शोध आलेख : देव कृत ‘रस विलास’ में वर्णित नायिकाभेद : एक आलोचनात्मक विश्लेषण (आधुनिकता के
सन्दर्भ में)
- डॉ. सीमा रानी एवं रीना
शोध-सार : रीतियुगीन कवि देव ने ‘रस विलास में वर्णित नायिका भेद के माध्यम से समाज की मुख्यधारा से हटी हुई स्त्री का चित्रण कर उनके महत्व को प्रतिपादित किया है। विवेच्यग्रन्थ में चित्रित नायिका तत्कालीन समाज की मेहनतकश, श्रमशील, आत्मनिर्भर स्त्रियों का और प्रेम संबंधों को लेकर मुक्ति का आह्वान करती हुई स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है, जो उन्हें आधुनिक स्त्री की जमात में ला खड़ा कर देता है। यह ग्रन्थ पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष की बहुगमन प्रवृत्ति को भी हमारे सम्मुख लेकर आता है साथ ही बहुविवाह के कारण गार्हस्थिक कलह, पीड़ा झेलती स्त्रियों के दुःख को भी हमारे सम्मुख लाता है। देव का सामाजिक बोध और उनकी संवेदनशील दृष्टि उन आक्षेपों का भी खण्डन करती है, जो रीतिकाल को भोग विलास का चित्रण भर मानकर इस काव्य की अवहेलना करते है। हालांकि सौन्दर्यबोध की दृष्टि से देव को पूरी तरह से आधुनिक भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सामंतीय सौन्दर्य बोध से परिचालित स्त्रियाँ उन्हें प्रशंसनीय हैं। इसलिए उनके काव्य में सामंती सौन्दर्य के परिचालित नायिकाओं का भरपूर चित्रण हुआ है। मौलिकता के संदर्भ में देव के ‘रस विलास’को देखें तो उसमें चित्रित नायिका भेद की मौलिकता यह है कि इन्होंने तद्युगीन समाज की ऐसी स्त्रियों का चित्रण ‘रस विलास’ में किया, जिनकी प्रासंगिकता का प्रश्न आज भी जीवंत है। इसी कारण ‘रस विलास’ उपजीव्य ग्रन्थ कहा जा सकता है।
बीज शब्द : श्रमशील स्त्री, महिला सशक्तिकरण के सन्दर्भ में नायिकाओं की प्रासंगिकता,
प्रेम संबंधों
में मुक्ति, तद्युगीन (रीतियुगीन) समाज की स्त्रियों की दयनीय स्थिति,
बहुपतिविवाह,
पितृसत्तात्मक
समाज, तत्कालीन सामंती सौन्दर्य से परिचालित कवि की दृष्टि,
सामाजिक यथार्थ
का चित्रण।
मूल आलेख : हिन्दी साहित्य के उत्तरमध्यकाल को रीतिकाल भी कहा जाता है, जिसका केन्द्रीय विषय
श्रृंगार रहा है। चूंकि श्रृंगार के आलंबन नायक-नायिका रहें हैं जिस कारण नायक-नायिका
भेद रीतिकाल का सबसे प्रमुख अंग है। नायिका भेद की परम्परा जो संस्कृत काव्यशास्त्र
से शुरू होती है, उसी नायिका भेद का पूरा प्रभाव रीतिकालीन कवियों पर पड़ा। हालांकि
ऐसा भी नहीं था कि रीतिकवियों ने पूर्णतः संस्कृत काव्यशास्त्र का अनुसरण किया हो,
क्योंकि इनके काव्य में अपनी मौलिकता भी दृष्टिगत होती है। इसी कारण रीतिकाल में नायिका
भेद को अधिक विस्तार मिला है।
रीतिकाल में अनेक कवियों ने शास्त्रीय और व्यवहारिक दृष्टि से नायिका भेद की परम्परा
को समद्ध बनाया है, जिसमें केशव, बिहारी, मतिराम, देव, पदमाकर जैसे रीतिकालीन कवियों का नाम प्रमुख रूप से आता हैं।
देव का नायिका भेद इस रूप में सबसे समृद्ध कहा जा सकता है। इनकी दो रचनाएँ ‘रस विलास’ और ‘भाव विलास' नायिका भेद निरूपक ग्रन्थ है, जिसमें देव ने ऐसी स्त्रियों का
वर्णन किया है, जिन पर पूर्ववर्ती कवियों की नजर नहीं पड़ी है। इनका ‘रस विलास’तो पूर्णत: नायिका भेद को
ही अर्पित है, जिसमें नायिका भेद का विस्तार से वर्णन हुआ है।
देव के ‘रस विलास’ को नारी के विभिन्न भेदों और हाव-भाव का एक कोश कहे तो गलत न
होगा। इस ग्रंथ में कवि देव ने नागरी पुरवासिनी,
ग्रामीण,
वनवासिनी,
सैन्या,
पथिक वधु और उनके
अवतार भेद चूहरी से लेकर ऋषि पत्नी तक को स्थान दिया है। देव ने जाति (वर्ण व्यवसाय),
कर्म के आधार पर
भी नायिका भेद का विस्तार किया है। इसलिए डॉ. नगेन्द्र ने देवकृत ‘रस विलास’ को नायिका भेद का कोश स्वीकार किया है।1
रीतिकवि देव ने नायिकाओं के दैहिक सौन्दर्य का वर्णन तो बखूबी किया ही है, लेकिन
जो मौलिक बात है, वह यह कि देव स्त्री के श्रम में भी सौन्दर्य देखते हैं। इसलिए ‘रस विलास’ में श्रमशील व उपेक्षित नायिकाओं का वर्णन भी बहुतायत मिलता
है। देव ने नायिका भेद मुख्य रूप से उनके कर्म सौन्दर्य को ध्यान में रखकर किया है।
बाजार में बैठकर विभिन्न व्यवसाय करने वाली स्त्रियों का वर्णन करते हुए देव लिखते
हैं -
"जौहरिनी छपिन कह्यो पटविन और सुनारि।
गंधिन तेलनि तमोरनि कन्दुनि कुम्हारि।।"2
कपड़े सिलने वाली दरजिन स्त्री के रूप और गुण-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए देव कहते
हैं कि यह दर्जिन जब दो वस्त्रों के बीच सिलाई करती है तब यह अपने इस कार्य में गुण
का सार मिला देती है – "देत मिलाइ घने अपने गुन सार सुई किधो दती सुजानै।"3
पान बेचने वाली तमोरिन पान बेंचते हुए अपने सुन्दर हाव-भाव से ग्राहकों को अपनी
ओर खींच लेती है –
‘‘ऊँची दुकान पै बैचति पान तमोरनि प्रानन एंचत बैठी।।"4
पटविन रेशम का धागा बनाते हुए सबका मन मोह रही है
‘‘मोहति सी मन पोहति सी जन छोहति सी तनि भौंह लचावै।।"5
तो बाजार मैं बैठी इत्र बेचने वाली गन्धिनी नगरवासियों को अपनी सुगन्ध में बाँध
रही है -
अगरजै भीजी मरगजै बागै बनी ठनी हाट पर बैठी अति ही सुधरपन सो।।
´ ´ ´ ´ ´ ´ ´ ´ ´
बंधु किये मधुप मदन्ध किये पुरजन बांध्यो मनु गंधी की सुगंध झरपन सो।।6
देव ने ग्रामीण स्त्रियों की जाति का वर्णन कर्म के आधार पर किया है, जिसमें कहारिन,
अहीरिन,
काछिन,
कलारिन,
नेनुरिन प्रमुख
है। मछली बेचने वाली कहारिन का चित्रण करते हुए देव लिखते हैं -
"झाऊ की झवरिया में सफरी फरफरात बेंचति फिरति बोले बानी मनुहार
की।।7
रस्सी बेचने वाली कँगहेरिन या रस्सी पर चलकर तमाशा दिखाने वाली नटी हो;
देव ने तत्कालीन
समाज की सभी वर्गों की स्त्रियों का सूक्ष्म चित्रण ‘रस विलास’ में किया है। यथा -
"मोरपखा घुघचीन के जेवर जेब सो जेवरी बचति डोलै।।"8
(कँगहेरिन)
बाँस के सीस आकस में नाचति को न छके छवि सोन चिरि की।।9
(नटी)
उपर्युक्त पदों में जिन श्रमशील स्त्रियों का वर्णन मिलता है, वह बयां करता है
कि ये स्त्रियाँ आत्मनिर्भर होकर अपना जीवयापन कर रही थी। एक ऐसा समय जहाँ स्त्रियों
को घर में कैद रख यौनतृप्ति का एक माध्यम माना जाता था, वहीं पर ये स्त्रियाँ सामंती
समाज को चुनौती देती हुई अपने अदम्य साहस का परिचय देती हैं। स्त्री सशक्तीकरण के सन्दर्भ
में ये स्त्रियाँ प्रासंगिक हो उठती हैं - ‘‘क्योंकि उस दौर में अपने जीवनयापन के लिए वे पुरुषों पर निर्भर
थी। लेकिन इन विविध नायिकाओं का होना बताता है कि सब स्त्रियाँ एक तरीके से पुरुष पर
निर्भर नहीं थीं। उनकी निर्भरता के स्तर में फर्क
था। ... विभिन्न पेशों में लगी विक्रेता स्त्रियां भी हैं,
वे सेल्सवुमेन
भी हैं, एक अर्थ में स्वायत्त भी कही जा सकती हैं।10 इस परिप्रेक्ष्य में अगर देव की नायिकाओं को देखें तो महिला सशक्तीकरण;
जिसका उद्देश्य
महिलाओं को उनकी दयनीय स्थिति से ऊपर उठाकर आत्मनिर्भर बनाना है, उसी आत्मनिर्भर स्त्री
के चिह्न हमें देव के काव्य में दिखाई पड़ते हैं। ये नायिकाएँ अर्थोंपार्जन के लिए बाजार
में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है तथा अपनी आजीविका के लिए कुछ न कुछ बेचती है। यह कहना
गलत न होगा कि देव के नायिका भेद के वर्णन से तद्युगीन स्त्रियों की अपेक्षाकृत सम्पन्न
आर्थिकी का पता चलता है। सुधीश पचौरी के शब्दों में कहे तो ‘‘कहने की जरूरत नहीं कि ये औरतें उस वक्त की इकॉनामी में भी बड़ा
योगदान करती थी। ये हुनरमन्द थी और अपने हुनर
को बेचना जानती थी। ... अपने हुनर के साथ जिस तरह से ये रसिको को ग्राहकों को रिझाने
की क्षमता रखती है, उससे सिद्ध होता है कि वे खासी हुनरमंद हैं। हुनर और आत्मविश्वास
साथ-साथ आते है।11 अतः ये नायिकाएं अपने समय की पेशेवर थीं। भले ही आज की आधुनिक स्त्री की तरह उनके
पास आर्थिक अधिकार या प्रापर्टी राइट्स नहीं थे,
कानून का सहारा
नहीं था, फिर भी ये अपने तरीके से सबल-सशक्त नायिकाएं थीं।
देव का नायिका भेद तत्कालीन समाज का आईना दिखाता है। इनकी नायिकाएँ श्रमशील स्त्रियाँ
हैं, जो बाजार में बैठकर अपनी बेचने की कला से ग्राहकों को लुभाती हैं, तथा अर्थोपार्जन
करती हैं, वहीं दूसरी ओर ऐसी नायिकाएँ भी हैं, जो अपने प्रेम संबंधों का खुलेआम बखान
करती हुई प्रेम में मुक्ति का आह्वान करती हैं। इन नायिकाओं को गुरुजनों अथवा लोक-लज्जा
का कोई भय नहीं रहता है। देव लिखते हैं-
लाज की गाँठ गई छटिकै नहिं गाठ ते काहू छुटे न छुटाये।
आठहु याम उतैं उठि धावति साठौं घरी सुनठई है सुठाये।
ठाय कुठान उठान ठनी ठहकी ली रहै गुरु लोग रूठाये।
ऐंठनि ओठ उठी आंगियाँ अठिलानी फिरै भूज मूल उठाये।।12
ये नायिकाएँ समाज की दमित व्यवस्था को नकारती प्रियतम से मिलने चली जाती हैं। यथा
- ‘‘लेह लला उठि लाई हौ बालहि लोक की लाजाहि सो लरि राखौ।।"13
सामंती युगीन मर्यादाएँ
और सीमाएँ भी उसे रोक नहीं पाती हैं। यथा -
"ज्यों-ज्यों
सुधराई सोन उघरन देति त्यों सुंदरि सुघर घर घेरी न घिरती है।
´ ´ ´ ´ ´ ´ ´ ´ ´ ´
जिन-जिन ओर चित चो चितवत त्योंही तिन-तिन और तृन तोरति फिरति हैं।14
देव की नायिका न केवल अपने प्रेम संबंधों बल्कि अपनी यौन भावनाओं को भी खुलकर अभिव्यक्त
करती हैं यथा -
गावति रीझि रिझावति त्यां मतवारनि को मुख चूमति डोलै।
काम के बान हनी हिये मैं घर बाहिर घाइल घूमति डोलै।।15
‘‘काम घाम घी ज्यो पथिलात घनस्याम मन क्यों सहै समीप देव दीपति
दुपहरी।।"16
स्त्री यौनता की इतनी जबरदस्त उपस्थिति को देखकर सुधीश पचौरी ने रीतिकाल को ‘यौनता का काल’कहा है। वे कहते हैं - ‘‘स्त्रियों की यौनता का ऐसा बखान भक्तिकालीन कविता के भक्ति के
विरोध में भी खड़ा नजर आता है, जिसमें स्त्री को माया या नरक की खान बताया जाता था।
रीतिकाल ने स्त्री और उसकी यौनता के प्रति उस अपराध बोध को खत्म कर दिया। यौनता काल
कहते ही रीतिकाल अपने आप में पुरुष यौनता के बरक्स विमर्शात्मक हो उठता है।17
रीतिकाल का विरोध करने वाले आलोचकों को जवाब देते हुए सुधीश पचौरी कहते हैं - ‘‘कितना भयानक है यह देखना कि पूरे दौ सो साल तक रीतिकाल की कविता
‘अश्लील’ कहे जाने का दण्ड भोगती रही ... हजारों नायिकाएँ निर्जीव कर
दी गईं, जो कि किसी समय जीती जागती रही होगी।18
देव ने न केवल श्रमशील, आत्मनिर्भर और मुखर नायिकाओं का चित्रण किया बल्कि, इनकी संवेदनशील
दृष्टि उन स्त्रियों का भी चित्रण करती है जो, अपने गृहस्थ जीवन में विभिन्न कारणों
से दुःख, पीड़ा और यातना झेल रही थी। देव की नायिका सौतन के कारण दुःख
झेलती है। वे लिखते हैं-
"सखिन को सुख सुने सौतिनि को महादुख होत गुरुजन के गुन को गुरुर है।19
उपर्युक्त पद स्त्री के असुरक्षा भाव को लक्षित करता हुआ बहुपत्नीत्व की पीड़ा को
दर्शाता है। इतना ही नहीं पुरुष की बहुगमन प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए भी देव कहते
हैं –
"सौति भई सब
नारिन की सगरे न मोहि मनो मन पैठी।।"20
देव की यह यथार्थपरक दृष्टि सम्पूर्ण नायिका भेद में परिलक्षित होती है, जहाँ पर
इन्होंने स्त्रियों की दुख-पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। देव का यही सामाजिक बोध इन्हें
एक संवेदनशील कवि के रूप में स्थापित करता है। इस संदर्भ में डॉ. पूरनचंद टंडन का मत
सार्थक प्रतीत होता है। वे कहते हैं – "श्रृंगारिक
कवियों का सौन्दर्य भले ही श्रृंगारिकता और विलासिता से आच्छादित समाज से प्रभावित
था पर सामाजिक दायित्वों से भी ये कवि असंपृक्त्त नहीं रहे थे। इसी कारण समाजानुभवों
का प्रकाशन भी इनके यहाँ पर्याप्त रूप में हुआ है।"21 देव ने भी नायक-नायिका भेद के माध्यम से तद्युगीन समाज के स्त्री-पुरुष के अंतरंग
ब्यौरे को प्रस्तुत किया है। इसी सन्दर्भ में अयोध्या सिंह उपाध्याय का कथन विचारणीय
है। वे कहते हैं - ‘‘स्त्री-पुरुष के संबंधों में कैसे कटुता,
कैसे मधुरता आती
है ... स्त्री-पुरुष में क्या-क्या चालबाजियाँ होती हैं,
आपस में वे एक-दूसरे
के साथ कैसे कुंटिलताएँ करते हैं, वियोग अवस्था में उनकी क्या दशा होती है। इन सब बातों का व्यापक
वर्णन आपको नायिका भेद ग्रंथों में मिलेगा।22 इस अर्थ में देखें तो उपाध्याय जी का कथन देव के ‘रस विलास’ पर भी लागू होता है।
देव एक तरफ नायिका भेद के माध्यम से ऐसी स्त्रियों का चित्रण कर रहे थे जो सबल
थी, आर्थिक फलक पर पुरुष की भागीदार थी,
प्रेम संबंधों
को लेकर मुखर थी। वहीं दूसरी ओर वे अपने समय की सामंतीय मानसिकता से भी अछूते नहीं
रहें। ‘रस विलास’ हमें उसी मानसिकता का चित्रण दिखाई देता है। वैसे भी ‘‘कोई भी साहित्यिक कृति चेतन अथवा अचेतन रूप से सदैव उस वर्ग
की मानसिकता को प्रतिबिम्बित करती है जिसका कि लेखक प्रतिनिधित्व करता है।23
इस परिप्रेक्ष्य में देव की सौन्दर्य दृष्टि देखें तो वह भी सामंती सौन्दर्य बोध
से परिचालित रही है। इसका कारण बताते हुए डॉ. नगेन्द्र कहते हैं - ‘‘अतिशय वैभव का यह युग अतिशय विलास का भी युग था। मुगलपुर अनतःपुर
में हजारो स्त्रियां रहती थीं ... रीतिकाव्य का झलक बहुत कुछ इनका ही प्रतिरूप था।
छोटे-छोटे अधिकारियों और रइसों के सामने भी यही आदर्श था, और उनका भी सारा समय भोग
विलास में व्यतीत होता था। जिसका विवरण देव और अन्य कवियों के अष्टयामों में अत्यंत
स्पष्ट रूप से मिलता है।"24
देव की भिन्न-भिन्न नायिकाओं का सौन्दर्य चित्रण देखिए;
जो सामंती सौन्दर्य
बोध का प्रतिनिधित्व करती है। वह कुंदन के समान गौरवर्णी है - ‘‘कुंदन से अंग-नवजोबन सुरंग उठे उरज उठे अतंग धनय प्यौ जु परसत।।"25
"लता के समान दुबली
पतली ‘‘हाटक बुटी सी वाढी हाट पै हँसति ठाढी।26 वह नायिका हाथी के समान मंद मंद चलती हुई सबको आकर्षित करती है -
गजगौनी नौनी
धरे नोक की डरैया सीस नील से नैन नारि निरखी नुनेरा की।।27
जम्हाई लेती
आलस्य से मदमस्त स्त्री रीतिकाल में सौन्दर्य का प्रतिमान थी। यथा-
"जोबन के इतराहट
सो अठिलात अठोठनि ओठनि ऐंठी।"28
सौन्दर्य चित्रण से संबंधित उपर्युक्त सभी पदों में दरअसल शासक व उच्च वर्ग की
दृष्टि समायी हुई थी। इसलिए सोने सी गोरी,
बेल से लचीली व
पतली अलसाती अँगडाई लेती हुई और मादकता के साथ मंद-मंद चलती हुई स्त्रियाँ तद्युगीन
शासकों और उच्चवर्गीय विलासी समाज को प्रिय थीं। इस प्रकार के सौन्दर्य चित्रण का दूसरा
पहलू यह भी है कि आलस्यता, मदमदाती चाल में सौन्दर्य देखना उस जनजीवन की ओर भी संकेत करता
है, जिसमें गतिशीलता का अभाव है। इस सन्दर्भ में डॉ. मुकेश गर्ग कहते हैं - इस युग
में जीवन की मूलधारा का संबंध उस वर्ग विशेष से है, जिसमें छोटे छोटे सामन्त,
रईस,
अमीर और असरदार
होते हैं। कम से कम काव्य के अन्तर्गत इसी वर्ग के जीवन की अभिव्यक्ति सर्वाधिक हुई
है।"29 सवाल यह है कि क्या वर्तमान परिप्रेक्ष्य
में सामंती सौन्दर्य बोध की दृष्टि प्रासंगिक नहीं है?
आज भी हमारे समाज
में गौरवर्ण, पतली, छरहरी, लड़की की कामना की जाती है। इसका प्रामाणिक उदाहरण वैवाहिक विज्ञापनों
में देखा जा सकता है। आज भी उच्चवर्गीय समाज स्त्री की खास बनावट को पसंद करता है,
वहीं निम्न वर्ग का समाज ऐसी स्त्री को अस्वस्थ मानता है। ‘‘ग्रामीण बाला के हाथ पाव सींकिया नहीं हो सकते, क्योंकि वह कड़ी
मेहनत करती है। हाथ पाव की क्षीणता उसी जीवन प्रणाली का लक्षण है, जो मात्र समाज के
उच्चवर्ग के लिए संभव है, अर्थात शारीरिक श्रमविहीन जीवन प्रणाली।30 देव न केवल सामंती सौन्दर्य बल्कि सामंती मूल्यों के भी प्रशंसक हैं। वे कहते हैं
- शीलवान स्त्री वही है जो पति की सेवा में लगी रहे। पतिव्रता और कर्तव्यपरायण हो।
वह हमेशा अपने घर में रहे और तीनों लोकों की मर्यादा बनाए रखे। यथा -
"आपने ओक रहे अवलोकि तलोक की लीक सदा निरजोसी।।"31
और ऐसी स्त्री को कुलवती स्त्री कहते हुए देव उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं
-
तेरे अनगिने गुन रतन जतन करि गुरुजन पावै पैरि प्रेम पेखियन मैं।
´ ´ ´ ´ ´ ´ ´ ´ ´ ´
सील की सलिल निधि विधि तू बनाई जाके राजति जहाज भरी लाज आँखियन मैं।।32
नैतिक-अनैतिक मानदण्डों की दृष्टि से भी देखें तो, स्त्री-पुरुष व्यवहार संबंधी
दोहरे मानदण्डों का चित्रण देव के नायिका भेद में मिलता है। पर्दा प्रथा जो तद्युगीन
सामंती नैतिक मानदण्डों में से एक था तथा स्त्रियों की दयनीय स्थिति का कारण बना। उसका
चित्रण देव भी करते हैं और कहते हैं-
"घूंघट खुलत
अभे ऊलट है जैहे देव उद्धत मनोज जग जुद्ध जूति परैगौ।।"33
वहीं दूसरी ओर तद्युगीन पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के लिए बनाए गए नैतिक मूल्य
क्षमा, लज्जा, शीलता, दया, कुल की रक्षक जैसे मानदण्ड स्त्री पर आरोपित कर दिये गए थे,
जिस कारण स्त्री पुरुष की वर्चस्ववादी सत्ता के नीचे मूक बनकर रह गई थी। देव भी ‘रस विलास’ में ऐसी स्त्री को अष्टांगवती नायिका का दर्जा देकर उसका गुण
गान करते हैं। स्त्री के आठों गुण - यौवन,
रूप,
गुण,
शील,
प्रेम,
कुल,
वैभव,
आभूषण की चर्चा
करते हुए वे कहते हैं, जिस कामिनी में ये आठों गुण होते है, वही तीनों लोकां को मोहने
की शक्ति रखती है, यथा-
जो कामिनि में दखिये पूरन आठौ अंग।
ताही बरनौ नायिका त्रिभुवन मोहन रंग।।34
पहिले जोबन रूप गुन सल प्रेम पहिचानि।
कुल वैभव भूषन बहुरि आठौ अंग बखानि।।35
इस तरह देखें तो सामाजिक नैतिक व्यवहार के ये एकतरफा नियम स्त्री को पुरुष की दासी
मात्र बनने की ओर संकेत करते हैं। उस समय के सिद्धांतों में स्त्री को ‘देवी’ के समक्ष बनाकर पुरुष का खिलौना मात्र ही बनाया गया। वह स्त्री
मौन रहकर पुरुष का शोषण सहन करती है, जबकि पुरुष को इस नैतिक विधान से मुक्त रखा गया।
हालांकि आचार-व्यवहार संबंधी नैतिक नियमों में स्त्री को भोगवादी अथवा ‘वस्तुकरण’ के नजरिये से देखा गया, लेकिन देव के ‘रस विलास’में व्यक्त प्रेम संबंधी लक्षण यह भी दर्शाता है कि उस समाज
में प्रेम सिर्फ बनावटी या दैहिक नहीं है, बल्कि प्रेम संबंध में पुरुष और स्त्री दोनों
को समान स्तर पर तन-मन वचन से एक दूसरे के प्रति समर्पण की कामना भी वहाँ की गई है।
यह एक ऐसा समय था, जहाँ प्रेम को व्याभिचार माना जाता रहा तथा छल-कपट दूराव-छिपाव जैसे
विघटनकारी अनैतिक मूल्य दांपत्य संबंधों में जड़ जमाए हुए थे। उस समय में देव प्रेम
शब्द को सूक्ष्म दृष्टि से परिभाषित करते हुए प्रेम की व्याख्या करते हैं। यथा-
सुख दुखहू में एक सी तन मन बचननि प्रीति।
सहज नेह नित-नित नयो जहाँ सु प्रेम प्रतीति।।36
सवाल यह है कि देव ये जो वास्तविक सच्चे प्रेम का वर्णन करते हुए प्रेम में विश्वास,
समर्पण की बात
करते हैं - क्या यह पद आज के विवाहेत्तर संबंधों के कारण टूटते,
बिखरते,
दाम्पत्य संबंधों
के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होता है? क्या वास्तविक और सहज प्रेम को समझने में देव का काव्य वर्तमान
समय में प्रासंगिक नहीं ठहरता? इस तरह देखें तो स्त्री-पुरुष संबंधों में विश्वास, समर्पण के
चित्रण भले ही अधिक न हो लेकिन बिल्कुल ही नदारद है, ऐसा कहना उचित नहीं होगा। जब हम
पूर्वाग्रह से मुक्त होकर देव के ‘रस विलास’का विश्लेषण करते हैं तो, पाते हैं भले ही परकीया प्रेम का वर्णन
उनके काव्य में बहुतायत हुआ हो, लेकिन उन्होंने स्वकीया प्रेम को ही महत्व दिया।
निष्कर्ष : उपर्युक्त विश्लेषण के बाद कह सकते हैं कि देव ने ‘रस विलास’ में नायिका भेद के माध्यम से तद्युगीन समाज की भिन्न-भिन्न जातियों,
पेशों से संबंधित
स्त्रियों का ब्यौरा दिया है। यह ग्रन्थ देव की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है, जिसमें
समाज की स्त्रियों के वे उपयोगी विषय आ गए हैं, जिन्हें आज के समय में भी अप्रसांगिक
नहीं कहा जा सकता है। ‘रस विलास’ में वर्णित नायिका भेद के माध्यम से तत्कालीन स्त्री की सामाजिक
स्थिति का पता चलता है, जो देव के सामाजिक बोध का परिबोधक है। वहीं दूसरी ओर देव ने
श्रमशील नायिकाओं का चित्रण कर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तद्युगीन समाज की उन स्त्रियों
की ओर संकेत किया है, जो आत्मनिर्भर होकर अपना जीवनयापन कर रही थी। एक तरह से ये नायिकाएँ
अपने समय के यथार्थ को प्रदर्शित करती हैं। इनके काव्य में सौत की उपस्थिति सामंती
समाज में बहुप्रचलित प्रथा बहुपत्नी विवाह की घोषणा करती है। अतः देव के सामने समाज
के किसी वर्ग की स्त्री छिपी न रह सकी। उन्होंने तत्कालीन जीवन को पग-पग देखते हुए
स्त्रियों की यथास्थिति का वर्णन किया। हालांकि देव ने ‘रस विलास’ में नायिका सौन्दर्य पर बहुत जोर दिया, लेकिन उसी सौन्दर्य के
माध्यम से स्त्रियों के व्यवसाय, कर्म का वर्णन किया। इस प्रकार देखें, तो देव ने ‘रस विलास’ में नायिका भेद के नए आयामों का उद्घाटन कर अपनी मौलिकता को
अभिव्यंजित किया है। दीन दयाल के शब्दों में कहें तो ‘‘रीतिकाल में जहाँ चारों ओर चमत्कार कौशल का वातावरण था। ऐसे
में सूक्ष्म भावों को जलाये रखना, मार्मिक स्पंदों की
रक्षा करना किसी भी कलाकार के लिए सम्भव नहीं था। किन्तु देव इसके अपवाद कहे जा सकते
हैं, क्योंकि इन्होंने चाहे नायक के मन की तरंग हो, या नायिका के मन की पीड़ा के चाव
सभी को सफल रूप में अभिव्यक्ति दी है।"37
सन्दर्भ :
1.
डॉ. नगेन्द्र, रीतिकाव्य की भूमिका,
नेशनल पब्लिशिंग
हाउस, नई दिल्ली, 2012, पृ. 12
2.
डॉ. दीन दयाल, देव और उनका रस विलास,
नवलोक प्रकाशन,
भजनपुरा,
दिल्ली,
पृ. 150
3.
वही, पृ. 160
4.
वही, पृ. 157
5.
वही, पृ. 153
6.
वही, पृ. 155
7.
वही, पृ. 178
8.
वही, पृ. 190
9.
वही, पृ. 189
10.
डॉ. सुधीश पचौरी, रीतिकाल सेक्सुअलिटी का समारोह,
वाणी प्रकाशन,
न्यी दिल्ली,
2017, पृ. 156
11.
वही, पृ. 144
12.
डॉ. दीनदयाल, ‘देव और उनका रस विलास’,
आठवां विलास पद-50
13.
वही, पृ. 121
14.
वही, पृ. 119
15.
डॉ. दीनदयाल, देव और उनका रस विलास,
नवलोक प्रकाशन,
भजनपुरा,
दिल्ली,
पृ. 177
16.
वही, पृ. 217
17.
सुधीश पचौरी, रीतिकाल सेक्सुअलिटी का समारोह,
वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली,
2012, पृ. 174
18.
वही, पृ. 173
19.
डॉ. दीनदयाल, देव और उनका रस विलास,
लोक प्रकाशन,
दिल्ली,
2004, पृ. 143
20.
वही, पृ. 162
21.
डॉ. रमेश गौतम, डॉ. पूरनचंद टण्डन,
साहित्य का नया
विवेक, अभिव्यक्ति प्रकाशन,
नई दिल्ली,
पृ. 15
22.
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘‘हरिऔध’’, ‘रसकलश’, हिन्दी साहित्य कुटीर,
लक्ष्मी नारायण
प्रेस काशी, 1931, पृ. 131
23.
डॉ. मुकेश गर्ग, साहित्य और सौन्दर्य बोध,
कनिष्का पब्लिशर्स,
डिस्ट्रब्यूटर्स,
नई दिल्ली,
2010, पृ. 26
24.
डॉ. नगेन्द्र, रीतिकाव्य की भूमिका,
नेशनल पब्लिशिंग
हाउस, नयी दिल्ली, 2012 संस्करण, पृ. 12.
25.
डॉ. दीनदयाल, देव और उनका रस विलास,
नवलोक प्रकाशन,
भजनपुरा,
दिल्ली,
2004, पृ. 200
26.
वही, पृ. 186
27.
वही, पृ. 179
28.
वही, पृ. 162
29.
डॉ. मुकेश गर्ग, साहित्य और सौन्दर्य बोध,
प्रकाशन,
कनिष्का पब्लिशर्स,
डिस्ट्रीब्यूटर्स,
नई दिल्ली,
2010 पृ. 16
30.
वही, पृ. 18
31.
डॉ. दीनदयाल, देव और उनका रस विलास,
नवलोक प्रकाशन,
भजनपुरा,
नई दिल्ली,
पृ. 213
32.
वही, पृ. 214
33.
वही, पृ. 201
34.
वही, पृ. 195
35.
वही, पृ. 195
36.
वही, पृ. 207
37.
वही, पृ. 61
डॉ. सीमा रानी
(शोध निर्देशिका) एसोसिएट प्रोफेसर, दौलतराम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)
रीना (शोधार्थी)
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