पुस्तक समीक्षा : इतिहास और प्रकृति की पड़ताल करती यात्राएं
-हेमंत कुमार
‘इतिहास और प्रकृति.... दोनों’ गोविंद मिश्र की नवीनतम कृति है। जिसमें देश-विदेश दोनों स्थानों के परिवेश को सम्मलित किया गया है। लेखक इस यात्रा साहित्य को लिखने में उद्देश्य केंद्रित कम नैसर्गिक स्वच्छंद प्रवृत्ति से प्रेरित होकर लिखने के हिमायती रहा हैं। यह बात लेखक ने इस पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट किया हैं – “देखा जाए तो यह निष्प्रयोजन मुँह उठाया और चल दिए वाली बात... यही यात्राओं को विलक्षण जीवनानुभव बनाती है... जैसे साहित्य को भी।”1 इस यात्रा साहित्य को पढ़ने के उपरांत पाठक वर्ग को यह महसूस होगा कि लेखक प्रकृति प्रेमी, इतिहास के पक्षधर, पर्यावरण के संरक्षक, प्रकृति और मानवजन में सामंजस्य स्थापित करते हुए दिखायी देता है। इस यात्रा साहित्य में कुल तेरह अध्याय हैं। सभी अध्याय में प्रकृति और इतिहास की पड़ताल का स्पष्ट रूप से दर्शन होता है। इस यात्रा साहित्य में उत्तर प्रदेश के जालौन जिला का कालपी, मध्य प्रदेश का होशंगाबाद, पंचमढ़ी, गुजरात के वापी, उत्तराखंड के नैनीताल जिले में स्थित बिंसर, छत्तीसगढ़ तथा विदेश यात्रा में न्यूयार्क, कनाडा एवं भूटान के परिदृश्य में इतिहास और प्रकृति को खोजने की अनोखी पहल लेखक ने की है जो कि इस यात्रा साहित्य में जीवंतता के साथ दिखायी देता है। यह कृति इस मायने में भी खास है क्योंकि लेखक की यह श्रमसाध्य रचना है जो कि अमुक स्थान विशेष (इतिहास के पन्नों में नहीं है) एवं अमुक स्थान को देखने के बाद मन की उपज की साझी विरासत का प्रतिरूप है।
यात्रा के महत्व को रेखांकित करते हुए लेखक अपने कनाडा यात्रा के दौरान कहते हैं “जहाँ नहीं गए वहाँ जाना चाहिए, जब तक चलते-फिरते हो यात्राएँ बंद नहीं करना चाहिए।”2 यह कहने के पीछे लेखक का कुछ न कुछ उद्देश्य है। इसका पहला कारण तो यह है कि मनुष्य अपने रोजमर्रा की जिंदगी में क्या पाँलू कितना पाँलू जैसे प्रश्नों से जद्दोजहद करते हुई अपनी आवश्यकताओं को लगातार बढ़ाता जा रहा है। ऐसी स्थिति में कई बार मनुष्य का मानसिक संतुलन खो जाता है तथा वह तनाव, कुंठा का शिकार हो जाता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए मनुष्य को देश-विदेश के प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक स्थलों का आत्म साक्षात्कार जरूर करना चाहिए। इससे मनुष्य को एक अलग प्रकार का आत्मसंतोष, शक्ति एवं ताजगी का एहसास होता है। मध्य प्रदेश में स्थित पातालकोट (मध्यप्रदेश का हृदय स्थल) जहाँ भारिया जनजाति अपने सीमित प्राकृतिक संसाधनों में संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए खुशहाल रहते हैं। पातालकोट के प्राकृतिक सुषमा से प्रभावित होने के बाद लेखक लिखता है “खुशनसीब हूँ कि जब-तब भीतर बासीपन भरने लगता है तो निकल लेता हूँ…. और तरोताजा होकर लौटता हूँ। इस ताजगी का विश्लेषण नहीं हो सकता, न ही यह फौरन किसी चीज में प्रकट होती है…. लेकिन भीतर वह है…. यह एहसास बना रहता है.... काफी समय तक।”3 यात्रा करने से दूसरा लाभ यह है कि मनुष्य कुछ ऐसा ज्ञानार्जन करता है जो कि किताब, इंटरनेट, शब्दकोश में नहीं मिलता। ऐसा ज्ञान भ्रमणशील राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, निर्मल वर्मा एवं गोविंद मिश्र जैसे मर्मज्ञ जिज्ञासु साहसी व्यक्ति ही ले सकते हैं। भारत में ऐसे बहुत से स्थल हैं जो कि इतिहास का हिस्सा नहीं है जो कि इतिहास का हिस्सा होना चाहिए पर इतिहासकारों एवं साहित्यकारों का लेखन के प्रति यह उदासीनता को प्रदर्शित करता है। लेखक जब उत्तर प्रदेश के जालौन जिला के ‘कालपी’ नामक स्थान का यात्रा कर रहा था तो पाया कि यहाँ पर कभी चंदेलों का शासन हुआ था। यहीं पर बीरबल का घर ‘रंगमहल’, वेदव्यास के पिता पराशर मुनि का स्थान आदि महत्वपूर्ण स्थल है। कालपी जैसे छोटे से स्थान में इतना कुछ है तो पूरे भारत का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करें तो कितना कुछ जानने एवं लिखने को पड़ा हुआ है। इसी तरफ संकेत करते हुए कविवर ‘टैगोर’ ने कहा है “मैं देश-विदेश कहाँ-कहाँ घूमता रहा और अपनी द्वार की एक पत्ती पर ओस की जो बूंद ठहरी हुई थी... उसकी तरफ ध्यान ही न गया।’’4 लेखक इस पुस्तक को दो मामलों में ख़ास बनाने की कोशिश की है- एक, ऐतिहासिक तथा दूसरा, प्राकृतिक। सबसे पहले हम ऐतिहासिक परिवेश का मूल्यांकन करते हैं।
किसी भी समाज का अपना इतिहास होता है जिसमें उसके अतीत के संस्कार छिपे होते हैं। यह अतीत ही उस समाज के वातावरण से रूबरू कराता है। बीते हुए समय में इतिहास छुपा होता है इतिहास के माध्यम से हम उस समय के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक परिवेश से परिचित हो पाते हैं। अतः किसी भी समाज को जानने के लिए उसके इतिहास को जानना परम आवश्यक है। समाज के इतिहास से उसका साहित्य निकलता है। जिसको परखने का कार्य साहित्यकारों का होता है। साहित्यकार अपने पारदर्शी एवं दूरदृष्टि के माध्यम से इतिहास को साहित्य का चोला पहनाकर साहित्य का हिस्सा बनाते हैं।
गोविंद मिश्र इस पुस्तक मे इतिहास को साहित्य का भाग बनाकर अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाते हुए दिखाई देते हैं। लेखक राजस्थान के उदयपुर जिले में स्थित जयसमंद झील देखने निकला तो पता चला कि यह झील भारत की सबसे बड़ी एवं एशिया महाद्वीप में दूसरे नंबर की मनुष्य निर्मित झील है। जिसका निर्माण राजा जयसिंह ने करवाया था। वैसे भी उदयपुर झीलों का शहर भी कहा जाता है। उदयपुर का इतिहास समृद्ध है, इस संदर्भ में लेखक कहते हैं “जब अकबर ने चित्तौड़गढ़ छीन लिया तो उदय सिंह ने मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में बना ली। महाराणा प्रताप चित्तौड़गढ़ तो नहीं जीत पाए... लेकिन उदयपुर जीत लिया था... और उसे बचाये रहे। राजस्थान के दूसरे राजपूतों से फर्क यहाँ के राजपूतों ने अपने ऊपर कभी किसी विदेशी आक्रमणकारी का शासन नहीं होने दिया, इस मायने में यह सचमुच स्वतंत्र भूमि है।”5
हमारा देश बहुत से प्रसिद्ध स्थल, व्यक्ति एवं समाज से जुड़ा हुआ है परंतु कष्ट का विषय यह है कि आने वाले समय में इतिहास की धरोहर लेखन के अभाव में विस्मृत हो जाएगी या इतिहास के पन्नों से हमेशा-हमेशा के लिए गायब हो जाएगी। इस प्रकार से यह इतिहास साहित्य से अपने आप बेदखल हो जाएगा। जब साहित्यकार दलित, आदिवासी जैसे शोषित उपेक्षित बिंदुओं की ओर समाज और सत्ता पक्ष का ध्यान आकृष्ट कराता है तो समाज और सरकार के बीच वह विषय चर्चा में होता है तथा उस क्षेत्र में सुधार भी होता है। आमतौर पर राजनीतिक पार्टिया चुनाव के प्रचार - प्रसार में अतिशय पैसा खर्च करती है। वही समाज के लिए मूलभूत चीजों चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार एवं ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण के प्रति बेरुखी दिखायी देती है इस संदर्भ में लेखक ने ध्यान आकृष्ट कराने का कार्य किया है। लेखक जब नैनीताल का प्राकृतिक स्थल ‘बिंसर’ देखने निकले थे तब इनको रास्ते में अंग्रेजों के जमाने के कुछ प्रमुख इमारत मिली जो संरक्षण के अभाव में जर्जर हालात में है या तो उसे तोड़ा जा रहा है - जैसे कमिश्नर मार्टिन का बंगला, कमिश्नर हैनरी रैंस का बंगला। कमिश्नर हैनरी रैंस के बंगले में कभी अंग्रेज विल्सन और चाचा ‘नेहरू’ ठहरते थे। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के जालौन जिला में स्थित ‘कालपी’ नामक स्थान पर अकबर के नौ रत्नों में एक बीरबल का मकान ढह रहा है जो अपने संरक्षण के पुकार की कुछ आश लिये अभी जीवित है। इसी यात्रा के समय लेखक साहित्यकारों के प्रति सरकार के उदासीन रवैयेँ से नाखुश नजर आता हैं जबकि विदेशों में साहित्कारों से जुड़े धरोहर को बचा के रखा जाता है। लेखक ने अपने खेद को इस प्रकार व्यक्त किया है– “अब हमारा देश रूस, इग्लैंड तो नहीं की जगह-जगह कहीं किड्स–हाउस, डिकेंस हाउस दिख जाएँ। ले-देकर एक ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’ का है तो उसमें सरकार का क्या... हमारे यहाँ तो भ्रष्ट नेताओं की स्मृति को बनाए रखने की पुष्ट परंपरा बना ली है। राजनेताओं ने... प्रेमचंद, प्रसाद कौन हैं। तो यही बहुत है कि नगर में प्रतिमा तो स्थापित हुई।”6
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिला में स्थित ‘पंचमढ़ी’ स्थान अपनी प्राकृतिक सुषमा के लिए जाना जाता है जंगली पहाड़ी रास्ते से गुजरते समय लेखक ने सन् 1882 की बनी एक इमारत देखी। इस इमारत के संदर्भ मे लेखक खुद कहता है– “इसे तो ऐतिहासिक इमारत की तरह बचाया जाना चाहिए... पर हमारा हिंदुस्तान क्या-क्या, कहाँ-कहाँ बचाएगा। हमने गेस्ट-हाउस को अंदर से देखा, पुरानी शैली के कमरे और संडास, गर्मी से बचने की पुरानी व्यवस्था। एक सौ पच्चीस साल पहले का... तब यहाँ ठहरना कितना जोखिम भरा होता होगा। जंगल और जानवरों के बीच। इमारत अब भी काफी कुछ साबुत थी, पर उजाड़ पड़ी थी।”7
इस पुस्तक का दूसरा प्रमुख बिंदु प्राकृतिक सुंदरता और उसका संरक्षण है। प्राकृतिक सुंदरता में लेखक कभी पंचमढ़ी के रंग-बिरंगे वनो मे खो जाता है, तो कभी हिमालय पर प्रातः कालीन पड़ने वाले सूर्य की किरणों का बड़ा ही सम्मोहक चित्रण करता हैं, तो कभी नदियों को युवती की संज्ञा देता हैं। प्रकृति की गोद में बसे नैनीताल का ‘बिंसर’ क्षेत्र का भ्रमण के दौरान हिमालय पर्वत और उस पर पड़ने वाले सूर्य की किरणों से जो विहंगम दृश्य उभरता है उसका वर्णन लेखक इस प्रकार करता हैं “सुबह की धूप ने सबसे पहले उसे छुआ था... लाल - बैंगनी रंग उसके नीचे था और उसके बाद तो सवेरे की धूप जैसे बर्फ पर रंगों की लिखाई लिखने लगी... आर – पार तरह - तरह के रंग... कहीं चमकती चाँदी की तरह चिलकता हुआ, कहीं धुर सफेद, कहीं लाल, कहीं बैगनी, कहीं हलका नीला, कहीं सलेटी...पीछे नंदा देवी अपनी ऊँचाई में शांत खड़ी रंगों के खेल को देख रही थी।”8 पंचमढ़ी जाने के लिए जंगली पहाड़ी रास्तों से गुजरना पड़ता है पंचमढ़ी को सतपुड़ा की रानी भी कहा जाता है। लेखक के पंचमढ़ी पहुंचने के बाद का प्राकृतिक वर्णन अनुपम हैं– “ज्यों ही पंचमढ़ी की मुख्य सड़क पर आए... तो चारों तरफ रंग ही रंग। पीला, गुलाबी, लाल, हलका बादामी... हरा... नीला... कौन रंग जो नहीं थे। ये रंग फूल के नहीं नए आते पत्तों के थे। विभिन्न अवस्थाओं में पत्ते, कोई अभी फूटे, कोई चार दिन के ... कोई और पुराने।”9
दार्जिलिंग की प्राकृतिक सुषमा किसी से छुपी नहीं है। उसी क्षेत्र में छिपी ‘मिरिक’ जिसकी सुंदरता दार्जिलिंग से कमतर नही है। लेखक ‘मिरिक’ यात्रा के दौरान हिमालय से निकलने वाली नदी ‘तीस्ता’ का दार्शनिक अंदाज में शिक्षाप्रद वर्णन करता है “हिमालय का संदेश... ऋषि की तरह अपने में स्थिर रहो पर पिघल-पिघल कर इन नदियों की तरह बहो भी... समाज की तरफ लोगों की तरफ। इन नदियों की तरह निरंतर तरलता-निर्मलता लिये बहना, जीवन दायिनी जड़ी-बूटियों का घोल लिए बहना, रास्ते में जो गंदगी तुममें डाली जाये उसे साफ करते हुए बहना।”10 मनुष्य के जीवन में पेड़-पौधों और नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मनुष्य इन दोनों के प्रति ध्यान नहीं दे रहा है। नदी, झील, तालाब लगातार सूखते जा रहे हैं। बहुत से इलाके गर्मियों के दिनों में सूखे का दंश झेलते हैं। भूमि का जल स्तर लगातार नीचे होता जा रहा है जो कि चिंता का विषय है। छोटी नदियों, तालाब एवं झील क्षेत्र के जल स्रोत जब सूख जाते हैं तो बड़े-बड़े नेता माफिया लोग उस क्षेत्र का पट्टा करा लेते हैं। उन राजनेताओं का इन नदी, झील, तालाब के संरक्षण के लिए न कोई उपाय है न ही सुझाव। यदि सरकार और आमजन की जागरूकता से देश को सूखे की बीमारी से बचाया जा सकता है। बरसात के मौसम में बारिश के पानी को यदि संरक्षित किया जाए तो भूमि का जल स्तर बढ़ सकता है।
नदियाँ मनुष्य के जीवन का हिस्सा होती है। यही कारण है कि विभिन्न स्थलों पर नदियों को श्रद्धा के दृष्टि से देखते है, कुछ अपवादों को छोड़कर। वाराणसी में बाबा विश्वनाथ के उच्चारण से पहले ‘हर-हर गंगे’ का उच्चारण होता है। इसी प्रकार पहाड़ी स्थानों के भ्रमण के दौरान लेखक ने देखा कि चंबा क्षेत्र में ‘रावी’ तथा मनाली में ‘व्यास’ नदी आमजन के दिनचर्या मे शामिल है। लेखक जब ‘कालपी’ के पंचनदा (यमुना, चंबल, क्वारी, सेंध और पहुज) क्षेत्र भ्रमण कर रहा था तो नदियों के प्रति लोगों में श्रद्धा का भाव आयें इसीलिए नदी के संरक्षण और श्रद्धा के भाव को ध्यान में रखते हुए लेखक वहाँ के निवासियों को दो सुझाव देता है– “एक तो सभी मंदिरों में पाँचों नदियों की मूर्तियाँ, काल्पनिक ही सही, स्थापित की जाएँ, दूसरे क्वारी-यमुना के संगम पर हरिद्वार वाराणसी, चित्रकूट की तर्ज पर आरती की प्रथा आरंभ की जाए...ताकि लोगों के मन में नदियों के प्रति आदर भाव उभरे, वे उनकी कद्र करें।”11
लेखक का सुझाव सराहनीय है। इससे नदियों के प्रति श्रद्धा का भाव तो आएगा ही आएगा साथ ही जर्जर हालात से गुजर रही नदियों की तरफ सरकार और आमजन का ध्यान आकृष्ट हो पाएगा साथ ही पर्यटन का विकास भी होगा। परंतु इसमें भी सावधानी बरतने की जरूरत है। कई बार लोग अंधश्रद्धा के वशीभूत होकर नदी में फूल-माला, चढ़ावा भी डाल देते हैं जो बाद में इकट्ठा अपशिष्ट नदी के पानी को प्रदूषित करता है। नदी के आसपास पर्यटन का विकास हो जाने पर भी सावधानी रखनी चाहिए। लेखक जब जयसमंद झील के परिवेश का यात्रा कर रहा था तब ईको-टूरिज्म से किस प्रकार दु:खी हुआ। इसका उदाहरण देखा जा सकता है– “मैं अपराध बोध से घिर गया जिस रिसोर्ट में मैं ठहरने वाला था ... एक उसकी गंदगी फिर धीरे-धीरे दूसरे पहाड़ियों पर रिसोर्ट... कितनी गंदगी हो जाएगी। मीठे पानी की झील में? भले ही ट्रीटमेंट प्लांट लगा रखा हो, आदमी जहाँ जाता है गंदगी तो फैलाता ही है... अगली बार जब आऊँगा तब तक दो–तीन रिसोर्ट और बन जायेंगे। …यही है व्यवसायीकरण, प्रकृति से छेड़छाड़... अच्छा है कि इस खूबसूरत झील की वह दुर्दशा देखने को मैं नहीं रहूँगा।”12 मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का दोहन करने में थोड़ा भी कोताही नहीं करता है। यही कारण है लगातार वृक्षों की कटाई हो रही है जिससे बारिश के कारण भूमि का कटाव भी अधिक होने लगा है। पर्यावरण प्रदूषित तो हुआ ही है। इस संदर्भ में लेखक कहता है “हम जंगल बर्बाद करते है पेड़ों की अनाप-शनाप कटाई, खुद को आश्वासन देते हुए कि नये पेड़ लगा देंगे। जंगल बसाना उतना ही मुश्किल है जितना बर्बाद करना आसान।”13
मनुष्य उपयोगितावाद से इतना प्रभावित है की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जल, जंगल, जमीन को तुरंत क्षति पहुंचाता है जैसे इनको नष्ट करने में इन्हें जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है। वही आदिवासी समाज में इसके विपरीत भाव पायें जाते हैं ये लोग अपने प्रकृति के अंग जल, जंगल, जमीन को बचाने का हर संभव प्रयास करते हैं। आदिवासी समाज के बीच से कोई व्यक्ति जब प्रकृति का अतिशय शोषण होता है तो वह अपने प्राकृतिक संपदा को सुरक्षित रखने के लिए थोड़ा उग्र रूप अपना लेता है तो सरकार उसे बदनाम करने के लिए ‘नक्सलवादी’ नाम देकर उसको प्रचारित करती है। आदिवासी समाज प्रकृति के प्रति कितना सतर्क है इसका उदाहरण लेखक जब गुजरात राज्य के वापी जिला में एक छोटे से आदिवासी स्थल की यात्रा कर रहा था तो पाए कि “दो–तीन” घरों का एक छोटा सा गाँव जिसके आसपास पहाड़ी पर चालीस हजार पेड़ रोपे जाने का लक्ष्य चल रहा है। कुछ पेड़ लगाए जा चुके थे, कुछ के पौधे तैयार रखे थे।”14 अतः स्पष्ट है जिस आदिवासी समाज को हम असभ्य अशिक्षित कहते हैं असल में सभ्य और शिक्षित कहलाने का हकदार वही व्यक्ति है जो प्रकृति का रखवाला भी है।
पहाड़ों पर बहुत से जड़ी बूटियाँ होती हैं जो औषधि के काम आती हैं परंतु लगातार पर्यावरण प्रदूषण होने के कारण ये वनस्पतियाँ भी विलुप्त होने के कगार पर है। जैसे ‘किलमोड़ा’ जिससे डायबिटीज की, ‘मोहनिया’ जिससे कैंसर की दवा बनती है। इन जड़ी बूटी के संदर्भ में लेखक पातालकोट की यात्रा के समय कहते हैं “एक जड़ी-बूटी जिसे ‘मोहनी’ कहते हैं, शेर या शेरनी को भी खिला दो तो वह आपके वश में आ जाए... दूसरी ‘शिलाजीत’ जो यहाँ के पहाड़ों में पायी जाने वाली एक दुर्लभ शिला है... इसे पीसकर खाने से पुरुषत्व में वृद्धि होती है।” 15
भारत के कुछ शहरों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता है। सरकार भी इस पर अपना ध्यान दे रही है। इसका उदाहरण सिक्किम राज्य के गंगटोक क्षेत्र का भ्रमण के दौरान लेखक को दिखाई दिया– “यहाँ बाहर सिगरेट पीने, थूकने, कचरा फेंकने पर तत्काल ढाई सौ रुपयों का जुर्माना है। पोलीथिन वर्जित है।”16 विदेशों में भी अब कुछ शहर पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए कुछ छोटी-मोटी पहल शुरू की है। उदाहरण स्वरूप न्यूयार्क यात्रा के दौरान लेखक ने देखा कि एक पुरानी इमारत को कितनी सावधानी से तोड़ रहे हैं– “यहाँ इमारत बहुत करीने से धीरे-धीरे गिराना होता है...वर्ना बिल्डिंग मटीरियल में जो-जो है उसके एकाएक उड़ने से कितनी तरह की बीमारियाँ हो सकती हैं। कितना एहतियात बरतते हैं।”17
प्रकृति के संरक्षण के संदर्भ में लेखक ने भूटान और अमेरिका के परिवेश का तुलनात्मक मूल्यांकन करते हुए कहते हैं जो देश प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं कर रहे हैं प्रकृति भी उनको सुरक्षित रखी है। भूटान में पर्वतों, वनों को देवता मानकर पूजा जाता है। भूटान में धन को महत्व न देकर लोगों के खुशहाल जीवन को ज्यादा महत्व दिया जाता है। इस प्रकार लेखक भूटान से सीख लेते हुए संदेश देता हैं कि “वनों-पर्वतों को पूजो, तभी पृथ्वी पर आदमी की नस्ल बची रह सकेगी। नेशनल ग्रौस इनकम नहीं, नेशनल ग्रौस हैपिनैस।”18
इसके उलट अमेरिका में ‘अर्थ’ को ज्यादा महत्व दिया जाता है। जहाँ ‘अर्थ’ प्रभावी होगा वहाँ प्रकृति से छेड़छाड़ होना स्वभाविक है। प्रकृति के दुष्प्रभाव के कारण ही अमेरिका आये दिन प्रकृति के आपदाओं का दंश झेलता रहता है। यहाँ यदि प्रकृति के संरक्षण की बात की जाए तो संपूर्ण विश्व को अपनी व्यक्तिगत लाभ–हानि की आवश्यकताओं को दरकिनार करके तथा ‘सर्वहित’ को ध्यान में रखते हुए संपूर्ण पृथ्वी को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना से प्रेरित होकर सोचने की जरूरत है। प्रकृति की सुरक्षा के मद्देनजर कुछ राज्य या देश में पहल अवश्य हुए हैं मगर आवश्यकता है तो बड़े पैमाने पर प्रकृति के संरक्षण की। यदि जल, जंगल और जमीन है तो जीवन है। जीवन को बचाने के लिए प्रकृति का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। जिस प्रकार से संपूर्ण विश्व मे ‘अर्थ’ को प्रधानता दी जाती है, ठीक उसी प्रकार ‘प्रकृति’ को भी दी जानी चाहिए तभी पृथ्वी रहेगी तभी हमारा जीवन भी।
निष्कर्ष : हम कह सकते हैं लेखक ने इस यात्रा साहित्य के माध्यम से पाठक वर्ग को दो नेत्र दिये- पहला इतिहास का तो दूसरा प्रकृति का। जहाँ हम इतिहास के आईने में अपने अतीत की पड़ताल करते हैं तो वहीं प्रकृति के आईने में जीवन की।
सन्दर्भ :
- मिश्र, गोविन्द, इतिहास और प्रकृति .... दोनों, अमन प्रकाशन, कानपुर, 2017, प्रथम संस्करण, भूमिका से पृ. संख्या 5
- वही, पृ. संख्या
92
- वही, पृ. संख्या 74
- वही, पृ. संख्या 31
- वही, पृ. संख्या 135
-136
- वही, पृ. संख्या 20
- वही, पृ. संख्या 43
- वही, पृ. संख्या 14
- वही, पृ. संख्या 41
- वही, पृ. संख्या 131
- वही, पृ. संख्या
47
- वही, पृ. संख्या 138
- वही, पृ. संख्या 79
- वही, पृ. संख्या 87
- वही, पृ. संख्या 71
- वही, पृ. संख्या 134
- वही, पृ. संख्या 58
- वही, पृ. संख्या 125
हेमंत कुमार
(शोध छात्र ), हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग, केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय, कासरगोड ।
सम्पर्क : 8787287195, Kumarhemant0777@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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