निजी
चैनलों में समाचारों की बदलती हुई दुनिया और उसकी भाषा
- डॉ. स्वाति श्वेता
शोध सार : निजी चैनलों के शुरुआत के साथ समाचार की दुनिया पहले-सी न रही I एक नया समाचार रूम सामने आया जिसमें भाषा का स्वरूप एक बार जो बदला सो बदलता ही चला गया I समाचार रूम ‘टी आर पी’ पर केन्द्रित हो गया I समाचार में से सूचनात्मकता कम होती गई और वह सनसनीखेज़ बनता चला गया I न्यूज़ रूम में ख़बरों के कथा वाचक दिखाई देने लगे Iसमाचार का स्वरूप, कथा के स्वरूप सा दिखाई देने लगा औरभाषा दोयम होती चली गई Iमीडिया की भाषा व्याकरण की नींव को बुरी तरह से हिला रही है I हमें नहीं भूलना चाहिए कि भाषा की पहली शर्त ही यह है कि आम आदमी उसे समझे पर इसके साथ-साथ इस बात का ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि आम आदमी को समझ में आने वाली भाषा हमेशा सस्ती भी न हो जाए I पर भाषा सस्ती होती चली गई और इन्हीं सब के बीच खुलेआम फर्जी तरीके से मुद्दे गढ़े जाने शुरू हुएऔर मीडिया का यह समाचार रूम इस तरह के मुद्दे सामने लाने लगा जो हमारे भीतर के पूर्वग्रहों से मैच करते रहेI मीडिया की बिसात पर जनता के साथ राजनीति खेली जाने लगीऔर मीडिया,कर्मी लोक शिक्षक की अपनी भूमिका से धीरे-धीरे अलग होने लगे Iअब खबरें खोजी जाती हैंजिन्हें चंद मिनटों में समझाया-बताया जा सकता है Iसमाचार के नाम पर घंटों की कहानी बनाकर दर्शकों को सुनाया जा रहा है I मीडिया ने समाचारों की भाषा को ज्ञान से,चिंतन से,विचार से, अन्तर्दृष्टि से और आलोचना से अलग कर दिया और उसे मनोरंजक ढंग से तैयार कर टी.वी. के अन्य कार्यक्रमों के मुकाबले खड़ा कर,बस एक सनसनाता हुआ बाण बना दिया हैं I
बीज शब्द : टी आर पी’, सूचनात्मकता, सनसनीखेज़, कथा वाचक, पूर्वाग्रहों, विश्वसनीयता, लोक
शिक्षक, संदेहवादी, फर्जीवाड़े, मानकीकृत भाषा, ‘सामाचारिक
मनोरंजन’, लोकमंगलता।
मूल आलेख : भाषा का मीडिया के सभी माध्यमों के साथ एक अभिन्न संबंध देखने
को मिलता हैI अभिव्यक्ति इसके केंद्र में होती हैIमीडिया में समाचार का हमेशा से
बहुत प्रमुख स्थान रहा हैIयह स्थान पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से रहा,रेडियो के
माध्यम से रहा, टेलीविज़न के माध्यम से रहा और अब तो इन्टरनेट के माध्यम से इसका
प्रमुख स्थान देखा जा सकता हैIरत्नेश्वर के सिंह के अनुसार, “इलेक्ट्रौनिक मीडिया का समाचारिक पक्ष उसे इलेक्ट्रौनिकपत्रकारिता
के रूप में एक अलग पहचान देता हैI इस दुनिया में इलेक्ट्रौनिक पत्रकारिता मीडिया
का सबसे महत्वपूर्ण अंग बन गया है I”1
समकालीन इलेक्ट्रौनिक
मीडिया बहुत बदला-बदला साहैI मीडिया के क्षेत्र में निरंतर परिवर्तन हो रहे हैंI
इसी परवर्तन के साथ-साथ समाचार रूम भी बदल रहे हैं I इसमें कोई शक नहीं कि आज
सामाजिक, राजनैतिक जीवन का हर पक्ष इसके द्वारा संचालित हैI मीडिया अब दुनिया भर
में सरकारों का नया मोर्चा हैI दुनिया भर की सरकारें मीडिया को जीतने के प्रयास
में हैंI कोस-कोस पर पानी बदलने की तर्ज़ पर देश-विदेश में मीडिया की पारंपरिक छवि
भी बदल रही हैI बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल की समाप्ति के बाद वाइटहॉउस छोड़ते
हुए मीडिया को संबोधित करते हुए कहा था कि मीडिया कोकिसी का चमचा होने की ज़रुरत
नहीं है उसे संदेहवादी होना चाहिए अर्थात् सरकार के हर दावे को संदेह की नज़र से
देखना चाहिएI पर सवाल यह उठता है कि आज का मीडिया क्या संदेहवादी है ? चंद्रिका के
शब्दों में --“आज मीडिया व्यवसाय बन चुका हैI हालांकि व्यवसाय का भी अपना एक मिशन
होता है और मीडिया के दृष्टिकोण से यह मिशन सिर्फ मुनाफा कमाना ही नहीं, बल्कि
जनसमूह में व्यवसाय और पूंजी के निजी हित में तैयार करना और इनकी सहायक शक्तियों
को उभारना हैI”2
न्यूज़ चैनेल
की दुनिया में निरंतर नंबर एक पर आने के लिए होड़ हैI हम सब विगत दिनों में देख
चुके हैं कि इस मुकाम को पाने के लिए कैसे टी आर पी में छेड़छाड़ भी की जाती हैI
प्रदीप जिलवाने का मानना है कि, “मीडिया में सच को उजागार करने वाली परिभाषा तो आज
भी कायम है लेकिन खबर की सामाजिक एवं नैतिक ज़रूरतें लगभग गौण हो गई हैंI यही बाज़ार
का असली चेहरा हैI”3
टी आर पी की
इस दुनिया में बहुत सारे फर्जीवाड़े हैंI कई प्रत्यक्ष रूप से होने वाले फर्जीवाड़े
और कई परोक्ष रूप से होने वाले फर्जीवाड़ेI खुलेआम फर्जी तरीके से मुद्दे गढ़े जाते
हैंI मीडिया का यह समाचार रूम इस तरह के मुद्दे सामने ला रहा है जो हमारे भीतर के
पूर्वग्रहों से मैच कर जातें हैं I इसे आप ब्लड ग्रुप मैच कर जाने की स्थिति-सा
मान सकतें हैंI पर यह पूर्वग्रहों आखिर है क्या ?
दर्शक, पाठक
के भीतर कई तरह की धारणाएं होती हैंI वे मान कर चलते हैं कि इस तरह के जो लोग हैं
ये ऐसे ही होंगेI कुछ मान कर चलतें हैं कि यह इलाका है तो ऐसा ही होगाI ये लोग न
होते तो यह समस्या भी न होती और तो और उनकी यह भी धरणा हो सकती है कि फलां लोग तो
भरोसे के लायक ही नहीं हैंI इस तरह की मान्यता हमारे भीतर बैठी होती है और हम
धर्म,जाति, भाषा और स्थान के आधार पर इस तरह की धारणाओं को निरंतर अपने भीतर जमा
करते जाते हैंI साधारण सी भाषा में इसी को पूर्वग्रह कहते हैं यानि किसी भी चीज़ के
सही या ग़लत होने के पहले से ही हमारे भीतर उसको ले कर कोई न कोई धारणा मौजूद हैI
यही है पूर्वाग्रह और इसी का फायदा उठा कर मीडिया की बिसात पर जनता के साथ राजनीति
खेली जाती हैI जनता अलग-अलग टीमों में बट जाती है, आगे खड़े सिपाही के रूप मेंI
पहले ये सिपाहीगण पान की टपरियों पर ही उलझा करते थे परन्तु अब फेसबुक पर, इंस्टाग्राम
पर, वाट्सएप पर,कू पर... हर जगह दिखाई देते हैंI मीडिया एम्पायर के रूप में आरम्भ
से ही रही है और इन पूर्वग्रहों के विरुद्ध अपना निर्णय देती रही हैI पर ज़रा सोचिए
यदि एम्पायर भी अपनी भूमिका छोड़ किसी एक पक्ष की तरफ से खेलना शुरू हो जाए तो यह
खेल कितना खतरनाक हो सकता हैI आज की मीडिया एम्पायर की अपनी भूमिका छोड़ चुकी है और
अब वह भी इस खेल में शामिलहैI
एन.के.सिंह का
मानना है कि,“आज बाजार की ताकत के दबाव में समाचार का स्लॉट लगातार सिकुड़ता जा रह
हैI समाचारों के नाम पर जो कुछ भी परोसा जा रह है, उसके लिए किसी पत्रकार को
लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में संस्थाओं, पद्धतियों, संवैधानिकव्यवस्था,
आर्थिक भ्रमजालों, प्रशासन, विभिन्न संस्थाओं के बीच के अंतर्द्वंदों और इसी तरह
के अन्य विषयों के बारे में जानकारी रखने की ज़रुरत नहीं है I”4
समाचार रूमों
से वास्तविक मुद्दे अब गायब हो रहे हैं। गढ़े-गढ़ाए मुद्दे उनका स्थान लेते जा रहे
हैं I अब निजी चैनलों के समाचार रूमों में प्रयोग होने वाली भाषा भी गढ़ी जा चुकी
हैI निजी चैनलों के समाचार की भाषा की
संरचना में तथा सरकारी चैनलों के समाचार की भाषा की संरचना में बहुत अंतर देखने को
मिलता हैइतना ही नहीं समाचारों की प्रस्तुति में भी अंतर देखने को मिलता हैI जहाँ सरकारी समाचार चैनलों में भाषा की एकरूपता
देखने को मिलती है, मानकीकृत भाषा देखने को मिलती है वहीं
निजी समाचार चैनलों में खबरों को परोसने के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया जा
रहा है उससे पत्रकारिता की साख पर कई सवाल उठाए जा रहे हैंI जिन
शब्दों का इस्तेमाल हम आम बोलचाल में भी करने से बचते हैं आज उन शब्दों का
इस्तेमाल ख़बरों को परोसने के लिए धड़ल्ले से हो रहा हैI अजय
चौधरी ने एक बातचीत के दौरान कहा था “आज हमारा उद्देश्य ‘सामाचारिक मनोरंजन’ मात्र
रह गया था, अर्थात् समाचारों को मनोरंजक ढंग से तैयार कर उसे टी.वी. के अन्य
कार्यक्रमों के मुकाबले खड़ा करनाI”5
समय बदला और
मीडिया के समाचार रूमों की भाषा भी बदलीI समाचार का मंतव्य सूचना को देना, ज्ञान
को देना रहा हैI इसी में मनोरंजन भी आ कर जुड़ गयाI और इसी मनोरंजन के नाम पर
मीडिया ने भाषा को लचर बनाना शुरू कर दिया। इस लचरता के पीछे कई तर्क रखे गए कि
हिंदी एक बहुत क्लिष्ठ भाषा है जिसे लोग आसानी से समझ नहीं पाते हैं तथा इसे आसानी
से लिखा भी नहीं जा सकता हैI इन्हीं सब के बीच निजी चैनल प्रतियोगिता की भावना के
साथ आएI बहुत से हिंदी चैनेल जब शुरू हो रहे थे तो वह उनमें से अधिकांशलोगों को
अंग्रेज़ी के बाज़ार से लाएIदेखने की बात यह है कि इसी अंग्रेज़ी के बाज़ार ने अपनी
शर्तों के साथ हिंदी के इस बाजार में कदम रखाIशब्द-ज्ञान की बारीकियों से पूर्ण
रूप से अवगत न होने के कारणउसने हिंदी के वास्तविक स्वरुप को अपनाने से इनकार
कियाI वे ‘कार्यवाही’ और ‘कार्यवाई’ जैसे शब्दों के मूलभूत अंतर कोनहीं जान पाएI
यहीं से सूचना और ज्ञान संबंधी कार्यक्रमों में रोमन का प्रवेश शुरू होता हैIकहना
न होगा कि हिंदी के न्यूज़ रूम में व्याकरण को जानने के लिए कभी वह कोशिश नहीं हुई
जो कोशिश की जा सकती थीI सब कुछ परोसने की इतनी जल्दबाजी रही कि मीडिया ने समाचार
की भाषा के व्याकरण को, शब्द-कोश को विस्मृत करना शुरू कर दियाI
इन सब के बीच
से कई सवाल उभरते हैंI पहला सवाल यह उभर कर सामने आता है कि इस तरह की मीडिया की
भाषा कितनी सही है और दूसरा सवाल जो पहले सवाल से ही उभरता है कि इस स्थिति के लिए
जिम्मेवार कौन?एक और बात अनिवार्य बन पड़ती है कि “....आखिर खबर के नाम पर
क्या-क्या दिखाने की इजाजत होनी चाहिए? और खबर की प्रस्तुति में किन मानदंडों का
ख्याल रखा जाना चाहिए?”6
हमें नहीं
भूलना चाहिए कि इस तरह की भाषा का समाज पर क्या असर पड़ रहा है या पड़ता जा रहा हैI
कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह की भाषा सही है क्योंकि आम आदमी इसे समझ रहा है
परन्तु कुछ कहते हैं कि यह भाषा ग़लत हैI सही और ग़लत के बीच हम शायद यह भूल गए हैं
कि भाषा की पहली शर्त ही यह है कि आम आदमी उसे समझे पर इस बात का भी ध्यान रखना
ज़रूरी है कि आम आदमी को समझ में आने वाली भाषा हमेशा सस्ती भी न होI भाषा सरल होनी
चाहिएपर यह भी ध्यान देना होगा कि सरल, सस्ती और बाजारू तीनों में अंतर हैI मीडिया
ने समाचारों की भाषा को आसान करते-करते पहले सस्ता कर दिया और फिर फुटपाथीI भाषा
को ले कर जो चेतना, जो संवेदनशीलता पहले मीडिया में दिखाई देती थी वह आजकल देखने
को नहीं मिलती।
मीडिया में
भाषा की चर्चा करते समय समाज में भी भाषा की चर्चा करनी ज़रूरी हैI समाज में जो कुछ इस्तेमाल हो रहा है मीडिया
चैनेल उसी का अनुसरण करते हैंI पर यदि इसेदूसरे पहलू से देखा जाए तो यह कहना भी
ग़लत नहीं होगा कि भाषा सीखने में पहले समाचार-पत्रों की और उसी क्रम में मीडिया की
भी बहुत बड़ी भूमिका रही हैI बच्चे भाषा कहाँ से सीखते हैं? मीडिया से,समाचार-पत्रों
से,टी.वी. चैनलों से सीखतें हैंI वहाँ जिस भाषा का प्रयोग हो
रहा है वह उसी भाषा को सीखते हैंI इसलिए मीडिया की,समाचार-पत्रों
की,टी.वी. चैनलों की भाषा के प्रति बहुत बड़ी जिम्मेवारी हैI “मीडिया चाहे तो सही
पक्षों को समाज के सामने रखकर प्रगति की भूमिका का निर्वाह कर सकता हैI लेकिन
मीडिया तो अपने चरित्र में ही सत्ता और पूँजी के साथ खड़ा हो जाता हैI’’7
आज के निजी
चैनलों के समाचार रूप को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा के मानकीकरण का जो एक
पूरा दौर रहावह अब समाप्त हो चुका हैI कहना न होगा कि जब हम लिपि से अलग हो जाते
हैं तो ऐसी परिस्थितियों का आना स्वभाविक हैI समाज में जो कुछ इस्तेमाल हो रहा है
मीडिया चैनल हर उस चीज़ का अनुसरण करते हैंI भाषा के सन्दर्भ में ‘सब कुछ चलता
है’जैसी मानसिकतासे निजी समाचार चैनेल चल रहे हैंIयदि इस क्रम में भाषा में संयम
कहीं हट भी गया, भाषा की
मर्यादा बीच में कहीं लुप्त हो भी जाए तो भी
कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं हैIइसमें कोई दो राय नहीं कि मीडिया
की भाषा आज मानकीकृत भाषा की हत्या का काम कर रही हैI कहाँ तो उससे यही उम्मीद
होनी चाहिए थी कि भाषा को आगे बढ़ाती या फिर उसे समृद्ध करने का कार्य करती परन्तु
वह सरल भाषा की आड़ में एक अपाहिज भाषा बनाती जा रही हैI यह
भाषा लोगों की संवाद की शैली को भी बिगाड़ रही हैI किस तरह के
शब्दों का चयन होना चाहिए, इन शब्दों के माध्यम से हम किस प्रकार का कथ्य पहुँचारहे
हैंउस पर भी ध्यान देने की ज़रुरत हैI उत्तेजना फैलाने वाले
शब्द, हिंसा को बढ़ावा देने वाले शब्द इधर बहुत बढ़ें हैंI दर्शकों के बीच उन्मादी
शब्दों ने बहुत तेज़ी से रफ़्तार पकड़ी और संतुलित शब्दों को जानबूझ कर किनारे कर
दिया गयाI लोग भूल जाते हैं कि भाषा के हिंसक होने से समाज भी हिंसा की तरफ बढ़ने
लगता हैI आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य के क्षेत्र में लोकमंगल की बात की थीI
अर्थात् जो सबके लिए कल्याणकारी होI क्या मीडिया की भाषा उसी लोकमंगलता को आगे
बढ़ाती नज़र आती है?मीडिया की भाषा के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न आज बहुत
महत्वपूर्ण बन पड़ा हैI“आज मीडिया घटना को सनसनीखेज बनाने में जुट जाता हैI ख़बरों
को सनसनीखेज़ बनाने से ही मीडिया की विश्वसनीयता घटी है .... ज़्यादातर पत्रकारों को
लगता है कि खबर दिखने का मतलब नकारात्मक ख़बरों को दिखाना ही हैI”8
पहले जब खबरों
की गति कम होती थी तब भी वहाँ विश्वसनीयता थीI आज ख़बरों की तेज़ रफ़्तार है पर
विश्वनीयता भी घटी है और इसी तेज़ रफ़्तार के कारण गलतियाँ भी बढ़ीं हैंI पहले यदि
कोई चूक हो जाए तो दूरदर्शन या आकाशवाणी पर क्षमा याचना आती थीI परन्तु आज की
मीडिया में गलती का हो जाना स्वाभाविक माना जाता हैI “मीडिया विशेषज्ञ और भारतीय
समाज की नब्ज़ पहचानने वाले मार्क टली का मानना है कि, आज चैनलों ने ख़बरों को तमाशा
बना दिया है...कई बार उसकी दिलचस्पी खबरें दिखाने में नहीं, बल्कि वह ड्रामे के
तौर पर हमें प्रस्तुत करता है I”9
न्यूज़ रूम में
अब ख़बरों के कथा वाचक बैठते हैं जिनका काम है केवल कहानी को बतानाI जब कथा को ही
केवल प्रमुखता दी जाएगी तब भाषा तो स्वतः दोयम हो ही जाएगीI ऐसे में मीडिया
कर्मियों के चयन का आधार भाषा नहीं रहेगी और यही अब हो रहा हैI जो लोग मीडिया के इस माध्यम से आज जुड़े हुए हैं
उनमें से अधिकांश न कुछ पढ़ना चाहतें हैं और न ही कुछ समय उस भाषा के साथ बिताना
चाहतें हैं जिसके माध्यम से वे मीडिया के इस बड़े मंच पर पहुँचे हैंI यदि यह कहा
जाए कि आज के दौर की मीडिया की भाषा व्याकरण की नींव को बुरी तरह से हिला रही है
तो कुछ गलत न होगाI मीडिया कर्मियों ने यह मानने से ही इनकार कर दिया है कि उनकी
भूमिका लोक शिक्षक की भी होती हैI लोकसेवा प्रसारक के लिए तीन विशेष उद्देश्य माने जाते हैं—सूचना, शिक्षा और मनोरंजनI हमने
इस को आधार न बनाते हुए पूरीकी पूरी भाषा को ज्ञान से, चिंतन से, विचार
से,अन्तर्दृष्टि से और आलोचना से अलग कर दिया है और उसे बस एक सनसनाता हुआ बाण बना
दिया हैंI यही कारण है किएक शिक्षक की नैतिक जिम्मेदारियों को मीडियाकर्मी अब स्वीकारना
नहीं चाहते हैंIपीयूष रंजन सहायके अनुसार “आज हर सेटेलाइट
चैनल अपराध की खबरें बढ़-चढ़ कर दिखा रहा है I ज़ाहिर सी बात है कि समर्थन भी है...24
घंटों का समाचार जुटाने के लिए हर तरफ भागमभागI खबरें खोजी जा रही हैं...वो खबर
जिस चंद मिनटों में समझाया-बताया जा सकता है, उसे घंटों की कहानी बनाकर दर्शकों को
सुनाया जा रहा हैI”10
समाचार रूमों
की हिंदी इस प्रकार की हो चुकी है किवहाँएक पूरा वाक्य भी हिंदी में नहीं बोला जा
रहा हैI अधिकांश तथाकथित समाचार लेखक उसे लिखने में और तथाकथित समाचार वाचक उसे
बोलने में असमर्थ हैंI त्रासदी इस बात में हैं कि वे अब भाषा की अपनी इसी अपाहिजता
को अपने सुननेवालों के लिए स्वीकार्य और मानक बना रहे हैंIइसमें सबसे बड़ा खतरा यह
है कि अगली पीढ़ियाँ जो इन्हीं चैनलों को देख कर बड़ी हो रही हैं उनकी भाषा भी अब
इसी प्रकार की ही हो जाएगीI इससे यह अनुमान बहुत आसानी से लगाया जा सकता है कि दो
पीढ़ियों बाद बोली जाने वाली भाषा का स्वरुप कैसी होगा ?
सन्दर्भ :
- मीडिया लाइव ,पृष्ठ -4 , रत्नेश्वर के सिंह , राष्ट्रीय
पुस्तक न्यास, भारत , 2013
- पूँजी के निजी हित में जनमत तैयार करता मीडिया , पृष्ठ-30,
चन्द्रिका, मीडिया विशेषांक , कथादेश, अगस्त 2009
- मीडिया खड़ा बाज़ार में ,पृष्ठ-24 , प्रदीप जिलवाने , मीडिया
विशेषांक , कथादेश, अगस्त 2009
- वक्त रहते गहराई से विचारने का वक्त, पृष्ठ-55, एन.के.सिंह,
मीडिया विशेषांक , कथादेश, अगस्त 2009
- मीडिया लाइव ,पृष्ठ -4 , रत्नेश्वर के सिंह ,
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत , 2013
- नहीं हो सकता कोर्पोरेट मीडिया लोकतंत्र का स्तम्भ ,पृष्ठ
-28, सत्येन्द्र रंजन , मीडिया विशेषांक , कथादेश, अगस्त 2009
- भूमण्डलीकरण के दौर में सेंसर और मीडिया , पृष्ठ-103, नया
ज्ञानोदय ,अगस्त 2005
- अब सुनिए –टेलीविज़न के सच की भाषा, पृष्ठ-164, के.के.रत्तु,
इन्द्रप्रस्थ भारती , अप्रैल-जून 2014
- अब सुनिए –टेलीविज़न के सच की भाषा, पृष्ठ-163, इन्द्रप्रस्थ भारती , अप्रैल-जून 2014
- खो रही है ज़मीन , पृष्ठ – 181, पीयूष रंजन सहाय, मीडिया
विशेषांक , कथादेश,
अगस्त 2009
डॉ.स्वाति
श्वेता
एसोसिएट
प्रोफ़ेसर ,गार्गी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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