शोध आलेख : अस्मितामूलक विमर्श : वैचारिकी और संदर्भ / डॉ. रमेश पुरी

अस्मितामूलक विमर्श : वैचारिकी और संदर्भ

डॉ. रमेश पुरी


शोध सारांश : अस्तित्व मूलक विमर्श परंपरागत, रूढ़िवादी परंपराओ और सिद्धांतों के विरुद्ध एक वैचारिक विद्रोह है जो एक पक्ष विशेष की समस्या सत्ता की उपेक्षा को इंगित करता है। अस्तित्व मूलक विमर्श में अस्मिता के बोध को सतत् प्रकट होते रहना, निरंतर आविर्भावित होते रहना और अनुभूति के साथ उभरते रहना है जिससे हाशिए के समाज के जीवन संघर्ष को संवेदना के साथ विस्तृत फलक पर उकेर कर के उनके प्रति मानवीय संवेदना का विकास किया जा सके और उनके प्रति मन में सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास हो। हाशिए पर धकेल दिए गएलोगों को एक दूसरे के संघर्ष परक इतिहास से प्रेरणा मिल सके जिससे उनमें अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के बोध की जिजीविषा और सजगता विकसित हो। सभ्यता के विकास एवं आर्थिक जगत में आए परिवर्तनों ने सिद्धांतों परंपराओं की आड़ में समाज के विभिन्न पक्षों की स्थिति में परिवर्तन ला दिया जिससे उनको अपने अधिकारों से बेदखल होना पड़ा। अस्तित्व मूलक विमर्श उन सभी पक्षों के अधिकारों के प्रति सजगता एवं चेतना को साहित्य में व्यक्त करने का प्रयास है जिसकी शुरुआत बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में साहित्य जगत में परिलक्षित होती है जो शीघ्र ही विस्तृत एवं व्यापक फलक पर अपने आप को प्रतिबिंबित करने लगा हैं आज अस्तित्व मुल्क विमर्श में ना केवल स्त्री, दलित और आदिवासी की बात होती है बल्कि किन्नर, बालक, वृद्ध, किसान मजदूर, युवा, पर्यावरण एवं समस्त चराचर जगत को अभिव्यक्ति देने का महती प्रयास परिलक्षित होता है। अस्तित्व मूलक विमर्श में जहां एक और संघर्षरत लोगों के संघर्ष को उकेरा उठाया है वहीं दूसरी ओर साहित्य के स्वरूप में भी सकारात्मक परिवर्तन लाने का कार्य किया है। 

बीज शब्द : अस्मिता, विमर्श, अस्मिता विमर्श, अस्मितावादी सिद्धांत, वृद्ध विमर्श, स्त्री विमर्श. हाशिया, अधिकार, कर्त्तव्य, आन्दोलन, सहानुभूति, स्वानुभूति।

 मूल आलेख : अस्तित्व से अर्थ मौजूदगी, विद्यमानता एवं सत्ता का भाव अर्थात निर्णय प्रक्रिया में समान अधिकार से हैं और विमर्श से तात्पर्य विचार विवेचन से है जो तथ्य स्थिति पर विचार करके सुधारवादी दृष्टिकोण के साथ वास्तविकता का उद्घाटन करते हैं। अतः अस्तित्व मूलक विमर्श हाशिए पर गए लोगों की मौजूदगी और उनकी निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी तथा उनके जीवन संघर्ष पर विचार विवेचन करते हुए उनकी वास्तविक स्थिति का उद्घाटन करना एवं उनके प्रति मानवीय संवेदना को उभार करके उनकी दशा में परिवर्तन लाना है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार अस्तित्व विमर्श उन सभी परंपरागत तर्कसंगत मान्यताओं सिद्धांतों विचारों का विरोध करता है जिसमें किसी पक्ष या वर्ग की सत्ता/विधमानता एवं उनकी समस्याओं की उपेक्षा हुई है जिससे वह दोयम दर्जे में रहने को मजबूर हुआ। 

सामान्यतः अस्तित्व विमर्श सिद्धांत विचार की अपेक्षा व्यक्ति को महत्व देता है जो विचारों एवं सिद्धांतों की चकाचौंध में अंधेरे में ढकेल दिया गया है यह उन सभी विचारों, संस्थाओं, मान्यताओं का विरोध करता है जो मानवीय एवं मानवेतर पक्षों को गौण बनाते या करते हैं तथा उनकी समस्या एवं अधिकारों की उपेक्षा करते हैं। गुप्तजी ने अस्तित्व वादी विमर्श को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक और व्यक्ति को गौण बनाने के कारण विज्ञान सामाजिकता का घोर विरोधी माना है इन्होंने अस्तित्व के मूल में मानवतावादी दृष्टिकोण को स्थान दिया है। डार्विन कायोग्यतम की उत्तरजीवितासिद्धांत मानव जीवन के संघर्ष की बात करता है जो कि कहीं ना कहीं इसी अस्तित्व विमर्श को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सहयोग संबल प्रदान करता है। 

अस्तित्व मुल्क विमर्श यह बतलाता है कि किसी एक पक्ष से जुड़े विचारों, बाह्य आंतरिक परिस्थितियों, मान्यताओं को दूसरे पक्ष पर थोपा नहीं जाना चाहिए उसे अपने जीवन की प्रवाहमयता का चुनाव स्वयं करने देना चाहिए। अस्तित्वमूलक विमर्श के मूल में अस्मिता और अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है और इस संघर्ष की शुरुआत दो पक्षों में किसी एक पक्ष को महत्व देना, किसी एक पक्ष पर जबरन (आचार-विचार, मान्यताओं, परम्पराओं के नाम पर) दबाव बनाकर अधीनस्थ अधिकारों से वंचित रखने की प्रवृति तथा किसी एक पक्ष को अक्षम मानकर उसके प्रति हीनता जन्य पक्षीय विचार रहे है जिससे पीड़ित, वंचित, शोषित, दमित पक्ष स्वयं की स्वतंत्रता का अस्तित्व को लेकर सोचने पर विवश होता है। 

हिन्दी साहित्य में अस्तित्व मूलक विमर्श बीसवीं शताब्दी के उत्तार्द्ध में प्रारम्भ होकर शीघ्र ही विस्तृत फलक, स्वरूप आयामों में अपने आपको व्याप्त कर लिया। आज अस्तित्व विमर्श को मानवीय और मानवेतर दो स्वरूपों में देखते है। मानवीय स्वरूप में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, किन्नर विमर्श, आदिवासी विमर्श, बाल विमर्श, वृद्ध विमर्श, किसान-मजदूर विमर्श, युवा विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श इत्यादि रूपों के परिलक्षित होते हैं। तथा मानवीय इतर स्वरूप में पर्यावरण विमर्श, पशु पक्षियों का विमर्श, सांस्कृतिक विमर्श, भाषाई विमर्श इत्यादि देखने को मिलते हैं।

 साहित्य में अस्मितामूलक विमर्श दो दृष्टिकोण से प्रचलित हुआ। इसमें प्रथम सहानुभूति परक लेखन था। इसके अंतर्गत लेखक स्वयं उस पक्ष से संबंधित नहीं होता है जिस पक्ष का विमर्श वह साहित्य में कर रहा है। इस प्रकार के लेखन को परकाया प्रवेश मूलक लेखन भी कहा जा सकता है जिसमें लेखक हाशिए में धकेले गए पक्ष के जीवन संघर्षों को देखता है, विचारता है, जो उसके अतंर्तम में चेतना की एक किरण जगा देता है जिस के आलोक में वह अपने आप को हाशिए के पक्षों के साथ देखता है और उनके जीवन संघर्षों को साहित्य में उकेरते हुए विचार विवेचन करता है तथा मानवीय संवेदना को जाग्रत करने का प्रयास करता है। जैसे- प्रेमचंद की रचनाठाकुर का कुआंसद्गतिमें इस प्रकार का सहानुभूति परक अस्मिता मूलक विमर्श का रूप दृष्टिगोचर होता है। 

दूसरा दृष्टिकोण स्वानुभूति परक लेखन का रहा है जिसमें लेखक स्वयं हाशिए पर धकेल दिए गए पक्ष का होता है और वह अपनी वेदना, व्यथा, विद्रूपता तथा समाज के दूसरे पक्ष द्वारा स्वयं एवं समानधर्मा पक्ष पर किए जा रहे अन्याय, अत्याचार, शोषण की आत्मसात् पीड़ा को अभिव्यक्त करता है जैसे- ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठन' में इसी प्रकार का स्वानुभूतिपरक अस्मितामूलक विमर्श देखने को मिलता है। 

स्त्री अस्मितामूलक विमर्श में स्त्री के प्रति मानवीय जीवन मूल्यों की दोयम दर्जे की संवेदना से विकसित मानसिकता रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। दलित अस्मिता मूलक विमर्श में समाज के शोषित पीड़ित वंचित दमित पक्ष की पीड़ा, एवं दूसरे पक्ष द्वारा इनके प्रति किए गए अमानवीय व्यवहार, कृत्य को पूर्ण सजगता के साथ उभारा है। जो समाज के अन्य वर्गों की इनके प्रति विकृत वैमनस्य परक मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है। किन्नर अस्मिता मूलक विमर्श में इनकी सामाजिक उपेक्षा, लिंगभेद को अभिव्यक्त किया है जो इंसानियत के संकट के रूप में उभर कर सामने आता है और यही संकट किन्नर की वेदना पीड़ा हताशा कुंठा के स्वरूप में साहित्य में अभिव्यक्त हुआ है। बाल अस्मिता मूलक विमर्श में घोर शिक्षा केंद्रित परिवेश में बालकों के ऊपर बढ़ते शिक्षक दबाव एवं बाल मनोविज्ञान तथा बालको के बालपन के हनन के रूप में देखा जा सकता है जिसमें बालकों की नैसर्गिक प्रतिभा एवं विचारों को दबाने, गला घोंटने का काम किया जा रहा है। आदिवासी अस्मिता मूलक विमर्श में सभ्यता, औद्योगिकीकरण एवं विकास के नाम पर जल, जंगल, जमीन के विदोहन के विभिन्न रूपों, आदिवासियों की आदिवासियत के विस्थापन को इंगित किया गया है। वृद्ध विमर्श में वृद्धों की पारिवारिक उपेक्षा, उनके एकांकीपन एवं उनकी आशा और आकांक्षाओं को रेखांकित किया जा रहा है जिसे राजी सेठ के कहानी संग्रह 'यह कहानी नहीं' में भलीभांति देखा समझा जा सकता है। इसी प्रकार किसान, मजदूर, युवा, अल्पसंख्यक प्रवासी वर्ग की अस्मिता मूलक विमर्श में इन वर्गों की वेदना, अभाव युक्त जीवन, उपेक्षा को निरूपित करने का प्रयास रहा है। 

मानवीय इतर पक्षों के विमर्श में पर्यावरणीय अस्मिता मूलक विमर्श आधुनिक साहित्य में प्रमुखता के साथ अभिव्यक्त हुआ है जिसमें पर्यावरणीय चिंताओं समस्याओं एवं मानव जाति पर पड़ने वाले प्रभाव को अभिव्यक्त किया है। रणेंद्र के उपन्यास 'ग्लोबल गांव के देवता' में पर्यावरणीय चिंताओं को भली-भांति देखा जा सकता है। स्त्री विमर्श बीसवीं शताब्दी के उत्तार्द्ध में प्रचलन में आया, प्रारम्भ में पुरुष वर्ग ने ही इस पर लेखनी चलाई जो एक तरह से सहानुभूति परक लेखन था। प्रेमचंद जी के उपन्यासनिर्मलासेवासदनऔर नागार्जुन के उपन्यासकुंभीपाकरतिनाथ की चाचीमें स्त्री अस्मितामूलक विमर्श देखने को मिलता है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशक में महिला लेखिकाओं ने भी अपने मुद्दों पर जागरूक होकर लिखना प्रारंभ किया जिनमें प्रभा खेतान, मन्नू भंडारी, रमणिका गुप्ता, मैत्रेयी पुष्पा इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है।

 

सभ्यता के प्रारंभ से ही स्त्री-पुरुष भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक रहे है। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमंते तत्र देवता' की उक्ति में स्त्री के प्रति आदर सम्मान की देवीतुल्य स्वीकारोक्ति आदिकाल से चली रही थी। प्राचीन काल में मातृप्रधान समाज (वैदिक काल सिंधु घाटी सभ्यता) स्त्री के अस्तित्व को स्वीकार किया गया था और अर्धनारीश्वर स्वरूप में पुरुष के बराबर माना गया था किन्तु धीरे धीरे समाज का मातृप्रधान से पितृप्रधान की ओर बढ़ते हुए स्थिरता को प्राप्त कर लेने से नारी की भूमिका का ह्रास होते हुए गौण होना जिस के फलस्वरूप उनके अधिकारों की सीमितता और कर्तव्य की बहुलता ने एक अन्तर्विरोध को जन्म दिया और इस विषमता ने नारी को हाशिए पर धकेलने का कार्य किया जिसके कारण आबादी के आधे हिस्से को अभिव्यक्ति निर्णय के अधिकार एवं अवसर से बेदखल होना पड़ा। सबला से अबला की विद्रूपताओ एवं विसंगतियों से भरी इस अधोगामी यात्रा ने नारी के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाने का कार्य किया।

 यह सही है कि हमारी सभ्यता और संस्कृति कई चरणों की विकास यात्रा के पश्चात आज की स्थिति में पहुंची हैं परंतु इस विकास यात्रा में नारी धीरे-धीरे परिधि की ओर अग्रसर रही और अंत में परिधि पर आकर बैठ गई जिससे हमारी व्यवस्था में नारी की भूमिका नगण्य होती गई। यह स्थिति रामायण में सीता के स्वयंवर से आरंभ होकर अंत में सीता के सतीत्व की परीक्षा में आकर हुए बदलाव के रूप में देख सकते हैं। प्रारंभ में मातृसत्तात्मक परिवारों में स्त्री की भूमिका श्रेष्ठ रही किंतु जैसे-जैसे पितृसत्तात्मक परिवार का विकास हुआ वैसे-वैसे स्त्री की स्थिति समाज में दोयम दर्जे की होती गई। उसे ना जाने किन-किन उपमानों से अभिहित किया जाने लगा तथा शिकंजे में कसा जाने लगा जिसके कारण वह परतंत्रता की दहलीज पर आकर गिर गई और इसी अवस्था से मुक्ति के प्रयास के रूप में विचार जगत में स्त्री मुक्ति आंदोलन जो साहित्य में स्त्री विमर्श के नाम से जाना जाता है, का जन्म हुआ। 

अंग्रेजी के फेमिनिज्म का हिंदी रूपांतरण नारीवाद हैं जिसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द फेमिना से मानी जाती हैं जिसका अर्थ स्त्री से हैं। स्त्रीवाद का सर्वप्रथम प्रयोग 1890 के आसपास लैंगिक समानता और स्त्रियों के अधिकारों के अर्थ में किया गया। स्त्री विमर्श स्त्रियों के दमन के विविध रूपों का अध्ययन करता है और दमन से मुक्त कराने की दिशा में सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ वैचारिक स्तर पर पहल भी करता है। 

स्त्री की स्थिति के संबंध में महादेवी वर्मा का कथन है किचाहे हिंदू नारी की गौरव गाथा से आकाश गूंज रहा हो, चाहे उसके पतन से पाताल कांप रहा हो, परंतु उसके लिए 'ना सावन सूखा ना भादो हरा' की कहावत ही चरितार्थ रही है, उसे हिमालय को लज्जा देने वाले उत्कर्ष तथा समुद्र तल की गहराई से इस स्पर्धा करने वाले आकर्षण दोनों का इतिहास आंसुओं से लिखना पड़ा है नारी ने सभी क्षेत्रों में यहां तक की स्वतन्त्रता आंदोलन में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है जिससे स्पष्ट है कि नारी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक दृष्टि से किसी भी तरह पुरुष से कम नहीं है। पुरातन सामाजिक व्यवस्था में अपने को शोषित महसूस करने के बाद नारी में नई चेतना और नया व्यक्तित्व उभर रहा है तथा नारी के व्यक्तित्व की अवधारणा में परिवर्तन रहा है फलत: स्त्री-पुरुष के परस्पर संबंधों के मूल्य भी बदल रहे है। आज नारी की पुरुष के प्रति अपेक्षाओं में परिवर्तन आया है जो नारी को तनाव घुटन की स्थिति में ले आया है। जैसे मोहन राकेश के नाट्य 'आधे अधूरेमें सावित्री की पुरुष से रखी अपेक्षाएं उसे एक विचित्र स्थिति में ले आती है। जहां वह अपने आप को एकाकीपन के घोर अंधकार में पाती है। 

कामकाजी अविवाहिता स्त्री (सुषमा) के माध्यम से स्वतंत्रता के बाद बदलते सामाजिक सन्दर्भो को उषा प्रियंवदा ने 'पचपन खंभे लाल दीवारें' में रेखांकित किया है। ममता कालिया ने पति-पत्नी के शारीरिक संबंधो को केंद्र में रखकर 'बेघर' में आधुनिक समाज में पुरुष की संस्कार बद्ध जड़ता और संदेह वृति को उघाड़ा है। इस तरह आधुनिक साहित्य में सदियों से रूढ़ियों के नीचे कसमसाता नारी मन वर्जनाओं को नकारता हुआ अपने सहज स्वाभाविक रूप में आधुनिक नारी में चित्रित हुआ है। 

स्त्री विमर्श के सम्बन्ध में कुछ भ्रांतिया और अंतर्विरोध आलोचकों ने खड़े किए है जिसमें उन्होंने बताया है कि स्त्री विमर्श प्रतिशोध पीड़ित है, स्त्री विमर्श की समर्थक स्त्रियां पुरुष बनना चाहती है, स्त्री संबंधी पूर्वाग्रह के लिए दोषी पुरुष है, स्त्री विमर्श केवल कुछ शिक्षित, साहित्यिक धनी महिलाओं का कोरा वाग्विलास और न्यूज़ में बने रहने की उनकी साजिश मात्र है। कुछ गिने-चुने प्रतिनिधि महिला चरित्रों के विकास का हवाला देकर यह जताने की कोशिश कि स्त्रियां अब हाशिए पर नहीं है। 

वास्तविक रूप से देखा जाए तो स्त्री आंदोलन प्रतिशोध पीड़ित ना होकर अपनी अस्तित्व अस्मिता के बोध का आंदोलन है क्योंकि वह यह जानती है कि अन्याय का प्रतिकार अन्याय नहीं है। स्त्रियां पुरुष नहीं बनना चाहती वह तो चाहती है कि जो दोहरे मापदंड उन पर थोपे गए हैं उन पर पुनर्विचार होना चाहिए ताकि विकास के अवसर सबको समान मिल सके। स्त्री संबंधी पूर्वाग्रह के लिए दोषी पुरुष नहीं जबकि वह व्यवस्था है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरुषों को लगातार एक ही पाठ पढ़ाती है कि स्त्री उनसे हीनतर है एवं उनके भोग का साधन मात्र है। इसके अतिरिक्त स्त्री विमर्श केवल कुछ शिक्षित साहित्यिक धनी महिलाओं को वाग्विलास और न्यूज़ में बने रहने की साजिश ना होकर उनकी स्वानुभूति परक नारी मन के अंतस चेतना का प्रकटीकरण है। 

मृणाल पांडे के निबंध 'संकलन परिधि पर स्त्री' में भंवरी देवी के संघर्ष, आंध्र प्रदेश के एक जिले की लक्षमा की जागरूकता के माध्यम से नारीवादी सोच को आक्रामक तेवर के साथ प्रस्तुत किया है तथा यह बताया है कि स्त्री किस प्रकार समाज की परिधि पर दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवश है। इसमें नारी के सौंदर्य को परंपरागत प्रतिमान से मुक्त कर उसके श्रम सौंदर्य को उजागर किया गया है। तस्लीमा नसरीन ने अपने द्वारा अनूदित 'औरत के हक में' में अपने दैनिक जीवन के छोटे-छोटे तल्ख अनुभवों के माध्यम से नारी अस्मिता से जुड़े सवालों को नए सिरे से उठाया है। वह बतलाती है कि केवल जननी बनकर खंडित चूर्ण विचूर्ण होना उसका भाग्य नहीं है। स्त्रियों को धर्म शास्त्रों, सामाजिक रूढ़ियों, पुरुष की निरंकुशता और नीचता को ध्वस्त कर अपनी शक्ति खुद पहचाननी चाहिए। 

'स्त्री होने की सजा' मैं अरविंद जैन स्त्री को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों की सच्चाई की पोल खोलकर पुरुष के अनुकंपा भाव की धज्जियां उड़ाते हैं। वे विवाह, संपत्ति, तलाक, निकाह, बलात्कार आदि विभिन्न मुद्दों के माध्यम से कानून की कमियों और उसके एकांगीपन को उजागर करते हैं तथा स्त्री के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की वास्तविक हकीकत को सामने लाकर सत्ता पक्ष को आईना दिखाने का भी काम करते हैं। मृदुला गर्ग के उपन्यास 'कठ गुलाब' के सभी पात्र एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में रहते हैं जो कहीं नहीं है। उपन्यास के सभी नर नारी शाप ग्रस्त प्रतीत होते हैं। स्त्रियां सुरक्षा और संपत्ति का अधिकार चाहती है और पुरुष प्रेम आनंद स्त्री देह के बाद सिर्फ एक उत्तराधिकारी। 'दिलो दानिश' में कृष्णा सोबती ने रखैल और दूसरी पत्नी की स्थिति एवं भूमिका को रेखांकित किया है जिसमें यह सदैव घृणा की पात्र कानूनी अधिकारों से वंचित रहती है। 

स्त्री विमर्श लेखन का महत्वपूर्ण उद्देश्य स्त्री की विभिन्न भूमिकाओं के बारे में मानव समाज को परिचय देना है। जीवन के उन अंधेरे कोनों पर भी प्रकाश डालना है जिस की पीड़ा स्त्रियों ने सदियों से झेली है। जरूरत है कि स्त्री अपनी मानवीय गरिमा और अधिकार को समझ कर संरचनात्मक, सांस्कृतिक तथा मानवीय दृष्टिकोण के मूल तत्व का विश्लेषण करें तथा देश, समाज, घर, परिवार की मिश्रित भूमिका का संतुलन स्थापित करने का प्रयास दोनों पक्ष करें। 

स्त्री अस्मितामूलक विमर्श की कुछ सीमाएं भी है जिसके प्रति लेखक एवं पाठक वर्ग को सदैव सजग रहने की आवश्यकता है। स्त्री स्वतंत्रता के साथ कर्तव्यहीनता की स्थिति जिससे सामाजिक ढांचे के प्रति विद्रोह की भावना की गुंजाइश सदैव बनी रहती हैं तथा स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर अतिवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलने की आशंका, एक पक्ष पर अधिक बल देने से दूसरे पक्ष को गौण करके उसे हतोत्साहित करना, पक्षीय प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा जो नकारात्मक स्वरूप लेकर वर्गीय हिंसा में रूपायित भी हो सकती है, आर्थिक तथा वित्तीय दृष्टिकोण से नारी के रूप सौंदर्य एवं अंग का अतिवादी प्रदर्शन इत्यादि। स्त्री विमर्श में अधिकार और कर्तव्य के मध्य सामंजस्य स्थापित करने की महती आवश्यकता रहती है तथा साहित्यकारों को पूर्ण सजगता के साथ लेखन की आवश्यकता सदैव बनी रहती है जिससे कि निर्माण हो सके नाश नहीं, साहित्यकार सृजन एवं ध्वंस के मध्य के अंतर को सदैव स्मरण में रखते हुए ही स्त्री विमर्श को साहित्य में स्थान दे तो आधी आबादी के साथ यथोचित न्याय संभव हो सकेगा। 

संदर्भ सूची : 

1 अमृता प्रीतम : औरत एक दृष्टिकोण, पेंग्विन रेंडम हॉउस इण्डिया, गुडगाँव, 2020,

2 शिवकुमार : उपन्यासों में नारी समस्या, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 2008

3 डॉ अरविंद जैन : औरत होने की सजा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016

4 मृदुला गर्ग : कठ गुलाब, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2012

5 कृष्णा सोबती : दिलो दानिश, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010

6 आशा रानी : नारी शोषण : आईने आयाम, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1980

7 मृणाल पांडे : परिधि पर स्त्री

8 ममता कालिया : बेघर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2002

9 डॉ मंदाकिनी मीना : अस्मिता मूलकविमर्श और साहित्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2018

 

डॉ. रमेश पुरी

सहायक आचार्य (हिंदी), राजकीय महाविद्यालय, श्रीडूंगरगढ़ (बीकानेर), राजस्थान

rameshpuri456@gmail.com, 9414225671 

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

Post a Comment

और नया पुराने