व्यावहारिक आलोचना के विकास में कल्पना पत्रिका का योगदान
- डॉ. प्रदीप त्रिपाठी
शोध सार : आलोचना के मूलतः दो पक्ष होते हैं, सैद्धांतिक आलोचना एवं व्यावहारिक आलोचना। आचार्य शुक्ल की आलोचना पद्धति में इन दोनों के समवेत विभाजन को प्रमुख रूप से देखा जा सकता है। कोई भी आलोचक जब किसी रचना की सर्जनात्मकता से गुजरता है तो उस ज्ञान रचना के मूल्यांकन को व्यावहारिक समीक्षा कहा जाता है। इस रचना के मूल्यांकन में वह जिन तकनीकी का उपयोग करता है, वह सैद्धांतिक समीक्षा की ही उपज होती है। मूलतः जब सिद्धांतों के आधार पर साहित्य की समीक्षा की जाती है तो उसे व्यावहारिक आलोचना की कोटि माना जाता है। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यदि आजादी के बाद की पत्रिकाओं को देखा जाए तो उसमें 'कल्पना' का विशिष्ट स्थान रहा है। उस दौर में जितनी भी साहित्यिक पत्रिकाएँ धर्मयुग, सारिका, आलोचना, माध्यम आदि प्रकाशित हो रही थीं, उनसे 'कल्पना' कई मायने में भिन्न रही है। भाषा एवं साहित्य के विकास में 'कल्पना' हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक श्रेष्ठ पत्रिका के रूप में अविस्मरणीय है। इस शोध-पत्र के जरिए हम व्यावहारिक आलोचना के विकास में कल्पना पत्रिका के प्रदेय को समझ सकेंगे। कल्पना पत्रिका की साहित्यिक यात्रा व्यापक होने के नाते प्रस्तुत शोध पत्र कल्पना के पहले दशक की व्यावहारिक आलोचना पर केंद्रित है।
बीज
शब्द : व्यावहारिक आलोचना, कल्पना पत्रिका, इतिहास, परंपरा एवं युगबोध।
मूल
आलेख : यदि सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक आलोचना को सरल तरीके से समझें तो यह दोनों
आलोचना की पद्धतियाँ एक दूसरे को निर्मित भी करती हैं और आगे भी बढ़ाती हैं। हिंदी
में व्यावहारिक आलोचना की शुरुआत भारतेंदु युग से ही मानी जाती है लेकिन शुद्ध
रूप से सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना का वास्तविक रूप आचार्य रामचंद्र शुक्ल
के आगमन से ही शुरू होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक ओर जहाँ रस, अलंकार, रहस्यवाद,
अभिव्यंजनावाद इत्यादि विषयों पर आधुनिक भावबोध से लैस सिद्धांत निरूपण कर रहे
थे तो इन्हीं सैद्धांतिक आलोचनात्मक मानदण्डों से हिंदी साहित्येतिहास का मूल्यांकन
भी कर रहे थे। उनके द्वारा किया गया हिंदी साहित्य का मूल्यांकन व्यावहारिक
समीक्षा का सुंदर उदाहरण है। योगेंद्र प्रताप सिंह के शब्दों में कहें तो- “वास्तव
में व्यावहारिक समीक्षा का जन्म रचनाकार के सर्जक मन से ही होता है क्योंकि वह
सर्जना के क्षण में अपनी सृजनात्मकता को लेकर बहुत चौकन्ना और जागरुक रहता है।
उसकी यह आंतरिक जागरुकता सर्जक की व्यावहारिकता से जुड़कर सर्जनात्मक आलोचना के
लिए बीज का कार्य करती है। कृति के प्रकाश में आ जाने के बाद व्यावहारिक आलोचना
का कार्य पुन: शुरू होता है, किंतु यह प्रक्रिया अधिक स्थिर एवं कृति सापेक्ष होकर ही
पुन: आगे बढ़ती है। कृति के आंतरिक एवं वाह्य विश्लेषण से जुड़ी यह प्रक्रिया कवि
की भावना एवं कल्पना के फैलाव को पकड़ने का माध्यम बनती है। स्वयं कल्पना,
भावना एवं वृद्धि के प्रयोग द्वारा प्रज्ञा की इस प्रबलता के कारण व्यावहारिक
समीक्षक को भाषिक तथा भावनात्मक संश्लेष के गहरे सागर में गोते लगाने पड़ते हैं-
अर्थ और मंतव्य के मर्म की पुनर्सृजन जैसी व्याख्या करनी पड़ती है और कवि के
साथ पूरी तरह से तादात्म्य स्थापित करके निष्कर्षों से स्वयं को जोड़ना पड़ता
है। किसी कृति के मूल्यांकन का आधार बनने वाली यह प्रक्रिया ही व्यावहारिक
समीक्षा है।''[1]
स्वातंत्र्योत्तर युगीन हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं (धर्मयुग,
सारिका, आलोचना, कल्पना,
दस्तावेज, माध्यम आदि) को देखा जाय तो व्यावहारिक आलोचना के
विकास में ‘कल्पना’ पत्रिका का महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप
रहा है। 'कल्पना' पत्रिका में प्रारंभ से ही व्यावहारिक
आलोचना की प्रमुखता रही है। इस पत्रिका के प्रवेशांक में प्रकाशित श्री
प्रेमनारायण टण्डन का लेख 'कर्मभूमि: कथा-विकास और समस्या' अपने दौर के चर्चित लेखों में से
एक रहा है। इसमें उन्होंने प्रेमचंद के कथा-साहित्य पर चर्चा करते हुए कथा के
विकास में आ रही समस्याओं के संदर्भ में लिखा है- ''कथा विकास के लिए लेखक को
सदैव नई समस्याएँ रखने की आवश्यकता नहीं होती। असमान मनोवृत्तियों वाले पात्रों
के वाद-विवाद से ही कथा को आगे बढ़ाने का विषय उसे मिल जाता है। आवेश में व्यक्ति
प्राय: शब्दों का संकुचित अभिधेयार्थ समझता है, वक्ता के मूल उद्देश्य तक नहीं
पहुँचता और उसकी उक्ति का मनमाना अर्थ लगाकर ऐसा कांड कर बैठता है जिसकी वक्ता को
संभावना भी नहीं होती।''[2]
प्रेमचंद की साहित्यिकता को समझने के लिए यह लेख काफी
महत्त्वपूर्ण है। इसके अलावा इसी अंक में प्रकाशित 'संत-साहित्य की पृष्ठभूमि'
(प्रो. रंजन) और 'हिंदी और मराठी साहित्य' (प्रभाकर माचवे) काफी चर्चित रहे। फरवरी, 1952 में बाबूराम सक्सेना का एक लेख
'अपभ्रंश काव्य' शीर्षक से 'कल्पना' में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने यह
दिखाने का प्रयास किया गया है कि अपभ्रंश काव्य किस तरह से हिंदी की तरफ अग्रसर
होते आ रहे थे। अप्रैल, 1950 में प्रकाशित लेख 'महादेवी जी की साहित्य साधना’ (गंगा प्रसाद पाण्डेय) अपने दौर के
चर्चित लेखों में से एक रहा है। उनकी रचनाशीलता के संदर्भ में गंगाप्रसाद पाण्डेय
ने लिखा है- ''यदि काव्य कला का ध्येय जीवन को उच्च से उच्चतर, उच्चतर से उच्चतम बनाना माना जाय तो
महादेवी जी अपनी साधना में सफल मनोरथ हैं, इसीलिए उनकी कविता हमारे साहित्य की ही
नहीं, विश्व साहित्य की अमर निधि है।''[3]
इसके अलावा प्रो. रामचरण महेंद्र के लेख 'प्रसाद की एकांकी कला'
को 'कल्पना' ने इसी अंक (अप्रैल, 1950) में प्रमुखता से प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने
प्रसाद युग का सामान्य परिचय देते हुए उनकी एकांकी-कला एवं महत्त्व को आलोचकीय
दृष्टि से देखने का प्रयास किया है। यदि यह मान लें कि एकांकी की नींव हिंदी
साहित्य में भारतेंदु जी ने रखी है तो यह स्वीकार करना होगा कि प्रसाद जी ने उसे
पल्लवित और पुष्पित किया, साथ ही हिंदी एकांकी साहित्य को वेग से आगे बढ़ाया। जनता
की रुचि और समय की आवश्यकता के कारण एकांकी के सम्मुख पुरानी बाधाएँ न ठहर सकीं।
भारतेंदु के साहित्य का बहुत विकसित और समृद्धशाली स्वरूप प्रसाद के एकांकियों
में उपलब्ध है। इस तरह के तमाम सवालों एवं उनकी विशेषताओं की चर्चा प्रो. रामचरण
महेंद्र ने प्रसाद की एकांकियों के माध्यम से विस्तृत रूप में की है। एक प्रकार
से देखें तो वर्ष 1950-52 में ‘कल्पना’ में व्यावहारिक आलोचना संबंधी लेखों की बहुलता रही
जिनमें प्रमुख रूप से शांतिप्रिय द्विवेदी का लेख 'पंत के प्रणय-काव्य', 'अवधी और कृष्णायन की भाषा' (विनयमोहन
शर्मा, अगस्त-अक्टूबर,1950), 'कवयित्री कामिनी राय' (मन्मथनाथ गुप्त, अगस्त-अक्टूबर, 1950), 'महाकवि कालिदास के युग में
सामाजिक आदर्श' (रामनारायण यादवेंदु, दिसंबर,1950), प्रेमचंद का असमाप्त उपन्यास
'मंगलसूत्र' (मन्मथनाथ गुप्त, दिसंबर, 1950), जनवरी, 1952 में एक लेख 'मृच्छकटिक के
पात्र-परिचय की कुंजी' (चंद्रबली पाण्डेय), फरवरी, 1952 में दो लेख - 'कवि सम्राट
सुब्रह्मण्यम भारती' (के.आर. नजुंण्डन),
'भारतीय यात्री सानुदास की कहानी' (मोतीचंद्र) आदि काफी चर्चित रहे। यह निरंतरता
आगे के वर्षों में भी यथावत बनी रही।
'कल्पना' के ऐसे बहुत कम ही ऐसे अंक रहे होंगे जिसमें व्यावहारिक
आलोचना का प्रकाशन न हुआ हो। मार्च, 1952 में प्रकाशित मधुसूदन चतुर्वेदी का लेख 'कामायनी का
संदेश' अपने दौर का चर्चित लेख रहा। इसमें उन्होंने ‘कामायनी’ के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया
है कि साहित्य के अध्ययन में सबसे अधिक महत्त्व किसी साहित्यिक कृति द्वारा दिए
गए जीवन के लिए संदेश का होता है जो कामायनी में विद्यमान है। अप्रैल, 1952 में
प्रो.रामचरण महेंद्र का लेख 'हिंदी नाट्य साहित्य में प्रहसन' इस दौर के अन्य
लेखों से बिल्कुल अलग था जिसे पाठकों द्वारा गंभीरता से लिया गया। 'हिंदी की
प्रयोगवादी कविता' (प्रभाकर माचवे) को 'कल्पना' ने मई 1952 में प्रकाशित किया। यह
भी अपने समय का चर्चित एवं महत्त्वपूर्ण लेखों में से एक था। इसमें उन्होंने
प्रयोगवादी कविता एवं पूरे तारसप्तक समग्रता में लेते हुए उसे आलोचकीय-दृष्टि से
देखने का प्रयास किया है। इस लेख में उन्होंने प्रयोगवाद के संदर्भ में लिखा है-
''प्रयोगवाद निरी मौलिकता नहीं, न वस्तु या शैली का वैचित्र्य ही है। यह
सुनिश्चित रूप से एक आधुनिक आवश्यकता है। तुलसी, सूर के युग में या पंत और निराला की
छंदमयी सृष्टि के कालखण्ड में प्रयोगशील कविता नहीं लिखी जा सकती थी क्योंकि
प्रयोगशीलता में जहाँ स्थापकतावादी
वृत्ति का निषेध है, वहाँ एक मनोवैज्ञानिक अनिवार्यता भी है। जब अभिव्यंजना के सब
साधन अवरुद्ध, बासी, पिटे-पिटाये घिसे जान पड़ते हैं, तब कलाकार नवीन प्रयोग की ओर
उन्मुख होता है, यदि उसमें पर्याप्त कवित्व शक्ति और युग के प्रति जागरुकता तथा
अपने प्रति ईमानदारी हो।... यह हमें इस युग में देखने को मिलता है।''[4]
आगे के अंको में भी व्यावहारिक लेखों का प्रकाशन ज्यों का त्यों
बना रहा। जून, 1952
में 'कल्पना' में मुख्य रूप में चार लेख छपे, जो प्रमुख हैं- 'मैक्सिम गोर्की और
उसकी कला' (डॉ. रांगेय राघव), 'रामकुमार वर्मा के नाटकों में ऐतिहासिक आदर्शवाद
एवं भारतीय संस्कृति' (प्रो. रामचरण महेंद्र), 'प्रेमचंद्र का होरी' (बैजनाथ सिंह
'विनोद') एवं 'कनार्टक के ग्राम नाटक' (बाबूराव कुमठेकर)। रांगेय राघव ने अपने लेख
में गोर्की के साहित्यिकता को प्रेमचंद से जोड़ते हुए लिखा है- ''गोर्की की कला यह
संदेश देती है कि कला का मूल बुद्धि का वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, यही जीवन का
सर्वश्रेष्ठ आधार है। उनका कला के पीछे एक गंभीर चिंतन है। उनका ध्येय है समाज
को शोषणहीन और श्रेष्ठ बनाना, जहाँ मनुष्य को विकास के लिए पूर्ण स्वतंत्रता
मिल सके, जहाँ उसका स्वातंत्र्य व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक हो।''[5]
इस प्रकार रांगेय राघव के इस विवेचन को देखकर हिंदी के लेखकों
को, गोर्की की कला का कितना अधिक मूल्य है, यह बताने की अब आवश्यकता नहीं रह
जाती। एक प्रकार से देखें तो 'कल्पना' में अब तक जितने भी व्यावहारिक लेख
प्रकाशित हुए वे महत्त्वपूर्ण रहे हैं। प्रो. रामचरण महेंद्र के लेख में रामकुमार
वर्मा के नाटकों के संदर्भ में जो चर्चा 'कल्पना' में हुई है, वह काफी
महत्त्वपूर्ण है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपने ऐतिहासिक नाटकों में ऐसे आदर्शवाद की
प्रतिष्ठा की है जो जीवन की व्यावहारिकता से ओत-प्रोत होकर भी नैतिक दृष्टि से
जनता के लिए कल्याणकारी हैं। पात्रों में मनोवैज्ञानिकता का निर्वाह डॉ. वर्मा ने
बड़ी कुशलता से किया है। यदि इस लेख के जरिए रामचरण महेंद्र की आलोचकीय-दृष्टि को
देखा जाय तो वे अपने इस लेख में बड़े ही सफल एवं निष्पक्ष आलोचक के रूप में सामने
आए हैं।
इसके अतिरिक्त इस वर्ष (1952) 'कल्पना' में ऐसे कई
महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए जिन्हें व्यावहारिक लेखों की श्रेणी में रखा जा
सकता है- 'वैष्णवों का सहजिया संप्रदाय' (परशुराम चतुर्वेदी, अगस्त 1952),
'हमारी फिल्मों के कथानक' (उपेन्द्रनाथ अश्क, सितंबर, 1952), 'रामलला नहछू: एक
अध्ययन' (ब्रजबिहारी निगम) 'पाली और प्राकृत साहित्य' (भगवत शरण उपाध्याय, अक्टूबर, 1952) 'पिछले दशक की हिंदी कविता'
(शिवप्रसाद सिंह, नवंबर, 1952), 'प्रगतिवाद: अक्षेपों का उत्तर' (मन्मथनाथ गुप्त,
दिसंबर,1952) आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्ष 1952 में भी व्यावहारिक लेखों
की प्रधानता रही है। वर्ष 1953 में भी इस तरह के लेखों का क्रम इसी रूप में बना
रहा। अगस्त, 1953
में 'कल्पना' में दो महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए, जो प्रमुख हैं- 'प्रेमचंद:उपन्यास'
(प्रकाशचंद्र गुप्त, अगस्त,1953) 'नई कविता में मुक्त छंद' (रामस्वरूप चतुर्वेदी)। प्रकाशचंद्र
गुप्त ने अपने इस लेख में प्रेमचंद के कला-साहित्य को बरसाती नद के समान वेगशाली
और बलवती बताया है। इनकी कला का एक आकर्षक पहलू उनकी भाषा की सरल, स्वाभाविक गति
और सहजता रही है। एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि यह लेख प्रेमचंद की
साहित्यिकता को समझने के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है।
आलोचना के विकास में यदि हम 'कल्पना' में प्रकाशित इन व्यावहारिक
लेखों पर गौर करें तो इसका न सिर्फ आलोचना के विकास में बल्कि हिंदी साहित्य के
विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस दौर की अन्य पत्रिकाओं में जो व्यावहारिक
लेख प्रकाशित हो रहे थे उनसे 'कल्पना' अधिक समृद्ध रही है। सितंबर, 1953 में प्रकाशित 'महाकाव्य की व्यापकता'
(एस. टी. नरसिंहाचारी) इस दौर के चर्चित लेखों में से एक था। इसमें उन्होंने
महाकाव्य को पारिभाषित करते हुए उसकी प्रासंगिकता एवं महाकाव्य किस प्रकार के होने चाहिए, पर विस्तार
से चर्चा की है। इसी अंक में गोपालकृष्ण कौल और रामगोपाल सिंह चौहान द्वारा
संयुक्त रूप से लिखे गए लेख 'अश्क के नाटकों में चरित्र-चित्रण' को भी 'कल्पना'
ने प्रमुखता दी है। वर्ष 1953 में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक लेखों को
'कल्पना' ने प्रकाशित किया। जो निम्न हैं- 'प्रगतिवाद' (गिरिजादत्त शुक्ल, अक्टूबर,
1953), 'विदेशों में रामकथा’ (परशुराम चतुर्वेदी, नवंबर, 1953), 'आधुनिक हिंदी
एकांकियों में यौन भावना का चित्रण' (रामचरण महेंद्र, नवंबर, 1953), 'मेरी कविता' (अज्ञेय, नवंबर, 1953),
महाकवि सूरदास (वृंदावन बिहारी मिश्र, नवंबर, 1953), 'मैक्सिम गोर्की की साहित्यिक देन'
(दामोदर झा, दिसंबर, 1953) आदि।
वर्ष 1955 में 'कल्पना' में व्यावहारिक आलोचनाओं का बाहुल्य
रहा है। फरवरी, 1955
में कुमारी आनंदवल्ली परमेश्वरन के लेख 'तमिल साहित्य एक परिचय' को 'कल्पना' ने
प्रमुखता से प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने तमिल साहित्य का संक्षिप्त परिचय
देते हुए साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर विस्तार से चर्चा की है। ‘कल्पना’ पत्रिका की यह खास विशेषता रही है कि
इसने न सिर्फ हिंदी साहित्य बल्कि पूरे भारतीय वाड्.मय को एक साथ लेकर चलने की
कोशिश की है। इस दृष्टि से भी इन लेखों को (अर्थात् गैर हिंदी साहित्य को) पाठकों
द्वारा गंभीरता से लिया जाता रहा है।
मार्च,1955 में प्रकाशित देवीशंकर अवस्थी का लेख 'कबीर के
निर्गुण राम और उनकी भक्ति', अपने दौर में काफी चर्चित एवं महत्त्वपूर्ण रहा। इसमें
देवीशंकर अवस्थी ने कबीर के संदर्भ में क्षितिमोहन सेन एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी
के उद्धरणों को प्रस्तुत करते हुए उसे आलोचकीय दृष्टि से देखने की कोशिश की है।
इस निबंध में वे कबीर के राम को भारतीय उपासना की पृष्ठभूमि में रखकर कबीर को
निष्काम भक्त की संज्ञा देते हैं साथ ही उनकी साधना प्रक्रिया को सगुण मार्ग के
अवलंबन से भी जोड़ते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि देवीशंकर अवस्थी का यह लेख
कबीर के निर्गुण राम और उनके सगुण मार्गी होने के अंतरद्वंद्व को समझने के लिए
काफी महत्त्वपूर्ण है।
मई, 1955 में 'कल्पना' में मुख्य रूप में दो व्यावहारिक लेख
प्रकाशित हुए-'मेघदूत: राष्ट्रीय काव्य' (विद्यानिवास मिश्र) और 'कवि पुश्किन
तथा गीति-काव्य' (दामोदर झा)। यह दोनों लेख अपने दौर के काफी चर्चित लेख रहे हैं।
विद्यानिवास मिश्र ने अपने इस लेख में 'मेघदूत' को राष्ट्रीय काव्य के रूप में
प्रतिष्ठित किया है। इसके संबंध में वे लिखते हैं- ''जो लोग कहते हैं कि यथार्थ और
आदर्श के बीच समझौता नहीं हो सकता, कल्पना और यथातथ्य में कोई जोड़ नहीं बैठाया
जा सकता, या इतिहास और भूगोल के बीच कोई सामंजस्य नहीं हो सकता या नगरों के परिष्कृत
जीवन के साथ गाँव के निर्व्याज जीवन का गठबंधन नहीं हो सकता या उद्दीपन या आलंबन
में कोई ऐक्य नहीं हो सकता, उनके लिए मेघदूत एक चुनौती है।''[6]
एक प्रकार से कहें तो विद्यानिवास मिश्र ने अपने इस लेख में
'मेघदूत' को संपूर्णता का काव्य कहा है। इसके अतिरिक्त अन्य कई दृष्टियों से यह
लेख अपने दौर में काफी चर्चित रहा है। इसी अंक के दूसरे लेख में दामोदर झा ने
पुश्किन के साहित्य को श्रेष्ठ साहित्य
बताया है। इस लेख में पुश्किन-साहित्य के विभिन्न स्वरूपों का परिचय न
प्रदान कर, उनके काव्य, विशेषत: गीति काव्य की विशेषताओं का विश्लेषण किया गया
है।
व्यावहारिक लेखों की यह निरंतरता आगे के वर्षों में भी बनी रही।
अगस्त, 1955
में व्यावहारिक आलोचना संबंधी दो लेख प्रकाशित हुए -'प्रोदेशिक साहित्यों में
भक्तिधारा' (परशुराम चतुर्वेदी) 'अभिज्ञानशाकुंतलम् में दृष्टि का महत्त्व'
(चंद्रबली पांडेय)। परशुराम चतुर्वेदी ने अपने लेख प्रादेशिक साहित्य में
भक्तिधारा) में रामायण, महाभारत एवं भागवत से होते हुए विभिन्न भक्ति आंदोलनों की
विस्तार से चर्चा की है। इसमें उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि इन
प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य में पाई जाने वाली भक्ति परंपरा की प्रवृत्ति का
इतिहास स्वयं उनके ही गौरव के भी विकास एवं ह्रास का इतिहास है। अत: यह कहा जा
सकता है कि परशुराम चतुर्वेदी ने पूरे भक्ति साहित्य को जिस दृष्टि से देखने कोशिश
की है। निश्चित रूप से यह अन्य आलोचकों से अलग है।
सितंबर,1955 में भी व्यावहारिक लेखों की बहुलता रही है। 'हिंदी
और मराठी निर्गुण संत-काव्य के चिंतन में अंतर और उसके कारण', प्रभाकर माचवे का यह लेख इस वर्ष के
चर्चित लेखों में से एक रहा। इसमें माचवे ने दोनों साहित्य में निर्गुण संत कवियों
के वैचारिकी का तुलनात्मक अध्ययन किया है। इस दृष्टि से यह लेख अन्य लेखों से
अलग एवं महत्त्वपूर्ण है।
इसके अतिरिक्त इस अंक में दो और ऐसे और भी लेख प्रकाशित हुए हैं
जिन्हें हम व्यावहारिक लेखों की कोटि में रख सकते हैं- 'प्राकृत पैंगलम की भाषा
में प्राचीन ब्रज के तत्त्व' (शिवप्रसाद सिंह), 'संस्कृत साहित्य में उपबृंहणात्मक
प्रवृत्ति तथा उसके फल' (रामशंकर भट्टाचार्य) आदि। अप्रैल, 1955 में भी 'कल्पना' में ये लेख
प्रमुखता से आए। इस अंक में 'प्रसाद के नाटकों में वस्तु-योजना' शीर्षक से बच्चन
सिंह का लेख काफी चर्चित रहा। इसमें उन्होंने प्रसाद के नाटकों के वस्तु-विन्यास
संबंधी त्रुटियों का उल्लेख करते हुए उनके नाटकों की अन्य विशेषताओं पर भी प्रकाश
डाला है साथ ही यह भी बताने की कोशिश की है कि नाटकों में वस्तु-विन्यास किस
प्रकार के होने चाहिए। नाटकों में वस्तु-योजना के प्रयोग के संदर्भ की चर्चा करते
हुए उन्होंने लिखा है- ''वस्तु-योजना नाटक का वाह्य ढाँचा अथवा यांत्रिक विधान
नहीं है। यह नाटक की संपूर्ण बौद्धिक प्रक्रिया का अविच्छेदय अंग है। इसके द्वारा
नाटक की सारी घटनाओं, क्रिया व्यापारों नाटकीय स्थितियों (Dramatic Situations) को इस प्रकार नियोजित करना पड़ता है
कि उसकी प्रतिभान्विति में किसी प्रकार का विक्षेप न पड़े। नाटक के चरित्रों का
वस्तु-विन्यास से बड़ा ही घनिष्ठ संबंध है। एक ओर जहाँ पात्रों के क्रियात्मक
प्रतिघात से कथावस्तु गतिशील होती है, वहीं दूसरी ओर वस्तु जन्य स्थितियों (Situations) से पात्रों का चरित्र निर्मित होता
है। यदि इन स्थितियों को ध्यान में रखकर वस्तु-स्थिति को ठीक ढंग से नियोजित
नहीं किया जाएगा, तो नाटक बहुत कुछ शिथिल और बिखरा-बिखरा दीख पड़ेगा।''[7] इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बच्चन सिंह ने इस
लेख में नाटक के वस्तु-विन्यास के संदर्भ में जितनी गंभीरता से बताया है,
निश्चित रूप से वह काफी महत्त्वपूर्ण है।
वर्ष 1955 में कुछ अन्य भी ऐसे लेख प्रकाशित हुए हैं जिनकी
चर्चा हम व्यावहारिक लेखों के रूप में सकते हैं- 'आँसू' में रहस्य भ्रम'
(शिवप्रसाद, नवंबर, 1955), 'उपखाण गर्भित रचनाओं की परंपरा'(अगरचंद नाहटा, नवंबर,1955), 'दिनकर की कविता' (बालकृष्ण राव,
दिसंबर, 1955) आदि। शिव प्रताप का लेख ‘आँसू में रहस्य भ्रम' में प्रसाद के 'आँसू' के तरल अंचल
में कौन सा रहस्य सन्निहित है?, 'आँसू' की सजल भाषा में तन अथवा मन किस अवस्था
विशेष को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया गया है? इन सारे सवालों के जवाब को
आलोचकीय दृष्टि से देखने की कोशिश की गई है। निष्कर्ष के रूप में शिवप्रताप ने
दिखाया है कि प्रसाद का 'आँसू' वस्तुत:आँसू नहीं, यह आँसू सा प्रतीत होने वाला वह
मोती है जो परिश्रम पूर्वक सागर की गहराई से निकाला गया है। वह तरल नहीं, ठोस है।
उसमें वेदना की सजलता उतनी नहीं जितनी प्रतिभा की आत्मा है। एक प्रकार से कहें तो
अब तक प्रसाद के 'आँसू' के संदर्भ में जितनी भी समीक्षाएँ लिखी गई हैं, उससे यह
पूर्णत: भिन्न है। जितनी सरलता एवं संप्रेषणीयता के साथ शिव प्रताप के 'आँसू' की
समीक्षा हमारे समक्ष रखी है, इसे पढ़ने के बाद उनकी आलोचना दृष्टि को हम समझ सकते
हैं। दिसंबर, 1955
में प्रकाशित 'दिनकर की कविता' शीर्षक से बालकृष्ण राव की आलोचना अपने समय में
काफी चर्चित रही। इसमें उन्होंने मुख्य रूप से दिनकर के कुछ काव्य संग्रहों एवं
कविताओं (रेणुका, 'जनता और जवाहर', 'निराशावादी', 'नीम के पत्ते' 'नीलकुसुम' आदि)
को एक आलोचकीय नजरिए से देखने का प्रयास किया है। इसमें उन्होंने दिनकर के संदर्भ
में लिखा है- ''दिनकर भावना और कल्पना के कवि हैं, विचार और विमर्श के नहीं, शिल्प
उनके लिए साधन नहीं, व्यवधान है। वे प्रगतिवादी हैं, प्रयोगवादी नहीं। हाँ,
प्रगति का अर्थ जो साधारणतया साहित्य के क्षेत्र में लगाया जाने लगा है, उस अर्थ
में नहीं, केवल नवीनता की उपासना के अर्थ में, गतिशीलता के अर्थ में, स्थायित्व
के विरोध के अर्थ में, रूढ़िवादिता के प्रतिलोम के रूप में।''[8]
कुल मिलाकर इसमें वे दिनकर के काव्य की सबसे बड़ी शक्ति जनवादी प्रवृत्ति मानते
हैं साथ ही उन्हें जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित भी करते हैं। बालकृष्ण राव को
यदि हम एक आलोचक के रूप में देखें तो उनकी आलोचना दृष्टि काफी निष्पक्ष रही है।
व्यावहारिक लेखों एवं समीक्षा के प्रकाशन की दृष्टि से देखें तो
वर्ष 1956 में भी 'कल्पना' काफी समृद्ध रही है। पूरे वर्ष में कोई ऐसा अंक नहीं
है जिसमें व्यावहारिक लेख प्रकाशित न हुआ हो। उदाहरण के रूप में हम कुछ अंको के
प्रमुख लेखों को देख सकते हैं- 'आधुनिक तमिल कहानी' (उदयसूर्य, फरवरी, 1956),
'वेलि संज्ञक काव्यों की परंपरा' (अगरचंद नाहटा, अप्रैल, 1956), ‘चेखव की कहानियों में सामाजिक तत्त्व' (मन्मथनाथ गुप्त, 1956),
'मर्मस्पर्शी कविताएँ' (अजित कुमार, जून, 1956) आदि। इस वर्ष ऐसे कई- लेख आए
जिनकी चर्चा पत्रिकाओं में अब तक नहीं हुई थी।
सितंबर,1956 में प्रकाशित मधुसूदन चतुर्वेदी के लेख 'प्रसाद की
प्रारंभिक कविताएँ' अपने दौर के काफी चर्चित लेखों में से एक रहा। इसमें उन्होंने
प्रसाद की ब्रजभाषा में लिखी गई कविताओं को प्रमुखता दी है। इसके अतिरिक्त इस
वर्ष ऐसे कई और भी लेखों का प्रकाशन 'कल्पना' में हुआ जिन्हें हम महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक आलोचना की श्रेणी
में रख सकते हैं। वे प्रमुख हैं- 'राधा-माधो लीला विलास' (अगरचंद नाहटा, नवंबर,
1956), 'प्रेमचंद: पत्रों के प्रकाश में (आनंदनारायण शर्मा, दिसंबर, 1956) आदि।
वर्ष 1957 में भी व्यावहारिक लेखों की बहुलता रही है। इस वर्ष
'कल्पना' में प्रकाशित कुछ महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक लेख निम्न हैं- 'डेफोडिल के
फूल' (देवीशंकर अवस्थी, जनवरी, 1957) 'वैष्णव कवि गिरधर दास' (डॉ. शिवगोपाल
मिश्र, मार्च, 1957), 'अत्याधुनिक बँगला कविता का सुर' (मन्मथनाथ गुप्त, मई 1957),
'साहित्यिक पंरपरा और हिंदी की कुछ नई प्रवृत्तियाँ' (सुरेंद्र बालूपरी, जून,
1957), 'एक आस्थगित समीक्षा : पद्यनाट्य अंधायुग' (सुरेश अवस्थी, दिसंबर, 1957)
आदि। इसके अलावा वर्ष 1957 में ऐसे और भी कई लेख प्रकाशित हुए जो काफी
महत्त्वपूर्ण एवं चर्चित रहे हैं। शिवचंद्र प्रताप का लेख 'एक उड़िया कवि की हिंदी
सेवा' शीर्षक से मार्च 1957 के अंक में 'कल्पना' में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने
ब्रजनाथ बड़जेना के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व की संक्षेप में चर्चा करते हुए उनका
हिंदी में क्या योगदान रहा है, पर विस्तार से चर्चा की है। दुर्गाशंकर मिश्र का
लेख 'भारतीय भक्ति साधना में तमिल संतो का योग' शीर्षक से 'कल्पना' के दो-तीन
अंकों में अंशत: प्रकाशित हुआ। तमिल साहित्य संत-परंपरा किस प्रकार की रही है एवं
उनका क्या सामाजिक योगदान रहा आदि को इस लेख में दुर्गाशंकर मिश्र ने आलोचकीय
दृष्टि से देखने की कोशिश की है। जुलाई, 1957 में प्रकाशित राजेंद्र यादव का लेख 'अमृतलाल नागर के
उपन्यास', आलोचना की दृष्टि से काफी चर्चित रहा है। इसमें उन्होंने नागर के उपन्यासों
की चर्चा करते हुए उनके उपन्यासों में मध्यवर्ग की क्या स्थिति रही है, पर विस्तार
से चर्चा की है। नवंबर 1957 में 'टेनेसी विलियम्स के नाटक' पर रामस्वरूप
चतुर्वेदी की समीक्षा को 'कल्पना' ने प्रमुख स्थान दिया है। इसमें वे टेनेसी
विलियंस के नाटकों की चर्चा करते हुए लिखते हैं- ''टेनेसी विलियम्स की
नाटय-कृतियों में जो तीखापन है, वह आस्वाद्य नहीं है, वह केवल अनुभवगम्य है।''[9]
रामस्वरूप चतुर्वेदी का यह लेख न सिर्फ टेनेसी विलियंस को समझने
में बल्कि अमेरिका की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक पहुलओं को जानने की दृष्टि से
काफी मुकम्मल रहा है । दिसंबर,1957 में प्रकाशित 'अंधायुग' के संदर्भ में सुरेश अवस्थी
के लेख को 'कल्पना' ने काफी प्रमुखता दी। इस लेख में अवस्थी ने ‘अंधायुग’ की कथा-शैली, रंग-विधान रंगमंच एवं
इसकी वस्तु योजना पर विस्तार से चर्चा की है। एक प्रकार से देखें तो वर्ष 1957, व्यावहारिक लेखों की दृष्टि से काफी
समृद्ध रहा है।
वर्ष 1958 में भी व्यावहारिक लेखों की यही निरंतरता बनी रही। इस
वर्ष भी ऐसे कई महत्त्वपूर्ण लेखों को प्रकाशन हुआ जिनकी चर्चा इस क्रम में की जा सकती है - 'स्वतंत्रता
के बाद का हिंदी गद्य साहित्य' (धर्मवीर भारती, वर्ष, 1958) 'स्पेनी साहित्य के
आंतरिक संघर्ष' (आटुरो बारी, मार्च,1958), ‘स्पेनी अमेरीकी साहित्य’ (एनरीक एडरसन इम्बर्ट, अप्रैल, 1958),
'आचंलिक उपन्यास : ग्रामीण मध्यवर्ग' (हीरा प्रसाद त्रिपाठी, मई 1958) आदि।
फरवरी, 1958
में 'उपन्यास के मौलिक आग्रह पर परती:परिकथा' शीर्षक से प्रकाशित श्रीपत राय का
लेख आलोचना की दृष्टि से अपने समय का काफी चर्चित एवं महत्त्वपूर्ण लेखों में से
एक था। इसमें उन्होंने इस उपन्यास को, उपन्यास के मानदण्डों या कसौटी पर परखते हुए एक असफल
रचना बताया। इस संदर्भ में श्रीपत राय ने लिखा है- ''प्रारंभ में ही मैं स्वीकार
करता हूँ कि इस उपन्यास को मैं एक असफल रचना मानता हूँ। उपन्यास के स्वीकृत
मानदण्डों पर यह खरा नहीं उतरता- मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि गद्य लेखन की
दृष्टि से भी यह बहुत ही निम्न कोटि का है। इतने विशाल वर्णन-समूह में ऐसा नहीं
प्रतीत होता कि कहीं कोई चालक मस्तिष्क भी है।''[10]
इस प्रकार हम देखते हैं कि 'कल्पना' ने इस लेख को न सिर्फ एक समीक्षा की दृष्टि
प्रकाशित किया बल्कि इसे एक निष्पक्ष आलोचना एवं आलोचक की दृष्टि से भी काफी
महत्त्व दिया प्रदान किया।
वर्ष 1959 में भी 'कल्पना'
में इन लेखों का बाहुल्य रहा है। जनवरी, 1959 में प्रकाशित रवींद्र भ्रमर के लेख 'भारतीय
कथा-साहित्य में 'सिंहलद्वीप' को 'कल्पना' ने प्रमुखता से प्रकाशित किया। इसमें
उन्होंने उस दौर के भारतीय कथा-साहित्य में 'सिहलद्वीप' की चर्चा किस प्रकार हुई
है एवं यह किन-किन अर्थों में लिया गया, पर विस्तृत चर्चा की है। 'कल्पना'
पत्रिका की यह प्रमुख विशेषता रही है कि उसने अपने समय के उन लेखों को अधिक
महत्त्व दिया जो अब तक एवं उस दौर की पत्रिकाओं से अछूते रहे हैं। एक प्रकार से
कहें तो यह पत्रिका भारतीय साहित्य का समागम स्थल है। इसने विदेशी रचनाकारों को भी उतना ही महत्व
दिया जितना कि भारतीय रचनाकारों को। इस वर्ष भी कई ऐसे महत्त्वपूर्ण आलोचक एवं
आलोचनाएँ सामने आई हैं जो अपने समय के चर्चित एवं महत्त्वपूर्ण लेखों में से एक
थी- 'परती परिकथा की ताजमनी' (राजेन्द्र यादव, मार्च, 1959), 'पुर्तगाली साहित्य :
आलोचना और कविता’ (अडोल्फो साइस मान्टोरो, अप्रैल, 1959), 'कामायनी में प्रतीकात्मकता' (भागीरथ
मिश्र, मई, 1959), ‘नायकों की शारीरिक हीन-भावना’ (डॉ रघुवंश,जून, 1959) आदि। इन लेखों में भागीरथ
मिश्र का लेख 'कामायनी में प्रतीकात्मकता’ काफी चर्चित रहा। इसमें उन्होंने
'कामायनी' का दार्शनिक अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से विश्लेषण करने का प्रयास किया
है। निष्कर्षत: उन्होंने स्पष्ट किया है कि आज यदि 'कामायनी' का महत्त्व
'पद्मावत' की तरह है तो इसका कारण प्रतीकात्मकता ही है। 'कल्पना' में व्यावहारिक
आलोचना के कई रूपों का प्रयोग हुआ है। जैसे- परिचायात्मक, व्याख्यात्मक,
ऐतिहासिक, तुलनात्मक शोधमूलक, व्यंग्यात्मक, भाषात्मक आदि।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हिंदी आलोचना के विकास में 'कल्पना'
का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। ‘कल्पना’ का उद्भव ही भारतीय संस्कृति और साहित्य के साथ-साथ
हिंदी भाषा के विकास एवं आंदोलन के रूप में हुआ है। कल्पना पत्रिका की यह विशेषता
रही है कि उसमें आद्यांत सभी विधाओं का समान रूप से समावेश रहा है। इस पत्रिका की
यह विशेषता रही है कि इसने हमेशा रचना की उत्कृष्टता को ही महत्त्व दिया। हिंदी
पत्रिकाओं के वर्तमान परिदृश्य को देखें तो आज आलोचना के नाम पर केवल गढ़ी गढ़ाई
पूर्वाग्रहग्रस्त सामग्री परोसी जा रही है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो कमोवेश
स्थिति यही है कि पुस्तक आने से पूर्व ही लेखक द्वारा यह खुद ही तय कर लिया जाता
है कि इसकी समीक्षा कौन लिखेगा, उसके मानदंड क्या होंगे। कुल मिलाकर देखें तो यह स्पष्ट
है कि आज की आलोचना कोई ऐसा मानदंड निर्धारित नहीं कर पा रही है जिससे हम उसे
पूर्ववर्ती आलोचना के समक्ष तुलनात्मक रूप से प्रस्तुत कर सकें। निस्संदेह उसमें
गिरावट आई है। उक्त संदर्भों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कल्पना पत्रिका ने
अपने समय में आलोचना का जो निकष बनाया, वह एक मिसाल है। आलोचना के इतिहास को समझने के लिए कल्पना
पत्रिका को छोड़कर आलोचना के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष को नहीं समझा जा सकता।
संदर्भ :
[1] सिंह, योगेंद्र प्रताप. (2008). हिंदी आलोचना इतिहास और सिद्धांत. पृ. 22
[2] कल्पना पत्रिका. (अगस्त, 1949). पृ.56
[3] कल्पना. (अप्रैल, 1950). पृ. -85-86
[4] कल्पना. (मई, 1952). पृ.-365
[5] कल्पना. (जून, 1952). पृ.-441
[6] कल्पना. (मई, 1955). पृ.- 22
[7] कल्पना. (अक्टूबर, 1955). पृ.- 42
[8] कल्पना. (दिसंबर, 1955). पृ.-79
[9] कल्पना. (नवंबर, 1957). पृ.90
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय, गंगटोक
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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