भूमंडलीकरण, मीडिया एवं स्त्री अस्मिता के प्रश्न
- नीतू थापा
शोध सार : मनुष्य एक सामाजिक
प्राणी होने के कारण समाज के साथ संतुलित जीवन यापन करता है। संतुलन का मुख्य
उद्देश्यआदर्श समाज का निर्माण करना है। भारतीय समाज में सभी चीजें संतुलन के साथ
चलती हैं फिर चाहे वह कोई वाद हो, कोई विचार अथवा कोई
विमर्श। भूमंडलीकरण के दौर में स्त्री की अस्मिता का प्रश्न अतिआवश्यक है। कारण
जहाँ स्त्री को हाशिये में रखा जाता था, वहीं वर्तमान में
भूमंडलीकरण, राजनीति एवं मीडिया के विभिन्न माध्यमों ने उसे
केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है। हालाँकि स्त्री का केंद्र में आना उसकी मुक्ति
एवं अस्मिता का एक सशक्त पक्ष है, लेकिन किससे और
कैसी मुक्ति? जहाँ वह पहले चहारदीवारी से बाहर निकलने के लिए
छटपटाती थी, वहीं आज औद्यौगिकीकरण, भूमंडलीकरण तथा बाजार ने उसे व्यापार, उपभोक्ता के रूप में जब चाहे तब प्रयोग में लाये जाने वाली
वस्तु बना कर रख दिया है। बल्कि होना तो यह चाहिए था कि स्त्री मुक्ति के लिए जो
संघर्ष किए गए उसे पितृसत्ता, बाजारीकरण, मीडिया के प्रलोभनों से हटाकर, पुरुष के समकक्ष,राजनीति, आर्थिक, मानसिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अपने परिवार,राष्ट्रऔर संस्कृति की पृष्ठभूमि में स्वतंत्र रूप से
निर्णय लेने की स्वायत्ता मिल पाए। जो वर्तमान परिदृश्य में स्त्री के संघर्ष, मुक्ति एवं अस्मिता को सार्थक बनाती है।
बीज शब्द : भूमंडलीकरण, मीडिया, स्त्री, अस्मिता, मुक्ति,बाजारीकरण, पूंजीवाद।
मूल आलेख : समाज में मीडिया की
अहम भूमिका होने के कारण इसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। ‘मीडिया’ शब्द अंग्रेजी के ‘मीडियम’ का अग्रगामी है।
जिसका शाब्दिक अर्थ होता है माध्यम। किन्तु कई बार यह शब्द भ्रमित भी करता है ‘मीडिया’ जहाँ बहुआयामी है
वहीं ‘मीडियम’ उसी बहुआयामी को
विभिन्न माध्यमों से लोगों तक पहुँचाने का काम करती है। इसीलिए इसके महत्व को कम
नहीं आँकना चाहिए। संचार के माध्यम से यह क्रांति भी ला सकती है। संचार के संबंध
में बर्लो का मानना है “संचार में हमारा प्राथमिक उद्देश्य है, प्रभावी एजेंट बनाना, दूसरों को अपने
भौतिक परिवेश को एवं स्वयं को प्रभावित करना, निर्धारक एजेंट
बनना व विभिन्न गतिविधियों के संबंध में अपना मत व्यक्त करना। संक्षेप में हम
प्रभाव डालने के लिए, सोद्देश्य प्रभाव
डालने के लिए संप्रेषण करते हैं।”[1] साफ तौर पर संचार का अभिप्राय, अपने भाव, विचार एवं संदेश का
आदान-प्रदान एवं संप्रेषण से प्राप्तकर्ता में प्रतिक्रिया उत्पन्न कराना है।
उसी प्रकार हार्पर लीच एंड जॉनसी कैरोल समाचार को परिभाषित
करते हुए कहते हैं- “समाचार अति गतिशील साहित्य है। समाचार-पत्र समय के करघे पर
इतिहास के बहुरंगे बेल-बूटेदार कपड़े को बुनने वाले तकुए हैं।”[2]नवजागरण काल में स्त्री, साहित्य और सुधार
आंदोलन के केंद्र में आ गई।स्त्रियों की स्थिति में सुधार के लिए विभिन्न आंदोलन
चले जिसका प्रभाव भारतेन्दु और द्विवेदी पर भी पड़ा एवं स्त्रियों को जागरूक और
शिक्षित बनाने के लिए विभिन्न लेख लिखे गए और पत्रिकाओं का प्रकाशन भी हुआ। जिसके
फलस्वरूप हिन्दी भाषी क्षेत्र में भारतेन्दु ने स्त्रियों के लिए ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका निकाली।
शुरुआत से ही प्रिंट मीडिया स्त्री के हित में तथा उनके
पक्ष में काम करती आई है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया के कई अंग हमारे सामने
हैं, जो समाज में घट रही घटनाओं को आसानी से लोगों तक पहुंचाती
है। प्रिंट मीडिया के उद्गम का महत्त्वपूर्ण कारण सामाजिक संस्कार ही है। प्रिंट
मीडिया अथवा पत्रकारिता के उदयकाल में प्रायः सभी पत्रकार समाज-सुधारक थे। समाज
सुधारक अपने अनुसार कार्य कर रहे थे। किन्तु वे इस बात को भी भलीभाँति जानते थे कि
जब तक समाज का संस्कार नहीं होगा तब तक राष्ट्रीय संकल्प पूरा नहीं होगा। उस समय
समाज में अनेक बुराइयाँ थीं, जैसे जात-पात, अनमेल विवाह, बहुविवाह, बाल-विवाह, धार्मिक कर्मकांड, अशिक्षा के साथ-साथ अंधविश्वास आदि कुसंस्कारों ने समाज की
जड़ों को खोखला कर दिया था। इसके विरोध में समाज सुधारकों ने विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से आवाज उठाई तथा इन कुप्रथाओं के विरुद्ध लिखा। किन्तु
वर्तमान में वह अपने उद्देश्य से भटक गयी है। विभिन्न ताकतों की तुलना में मीडिया
अपने आपमें एक शक्तिशाली ताकत है किन्तु वह पूंजीवाद, राजनीति एवं भूमंडलीय ताकत के सामने कमजोर प्रतीत हो रही है
ताकत के संदर्भ में जॉन स्टुअर्ट मिल का मानना है- “ताकत का इस्तेमाल करने वाले
लोग सिर्फ़ एक ही चीज़ के सामने झुकते हैं- अपने से बड़ी ताक़त के सामने।”[3] मीडिया के पास जितनी भी बड़ी ताकत क्यों न हो किन्तु वह
पूंजीपति एवं राजनीति के आगे झुकती नजर आती है।
आज स्त्री के साथ कई अमानवीय घटनाएँ घट रही हैं कहीं वह
चलती बस में बलत्कृत कर फेंकी जाती है, तो कहीं भरे बाज़ार
में उस पर एसिड फेंका जाता है। ऐसी घटनाओं पर कुछ दिन चर्चाएँ होती हैं, हैड्लाइन्स बनते हैं, तो कई बार स्त्री
को ही सवालों के घेरे में लाया जाता है। किन्तु मीडिया ऐसी घटनाओं से परे स्त्री
के सौन्दर्य, शृंगार, देह आदि पर अधिक
रुचि लेती है जैसे-“इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने समाज को फैशनेबल बना दिया है। श्रृंगार
प्रसाधन के अलावा महिला की देह, उभार, कमर, त्वचा को वीडियो
कैमरे में कैद करके बार-बार पर्दे के माध्यम से परोसा जा रहा है।”[4] यही वर्तमान समय का सत्य भी है। अब स्त्री को समझना होगा की
मीडिया उसे नाम, शोहरत एवं आर्थिक प्रलोभन देकर अपने फायदे के लिए एक
प्रकार से प्रयोग कर रही है। अतः किसी भी क़िस्म के प्रतिरोध के लिए स्त्री को
सर्वप्रथम अनेक प्रकार के प्रलोभनों का बहिष्कार करना आवश्यक है।
भूमंडलीकरण के लिए अंग्रेजी के ग्लोबलाइज़ेशन एवं वैश्वीकरण
शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यह शब्द बीसवीं सदी के अंतिम दशक में व्यापक रूप
से प्रयोग में आया। भूमंडलीकरण के उदय का जिक्र कार्ल मार्क्स ने डेढ़ सौ साल पहले
किया था। पूंजीवाद की मृत्यु-कामना करते हुए कार्ल मार्क्स ने 1848 में ही
कम्युनिष्ट घोषणापत्र में लिखा था- “अपने उत्पादों के बाजार की तलाश बुर्जुआ को
पूरे भूमंडल में दौड़ाती है। इसे अपना नीड़ सर्वत्र बनाना है, इसे हर जगह बसना है, इसे अपना संबंध
सर्वत्र फैलाना है।”[5] अतः जिसके फलस्वरूप पूंजीवाद का उदय हुआ।
सृष्टि के आरम्भ से ही मानव जाति की सभ्यता एवं संस्कृति के
विकार का मूल आधार नारी मानी जाती है। नारी के दैवीय रूप की पूजा की जाती है, लेकिन वहीं नारी उत्पीड़न का शिकार भी बनती है। घर से लेकर
बाहर तक एक स्त्री को अपने स्त्री होने के अस्तित्व को बेचना पड़ता है। हजारों
वर्षों से स्त्री पुरुषवादी मानसिकता के अधीन थी एवं भूमंडलीकरण के दौर में भी वह
बाजार के फायदे एवं द्वंद्व में जी रही है। ‘द सेकेंड सेक्स’ की लेखिका सिमोन द बोउवार ने कहा है कि ‘‘स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया
जाता है।’’ भूमंडलीकारण में भी स्त्री को ‘स्त्री’ बनाने की प्रक्रिया
चली है। किन्तु इस प्रक्रिया में अनजाने ही स्त्री के प्रति द्वन्दात्मक स्थिति
पैदा हुई है। कारण साफ है कि बाजार जहाँ स्त्री को विभिन्न प्रलोभन दे रहा है, वहीं इससे उसके अस्तित्व का हनन भी हो रहा है। आखिर स्त्री
पारिवारिक पितृसत्तात्मकता से बाहर तो आई किन्तु भूमंडलीय पितृसतात्मकता के हाथों
की कठपुतली बन कर रह गयी। इस संदर्भ में सिमोन द बोउवार लिखती हैं-“स्त्रियों को
वही मिला जो पुरुष ने इच्छा से देना चाहा। इस स्थिति में भी पुरुष दाता के रूप में
और औरत ग्रहीता के रूप में हमारे सामने आई। इसका प्रमुख कारण औरतों के पास अपने
आपको एक इकाई के रूप में संगठित करने के ठोस साधनों का अभाव है। उनका न कोई अतीत
है और न इतिहास, न अपना कोई धर्म है और न ही सर्वहारा की तरह ठोस
क्रिया-कलापों का एक संगठित जगत्।”[6] सत्य भी यही है कि वह एक हाथ से छूटती है तो कोई ओर उस पर
अपना हक जमा लेता है। इसीलिए स्त्री को अपना रास्ता स्वयं चुनने की आवश्यकता है।
वर्तमान समय में स्त्री अस्मिता का एक प्रश्न उभर रहा है।
एक ऐसा प्रश्न जिसके कई जवाब निकलकर आते हैं किन्तु उनमें से सटीक एक भी नहीं
बैठता। पश्चिमी देशों में स्त्री मुक्ति के लिए कई आन्दोलन हुए। समान भागीदारी
एवं वोट देने के अधिकार आदि पर जीत हासिल की, जो स्त्री के पक्ष
को मजबूत एवं शक्तिशाली बनाती है। किन्तु भूमंडलीकरण एवं मीडिया के कारण आज वे
शक्तियाँ लड़खड़ाती सी प्रतीत होती हैं। भूमंडलीकरण के संदर्भ में प्रभा खेतान का
मानना है “भूमंडलीकरण तो वह बिजली है जिससे आपका घर रौशन भी हो सकता है और आपके घर
में आग भी लग सकती है।”[7] समाज में औद्यौगीकरण हेतु पूंजीवादियों ने बाजारवाद को जन्म
दिया जिसके फलस्वरूप समाज और परिवार में स्त्री शोषण की चरम सीमा पर पहुँची। उनमें
जब चेतना आई और आधुनिकता के बोध से स्वयं को स्वतंत्र मान घर के बाहर कदम रखा तो
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से उनके शोषण का दायरा बढ़ गया। बाजार ने उसके रूप
उसकी सौंदर्यता के अनुरूप स्वालंबन का अवसर दिया तो वहीं उसके चरित्र पर भी सवाल
खड़े किए गए, “चरित्र नर-नारी दोनों के लिए मूल्यवान है, पर चरित्र के मामले में सारी पवित्रता नारी के लिए है, पुरुष के लिए नहीं। इस पुरुष प्रधान समाज में सारे प्रतिबंध
नारी के लिए हैं, पुरुष हर मामले में
स्वतंत्र है। आज नारी का सबसे बड़ा शत्रु उसका डर और दुविधा है। समाज की रूढ़िगत मान्यताएँ
स्वयं नहीं बदलती। उन्हें बदलने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।”[8] स्त्रियों का अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। पितृसत्ता अगर
स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रखने के लिए तमाम तरह के बंधनों में जकड़ देने का नाम
है तो स्त्री-अस्मिता उन बंधनों से मुक्त होने के लिए विद्रोह करने और
स्त्री-पुरुष की समानता के लिए संघर्ष करने का नाम है। अब हमें इतिहास से सीखना
चाहिए की पूर्व की स्त्री ने अपनी बुद्धि एवं साहस के बल पर संघर्ष किया। अपनी
अस्मिता को बचाया न कि बाहरी प्रलोभनों में अपना समय नष्ट किया जैसे- “इतिहास
दिखाता है कि मनुष्य का स्वभाव बाहरी प्रभावों के कितने ज़्यादा नियंत्रण में है; और ठोस-से-ठोस समझा जाने वाला सामाजिक सत्य भी मौक़ा आने पर
कैसे एक बिलकुल दूसरा रंग अख़्तियार कर लेता है। पर इतिहास में भी, यात्रा की तरह, मनुष्य वही देखता
है जो वह देखना चाहता है; बहुत कम लोग इतिहास
से सबक लेते हैं।”[9] शुरुआत से ही स्त्री को कोमल, मातृत्व एवं पुरुष के लिए ही तुम बनी हो जैसी संज्ञा दी गई
और तो और पा दार्शनिक रूसो का इस बारे में मानना है कि “महिला और पुरुष एक-दूसरे
के लिए बने हैं लेकिन उनकी परस्पर निर्भरता समान नहीं है...हमलोग उनके बिना अच्छी
तरह जी सकते हैं जबकि वे हमारे बिना नहीं...इसलिये महिलाओं की शिक्षा की सम्पूर्ण
योजना पुरुषों को ध्यान में रखकर बनायी जानी चाहिये। पुरुषों को खुश रखना/करना
उनके लिए उपयोगी बनना, उनका प्यार और
सम्मान जीतना, उन्हें बच्चों जैसा बड़ा करना, उनकी गलतियों को सुधारना और सांत्वना देना, उनकी जिन्दगी को खुशहाल और अच्छा बनना... ये सब युगों से
नारियों के कर्तव्य हैं, और इस विषय में
उन्हें बचपन से ही सिखाया पढ़ाया जाना चाहिए।”[10] आखिर ऐसी मानसिकता स्त्री के मुक्ति उसके अपने अस्मिता की
लड़ाई को कैसे सार्थक बना सकते हैं? नारीवादियों का
मानना है कि “स्त्री जाति की स्वतन्त्रता व पुरुष जाति से साम्यता, यह हमारा सबसे पहला अधिकार है। साम्यता से यह मतलब नहीं कि
हम भी पुरुषों की नकल करें, बल्कि हमें भी
पुरुषों के बराबर विकास के साधन मिलने चाहिए। यदि स्वाधीनता और सभ्यता मनुष्य जीवन
के विकास की जड़ है तो पुरुषों के साथ स्त्रियों को भी इनका बराबर हिस्सा मिलने का
अधिकार है।”[11]
अब स्त्री को सारी व्यवस्थाओं को तोड़ने की आवश्यकता है
“पौरुष की तरक्की के लिए जब सीमाओं को लाँघकर बड़ा पैसा और बड़ा हथियार आपस में
संयुक्त होते हैं तो हम नारीवादियों को भी, चाहे हम श्वेत हों
या अश्वेत, किसी भी राष्ट्रीयता, नस्ल, जाति या वर्ग से
हों, सहयोग करना चाहिए, ताकि हम उस
व्यवस्था को चुनौती दे सकें जो हम पर अत्याचार करती है।”[12]वर्तमान में मनुष्य अपने समाजीकरण को खो रहा है और वह
निजीकरण को अपना रहा है। इसके मुख्यतः दो कारण है भूमंडलीकरण और बाजारवाद। उत्तर
आधुनिकता के ये दोनों तत्व बहुत ही शक्तिशाली हैं एवं एक-दूसरे के परी-पूरक भी।
भूमंडलीकरण ने हमें अनुकरण सिखाया तो उसी अनुकरण की पूर्ति के लिए बाजरवाद की
निर्मिति हुई।
आज पूंजीवाद ने बाजारवाद, भूमंडलीकरण एवं इन सभी के इशारे पर चलने वाली मीडिया ने न
केवल हमारे जीवन को बल्कि हमारी संस्कृति को भी प्रभावित किया है। यह हमारी
संवेदनाओं, भावनाओं, विश्वास व खानपान
सभी पर अपना वर्चस्व जमा रहे है। भूमंडलीकरण ने पूरे विश्व को गाँव की संज्ञा देते
हुए उसे बाज़ार में बदल डाला है। वर्तमान में बाज़ार की सबसे बड़ी उपभोक्ता स्त्री
है। इन परिघटनाओं को समझना आवश्यक है कि किस प्रकार भूमंडलीकरण एवं मीडिया एक
दूसरे के परिपूरक हैं- “भूमंडलीकरण की इस
परिघटना को आकार देने में संचार क्रांति की प्रमुख भूमिका है। मीडिया के सारे साधन
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में हैं और उन्हीं के लिए हैं। इसीलिए मीडिया
भूमंडलीकरण को महिमा मंडित करने में लगी है।”[13]यह महिमा और जटिल
हो जा रहा है।
महादेवी वर्मा समाज में स्त्री के प्रभुत्व एवं उनके
उपयोगिता के संदर्भ में लिखती हैं- “हमें न किसी पर जय चाहिए न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए न प्रभुत्व, केवल अपना वह स्थान, वह स्वत्व चाहिए
जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परंतु जिनके बिना
हम समाज का उपयोगी अंग नहीं बन पा रही हैं।”[14] स्त्री को बाज़ार ने इन्वेस्टर से लेकर उपभोक्ता तक और वस्तु
से लेकर मनोरंजन के साधन तक बना दिया। बाज़ार ने स्त्री को सौंदर्य के नाम पर
विभिन्न ब्युटी प्रॉडक्ट आदि दिये किन्तु उसे हकीकत में जो चाहिए था वह हमेशा उससे
छिनता ही रहा है।
देश के विकास के साथ ही नारी से श्रम लिया जा रहा था। साथ
ही उसे बच्चा पैदा करने के मशीन कि तरह भी उपयोग किया जा रहा था, “हमारे देश में विकास के लिए जिस नमूने का अनुसरण किया जा
रहा है वह पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था पर आधारित है। इतिहास साक्षी है कि
पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के अंतर्गत होने वाला विकास लिंग आधारित भूमिकाओं और
स्त्रियों के शोषण को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए पहले यूरोप में घर ही उत्पादन
(भोजन, कपड़ा, साबुन, मोमबत्तियाँ आदि) का केंद्र हुआ करता था तथा स्त्रियाँ
उत्पादन, कृषि और पशुपालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
औद्योगिक क्रांति के साथ ही स्त्रियों की भूमिका बदल गई। एक ओर तो गरीब स्त्रियाँ
कारखानों और खदानों में (सस्ते श्रमिक के रूप में) काम करने और मजदूरों की नई
पीढ़ियाँ तैयार करने के लिए विवश हुई दूसरी ओर मध्यवर्गीय स्त्रियों को घरेलू
चहरदीवारी में बंद कर दिया गया ताकि वे उत्तराधिकारी पैदा करती रहें।”[15] उसी बाजार ने स्त्री के श्रम को भी अपने फायदे के लिए उपयोग
किया, “सस्ते श्रम की खोज हुई और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी ने
पाया कि घर के दायरे से बाहर निकालने को आतुर औरत को वह सस्ते और लचीले श्रम के
रूप में इस्तेमाल कर सकती है। इसलिए भूमंडलीकरण के पहले चरण में निर्यात हेतु माल
बनाने के लिए श्रम-प्रधान पौद्योगिकी में गरीब महिला श्रमिकों को बड़े पैमाने पर
खपाया गया।”[16] जिससे वह घर से लेकर बाज़ार तक एक श्रमिक ही बन कर रह गयी।
अंततः भूमंडलीकरण, मीडिया, पूंजीवाद एवं
बाजारीकरण ने स्त्री को स्वावलंबी बनाया तो वहीं उसने अपने फायदे के लिए उसे एक
उपभोग की वस्तु की तरह प्रयोग किया। इन सभी के मूल में एक ही चिंतन दृष्टिगत होता
है कि इसमें स्त्री की मुक्ति उसकी अस्मिता एवं अस्तित्व में स्वयं स्त्री का
अधिकार कहाँ है?
निष्कर्ष : भूमंडलीकरण ऐसा दौर
है जिसके चकाचौंध से कोई अछूता नहीं रहा। यह हमें उपभोक्ता बनाता जा रहा है। जिसके
चपेट में अधिकतर स्त्रियाँ ही हैं। भूमंडलीकरण ने अनुकरण करना सिखाया तो वहीं
बाजार ने उस अनुकरण की पूर्ति की। आज बाज़ार में वें सारी वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध
हैं जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। इसने स्त्री को स्वावलंबी बनाया तो वहीं उसे
अपने फायदे के लिए प्रयोग भी किया। कहीं ब्युटी प्रॉडक्ट के नाम पर तो कहीं सेल्स
गर्ल के रूप में स्त्री की जरूरतों को पूरा तो किया किन्तु कई बार यह उन पर हावी
भी हो जाता है। जिस कारण स्त्री की अस्मिता, उसकी स्वतन्त्रता, उसके निजत्व का हनन होता है, और मीडिया उसे हवाला देती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि
मीडिया वही करती है जो पूंजीपति उससे कराना चाहती है। मीडिया आज अपने टीआरपी बढ़ाने
एवं नम्बर वन बनने की होड़ में लगी है। जिस कारण वह पहले समाचार का प्रसारण करती है
और सारा श्रेय स्वयं बटोरती है।
संदर्भ :
[1]. डॉ. राम लखन मीणा, मीडिया विमर्श: आधुनिक संदर्भ, कल्पना प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृष्ठ-38
[2]. डॉ. राम लखन मीणा, मीडिया विमर्श: आधुनिक संदर्भ, कल्पना प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृष्ठ-111
[3].जॉन स्टुअर्ट मिल, अनु. युगांक धीर, स्त्री पराधीनता: प्रकृति, शक्ति और भूमिका से जुड़े प्रश्न, संवाद प्रकाशन,
2020, पृष्ठ-29
[4].डॉ. राम लखन मीणा, मीडिया विमर्श: आधुनिक संदर्भ, कल्पना प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृष्ठ-83
[5].डॉ. अमरनाथ, हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली,राजकमल प्रकाशन,2021, पृष्ठ-259
[6].डॉ. प्रभा खेतान, स्त्री: उपेक्षिता, हिन्दी पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली,2002,पृष्ठ-25
[7].प्रभा खेतान,बाज़ार के बीच: बाज़ार के खिलाफ,वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,2021,पृष्ठ-24
[8].डॉ. राजनारायण पाण्डेय, हिन्दी कथा साहित्य में नारी शोषण, उत्कर्ष पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, कानपुर, 2013, पृष्ठ-102
[9].जॉन स्टुअर्ट मिल, अनु. युगांक धीर, स्त्री पराधीनता: प्रकृति, शक्ति और भूमिका से जुड़े प्रश्न, संवाद प्रकाशन,
2020, पृष्ठ-45
[10].किंगसन सिंह पटेल, नारीवादी आलोचना, अनन्य प्रकाशन,
2021, पृष्ठ-15
[11].सं. डॉ संजय गर्ग, स्त्री विमर्श का कालजयी इतिहास, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ट-105
[12].सं. रुचिरा गुप्ता, अनु. भावना मिश्र, वजूद औरत का स्त्री विमर्श: प्रतिनिधि पाठ, राजकमल प्रकाशन,
2020, पृष्ठ-21
[13].डॉ. अमरनाथ, हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन,2021, पृष्ठ-259
[14].किंगसन सिंह पटेल, नारीवादी आलोचना, अनन्य प्रकाशन,
2021, पृष्ठ-30
[15]. डॉ. अमरनाथ, हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन,2021, पृष्ठ-387
[16]. कुमार भास्कर, भूमंडलीकरण और स्त्री, संजय प्रकाशन, 2008, पृष्ठ- 8
नीतू थापा पी-एच.डी.- शोधार्थी
हिन्दी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग(मेघालय) 793022
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
बहुत बहुत बधाई हो नीतू जी । आपकी लेख अत्यंत ज्ञान वर्धक है ।
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