वेब मीडिया और हिंदी
- मुकेश कुमार मिरोठा
शोध सार :
सूचना तकनीक की नवीन उपलब्धियाँ संचार माध्यमों को हम तक पहुंचाने के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं को भी नए रूप प्रदान कर रही है। प्रौद्योगिकी के इस दौर में मीडिया एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में उभरा है। आधुनिक ज्ञान प्राप्ति में ‘वेब मीडिया’ की इस भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। अतः वेब मीडिया और भाषा एक दूसरे के सहयोगी माने जा सकते हैं। इस संदर्भ में भारत के प्ररिप्रेक्ष्य में हिंदी और वेब मीडिया के आपसी संबंधों की पड़ताल जरूरी हो जाती है। वस्तुतः वेब मीडिया ने हिंदी भाषा का जो पंख प्रदान किए हैं, वो उसे विश्व-गगन में उड़ान भरने में सहायक है। वेब मीडिया और हिंदी के संबंधों की यह नई उड़ान है जिसे अब कोई भी अवरुद्ध नहीं कर सकता है।
बीज - शब्द : मीडिया, वेब मीडिया, भाषा, हिन्दी साहित्य, इन्टरनेट, ब्लॉग, वेबसाइट, पत्रकारिता आदि ।
मूल आलेख :
“इस शताब्दी के आगमन तक सामाजिक परिवर्तन इतना धीमा था कि किसी व्यक्ति के पूरे जीवनकाल में उस पर कोई ध्यान ही नहीं जाता था। अब ऐसा नहीं है। परिवर्तन की रफ्तार इतनी बढ़ गई है कि हमारी कल्पनाशक्ति भी उसके साथ नहीं चल सकती है।“- ‘सी. पी. स्नो’- वैज्ञानिक और उपन्यासकार ।
मानव जाति का इतिहास पाषाण युग को पार करता हुआ ‘क्लिक युग’ एवं ‘टच युग’ में पदार्पण कर चुका है। सामाजिक परिवर्तन का यह दौर सार्वभौमिक रूप में सदैव विद्यमान रहा है। किंतु आज सम्पूर्ण विश्व, मीडिया के बड़े धमाके अर्थात् मीडिया के तेज प्रसार से कम्पायमान है, दोलायमान है। परिवर्तन की इन लहरों की तेजी आश्चर्यचकित करती है, क्योंकि इसके कारण समाज, संस्कृति यहाँ तक कि हमारे विचारों तक में बदलाव आया है। वस्तुतः यह ‘सूचना समाज’ के आगमन को संकेतित करता है, जहाँ इससे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा प्रत्येक इंसान ‘सूचना-साइबोर्ग’ के रूप में नजर आता है। सूचना तकनीक की नवीन उपलब्धियाँ संचार माध्यमों को हम तक पहुंचाने के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं को भी नए रूप प्रदान कर रही है। प्रौद्योगिकी के इस दौर में मीडिया एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में उभरा है। इसके प्रति लोगों का आकर्षण प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। परम्परागत प्रिंट माध्यम के मुकाबले ‘न्यू मीडिया’ का तेजी से विस्तार हुआ है। भूमण्डलीकरण, निजीकरण, बाजारवाद और सूचना-विस्फोट के कारण से मीडिया का दायरा काफी विस्तृत हुआ है। एक स्वतंत्र मीडिया, लोकतंत्र का प्राण होता है, अतः सशक्त जनमाध्यम भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों के लिए आवश्यक भी हो जाता है। जनता एवं सरकार को उसकी जिम्मेदारी का अहसास दिलाकर मीडिया ने अपनी भूमिका का सफल निर्वहन किया है।
कागज और कलम रहित माध्यम के रूप में पहचान रखने वाला वेब मीडिया सामाजिक संदर्भों से अछूता नहीं रह पाया है। भाषा भी सामाजिक व्यवहार की वस्तु है,
अतः सामाजिक संदर्भों के साथ उसमें भी परिवर्तन आता है। भाषा मानवता के लिए सबसे बड़ा वरदान है। प्रत्येक भू-भाग की भाषा उस देश की संस्कृति, विचार-प्रणाली और कार्य-पद्धति से संबंधित होती है। भाषा विचारों को दूसरों तक पहुँचाने का साधन भी है। ब्रिटिश राज के दौरान अंग्रेजी समाचार-पत्रों का वर्चस्व कायम था। स्वतंत्रता पश्चात् हिंदी के एवं उसके बाद अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार-पत्रों ने आशातीत प्रगति की। इसे ‘मौन’ या ‘मूक-क्रांति’ का नाम दिया गया। आधुनिक मीडिया में भी भाषिक स्तर पर इसी तरह की एक क्रांति चल रही है। वस्तुतः प्रत्येक शब्द की अपनी सत्ता होती है। विभिन्न सामाजिक संदर्भों में भाषा का स्वरूप एक समान नहीं रहता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि भाषाओं की प्रकृति लचीली होती है, अतः किसी भी भाषा से कोई भी काम लिया जा सकता है। कमोबेश यही स्थिति मीडिया के संदर्भ में ‘हिंदी’ को लेकर नजर आती है। हिंदी के महान प्रचारक मोटूरि सत्यनारायण ने हिंदी के ऐसे रूप को ‘जनसंचारी हिंदी’ कहा है, जिसमें पत्रिका, विज्ञापन और संचार माध्यमों में प्रयुक्त होने वाला भाषा रूप हो। मीडिया में हिंदी का जो रूप हमें दिखाई देता है, उसमें कई शैलियाँ अन्तर्निहित होती है।
भाषा और संस्कृति का घनिष्ठ संबंध होता है। यदि साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है तो भाषा को संस्कृति का दर्पण समझने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। वर्तमान में जब चारों तरफ ‘मीडिया कल्चर’ का शोर हो तो भाषा और मीडिया के संबंधों का अध्ययन आवश्यक हो जाता है। मशहूर विचारक सच्चिदानन्द सिन्हा भाषा और संस्कृति के रिश्तों की पड़ताल करते हुए लिखते हैं- ”भाषा जो प्रतीकों का समुच्चय होती है,
संस्कृतियों के संकलन और संप्रेषण का सबसे सबल माध्यम होती है। चूँकि सम्प्रेषण आम बोलचाल की भाषा के अलावा नृत्य, संगीत, ललित कला और काव्य की भाषाओं के माध्यम से भी होता है - बल्कि अधिक सशक्त रूप से।” यहाँ हम सम्प्रेषण के एक ओर सबल माध्यम ‘वेब मीडिया’ का भी नामोल्लेख कर सकते हैं। वस्तुतः वेब मीडिया अपने आप में स्वतंत्र विश्वविद्यालय है, जहाँ प्रत्येक भाषा का स्वतंत्र विभाग है। भाषा के बंधनों का यहाँ कोई स्थान नहीं है। अपितु ‘फीडबैक’ और ‘सहभागिता’ जैसे तत्त्व इसे सम्पूर्ण ही बनाते हैं। जहाँ शब्द की सत्ता हमें ज्ञान से परिचय कराती है, वहीं संचार माध्यम हमें जानकारी देने का कार्य करते हैं। शब्द की सत्ता का प्रधान केन्द्र साहित्य को माना जाता है। अतः साहित्य शाश्वत रहता है और मीडिया सद्यः प्रभावकारी रूप में दिखता है। आलोचक ब्रह्मस्वरूप शर्मा इसे गंभीरता बनाम सरलता का सवाल मानते हुए प्रत्युत्तर में लिखते हैं - ”गंभीरता के नाम पर क्लिष्टता और सरलता के नाम पर बाजारूपन कभी वांछनीय नहीं रहे। न साहित्य सरलता का विरोधी रहा है और न ही संचार माध्यम गंभीरता के। वस्तुतः संचार माध्यम सहज सरल भाषा में इतनी गंभीर बात कह जाते हैं कि उसकी दार्शनिक विवेचना की आवश्यकता होती है।“ हम कह सकते हैं कि संचार माध्यम इस तरह से अपने को, जनता की भाषा में, जनता के वर्तमान संदर्भों से जोड़कर रख पाता है। आधुनिक ज्ञान प्राप्ति में ‘वेब मीडिया’ की इस भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। अतः वेब मीडिया और भाषा एक दूसरे के सहयोगी माने जा सकते हैं। इस संदर्भ में भारत के प्ररिप्रेक्ष्य में हिंदी और वेब मीडिया के आपसी संबंधों की पड़ताल जरूरी हो जाती है।
वर्तमान समय में हिंदी की स्थिति भारत के वेब मीडिया के संदर्भ में संतोषजनक मानी जा सकती है,
फिर भी हमारा प्रयास होना चाहिए कि भविष्य में इसकी स्थिति और मजबूत बनें। तमाम अवरोधों, कठिनाईयों के बावजूद हिंदी ने वेब मीडिया में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। हिंदी की ग्राह्यता, सामासिक सौन्दर्य, साहित्य तथा व्यवहार का लचीलापन उसकी उदारता के प्रतीक एवं परिचायक है। हिंदी की समन्वित भावना के महत्त्व को बताते हुए जर्मन रेडियो डॉ. एचे वेले के विद्वान डॉ. श्लैंडर लिखते हैं - ”भाषा लोगों के बीच संवाद का माध्यम है, बोलचाल के दौरान विकसित होती है। भारत जैसे विशाल देश में जहाँ हिंदी एक व्यापक क्षेत्र में बोली जाती है, शब्दों का विकास अलग-अलग परिवेश और भावना के समन्वय से हो रहा है। तेजी से करीब आते विश्व में नए शब्दों की जरूरत हो रही है, उनकी रचना की जा रही है।“ डॉ.. श्लैंडर यहाँ हिंदी की उदार, सहज स्वीकार्य शैली की प्रशंसा करते हैं। हिंदी का दायरा विस्तृत है, यही उसकी सबसे बड़ी गुण मानी जा सकती है। वेब मीडिया में हो रहे भाषिक संक्रमण के कारण शुद्धतावादी लोग हिंदी को बचाने की वकालत करने लगते हैं। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि हिंदी इतनी कमजोर भाषा नहीं है कि अन्य भाषा के चंद शब्द उसे भ्रष्ट या खराब कर दें। हिंदी तो बहती हुई नदी के समान है, जिसे किसी भी तरह का बंधन या मानक रोक नहीं सकता है। अगर रोकने की कोशिश भी की जाती है तो वह तमाम बंधनों को तोड़ने का दम भी रखती है। हिंदी की यही विशेषता उसे वेब मीडिया के अनुकूल और उपयोगी बनाती है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में संपादक, समाचार संपादक, उपसंपादक आदि पद होते हैं, जो भाषिक त्रुटियों को दूर करने का कार्य करते हैं। इसलिए इन्हें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का द्वारपाल भी कहा जाता है। मीडिया की व्यापक दुनिया में अब कई ऐसे माध्यम भी हैं, जहाँ तक इन द्वारपालों की पहुँच मुमकीन नहीं है। ब्लॉगएक ऐसा ही माध्यम है, जो तमाम तरह के द्वारपालिक अवरोधों से मुक्त है। ब्लॉग के माध्यम से कोई भी व्यक्ति, किसी भी वक्त अपनी बात को करोड़ों लोगों तक पहुँचा सकता है। उसके इस कार्य में भाषा की अहम भूमिका होती है। अतः वह अपनी समझ, स्तर के आधार पर अपनी भाषा का चयन करता है। ध्यान देने की बात है कि यहाँ वह ब्लॉगर मानकों का पालन करने या न करने में पूरी तरह स्वतंत्र होता है। यही वजह है कि वेब मीडिया में हिंदी की अनेक शैलियाँ मिलती है। कहीं संस्कृतनिष्ठ या साहित्यिक हिंदी, कहीं उर्दू-फारसी मिश्रित हिंदी, कहीं सामान्य हिंदी, कहीं ग्रामीण हिंदी, कहीं लोक-बोली के रंग में रंगी हिंदी, कहीं क्षेत्रीय भाषा युक्त हिंदी और कहीं-कहीं तो ‘हिंग्लिश’ हिंदी का भी प्रयोग मिलता है। हिंदी की उक्त शैलियाँ आजकल पूरे वेब मीडिया के परिदृश्य पर छाई हुई है। इतनी विभिन्न शैलियों के बावजूद हिंदी सुरक्षित है, क्योंकि शब्दों की भावना या उसका अर्थ महत्त्वपूर्ण होता है। प्रयोगकत्र्ता इस तरह की हिंदी का प्रयोग अपने समूह के साथ करता है, क्योंकि यहाँ उसका मकसद केवल अर्थ समझाने से होता है। शब्द मर्मज्ञ महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते भी थे कि यह न देखना कि यह शब्द अरबी का है या फारसी या तुर्की का। देखना सिर्फ यह है कि इस शब्द, वाक्य या लेख का आशय अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नहीं। वेब मीडिया और हिंदी के संबंध में उक्त वाक्य समीचीन प्रतीत होता है।
हिंदी भाषा का संबंध हमारी संस्कृति और संस्कारों से है। हिंदी देश को भी जोड़ने वाली भाषा है। वेब मीडिया का एक उद्देश्य प्रकारांतर से यही नजर आता है। हम सब इसकी सहायता से अपने विचारों का विनिमय करते रहते हैं। यह सहज रूप से गतिशील प्रक्रिया है। भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनता हिंदी भाषा को केवल समझने में ही नहीं, उसमें से अधिकतर लोग इसे पढ़ने-लिखने में भी सक्षम है। हिंदी अखबारों, इंटरनेट साइट्स पुस्तकों, फिल्मों, चैनल्स (न्यूज एवं मनोरंजक दोनों) की बढ़ती संख्या इसका प्रमाण भी है। इसका एक और प्रमाण वेब मीडिया में बढ़ता हिंदी का प्रभाव है। हिंदी के विकास में वेब मडिया के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। अब हिंदी और वेब मीडिया भी एक-दूसरे के प्रति समरस भाव रख रहे हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार अशोक वाजपेयी इसके लिए हिंदी को आधुनिकता की तरफ ले चलने की बात कहते हैं - ”हिंदी को अपनी सारी आधुनिकता के साथ उन सब नई विधियों और यंत्र व्यवस्था से समरस होना चाहिए जो आज की दुनिया में जनसंचार और संप्रेषण के क्षेत्र में सक्रिय है।“ आज हिंदी ने अपने को वेब मीडिया के लिए उपयुक्त बना लिया है। ‘आजतक’ चैनल के पूर्व न्यूज डायरेक्टर कमर वहीद नकवी के अनुसार 1995 के बाद मीडिया की भाषा काफी बदली है और अब भाषा पर एक बार फिर विचार होना चाहिए। हिंदी के कुछ आचार्य भी हिंदी के इस बदलते स्वरूप और बाजारीकरण, मीडियाकरण पर सवाल उठाते हैं। मेरा मानना है कि वेब मीडिया के इस युग में हिंदी भाषिक दीवारों को गिराकर हृदयों को जोड़ने का महती कार्य कर रही है। हिंदी ने जन-जीवन में व्याप्त अपनी ताकत को पहचान कर वेब मीडिया में अपनी जगह बना ली है। हिंदी भाषा के विद्वान भारत यायावर इस संदर्भ में लिखते हैं - ”आप देखें कि आज मीडिया में, सिनमा में, दूरसंचार में हिंदी ने भारत के बाजार में अंग्रेजी को पटखनी दे दी है। भले राजभाषा के रूप में वह दूसरे स्थान पर रहे, पर जन-जीवन में उसी की धुन बजती रहेगी।“ हिंदी की यह ताकत उसकी पहचान भी है और उसके संदर्भों को समझने में सहायक भी।
वेब मीडिया पर हिंदी के बढ़ते प्रसार एवं उसकी रूपगत विविधताओं ने हिंदी भाषा के शुद्धतावादी लोगों को परेशान कर दिया है। यह अंध-भाषावाद और फासीवाद का उदाहरण माना जा सकता है। हिंदी के वेब मीडिया पर मानकीकरण या शुद्धतावादी रूप का विरोध अपने तरीके से करना चाहिए। इसके लिए आक्रामक होने की जरूरत नहीं है। तर्क का उत्तर तर्क से दिया जा सकता है। वैसे भी तकनीकी दुनिया में मानकों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अंग्रेजी को टाइप करने का एक ही ‘की-बोर्ड’ है,
लेकिन हिंदी में ऐसी स्थिति नहीं है। हिंदी में टाइप करने के लिए अनेक ‘की-बोर्ड’ उपलब्ध हैं। अब तो ऐसे सॉफ्टवेयर भी उपलब्ध है जो आपके अंग्रेजी या रोमन में लिखे शब्दों को तुरंत हिंदी में अनुवादित कर देते हैं। ‘विस्टा, इन स्क्रिप्ट, यूनिकोड, गूगल आदि ने अपने संशोधित एवं विकसित ‘की-बोर्ड’ हिंदी के लिए बनाए हैं, ताकि हिंदी वेब मीडिया के दौर में पिछड़ न जाए। अगर हम अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के किंचित शब्दों का प्रयोग वेब मीडिया में हिंदी के साथ करते हैं तो विवाद नहीं होना चाहिए। जब हम ब्रज, अवधी, मैथिली आदि बोलियों के शब्दों को हिंदी में जगह दे सकते हैं तो अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के कुछ शब्दों के प्रयोग में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वैसे भी हिंदी जन्म देती है, शब्दों को पालती-पोषती है, वह शब्दों की हत्या नहीं कर सकती। अतः उसका आधुनिक रूप हमें स्वीकार्य होना चाहिए। भाषाविहीन समाज के इस युग में जहाँ चारों तरफ अजनबीपन, अकेलापन, कुंठा का आक्रमण हो, वहाँ भाषा में आई कुछ त्रुटियों को क्षम्य होना चाहिए। आज की युवाशक्ति, छात्र शक्ति और पढ़ा-लिखा वर्ग अपने सामथ्र्य और शक्ति के अनुसार वेब मीडिया का उपयोग करता है, अतः इस वर्ग को हमें तमाम भ्रांतियों से मुक्त रखना होगा। उत्तर आधुनिकता के अध्येता सुधीश पचौरी हिंदी की नौजवान पीढ़ी का आह्वान करते हुए लिखते हैं - ”हिंदी की नौजवान पीढ़ी उत्तर आधुनिक समाज में रहती है। वह मीडिया, तकनीक, बाजार में रहती है। इसलिए उत्तर आधुनिकता उसके जीवन से काफी नजदीक है।“ हिंदी की नौजवान पीढ़ी ने वेब मीडिया को समृद्ध करने का कार्य किया है। हिंदी एवं उसके उपयोगकर्ताओं की अनेकरूपता के बावजूद हिंदी का मीडिया से सह-संबंध सराहनीय है।
भाषा का एक उद्देश्य एक दूसरे तक अपनी बात पहुँचाना भी होता है। वह दूसरों की बात समझने और अपने मनोभावों को दूसरों तक पहुँचाने का माध्यम होती है। एक भाषा का विकास कभी भी दूसरी भाषा के विकास में बाधक नहीं बनता। कोई भी भाषा प्रसंगानुसार अन्य भाषाओं तथा प्रचलित लोक बोलियों के शब्दों के प्रयोग से और अधिक संपदाशील बनती चली जाती है। आधुनिक परिवारों में तो प्रत्येक सदस्य की भाषा अलग-अलग होती है। मेरे दादाजी ‘हाड़ौती’ बोलते थे,
पिताजी जयपुरी, मैं हिंदी और मेरा बेटा अंग्रेजी बोलता है। बोली-भाषा का यह सहज-सरल रूप हमें आज सर्वत्र दिखाई पड़ता है। शीशा, बटन, क्रिकेट, शर्ट, पिज्जा, सैंडविच, पास्ता, मोमोज, पराठा, बिस्किट आदि कई तरह के हजारों शब्द सहज रूप से हिंदी में खप गए हैं तो हमें भी अपना पांडित्य-प्रदर्शन छोड़ के उनका स्वागत करना चाहिए। किसी भी भाषा में जान-बूझकर इतर भाषाओं के शब्दों को ठूँसना भी अनुचित है। इससे भाषा का विकास अवरुद्ध होता है। सिनेमा एवं मीडिया ने इस तरह के कई शब्दों को हमारी ज़बान का हिस्सा बना दिया है। हिंदी सिनेमा में कई फिल्मों एवं गीतों के शब्दों में हिंदी से इतर भाषाओं के शब्दों की बहुतायत है। वेब मीडिया पर भी इसकी प्रतिच्छाया पड़ी है। वर्तमान मीडिया अनेक नवीन शब्दों का निर्माण कर रहा है, जिनमें से कई गलत भी होते हैं। पौधारोपण, चौड़ीकरण ऐसे ही शब्द हैं। वस्तुतः मीडिया अपने आप में भाषा-निर्माता भी होता है, अतः उसे अपनी भूमिका का सही तरीके से निर्वाह करना चाहिए। मशहूर भाषाविद् ओमप्रकाश केजरीवाल जनसंचार एवं भाषा के रिश्तों पर रोशनी डालते हुए लिखते हैं - ”ऐसी परिस्थिति में हममें से जो जनसंचार माध्यम से जुड़े हुए हैं, उनका क्या यह कर्तव्य नहीं हो जाता कि अपनी भाषा का सही-सही प्रयोग करें ? मैं पहले ही कह चुका हूँ कि आज की परिस्थितियों में मीडिया ही भाषा की जननी है।“ केजरीवाल यहाँ मीडिया से जुड़े लोगों को भाषा के उपयोग के प्रति आगाह करते हैं और उनकी भूमिका को इसके केन्द्र में लाते हैं।
वेब मीडिया से जुड़े लोगों को,
अन्य लोगों से एक रिश्ता बनाना होता है। प्रिंट, रेडियो, टीवी, नेट आदि अपने से जुड़े लोगों से अंतरंग एवं अनूठा रिश्ता बनाए रखते हैं, लेकिन इन सबकी भाषा अलग-अलग होती है। टीवी पर तो शारीरिक भाषा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मानवीय संवेदना के स्तर पर सभी माध्यम एक जैसे दिखाई देते है। टीवी पर हिंदी भाषा में विस्तार की गुंजाइश नजर नहीं आती है किंतु वेब मीडिया में भाषा निरंतर गतिशील, परिवर्तनशील रहती है, जिससे बोधगम्यता बनी रहती है। वेब मीडिया ने शब्दों के साथ-साथ अपनी सोच को भी बदलने की कोशिश की है। हिंदी के कठिन शब्दों की जगह उनके सरल रूप का प्रयोग इसकी एक बानगी मानी जा सकती है। वेब मीडिया ने तकनीक से सम्बद्ध अनेक दिक्कतों को दूर करने की भरसक कोशिश की है। वस्तुतः वेब मीडिया पर भाषा संबंधी चर्चा बहुत कम की जाती है, अतः ज्यादातर मामलों में हिंदी भाषा का मसला गौण ही रह जाता है। वेब मीडिया पर भाषा-विमर्श की शुरूआत होनी चाहिए। कठिन एवं तत्सम शब्दों की जगह सरल रूपों से काम चलाया जा सकता है, किंतु यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कहीं हम शब्द की आत्मा तो नहीं मार रहे। टीवी, सिनेमा एवं वेब मीडिया में हिंदी के साथ रोज कई बार बलात्कार होता है, इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इस प्रसंग में प्रसिद्ध टीवी उद्घोषक एवं संपादक आशुतोष का यह कथन याद आता है कि हिंदी की जितनी सेवा टीवी ने की है, उतनी साहित्य ने नहीं। आशुतोष का यह कथन अतिवादी बयान के अतिरिक्त कुछ नहीं मानना चाहिए और मीडिया को इस तरह के विवादों से दूर ही रहना चाहिए। अगर वे हिंदी की सेवा कर ही रहे हैं तो इसमें गलत क्या है ? अतः मीडिया से जुड़े लोगों को ऐसी बातों से किनारा करके भाषा का समुचित विकास करना चाहिए। उनके ऐसे सार्थक प्रयासों से ही वेब मीडिया एवं हिंदी भाषा दोनों की उन्नति संभव होगी।
वेब मीडिया वर्तमान समय में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वेब मीडिया किसी भी सर्च इंजन पर ‘क्लिक’ करते ही हिंदी का अमूल्य, अनंत संसार हमारे सामने उपस्थित कर देता है। वेब मीडिया ने हिंदी को गौरवपूर्ण स्थान दिलाने में सहयोग किया है। वेब मीडिया के प्रभावस्वरूप ही आज भारत के अलावा और भी कई देशों में हिंदी संबंधित कार्य हो रहे हैं। हिंदी नेक्स्ट, अनुभूति, अभिव्यक्ति, गीत-कविता, कारवां, तस्लीम, मोहल्ला लाइव, कस्बा, छींटे एवं बौछारें, तीसरा खंभा आदि अनेक साईट्स हिंदी को विश्व भर में पहुँचाने का कार्य कर रही है। विदेशों में भी अब हिंदी सभाएँ एवं गोष्ठियाँ, सम्मेलन, पुरस्कार समारोह आदि आयाजित होने लगे हैं। इन सबकी सूचना हमें वेब मीडिया द्वारा पलक झपकते ही मिल जाती है। कई अखबार एवं पत्र-पत्रिकाएँ आॅनलाइन निकलने लगी हैं। नयी-नयी संस्थाएँ दिन-प्रतिदिन वेब मीडिया के माध्यम से हिंदी की सेवा करने में निरंतर संलग्न है। आज शिक्षा से जुड़ा प्रत्येक माध्यम वेब मीडिया पर उपलब्ध है। विज्ञान, स्वास्थ्य, साहित्य, फिल्म, समसामयिक, वित्त, महिला, बाल, पुरुष, सौन्दर्य, शिक्षा, ज्योतिष, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, व्यापार, सरकारी एवं निजी संस्थान, खाना-खजाना, खेल, पर्यटन, ग्रामीण, क्षेत्रीय, निजी पृष्ठ आदि विविध विषयों पर समुचित सामग्री आज वेब माध्यम पर हिंदी में सर्व सुलभ है। विभिन्न प्रकार की पत्र-पत्रिकाएँ, अखबार आदि निरंतर अपने को अपडेट करते रहते हैं, ताकि कोई भी हिंदी जानने वाला वैश्विक परिदृश्य में स्वयं को हिंदी से जुड़ा हुआ महसूस कर सकें। अद्यतन जानकारी उसकी अपनी भाषा में उसे मिलती रहे, यही वेब मीडिया की सफलता का एक प्रमाण भी है।
वेब मीडिया ने विश्व में हिंदी को प्रस्थापित करने का भी कार्य किया है। गूगल ने अहिन्दीभाषियों के लिए 2007 में हिंदी में ट्रांसलेटर प्रोग्राम लांच करके सराहनीय कार्य किया है। इसके बाद से वेब मडिया में हिंदी का दायरा और भी ज्यादा विस्तृत हुआ है। इंडि ब्लॉगर नामक संस्था (यह भारतीय ब्लाॅग पोर्टल को संचालित करती है) के अनुसार सन् 2010 में हिंदी में ब्लॉग की संख्या 350 थी, जो 2013 में बढ़कर 1300 के लगभग हो गई है। इनमें से कई ब्लॉग छोटे शहरों एवं कस्बों से संचालित होते हैं। इनकी भाषा में हिंदी की जीवन्तता एवं माटी की महक मिलती है। हिंदी में कई ब्लॉग तो ऐसे हैं, जो रोजाना 500 से ज्यादा विजीटर्स द्वारा ‘हिट’ किए जाते हैं। एलेक्सा (वेबसाइट्स की रैंक बताने वाली सर्वाधिक प्रमाणिक पद्धति वाली साइट) के अनुसार हिंदी की कई साइट्स ऐसी है जिन्होंने विजिटर्स की संख्या की दृष्टि से नवीन रिकार्ड बनाए हैं। इस साइट ने हिंदी ब्लॉग की एक रैंक बनाई है जो इस प्रकार है-
1. छींटे एवं बौछारें
2. कस्बा
3. तीसरा खंभा
4. मेरा पन्ना
5. उड़नतश्तरी
6. इधर-उधर की
7. हिंदी ब्लॉग
8. सारथी
9. नुक्ता-चीनी
10. मोहल्ला
इनके अलावा की कई ब्लॉग हैं जो हिंदी की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे ब्लॉगों में विज्ञान आधारित (तस्लीम, आधारभूत ब्रह्मांड, विज्ञान) स्त्री विमर्श पर आधारित (नारी, चोखेर बाली, औरत की हकीकत) वाद-विवाद, वार्तालाप, समाज, राजनीति, सिनेमा, साहित्य, मीडिया आधारित (मोहल्ला लाइव, कस्बा, संवाद समूह, हिंद-युग्म समूह, परिकल्पना, महाजाल, जील आदि) बच्चों के लिए (बालमन) आदि प्रमुख है। इनकी निरंतर बढ़ती संख्या हिंदी की ताकत को बढ़ाने का कार्य कर रही है। भारत में हिंदी अनुवाद का बढ़ता क्षेत्र भी वेब मीडिया एवं हिंदी के परस्पर संबंधों की देन माना जा सकता है। यह वेब मीडिया का बढ़ता प्रभाव ही माना जा सकता है कि हिंदी माध्यम अब बाजार के लिए भी जरूरी हो गया है। हिंदी माध्यम से शिक्षित आधुनिक युवा विभिन्न कॉलसेंटर्स, प्रकाशन घरों,
देश-विदेश में शिक्षा प्रदान कर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। हिंदी की बढ़ती माँग और वेब मीडिया की सूचनाप्रदायी शैली ने हिंदी को ‘बाजार’ की मुख्य भाषा बना दिया है। हिंदी भाषी होने का शर्मबोध अब खत्म होने लगा है। आज का युवा हिंदी की ताकत को पहचान चुका है। वह जान गया है कि हिंदी भाषी होना अब शर्म नहीं, गौरव का प्रतीक है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा में अब रोजगार के अवसरों की भरमार है। अच्छे वेतन के साथ तमाम तरह की सुविधाएँ अब इनको मिलने लगी है। अब हिंदी भाषियों में वेब मीडिया की सार्थक भूमिका के कारण आत्मविश्वास दिखने लगा है। वे अब अपने पर एवं अपनी भाषा पर पूर्णतः यकीन करने लगे हैं। अंग्रेजी न जानने की कुंठा वेब मीडिया के हिंदी स्वरूप के समक्ष तिरोहित हो रही है। जबसे हिंदी ‘बाजार’ की भाषा बनी है, मीडिया की भाषा बनी है, तबसे हम अपनी भाषा की इज्जत करने लगे हैं। अब हममें भी भाषा के प्रति गर्व की भावना पैदा होने लगी है। वेब मीडिया की भाषा बनकर हिंदी ने सोने में सुहागा वाली बात को सार्थक सिद्ध कर दिया है। अतः आज नेता, अभिनेता, लेखक आदि सभी वेब मीडिया की इस ताकत का अपने-अपने तरीके से उपयोग करने में लगे हुए है।
वेब मीडिया के आगमन से पूर्व साहित्यकार अपनी कृतियों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए मंच एवं जान-पहचान का सहारा लेते थे। विभिन्न प्रकाशकों एवं विश्वविद्यालयों के चक्कर काटा करते थे, ताकि अपनी कृति को ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुँचा सके। वेब मीडिया के पदार्पण ने लेखकों एवं प्रकाशकों दोनों को सुविधाएँ प्रदान की है। अब कई साधनहीन मगर वैचारिक, रचनात्मक प्रतिभा के धनी लेखक गुमनामी के अंधेरे से निकल कर वेब मीडिया के प्रकाश से चमक रहे हैं। उनकी अद्वितीय प्रतिभा अब प्रकाशकों की मनमर्जी की शिकार नहीं रह गई है। अब वे अपने लेखन को सीधे पाठकों तक पहुँचा रहे हैं। इसके लिए वेब मीडिया ने उन्हें अनेक मार्ग सुझाए हैं। जिनमें ब्लॉग, यू-ट्यूब, फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर आदि प्रमुख हैं। लिखित सामग्री के साथ-साथ अब लेखक ऑनलाइन दृश्य-प्रस्तुति द्वारा भी अपनी बात सीधे पाठकों तक पहुँचाने में भी समर्थ है। उन्हें अब तुरंत ही प्रतिक्रिया भी मिल जाती है। यही ‘न्यू-मीडिया’ वर्तमान साहित्य को नए क्षेत्रों तक ले जा रहा है। अब कोई भी व्यक्ति अपने रचनात्मक अवदान को बिना किसी संघर्ष के वेब मीडिया के माध्यम से लोगों तक कभी भी, कहीं भी सुलभ करा सकता है। साहित्य से जुड़े अनेक लोग निरंतर स्तरीय सामग्री का प्रकाशन वेब मीडिया पर कर रहे हैं। अब तो वेब मीडिया पर इनका अलग पाठक वर्ग भी तैयार हो चुका है, जो साहित्यिक भाषा को वरीयता देता है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि वेब मीडिया के अधिकतर पाठक कठिन हिंदी को समझने में असमर्थ होते हैं, अतः उनके लिए जटिल शब्दों की जगह आम-बोलचाल की सरल हिंदी का प्रयोग करना चाहिए। प्रकाशनार्थ, यथोचित, किंचित, यद्यपि, आरोपण, निरुपण आदि शब्दों के प्रयोग में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो आम पाठक तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता और उकताकर अन्य मनोरंजनात्मक साइट्स पर चला जाता है। हमें भी दलाल, दल्ला, भडु़आ, कमीना, नपुंसक एवं अन्य समानार्थी शब्दों से बचना चाहिए। इस तरह के शब्दों के प्रयोग से हिंदी का स्तर गिरता है। ‘सब्जी अच्छी न बनी हो तो ज्यादा मिर्च डाल दो’ वाले प्रयोगों से हमें दूर रहना होगा। इस तरह के शब्दों के प्रयोग से हम वेब मीडिया पर अपनी उपस्थिति तो दर्ज करा सकते हैं, लेकिन वो स्थायी बनी रहेगी, इसमें संदेह है।
व्यावसायिकता के इस युग में हिंदी भाषा के संदर्भ में वेब मीडिया के महत्त्व को समझा जा सकता है। फिर भी सूचना क्रांति के इस युग में अनेक बिन्दु ऐसे हैं,
जिन्हें अभी तक वेब मीडिया ने स्पर्श भी नहीं किया है। इसलिए आजकल वैकल्पिक मीडिया की भी माँग उठने लगी है। हिंदी के जाने-माने आलोचक नीरज कुमार इसकी जरूरत महसूस करते हुए लिखते हैं- ”सामाजिक निर्मिति के रूप में साहित्य जिस प्रकार पिछले दो-ढ़ाई दशक में उभरने वाली दलित -विमर्श तथा स्त्री-विमर्श की छवियों को प्रस्तुत करने में सफल हुआ है, वहीं मीडिया इन छवियों से लगभग अछूता है। इसीलिए वैकल्पिक मीडिया की जरूरत आज शिद्दत से महसूस की जा रही है।“ उक्त कथन सत्य भी है, क्योंकि वेब मीडिया ने अभी तक इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया है। वहाँ इस संदर्भ में स्थिति नगण्य एवं शून्य नजर आती है। अतः दलित, मजदूर, किसान, स्त्री, अल्पसंख्यक, आदिवासी एवं अन्य हाशिये के लोग जब तक वेब मीडिया के ‘रडार’ में नहीं आ जाते, तब तक भाषिक चेतना की उसकी मुहिम अधूरी ही मानी जाएगी। वेब मीडिया के समक्ष इसे चुनौती भी माना जा सकता है और उसकी कमजोरी भी। वेब मीडिया के माध्यम से इतिहास बनता है और अपनी शक्तियों के साथ उजागर भी होता है। हिंदी भाषा के संदर्भ में उसका योगदान अतुलनीय होने के साथ-साथ प्रशंसनीय भी रहा है। इन चुनौतियों का भी वह मुकाबला कर सकता है, जरूरत है तो बस थोड़े धैर्य और समय की। अंत में मैं अपनी बात प्रख्यात लेखिका हेमलता महिश्वर के इस कथन से समाप्त करना चाहूँगा - ”जब तक मनुष्य है तो संवेदना है। जब तक संवेदना है तो संवाद है। जब तक संवाद है तो जिज्ञासा है। जिज्ञासा है तो ज्ञान है। ज्ञान है तो भाषा का अस्तित्व बना ही रहेगा।“ वस्तुतः वेब मीडिया ने हिंदी भाषा का जो पंख प्रदान किए हैं, वो उसे विश्व-गगन में उड़ान भरने में सहायक है। वेब मीडिया और हिंदी के संबंधों की यह नई उड़ान है जिसे अब कोई भी अवरुद्ध नहीं कर सकता है।
संदर्भ :
1. भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ, सच्चिदानन्द सिन्हा, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृ. 29
2. समकालीन भारतीय साहित्य (पत्रिका) (सं. अरुण प्रकाश) आलेख-ब्रह्मस्वरूप शर्मा, साहित्य अकादमी, दिल्ली, मई-जून 2007, पृ. 144
3. हिन्दुस्तान (दैनिक समाचार-पत्र), डॉ. श्लैण्डर, नई दिल्ली, 08-02-99
4. सूचना प्रौद्योगिकी और समाचार-पत्र, रविन्द्र शुक्ला, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृ. 53
5. बहुवचन (सं. अशोक मिश्र), आलेख-भारत यायावर, महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, (महाराष्ट्र), जुलाई-सितम्बर 2013, पृ. 26
6. हिन्दुस्तान (दैनिक समाचार-पत्र), सुधीश पचैरी, नई दिल्ली, 13-04-2003
7. राजभाषा हिंदी, ओमप्रकाश केजरीवाल, प्रकाशन विभाग, दिल्ली, 1998, पृ. 321
8. अनभै सांचा (सं. द्वारिका प्रसाद चारूमित्र), आलेख-नीरज कुमार, दिल्ली, जुलाई-सितम्बर 2008, पृ. 95
9. संधान, (सं. सुभाष गाताडे) आलेख-हेमलता महिश्वर, रोहिणी, दिल्ली, जनवरी 2004-मार्च 2005 (संयुक्तांक) पृ. 146
डॉ. मुकेश कुमार मिरोठा
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली-110025
mmirotha@jmi.ac.in, 09312809766
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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