आलेख : लोक रंग और भूमंडलीकरण की किस्सागोई (मेरी प्रिय कथाएं- स्वयं प्रकाश) / डॉ. गजेन्द्र मीणा

लोक रंग और भूमंडलीकरण की किस्सागोई

(स्वयं प्रकाश जी की कृति 'मेरी प्रिय कथाएं')

-डॉगजेन्द्र मीणा


समकालीन हिन्दी कहानीकार के रूप में स्वयं प्रकाश का विशिष्ट स्थान है| विषय वैविध्यता के साथ उन्होंने करीब चालीस वर्षों तक लगातार कहानियां लिखी| लोक संवेदना, मिथक-पौराणिक सन्दर्भ, विभाजन, साम्प्रदायिकता, निम्नवर्ग, मध्यवर्ग, गाँव, शहर,  भूमंडलीकरण, स्त्री, दलित, आदिवासी आदि विषयों पर इनकी चर्चित कहानियां हैं| स्वयं प्रकाश को जनवादी कहानीकार माना जाता रहा है| कहानियों की विषय वैविध्यता औरव्यापकता को देखते हुए कहा जा सकता है कि वह किसी खास तरह की वैचारिकी के सीमाबद्ध कहानीकार नहीं हैं| उनकी कहानियों में सभी तरह के विचार और सन्दर्भों को देखा जा सकता है| आमजन की पक्षधरता इनकी कहानियों में प्रमुख विशेषता है| स्वयं प्रकाश के कहानी लिखने-कहने के कई ढंग मिलेंगे| उनकी कहानियों में  हमें लोक और किस्सागोई के साथ आधुनिक रंग-ढंग भी देखने को मिलते हैं| राजेश जोशी के शब्दों मेंस्वयं प्रकाश की कहानी में एक प्रच्छन्न किस्म की किस्सागोई भी है| इस किस्सागोई के कई कई रंग हैं| इसमें लोक का रंग भी है और आधुनिक कहानी का भी|”1 स्वयं प्रकाश ने कई कहानियां लोककथात्मक शैली में लिखी हैं| स्वयं प्रकाश लोक रंग के ही कहानीकार हैं, ऐसा नहीं है| उनकी कहानियों में लोक रंग के साथ आधुनिक ढंग की कहानी की विशिष्टाएँ भी देखने को मिलती हैंस्वयं प्रकाश के सूक्ष्म निरीक्षण और कहने के ढंग के सम्बन्ध में नामवर सिंह कहते हैं- “जिन्दगी को देखने की एक पैनी नजर और उसके साथ ही कहानी कहने का अंदाज, जिसको कहते हैं कि गम की कहानी मजे ले ले के कहना, तो वो कहानी कहने में रस लेते हैं|”2

स्वयं प्रकाश कामेरी प्रिय कथाएं3 संग्रह सन् 2012 में प्रकाशित हुआ| ये कहानियां उनके पूर्व के  कहानी संग्रहों और लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित चुकी थी| रचनाकार द्वारा स्वयं की लिखी सभी कहानियां प्राय: उसे प्रिय ही होती हैं, लेकिन उसमें चयन करके रचनाकार स्वयं अपनी प्रिय कहानियां बताता है तो निश्चित ही ये कहानियां विशेष और विचारणीय हैं| इस कहानी संग्रह की भूमिका में स्वयं प्रकाश लिखते हैं कि यह प्रयास लोककथाओं के निर्माण की दिशा में कोशिश है| इस ओर महत्त्वपूर्ण कार्य विजयदान देथा ने किया है और स्वयंप्रकाश के इस संग्रह की कुछ कहानियों को पढ़ते हुए हमें सहज ही विजयदान देथा कीबातां री फुलवारीकी स्मृति होती हैं| स्वयं प्रकाश के प्रिय कथाओं में क्रमशः जंगल का दाह, कानदांव, उज्ज्वल भविष्य, प्रतीक्षा, बिछुड़ने से पहले, गौरी का गुस्सा, मंजू फालतू, नाचनेवाली कहानी, हत्या-1, हत्या-2, बाबूलाल तेली की नाक और बलि नाम से कुल बारह कहानियां हैं| अधिकांश कहानियां लोक के बहुत करीब हैं| पढने के दौरान लोक कथ्य और शैली का आभास दिलाती हैं| साथ ही यह कहानियां आधुनिक-समसामयिक सन्दर्भों पर टिप्पणी भी करती हैं|

लोक कथात्मक अंदाज में लिखी कहानियों में जंगल का दाह, कानदांव, गौरी का गुस्सा, बिछुड़ने से पहले, नाचनेवाली कहानी का नाम लिया जा सकता है| इन कहानियों को पढने के दौरान लोक कथ्य और शैली का प्रत्यक्ष-परोक्ष आभास होता रहता है| लोक सामान्य मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है| स्पष्ट यथार्थ हो ही, जरूरी नहीं है| लोक में मिथकीय, रोमानी और हैरतअंगेज कारनामें हो सकते हैं| कानदांव कहानी के  मामा सोन के धनुर्विद्या के सम्बन्ध में कहा जाता है किकुछ ही वर्षों में उनके शिष्य इतने पटु हो जाते कि एक-एक तीर से चार-चार चिड़ियाँ गिरा लेते........ सुना है मामा सोन को ऐसे तीर बनाना भी आता था जो लक्ष्य भेदकर वापस कमान में जाता था|” (पृ.सं.11) तर्क और यथार्थ की कसौटी पर इसे भले ही विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता है लेकिन यह लोक में हो सकता है| लोक में एक बेहतरीन धनुर्धर के सम्बन्ध में उसके हुनर के किस्से बनते-जुड़ते चले जाते हैं| गौरी का गुस्सा  कहानी के रतनलाल को पार्वती द्वारा दी सुविधाएँ भी लोक में ही हो सकती हैं| लोक शैली में लिखी इस कहानी में स्वयं प्रकाश ने शिव-पार्वती के मिथक का सहारा लिया है| मिथक, मिथक होते हैं, यथार्थ नहीं, लेकिन एक मिथकीय यथार्थ भी होता है| एक दिन आकाश मार्ग से विचरण करती पार्वती रतनलाल को दु:खी देख कर कहती है कि ‘’बेटा क्या चाहिए?’’  रतनलाल को सारी सुख-सुविधाएं पार्वती देती हैं| रतनलाल को सुविधाएं मिलने के बावजूद अशांत होकर बार-बार  पार्वती को याद करता है और पार्वती हर बार आकर रतनलाल को बेहतर सुविधाएँ देती है| कोई रतनलाल पार्वती को याद करे और वह आकर दु:खी-विपन्न व्यक्ति को पलभर में सुख-सम्पन्नता की दुनिया में पहुंचा दे| ईश्वरीय और जादुई शक्ति से विपन्न के सम्पन्न हो जाने के किस्से-कहानियां लोक में खूब हैं| पाठक को पता हैं कि ऐसा हो नहीं सकता है, लेकिन पाठक लोक कहानी की दुनिया में पहुँच जाता है और इसे लोक यथार्थ मान लेता है|

लोक कहानियां सुनने-सुनाने के लिए होती है| स्वयं प्रकाश की कानदांव  उसी अंदाज में लिखी गई है- “कि एक था बनिया और एक था पठान| दोनों का साथ ऐसा जैसे घी-शक्कर, पर किसी बात पर हो गई दोनों में अनबन और अनबन भी ऐसी की मुँह पर तो मीठे-मीठे लेकिन अन्दर-अन्दर एक-दूसरे की खाल खींचने को उतावले|” (पृ.सं.21) लोक के तनावों-लड़ाईयों का फैसला पंचायत करती है| यहाँ पठान चालाकी से  फैसला पंचायत में कुश्ती से तय करवाता है| कुश्ती के दौरान बनिया पठान को एक हज़ार अशर्फियां देने और सारी ज़मीन छोड़ने का लालच देकर फिक्सिंग से कुश्ती जीत लेता है| लोक में दिए जाने वाले छोटे-छोटे प्रलोभन-चालाकियां कानदांव में देखी जा सकती हैं| कहानीकार कहता है किमित्रो! यह इतिहास की पहली मैच फिक्सिंग थीं| मैच फिक्सिंग को हिंदी में कानदांव कहते हैं |.......कोई ढाई सौ साल बाद 1947 में जाकर यह हुआ कि एक तरफ बैठे गाँधी-नेहरू और जिन्ना| और दूसरी तरफ बैठे लॉर्ड माउन्टबेटन| लाट साहब ने पूछा, ‘ये आपका आखिरी जवाब है? कॉन्फिडेंट? लॉक कर दें इसे?’ और देखिए मजा सब एक-सा बोल उठे- यस्स!” (पृ.सं.27) कहानीकार इस कानदांव को इतिहास की पहली मैच फिक्सिंग बताता है| सैंकड़ों वर्षों पहले से लोक में चल रही यह छोटी-मोटी और व्यक्तिगत फिक्सिंग थी| जिसके परिणाम छोटे और सीमित थे| कालांतर में फिक्सिंग बड़े पैमाने पर होने लगी और उसके परिणाम भी गंभीर आने लगे| सन् 1947 में भारत विभाजन के मैच फिक्सिंग से हिन्दू-मुस्लिम में पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसी नफ़रत पनपी जिसका कभी अंत नहीं हुआ| सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मुद्दों से लेकर खेल तक में मैच फिक्सिंग का सिलसिला ही शुरू हो जाता है|

लोक की यथार्थवादी अभिव्यक्तियाँ स्वयं प्रकाश की कहानियों में देखी जा सकती हैं| लोक किस्सा-सी कहानी बिछुड़ने से पहले  में हमारे लोक के प्रतीक पगडण्डी और खेत की बातचीत से रूपक बनता है| विकास के लिए  खेत से पेड़ कट जाने हैं, वहां बड़ी सड़क बननी है, दुकानें बननी हैं, विकास की संस्कृति बननी हैं| इस विकास में खेत-पगडण्डी का वहां से अस्तित्व-अस्मिता खत्म हो जाना है| विकास का बड़ा खामियाजा लोक को भुगतना पड़ जाता है| लोक पृष्ठभूमि की महत्ता को नाचने वाली कहानी  में देखा जा सकता  है| देश के गुप्तचर विभाग में कार्य करने वाले व्यक्ति को लोक की जानकारी नहीं है| लोक ज्ञान और समझ होना कितना जरूरी है? यह इस कहानी से समझा जा सकता है| स्थानों के नाम कहीं-कहीं ऐसे भी होते हैं जिसे जानने पर सुनने वाला व्यक्ति अन्य अर्थ ग्रहण कर लेता है और उसकी वजह से परेशानी में पड़ सकता है| राजधानी से आए गुप्तचर को बताने वाले सभी समझते हैं कि नाचने के बारे में यह व्यक्ति जानता होगा, लेकिन वह नहीं जानता है| कितने ही बड़े गुप्तचर क्यों हो? लोक की बिना जानकारी के काम नहीं चल सकता|

भूमंडलीकरण ने सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया है| स्वयं प्रकाश की कहानियां भूमंडलीकरण के नकारात्मक प्रभावों पर संवाद करती हैं| कहानियों में लोक पर पूंजीवादी-बाजारीकरण के हमलों को देखा जा सकता हैकानदांव कहानी के मामा सोन  को आचार्य शोण बना दिया जाता है| “राजा ने यह भी आज्ञा प्रसारित कर दी कि अब से आचार्य शोण केवल राजकुमारों को धनुर्विद्या सिखाएंगे| पड़ोसी राज्यों को सूचना भिजवा दी गई कि अगली वसंत ऋतु से हमारे यहाँ धनुर्विद्या प्रशिक्षण की उत्तम व्यवस्था आरम्भ हो रही है| यदि आप चाहें तो इतना कर इतना दान हमारे राजकोष में जमा करवाकर अपने राजकुमारों को इतनी अवधि के लिए आचार्य शोण के आश्रम में भेज सकते हैं|” (पृ.सं.14) मामा सोन कोई आधुनिक तरह का पेशेवर कोच नहीं था कि वह धन कमाने के लिए प्रशिक्षण दे रहा हो| कथा का समय-परिवेश राजा-महाराजाओं का भले ही है लेकिन कहानी हाल के बाजारवादी दुष्प्रभाव को रेखांकित करती है| सत्ता सम्पन्न लोग किसी का बाजारीकरण कर सकते हैं| भूमंडलीकरण ने उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया है| बिना कुछ किए सुविधाओं के उपभोग कर लेने की मानसिकता हम गौरी का गुस्सा  के रतनलाल अशांत में देख सकते हैं| वह सिर्फ व्यक्तिगत उपभोग तक ही सीमित है और अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं मानता| इस कहानी का मूल्यांकन करते हुए कथाकार संजीव लिखते हैं- “यह कहानी बाजारवाद-उपभोक्तावाद की हड़बोंग में वैसी हर प्रगति या विकास का निषेध करती है जो एक व्यक्ति तक सीमित हो और जबकि बाकी समाज उसी नरक में वास कर रहा हो|”4  ऐसे रतनलालों में उपभोग करने की ऐसी मानसिकता बन गई है कि इन्हें दुनिया भर की सुख-सुविधाएँ-धन-सम्पदा मिल भी जाए फिर भी उपभोग की प्रवृत्ति शांत नहीं होनी है|

युवाओं के लिए रोजगार बड़ी चुनौती है| रोजगार की तलाश के प्रश्न उज्ज्वल भविष्य, प्रतीक्षा और मंजू फालतू कहानी में चित्रित हुए हैं| उज्ज्वल भविष्य  का नौजवान लड़का अच्छी शैक्षिक योग्यताओं के साथ ईमानदार और काबिल है| उसे मित्तल कहता है- “कौन है ईमानदार इस देश में? पॉलीटीशियंस? नौकरशाही? न्यायपालिका? पत्रकार? कलाकार? सामाजिक कार्यकर्ता? सामाजिक संस्थाएं? कौन है ईमानदार? किसे जरूरत है आपकी ईमानदारी की?” (पृ.सं. 34) मित्तल का आशय है कि शायद कोई नहीं है| मित्तल लड़के को नौकरी तो नहीं देता लेकिन जिस निष्कर्ष पर उसे ले जाता है, वह है- “मैं बेईमान बनूँगा! बहुत बड़ा बेईमान! आप देखिएगा सर!” (पृ.सं.35) नौकरी देने वाला ही कन्विंस कर ले कि योग्यताओं, मूल्यों और नैतिकताओं का कोई अर्थ नहीं है| पूंजीवादी व्यवस्था मूल्यों का हनन करती है| मित्तल साहब जैसे पूंजीपतियों को ईमानदार लोगों की ज़रूरत नहीं है| पूंजीवादी व्यवस्था ऐसे नवयुवकों को नौकरी देना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना समझती है| यदि योग्य, मेहनती और ईमानदार व्यक्ति बेईमानी का रास्ता चुन ले तो वह ज़्यादा खतरनाक होता है| किसी भी कीमत पर नौजवान लड़का अपना व्यक्तिगत तथाकथित उज्ज्वल भविष्य बना लेगा, लेकिन किस कीमत पर? यह विचारणीय है| प्रतीक्षा  कहानी में थोडा अलग कथ्य, भाषा और संवादों का खिलंदड़पन देखने को मिलता है| अब कहानी सुनो.....असली कहानी इसके बाद ही शुरू होती है.... अब दोस्तों देखिए कहानी कैसे शुरू होती है... कहते-कहते स्वयं प्रकाश लम्बी कहानी कह-सुना जाते हैं| कहानी में कई छोटी प्रतीक्षाएँ हैं, लेकिन मुख्य रूप से कथानायकमैंको रोजगार की प्रतीक्षा है, बेहतर भविष्य की प्रतीक्षा है| कथानायक ने रोजगार दफ्तर में नाम लिखा दिया था और नियम से सार्वजनिक वाचनालय जाकर रिक्तियों के कॉलम छांटता था| दिक्कत यह थी कि पैसों के लिए नौकरी की जरूरत थी और नौकरी के लिए पैसों की|” (पृ.सं.37) गरीबी के चलते कथानायक के पास आवेदन करने के लिए रूपये नहीं हैं| रोजगार होने की वजह से वह अपनी प्रेमिका मीरा गुप्ता को खुलकर प्रेम बता-जता नहीं पाता हैं| मीरा गुप्ता कुछ प्रयास करती भी है लेकिन कथानायक में बेरोजगारी के मार से इतनी हिम्मत नहीं बची कि उसे आगे बढाए|

स्वयं प्रकाश विमर्शवादी कहानीकार के रूप में नहीं जाने जाते हैं, लेकिन उनकी कहानियों में विमर्श के भी पर्याप्त सन्दर्भ देखे जा सकते हैं| स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श के समसामयिक प्रश्न इनकी कहानियों में चित्रित हुए हैं| मंजू फालतू और बलि  कहानी को स्त्री विमर्श के नजरिये से देखा जा सकता है| स्त्री पर केन्द्रित मंजू फालतू  कहानी स्त्री की नियति और भूमंडलीकरण के प्रभावों को रेखांकित करती है| मंजू धूपिया और नितिन रस्तोगी एक साथ नौकरी करते हुए प्रेम करते है, शादी करते हैं| वो दोनोंएक ऐसा घर बना रहे हैं जहाँ पति-पत्नी दोनों काम करते हैं, दोनों कमाते हैं और हर जिम्मेदारी को बराबरी से शेयर करते हैं| दोनों बराबरी के हकदार होते है|” (पृ.सं.81-82) सब अच्छा चल रहा है| मंजू गर्भवती होती है| एक बच्ची को जन्म देती है| उसकी नौकरी छूटती है| फिर दूसरी बच्ची को जन्म देती है| इस तरह घर की जिम्मेदारियों में कुछ वर्षों उलझ कर रह जाती है| अपनी अलग पहचान रखने वाली मंजू धूपिया कब मंजू रस्तोगी बनी और कब मंजू फालतू हो गई, इसका पता मंजू को बहुत बाद में चलता हैं| मंजू के हाथ में कुछ नहीं है| वह परिवार के लिए बहती चली जाती है| किसी को कुछ भी गलत नज़र नहीं आता है| लेकिन जब बहाव कुछ कम होता है तब वह हिम्मत दिखाती है और पूरजोर प्रयास करती है कि कहीं उसे नौकरी मिल जाए| अपने समय की तेज-तर्रार, प्रगतिशील, आधुनिक और सूचना-तकनीक में दक्ष मंजू कुछ ही वर्षों में आउट ऑफ़ डेट हो जाती है| जल्दी-जल्दी बदलती प्रौद्योगिकी ने मंजू को रोजगार की दौड़ से बाहर ही कर दियाप्रौद्योगिकी कुछ ही महीनों में अपग्रेड और बदलती रहती है| इस नए बदलाव से और अधिक उपभोक्ताओं को आकर्षित किया जा सकता है| प्रौद्योगिकी में एक बार पिछड़ गए तो फिर समझो पिछड़ ही गए, व्यक्ति का महत्त्व तभी तक है जब तक है कि बदलती प्रौद्योगिकी के वह कदम से कदम मिला सके| मंजू की अपने समय की स्मार्टनेस कुछ ही वर्षों बाद में पिछड़ी मानी जाने लगती है| घर-परिवार को सँभालते-सँभालते कब वह पिछड़ गई, उसे पता ही नहीं चला| ऐसा लगता है मानो मंजू का फालतू बन जाना उसकी नियति हो| एक सामान्य घरेलू स्त्री के रूप में भी वह अपने को नहीं पाती है| अब उसकी उपयोगिता घर में, बाहर रह गई सी मालूम होती है|

स्वयं प्रकाश जब उड़ीसा में रहे तब बलि  कहानी लिखी| कहानी को पढ़ते हुए पाठकों की संवेदनाएं लड़की के साथ जुड़ जाती हैं| कहानी में जो परिस्थितियां निर्मित हुई हैं, वह वह यथार्थ लगती हैं| यह कहानी वास्तविक घटना पर लिखी प्रतीत होती है| कहानी में कई सवाल-सन्दर्भ उभरते हैं| आदिवासी जब तक प्राकृतिक संसाधनों के निकट रहे तब तक उनकी आवश्यकताएं वहीं से पूरी जाती थी| उन्हें कहीं बाहर काम-मजदूरी की कोई ख़ास जरूरत नहीं पड़ती थी, लेकिन जब आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी तरह की परिस्थितियों ने प्रवेश किया तो उनके सामने संकट पैदा हो गया| लडकी के गाँव में भी खनन शुरू होने से पहले सामान्य जीवन चल रहा था| उस क्षेत्र में खनन के लिए जमीन अधिग्रहित हुई| वहां आदिवासी मुआवजे के लिए चक्कर लगाते रह जाते हैं| बाहरी लोगों के लिए वहां पर्याप्त रोजगार हैं परन्तु वहां के लोगों को ठीक से रोजगार नहीं मिल पाता है| आय के कोई साधन होने से उनका पेट भरना मुश्किल हो जाता है| इतनी छोटी लड़की को नौकरानी के रूप में काम पर भेजना लडकी और उसके परिवार की मज़बूरी है| मज़बूरी में लड़की के काम करने के बावजूद ख़ुशी-ख़ुशी वह समय और परिस्थिति के अनुसार खुद को इम्प्रूव करती है| जैसी परिस्थिति बनती है उसी के अनुकूल हो जाती है| मालिक के परिवार के साथ रहते हुए मध्यवर्गीय समाज के सारे तौर-तरीके सीखती है और लडकी बड़ी होने के साथ मध्यवर्गीय संस्कार और जीवन शैली की अभ्यस्त हो जाती है| वह दिन भी आता है जब उसे अपने घर-गाँव भेज दिया जाता है| लगभग बचपन से मध्यवर्गीय परिवेश में पली-बढ़ी लड़की अपने समुदाय-गाँव की जीवनशैली से तालमेल बैठाना आसान नहीं है| गाँव और वह परिवेश लड़की को अपना नहीं लगता है| गाँव के लोगों को भी लड़की अपने बीच की नहीं लगती है| वह कुछ सोच पाती इससे पहले उसकी शादी एक शराबी-निकम्मे किस्म के लड़के से करवा दी जाती है| वह लड़की को रोज प्रताड़ित करता है| पति के मारपीट-अत्याचारों और लांछन से परेशान होकर सालभर बाद ही आत्महत्या कर लेती है| उसका नौकरानी के रूप में काम करने के दौरान जो जीवन जिया वही उसकी आत्महत्या का कारण बन जाता है| लड़की उसी परिवेश में रही होती तो वह आत्महत्या से बच जाती| यह आत्महत्या नहीं हत्या है और यह हत्या बलि में तब्दील हो जाती है| लड़की की बलि, कहानी में कई बार होती है| “आप यह भी कह सकते वह बलि पर चढ़ा दी गयी| एक बेहतर जीवन या फिर अँधेरे से मुक्ति की उसकी यात्रा अधूरी रह गयी| क्या उसे सपने देखने का हक़ नहीं था? क्या यह उसकी हेठी थी? क्या उसकी आजादी, उसका कायांतरण, उसकी उन्मुक्त हंसी, उसका खिलखिलाना उस बर्बर पुरूषत्व की अवमानना थी? तो क्या मामी की तरह आप भी उसे अपने जीवन से निकाल देंगे? यह कहानी स्त्री अस्मिता के बंद झरोखे खोलती है और कुछ देर के लिए ही सही हमें ठिठका जरूर देती है|”5

            आदिवासी विमर्श के नजरिये से जंगल का दाह  कहानी महत्त्वपूर्ण है| इस कहानी में आदिवासी जीवन दर्शन को देखा जा सकता है| आदिवासी जीवन की सहजता, सरलता और स्वाभाविकता इस कहानी में नजर आती है| प्रकृति के साथ उनके सहसंबंध की अभिव्यक्ति भी हुई है| मामा सोन कहते हैं- हमारी तो यह आजीविका है| हम तो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आखेट करते हैं| वह भी हमें एक दिन नहीं करना है इसलिए इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि किसको मारना है किसको नहीं मारना है| हमारे आखेट से पशुओं की संख्या कम नहीं होती...” (पृ.सं.15-16) जंगल वहां के आदिवासियों का आधार है लेकिन राजा द्वारा जंगल में शिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है| जंगल के जानवरों द्वारा राजा और उनके सैनिकों पर आक्रमण कर देना उनका सहअस्तित्व और सहजीविता है|

बाबूलाल तेली की नाक  कहानी को दलित विमर्श के आईने से देखा जा सकता है लेकिन स्वयं प्रकाश ने यह कहानी दलित विमर्श के दृष्टिकोण से लिखी है, ऐसा प्रतीत नहीं होता है| दलितों की बिना वजह मारपीट हो जाना कोई नई और ख़ास बात नहीं है| गुंडा भी जब घूंसा मारता है तो उसे नहीं पता है कि यह व्यक्ति दलित है| व्यक्ति के साथ जाति जुड़ी रहती है| व्यक्ति जाति और जातिवाद से चाहकर भी अलग नहीं हो पाता हैकथानायक के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है| तेली समाज के तथाकथित कार्यकर्ता घटना का विवाद बढ़ाते हुए जातिवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं| बाबूलाल तेली की नाक व्यक्तिगत रहकर पूरे तेली समाज की नाक बन जाती है और अन्तोत्गत्वा बाबूलाल तेली को अपनी नाक कटवानी पड़ती है| जातीय राजनीति से बाबूलाल तेली अलग नहीं हो पाता है| जो व्यक्ति चैन से बिना किसी जातिवादी राजनीति के रहना चाहता है, वह भी जाति का मोहरा बन जाता है| दलित सन्दर्भ के अतिरिक्त कहानी बाजारीकृत अस्पतालों पर व्यंग्य करती है| उनका आलिशान होटल की तरह का अस्पताल होना, वहां के काउन्टर स्टाफ होटल के रिसेप्निस्ट सा लगता है और डॉक्टरों का इधर के उधर भेजना, फिजूल की जाँच करवाना, यह सब बाबूलाल तेली से पैसे ऐंठने के प्रयोजन ही प्रतीत होते हैं| निजी अस्पताल में मरीजों के लिए सेवा भाव नहीं है| किसी पूंजीपति के द्वारा बनाया गया अस्पताल अधिक से अधिक रूपये कमाना चाहता है|

स्वयं प्रकाश की लोक शैली की कहानियां पढने में भी सुनाई देती हैं| जंगल का दाह, कानदांव, बिछुड़ने से पहले, गौरी का गुस्सा, नाचनेवाली कहानी, हत्या-1 लोक सदर्भों से युक्त कुछ ऐसी ही कहानियां हैं| कहानी पढने की विधा बन गई है जिसे स्वयं प्रकाश पुन: सुनाने की शैली की तरफ ले जाते हैं| इसके लिए वह लोक का सहारा लेते हैं| इन कहानियों से गुजरते हुए ऐसा लगता है असल लोक किस्से सुन-पढ़ रहे हैंसमसामयिक यथार्थ के साथ लोक कथात्मक-किस्सागोई इन कहानियों में बनी रहती है| ऐसी कहानियां हमें मौखिक-वाचिक परम्परा में देखने को मिलती है| उज्ज्वल भविष्य, गौरी का गुस्सा, प्रतीक्षा और मंजू फालतू  कहानियों के सन्दर्भ समसामयिक समस्याओं को इंगित करती हैं| रोजगार की समस्या प्रमुखता से उभरी है| उज्ज्वल भविष्य का लड़का रोजगार के लिए बेईमान हो जा रहा है, प्रतीक्षा के कथानायक को रोजगार का इंतजार है, गौरी का गुस्सा का रतनलाल रोजगार की तलाश में अशांत हो गया है, तो मंजू फालतू की मंजू को पुन: रोजगार मिलने के चलते फालतू महसूस होता है|  भूमंडलीकरण के लोक जीवन पड़े प्रभाव को ये कहानियां उद्धृत करती हैं| इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में भूमंडलीकरण के सन्दर्भ अंडरटोन के रूप में नजर आते हैं| स्वयं प्रकाश विमर्शवादी कहानीकार के रूप में तो नहीं जाने जाते हैं लेकिन कुछ कहानियों में विमर्श का मुहावरा भी देखा जा सकता है| ऐसी कहानियों में मंजू फालतू, बलि, बाबूलाल तेली की नाक  और जंगल का दाह  के नाम परिगणित किए जा सकते हैं| विमर्शवादी लेखकों की कहानियों की तरह की यह कहानियाँ नहीं हैं फिर इन्हें विमर्श के रूप में देखा जा सकता है| लोक रंग और समसामयिक यथार्थ की किस्सागोई संग्रह की विशिष्टता हैं| स्वयं प्रकाश कहानियों के सन्दर्भ में कहते हैं- “महान कहानी एक पूरी दुनिया होती है, जो पाठक को अपने में घुसा लेती है और महान कहानी का सबसे प्राथमिक और बड़ा लक्षण यह है कि उसे आप जितनी बार पढेंगे, उतनी बार उसमें से आपको कुछ नया-नया नज़र आएगा और आप उसको पढ़ते समय कभी भी ऊबेंगे नहीं|”6 ऐसी ही विशेषताएँ स्वयं प्रकाश कीमेरी प्रिय कथाएंमें देखी जा सकती है|

सन्दर्भ :

  1. राजेश जोशी- स्वयं प्रकाश की कहानियां (आलेख), पल्लव (सं.) बनास पत्रिका- साठ पार स्वयं प्रकाश, प्रवेशांक, वर्ष-1, अंक-1, चित्तौड़गढ़, बसंत 2008, पृ.सं. 173
  2. नामवर सिंह- वर्ग चेतना को कभी नहीं भूलते स्वयं प्रकाश (साक्षात्कार- डॉ. पल्लव)- पल्लव (सं.) बनास पत्रिका- साठ पार स्वयं प्रकाश, प्रवेशांक, वर्ष-1, अंक-1, चित्तौड़गढ़, बसंत 2008, पृ.सं. 113
  3. स्वयं प्रकाश- मेरी प्रिय कथाएं, ज्योतिपर्व प्रकाशन, गाजियाबाद, प्र.. 2012 कहानियों के सभी सन्दर्भ
  4. संजीव- मेरी कथा पीढ़ी के अश्वत्थ स्वयं प्रकाश (आलेख), पल्लव (सं.) बनास पत्रिका- साठ पार स्वयं प्रकाश, प्रवेशांक, वर्ष-1, अंक-1, चित्तौड़गढ़, बसंत 2008, पृ.सं. 98
  5. अरविन्द कुमार- किस्सागोई के बीच आजादी और अस्मिताबोध के नए मुहावरों की तलाश (आलेख), ऋत्विक राय (सं.) लमही पत्रिका, हमारा कथा समय-2, अंक- अक्तूबर-दिसम्बर 2019, पृ.सं. 122
  6. पल्लव- लेखकों का संसार (साक्षात्कार), खुबसूरत चीजों की याद दिलाने की जरूरत-स्वयं प्रकाश, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्र.सं. 2013, पृ.सं. 16

 

डॉ. गजेन्द्र मीणा

सहायक आचार्य, हिन्दी अध्ययन केंद्र, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर

gajendrameenakharbar@gmail.com

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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