शोध आलेख : महामारी और हिंदी कथा साहित्य
- डॉ. प्रिया कुमारी
शोध सार : महामारी हो या कोई बीमारी जब भी आती है मानव मन की कई परतें खोल देती है। व्यक्ति का मन सदा भय, डर, निराशा, अवसाद से ग्रस्त रहता है। महामारी वर्तमान की हो या 1700, 1800, 1900 ई. की, सामाजिक स्थितियां नियंत्रण में नहीं रहती। मनुष्य के काबू में कुछ भी नहीं रहता। मानव द्वारा किए गए सारे प्रयास महामारी के समय निरर्थक सिद्ध होती है। वर्तमान परिस्थिति से सभी परिचित है, पर भूतकाल के महामारी से परिचित होने का माध्यम साहित्य है। साहित्यकारों ने अपने-अपने समय में हुए महामारी का चित्रण साहित्य में इस प्रकार किया है कि वह आज की परिस्थिति से हू-ब-हू मेल खाती है। ऐसा माना जाता है कि हर सौ साल में महामारी आती है, उदाहरण के लिए 1700 ई. में प्लेग, 1820 ई. में हैजा, 1920 ई. में स्पेनिश फ्लू तथा वर्तमान (2020) में कोविड-19। हर सौ साल के बीच भी कई महामारियां आई हैं लेकिन उनकी प्रकृति अलग है। इन्हें समझने का प्रयास हम आगे करेंगे। वर्तमान में (कोरोना वायरस) कोविड-19 महामारी से सभी जूझ रहे है इसके नकारात्मक प्रभाव को भी सभी जानते है। आज से पहले जो भी महामारियां विश्व में आई हैं इनकी जानकारी इतिहास के पन्नों के साथ साहित्य के पन्नों में भी देखी जा सकती है। हर युग का लेखक अपने युग को साहित्य में उकेरता है और यही सार्थक रचना कहलाती है। महामारी से संबंधित साहित्य सभी भाषाओं में रची गई हैं. हिंदी कथा साहित्य भी इससे अछूता नहीं है चाहे वो चेचक, एन्फ़्लुएन्जा, तपेदिक, मलेरिया, हैजा, प्लेग आदि क्यों न हो।
मूल आलेख
: हिंदी कथा साहित्य में महामारी पर दृष्टि डालने से पहले हमें यह जान लेना आवश्यक
है कि महामारी क्या होती है? उत्तर में, ऐसी बीमारी, रोग या संक्रमण जो एक ही समय
में किसी स्थान विशेष, गांव, राज्य, देश या विश्वभर के लोगों को तेजी से संक्रमित
करती हो महामारी कहलाती है। किसी भी क्षेत्र में महामारी होने की संभावना प्राकृतिक
आपदा (बाढ़, सूखा, भूकंप, वायु, जल, पशु, पक्षी, पेड़, पौधे) से होती है। ज्यादातर
ये महामारी का रूप तब धारण करती है जब ये बिलकुल नया संक्रमण हो जैसे वर्तमान में
कोविड-19। ये संक्रमण विभिन्न श्रणियों में होते है। 1) स्थानिक (endemic),
2) जानपदिक (epidemic),
3) महामारी (pandemic)।
स्थानिक (endemic)
- उस रोग या संक्रमण को कहते है जो किसी निश्चित क्षेत्र विशेष को प्रभावित करती
है। जैसे किसी गांव के छोटे से क्षेत्र में मलेरिया फैल गया हो या लोगों में चेचक
का संक्रमण फैल रहा हो। यह किसी खास समय, मौसम में आता है, जिसे नियंत्रित किया जा
सकता है। यह उस क्षेत्र में बार-बार हो सकता है। उदाहरण के लिए उपन्यास ‘मैला
आंचल’ को ले सकते है, इसकी शुरुआत ही गांव
में मलेरिया सेन्टर के खुलने से होता है।
जानपदिक(epidemic)-
ऐसा संक्रमण या रोग जो दो सप्ताह या इससे कम समय में एक बड़ी आबादी के बीच तेजी से
फैलता है। यह एक देश से दूसरे देश या पड़ोसी देशों में फैल सकता है, पर पूरी दुनिया
में नहीं, इसे जानपदिक कहते है, उदाहरण के लिए जिका वायरस, यह एडिज मच्छर के काटने
से होता है। पहली बार इस संक्रमण का पता 1947 ई. में चला। 2007 ई. में इसका फैलाव
अफ्रीका से एशिया तक हुआ। दूसरा उदाहरण है, इबोला वायरस इसका पता सबसे पहले 1976 ई.
में दक्षिण सुडान और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में चला। इसके बाद 2014 ई. से
2016 ई. तक पश्चिम अफ्रीका में इसका प्रकोप दिखा। 2019 ई. में डेमोक्रेटिक
रिपब्लिक ऑफ कांगो में फिर इसका प्रकोप बढ़ा। तीसरा उदाहरण है, निपाह वायरस 1998 ई.
में सबसे पहले मलेशिया के कम्पंग सुंगई निपाह(स्थान का नाम) में इसका पता चला, इसी
कारण इसका नाम निपाह वायरस रखा गया। 2001 ई. में भारत के सिलीगुड़ी(पश्चिम बंगाल)
में इस वायरस का पहला केस मिला। चौथा उदहारण है- सार्स वायरस 2002 ई. में चीन से
यह संक्रमण फैला, धीरे-धीरे इसका विस्तार 29 देशों में हो गया। सार्स और मार्स वायरस
एक ही परिवार के सदस्य है, कोरोना वायरस भी इसी परिवार का हिस्सा है। पांचवा
उदाहरण है स्वाइन फ्लू (H1N1)
2009, भारत में इसका आगमन 2015 ई. में हुआ। इस वायरस के कारण गुजरात, राजस्थान,
दिल्ली ज्यादा प्रभावित क्षेत्र रहा।
महामारी(pandemic)-
ऐसा संक्रमण या रोग जो एक खास क्षेत्र से शुरू होकर बहुत तेजी से पूरे विश्व के
लोगों को संक्रमित करता है, वह महामारी कहलाता है। कई महामारी पहले जानपदिक होती हैं
पर उसके संक्रमण के विस्तार को देखते हुए इसे महामारी घोषित कर दिया जाता है;
जैसे- कोविड-19 यह पहले कोरोना वायरस के नाम से चीन के वुहान क्षेत्र से (दिसम्बर
2019) शुरू हुआ। जिसे फरवरी 2020 ई. तक जानपदिक ही माना जा रहा था, पर मार्च
आते-आते पूरा विश्व इससे संक्रमित हो गया। जिस कारण डब्लू. एच. ओ. ने इसे मार्च
2020 ई. को महामारी घोषित कर दिया। दुनिया में हैजा, प्लेग, एन्फ़्लुएन्जा भी
महामारी का रूप लेकर ही आया था।
महामारी जब भी आती है, अपने
साथ दुःख, पीड़ा, वेदना, निराशा, डर, करुणा, सिसकियाँ तथा विभिन्न प्रकार के वीभत्स
रूप लेकर आती है। मनुष्य ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकता की अगले क्षण क्या हो सकता
है। हमारे हिंदी कथा-साहित्य में ऐसे कई रचनाएँ मिलती है जिसे पढ़कर पाठक की रूह तक
कांप जाए। आज के युग में महामारी को वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाता है और यह सही
भी है, लोग इतने शिक्षित हो गए है कि वह समझ सकते है कि यह कोई दैविक प्रकोप नहीं
है। परन्तु आज से कई वर्षों पहले तक ऐसा नही था रोग या महामारी दैविक प्रकोप समझी
जाती थी जैसे चेचक। आज भी भारत के कई हिस्सों में शिक्षा के अभाव में महामारी को
देवी या माता का प्रकोप माना जाता है। कोरोना वायरस जब शुरू हुआ तो बिहार के कई
इलाकों में ‘कोरोना माई’ की पूजा की जाने लगी थी। लोग निर्जला व्रत रखने लगे थे
ताकि महामारी का प्रकोप उन पर न हो।
जब भी किसी देश या स्थान में
महामारी आती है तो किस प्रकार लोगों की ज़िन्दगियाँ बदल जाती है। लोगों की सोच,
रहन-सहन में क्या परिवर्तन आता है। किस प्रकार वह पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक,
धार्मिक कठिनाइयों का सामना करते है, इन सभी की चर्चा हमारे हिंदी कथा साहित्य’
में मिलती है। महामारी पर कई रचनाएं है जिनमें इन परिस्थितियों को दर्शाया गया है,
उदाहरणस्वरूप- ब्रज भाषा में बनारसीदास जैन की आत्मकथा ‘अर्द्धकथानक’ (1641 ई),
‘हिन्दी की रचनाओं में भगवानदीन की कहानी ‘प्लेग की चुडैल’ (1902 ई), निराला का
उपन्यास ‘कुल्लीभाट’ (1918 ई), प्रेमचंद का उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ (1922 ई),
‘प्रतिज्ञा’ (1926 ई), कहानियों में ‘स्वर्ग की देवी’ (1925 ई), ‘ईदगाह’ (1933 ई),
‘दूध का दाम’ (1934 ई), प्रेमचंदका लेख ‘जबरजस्ती’ (1933 ई), पांडेय बेचन शर्मा
‘उग्र’ की कहानी ‘वीभत्स’, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ (1944 ई),
उपन्यास ‘मैला आंचल’ (1954 ई), मोहन राकेश का नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ (1958),
हरिशंकर परसाई की आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ (1980 ई)। उर्दू रचना में राजिंदर सिंह
बेदी की कहानी ‘क्वारंटीन’। इन सभी रचनाओं में कहीं न कहीं महामारी के संदर्भ में
कथा दिखाई गई है। इन रचनाओं को पढ़ते समय हम वर्तमान समय के सभी स्थिति से रू-ब-रू
हो पाते हैं, जो निम्न हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘पहलवान
की ढोलक’ में जिस गांव का जिक्र है, वह मलेरिया व हैजे से ग्रस्त है। महामारी से
जूझ रहे गांव की भीषणता, अवसाद, डर व भय के वीभत्स रूप को कहानी में चित्रित किया
गया है| संक्रमण के दौरान किस प्रकार रात के समय रोग से ग्रसित लोगों के कराहने
तथा कै (उल्टी) करने की आवाज आती है। भय से बच्चे माँ-माँ कहकर चिल्लाने लगते है।
रेणु महामारी की क्रूरता का वर्णन करके लिखते है ‘‘गांव अक्सर सूना हो चला था। घर
के घर खाली पड़ गए थे, रोजाना दो-तीन लाशे उठने लगी थी।’’[1] वर्तमान परिस्थिति भी
वैसी ही नजर आती है, जैसा वर्णन रेणु ने किया है। अक्सीजन की कमी के कारण अनेक
लोगों की मृत्यु हो गई। कई घर सूने हो गये।
अगली रचना है, भगवानदीन की
कहानी ‘प्लेग की चुडै़ल’। इस कहानी में प्लेग संक्रमण का चित्रण किया गया हैं।
कहानी मनोरंजक है और इसे नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया गया है। कहानी की शुरुआत ही
प्रयाग शहर में प्लेग के आगमन से होता है, ‘’गत वर्ष जब प्रयाग में प्लेग घुसा और
प्रतिदिन सैकड़ो.....प्राणी मरने लगे तो लोग घर छोड़कर भागने लगे’’[2] महामारी के दौरान गरीब क्या और अमीर क्या,
महाजन, डॉक्टर, जमींदार, वकील, मुख्तार सभी के घरों के प्राणी मरने लगते है। लोग
अपने घरों को छोड़ने पर विवश हो जाते है। कहानी के कथ्य में ठाकुर विभवसिंह की
पत्नी को प्लेग हो जाता है। भय के कारण डॉक्टर दूर से ही देखकर विभवसिंह की जीवित
पत्नी को मृत घोषित कर देते है। ठाकुर साहब डर से मृत पत्नी के शरीर को पुरोहित व
नौकरों से कहकर दाहक्रिया करने को कहते हैं पर नौकर भय से मृत शरीर को जलाते नहीं बल्कि
गंगा नदी में कच्चा ही बहा देते है। नदी की शीतलता के कारण विभवसिंह की पत्नी जाग
जाती है और लोग उसे चुड़ैल समझ लेते है। कहानी के अंत में सभी यह मान लेते है कि वह
कोई चुड़ैल नहीं है। कथा में यह बताया गया है कि किस प्रकार लोग महामारी के भय से
बीमार लोगों को छूना नहीं चाहते, यहां तक कि उनका दाहक्रिया करने से भी डरते है।
वर्तमान समय में जब कोरोना महामारी अपने शुरुआती समय में थी तो लोगों की स्थिति
ऐसी ही थी, लोग लाशों को श्मशान घाट या कब्रगाह में जलाने या दफनाने नहीं देते थे।
सफाई कर्मचारियों को लाश किसी गुप्त स्थान में कई फीट गड्ढा खोदकर गाड़ना पड़ता था।
श्मशान घाट में जगह न मिलने के कारण लोग अपने परिजनों की लाश को नदी में बहा देते
थे। महामारी का एक अलग ही वीभत्स व विकृत रूप नज़र आ रहा था।
पांडेय बेचन शर्मा‘उग्र’ की
कहानी ‘वीभत्स’ में भी ऐसी ही घटनाओं का वर्णन मिलता है। जिसमे 1916, 1917 ई. में
आई महामारी को दिखलाया गया है। कहानी अनूपशहर गांव की है, जहाँ एन्फ़्लुएन्जा महामारी
फैली हुई है, ‘’सन् 1917 की बात है देश के अधिकांश भागों में युद्ध-ज्वर या
एन्फ़्लुएन्जा का नाशकारी आतंक छाया हुआ था। एक-एक शहर में रोज शत-शत प्राणी मर रहे
थे। एक-एक गाँव में अनेक-अनेक। अनूपशहर उसके आस-पास के घर बाजारों में कोहराम-सा
छाया था। खास सुमेरा के गाँव के सभी प्राणी त्रास थे। मारे डर के कोई बाजार नहीं
जाता था, क्योंकि लोगों ने सुन रखा था कि वह रोग छूत से भी फैलता है।”[3] लोग अपने
ही परिवार के सदस्य का मृत शरीर छूने से डरते है। लोगों का मानना है मरने वाले तो चले
गए पर जो बचे है वे क्यों अपने प्राण संकट में डाले। कहानी का मुख्य नायक सुमेरा
है जो इतना कंजूस और लोभी है कि अपनी पाली हुई मरी बकरी का कच्चा मांस खाने से भी
परहेज नहीं करता है। गांव में केवल सुमेरा ही है जो महामारी से मरे लोगों की लाशों
को बैलगाड़ी में लाद कर गंगा नदी में बहा आता है। इसी क्रम में वे भी महामारी का
शिकार हो जाता है। बीमारी के दौरान उसकी मानसिक स्थिति खराब हो जाती है और अंत में
उसकी भी मृत्यु हो जाती है। कहानी बहुत ही दिलचस्प और रोमांचित करने वाली है जो
अपने शीषर्क को सार्थक करती है।
हरिशंकर परसाई की आत्मकथा ‘गर्दिश
के दिन’ में लेखक महामारी के दौरान बिताए अपने बचपन के दिनों की सबसे कटु याद को
स्मरण करते हुए लिखते हैं ‘‘बचपन की सबसे तीखी याद प्लेग की है। 1936,1937 ई.
होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग थी। आबादी घर छोड़ जंगल में
टपरे बनाकर रहने चली गयी थी। हम नहीं गए थे। माँ सख्त बीमार थी। उन्हें लेकर जंगल
नहीं जाया जा सकता था। भॉय-भॉय करते पूरे आस-पास में हमारे घर ही चहल-पहल थी। काली
रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलो से डर लगता था। कुत्ते तक
बस्ती छोड़ गए थे, रात के सन्नाटे में हमारी आवाजे हमें ही डरावनी लगती थी।“[4] इसी
महामारी में परसाई जी की माँ की मृत्यु हो गई। असमय मृत्यु के कारण पूरा घर बिखर
गया। कुछ समय बाद पत्नी की शोक में परसाई जी के पिता की भी मृत्यु हो गई। आत्मकथा
के साथ हिंदी नाटकों में भी महामारी का चित्रण किया गया है। मोहन राकेश कृत ‘आषाढ़
का एक दिन’ में मल्लिका के पिता की मृत्यु महामारी से होती है, इस सम्बन्ध में
अम्बिका कहती है “पिछली महामारी में जब तुम्हारे पिता की मृत्यु हुई”[5] इसी प्रकार
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित नाटक ‘भारत दुर्दशा’ में हैजे के सम्बन्ध में जिक्र मिलता है। नाटक के
चौथे अंक में रोग भारत को नष्ट करने के सम्बन्ध में कहता है “हम भेजेंगे विस्फोटक,
हैजा, डेंगू, अपाप्लेक्सी”[6]
महामारी से संबंधित एक और
कहानी है जो वर्तमान संदर्भ से बिलकुल मिलती जुलती है, राजिंदरसिंह बेदी की कहानी
‘क्वारंटीन’ जो उर्दू भाषा में लिखी गई है। इस कहानी का हिंदी अनुवाद संजीव कुमार
व डॉ. जिया उल हक़ ने किया हैं| आज जब कोरोना महामारी के कारण जो लोग बीमार है
इन्हें ‘क्वारंटीन’ किया जा रहा है। वर्तमान में जो शब्द सबसे ज्यादा चलन में आया
है वह है क्वारंटीन। क्वारंटीन शब्द लेटिन भाषा के क्वाड्राजिंटा और इटली भाषा के
क्वारांटा से मिलकर बना है, जिसका मतलब होता है 40 दिन। जब प्लेग आया था उस दौरान
रोगियों को 40 दिनों तक अन्य लोगों से अलग रखा जाता था, इसलिए ताकि बीमारी का फैलाव न हो, इस कारण यह
क्वारंटीन कहलाया। राजिंदर सिंह बेदी की कहानी में यह दिखलाया गया है कि किस
प्रकार लोग प्लेग से ज्यादा क्वारंटीन से डरते है। “प्लेग तो खौफनाक था ही मगर क्वारंटीन
उससे भी ज्यादा खौफनाक था, लोग प्लेग से इतने हैरान परेशान नहीं थे जितने क्वारंटीन
से’’[7] अस्पतालों में क्वारंटीन के कारण मरीज अपने रिश्तेदारों से मिल नहीं पाते
जिससे मरीज बीमारी और अकेलेपन के कारण अपना हौसला खो देते हैं। वर्तमान समय में,
कोरोना के शुरुआती दौर में, लोग ठीक कहानी की भांति क्वारंटीन से डरे हुए थे। अगर
कोई व्यक्ति कुछ लक्षण के कारण अस्पताल में भर्ती होते तो डर से वह आत्महत्या कर
लेते थे, इस कारण की कहीं उन्हें कोरोना ना हो गया हो और बाद में कोरोना रिर्पोट
नेगेटिव आती थी। कहानी में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार डॉक्टर पूरे इंतजाम के
साथ मरीजों को देखते है। अस्पताल से घर आने पर साबुन से हाथ धोना, गर्म तरल पदार्थों
का सेवन करना पर फिर भी ज़रा भी गले में खराश महसूस हुई तो भय से यह समझ लेना प्लेग
के लक्षण शुरू हो गए है। वर्तमान समय में भी कोरोना काल में लोग बार-बार अपने
हाथों को साबुन से धो रहे है, गर्म पानी का सेवन कर रहे है, मास्क का इस्तेमाल कर
रहे है, फिर भी लोगों में भय बना हुआ है। कहानी में महामारी के समय वातावरण में
किस प्रकार का माहौल रहता है यह भी बताया गया है जो वर्तमान समय से मेल खाती है;
जैसे- स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, बाज़ार सब का बंद हो जाना, लोगों का ज़रूरत के सामान के
लिए भी कम ही घर से निकलना। कहानी में महामारी के दौरान होने वाली सारी स्थिति का
चित्रण किया गया है, जो वर्तमान परिवेश से पूर्णत: मेल खाती है।
अगली रचना हैं निराला जी का
उपन्यास ‘कुल्लीभाट’। इस उपन्यास में प्लेग और एन्फ़्लुएन्जा, दो महामारियों का
वर्णन मिलता है। महामारी का पहला चित्रण उपन्यास के प्रथम पृष्ठों में मिलता है
“मैं सोलह साल पार किया....गौना हुआ, बड़ी विपत, गाँव में प्लेग”[8], महामारी का
दूसरा चित्रण उपन्यास के मध्य भाग में है ‘’इसी समय एन्फ़्लुएन्जा का प्रकोप हुआ|
पिता जी एक साल पहले गुजर चुके थे| इसलिए नौकरी की थी.....तार आया ‘तुम्हारी
स्त्री सख्त बीमार है. अंतिम मुलाकात के लिए आओ| मेरी उम्र अब बाईस साल थी,
अखबारों में मृत्यु की भयंकरता मालूम हो चुकी थी| गंगा के किनारे आकर प्रत्यक्षा
की गंगा में लाश का ही जैसा प्रवाह हो|[9] उपन्यास में दोनों ही महामारियों का
चित्रण आज के दौर से बिलकुल मेल खाती है। उपन्यास में दिखलाया गया है कि महामारी
के दौरान किस प्रकार लोगों के रहन-सहन का तरीका बदल जाता है, दिन-प्रतिदिन गांव की
आबादी घटने लगती है। निराला जी ने यह उपन्यास अपने परिचित पं. पथवारीदीन
भट्ट(कुल्लीभाट) पर लिखा है और इसी क्रम में उनका स्वयं का जीवन व महामारी का
चित्रण भी आया है। निराला लिखते हैं कि किस प्रकार उनके गांव और ससुराल(महिषादल और
दलमऊ) में एन्फ़्लुएन्जा की बीमारी फैल गई
थी। इसी महामारी के कारण उनकी पत्नी की मृत्यु भी हो जाती है। निराला पत्नी का
अंतिम संस्कार कर जब अपने गांव जाते हैं तो वहां पता चलता है कि पूरे घर में केवल
दो भतीजों को छोड़कर सब लोग इस महामारी के कारण मर चुके हैं। पूरे गांव में लोगों
की मृत्यु के कारण, गांव विराना-सा हो चला है। लाशों का अंबार-सा लग गया है। लाशों
को जलाने तक की जगह नहीं है। निराला लौटकर जब दलमऊ आते है, अपने बेटे रामकस और
बेटी सरोज से मिलने तो वह उसी गंगा नदी के किनारे भटकते हैं जहाँ पत्नी मनोरमा
देवी को जलाया गया था, निराला देखते हैं चारों तरफ केवल लाशें ही लाशें हैं, जो मन
को विचलित कर दे। वर्तमान परिस्थिति भी ऐसी ही थी, हर रोज कोई न कोई दिल दहला देने
वाली खबर मिल जाती थी। लोगों की मरने की संख्या का पता नहीं चल रहा था। श्मशान घाट
में लाशों को जलाने तक की जगह नहीं मिल रही थी।
इसी प्रकार कहानी व उपन्यास
सम्राट प्रेमचंद ने भी अपने कई कहानियों, उपन्यासों व लेखों के जरिये महामारी के
विकृत रूप का चित्रण किया है। प्रेमचंद के रचनाकाल में प्रथम विश्व यु़द्ध के
दौरान आई महामारी का जिक्र मिलता है उनकी कहानी ‘ईदगाह’ का मुख्य पात्र हामिद अपनी
अल्पावस्था में पिता को खो देता है, हैजे के कारण ‘’वह चार-पांच साल गरीब-सूरत,
दुबला-पतला, लड़का जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेट हो गया’’[10] इसी प्रकार कहानी ‘दूध
का दाम’ में बालक मंगला जो कथा का मुख्य पात्र है उसके पिता (गुदड़) की मृत्यु
प्लेग के कारण होती है। “इस साल प्लेग ने जोर बांधा और गुदड़ पहले ही चपेट में आ
गया’’[11] कहानी ‘स्वर्ग की देवी’ में सीतासरन के माता-पिता और दोनों बच्चों
(जानकीसरन, कामिनी) की मृत्यु का कारण हैजा बनता है। ‘’एक दिन बाबू संतसरन के पेट
में मीठा-मीठा दर्द होने लगा, आम खाने बैठ गये| सैकड़ा पूरा करके उठे ही थे कि कै
हुई| गिर पड़े। फिर तो तिल-तिल पर कै और दस्त होने लगे हैजा हो गया[12]। उपन्यास
‘प्रेमाश्रम’ और ‘प्रतिज्ञा’ में मलेरिया व हैजे का जिक्र मिलता है। ‘प्रेमाश्रम’
उपन्यास के भाग 27 में मलेरिया का चित्रण है. प्रभात का समय था और क्वार का महिना।
वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहात में जिधर जाइए, सड़े हुए सन की दुर्गन्ध उड़ती थी
...सावन को शरमाने वाले बदल घिर जाते थे| मच्छर और मलेरिया का प्रकोप था, नीम की
छाल और गिलोय की बहार थी ‘’[13] उपन्यास ‘प्रतिज्ञा’ में अमृतराय के माता-पिता की
मृत्यु हैजे से होती है ‘’माता-पिता की एक सप्ताह के अंदर हैजे से मृत्यु हो गई तो
अकेला घर दुखदायी होने लगा”[14] | उनके लेख ‘जबरजस्ती’ में महामारी के कारण
किसानों की, दुर्दशा, आर्थिक स्थिति, नौजवानों की स्थिति को लेकर प्रेमचंद लिखते
है ‘‘भारतीय किसानों की दास समय जैसी दयनीय दशा है उसे कोई शब्दों में अंकित नहीं
कर सकता। उनकी दुर्दशा को वे स्वयं जानते हैं या उनका भगवान जानता है। जमींदार को
समय पर मालगुजारी चाहिए, सरकार को समय पर लगान चाहिए, खाने के लिए दो मुठ्ठी अन्न
चाहिए, पहनने के लिए एक चीथड़ चाहिए सब कुछ पर एक ओर तुषार तथा अतिवृष्टि फसल को
चौपट कर रही है, दूसरी ओर प्लेग, हैजा, शीतलता उनके नौजवानों की हरी-भरी तथा
लहलहाता जवानी में उसी तरह दुनिया से उठाए लिए चली जा रही है। जिस तरह लहलहाता खेत
अभी छः दिन पूर्व के पत्थर-पाले में उठाए लिए चली जा रही है।[15] | वर्तमान
परिस्थिति भी ऐसी ही थी। बुजुर्ग क्या और जवान क्या लगभग बहुत से लोग इस महामारी
के कारण असमय ही दुनिया से चले गयए। जिन नौजवानों के खेलने खाने के दिन थे,
जिन्होंने अपने भविष्य के कई सपने देखे थे, वे बिना दुनिया देखे दुनिया को अलविदा
कह गए।
निष्कर्ष : संसार
निरंतर परिवर्तन की दिशा में है। इस परिवर्तन में महामारी का आगमन न तो नया है और
न ही ऐसा है कि ये फिर से नहीं आएगा। हमारे बाद भी महामारियां आती रहेंगी, कुछ जानें
बचेंगी कुछ जानें जाएँगी। मानवता के विभिन्न रूप सामने आयेंगे और ये सारी घटनाएं
साहित्य के पन्नों में दर्ज होती रहेंगी।
संदर्भ :
1)
हिन्दी आरोह, एन.
सी. ई. आर. टी, कक्षा 12, पृष्ठ संख्या -114
2)
https://www.jankipul.com/2020/04/a-short-story-of-master-bhagwandas-plague-ki-chudail.html
3)
https://www.hindisamay.com/content/2707/1/पांडेय-बेचन-शर्मा-उग्र-कहानियाँ-वीभत्स.cspx
4)
कमलेश्वर, गर्दिश
के दिन, राजपाल एण्ड़ सन्स, कश्मीरी गेट दिल्ली,1980 पृष्ठ संख्या -128
5)
मोहन राकेश, आषाढ़
का एक दिन, राजपाल एण्ड़ सन्स, कश्मीरी गेट दिल्ली, 2017 पृष्ठ संख्या -13
6)
सिद्धनाथ कुमार
(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र), भारतदुर्दशा:संवेदना और शिल्प, अनुपम प्रकाशन, पटना
2014, पृष्ठ संख्या -61
7) https://hindi.newsclick.in/story-of-Rajinder-Singh-Bedi-in-the-Corona-period-Plague-and-Quarantine
8)
सूर्यकान्त
त्रिपाठी निराला,कुल्लीभाट,राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, दिसम्बर1978, पृष्ठ संख्या
-12
9)
सूर्यकान्त
त्रिपाठी निराला, कुल्लीभाट,राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, दिसम्बर 1978, पृष्ठ
संख्य-54
10) प्रेमचंद,
मानसरोवर भाग-1, ‘ईदगाह, अनुपम प्रकाशन, पटना 2014, पृष्ठ संख्या -24
11) प्रेमचंद,
मानसरोवर भाग-2, ‘दूध का दाम’, अनुपम प्रकाशन, पटना 2014, पृष्ठ संख्या -129
12) प्रेमचंद,
मानसरोवर भाग-5, ‘स्वर्ग की देवी’ अनुपम प्रकाशन, पटना 2014, पृष्ठ संख्या -50
13) प्रेमचंद,
प्रेमश्राम, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, 1984, पृष्ठ संख्या -198
14) प्रेमचंद,
प्रतिज्ञा , सुमित्रा प्रकाशन, इलाहाबाद,2015, पृष्ठ संख्या -3
15) डॉ.
रामविलास शर्मा, प्रेमचंदसुमन, प्रेमचंद रचनावली -8, अगरतला पृष्ठ संख्या -98
डॉ. प्रिया कुमारी
पूर्व शोधार्थी, हिन्दी विभाग राँची
विश्वविद्यालय, राँची
priyakmr11@gmail.com, 6201860992, 8084015842
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