शोध आलेख : मॉरीशस के भोजपुरी लोकगीतों में प्रवासन का संदर्भ
- डॉ. प्रियंका कुमारी
शोध सार : औपनिवेशिक युग में भारत से मजदूरों का प्रवासन मॉरीशस आदि
कैरेबियाई देशों में हुआ। भारत के प्रायः सभी क्षेत्रों से मजदूरों का पलायन हुआ।
परंतु प्रमुख रूप से भोजपुरी प्रदेश के लोग गए। इसीलिए अपने पर हो रहे शोषण और
अत्याचार के समय उन्होंने अपनी मातृभाषा भोजपुरी को ही अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
चूंकि गीतों की अभिव्यक्ति सहज और संप्रेषणीय होती है। इसीलिए भोजपुरी लोकसाहित्य
के अन्य विधाओं के बनिस्बत भोजपुरी लोकगीतों की प्रमुखता है। मॉरीशस के भोजपुरी
लोकगीतों में जो सपना भारतीय लेकर गए, उस सपने का टूटना और उसका दर्द समाया हुआ है। इस दर्द से उभरने और अपनी
स्वतंत्रपहचान बनाने की पूरी प्रक्रिया को इन लोकगीतों में देखा जा सकता है। एक
तरह से कहा जा सकता है कि मॉरीशसीय भोजपुरी लोकगीतों में गिरमिटिया मजदूरों का
इतिहास समाहित है।
बीज शब्द : लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य, लोकगीत, भोजपुरी, फ्रेंच, क्रियोली, दास प्रथा, शर्तबंदी प्रथा,
प्रवासन, कैरेबियाई देश, गिरमिटिया
मजदूर, पूर्वञ्चल, द्वीप, बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक,
इतिहास, उपनिवेश।
मूल आलेख : दुनिया
भर में दास प्रथा की समाप्ति के बाद शर्तबंदी प्रथा के तहत भारत से मजदूर मॉरीशस,गयाना, फीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद आदि कैरेबियाई
देशों में भेजे गए। मद्रास, गोवा, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु आदि जगहों से छिटपुट
मजदूर गए। परन्तु ज्यादातर संख्या में पूर्वांचल क्षेत्र से मजदूर भेजे गए। अतः
भोजपुरीही इनकी अभिव्यक्ति का मुख्य माध्यम बना।बाकीअधिकतर भारतीय भाषाएँ इसी में
समा गईं। इस सम्बन्ध में मॉरीशस के राष्ट्रीय कवि ब्रजेन्द्र भगत ‘मधुकर’
ने‘मधुबहार’ की भूमिका में लिखा है – “भारतीय मूल के लोग के लेके पहिलका जहाज 1834
ई. में मॉरीशस(पोर्टलुई) पहुँचल। भारत से जाएवाला लोगन में सबसे बड़ संख्या भोजपुरी
बोल निहार लोगन के रहे। ओकरे फल बा कि आज मॉरीशस में भोजपुरी बोलनिहार लोगन के
संख्या मॉरीशस के आबादी के आधा से बेसी बा। इहे हाल फीजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम,
गयाना आदि देशन में भी बा। मतलब कि भोजपुरी सचहूँ के अंतर्राष्ट्रीय भाषा बा।”1 दिनभर के कमरतोड़ मेहनत करते समय मनोरंजन के लिए या श्रम की शक्ति को कम
करने के लिए ये लोग रामचरितमानस की चौपाई, आल्हा-उदल, बिरहा आदि गाया करते थे।
इसमें अपनापन का भाव उन्हें महसूस होता था। इसीलिए देश से बाहर परदेश में अपनी
संस्कृति एवं अस्मिता को बनाए रखने के लिए इनलोगों ने अपनी मातृभाषा भोजपुरी को
अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
जब अपने देश की धरती छोड़ परदेश (मॉरीशस ) गिरमिटिया मजदूर भारत से गए तब वे
इसे ‘मारीच का देश’ अर्थात् ‘सोने का देश’ समझ कर गए थे। उन्होंने यह सोचा कि यहाँ
से पर्याप्त सोना पाकर अपने देश ख़ुशी-ख़ुशी लौट जाएंगे। अनुबंध के समय यह बात उनसे
कही भी गई थी। साथ ही मुफ्त में खाना-पीना, कपड़ा, रहना और आने-जाने का खर्च भी।
इसके बाद तनख्वाह अलग से। लेकिन ‘एग्रीमेंट’ पर अंगूठा लगाने और जहाज पर बैठने के
बाद वे लोग दूसरी ही स्थिति का सामना करने के लिए विवश हुए। जिससे उनमें असंतोष एवं
अफ़सोस की भावना गहरी होती गई। मॉरीशस पहुँचने के बाद दुःख की असहनीय पीड़ा के
साथ-साथ अमानवीयता की चरम पराकाष्ठा इन्हें देखने को मिला। “इन बेबस मजदूरों को न
तो शादी करने कीइजाजत थी और न ही जमीन का कोई टुकड़ा रखने की। उन्हें न तो अपनी
भाषा बोलने का अधिकार था और न ही अपने धर्म का। अपने बच्चों तक को पढ़ाने का अधिकार
उन्हें नहीं था। उन्हें यह इजाजत भी नहीं था कि वे कहीं इकठ्ठा हो सके। असहनीय
यातनाओं का माहौल रोज जारी रहता, जिसकी क्रूरता का न ही बखान किया जा सकता और न ही
कल्पना।”2 ऐसी स्थिति में उन्हें अपनी अस्मिता को बचाए रखने के लिए अपनी
भाषा को बचाए रखना ज्यादा जरूरी लगा। क्योंकि उनका मानना था कि यदि ‘भाषा गई तो
संस्कृति भी समाप्त हो जाएगी’। मॉरीशस गए भारतीय गिरमिटिया मजदूरों
की यह बात आज वहां ‘स्लोगन’ बन गया है।
मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक क्षणों में गीतों को किसी न किसी रूप में गाता
रहा है। वह जिस भाषा में सहज रहता है, उसी भाषा में गुनगुनाता है।इसीलिए ज्यादातरअपनी
मातृभाषा मेंअभिव्यक्ति करता है। मॉरीशस, जो भी मजदूर भारत से गए, उन्होंने अपनी
परंपरा एवं लोकसंस्कृति को अपनी मातृभाषा के माध्यम से विकसित किया। जिस कारण वहां
के लोकसाहित्य में प्रवासन और उससे जुड़ी पीड़ा की अधिकांश अभिव्यक्ति लोकगीतों में
दिखाई देती है। भोजपुरी प्रदेश की हमेशा से यह त्रासदी रही है कि यहाँ जीवन की
बुनियादी सुविधाओं का अभाव रहा है। जिस कारण प्रवास को अपनाना इनकी मज़बूरी बनी रही
है। जहाँ कहीं भी ये लोग जाते हैं, अपनी मेहनत एवं लगन के बल पर वहाँ के विकास में
अपनी महत्ती भूमिका निभाते हैं। लेकिन इतना सबकुछ होने के बावजूद उन्हें दीनहीन
एवं उपेक्षा के भाव से देखा जाता है। आज़ादी के पहले एवं अब में इसमें कोई परिवर्तन
देखने को नहीं मिला है। वर्तमान में गुजरात, दिल्ली, मुंबई आदि शहरों में इन भइया
बिहारी मजदूरों के साथ क्या होता रहता है? यह बात किसी से छुपी नहीं है। अर्थात् देश के भीतर जब ब्रिटिश हुकुमत
नहीं है, तब भी स्थिति कुछ बदली नहीं है। ऐसे में औपनिवेशिक दौर में देश से बाहर
मॉरीशस आदि द्वीपों में गए इन मजदूरों का शोषण एक तय नियति जैसा लगता है।
मॉरीशस में 1873-1918 का समय मौखिक
साहित्य का था।गिरमिटिया मजदूर परदेश में अपने देश को याद करते थे। वे सोचते थे कि
जिस सुख की इच्छा लिए वे देश से दूर विदेश आए,वह तो पूरा नहीं हो सका। इससे बेहतर तो अपना ही देश था। कम से कम वहां
अपनों का संग-साथ तो होता।इसीलिए ये लोग अपनी भाषा के माध्यम से अपनी संस्कृति को
बचाने में लगे हुए थे। भाषा न केवल सांस्कृतिक धरोहर है। अपितु वह संस्कृति का एक
निश्चित कोश भी है। भाषा के माध्यम से जो संस्कृति अभिव्यक्त होती है, उसे लोकसंस्कृति कहते हैं। क्योंकि लोकसंस्कृति वह है - जो हमारे
अस्तित्व, हमारे होने की अवधारणा को अभिव्यक्त करती है। गिरमिटियामजदूर उसमें
निहित त्याग, बलिदान, सामूहिकता की भावना अपनाकर अपनी एक अलग अस्मिता बना पाए।
ब्रजेन्द्र भगत ‘मधुकर’ की कविता ‘सोना के सपना’ में आप्रवासियों के सपना का जिक्र
मिलता है –
“सोनवा
के लोभवा में देसवा बिसरिले हो
सोना सुन मरीचिया के नाम,
...खाय के मुफत मिली माखन, मिठाई मेवा
पिये खातिर दुधवा बदाम,
...अइते मरीचिया में सोनवा सुदेहिया से
बंधल गुलमिया जंजीर,
...ऊखवा के खेतवा गल गइले सोनबा के
सोनवा समनवा सरीर,
...लहुआ के बुन्दवा से सिंचले मरीचिया हो
सोना नियर कतने जवान,
...जेकरा कारन आज देसवा आजाद भइले
चौरंगिया उड़े आसमान।”3
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि भोजपुरी क्षेत्र की यह त्रासदी रही है कि यहां
बुनियादी सुविधाओं के अभाव की वज़ह से हमेशा से लोग प्रवास को अपनाते रहे हैं।
इसलिए यह जानना जरूरी हो जाता है कि मॉरीशस प्रवास के समय की स्थिति कैसी थी ? मॉरीशसीय लोकसाहित्य
में इसका भी चित्रण हुआ है। ब्रजेन्द्र
भगत मधुकर ने एक लम्बी कविता ‘एक कहानी कुली की’ लिखी है। जिसमें भारत की स्थिति को
दिखाया गया है।जिससे विवश हो लोग विदेश जाने लगे थे। साथ ही अरकाटी द्वारा भरमाया
जाना और वहां पहुँच तमाम तरह के कष्टों के झेलने की कहानी वर्णित है -
“सुनो
अर्जी मेरे भाई ! चलो मीरच मेरे भाई !
वहाँ
बिल्कुल न रोना है वहाँ सोना ही सोना है।
वहाँ
आराम करना है नहीं कुछ काम करना है,
वहाँ
चाँदी बरसती है वहाँ किस्मत चमकती है।...
बिचारा
भक्त भोला था भला कैसे नहीं फँसता ?...
गया
वह एक दफ्तर में, बंधा गिरमिट बंधन में,
लिया
कुछ नोट गठरी में, दिया गृह त्याग पल-छिन में।”4
मॉरीशस के भोजपुरी लोकगीतों में वहाँ
का इतिहास समाहित है। चूँकि आरम्भ से ही गिरमिटिया मजदूरों पर शोषण एवं अत्याचार
और उससे मुक्त हो अपनी एक स्वतंत्र अस्मिता बनाने की भारतीय मजदूरों का इतिहास रहा
है।इसलिए इस इतिहास की सशक्त अभिव्यक्ति यहाँ के भोजपुरी लोकसाहित्य में हुआ है। वास्तव
में जो भी लिखित साहित्य है उसमें शासकों की बात तो है, लेकिन इन प्रवासी गिरमिटिया मजदूरों की स्थिति
का चित्रण नहीं मिलता है। यह उनके द्वारा रचित साहित्य लोकसाहित्य में मिलता है।
एक अन्य उदाहरण –
“कलकत्ता
से भर्ती होकर,
सूरीनाम
में पहुँच आय
उतर
गए तब यही देसवा में
डीपू
में दिये भात खवाय
रोज
सबेरे मंझा साहब
सबको
हुकुम दिया फ़रमाय
हाथ
में दे के कटलिस सब्बल
परनासी
में पहुँचा जाय।”5
लोकगीतों का गायन ज्यादातर श्रमिक वर्ग ही करता है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक
कारण जान पड़ता है। “आधुनिक यांत्रिक युग में श्रम गीतों की प्रासंगिकता, एक
विचारणीय प्रश्न है। वस्तुतः अतीत में ही वर्तमान का बीज किसी न किसी रूप में छिपा
रहता है। श्रमगीतों की जड़े भी अतीत की गहराइयों में घुसी हुई हैं। इनके द्वारा
हमें आर्य पूर्व सभ्यता का ज्ञान होता है। श्रमगीतों में सामान्य जन-जीवन की
आशा-निराशा, सुख-दुःख, हास-उल्लास का सजीव चित्रण हुआ रहता है। जनता के जीवन से
सम्बन्ध रखने वाले ये गीत जनता की मूल्यवान सम्पति हैं। अतीत को जाने बिना वर्तमान
की सही पहचान नहीं हो सकती। श्रमगीतों में भारत के बहुसंख्यक समाज का यथातथ्य
चित्रण उपलब्ध होता है। भारतीय जीवन की सच्ची कथा इन गीतों में चित्रित है।”6हमेशा
से लोकगीतों की रचना ज्यादातर श्रमिक या मेहनतकश वर्ग द्वारा ही होता रहा है।
मॉरीशस के संदर्भ में भी यही बात सटीक
लगता है। क्योंकिभारत से मॉरीशस ज्यादातरमजदूर ही गन्ने के खेतों में काम करने के
लिए ले जाए गए -
“आये
हम सब हिन्द से
करन
नौकरी हेत
गिरमिट
काटी कठिन से
फिर
सर्कारी खेत
फिर
सर्कारी खेत
कोई
स्वदेश लौट गए
कोई
खरीदी भूमि
कोई
गाँवन में बस गये।”7
प्रस्तुत गीत की इन पंक्तियों में क्या सोच कर ये लोग आए थे और अब इनके साथ
क्या हो रहा है ? तथा इन परिस्थितियों से परेशान हो वे क्यों घर चले गए, इन स्थितियों का चित्रण किया गया है।
शुरुआत में जब गिरमिटिया मजदूर मॉरीशस गए, तब बिरहा, झूमर, कजरी आदि गीतों को गाकर अपने थकान को कम करने की कोशिश
करते थे। जिसमें ज्यादातर भारतीय प्रवासन के तत्व दिखाई देते हैं। परदेश गए पति का
दूसरी स्त्री से संपर्क, उसे वापस अपने घर लाने तथा उससे हुए बच्चे का सम्पति में
अधिकार की बात झूमर लोकगीतों में दिखाई देता है। सुचिता रामदीन द्वारा संकलित
भोजपुरी लोकगीतों का संकलन जो पुस्तकाकार रूप में ‘संस्कार मंजरी’ नाम से संकलित
है; उसमें यह दिखाई देता है –
“पिया
मोरे गइलन पुरबी बनीजिया
साथी
दरपनवा1 देइके गइले हो राम ॥
...बरहा
बरीस पर अइलन बनीजिया2
सेजिया
पर बइसे मनवा मारी3 हो राम ॥
किया4
मन भावेला5 माइ रे बहिनिया
किया
मन भावे पुरबी बंगलिनिया6 ॥”8
1. दर्पण 2.
व्यापारी पति 3. उदास होकर 4. क्या 5. आ रहे हैं 6. बंगालन
उस समय का भारतीय जनमानस भी गिरमिटियों की स्थिति से अनभिज्ञ नहीं था।हिंदी
साहित्यकारों ने उस समय के अपने लेखन में इनकी स्थिति का चित्रण किया है। प्रेमचंद
को भारतीय प्रवासियों के सम्बन्ध में जानकारी थी।गोदान के एक प्रसंग में धनिया
गोबर से कहती है – “कोई कहता था, मिरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सुन-सुनकर
जान सुखी जाती थी। कहाँ रहे इतने दिन ?”9 राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त
ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘किसान’ में गिरमिटियों की स्थिति का चित्रण कुछ इस प्रकार
किया है -
प्रभुवर
! हम क्या कहें कि कैसे दिन भरते हैं ?
अपराधी
की भांति सदा सबसे डरते हैं।
याद
यहाँ पर हमें नहीं यम भी करते हैं।
फिजी
आदि में अंत समय जाकर मरते हैं।
बनता
है दिन-रात हमारा रुधिर पसीना।
जाता
है सर्वस्व सूद में फिर भी छीना।”10
तत्कालीनसभी महत्वपूर्ण हिन्दी की पत्रिकाओं ‘सरस्वती’, ‘मित्र’, ‘प्रताप’,
‘प्रवासिता’, ‘मर्यादा’ आदि पत्रिकाओं में भी इन परिस्थितियों का चित्रण हुआ है।
इससे पता चलता है कि समूचे देश को प्रवास कि इस स्थिति का आभास था।
प्रवासी मजदूर जो भी अपने पर बितता था उसे ज्यादातर गीतों के माध्यम से
अभिव्यक्त करते थे। वह चाहे अपने पर हो रहे शोषण और उससे मन में उपजे सवाल हो या दिनचर्या
के कार्यों का वर्णन। वे यह लिखते नहीं थे। बल्कि मेहनत करते समय या थक-हारकर आराम
करते समय श्रम की शक्ति को कम करने के लिए गाते थे। जो बाद में एक पीढ़ी से दूसरी
पीढ़ी के बीच हस्तांतरित होता रहा।जिसेअबविभिन्न तकनीकी माध्यमों द्वारा संरक्षित
किया जा रहा है।मॉरीशस में गन्ने की खेती
के लिए मजदूर ले जाए गए। इसीलिए आज भी यहाँ प्रमुखता से गन्ने की खेती की जाती है।
गन्ने की कटाई, बुआई तथा छिलाई सम्बन्धी यहाँ अनेक गीत मौजूद हैं। चुकि मॉरीशस
द्वीप अरब, पुर्तगाल, डच, फ़्रांसिसी एवंअंग्रेजों का उपनिवेश रहाहै। अतः वहाँ इनकी
भाषा एवं संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मॉरीशसीय भोजपुरी लोकसाहित्य काफ्रेंचऔर
क्रियोली से भी संपर्क हुआ। जहाँ भोजपुरी ने इनके शब्दों को लिया है। वहीं
क्रियोली में भी इसका समावेश हुआ है। उदाहरण–
“उठे फजिर के लापेला1 पर
जाना रे।
...इधर उधर कान2 पलांते3 बिच में मकई हो।
एक जगह गोड मारि के पिया तोहे चमकइबें
लापेला पर जाना।
देसs के ए भइया आये मरिचिया4
काहे सोचत दिन रतिया
मार कुदारी, हींच5 पछाड़ी
चल अगाड़ी
ए ही मरिचिया की रीत,
लापेला पर जाना।”11
1.कटिया 2.
गन्ना 3. बोया हुआ 4. मॉरीशस 5. खींचकर
“किसी भी जाति के साहित्य के निर्माण के लिए, उस जाति की जीवन-शैली तथा उसकी
संचित मनोवृति का वास्तविक चित्रण उस जाति के साहित्य में प्रतिबिंबित होना आवश्यक
है। देश व जाति का जीवन, वहाँ की आर्थिक, सामजिक, सांप्रदायिक, धार्मिक एवं
राजनीतिक चक्र में पड़कर बनता-बिगड़ता चला जाता है और इस परिवर्तनशील प्रक्रिया के
दौरान उस देश व जाति के साहित्य का स्थायी स्वरूप निर्मित होता है।”12
यही कारण है कि गिरमिटिया मजदूर आरम्भ में अपने पर होने वाले शोषण को लोकगीतों के
माध्यम से अभिव्यक्त करते थे। लेकिन बाद में जब उन्होंने अपने को स्थापित कर लिया तबवर्चस्वादी
ताकतों के खिलाफ बोलना शुरू किया। यहाँ मिल-मालिकों और गिरमिटिया मजदूरों के बीच
चलने वाला संघर्ष हर प्रकार की दासता से मुक्ति का संघर्ष था। इन मजदूरों ने एक
संगठन बनाया था जिसका नाम था ‘त्रवाइस’ अर्थात् मजदूर दल। चूंकि शासक करने वाले कम
थे और शोषित ज्यादा। इसीलिए यह संगठन काफी लोकप्रिय हुआ था। जब इस संगठन के हाथ
में सत्ता आई; तब आमजन बहुत प्रसन्न हुआ। इसके उलट मिल-मालिकोंतथा अधिकारियों का
दुखी होना भी स्वाभाविक था –
“अब
भइले त्रावाइस के राज साहेबवा जरबे करी।
जहाँ
हारल बा ओकर समाज करेजवा फटबे करी।
ओकर
खाना भइल बा खराब जरत बा जरबे करीं।”13
मॉरीशस चूंकि एक बहुसांस्कृतिक एवं
बहुभाषिक देश रहा है। इसलिए वहां के नवयुवकों पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा
जा सकता है। सभी एक दूसरे की भाषा एवं संस्कृति का सम्मान करते हैं तथा एकसाथ
मिलजुलकर रहते हैं।वर्तमान पीढ़ी में आज अपनी पूर्वजों की स्मृतियाँ हैं। वे उनको याद
करते हैं। जो परम्परा एवं रीति-रिवाज वे लेकर आए थे उसको संजोने की कोशिश करते हैं।
देश के कोने-कोने में वे उनको महसूस करते हैं –
“गली
के घीसल चट्टान पर
जब
हमार गोर पड़ल
ऐसन
लागल कि
हमर
पूर्वज के खून पसीना के महकवा
दुखदरद
के कहानी छुपल बा।”14
“इतिहास ने सदा अभिजात्यवर्गीय मानसिकता से काम किया है और अपनी माटी की रक्षा
के लिए खून-पसीना बहाने वालों के साथ अन्याय किया है। समाज के दबे-कुचले वर्ग ने
लोकगीतों के माध्यम से समाज की तमाम विसंगतियों पर प्रहार किया है, खासकर
सामंतवादी प्रवृतियों के खिलाफ। परन्तु इनमें से अधिकांश को संभ्रांतों द्वारा या
तो दबा दिया गया या नष्ट कर दिया गया। अभिजात्यवर्गीय समाज ने लोकगीतों में
हस्तक्षेप किया और लोकसंस्कृति को मात्र मनोरंजन, प्रदर्शन, पूजा-पाठ, संस्कार गीत
या भजन गायकी तक समेट कर रख दिया।...हाशिए के लोगों की पीड़ा, जो लोकगीतों में
व्यक्त हुई है, उसे दबाने तथा संस्कारगीतों के नाम पर धार्मिक, वैवाहिक और मनोरंजन
प्रधान गीतों को बढ़ाया गया है।”15लेकिन बावजूद इसके लोकसाहित्य
वर्चस्ववादी ताकतों के खिलाफ आवाज उठाता रहा है। आज़ादी एवं गुलामी के फर्क को
प्रस्तुत लोकगीत में देखा जा सकता है-
केकर
मुर्गा केकर छुरी ?
दुश्मन
के मुर्गा मित्रन के छूरी
कइसन
मुर्गा कइसन छूरी ?
मुर्गा
गुलामी आज़ादी छूरी।”16
“उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक मॉरीशस में भारतीयों की स्थिति बड़ी दयनीय थी।
इसके कुछ बाह्य और कुछ आतंरिक कारण थे। बाह्य कारणों में यूरोपीय उपनिवेशवादियों
का उपनिवेशीकरण, गोरे जमींदारों की दमन प्रवृति आदि बातें शामिल थीं। आतंरिक
कारणों में प्रवासियों की अपनी शिथिलता थी। जिसे वे अपने साथ लाए थे। गरीबी, सामाजिक
असमानता, जातीय संकीर्णता एवं आर्थिक विषमता के शिकार वे पहले से ही थे और इन्हीं
कारणों ने उन्हें प्रवास में बसने को विवश किया था। यह सच है कि रामायण और महाभारत
जैसे ग्रंथों की कथन ये भूले नहीं थे। परन्तु यह भी सत्य है कि जब तक आर्यसमाज
जैसी शक्तिमान संस्था का उदय मॉरीशस की भूमि पर नहीं हुआ था,तब तक प्रवासियों में
नवजागरण का बीज अंकुरित नहीं हुआ।”17 आप्रवासियों में जब अपनेपर हो रहे
जुल्म एवं शोषण का आभास हुआ तब उन्होंने अपनी मातृभूमि भारत से भी सहयोग के लिए
गुहार लगाना शुरू किया। कारणमॉरीशसवासियों को भारत से हमेशा से ही लगाव एवं उम्मीद
रहा है। उम्मीद इस बात कि कहीं ना कहीं उनकीजड़े भारत में है। इसलिए संकट के समय
भारत से उन्हें सहायता मिलेगी। मॉरीशस के
कवि गणपतिदास भारतवासियों से यह विनय करते हैं –
“मैं
बोलि सकौं न लिखौं न कभू, तबहूँ मोहि पै खल खेग चलाबे।
अति
निर्बल जाति हमरी पशुन में हा तब हूँ करुणा नहीं आवे।
मैं
डकरति हौं अति आरत होई, तबहू खल मोकह बाँधि गिराके।
कोउ
पूत सपूत है भारत में, मोहि आ करके बध बंद करावे ॥”18
भोजपुरी ही वह भाषा जो परदेश गए गिरमिटिया मजदूरों के सुख एवं दुःख की साथी
बनी। इनके वजूद को बचा कर वर्चस्ववादी ताकतों के विरुद्ध लड़ने के लिए सबसे सशक्त
माध्यम भी यही रही। अतः मॉरीशस में
भोजपुरी संरक्षण एवं संवर्धन के लिए एक होड़ सी लगी हुई है। इसके अनेक संस्था एवं
संस्थाओं की स्थापना, इस भाषा में शिक्षा तथा रोजगार के माध्यम भी निश्चित कराए जा
रहे हैं। डॉ गौतमी भगत रामयाद अपनी कविता में इसके योगदान को बताकर इसके संरक्षण
के लिए प्रेरित करती है –
“हम
न रहतीं त संस्कृति न रहत
थाट
बाट न रहल रहत. पुर्वज के लाज न रहत
न
रहत दादी के गीतवन, न नानी के खिसवन
न
बनत मॉरीशस स्वर्ग समान
त
का होल जे भोजपुरी के त्याग देलs
कोना
में फेंक देलs।”19
गिरमिटियों के वंशज उनके मॉरीशस प्रवास और मेहनत को साकारात्मक रूप में लेते
हैं। उन्हेंभारत की वर्तमान स्थिति को देख यह लगता है कि कम से कम आज वे सम्मान का
जीवन जी रहे हैं। उन्हें और उनकी भाषा को हीन दृष्टि से नहीं देखा जाता है। पूरे
विश्व में उनके पूर्वजों तथा साथ ही उनकी अपनी अलग पहचान है। उन्हें सम्मान की
दृष्टि से देखा जाता है -
“सोनवा
न मिलल त का ?
अपन
परिश्रम संगे त अनलनजा
काटकूट
के वन के उपवन त बनइलन
पत्थर
तोड़-तोड़के बंजर भूमि के
उपजाऊ
भूमि त बनइलन
खेती
त लहलहाइल।”20
नए झूमर गीतों में परिवर्तन हुआ है। गोरे मालिकों का कारखाना जल जाने का वर्णन
भी इन लोकगीतों मेंहुआ है। हालांकि इन गीतों को देखकर यह लग रहा है कि भोजपुरी का
वह रूप अब रह नहीं गया है। स्थानीय भाषाओँ का प्रभाव शुरू हो गया था। उदाहरण –
“मुसे1
मानेस2 के मुलवा3 जर4 गइले राम
...जर
गइले मुलवा ए जी टूट गइल ढँकवा
...सोचs
ता कपतनवा5 एजी बइठल बा कुपेरवा6
गाल
पर हांत7 धर के रोवsता8 सदरवा
मुसे
मानेस के मुलवा जर गइले राम
हुवां9
के लोग सब भइले बेहाल
मुसे
मानेस के मुलवा जर गइले राम।”21
1. श्रीमान या
श्री, क्रियोल ‘मिसिये’ जो आगे बिगड़कर ‘मुसे’ बन गया 2. गोर मालिक का नाम 3.
कारखाना 4. जल 5. कप्तान, क्रिओल शब्द ‘कापितेन’ का बिगड़ा हुआ रूप 6. गन्ना काटने
वाले, क्रिओल शब्द ‘कुपेर’ 7. हाथ 8. रोता है 9. वहाँ
इस तरह से कहा जा सकता है कि गीत के
माध्यम से सहज अभिव्यक्ति होती है। इसीलिए मॉरीशसीय भोजपुरी लोकसाहित्य की अन्य
विधाओं की अपेक्षा ज्यादातर लोकगीतों में ही प्रवासन का सन्दर्भ दिखालाई देता है।
शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत गएप्रवासी भारतीयों की मूल संवेदनाएं प्रवास की पीड़ा, विस्थापन
का कष्ट, नए देश में अस्तित्व के लिए संघर्ष, अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति मोह
और उसकी सुरक्षा और प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष, अपने सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की
सुरक्षा का प्रयत्न, नए देश को स्वदेश मानकर उसके प्रति निष्ठा और देशभक्ति, उसके
विकास और उसकी उन्नति का प्रयत्न सर्वत्र दिखाई देता है। लेकिनइन सब में प्रमुख और
मुखर रूप से प्रवासन का दर्द और पीड़ाकी अभिव्यक्तिहुई है।मॉरीशस के भोजपुरी लोकगीतों में वहाँ का इतिहास समाहित
है। चूँकि आरम्भ से ही गिरमिटिया मजदूरों पर शोषण एवं अत्याचार और उससे मुक्त हो
अपनी एक स्वतंत्र अस्मिता बनाने का भारतीय मजदूरों का इतिहास रहा है। इस इतिहास की
सशक्त अभिव्यक्ति यहाँ के आरंभिक भोजपुरी लोकसाहित्य में हुआ है। वास्तव में जो भी
लिखित साहित्य है उसमें शासकों की बात तो है लेकिन इन प्रवासी गिरमिटिया मजदूरों
की स्थिति का चित्रण नहीं मिलता है। यह उनके द्वारा रचित साहित्य लोकसाहित्य में
मिलता है। लोकसाहित्य में भी विशेषकर लोकगीत में। बाद में विभिन्न संस्कारों एवं
रिवाजों को भी लोकगीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया।बावजूद इसके भारतीय
लोकगीतों की फूहड़ता एवं अश्लीलता यहाँ के लोकगीतों में नहीं है।
सन्दर्भ :
- ब्रजेन्द्र भगत ‘मधुकर’,मधुबहार,भोजपुरी
अकादमी, पटना, पहला संस्करण 1985,भूमिका
- अभिमन्यु अनत, लाल पसीना, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, चौथी आवृति 2014,भूमिका
- ब्रजेन्द्र भगत ‘मधुकर’,मधुबहार, भोजपुरी अकादमी, पटना, पहला संस्करण 1985,पृष्ठ
23
- डॉ. कमल किशोर गोयनका(संपादक), ब्रजेन्द्र कुमार भगत ‘मधुकर’
काव्य-रचनावली, नटराज प्रकाशन, दिल्ली,
संस्करण 2003,पृष्ठ 142
- विमलेश कांति वर्मा/भावना सक्सेना, सूरीनाम का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2015,पृष्ठ 24
- डॉ. कमला सिंह (संपादक), पूर्वांचल के श्रम लोकगीत, परिमल
प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1991,पृष्ठ 14
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डॉ. प्रियंका कुमारी
मकान संख्या – 1341, इंदिरा नगर, लखनऊ – 226016, उत्तर प्रदेश
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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