शोध आलेख : प्राचीन भारत में स्त्रियों के साम्पत्तिक अधिकारों का एक अवलोकन
स्वाति अग्रवाल
शोध
सार : स्त्रियों के सम्पत्ति विषयक अधिकारों में स्त्री की सम्पत्ति का
विवरण ऋग्वेद, आपस्तम्ब धर्म सूत्र, बौद्धायन
धर्मसूत्र, वशिष्ठ धर्मसूत्र आदि के आधार पर प्रस्तुत आलेख में स्त्रियों के
सम्पत्ति विषयक अधिकारों का उल्लेख करने का प्रयास किया गया है। स्त्रीधन क्या है
और उस पर स्त्री का क्या अधिकार है, आदि पर प्रकाश डालते हुए स्त्रियों की
सम्पत्ति के उत्तराधिकारों के विषय में मिताक्षरा तथा अन्य लेखकों के मतों के आधार
पर नारी के सम्पत्ति विषयक अधिकार में विभिन्न पहलूओं का विस्तृत विवेचन करने का
प्रयास किया गया है।
बीज
शब्द : समाज, स्त्रीधन, वस्त्राभूषण, दहेज, सम्पत्ति।
मूल आलेख : “प्राचीन भारतीय समाज में
स्त्रियों में अपने अधिकारों के प्रति सचेष्टता का स्वरूप कालक्रमानुसार परिवर्तित
होता रहा है।“[1]इस
पृष्ठभूमि में इन अधिकारों का उदय एवं विकास प्रत्येक युग की अलग-अलग परिस्थतियों
में हुआ, जिससे इन अधिकारों में युग के अनुरूप परिवर्तन होता रहा है। इस
प्रकार वैदिक युग से लेकर पूर्वमध्य युग तक तत्कालीन सामाजिक परिवेश में स्त्रियों
की स्थिति सतत परिवर्तनशील रही है।
वैधानिक अधिकारों की दृष्टि से स्त्रियों के साम्पत्तिक अधिकार विशेष
महत्वपूर्ण रहे हैं। ये अधिकार विभिन्न कालों में स्त्री की स्थिति को परिवर्तित
करते रहे हैं। वैदिक काल में विवाह के समय प्राप्त धन को ही स्त्रीधन कहा गया।
ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि “विवाह के अवसर पर पति एवं भाई के द्वारा प्रेमपूर्वक उपहार स्वरूप दिये
जाने वाले धन पर स्त्री का ही अधिकार होता था।“[2] ऋग्वेद में ही उल्लेख किया गया है कि काक्षीवान नामक एक स्त्री को उसके
विवाह के अवसर पर स्वर्णाभूषण के अतिरिक्त रथ और घोड़े भी प्राप्त हुए थे।ऋग्वेद
में कन्या को विवाह के समय दहेज के रूप में धन एवं वस्त्राभूषण दिये जाने का वर्णन
प्राप्त होता है। इन वस्तुओं के अतिरिक्त माता-पिता कन्या को दहेज के रूप वो सभी
चीजें प्रदान करते थे जो कन्या की गृहस्थी लिये आवश्यक होती थी। इसी बात को ऋग्वेद
के एक मन्त्र में स्पष्ट किया गया है। इस मन्त्र के अनुसार “विवाह
के समय वधू को मूल्यवान वस्तुओं के साथ-साथ दासी, अंजन, चारपाई, तकिया जैसी नित्य प्रयोग की जाने वाली वस्तुएँ भी प्रदान की जाती
थी।“[3] कन्या के ससुराल जाते समय भी उनका पिता धन-सम्पत्ति एवं दैनिक उपभोग की
वस्तुएँ प्रदान करता था। ऋग्वेद के एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि “कन्या को
दहेज के साथ वर को प्रदान किया जाता है।“[4]
अतः वैदिक काल में स्त्रीधन[5]
पर स्त्रियों का अधिकार निर्विवाद रूप से मान्य था।
उत्तरवैदिक काल में भी यह अधिकार पूर्ववत् बना रहा। इस काल में भी स्त्रियाँ
विवाह के अवसर पर अपने पिता से स्त्रीधन के रूप में अतुल धन-सम्पत्ति प्राप्त करती
थी। अथर्ववेद में त्वष्टा द्वारा अपनी पुत्री के लिये दहेज एकत्रित करने का वर्णन
आया है “त्वष्टा दुहित्रे वहतुं युनक्ति।”[6]
इसी में उल्लिखित एक मन्त्र के अनुसार वधू दहेज में अन्य वस्तुओं के साथ-साथ गायें
भी लाती थी। अथर्ववेद में इस बात को सिद्ध करने के लिये सूर्या को उसके पिता
द्वारा विवाह के अवसर पर दिये जाने वाले दहेज का वर्णन किया गया है जो उसके ससुराल
पहुँचने से पूर्व ही वहाँ पहुँच गया था। स्त्रीधन पर स्त्रियों के अधिकार को और
स्पष्ट करने के लिये अथर्ववेद के पुनर्विवाह से सम्बन्धित उस मन्त्र का आश्रय लिया
जा सकता है जिसमें स्त्री को पुनः पुत्र-पौत्र एवं धनधान्य प्राप्त करने का
आशीर्वाद दिया गया है। तैत्तिरीय संहिता में भी कहा गया है कि “विवाह के अवसर पर
प्रदान किये जाने वाले धन पर स्त्री का ही अधिकार होता है।“[7]
उपर्युक्त साक्ष्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि स्त्री को दहेज में जो कुछ भी
प्राप्त होता था वही उसका स्त्रीधन था, जिस
पर उसका पूरा अधिकार होता था।
धर्मसूत्रकार भी स्त्रियों के इस साम्पत्तिक अधिकार के समर्थक
थे।बौधायन ने पति द्वारा पत्नी को उपहार स्वरूप प्रदान किये गये धन, विवाह के समय मिले धन, भेटों
एवं अलंकारादि को स्त्रीधन के अन्तर्गत सम्मिलित करते हुए इस पर स्त्री के
अधिकारों की घोषणा की है।वसिष्ठ ने भी बौधायन से ही मिलता-जुलता विचार प्रस्तुत
किया है। वे विवाह के समय मिले धन और आभूषण को ही स्त्रीधन मानते हैं तथा साथ ही
इसके विभाग का अधिकार भी उन्हें प्रदान करते हैं। आपस्तम्ब भी माता-पिता एवं भाई
द्वारा दिये गये धन एवं आभूषण पर स्त्री का ही अधिकार बताते हैं।
महाकाव्य युग में भी
स्त्री को स्त्रीधन की अधिकारिणी बताया गया है। “स्त्रियाँ अपने पारिवारिक जनों से
समय-समय पर जो वस्त्राभूषण, धनादि प्राप्त करती थी”, महाभारत के अनुसार “वही उनका स्त्रीधन होता था।“[8]
महाभारत में कहा गया है कि स्त्री का पति स्त्री को स्त्रीधन के रूप में तीन सहस्र
मुद्रा प्रदान करता था, जिसका उपयोग वह अपनी आजीविका
चलाते के लिये करती थी। किन्तु अपनी इच्छानुसार वह इसे खर्च नहीं कर सकती थी ।
बौद्ध युग में स्त्रीधन का उल्लेख स्त्री की पृथक सम्पत्ति के
रूप में हुआ है। एक जातक में दूरेनिदान की सुमेध कथा का वर्णन है, जिसमें “सुमेध पण्डित का कोषाध्यक्ष सुमेध की माता के धन का अलग
विवरण देता है।“[9]
एक अन्य जातक में राजकुमार वेसन्तर माद्री को अपने स्त्रीधन को सँभाल कर रखने का
निर्देश देता है। थेरीगाथा से विदित होता है कि धर्मदिन्ना की अपनी एक पृथक
सम्पत्ति थी, जिसके लिये उसके पति ने यह कहा था कि वह अपने माता-पिता के घर
जितना भी धन ले जाना चाहे ले जाए। अतः इस युग में स्त्रीधन का अत्यन्त विकसित
स्वरूप दृष्टिगोचर होता है।
मौर्ययुग में स्त्रीधन के स्वरूप का अधिक विकास हुआ। कौटिल्य ने
वृत्ति और आबन्ध्य नामक दो प्रकार के स्त्रीधन का उल्लेख किया है । वृत्ति का
तात्पर्य जीवन निर्वाह के साधन से है तथा आबन्ध्य का अर्थ आभूषणादि से है। इन
दोनों प्रकार के स्त्रीधनों की सीमा भी उन्होनें निर्धारित की थी। दो हजार पण तक
की सम्पत्ति वृत्ति के अन्तर्गत आती थी जो निर्वाह के लिये स्त्री के नाम कर दी
जाती थी, किन्तु आभूषण आदि की मात्रा कितनी हो इसकी कोई सीमा निर्धारित नही थी, "वृत्तिराबन्ध्यं वा
स्त्रीधनम्।
परिद्धिसाहस्रा स्थाप्या वृत्तिः आबन्ध्यनियमः।"[10]
पति की मृत्यु के बाद धर्मपूर्वक जीवन बिताने वाली विधवा स्त्री इस स्त्रीधन को प्राप्त
कर धर्मपूर्वक अपना जीवन यापन करती थी, किन्तु
इस स्त्रीधन का उपभोग वे स्वतन्त्रतापूर्वक करे यह कौटिल्य को मान्य नही था
इसीलिये उन्होंने विधवा स्त्री को यह निर्देश दिया था कि वे गुरू के संरक्षण में
रहकर आजीवन इस स्त्रीधन का उपभोग करे,
“आपदर्थ हि स्त्रीधनम् ऊर्ध्व दायादं गच्छेत्”।[11]
कौटिल्य ने स्त्रियों पर स्त्रीधन के उपभोग के सम्बन्ध में कुछ अन्य प्रतिबन्ध भी
लगाये है। यह प्रतिबन्ध पुनर्विवाह करने वाली स्त्रियों के सम्बन्ध में था, जिनके लिये कौटिल्य ने यह नियम प्रतिपादित किया कि यदि वह परिवार
की इच्छा से पुनर्विवाह करती है तो मृत पति एवं श्वसुरादि द्वारा दिया गया
स्त्रीधन उसी के पास रहता है और यदि ससुराल वालों की इच्छा के विरूद्ध स्वेच्छा से
पुनर्विवाह करती है तो उसे ब्याज सहित यह स्त्रीधन अपने श्वसुर को लौटाना पड़ता है।
इसी तरह पुत्रवती स्त्री यदि पुनर्विवाह करती है तो उनके मतानुसार उसका स्त्रीधन
उसके पुत्रों को प्राप्त होता है। पुत्र के भरण-पोषण के उद्देश्य से किये
पुनर्विवाह में तो स्त्रीधन पुत्र के नाम करना पड़ता था। ऐसी स्त्रियाँ जिनके अनेक
पतियों से कई पुत्र होते थे इसके पश्चात् भी वे पुनर्विवाह करना चाहती थी तो उनके
लिये कौटिल्य ने यह नियम निर्दिष्ट किया था कि वे पुनर्विवाह करने से पूर्व अपना
सम्पूर्ण स्त्रीधन अपने पुत्रों में बाँट दे। उनके मतानुसार जो स्त्री राज्य
विरोधी बातें करती है, शराब एवं जुएं का व्यसन करती है
तथा पति को छोड़कर दूसरे पुरूष का आश्रय ग्रहण करती है, वे स्त्रियाँ स्त्रीधन पर अधिकार नहीं रखती है। इससे यह प्रतीत
होता है कि कौटिल्य ने स्त्रियों को स्त्रीधन पर अधिकार तो प्रदान किया किन्तु
स्वतन्त्रतापूर्वक इसके उपभोग पर उन्होने स्त्रियों पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाया।
पूर्ववर्ती शास्त्रकारों की भांति मनु ने स्त्रीधन पर स्त्री के
ही अधिकार का प्रतिपादन किया है मनुस्मृति में छः प्रकार के स्त्रीधनों का
क्रमानुसार वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है, अध्याग्नि-विवाह
संस्कार की अग्नि के सम्मुख दिया गया धन, अध्यावाहनिक-पति
गृह जाते समय प्रदान किया गया धन, प्रीतिदत्त-प्रीतिकर्म
में दिया गया धन (अर्थात सम्बन्धियों से स्नेहवश मिला हुआ धन) तथा भाई, माता और पिता द्वारा दिया गया धन। मनु ने “अन्वाधेय अर्थात विवाह
के समय मिली भेंटों को तथा यौतक को भी स्त्रीधन के ही अन्तर्गत माना है।“[12]
इन सभी स्त्रीधनों पर स्त्री पूर्ण अधिकार रखती थी, इसीलिए
मनु ने आगे कहा है कि पति के जीवन काल में स्त्री जो भी आभूषण धारण करती थी, उस आभूषण का पति के मरने के बाद पति के धन के दायाद बंटवारा नहीं
कर सकते थे। यदि वे ऐसा करने का प्रयास करते भी थे तो समाज में घृणित दृष्टि से
देखे जाते थे। मनु ने स्त्री के वस्त्र, पात्र
एवं अलंकारादि को अविभाज्य माना है। परन्तु अन्यत्र उन्होंने स्त्रीधन लेने वाले
को पापी तथा नरकगामी तक कहा है। उनका कहना है कि जो मनुष्य मोह में पड़कर स्त्री के
स्त्रीधन एवं वस्त्रादि को पाने का प्रयास करता है वह पाप का भागीदार होता है, और यदि कोई व्यक्ति अथवा सम्बन्धी स्त्री के जीवित रहते हुए उसके
स्त्रीधन का हरण करता है तो उस राज्य के धर्मपालक राजा का यह कर्तव्य है कि
स्त्रीधन का हरण करने वाले व्यक्ति को चोरों की तरह दण्डित करे। स्त्रीधन को खर्च
करने के सन्दर्भ में मनु ने कुछ प्रतिबन्ध लगाते हुए कहा कि “बिना पति की अनुमति
के पत्नी को स्त्रीधन खर्च नहीं करना चाहिए।“[13]
मनु की भाँति नारद, याज्ञवल्क्य, विष्णु एव कात्यायन ने भी छः प्रकार के स्त्रीधनों का वर्णन करते
हुए उस पर स्त्री के अधिकार को स्पष्ट किया है। नारद के अनुसार वैवाहिक अग्नि के
सम्मुख दिया हुआ धन, श्वसुर कुल में प्रस्थान के समय
दिया गया धन, पति द्वारा दिया गया धन तथा भाई एवं माता-पिता द्वारा दिया गया
धन स्त्रीधन है, “अध्यग्न्यध्यावाहनिकं भर्तृदायस्तथैव च भ्रातृमातृपितृ प्राप्तं
षड़विधं स्त्रीधन स्मृतम्।”[14]
नारद ने स्त्रीधन में स्थावर संपति को भी सम्मिलित कर लिया था लेकिन स्त्री उसका
मात्र उपभोग ही कर सकती थी, किन्तु पति द्वारा प्रेमपूर्वक
दिये गये सभी प्रकार के स्त्रीधन पर स्त्री का पूर्ण अधिकार था जिसे वह बेच भी
सकती थी। याज्ञवल्क्य और विष्णु ने इस स्त्रीधन में आधिवेदनिक (अर्थात पति द्वारा
दूसरी स्त्री से विवाह करने पर दी जाने वाली क्षतिपूर्ति), बन्धुदत्त (अर्थात माता-पिता के सम्बन्धियों द्वारा दिया गया धन), शुल्क (अर्थात वह धन जो कन्या को विवाह में प्राप्त करने के लिए
दिया जाता था) नामक तीन अन्य प्रकार के स्त्रीधनों को सम्मिलित कर लिया।
याज्ञवल्क्य ने एक अन्य स्थल पर स्त्रीधन के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रकट करते
हुए कहा है कि “असुर विवाह में अभिभावक द्वारा कन्या के निमित्त जो धन लिया जाता
है वह भी स्त्रीधन के अन्तर्गत आता है।“[15]
गुप्तयुग में इस स्त्रीधन पर स्त्री का इतना अधिकार होता था कि
परिवार के अन्य सदस्य इसका बंटवारा नहीं कर सकते थे। इसे स्पष्ट करते हुए नारद ने
कहा है कि “किसी पुत्रहीन भाई के मरने या सन्यासी होने पर अन्य भाइयों को मृतक की
विधवा स्त्री के स्त्रीधन को छोड़कर शेष सम्पत्ति परस्पर बाँट लेनी चाहिये।“[16]अन्य
स्मृतिकारों की तरह कात्यायन ने भी अध्यग्नि, अध्यावाहनिक, प्रीतिदत्त, अन्वाधेय एवं
शुल्क (घर के सामान, भारवाही, दूध देने वाले पशुओं आभूषणों तथा दासों को खरीदने के लिये मिला
धन) नामक छः प्रकार के स्त्रीधनों का 27 श्लोकों
में विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। जिसमे सौदायिक नामक एक अन्य प्रकार का स्त्रीधन
भी शामिल है, जो विवाहित अथवा कुंवारी कन्या को पति के या पति के घर, भाई और माता-पिता से प्राप्त होता था, जिसमें अचल सम्पत्ति भी आती थी। इस “सौदायिक सम्पति पर उसका
आजीवन अधिकार होता था, जिसका समयानुसार स्वतन्त्रतापूर्वक
वह दान एवं विक्रय भी कर सकती थी।“[17]
कात्यायन ने माता-पिता एवं सम्बन्धियों द्वारा स्त्री को दिये
जाने वाले स्त्रीधन की सीमाओं का भी निर्धारण किया है। इसमें उनके अनुसार अचल
सम्पत्ति को छोड़कर दो हजार पण के मूल्य तक की चल सम्पत्ति (आभूषण, धनादि) होनी चाहिये। कात्यायन ने यह व्यवस्था दी कि यदि पति अपने
जीवन काल में अपनी पत्नी को कुछ धन देने का वचन देता है तो पुत्रों का यह कर्तव्य
है कि वह यह धन अपनी माता को ऋण की भाँति चुकाए, यदि
वह पतिकुल में ही रहे, ”पितृमातृ
पतिभ्रातृ ज्ञातिभिः स्त्रीधनं स्त्रियै, यथाशक्त्या
द्विसाहस्रादातव्यं स्थावरादृते।“[18]
उनके अनुसार यदि किसी पुरूष की दो पत्नियाँ है और वह पहली पत्नी को महत्व नहीं देता
तो उसका स्त्रीधन राजा द्वारा बलपूर्वक पति से छीनकर उसे दिलाना चाहिये, भले ही वह धन पत्नी ने उसे स्वयं दिया हो। स्त्रीधन पर स्त्री के
स्वत्व को कात्यायन ने इतना महत्वपूर्ण माना कि उनके अनुसार स्त्री के जीवित रहते
हुए पति, पुत्र, देवर या भाई कोई भी स्त्रीधन पर
अधिकार नहीं कर सकता था, यदि कोई स्त्रीधन का हरण करता
है तो दण्ड दिया जाना चाहिये। कात्यायन का विचार था कि पति, पुत्र, पिता और भाई स्त्रीधन के ग्रहण
या व्यय के अधिकारी नहीं है। इनमें से कोई बलपूर्वक यदि स्त्रीधन का उपयोग करना
चाहे तो उसे यह स्त्रीधन ब्याज सहित स्त्री को लौटाना चाहिये, लेकिन अनुमति लेकर स्त्रीधन का उपयोग करने पर मूल राशि भी नहीं
वापस करनी चाहिये। ऐसा नहीं था कि कात्यायन ने स्त्रियों के साम्पत्तिक अधिकार पर
कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया, उन्होंने ऐसी स्त्रियों को
स्त्रीधन के अधिकार से वंचित कर दिया जो लज्जाहीन, दुष्ट
एवं दुराचारिणी होती थी।उन्होंने ऐसी सम्पत्ति को स्त्रीधन नहीं समझा जो स्त्रियों
द्वारा कमाई गई हो तथा सम्बन्धियों से भिन्न व्यक्तियों द्वारा उपहार में प्राप्त
हुई हो। देवल के अनुसार इन स्त्रीधनों का पति अकारण उपयोग नहीं कर सकता, ऐसा करने पर उसे ब्याज सहित यह स्त्रीधन पत्नी को लौटाना पड़ता
है। बृहस्पति भी स्त्रीधन पर स्त्री के अधिकार को ही महत्व देते है तथा स्त्रीधन
में चल सम्पत्ति का भी वर्णन करते है। स्त्रीधन का वर्णन करते हुए वे कहते है कि
विवाह के समय और विवाह के बाद पिता और पति के घर से कन्या को जो धन मिलता है वह
सौदायिक है। उन्होंने भी स्त्रीधन की सीमा दो हजार पण ही मानी है। पैठीनसि, लौंगाक्षि, एवं सूत ने भी
स्त्रीधन पर आजीवन स्त्री के ही अधिकार को ही स्वीकार किया है।
उपर्युक्त वर्णन के अनुसार यह कहा जा सकता है कि गुप्तयुग में
स्त्रीधन का क्षेत्र अधिक विस्तृत होने से स्त्रियों को अपना जीवन यापन करने में
कोई समस्या उत्पन्न नही होती थी। गुप्तोत्तर कालीन टीकाकार विज्ञानेश्वर एवं
जीमूतवाहन का विचार सबसे महत्वपूर्ण है। टीकाकार विज्ञानेश्वर द्वारा प्रस्तुत
स्त्रीधन की रूपरेखा का प्रमुख आधार याज्ञवल्क्य स्मृति में उल्लिखित शब्द ‘‘अधिवेदनिकाद्यं‘‘
है। इसमें आए आद्य शब्द से विज्ञानेश्वर ने यह निष्कर्ष निकाला कि “उत्तराधिकार
में पिता से प्राप्त सम्पत्ति, खरीदी हुई या
बटँवारे में मिली संपत्ति, ऐसी संपति जिस पर अधिक समय तक
अधिकार रहने के कारण स्वामित्व प्राप्त हो गया हो तथा उपलब्धि में प्राप्त
सम्पत्ति स्त्रीधन है।“[19]इसके
विपरीत जीमूतवाहन ने ऐसी सम्पत्ति को “स्त्रीधन कहा है जिस पर स्त्री का पूर्ण
स्वत्व है तथा जिसका वह पति से स्वतन्त्र रहते हुए दान, विक्रय एवं उपभोग कर सकती है।“[20]विज्ञानेश्वर
द्वारा प्रस्तुत इस स्त्रीधन में केवल माता-पिता, पति, पुत्र एवं सम्बन्धियों द्वारा प्राप्त उपहारों की ही गणना की जा
सकती है क्योंकि कात्यायन एवं नारद के मत का अनुसरण करते हुए जीमूतवाहन भी शिल्पों
से प्राप्त सम्पत्ति, भिन्न सम्बन्धियों से प्राप्त
सम्पत्ति एवं अचल सम्पत्ति को स्त्रीधन में नहीं शामिल करते। कात्यायन द्वारा
प्रतिपादित सौदायिक स्त्रीधन का उल्लेख भी जीमूतवाहन ने किया है, ‘‘सुदायसम्बन्धिभ्यो लब्ध
सौदायिकम्।” [21]
स्त्रीधन का एक स्वरूप यौतक भी है जिसका सर्वप्रथम उल्लेख मनु ने
किया था। यौतक की व्याख्या करते हुए मनुस्मृति के टीकाकार मेघातिथि ने लिखा है कि
यह स्त्री की पृथक सम्पत्ति है तथा इस पर उसका पूरा स्वत्व होता है। दायभाग के
अनुसार “विवाह के समय पति और पत्नी दोनो को एक साथ मिला हुआ धन यौतक है।“[22]अपरार्क
ने भी यौतक पर स्त्री का पूर्ण स्वत्व बताया है।स्मृति
चन्द्रिका में यौतक की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि विवाह के समय एक ही आसन पर
बैठे दम्पत्ति को मिला धन यौतक है। उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो
जाता है कि गुप्तोत्तर काल के शास्त्रकारों ने स्त्रीधन को विस्तृत करके स्त्रियों
की वैधानिक स्थिति मजबूत कर दी ।
अतः उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीय
स्त्रियों के साम्पत्तिक अधिकारों को परिवर्तित, विकसित
एवं विघटित करने में वैदिक युग से लेकर गुप्तोत्तर युग तक की सामाजिक परिस्थितियाँ, धर्मसूत्रकारों के विचार तथा तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं अन्य तत्वों की
प्रमुख भूमिका रही है। इन संपत्ति विषयक अधिकारों से तत्कालीन स्त्री की सामाजिक
स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है कि स्त्रियों का स्थान प्रायः उच्च एवं
सम्मानजनक ही रहा। स्त्रियों परिवार एवं समाज की प्रतिष्ठा एवं मर्यादा माना गया
और कदाचित् इस मर्यादा की रक्षा के लिये ही स्त्रियों पर कड़े से कड़ा नियंत्रण भी
लगाये। उन्हें पुरूषों की निगरानी में रखा गया ताकि परिवार एवं समाज की मर्यादा की
रक्षा हो सके। जहाँ स्त्री जीवन के शैक्षिक, धार्मिक
तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में वैदिक काल से मनु एवं याज्ञवल्क्य के काल तक क्रमशः
गिरावट आयी वहीं आर्थिक क्षेत्र में अपेक्षाकृत प्रगति हुई। व्यवहार में स्त्री की
स्थिति में सामान्यतः उत्तरोत्तर ह्रास ही देखते हैं। समाज चिन्तक, विचारक अथवा व्यवस्थाकार द्वारा उनकी श्रेष्ठ सामाजिक स्थिति का
उल्लेख अथवा किसी काल विशेष में किसी वर्ग विशेष की स्त्रियों की उच्च स्थिति की
झलक को अपवाद के रूप में ही स्वीकार किया गया है।
[1]अल्तेकर, पोजीशन ऑफ वीमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन,
द कल्चर पब्लिकेशन हाउस, बनारस हिंदु यूनिवर्सिटी, 1938, पृ. 13
[2]ऋग्वेद, 1/109/2,
10/27/12, 10/8/6
[3]वही,10/85/7
[4]वैदिक
काल में स्त्रियों की स्थिति पर अधिक जानकारी हेतु देखिये,
शकुन्तला राव शास्त्री, वीमेन इन दि वैदिक
एज,भारतीय विद्या भवन, बॉम्बे,
द्वितीय संस्करण, 1954,पृ. 13
[5]स्त्रीधन पर अधिक जानकारी के लिये देखिये, गुरुदास बनर्जी,
हिन्दू लॉ ऑफ मैरिज एवं
स्त्रीधन, पृ. 319-519
[6]अथर्ववेद, 3/31/5
[7]तैतिरिय संहिता, 6/2/1/1, ‘‘पत्न्यन्वारयते पत्नी हि पारीणाह्यस्येशे ।
[8]महाभारत, सभा पर्व., 63/13
[9]जातक, पृ. 2
[10]अर्थशास्त्र,3/2
[11]वही
[12]मनुस्मृति, 9/194
[13]वही, 9/99
[14]नारद स्मृति, 13/8
[15]याज्ञवलक्य स्मृति, 2/145
[16]नारद स्मृति, 13/25
[17]कात्यायन स्मृति, 2/282
[18]वही
[19]याज्ञवलक्य स्मृति, 2/143
[20]दायभाग, पृ. 76
[21]वही
[22]वही, पृ. 82
स्वाति
अग्रवाल शोधार्थी
इतिहास
एवं भारतीय संस्कृति विभाग,
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
8949147765
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
एक टिप्पणी भेजें