
अभाव को आधार बनाया जा सकता है। ‘मैं’ और ‘तुम’ का विभाजन के बीच एक ही सूत्र है अखंडित का भाव पैदा करने
वाला। वह है मनुष्यत्व। इसकी प्रकृति और प्रकृति के साथ सम्बद्धता ही मानवीय
सभ्यता-संस्कृति को एक नया रूप दे सकता है। आधुनिकता और परंपरा के बीच इतिहासबोध
की संपृक्त गहरी समझ से ही भारत का संपूर्ण-सम्यक समृद्धि और समग्र विकास का
भविष्य रच सकता है। साहित्य की इसमें अहम भूमिका है। त्रिलोचन की कविता ऐसी ही
मानवीय सभ्यता-संस्कृति का बोध कराती है। उनकी ‘मैं-तुम’ कविता संपूर्ण मानवीय संस्कृति के साथ-साथ समग्रता की मांग
करती है। इसीलिए वे लिखते हैं :
‘‘मानव का सारा सौन्दर्यबोध जब विकास करता
है
तब इनका अपना क्या योगदान रहता है/
आंखे ही इसे देख सकती है
मैं उसी समग्रता को देखने का आदी हूं
खण्ड में समग्र नहीं आता नहीं आ पाता
खण्ड सामने हो तो अखण्ड का महत्व क्या
अच्छी-अच्छी बातों के अर्थ बदल जाते हैं
मन किसी का बदल जाय तो सबकुछ एकाएक
उलटपुलट जाता है।’’1
इसका अभिप्राय यह हुआ कि मानव जीवन के विकास को उसकी समग्रता में
ही देखा जा सकता है और त्रिलोचन की यही समग्रता उनकी दृष्टि और उसकी पक्षधरता को
भी निर्धारित करती है। इसीलिए वे कहते है कि मन के बदलाव से हुए उलटपुलट में भी ‘‘मैं सबके साथ हूं अलग-अलग सबका हूं/ मैं सब का अपना हूं सब
मेरे अपने हैं। मुझे शब्द-शब्द में देखो/ मैं कहां हूं।’’ लेकिन इसी के साथ त्रिलोचन की यह अंतर्द्वंद्व भी दिखता है जैसे कि निर्गुण
संतों के यहां ‘घटवासी’ का है। गोबिन्द प्रसाद के अनुसार ‘‘मैं और तुम(कवि-समाज) की परस्परता व अन्तःसम्बद्धता के
सूत्रों को व्याख्यायित करती है यह कविता। अनात्म में आत्म तथा निर्वैयक्तिकता में
वैयक्तिकता की पहचान करता हुआ कवि अपने को शब्द-शब्द में देखने का आग्रह करता है।’’2 कवि का यह आग्रह कितना सार्थक और निरर्थक है यह तो उनकी
कविता का सौन्दर्य ही बताता है। शब्द उनकी अभिव्यक्ति भी है और सार्थकता भी।
जिसमें जीवन की संपूर्णता निहित है। ‘मैं-तुम’ कविता की संवेदना मानव जीवन की संवेदना है जिसमें श्रम भी है, सामूहिकता भी है, प्रकृति
भी है और आधुनिकता भी। यही कविता के अवधारणात्मक सरोकार का चरितार्थ भी है। इसमें
पक्षधरता की पहचान भी है। इसीलिए कवि कहता हैः ‘‘मैं सबका मैं है/ वैसे ही ‘तुम’ है’’ में जीवन की संवेदना और उसके सरोकारों का अद्भुत समन्वय
है। इसमें लाभ-हानि जैसे शब्दों का, जिसका आज घर-घर प्रचलन है की कोई
गुंजाइश नहीं है। यह दृष्टि और साथ का अंतर है। जिसके कारण ‘मैं’ और ‘तुम’ का फर्क है और इसी से एक-दूसरे से बचते बचाते, दृष्टि चुराकर चलते हैं। लेकिन कवि यह सब जानता है, सुख-दुःख आदि सबकी भाषा को जानता है तभी तो वे कहते हैं:
‘‘मैं भी आसपास कहीं होता हूं
और तुम्हारी सांसों की भाषा समझता हूं।।’’3
एक कवि की संवेदना हर एक प्राणी और समाज के हर एक वर्ग के बीच में
कैसी रमती है। इसे यहाँ आप देख सकते हैं। वह उन्हें अपने में समाहित पाता है और
उसकी अभिव्यक्ति बन साहित्य में उभरना चाहता है। समाज में उनकी आवाज बनना चाहता है
और अपनी सर्वज्ञता को बताना चाहता है। हर्ष-विषाद, सुख-दुख, आराम-विराम, मेहनत-मजदूरी, इच्छाएं-आकांक्षाएं, स्वप्न-संघर्ष आदि सभी में वह जन-जन की
आवाज बनना और उसकी उपस्थिति का अहसास कराना एक सार्थक साहित्य की पहचान है।
त्रिलोचन की कविता उसी उपस्थिति और अहसास की कविता है। किसानी जीवन की संस्कृति और
उस किसान की जिंदगी के विविध स्वरूपों के साथ-साथ उसके विविध रंगों को कविता के
एक-एक शब्दों में पिरोया है। जिससे पूरी कायनात की सभ्यता-संस्कृति का फलसफ़ा तैयार
होती है। या यूं कहें कि मानव की सभ्यता की नींव ही कृषक संस्कृति रही है। कृषि ने
ही मानवीय सभ्यता-संस्कृति का व्यवस्थित रूप तैयार किया है। लेकिन विडम्बना यह है
कि आज अन्नदाता ही भूखा सोता है। उनकी दशा बद से बदतर होती जा रही है। इसकी चिंता
किसी को भी नहीं है। त्रिलोचन की काव्य संवेदना उन्हीं कृषकों की संस्कृति से बात
करती है जिसपर पूरा व्यक्ति समाज और राष्ट्र ही टिका नहीं है बल्कि पूरी कायनात
खड़ी है। पूरा भविष्य टिका हुआ है। द्रष्टव्य हैं कविता की ये पंक्तियां:
‘‘और यह भी जानता हूं-मानव की सभ्यता
तुम्हारे ही खुरदरे हाथों में नया रूप पाती है।
और यह नया रूप आनेवाले कल के किसी नये रूप की
भूमिका है और यह भूमिका भविष्य का
संविधान बनती है वैसे का जैसे समाज सारा आज तक
आदिम समाज का विकास है,
आदिम समाज की अनेक बातें आज भी क्या नहीं हैं
व्यक्ति या समूह या समाज में
कहीं किसी जनपद में राज्य में राष्ट्र में
और फिर राष्ट्रों में
.................
मैं तुम से, तुम्हीं से बात किया करता हूं
और यह बात मेरी कविता है’’4
इतना ही नहीं, यह कविता त्रिलोचन की काव्य संवेदना और
कविता की वैचारिकी की प्रतिबद्धता के सौन्दर्य को उजागर करती है। जीवन जीने की
सार्थकता और गतिमान जीवन के बीच नये-पुराने, उतार-चढ़ाव की कहानी है यह कविता। इसके
बनने और बनाने में जीवन की मुस्कुराहट है। इस श्रम सौन्दर्य के साथ संगीत की
गुनगुनाहट से जीवन का संगीत तैयार हो जाता है। इसी से सभ्यता-संस्कृति का विकास
होता है। इस सभ्यता-संस्कृति के केन्द्र में व्यक्ति ही तो हैं लेकिन वह व्यक्ति
यदि अकेला होता है तो कितना असहाय होता है। क्या अकेलापन और असहायपन कवि का दर्शन
है? यदि यह दर्शन है तो त्रिलोचन के दर्शन में सभी असहाय और
अकेला व्यक्ति है। गोबिन्द प्रसाद के
शब्दों में, "वास्तव में यह अकेलापन उधार का लिया हुआ न होकर भारत
के अधिकांश उस ग्रामीण समाज का सच है जहां दो पैसे का हिल्ला ढूंढ़ने के लिए आदमी
अपने बाल बच्चों से दूर परदेश आ जाता है। अस्तित्ववादी अकेलेपन की छाया से कोसों
दूर इस अकेलेपन में कुछ ऐसी संघर्षशील रचनात्मकता है जो ‘रातोंरात धूल में कोई फूल उगा दे।’’5 त्रिलोचन व्यक्ति के अकेलेपन को और सामूहिकता दोनों को एक साथ देखते हैं।
सामूहिकता से वे व्यक्ति और उससे जुड़े सभी व्यवस्था-तंत्रों को जोड़ते हैं और
नर-नारी के रूप में उसे रेखांकित करते हुए मानव समाज का निर्माण करते हैं, लेकिन
इस सब के बीच व्यक्ति के अकेलेपन को कभी नहीं भूलते हैं। और इसी अकेलेपन को मेले
में भी अलग-अलग होने के भाव से जोड़ते हैं। त्रिलोचन वे लिखते हैं :
‘‘मानव समाज नर-नारी के हाथों से
व्यक्तियों, समूहों वर्गों, देशों
का रूप लिया करता है
व्यक्ति ही तो मूल है यहां वहां जो कुछ है
लेकिन व्यक्ति कितना असहाय है अकेले में।’’6
लेकिन उनका यह अकेलापन किसी भूल का पाश्चाताप है? क्या उनकी सामूहिकता मानवीय सभ्यता-संस्कृति की स्वतंत्रता
का परिचायक है? स्वतंत्रता से समूह में शांति और अमन की भावना पैदा होती
है। लेकिन इस प्रक्रिया में भूल भी होती है और जब इस भूल को ठीक कर लिया जाता है
या कर दिया जाता है तो सारी पृथ्वी पर शांति और अमन-चैन का जीवन खिल उठता है। यही
तो सत्य है। इस सत्य के यथार्थ से ही पृथ्वी पर जीवन सौन्दर्य है और जिसकी रक्षा
करना मानव का कर्त्तव्य है। अन्यथा विनाश की कहानी लिखेगी यही धरती। त्रिलोचन यहां
पूरी तरह से भविष्यद्रष्टा की तरह उपस्थित होते हैं। पर्यावरण और पर्यावरण तंत्र
दोनों से ही जीवन का सौन्दर्य है। यूं कह लीजिये कि पूरी सभ्यता-संस्कृति ही
पर्यावरण तंत्र पर टिकी हुई है इसलिए वे लिखते हैं:
‘‘इस पृथिवी की रक्षा मानव का अपना
कर्त्तव्य है
इसकी वनस्पतियां, चिड़ियां और जीवजन्तु
उसके सहयात्रा हैं इसी तरह जलवायु और सारा आकाश
अपनी अपनी रक्षा मानव से चाहते हैं
उनकी इस रक्षा में मानवता की भी तो रक्षा है
नहीं, सर्वनाश अधिक दूर नहीं।’’7
देखिये किस प्रकार त्रिलोचन पर्यावरण संकट पर विचार करते हैं।
क्या यह त्रिलोचन का आधुनिकतावादी दृष्टिकोण नहीं? जिस पर्यावरण संकट से पूरी दुनिया ग्रसित हैं और उसके उपाय पर सभा-गोष्ठी आदि
करते हैं। त्रिलोचन अपनी काव्यदृष्टि से इस बड़े संकट को महज छः पंक्तियों में
कितनी सहजता से कह देते हैं कि मनुष्य के जीवन की रक्षा जिन वनस्पतियों, जलवायु आदि से होती है। वह भी मनुष्य से अपनी रक्षा चाहते हैं। यदि ऐसा
नहीं हुआ तो सर्वनाश होगा। और इस सर्वनाश में मानवता पूरी तरह खत्म हो जाएगी। क्या
यह पर्यावरण संकट मानवीय संकट का उद्घोष नहीं? त्रिलोचन की काव्य संवेदना मनुष्यत्व का साग्रह करती है। वह उसे जीवन में
उतारने और संभालकर संजोने की बात करती है। ऐसा ही आग्रह वे ‘फूल मेरे जीवन में आ रहे हैं’ कविता में करते हैं और उसे संभालने एवं संजोने की बात करते हैं:
‘‘सुरभि हमारी यह, हमें बड़ी प्यारी है।
इसको संभालकर जहां जाना ले जाना
इसे
तुम्हें सौंपता हूं।’’8
इसी क्रम में त्रिलोचन शब्दों और शब्दार्थ को जीवन की आवश्यकताओं
की आपूर्ति का साधन मानते हुए अभिव्यक्ति की स्वंतंत्राता की बात करते हैं। यह
अभिव्यक्ति सिर्फ एक माध्यम ही नहीं होता है बल्कि इसमें मानवीय विकास और इतिहास
को देखा जा सकता है। ‘ध्वनि ग्राहक’ कविता में वे समाज में उठने वाली आवाजों को ‘भाषा’ देते हैं और ‘अंधेरे
को अंधेरे’ कहने की साहस करते हैं। अन्यथा जब आजाद भारत में सत्ता के
मुठभेड़ की ताकत जनता में नहीं है तो औपनिवेशिक भारत में उसकी क्या गति थी उसका
सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा ही संकट - अभिव्यक्ति के संकट और खतरे के समय
में त्रिलोचन की कविता एक नई आशा , अभिलाषा आदि के लिए लड़ते हुए समाज के
साथ खड़ी है। और ‘समाज में उठने वाली ध्वनियों को पकड़ती
है। उससे चिढ़ने वालों को चिढ़ाती हुई कहती है कि ‘‘उसकी बुद्धि कहीं हैं खोई है। ‘हरियाली’ नहीं होने पर भी उसे हरियाली कहने की हिमाकत नहीं करते हैं। ‘हरियाली’ से उनका अभिप्राय ‘किसान और किसान जीवन की संस्कृति’ है। और किसानों के जीवन पर राजनीति की रोंटी सेंकने वालों को सीधे धत्ता बता
देते हैं जो किसानों की विकास योजना को बड़े-बड़े होर्डिग में लगाकर सच्चाई से मुंह
फेर लेते हैं। ऐसी सोच और नीति को त्रिलोचन की कविता सीधे सवाल के कठघरें में खड़ा
करती है और वह कहती हैः
‘‘अगर न हो हरियाली
कहां दिखा सकता हूं? फिर आंखों पर मेरी
चश्मा हरा नहीं है।’’9
यहां यह स्वतः स्पष्ट होता है कि यह सवाल ‘दृष्टि’ और ‘दृष्टिकोण’ है।कौन किसके पक्ष में खड़ा है और क्या सोचता है? भारतीय समाज में विकास की गति -अधोगति का कारण यही दृष्टि
और दृष्टिकोण है जिसपर चलकर समाज और देश का विकास किया जा सकता है। इस क्रम में
ऐयारी और मक्कारी के नये-नये तरीके ईजाद कर लिए गये हैं। जिससे आमजन, किसान-मजदूर की गति रूक गई और वे विकास की राह में पीछे रह
गये हैं। इस ऐयारी की पहचान त्रिलोचन को है और उनकी कविता इसकी तरफदारी नहीं करती
है। इसीलिए वे लिखते हैं कि ‘यह नवीन ऐयारी मुझे पसंद नहीं है।’ सत्ता के समक्ष सच कहने का साहस होना चाहिए। यदि जीवन में
अंधेरा है तो उसे अंधेरा कहने का साहस होना चाहिए। और उनकी कविता ‘कोठरी अंधेरी है तो उसे अंधेरी कहने और समझने-समझाने की
साहस पैदा करती है। ऐसा कहने, समझने और समझाने को वे अधिकार समझते हैं
और सत्य को सत्य बतलाने की लकीर खींचते हैं। वर्तमान में जिस तरह से ‘सत्य की गला घोटू’ संस्कृति प्रचलन में है और सेवा, सिफारिश
आदि के माध्यम से आमजन के अधिकार को लगातार खत्म किया जा रहा है; ऐसी परिस्थिति में त्रिलोचन की कविता हाथ-पर-हाथ रखकर चुप
रहने की खिलाफत करती है और नई आशा, अभिलाषा, चित्रों के साथ नई भाषा को चुनने और ईजाद करने की संवेदना पैदा करती है :
‘‘लड़ता हुआ समाज, नई आशा-अभिलाषा
नये चित्र के साथ नई देता है भाषा।’’10
इस प्रकार त्रिलोचन की कविता ‘फेरीवाले, रिक्शावाले, किसान, मजदूर, चम्पा, भगताया नगई महरा, भिखरिया आदि की आवाज बनती है और उसे शब्द देती है। ‘शब्द’ अभिव्यक्ति भी है और भाषा भी। भाषा के
बिना जीवन मरण-सा होता है। वह मानवीय सभ्यता-संस्कृति का भी परिचायक है। इसी से
जीवन में हलचल होती है। इच्छाएं, आकांक्षाएं, स्वप्न, संघर्ष और इतिहास सब कुछ बनता-बिगड़ता है। शब्दार्थ में ही
जीवन का स्पंदन है और वही समाज की गतिशीलता भी है। इसके बिना तो सब कुछ खो जाता
है। जीवन का अंत मान लिया जाता है। इसीलिए कवि लिखता है कि ‘सबकुछ भाषा’ है और ‘भाषा की अंगुलि’ पकड़कर ही मानव मानवता की सीढ़ी चढ़ा है।
उनका हृदय झंकृत हुआ है और उनमें नई अभिलाषा भी आकार ली है जिससे विकास की गाथा की
कहानी जुबानी सवर्त्रा प्रकाशमय हुई है। समाज में क्रिया और क्रिया के माध्यम से
गतिशीलता और गतिविधियां सम्पन्न हुई हैं। कवि ‘भाखा बहता नीर’ की भांति भाषा की लहरों में जीवन की
हलचल को देखता है और कूपमंडूपता से मुक्त होकर संगीत की ध्वनि में क्रिया की
संम्पन्नता को देखता है जिससे जीवन में बल का संचार होता है। इसीलिए कवि कहता हैः
‘‘भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।’’11
यहां भाषा की सरंचना और उस संरचना में जीवन की क्रियाओं की
संपन्नता की शक्ति देखी जा सकती है। अर्थात ध्वनि यानी आवाज में ही कर्म का
सौन्दर्य है और उसी में शक्ति निहित है। बिना कर्म की शक्ति और आगाज को यदि
ध्वनात्मक स्वरूप नहीं दिया जाए तो फिर गूंगा, बहरा समाज कभी उसकी सुनता भी नहीं है। न ही वह आत्मलोचन करता है और न ही उसकी
अभिव्यंजना ही। ऐसी स्थिति में उसकी सार्थकता कैसे सिद्ध हो सकती है। अभिव्यक्ति
का विश्लेषण-आत्मविश्लेषण ‘सत्यम, शिवम्-सुन्दरम’ की अभिव्यंजना है। बिना
अभिव्यक्ति पाये तो कभी सत्यम-शिवम-सुन्दरम की सार्थकता और उसके सरोकारों को नहीं
समझा जा सकता है। ‘शब्दों में’ ही सब कुछ जीवन का समाहित है। शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते हैं। वह किसी भी कभी
उत्तर की चाह नहीं करते हैं। परंतु वे रसायन की उत्पाद की तरह समाज में नया स्वरूप
और उस स्वरूप की अभिव्यंजना करते हैं। वे विभिन्न रूप-रंगों में ढले होते हैं। कभी
मनचाहा तो कभी अनचाहा। लेकिन वे हमेशा ही नये चित्रों और नये रंगों में अपनी
दस्तान बया कर ही देते हैं। त्रिलोचन उससे मुक्त होकर अपनी अनुभूतियों और अनुभवों
को शब्दों में ढालते हुए उसे कागज पर उतारते हैं। और यह सब वे डंके की चोट पर कहते
हैं।
‘‘अब मैं लिखा करता हूं।
अपने अनतर की अनुभूति, बिना रंगे चुने।
कागज पर बस उतार देता हूं।’’12
अर्थात त्रिलोचन का काव्य रचना संसार बिना किसी साहित्यिक आंदोलन
के रंग में रंगे अपनी कोरे अनुभूति के रासायनिक स्वरूप में ढला हुआ है। ध्रुव
शुक्ल के शब्दों में, उन्हें ‘‘भावातिरेक और आंदोलनबाजी कभी रास नहीं आई। यही कारण है कि वे राजनीति से
प्रेरित किसी साहित्यिक आंदोलन के केन्द्र में नहीं रहे।...पर त्रिलोचनजी ने तो
पुरातन आलोक और काव्यपरम्परा सम्मत ध्वनि प्रवाह में अपना मार्ग स्वयं खोजा।’’13 लेकिन सवाल उठता है कि क्या कोई भी साहित्यिक रचनाएं बिना
किसी वैचारिकी की होती हैं? क्या उसमें किसी सामाजिक विचारधारा की
गंध नहीं होती है? इसकी पड़ताल ध्रुव शुक्ल ने स्वयं
त्रिलोचन की रचनाओं के माध्यम से की है और वे कहते भी हैं कि त्रिलोचन ने स्वयं यह
राह खोज की है। जिसमें तुलसीदास और गांधी के स्वरों को स्वतः समझा जा सकता है तो
फिर यह कहना कि त्रिलोचन किसी साहित्यिक आंदेलन की विचारधारा से सम्बद्ध होकर रचना
नहीं किये हैं, कहां से उचित है? इसीलिए
त्रिलोचन ने भाषाओं के माध्यम से ‘अगम समुद्रों का अवगाहन’ किया है लेकिन उन्हें तो ‘मानव जीवन की माया’ ही सदा मुग्ध करती है। निश्चय ही इसमें
इतिहास और माया-भाषा में अंतर किया जाना चाहिए। त्रिलोचन ने इतिहास की जगह ‘माया’ में लिपटे मनुष्य की साधना को केन्द्र
बनाया है। ध्रुव शुक्ल ने ‘त्रिलोचन संचयिता’ की भूमिका में लिखा है कि ‘‘मनुष्य को उसकी ‘माया’ पर मुग्ध कवि ही नाप सकता है। ‘हिस्ट्री’ पर मुग्ध कवि नहीं। प्रेम में लिपटे केवट के अटपटे बैन इतिहास में कहां
मिलेगा!’’14 ‘उन्नतप्राण त्रिलोचन की आंखों में निराला हैं। और उसी की
परंपरा में उसे देखते हैं। ‘‘महात्मा तुलसीदास की आंखों में राम हैं।
महाप्राण निराला की आंखों में तुलसी हैं और उन्नतप्राण त्रिलोचन की आंखों में
निराला हैं। तीनों को परिस्थितियों ने खूब पीसा है पर उन्होंने मनुष्य के तन और मन
को नापने के मानदण्ड कभी छोटे नहीं किए। ‘परमार्थिक’ विश्व में यह संभव ही नहीं है कि मानदण्ड छोटे किये जा
सकें। यह संभावना तो ‘आर्थिक’ विश्व में ही है।’’15
इससे यह स्पष्ट होता है कि श्री वासुदेव
सिंह उर्फ त्रिलोचन की वैचारिकी तुलसीदास की परंपरा की है और उनकी काव्यचेतना भी
उसी ‘रसायनिक घोल’ की उपज
है। ‘‘त्रिलोचनजी आर्थिक रूप से भले ही विपन्न रहे हों पर उनकी
कविता भारतीय परंपरा सम्मत काव्य विवेक से इतनी समृद्ध है कि उन्हें किसी मतवाद के
सांचे में ढालना हमेशा मुश्किल रहा है। वे मानव के इतिहास पर नहीं, उसकी माया पर मुग्ध कवि हैं।’’16 परन्तु वास्तविकता तो यह है कि त्रिलोचन जनवादी कवि हैं। उनकी विचारधारा भी मार्क्सवादी है।
वर्तमान में पर्यावरण संकट को एक मानवीय संकट के रूप में
रेखांकित किया गया है। नदियां सूखती जा रही हैं। दिनप्रतिदिन जल संकट गहराता जा
रहा है। इसके बावजूद भी मनुष्य लगातार अपनी महत्वाकांक्षा की आपूर्ति हेतु
दिन-प्रतिदिन पर्यावरण का दोहन करने पर लगा हुआ है। इससे पूरी मानवीय
सभ्यता-संस्कृति एक संकट से घिर चुका है। इस गहराते संकट का चित्राण साहित्य में
मिलता है। त्रिलोचन मनुष्य पर नदियों के ऊपर बांधकर उसके दोहन को ‘कामधेनु’ के रूप में रेखांकित करते हैं:
‘‘नदी ने कहा था; मुझे बांधों
मनुष्य ने सुना और
आखिर उसे बांध लिया
मनुष्य दुह रहा है
अब वह कामधेनु है।’’17
देखिये कितनी सहजता से त्रिलोचन मनुष्य की दोहन की प्रवृत्ति को
रेखांकित करते हैं और नदियां जो एक प्रकृति प्रदत्त मानवीय सभ्यता-संस्कृति का
प्रतीक हैं। उसके दोहन से मानवीय जीवन
कितना प्रभावित हो रहा है और कितने तरह की
समस्याएं आज उत्पन्न हो रही हैं। इस सबका जिम्मेदार मनुष्य स्वयं ही है।
परंतु मनुष्य यह सब करके अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहा है? क्या यह चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए?
हिंदी साहित्य के इतिहास में त्रिलोचन नये शिल्प और नई भाषा
सरंचना के लिए जाने जाते हैं। उनकी यह नई शैली है ‘सॉनेट’। लेकिन वे परंपरा की रचना शैली से अलग नहीं रहे हैं।
परंपरा से चली आ रही - गीत, बरवै, ग़ज़ल, चतुष्पदियां और कुण्डलियां आदि भी रचे हैं। ‘तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी। मेरी सजग चेतना में तुम
रमे हुए हो।’ कहकर भारतीय साहित्यिक जनमानस की परंपरा से अपने आप को
आबद्ध-सम्बद्ध करते हैं। उनकी कुछ कहानियां और आलेख भी है। मगर उनकी पहचान बतौर एक
प्रतिष्ठित कवि की ही है। ‘जनपद’ की कवि। जिसे वे डंके की चोट पर कहते
भी हैं। इसी नाम से उनकी एक कविता भी प्रकाशित है जिसका शीर्षक है-‘ उस जनपद का कवि हूं’। यह कविता जनपद ही नहीं पूरी भौगोलिक धरा और वसुंधरा में मानव जीवन की कहानी
कहती है जिसे विकास की कोई भी जानकारी नहीं। आज भी वह भूखा, नंगा, दीनहीन, अनजान, कलाविहीन जनसमुदाय की तरह जीवन जी रहा है। कैसी उसकी
जिंदगी कटेगी? वह पूरी तरह से अपने समाज और अपने आप में उदासीन है। ऐसा
क्यों है? यह इतिहास ही बता सकता है। वह इस चकाचौंध दुनिया से सपने
की तरह देखता है। उस विचार को भी उसे त्यागने की जरूरत है जिसे आज तक वह ढोता चला
आ रहा है। तुलसीकृत रामायण पढ़ने-सुनने और नारायण-नारायण जपने से कोई धरम नहीं होता
है। उससे समझने की जरूरत है। अपनी असफलता और मनोरथ विफल होने जो आज तक करता आ रहा
है उससे त्याग करना अनिवार्य है क्योंकि उस विचार से किसी का भला नहीं हो सकता है।
वे विचार रह भी नहीं गये है जिसे वह ढोता चला आ रहा है। इससे उनकी मनोरथ पूरा होने वाला नहीं है। उसके आंसू
को उससे पोछा नहीं जा सकता है। उससे अलग नहीं है वह उसके लिए। कवि की चिंता यही
है। वे लिखते हैं:
‘‘अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहां से कहां पहुंची; अब समाज में।’’18
यह जो वैचारिक बदलाव की बात त्रिलोचन करते हैं। वस्तुतः उनकी यह
चिंता जीवन में बदलाव की चिंता है। उनका काव्य संसार बदलाव को स्वीकार भी करता है
और उसकी चिंता भी करता है। ‘भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल’ और ‘वही त्रिलोचन’, ‘चीर भरा पाजामा’ और ‘उस जनपद का कवि हूं’ आदि कविताएं एक-दूसरे के पूरक हैं और सभी को एक साथ देखने
पर त्रिलोचन की चिंता और उस चिंता से मुक्त होने की आकांक्षा; दोनों को समझा जा सकता है। उसे महसूस किया जा सकता है।
वस्तुतः यह चिंता एक मनुष्य की चिंता है। उसके जीवन की चिंता है। उनके उद्यम की
चिंता है। जिसके पास न बिस्तरा है न ही चरपाई है। इसी में उनका संघर्ष भी है जिसके
बदौलत वह अपनी जिंदगी को बदलने का उद्यम करता है। द्रष्टव्य है ‘बिस्तरा है न चारपाई है’ कविता की यह पंक्तियां:
‘‘ठोकरें दर-ब-दर की थीं हम थे,
कम नहीं हमने मुंह की खाई है।
कब तलक तीर वे नहीं छूते,
अब इसी बात पर लड़ाई है।’’19
यही त्रिलोचन का आत्मसंघर्ष है और उस समाज का, उस जनपद का भी। जिसमें गरीबी है, धूल है, फूल है, शूल है और जिसका आंचल मैला है। जिसके तन
पर कपड़ा नहीं, पेट में दाना नहीं है, सिर पर छत नहीं है और जो जीवनपथ पर निरंतर चलायमान है, गतिमान है, बिखरा हुआ है
जिसकी जिंदगी भट्ठी में लगातार तप रही है। जिन्हें ‘पथ पर फुर्सत कहां?’, और ‘दीनता देह से लिपटी है, फिर भी ‘मन तो अदीन है।’ यह
उन्हीं का संघर्ष है जिसके बल पर त्रिलोचन जीवन की समस्याओं को दूर करना चाहते थे।
अन्यथा आदमी जी तो रहा है मरने को। ठोकर दर-ब-दर खा रहा है, मुंह की खाई है। इसी यथार्थ को समझने की बात है। त्रिलोचन
की कविता में उनके आत्मसंघर्ष की कहानी है। ‘वही त्रिलोचन’ जैसी कविता इसका उदाहरण है जिसमें उनकी स्वानुभूति है और इसमें
समाज का वह यथार्थ भी सम्मिलित हो जाता है जो वैसी हालात को जी रहा है और उस
यथार्थ से गुजर रहा है। आर्थिक तंगी का
ऐसा पोट्रेट बहुत कम ही देखने को मिलता है जैसा कि त्रिलोचन ने खींचा है। यह भारत
का सामाजिक यथार्थ है। लेकिन इसी का दूसरा पक्ष यह भी है कि जीवनपथ में जो जितना तपता है, वहीं निखरता भी है। परंतु इसका आशय कतई नहीं है कि जीवन
ऐसी तंगी, गरीबी में हो जाए कि जीवन क्या है? का अनुभव ही न हो। इसी उपेक्षा-अपेक्षा के बीच जीवनपथ में जो सूनापन बढ़ा है।
फुर्सत का अभाव जो घर कर गया है। इसके बावजूद भी जीवनपथ में जनजीवन का प्रवाह
समुत्साह से भरा हुआ है। इसी क्रम में ‘भ्रमग्रस्त’ और ‘मिथ्याभिमान’ दोनों को अलगाया है और यही प्रिय
आलोचन है। उनकी ‘चीर भरा पाजामा’ ऐसी ही कविता है। उन्होंने धर्म निर्मित अंधकार से मुक्ति की बात की है। और वे
उस ‘तम’ से लड़ते हुए आगामी मनुष्य की चिंता से
चिंतित भी हैं। उनकी ‘पश्चन्ती’ कविता धर्म निर्मित अंधकार से मुक्ति की कविता है और ‘तम’ से लड़ते हुए
मनुष्य की आगामी भविष्य की चिंता से भी चिंतित है कि क्या ‘नया मनुष्य’ उसे अपनायेगा? क्या उसे अपने विजय गान में उन्हें पाएंगे?
त्रिलोचन भाषा की संरचना और बुनावट से लगातार चिंतित कवि है।
नया-नया प्रयोग वे लगातार करते रहे हैं। आमजन की बात आमजन की भाषा में जानना और
फिर उससे जगह देना बहुत बड़ी बात है। त्रिलोचन इससे लगातार जूझते हैं। उनकी कविता ‘अपना घर’ इसी की अभिव्यक्ति है। यह कविता पूरी
तरह से भाषा की बात करती है। ऐसी भाषा जिसे सभी जन अपना समझे और ऐसा घर बनाए जिसे
सभी अपना समझे। ‘महल खड़ा करने की इच्छा है शब्दों का’ में अभिव्यक्ति की आजादी , संपर्क भाषा की पूरी अवधारणा छिपी हुई है। ‘कौन कान सुनेगा’ में स्वाभिमान की बात प्रबलता के साथ आई
है और ‘अपनी सुनाने की भी’। ‘अपनी कैसे कहूं।’ ‘तान और
स्वाभिमान’ को सुनने और सुनाने की सार्थकता की कविता है। ‘पथ पर चलते रहो निरंतर’ जीवन में ‘सुनापन’ और ‘निर्जन’ पथ पर चलते हुए पथिक के आत्मसंघर्ष और अथक प्रयास के
उपरांत सार्थकता के साथ उत्तर देने की कविता है। इसीलिए कवि कहता है कि ‘पथिक चरण-ध्वनि से दो उत्तर’।
‘जल से हिल जाने पर कैसे तल की छाया’ कविता
धार्मिक सत्ता, आत्मा-परमात्मा पर आधारित है जिसमें आत्म खत्म होने पर सब
कुछ खत्म हो जाने की पूरी संभावना है। ‘तल’ और ‘जल’ आत्मा-परमात्मा का द्योतक है। त्रिलोचन की रचना शैली की एक खास मिजाज यह है कि
उसमें प्रश्नोत्तर है। वे लगातार सवाल करते हैं। यह एक सजग कवि की पहचान है, जो जग-जीवन की गतिविधियों से परिचित हों और जो परिचित होंगे वही सवाल भी
करेंगे। जो अपरिचित होंगे वे कहां से सवाल करेंगे। इसी कविता में वे आत्मा की तलाश
करने वाले सभी व्यक्ति से सवाल करते हैं :
‘‘अपनी चमक दिखा कर, कहां गया वह आत्मा
जिसकी सब तलाश करते हैं; जिसकी रेखा
नहीं बनी लेकिन सत्ता का शोर हो गया
सारे जग में, आत्मा ही तो है परमात्मा।’’20
यहां स्पष्ट यह देखा जा सकता है कि वे तमाम लोगों से सवाल करते
हैं जो गोया आत्मा-परमात्मा की सत्ता की बात करते हैं और जिसकी तलाश में लोगबाग
जहां-तहां भटकते रहते हैं। जिसको लेकर सत्ता की होड़ मची पड़ी हुई है कि आत्मा की
परमात्मा है। क्या इससे त्रिलोचन यह साबित करना चाहते थे कि ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ सिर्फ और सिर्फ सत्ता संघर्ष है? क्या वे आनी कविता के माध्यम से निर्गुण संत परंपरा की निर्गुण भक्ति की ओर
संकेत करना चाहते हैं? वैसे तो त्रिलोचन के काव्य संसार में
तुलसीदास, बुद्ध, गांधी, आदि की ध्वनि सुनाई पड़ती है। उनके विचारों पर उनकी अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति
दोनों दिखाई देती है। ‘महाकाश का कलश’ कविता में जिस प्रकार से ‘घट के भीतर घट हैं’ और जीवनचक्र को घट, चाक, पृथ्वी, सूरज आदि बिम्बों के माध्यम जीवन की
संपूर्णता का जिक्र है। यही भाव उनकी एक अन्य कविता ‘सप्त बालचन्द्री आयस पुल राजघाट’ में भी
दीखता है। क्या यह कबीर को याद करने का अवसर था? जो डरेरा देकर या डंके की चोट पर जीवन के सत्य को जीने और मरने की बात करते
हैं। क्या यह महज संयोग ही है या त्रिलोचन की अनुभूति कि वे जीवन के तल्ख को उजागर
करते हुए कहते हैं कि ‘मैंने जीवन की शराब पी’। वस्तुतः ऐसा लगता है कि त्रिलोचन जीवन की सच्चाई को जीना
चाहते थे परंतु वह कितना सार्थक हुआ; यह
कहना मुश्किल है। क्योंकि आज त्रिलोचन नहीं हैं। लेकिन यह कहा जा सकता है कि उनकी
कविता जीवन जीने और अपनी इच्छानुसार जीने की चाहत की अभिव्यंजना है। जीवन के
संघर्ष और उसकी सीमाओं के बीच स्वयं निर्णय की अभिव्यक्ति है। जिसमें चिर-परिचित, जीर्ण-शीर्ण, सबका
साथ जीवन के मधुरतम संगीत गुनगुनाने की परिकल्पना है। इसी आत्मसंघर्ष की कड़ी में
उनकी कविता ‘जीवन का एक लघु प्रसंग’ को भुलाया नहीं जा सकता है। यह कविता एक गद्य काव्य है लेकिन पूरी तरह से
वासुदेव सिंह से त्रिलोचन बनने-होने की कविता है। यह कविता उनकी शिक्षा-दीक्षा की
दास्तान है और उनके संघर्ष की खासकर आर्थिक तंगी, पैसों की समस्याओं के कारण उत्पन्न शिक्षा में बाधाओं की कहानी है जो कि भारत
वर्ष में गरीबी और शिक्षा के संबंधों की पड़ताल करती है। गोया जो गरीब है उनके लिए
शिक्षा पाना कितना मुश्किल है। किताबों की समस्याएं मूलतः पैसों की हैं जिससे उनकी
पारिवारिक स्थिति को समझा जा सकता है कि त्रिलोचन के परिवार वालों की आर्थिक तंगी
क्या रही होगी? विवरणात्मक संवाद शैली की यह कविता उनके जीवन में उत्पन्न
आर्थिक कठिनाइयों की तस्वीर खींचती है। अपनी बुआ के द्वारा पूछे गये सवाल के जबाव
में त्रिलोचन की सहजता और उनकी मां एवं बुआ की विवशता पूरी तरह से उजागर होती है।
भारत के गांवों की उस मानसिकता का परिचायक है यह कविता, जिसमें शिक्षा की बात सेकेण्डरी होती है पहले पेट की आग बुझाने के लिए काम और
पैसा कमाने का उद्यम की बात होती है। इससे बड़ी बात यह होती है कि पढ़-लिखकर क्या
होगा? ‘जो नहीं पढ़ते, वे सब
क्या अमर हैं?’ इसी मानसिकता की वजह से आज भी 21वीं सदी में भारत की शिक्षा-दीक्षा उस स्थिति में नहीं पहुंच सकी जिसकी उम्मीद
की गई थी और की जा रही है। इसका दूसरा कारण तो देश की नीति के साथ-साथ
शिक्षाव्यवस्था भी है। उससे भी बड़ी बात यह है कि जैसा कि मां ने कहा ‘मक्खी लीलते नहीं बनता’। मक्खी लीलना एक मुहावरा है जिसका आशय होता है कि कोई भोजन का कोई प्रबंध
नहीं है। इसका दूसरा पहलू है कि कोई कामधंधा नहीं है। दोनों ही स्थिति में कवि का
आत्मसंघर्ष भारत की उन गरीबों का आत्मसंघर्ष हो जाता है जिन्होंने ‘मक्खी मारा है और मक्खी लीला है।’ इससे ज्यादा खतरनाक यह सोच रही है कि ‘पढ़-लिखकर आखिर फलाने विक्षिप्त’ हो गए। त्रिलोचन ने उस भारतीय सोच को
दर्ज किया है जिसके कारण जनपद में अशिक्षा फैलती रही है। इसकी पुष्टि बहुजन
आत्मकथाओं में दर्ज अशिक्षा के संदर्भों से भी होती है जिसमें यह कहा जाता है कि
ज्यादा पढ़ने-लिखने से आदमी पागल हो जाता है। तुलसीराम कृत ‘मुर्दहिया’ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसके बावजूद
यह मां और बुआ की चेतना ही है कि वे त्रिलोचन को पढ़ने की छूट देती है। उनको उम्मीद
है कि विद्या माता ही उसे निरखें और परखें, उसकी रक्षा एवं पालन-पोषण करें। बुआ का कथन द्रष्टव्य हैः
‘‘मैंने श्रद्धा से, प्रेम से, निष्ठा से,
विद्या को दान कर दिया है;
जानबूझ कर दान कैसे फेर लूं,
ऐसा कभी नहीं हुआ-
विद्या माता ही अब इसको निरखें-परखें।
रक्षा और पालन-पोषण करें।’’21
इससे यह स्पष्ट है कि विद्या से जीवन में निखार आता है और उसकी
रक्षा होती है और जीवन की सार्थकता भी उसी में है। यानी यूं कह सकते हैं कि आदमी
का पालन-पोषण और उसके जीवन की रक्षा का कायदा सही रूप में विद्या से ही आता है।
हुनर और ज्ञान से ही होता है।
त्रिलोचन की पारिवारिक पृष्ठभूमि किसान जीवन की है और उनकी कविता
का आयाम तथा फलक दोनों किसानी जीवन से सराबोर है। उनका पहला काव्य संग्रह ‘धरती’ इसका सद्यः प्रमाण है। जिसका प्रकाशन 1945 ईं में हुआ था। गोबिन्द प्रसाद के अनुसार ‘‘इन कविताओं में काव्य के प्रत्यक्ष व्यापर पर बल है जिसमें
किसानी जीवन के सामूहिक श्रम व संघर्ष के चित्रों को सहज और अनलंकृत ढंग से बेबाक़ी
के साथ रखा गया है।’’22
इसमें अकेलेपन का दर्शन नहीं है। प्रेम
है, सामूहिकता है, धरती
है और उस धरती के प्रति सामाजिक दायित्व भी है। ‘‘वस्तुतः धरती’सामाजिक उत्तरदायित्व की रचना है। ‘धरती’ ही क्या अन्य रचनाओं में भी यत्रा-तत्रा
त्रिलोचन की कविताओं में ढेरों चरित्रा बिखरे पडे़ हैं। इनमें अनपढ़ बच्ची चम्पा है,चित्रा जाम्बोरकर है, नगई महरा है, भोरइ केवट है, अछूत निषाद है, मंगल, निरहू, अवतरिया, सोनी और सुकनी है तो सब्जी बेचने वाली
बुढ़िया है। इन कविताओं में भारत के किसान-मजदूरों और दुःख-सुख को सहती संघर्षशील
जनता की मुंह से बोलती तस्वीर अपने सरल रूपों में सामने आती है। इन चरित्रों में
कवि की वर्गीय दृष्टि और विचारधारा को देखा जा सकता है। इन तमाम चरित्रों को जोड़कर
भारत के ‘आम आदमी’ की तस्वीर बनती है। इन चरित्रों के
विभिन्न पहलुओं को सामने रखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि त्रिलोचन का कवि किस
मनुष्य का निर्माण अपनी कविताओं में करना चाहता है। किन मानव-मूल्यों को वे
प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। उनकी पक्षधरता कहां है। इन चरित्रों के माध्यम से उनकी
काव्य दृष्टि में निहित यथार्थ के उस रूप को सहज लक्षित किया जा सकता है।’’23 यही त्रिलोचन की काव्यदृष्टि है, उनकी वैचारिकी है या यूं कह लीजिए कि उनकी जातीय परंपरा भी है और उसका विकास
भी, जो निरंतर जीवन पथ पर संघर्षरत है। जिनकी सांसों को आराम
नहीं है। और जो दिन-रात समाज के कल्मष धोने में लगा हुआ है। उनकी कविता में मानव
ही प्रथम और अंततः संज्ञा तथा स्थान पाता है। उन्हीं से ‘अपनापन’ की उम्मीद करता है और दिलखोल कर बाते करने की चाहत रखता
है। इसीलिए कवि कहता हैः
धन की उतनी नहीं मुझे जन की परवा है
जितनी। जो मुझ से खुलकर मन से मिलता है
मैं उसका वशवर्ती हूं। इस से खिलता है
मेरे प्राणों का शतदल। एक ही दवा है
जीवन के सौ रोगों की, चाहो तो ले लो
................
अपनापन सब पर पसार दो, खुलकर खेलो।24
अर्थात् जीवन के विविध रंगों में से सिर्फ एक रंग ही जो सभी को
आकर्षित करता है वह है अपनापन। यानी प्रेम। यह जो विविधता का रंग और प्रेम है उसकी
अभिव्यक्ति ‘सारनाथ’ कविता है जहां प्रकृति और मानव जीवन की
प्रकृति के बीच के समन्वय रूप है। साधारण में असाधारण का भाव त्रिलोचन की कविता की
विशेषता है। वे छोटी -सी छोटी चीजों को उसी की सहजता में व्यक्त करते हैं जिसके
कारण उपेक्षा का भाव पैदा होता है। ‘मैं
कृतज्ञ हूं’ में बाजारवाद और बाजार में बिकाऊ का उल्लेख किया गया है।
इस कविता में एक तरफ प्रिय कवि की बात है तो दूसरी तरफ बाजार में सब कुछ बिकाऊ है
और पैसों का अर्थ इस बाजारवाद में कौन नहीं जानता है। जो इस बाजार की भाषा जानता
है वह बाजारवाद में टिकता है लेकिन जिनके भाव उनके जीवन का भाव है। उसे बाजारवाद
से क्या लेनादेना है। त्रिलोचन को इस बात पर गर्व है कि मेरे जैसे सपने किसी और को
नहीं है। इसी सपनों को वह अपनी कविता में संजोते हैं, उसे अभिव्यक्त करते हैं। यह अनुभूति और स्वप्न उनकी कविताओं को अन्य से अलग
करती है। त्रिलोचन की काव्यानुभूति और दृष्टि दोनों ही आमजन के संघर्ष और स्वप्न
हैं:
‘‘मेरी कविताओं के सपने सब मेरे हैं
मुझे तो प्रसन्नता है
यदि मेरे सपनों को कोई भी नहीं कहता
मेरे हैं।’’25
निश्चय ही यह कवि की स्वानुभूति है जो किसी से मेल नहीं खा सकती
है और न ही कोई दूसरा उसे अपना कह सकता है। यही इतिहास का सत्य है और इस सत्य पथ
पर चलना और सत्य कहना बहुत ही दुःसाहस का काम होता है। यह साहस त्रिलोचन में है कि
वे अपने काल की रचनाओं को काल्पनिक कहते हैं। और समीक्षक द्वारा उस कल्पना को सत्य
के रूप में स्वीकृति भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। साहित्य में कल्पना और यथार्थ के
बीच रचनाओं को अपनी जमीं बनानी होती है।
तत्कालीन लेखन में कल्पना की सवारी जो हो रही थी और साहित्यिक विद्वानों के
द्वारा उसकी स्वीकृति जो रही है। त्रिलोचन उसे नकार रहे थे और भाषाओं के माध्यम से
बलात जो इतिहास रचने की प्रक्रिया चल रही थी उस पर वे सवाल उठाते हैः
‘‘इतिहास ऐसा ही था
कैसा
नए नए इतिहास रचे जाया करते हैं
बल देकर कहते हैं भाषा में अपनी अपनी सभी लोग
इतिहास ऐसा ही था।’’26
निष्कर्ष : वस्तुतः इतिहास कुछ और नहीं है। तथ्य आधारित दृष्टिकोण की स्वीकृति है। आप किस तथ्य को कैसे स्वीकार करते हैं और उसे किस रूप में ग्रहण और व्यक्त करते हैं। त्रिलोचन कविता के माध्यम से आमजन के आत्मसंघर्ष का इतिहास ही तो लिख रहे थे। उनलोगों का इतिहास जिसे भारतीय समाज में कभी जगह ही नहीं मिला है। जिनके संघर्ष को कभी श्रम ही नहीं समझा गया। जिनकी आवाजों की अनुगूंज संसद तक पहुंची ही नहीं। लेकिन वही भारतीय सभ्यता-संस्कृति का निर्माता रहा है। कर्ताधर्ता रहा है। उन्हीं लोगों के संघर्ष की आवाज उनकी कविता है जिनसे पूरी कायनात जुड़ी हुई है और वह भी कायनात है। शब्द से अभिव्यंजित जीवन की तलाश है उनकी कविता में। इसके लिए वह काव्यशास्त्र के प्रतिमान को धत्ता बता देते हैं। यह तलाश नामवर सिंह के शब्दों में ‘गैर-आधुनिक ही नहीं बल्कि प्राक्-आधुनिक’ भी हैं त्रिलोचन। ‘‘त्रिलोचन की शब्द-साधना यह है कि उन्होंने अपनी कविता के लिए कोई नई भाषा गढ़ी नहीं बल्कि पहले से मौजूद जीवित भाषा को उसकी जीवन्तता में ग्रहण किया-उस भाषा में उन लोगों को अपने आप बोलने दिया जिन्हें अभी तक बोलने का मौका नहीं मिला था। कविता की इस दुनिया में चेतन के साथ जड़ भी आमन्त्रित हुए-पूरी सत्ता की अभिन्नतम के लिए।’’27 इसी अभिन्नतम सत्ता की चाहत का आस्वाद त्रिलोचन साहित्य की दुनिया में चाह रहे थे। चाहे वह रूप की हो या अंतर्वस्तु की। गांव हो या शहर। प्रकृति हो या कृत्रिम सभी में। त्रिलोचन की कविता में गांव से लेकर शहर, परंपरा से लेकर आधुनिकता तक, मानव निर्मित सत्ता से लेकर प्रकृति सत्ता तक। सभी स्तर पर नवीनता की चाहत त्रिलोचन की काव्य संवेदना की मांग है। यह मांग देशज आधुनिकता और सरजमीं पर निर्मित साहित्यशास्त्र की भी है। जिसे नामवर सिंह ‘देसी परंपरा के अन्दर से आत्मसमीक्षा की प्रक्रिया से गुजरकर निर्मित काव्यसर्जना’ कहते हैं और त्रिलोचन को ‘सधारण का असाधारण कवि’ की उपाधि देते हैं तो वही अरूण कमल ‘जीवन की स्थिर, शान्त स्थितियों के कवि’ कहते हैं।28 भूख, अभाव और दारिद्रता आदि की गहरी अनुभूति त्रिलोचन की कविता में है। पूरे जनपद का कवि स्वयं को घोषित करते हुए वे ‘भूखा-दूखा’ की बात करते हैं। यह आत्मसाहस उनके आत्मसंघर्ष का ही परिणाम है जो निर्बाध और निर्भय होकर अपनी बात कहने को मजबूर करता है। लड़ने की शक्ति और साहस देता है। उनके इस संघर्ष में नारीशक्ति की भी अहम भूमिका है। जिसे वे अपनी कविता में जगह देते हैं। अरूण कमल के शब्दों में कहें तो ‘भारत के जीवन की एक झांकी और भारतीय चरित्र की एक पहचान त्रिलोचन की कविताओं में मिलती है।’
संदर्भ सूची :
- केदारनाथ सिंह(सं.),(2001) त्रिलोचन प्रतिनिधि कविताएं,
राजकमल प्रकाशन,
नई दिल्ली पृ.35
- गोबिन्द प्रसाद(2002), कविता के
सम्मुख, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली , पृ.111
- त्रिलोचनः प्रतिनिधि कविताएँ, पृ.32
- वही, पृ. 33
- गोबिन्द प्रसाद, कविता के सम्मुख,
वही, पृ. 127
- त्रिलोचनः प्रतिनिधि कविताएं, पृ. 34
- वही, पृ. 34
- त्रिलोचनः तुम्हें सौपता हूं, पृ. 15
- त्रिलोचनः प्रतिनिधि कविताएं:16
- वही, पृ. 16
- वही, पृ. 18
- वही, पृ. 19
- शुक्ल ध्रुव, 2018, त्रिलोचन संचयिता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 9
- वही, पृ. 10
- वही, पृ. 10
- वही, पृ. 10
- त्रिलोचनः प्रतिनिधि कविताएं, वही,
पृ. 20
- वही, पृ. 23
- वही, पृ. 25
- वही, पृ. 29
- वही, पृ. 73
- गोबिन्द प्रसाद, कविता के सम्मुख,
वही, पृ. 100
- वही, पृ. 101
- त्रिलोचनः अनकहनी भी कुछ कहनी है,
वही, पृ. 17
- त्रिलोचन, 1987, चैती, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 55
- वही, पृ. 53
- सिंह, नामवर, 2010, कविता की जमीन और जमीन की कविता, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 184
- कमल अरूण, 1999, कविता और समय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 46
डॉ. प्रवीण कुमार
सहायक आचार्य हिंदी विभाग, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय अमरकंटक, मध्यप्रदेश
pravinkmr05@gmail.com, 9752916192
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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