चिट्ठी : डियर हिक्की,
हिक्की डियर
वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार आदित्य पांडे ने खबरची के नाम से एक और चिट्ठी लिखी है। जैम्स आगस्टस हिक्की को संबोधित यह चिट्ठी ज्यों की त्यों प्रस्तुत है। (सं.)
डियर हिक्की !
हैप्पी स्प्रिंग
मेरी पिछली चिट्ठी का कोई जवाब अब तक नहीं मिला है। दुनिया भर के लोग यह मानते हैं कि सुबह जब देहरी पर से अखबार उठाते हैं तो दुनिया भर की खिड़की हमारे सामने खुल जाती है लेकिन इन खबरों के पीछे जो होते हैं उनकी दुनिया जानने के लिए जाने कितने रोशनदानों में झाँकना होगा। पत्रकारिता का इतिहास अपनी जगह है, लेकिन इसका वर्तमान एक उलझी पहेली की तरह सामने है।
खबरें रखनेवाली अपनी जमात को पत्रकार के नाम से जाना जाता है। पहले सिर्फ अखबार में जूझ रहे कर्मचारी ही पत्रकार कहे जाते थे लेकिन अब इसमें न्यूज चैनल्स, केबल चैनल, यूट्यूबर्स, पोर्टल्स, ब्लॉगर्स भी शामिल हो चुके हैं। यह अलग बात है कि पत्रकार की परिभाषा में समाचार पत्र के कर्मी ही वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के तहत आते हैं और सरकारी तौर पर मान्यता में भी यही हालात हैं। कुछ मायनों में यह सिर्फ एक बानगी होगी कि जिन्हें एक खास एक्ट का भी सहारा रहा है उनके ही हालात मीडिया में कितने बुरे हैं, जिससे बाकी सभी श्रेणियों के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। हालांकि अब नए श्रम कानूनों के आने के बाद से पत्रकारों को विशिष्ट दर्जा देने वाला वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट भी इतिहास की बात हो रहा है और पत्रकार भी सामान्य कानूनों के दायरे में आ रहे हैं।
दरअसल समय के साथ पत्रकार शब्द की परिभाषा व्यापक होती गई लेकिन इसके दायरे सिकुड़ते गए। यहीं से शुरू हुई पत्रकारों की बदहाली की कहानी भी। संभव है जब लोग ‘प्रेस’ लिखी हुई बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ करीब से गुजरती देखते हों तो सोचते हों कि वाह कितना पैसा बह रहा है पत्रकारिता में लेकिन हकीकत यह है कि मालिकों और उगाही में दक्ष यानी ब्लैकमेलिंग वालों के पास ही ऐसा अकूत धन है। एक प्रतिशत मालिक और नौ प्रतिशत ऊपरी दर्जे को छोड़ दें तो नब्बे प्रतिशत पत्रकार किसी न किसी पल उस सोच का शिकार होते ही हैं कि इससे बेहतर था किसी और क्षेत्र में ही जाते तो शायद परिवार ठीक से चला पाते। इस क्षेत्र में शोषण का आलम समझना हो तो एक उदाहरण ही समझने के लिए काफी है। केंद्र सरकार नियम के मुताबिक एक वेज बोर्ड पारित करती है जो तय करता है कि किस श्रेणी के अखबार में किस श्रेणी के कर्मचारी का न्यूनतम वेतन कितना होगा। जब जब नया वेज बोर्ड आता है तो सुप्रीम कोर्ट में करोड़ों रुपए इसे रुकवाने के लिए बहाए जाते हैं और जब राहत नहीं मिलती तो संस्थान अपने कर्मचारियों से पिछली तारीखों में यह शपथनामा लेती है कि वे तय किया गया वेतन ही चाहते हैं मतलब कि वे ज्यादा वेतन नहीं चाहते हैं।
आप मजाक समझ रहे होंगे लेकिन कथित दिग्गज पत्रकार यह सब लिख कर देते हैं। सुप्रीम कोर्ट मालिकों का यह दांव खारिज कर देती है तो कर्मचारियों से इस्तीफा ले लिया जाता है और उसी तनख्वाह पर उन्हें एक दूसरी कंपनी (उदाहरण के लिए सफाई करने वाली कंपनी) का कर्मचारी बता दिया जाता है। यानी रातोरात पत्रकार सफाईकर्मी हो जाते हैं जबकि काम अखबार में ही कर रहे हैं और उसे उसी कशमकश में रोज प्रकाशित भी कर रहे हैं। अखबार के कुछ कार्मिकों को यह कहकर बाहर का रास्ता बता दिया जाता है कि आप साथी कर्मियों यूनियनबाजी में लिप्त हैं और उन्हें वेज बोर्ड के मुताबिक वेतन लेने के लिए भड़का रहे हैं और कुछ कार्मिकों के आगे ऐसे हालात खड़े कर दिए जाते हैं कि वे खुद ही विदा ले लें। इस तरह जिस अखबार की एक यूनिट में 300 से ज्यादा लोग काम कर रहे हों वहाँ सरकारी परिभाषा और सरकारी मान्यता के मुताबिक महज चार या पाँच कर्मी ही पत्रकार कहलाने लायक रह जाते हैं यानी हकीकत में पत्रकार होने और सरकार की नजर में पत्रकार होने में पचास गुने से ज्यादा का फ़र्क होता है। इस तरह पत्रकार कोटे के अन्य सारे फायदों के लिए तो बाकी नब्बे प्रतिशत के रास्ते बंद ही हो जाते हैं लेकिन वेजबोर्ड के मुताबिक वेतन अखबार के हर कर्मी को मिलना जरुरी है क्योंकि वह न्यूनतम तय वेतनमान है और वास्तविकता में यह भी नहीं दिया जाता। मसला यह है कि जिन पत्रकारों पर दुनिया भर के हक की आवाज उठाने की जिम्मेदारी है वे खुद अपने ही हक की, कायदे की बात नहीं कह सकते।
जो लोग पत्रकार होने की परिभाषा से ही बाहर हो गए वे किस तरह अपने हक के लिए लड़ सकते हैं इस बात का कोई स्पष्टीकरण कभी नहीं रहा लेकिन जो सरकारी कायदों के हिसाब से पत्रकार कहलाते हैं उनमें से भी कोई हक चाहता हो तो उसकी दास्तान काफी लंबी रहेगी क्योंकि पहले वह लेबर ऑफिस में दस्तक देगा जहाँ के सरकारी बाबू समझाएँगे कि अखबार मालिकों से पंगा न लें। दृढ़ व्यक्ति हुआ तो यहाँ से आपका मामला अदालत पहुँचा दिया जाएगा जहाँ झूठे शपथ पत्र पर यह कहा जाएगा कि आप तो मैनेजर या सुपरवाइजर थे इसलिए आप पर वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट लागू नहीं होता। आप इस नए पेंच को सुलझाने में जुट जाएँगे इस बीच भले ही सुप्रीम कोर्ट छह महीने की समय सीमा में निर्धारित वेतन देने के लिए निर्देश दे दे। निर्देश की अनुपालना में देरी होती रहेगी। अखबार मालिक इन आदेशों की अवहेलना, अवमानना करते हुए सालों गुजार देंगे।
थोड़ा लंबा उदाहरण है लेकिन इसलिए दिया गया कि सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक को धता बताने से मालिक लोग बाज नहीं आएँगे और सिस्टम इसलिए चुप रहेगा क्योंकि पत्रकार नहीं अखबार और इनके मालिक ताकतवर हैं। सरकारें कैसे इन मालिकों के लिए काम करती हैं यह देखना हो तो किसी भी अखबार की बैलेंस शीट देखने के बजाए यह पता लगाइए कि किसी भी बड़े अखबार ने कितना कर्ज ले रखा है जिसे चुकाने का उनका इरादा है भी या नहीं है। एक और मापदंड यह हो सकता है कि उसने कितनी जमीनें किस-किस बहाने से हथियाई हैं और उसमें से कितनी सरकारी जमीन है। कितने अलग-अलग धंधों में अपने अखबारी रसूख का फायदा उठाया गया है और किस तरह सरकारी सिस्टम ने इसमें अपनी सीमाओं से परे जाकर भी मदद की है। अफसरों की अपनी पोल होती हैं जिनके दबे रहने में ही उनकी भलाई है इसीलिए पूरा सिस्टम जाने अनजाने पत्रकारों के खिलाफ और मालिकों के पक्ष में खड़ा हो जाता है।
शायद आपको जानकर अचरज हो कि अखबार को यदि अखबार की तरह चलाया जाए तो यह ब्रेक इवन पाइंट भी ना दे पाए यानी न मुनाफा और न नुकसान वाला काम है। फिर भी आप पाएँगे कि अखबारों की एक बड़ी खेप हर साल आती है यानी हजारों अखबारों में हर साल कुछ हजार और जुड़ते जाते हैं, कम से कम आप किसी और मामले में यह नहीं पाते कि जिस काम में मुनाफा न हो उससे भी लोग जुड़ने को इतने आतुर रहें। इस तथ्य के मूल में जाएँ तो आप ही का मतलब हिक्की का पहला गजट याद आ जाता है। पहले गजट से लेकर आज के अखबारों तक पत्रकारों और पत्रकारिता ने एक लंबी यात्रा तय की है और पत्रकार कहलाने के दौर भी इसी के साथ बदलते रहे। आजादी के दौरान यदि पत्रकार होना एक ऐसे व्यक्ति को परिभाषित करता था जो आजादी जैसे मिशन से जुड़ा होता था तो वहीं वर्तमान दौर में इस एक शब्द के कई आयाम खुल गए हैं।
आजकल एक टारगेट ग्रुप भी होता है, यानी अखबार के पाठकों का कौन सा वर्ग आप अपने साथ जोड़ना चाहते हैं। पहले खबरों को जस का तस पाठकों तक पहुँचा दिया जाना पत्रकार का मूल काम था लेकिन अब टारगेट ग्रुप के मुताबिक खबरों को परोसना पत्रकारों की मजबूरी बना दिया गया है। इसके लिए तरह-तरह के प्रभाव काम करते हैं जैसे राजनीति या विज्ञापनदाता या अखबार मालिक की सोच और उस पर पैसे का प्रभाव। राजनीति का दखल तो अब इस कदर हो गया है कि समूह संपादक या संपादकों तक की नियुक्ति पर राजनेता असर डालने लगे हैं और यह हालत किसी पार्टी के मुखपत्र की नहीं बल्कि खुद को निष्पक्ष बताने वाले अखबारों तक की है। ऐसी नियुक्तियों के बाद किस तरह खबरें किसी एकतरफा झुकाव वाली हो सकती हैं इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। पिछले ही दिनों एक महत्वपूर्ण और बड़े राज्य के चुनावों के नतीजे आने शुरु हुए तो कुछ समाचार पत्रों के दफ्तरों में जश्न मना वहीं कुछ ने तुरंत ही अपनी रणनीति बदल ली यहाँ तक कि एक अखबार ने तो अपने पसंदीदा पार्टी के सत्ता में न आने पर राज्य में अपने संस्करण शुरु करने की योजना ही मुल्तवी कर दी। जिन सज्जन को चुनाव टीम का मुखिया बनाकर भेजा गया था उन्हें साफ निर्देश थे कि उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान किस पार्टी को जीतते हुए बताने की खबरें देनी हैं। रिपोर्टर की ग्राउंड रिपोर्ट को नकारते हुए एजेंडे के तहत खबरें लगाई जाती रहीं और जब नतीजे उलट आए तो सबसे ज्यादा फज़ीहत उन पत्रकारों की ही हुई जो सही रिपोर्ट ला रहे थे लेकिन दबाव में जिनकी सही खबरें लगाई नहीं जा रही थीं। दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि पत्रकारों की स्वतंत्रता का दम भर सकने लायक संस्थान इक्का दुक्का ही बचे हैं बाकी तो आपको वह टास्क पूरा कर देना है जो दिया गया है भले उसमें पत्रकारिता और खुद पत्रकार दाँव पर लगते रहें।
पत्रकारों को आप उन हथियारों की तरह मान सकते हैं जो कितने भी सटीक और घातक हों लेकिन आखिरकार उनकी उपयोगिता उन्हें चलाने वाले के हिसाब से तय होती है और यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अधिकतर मामलों के इन हथियारों के इस्तेमाल करनेवाले बिजनेस के खिलाड़ी लेकिन पत्रकारिता के मामले में अनाड़ी ही हैं। पिछले दिनों यह चलन बढ़ा है कि आर्थिक अनियमितता का आरोप लगाते हुए अखबार अपने ही कर्मचारी रहे लोगों के फोटो छापकर जाहिर सूचना देता है कि अब इनका संस्थान से कोई संबंध नहीं है। इस तरह के मामलों में आप देखें कि ये अधिकतर वे ही होते हैं जिन्हें मालिकों के फायदे के लिए दबाव बनाते हुए पाया जाता था। जैसे एक मामला आया कि एक पत्रकार को एक करोड़ रुपए की घूस लेने की बात करते सुना गया लेकिन अखबार कोई कायदे की कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं था क्योंकि अब तक उनसे ही सारे लॉयजनिंग यानी जोड-तोड़ के काम करवाए जाते थे और इस काम में उनके नेता अफसरों से संबंध काफी मजबूत हो गए थे। दरअसल समस्या का मूल ही इस जगह है कि पत्रकारों का इस्तेमाल अब पत्रकारिता के लिए होना है या पत्रकारिता के जरिए कुछ और हित निकाले जाने हैं। अन्य हित भी कई तरह के हो सकते हैं जैसे एक अखबार को स्कूल बनाने के लिए जंगल की ऐसी जमीन पसंद आई जिसे नियमों के तहत नहीं दिया जा सकता लेकिन अब वन विभाग की बीट देखने वाले को यह जिम्मेदारी दी जाएगी कि वह जैसे भी हो जंगल की वह जमीन दिलवाए। मालिक के लिए अब आपकी पत्रकारिता और पत्रकारीय धाक का यही पैमाना हो जाएगा कि आप वह पसंद की जगह दिला सकते हैं या नहीं।
अब तक हम पत्रकारों की आर्थिक और कार्यस्थल की समस्याओं पर ही बात कर रहे थे लेकिन हकीकत यह है कि आर्थिक, कार्मिक के अलावा सामाजिक और सुरक्षा को लेकर भी पत्रकारों के संघर्ष दिन-ब-दिन कड़े होते जा रहे हैं। अधिकतर पत्रकार यह साबित करने की स्थिति में नहीं होते कि वे अखबार में काम कर रहे हैं अब तो आलम यह है कि पत्रकारों को परिचय पत्र तक देने में हीले हवाले किए जा रहे हैं क्योंकि यदि कोई हक माँगने अदालत में चला गया तो वहाँ यह छोटा सा पुर्जा भी काम का हो सकता है। ऐसी भी स्थितियाँ बनती हैं कि कोई रिपोर्टर बाकायदा दिए गए काम के लिए गया और वहाँ कोई अप्रिय स्थिति बनी तो संस्थान ने उसे अपना कर्मचारी मानने से ही इंकार कर दिया। युद्ध क्षेत्र में जितने पत्रकार नहीं मारे जाते उनसे कहीं ज्यादा सामाजिक तौर पर सुरक्षा न मिलने की वजह से मारे जाते हैं। बार-बार पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कड़े कानून बनाने की कवायद तो होती है लेकिन यह भी सच है कि जितनी दवा करने की कोशिश होती है उतना ही यह मर्ज बढ़ता जा रहा है। खुद के स्वास्थ्य और सुरक्षा पर पत्रकार तभी ध्यान दे सकते हैं जब कार्य स्थल पर उनके तनाव कम हों, न्यूनतम वेतन मिलता रहे और अखबार के मालिकों के फायदे के अलावा पत्रकारों के भले की भी बात सोची जाए लेकिन यह सब 'काश' पर आकर खत्म हो जाता है। इतना कुछ मिल पाना तो संभव ही नहीं लगता बल्कि अधिकतर तो यही कहते मिलेंगे कि काश अवकाश ही तरीके से मिल जाते। शेष कुशल।
खबरची
आदित्य पांडे
A -1, 405, आनंदवन, स्कीम 140, अग्रवाल पब्लिक स्कूल के सामने,
इंदौर
सम्पर्क : 7470333930
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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