शोध आलेख : बुलाकी शर्मा की व्यंग्य-सृष्टि में आलोचना-दृष्टि / निर्मल कुमार रांकावत

शोध आलेख :  बुलाकी शर्मा की व्यंग्य- सृष्टि में आलोचना-दृष्टि

निर्मल कुमार रांकावत

 

शोध सार : हिंदी साहित्य के इतिहासक्रम में आलोचना का अपना ही विशिष्ट स्थान रहा है। हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ व्यंग्यकारों ने अपने व्यंग्य लेखों में यथाप्रसंग आलोचना-कर्म से संबंधित प्रकीर्ण संदर्भ भी दिए हैं। बीकानेर के नामचीन व्यंग्यकार श्री बुलाकी शर्मा ने विभिन्न समाचार पत्रों में स्थाई स्तंभों एवं अन्य व्यंग्य लेखों में समकालीन साहित्य-संसार की विविध गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों पर समालोचनात्मक टिप्पणियां की है। इनमें समकालीन आलोचना के संदर्भ में अत्यंत ही मर्मस्पर्शी, तथ्यपरक, प्रामाणिक विमर्श की झलक मिलती है। उन्होंने यशलिप्साग्रस्त साहित्यकारों की चाटुकारिता करने वाले सतही समीक्षकों के लिए साहित्य बाजार के मूल्यांकनकर्ता शहजादे समालोचक की संज्ञा प्रदान की है।समीक्षा की रजाईशीर्षक व्यंग्य में उन्होंने प्रायोजित लोकार्पण समारोह में महंगी भेंट दिए जाने के स्वार्थपूर्ण उद्देश्य को बेनकाब किया है। उन्होंने स्वाध्याय से कोसों दूर रहने वाले कट-पेस्ट करने वाले तथाकथित लेखकों और उनके समीक्षकों की ही जमकर आलोचना की है। बुलाकी शर्मा को खेद है कि रचना के प्रकाशन से पहले ही वरिष्ठ साहित्यकारों से परामर्श लेकर संशोधन करने की व्यावहारिक प्रकाशनपूर्व आलोचना प्रक्रिया तो अब लगभग विलुप्त ही होती जा रही है। आलोचना के क्षेत्र में निरंतर आ रही गिरावट को देखकर व्यंग्यकार अत्यंत ही क्षुब्ध है। सरकारी तंत्र के पिछलग्गू तथाकथित समीक्षक पक्षपातपूर्ण आलोचना लिखे जा रहे हैं। बुलाकी शर्मा ने सिद्ध समालोचक का स्वाद शीर्षक लेख में भी अंतरानुशासनिक आलोचना दृष्टि का परिचय दिया है। आजकल अनेक समीक्षक स्वयं अपना ही सटीक मूल्यांकन नहीं हो पाने की पीड़ा से व्याकुल है। इसी प्रकार बुलाकी शर्मा ने समकालीन आलोचना-कर्म की समालोचना भी की है।

 


बीज शब्द : स्वयंभू, उस्ताद, परंपरा, प्रशस्ति-गान,लोकार्पित, गर्माहटपूर्ण,पेड क्रिटिसिज्म, स्वेटर, रजाई, डिपार्टमेंटल स्टोर, शहजादे, मुखारविंद,मशविरे, प्रभाववादी आलोचना,श्लाघनीय, मुख्यधारा।

 

मूल आलेख : हिंदी में आलोचना की विकास यात्रा अपने आप में ऐतिहासिक महत्व रखती है। साहित्येतिहासलेखकों ने आलोचना के महत्व पर अनेक टिप्पणियां प्रस्तुत की है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का तो स्पष्ट कहना है-“लोग कहते हैं कि समालोचक गण अपनी बातें कहते ही रहते हैं पर कवि लोग जैसी मौज होती है वैसी रचना करते ही हैं। पर ऐसा नहीं है,कवियों पर साहित्य के मीमांसकों का बहुत प्रभाव पड़ता है। बहुतेरे कवि- विशेषत:नए कवि उनके आदर्शों के अनुकूल चलने का प्रयत्न करने लगते हैं।[1]

 

            वर्तमान में हिंदी की विभिन्न गद्य-विधाओं पर भी यह बात लागू होती है। आज शताधिक विद्वान आलोचक बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं तथापि समसामयिक परिवेश ने भी आलोचना प्रक्रिया पर प्रभाव डाला है। डॉ. शिव कुमार शर्मा ने समकालीन आलोचना की वर्तमान दशा पर प्रकाश डालते हुए सुझाव दिया है-“आलोचना के स्वस्थ विकास के लिए यह आवश्यक होगा कि आजकल इस क्षेत्र में जो लक्ष्य हीनता और दुरूहता की प्रवृतियां आने लगी हैं उन्हें दूर किया जाए और मानव मूल्यों पर आधृत आलोचना के उन प्रतिमानों की प्रतिष्ठा की जाए जो मानव- व्यक्तित्व और कृतित्व के उन्नायक हैं।[2] हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ व्यंग्यकारों ने भी अपने लेखों में प्रसंगवश आलोचना-कर्म की दशा और दिशा पर प्रच्छनरूपेण प्रकाश डाला है।[3]


            मरुधरा के बीकाणा नगर में पले-बढ़े हिंदी एवं राजस्थानी के समर्थ व्यंग्यकार (एवं व्यंग्य कथाकार भी) श्री बुलाकी शर्मा द्वारा रचित व्यंग्य लेखों में भी यथा प्रसंग समकालीन आलोचना के संदर्भ में अत्यंत ही तथ्यपरक, मर्मस्पर्शी, निष्कर्षपरक विमर्श का चित्रण देखा जा सकता है।


            आजकल साहित्य के क्षेत्र में यशलिप्सा इतनी प्रगाढ़तर होती जा रही है कि अनेक साहित्यकार बंधु आपाधापी में लिखते चले जाते हैं। वे अपने ही अनुकूल समीक्षा- परिचयादि लिखवाने के लिए तत्पर रहते हैं। बुलाकी शर्मा ने ऐसे लेखन और समीक्षण-कार्य पर कटाक्ष करते हुए लिखा है- “साहित्य के बाजार में वर्षों से दुकान लगाए बैठा हूं। इस बाजार के मूल्यांकनकर्ता शहजादे समालोचक कहलाते हैं। उनकी नजर में चढ़ने की कोशिश में मैंने भांति-भांति की विधाएं दुकान में सजाई हैं। सभी विधाओं को सजाते हुए मैंने डिपार्टमेंटल स्टोर बना लिया। एक छत के नीचे हर भांति के आइटम। अपने प्रयासों से मैं संतुष्ट था कि किसी न किसी विधा को तो समालोचक महोदय मूल्यांकन के योग्य पाएंगे ही।”[4]


            समकालीन आलोचना के क्षेत्र में विभिन्न विसंगतियों पर करारा प्रहार करने में बुलाकी शर्मा कहीं पर भी पीछे नहीं रहे हैं। समीक्षक की रजाई शीर्षक व्यंगलेख में उन्होंने चुटकी लेते हुए बताया है कि विभिन्न लोकार्पण समारोहों में आमंत्रित साहित्यकारों को सविनय लोकार्पित कृति के साथ अन्य घरेलू प्रयोजनार्थ कीमती वस्तुएं भी भेंट दिए जाने की परंपरा-सी बन गई है। कवि द्वारा भेंट दी गई स्वेटर का उल्लेख करते हुए व्यंग्यकार ने लिखा है- “कृति और भेंट के अंतरसंबंधों को मैंने गहराई से अनुभव भी किया है। स्वेटर जब नयी थी तब उसमें शीत-अवरोधक क्षमता विलक्षण थी। इस विलक्षणता का मेरी सोच पर असर पड़ना स्वाभाविक था। सर्दी में स्वेटर की गर्माहट मुझे ऐसा प्रसन्नमना रखती कि कवि महाशय की कृतियों में मुझे कहीं कमी दिखाई नहीं देती। श्रेष्ठ काव्यकृतियों की सभी विशेषताएं उसमें दृष्टिगोचर होने लगती। स्वेटर का ऐसा असर रहता कि मैं उन कृतियों के बहाने स्वेटर की समीक्षा करने लगता। मेरी सिद्धहस्त अंगुलियाँ कलम की जगह सलाइयां पकड़कर स्वेटर समीक्षा करने लगती।”[5]


            इस उद्धृतांश से संकेतित है कि आजकल समीक्षा के क्षेत्र में भी प्रलोभनों का गहरा प्रभाव झलकता है। बुलाकी शर्मा ने ऐसे तथाकथित समीक्षकों की सुरसा-मुख तुल्य लिप्सा की ओर संकेत करते हुए आगे लिखा है- “इस बार सर्दी ज्यादा है और मैं सर्दी के बचाव में कंबल या रजाई समीक्षा करना चाहता हूं। स्वेटर की समीक्षा से ज्यादा सुख कंबल या रज़ाई की समीक्षा में है। इस समीक्षा की कालावधी भी स्वेटर समीक्षा से अधिक रहेगी। रजाई में दुबक कर मैं सर्दी से बचाव करूंगा, गर्माहट पाऊंगा और लोकार्पित कृति की गर्माहटपूर्ण समीक्षा करूंगा।”[6]


            इस प्रकार स्पष्ट है कि बुलाकी शर्मा ने बड़ी बेबाकी के साथ स्तरहीन एवं एक प्रकार से “पेड़ क्रिटिसिज्म” (पेड न्यूज की भांति) अर्थात् प्रायोजित समीक्षा लेखन की खुलकर भर्त्सना की है।


            आलोचना-कर्म अत्यंत ही जिम्मेदारी का काम है। सतही तौर पर किसी रचनाकार के बारे में नाम मात्र की समीक्षा करना सच्ची आलोचना नहीं हो सकती है। स्वाध्याय से कोसों दूर रहने वाले और कट-पेस्ट पद्धति से लेख लिखने वाले तथाकथित स्वनामधन्य लेखकों की तो बुलाकी शर्मा ने जमकर खबर ली है और साथ ही समीक्षा के नाम पर केवल प्रशस्तिगान मात्र करने वालों पर भी उन्होंने कटाक्ष किया है- “इतने वर्षों से हम अपने बाद की पीढ़ी को सदुपदेश देते रहे हैं- भाई पढ़ा करो... लिखो कम, पढ़ो ज्यादा, किंतु हमने तो देशी-विदेशी लेखकों को नहीं पढ़ा। और तो और जिनके साथ उठते-बैठते हैं, जिनकी प्रशंसा या आलोचना करते हैं शहर के उन्हीं लेखकों को नहीं पढ़ पाए हैं। साथी लेखकों की किताबों के नाम पूछ ले तो हमें बुखार आ जाए... मालूम हो तो बताएं।”[7]


            बुलाकी शर्मा ने आलोचना के एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण पक्ष की ओर हमारा ध्यान ध्यानाकर्षण कराया है। रचना के प्रकाशन से पहले ही साथियों अथवा वरिष्ठ साहित्यकारों से व्यावहारिक तौर पर संशोधनार्थ सुझाव मांगने की परंपरा अब क्षीणप्राय हो चली है। बुलाकी शर्मा ने अपने एक व्यंग्य लेख स्वयंभू उस्ताद परंपरा में इस बात पर व्यथा जताई है कि नए लेखकों में प्रकाशित होने की अत्यंत अधीरता रहती है और प्रकाशन-पूर्व आत्मीयता पूर्ण समालोचना में उनकी श्रद्धा नहीं है- “क्यों हम अपने अग्रजों के सामने पढ़ते आज भी सकुचाते हैं? पहले रचनाएं सुनकर या पढ़कर अग्रज अपनी राय भी दिया करते थे और हम थे कि अपनी रचनाओं की खामियां जानकर खुश होते थे, उसमें सुधार करते रहते थे। आज की स्थिति जुदा लगती है हमें। ऐसे उत्साही लेखकों के हम अग्रज जरूर हैं किंतु उन्हें हमारे मशविरे की कतई जरूरत नहीं है।”[8]


            बुलाकी शर्मा के विभिन्न व्यंग्य लेखों के अनुशीलन से ज्ञात हो जाता है कि विगत कुछ दशकों में निष्पक्ष आलोचना के क्षेत्र में निरंतर आने वाली गिरावट सचमुच चिंता का विषय है। उन्होंने अपने लेख आंख का काजल में चाटुकारिता पूर्ण आलोचना लिखने वालों पर कटाक्ष किए हैं। एक प्रबुद्ध पात्र अचूकानंद ज्वलंत मुद्दों पर भी चुप रहने के पीछे अपने उद्देश्य पर प्रकाश डालता है- “जब हम किसी ज्वलंत मुद्दे को लेंगे तो सरकार, शासन-प्रशासन की खामियों को सामने रखना ही पड़ेगा। ऐसा करके हम सरकार की आंख की किरकिरी नहीं बनना चाहते। हम तो उसकी आंख का काजल बनने की कोशिश में है। उसी की आंख से देखेंगे, उसी के कान से सुनेंगे, उसी के अनुसार दूसरों की आलोचना करेंगे। ऐसे मुद्दे आते रहेंगे, जाते रहेंगे। किंतु हमारे सामने हमारा वर्तमान और भविष्य निखारने का मुद्दा प्रमुख है।”[9] इसी प्रकार अन्यत्र भी बुलाकी शर्मा ने पक्षपातभरी आलोचना वृत्ति के प्रति व्यंग प्रहार किए हैं।

 

उल्लेखनीय है कि आलोचना की विभिन्न प्रवृत्तियों के आधार पर विद्वानों ने आलोचना को विभिन्न वर्गों को वर्गों-उपवर्गों में बांटा है। व्यावहारिक आलोचना के अंतर्गत प्रभावात्मक आलोचना का भी अपना ही स्थान है। प्रभाववादी आलोचना समीक्षक के मन पर पड़ी किसी रचना की अनुकूल-प्रतिकूल प्रतिक्रिया या प्रभाव का परिणाम होती है। इसे आत्मप्रधान, प्रभावाभिव्यंजक या प्रभावात्मक आलोचना भी कहते हैं।”[10]


            यदि हम बुलाकी शर्मा की दृष्टि से देखें तो पक्षपातपूर्ण आलोचना अर्थात प्रभावित आलोचना अथवा प्रायोजित आलोचना जैसी समसामयिक प्रवृतियां किसी भी स्तर पर श्लाघनीय नहीं कही जा सकती है। जहां प्रभावात्मक आलोचना साहित्य की श्रीवृद्धि करती है, वही तथाकथित प्रभावित आलोचना या प्रायोजित आलोचना संपूर्ण समाज की मुख्यधारा को बाधित करने वाले साबित होंगी।


            समकालीन साहित्य में अंतरानुशासनिक शोध उपागम (इंट्रडिसीप्लिनरी रिसर्च एप्रोच) की चर्चा जोरों पर है। बुलाकी शर्मा के व्यंगलेखों में भी ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के प्रकीर्ण सूत्र अंतरग्रंथित मिल जाएंगे। यहां तक कि उन्होंने पाकशास्त्र (रसोई) और आलोचना-कर्म को भी एक साथ अपने एक व्यंग्य लेख सिद्ध समालोचक का स्वाद में बड़ी संजीदगी से परोस दिया है। समीक्षा-सिद्धांतों की किंचित मात्र भी जानकारी नहीं रखने वाले तथाकथित स्वयंभू समीक्षकों को की ओर व्यंग्य करते हुए उन्होंने लिखा है- “मेरे एक मित्र पाककला के सिद्धहस्त समालोचक हैं। स्वयं के कर कमलों से उन्होंने आज तक एक कप चाय नहीं बनाई किंतु अन्य जनों द्वारा निर्मित भांति-भांति के पकवानों पर अपने मुखारविंद से प्रभावी एवं सटीक समालोचनात्मक टिप्पणी करने में उन्हें महारत है। पाक कला के ऐसे सुयोग्य समालोचक का टेस्ट चेंज करवाने  की भावना से मैं उन्हें एक साहित्यिक कार्यक्रम में ले गया और वे वहां भी समालोचक की भूमिका निभाने लगे।”[11]


            हिंदी समालोचना के व्यापक फलक पर आज भी शताधिक प्रबुद्ध समालोचकों के कठिन परिश्रम की ओर अनुसंधानकर्ताओं ने समुचित ध्यान नहीं दिया है। व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा ने आलोचना के क्षेत्र में व्याप्त इस अंतराल को अन्वेषणपरक दृष्टि रखते हुए अपने व्यंगलेख मूल्यांकन ना हो पाने की पीड़ा में इसी बात को रेखांकित करते हुए लिखा है-


            “समालोचक महोदय की भृकुटी तन गई। बोले- तुम सबको अपने मूल्यांकन की लगी है किंतु हमारे दर्द को तुम में से किसी ने महसूस नहीं किया। लेखक कवियों ने सृजन का मूल्यांकन करते-करते हम स्वयं मूल्यांकन से अब तक वंचित हैं। वर्षों से हम समालोचना के क्षेत्र में डटे हैं फिर भी मूल्यांकन के लिए तरस रहे हैं। हम अपना मूल्यांकन ना हो पाने के दुख से दुबलाए जा रहे हैं। पहले हम अपना मूल्यांकन कराएंगे फिर सोचेंगे तुम पर। इतना कहकर वह मेरे डिपार्टमेंट स्टोर से आगे निकल गए।”[12]

इसी प्रकार बुलाकी शर्मा के व्यंग्य लेखों में अनेक स्थानों पर प्रसंगवश दो-तीनेक वाक्यों में समकालीन आलोचना की यथार्थपरक  समालोचना की झलकियां मिल जाती हैं।


            सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार पद्मश्री डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी ने तो यहां तक लिखा है- “बुलाकी शर्मा के व्यंग्य न केवल सामान्य पाठकों की व्यंग्य रचना के सौंदर्य का साक्षात्कार का मौका देते हैं, वे युवा व्यंग्य रचनाकारों को व्यंग के सौंदर्यशास्त्र को समझने का दुर्लभ अवसर भी देते हैं। बुलाकी शर्मा का व्यंग्य वह व्यंग्य है जिसने बिना कोई हो-हल्ला किए, बिना किसी इस या उस मठ के जी हुजूरिये बने, मात्र अपनी पठनीयता की ताकत से ही अपना एक वृहद् पाठक वर्ग तैयार किया है। वे नैसर्गिक व्यंग्यकार हैं।”[13]

 

बुलाकी शर्मा व्यंग्य लेखन को भी समालोचना-कर्म की ही भांति अत्यंत ही उत्तरदायित्व का क्षेत्र मानते हैं। उनका मानना है कि कोरे उपदेशक या समाज सुधारक की भूमिका में अर्थात्  समालोचक की छवि ओढ़े हुए दूसरों को सीख देने या दूसरों की कमियां गिनाने का काम व्यंग्यकार को शोभा नहीं देता है बल्कि व्यंग्यकार को स्वयं अपने-अपने कार्य क्षेत्र की कमियों को बराबर जाँचते रहना चाहिए। उनके विभिन्न व्यंग्यलेखों में पात्र मैं (अर्थात अहम्) के रूप में हमेशा ही स्वयं को कटघरे में रखा गया है। उन्होंने तो आत्म-स्वीकृति के रूप में लिखा भी है-“और देखा जाए तो लेखक भी खास नहीं, आम आदमी ही तो है। वह स्वयं चाहे कैसा भी मुगालता पाले, सच्चाई यही है। और जो लेखक खास मानने के मुगालते में रहता-जीता है, वह खास लोगों का ही होकर रह जाता है। आम आदमी से फिर उसका कैसा सरोकार, कैसा रिश्ता-नाता। बातें चाहे वह आम आदमी की करें लेकिन उसके सरोकार-उसकी प्रतिबद्धता आम आदमी से हो ही नहीं सकती। मैं आम आदमी हूं। आम आदमी की तरह ही मैं सहज जीवन जीता हूं, सहजता से लिखता हूं, किसी मुगालते को नहीं पालता। एक लेखक के रूप में यही मेरा दायित्व मानता हूं। उसे निभाने की कोशिश करता हूं। विसंगतियां-विरोधाभास मुझ में भी है। मैं भी हाड़-मांस का इंसान ही तो हूं। मैंने उन विसंगतियों को उजागर भी किया है, अपनी रचनाओं में। स्वयं को कटघरे में खड़ा करके। जैसे पुरस्कारों-सम्मानों की खिंचाई मैंने खूब की है अपनी रचनाओं में। प्रख्यात व्यंग्यकार-समालोचक डॉ. सुरेश कांत ने यहां तक लिखा है कि-‘साहित्यिक गतिविधियों का शायद ही कोई ऐसा कोना बचा होगा जहां बुलाकी जी की नजर न गई हो।[14]


            बुलाकी शर्मा के इस आत्मकथ्यांश में सम्यक आलोचना दृष्टि सुस्पष्ट झलकती है।वे रचनाकारों सहित सामयिक परिवेश का सूक्ष्म अवलोकन तो करते ही हैं, साथ ही साथ आत्मावलोकन बल्कि आत्मालोचन अर्थात आत्मसमीक्षण भी करते हुए चलते हैं। कदाचित्यही कारण है कि उन्होंने उनके लघुकाय व्यंग में भी कवि बिहारी वाले दोहे की भांति नावक के तीर’- से मर्मभेदी बन पड़े हैं।


            बुलाकी शर्मा ने स्वाध्याय के बल पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय रचनाओं की मौलिक अथवा अनूदित रचनाओं को आत्मसात किया है। उनके विभिन्न व्यंग्य-लेखों में लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों के मंतव्य नक्षत्रों की भांति देदीप्यमान हैं। इसमें भी उनकी समालोचनात्मक क्षमता देखी जा सकती है। चेखव की बंदूक शीर्षक व्यंग्य में उन्होंने स्थानीय तथाकथित स्वयंभू समीक्षकों की आलोचना-वृत्ति की जमकर खबर ली है।मैं कथा उस्ताद चेखव से नहीं वरन् उन्हें तब तक कोट (उद्धृत) करते रहने वाले अपने साहित्यिक उस्ताद से आतंकित रहता हूं। चेखव ने जो लिखा है उस पर चलूं अथवा नहीं चलूं, इसका निर्णय करने के लिए मैं स्वतंत्र हूं, क्योंकि चेखव बाध्य करने को उपस्थित नहीं हैं। किंतु स्थानीय उस्ताद की उपस्थिति हर जगह- हर समय रहती है और उनकी यही उपस्थिति मुझे आतंकित बनाए रखती है। उनका आतंक मुझ पर इस कदर हावी है कि नई रचना लिखते समय भी मुझे और उनकी उपस्थिति का अहसास बना रहता है।”[15]


वस्तुत यहां बुलाकी शर्मा ने बड़ी सहजभाषा में उस्ताद की स्थानीयता (साथ ही साथ प्रकारांतर में कूपमंडूकता)की ओर संकेत कर दिया है। चेखव ने जो सूक्तवाक्य कहानी के लिए दिया तो उस सिद्धांत को सभी विधाओं पर लागू करें अथवा ना करें, यही द्वंद्व यहां प्रस्तुत किया गया है। उल्लेखनीय है कि नामचीन मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्री समीक्षक-शिरोमणि नामवर सिंह ने भी अपनी कृति कहानी: नई कहानी में इसी प्रकार कथा-समीक्षा क्षेत्र में पाश्चात्य समीक्षकों द्वारा प्रचलित उपन्यास-समीक्षा सरणि के उपयोग करने अथवा नहीं करने के संबंध में विस्तारपूर्वक समालोचना की है। आचार्य नामवर की भांति बुलाकी शर्मा भी गहनतापूर्वक समालोचना में गहरी आस्था रखते हैं।


दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि स्वयं बुलाकी शर्मा किसी भी प्रकार की साहित्यिक खेमेबंदी से दूर रहकर प्रायोजित आलोचना से परे रहते हुए सौंदर्यशास्त्र (आलोचना-कर्म) के क्षेत्र में यथेष्ट सहायक भूमिका निभा रहे हैं।


वस्तुत: कहना ही होगा कि बुलाकी शर्मा ने समकालीन साहित्यिक रचनाओं के प्रति समालोचकों के दृष्टिकोण का बड़ी सूक्ष्मता से परीक्षण किया है। समकालीन आलोचना के क्षेत्र में विद्यमान विभिन्न छोटी-बड़ी विसंगतियों का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया है। उनका मानना है कि स्वस्थ आलोचना ही समाजहितैषी साहित्य के संवर्धन में सहायक हो सकती है। उनके व्यंग्यलेखों में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं के रचना-कर्म और उन पर आधारित आलोचना-कर्म दोनों ही क्षेत्रों में व्याप्त विडंबना पर करारे व्यंग्य-प्रहार किए गए हैं।

 

सन्दर्भ :



[1]रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास, यूनिक ट्रेडर्स, जयपुर, संस्करण वर्ष 2013,पृ. सं. 4

[2]शिवकुमार शर्मा: हिंदी साहित्य: युग और प्रवृतियां, अशोक प्रकाशन, नई दिल्ली,20वां संस्करण,2011, पृ. सं. 677

[3]राहुल देव(संपादक): समकालीन व्यंगकार आलोचना का आईना, यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2018,संपादकीय पृष्ठ- 3 से 11 तक

[4]बुलाकी शर्मा: रफूगीरी का मौसम, कलासन प्रकाशन, बीकानेर, प्रथम संस्करण,2009, पृ. सं. 92

[5]बुलाकी शर्मा: रफूगीरी का मौसम,, कलासन प्रकाशन, बीकानेर, प्रथम संस्करण,2009, पृ. सं. 21

[6]बुलाकी शर्मा: रफूगीरी का मौसम,, कलासन प्रकाशन, बीकानेर, प्रथम संस्करण,2009, पृ. सं. 22

[7]बुलाकी शर्मा: चेखव की बंदूक, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, संस्करण 2015,पृ. सं. 35

वही, पृ. सं. 103

[8]शर्मा, बुलाकी- चेखव की बंदूक (व्यंग्य संग्रह), सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, संस्करण 2015,पृ. सं. 103

[9]शर्मा, बुलाकी- पांचवा कबीर (व्यंग्य संग्रह) इंडिया नेट बुक्स, गौतम बुध नगर नोएडा, प्रकाशन वर्ष 2020, पृ. सं. 5

[10]डॉ. विवेक शंकर- हिंदी साहित्य, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, द्वितीय संस्करण, 2016, पृ. सं. 345

[11]बुलाकी शर्मा: रफूगीरी का मौसम, कलासन प्रकाशन, बीकानेर, प्रथम संस्करण,2009, पृ. सं. 96

[12]बुलाकी शर्मा: रफूगीरी का मौसम, कलासन प्रकाशन, बीकानेर, प्रथम संस्करण,2009, पृ. सं. 93

[13]बुलाकी शर्मा: बेहतरीन व्यंग्य, किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी, राजस्थान, प्रकाशन संस्करण 2019, पृ. सं. 9

[14]राहुल देव(संपादक) : समकालीन व्यंगकार आलोचना का आईना, यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2018, पृ. सं.110

[15]बुलाकी शर्मा: चेखव की बंदूक, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, संस्करण 2015,पृ. सं. 17 


निर्मल कुमार रांकावत

शोधार्थी, हिंदी विभागश्री खुशाल दास विश्वविद्यालय

nrankawat80@gmail.com, 70142-49070, 94140-73811


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )


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