शोध आलेख : समकालीन हिंदी ग़ज़ल और पत्रकारिता / दीपक कुमार

समकालीन हिंदी ग़ज़ल और पत्रकारिता

- दीपक कुमार


शोध सार  : भारतीय पत्रकारिता जो एक समय पर जन-जागरुकता का सशक्त माध्यम थी वह अब पूँजीवाद और राजनीति के हाथों में पड़कर अपनी प्रासंगिकता खोती चली जा रही है। ऐसे समय में जब पत्रकारिता के पेशे से जुड़े लोगों में जनता के प्रति उत्तरदायित्व की भावना धीरे-धीरे विलुप्त होती चली जा रही है तब साहित्य की विविध विधाओं की तरह समकालीन हिंदी ग़ज़ल में भी मीडिया के व्यवहार के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया का माहौल है। समकालीन हिंदी ग़ज़ल की जो परम्परा दुष्यंत कुमार से शुरू होती है उससे जुड़े अनेक महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों ने पत्रकारिता की विसंगतियों पर उसकी तीखी आलोचना करते हुए उसमें अपेक्षित सुधार की आवश्यकता को अनुभव किया है। इस शोध आलेख में शोधकर्ता के द्वारा समकालीन हिंदी ग़ज़लों में पत्रकारिता के विविध पहलुओं को प्रकाशित करने में उसकी भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।

 

बीज शब्द : पत्रकारिता, मीडिया, जनसंचार, न्यूज़, समकालीन हिंदी ग़ज़ल, ग़ज़लकार।

 

मूल आलेख : भारत में पत्रकारिता के जनक जेम्स आगस्टस हिक्की एक निर्भीक पत्रकार थे जिन्होंने भारत के पहले अंग्रेजी अखबारबंगाल गजटमें न सिर्फ भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठाकर अंग्रेजी सरकार को आईना दिखाया बल्कि तत्कालीन गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए और परिणामस्वरूप लंबा समय जेल में बिताया। हिक्की अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिए अपने शरीर को बंधन में बाँधने वाले समर्पित पत्रकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी और माखनलाल चतुर्वेदी सरीखे सैंकड़ों पत्रकारों ने जेल की सलाखों की परवाह किए बिना सच को सामने लाने का अप्रतिम उद्यम किया। आजादी से पहले की पत्रकारिता अंग्रेजी शासन के अन्याय के खिलाफ पुरजोर आवाज़ उठाने और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जान फूँकने का काम कर रही थी। इसी दौर में निराला के सम्पादकत्व में प्रकाशित होने वाले पत्रमतवालामें मशहूर शायर अकबर इलाहबादी की कलम की ताकत को बयान करने वाली पंक्तियाँ प्रकाशित होती थीं- “खींचो    कमानों को    तलवार  निकालो / जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।

 

एक समय पर भारतीय पत्रकारिता में जनसंचार के आधारभूत सिद्धांतों का पालन हुआ करता था पर सूचना और संचार क्रांति के पश्चात एक ओर मीडिया समूहों में बेतहाशा वृद्धि हुई दूसरी ओर पत्रकारिता की साख में भी भारी गिरावट आई है। यह वह  समय है जब पत्रकारिता पर व्यावसायिकता हावी हो चली है और पत्रकारिता संस्थान व्यावसायिक लाभ के लिए पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों से समझौता करने से भी नहीं चूकते हैं। राष्ट्रदूत दैनिक में बतौर अतिथि सम्पादक लिखते हुए दुर्गाप्रसाद अग्रवाल लिखते हैं- “आज हम जहाँ पहुँच गए हैं वहाँ लगता है कि अखबार - अब उसका रूप व्यापक होकर वह मीडिया बन चुका हैऔर व्यवसाय दोनों एक दूसरे में घुल-मिल गए हैं।[1]

 

यही कारण है कि आज वैश्विक स्तर पर कार्यरत रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स संस्था ने पत्रकारिता की स्वतंत्रता के मामले में भारत को 180 देशों में 142 वें पायदान पर रखा  है।[2] प्रतिबद्ध पत्रकार जो अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं उन्हें या तो नौकरी से निकाल दिया जाता है या फिर अपनी जान ही गँवानी पड़ती है। ऐसे में एक समझौतावादी मीडिया तैयार हो रहा है जो न केवल पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता करता है बल्कि इस तरह की पत्रकारिता से जुड़ने वाले पत्रकार को एक मनुष्य के तौर पर अपनी आत्मा से भी समझौता करना पड़ता है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट यानी आई.एफ.जे. के सर्वे के अनुसार वर्ष 2020 में 66 पत्रकारों और 2021 में 45 पत्रकारों की हत्या कर दी गई।[3] अफगानिस्तान में तालिबान के द्वारा मारे गए पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त पत्रकार दानिश सिद्दीकी का नाम इन्हीं पत्रकारों में शामिल है।

 

समकालीन हिंदी ग़ज़ल जो न केवल समकालीन भारतीय समाज की आशा-आकांक्षाओं और अपने समय की विसंगतियों को मजबूती और सच्चाई से अभिव्यक्त कर रही है बल्कि आम आदमी की पीड़ा और तमाम तरह की दुश्वारियों को व्यक्त करते हुए भारतीय व्यवस्था और राजनीति को कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूकती। इसी क्रम में हिंदी ग़ज़लकारों ने अपनी ग़ज़लों के अनेक शेरों में आज की पत्रकारिता पर करारे प्रहार किए हैं और उसे उसकी भूमिका स्मरण कराने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है। हिंदी ग़ज़ल में पत्रकारिता के पहलू को भली प्रकार से परखने के बाद यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि हिंदी ग़ज़लकारों को पत्रकारिता के उभरते हुए नए मूल्यों के प्रति आस्था शेष नहीं रही है। हिंदी ग़ज़ल के अग्रदूत दुष्यंत कुमार ने अपनी एकमात्र ग़ज़ल कृतिसाये में धूपमें राजनीति की साज़िशों का तल्ख़ अंदाज़ में पर्दाफ़ाश किया था। इसी क्रम में उन्होंने राजनीति द्वारा मीडिया के माध्यम से फैलाए जाने वाले झूठ पर तंज कसते हुए कहा है-

रोज़ अखबारों में पढ़कर ये ख़याल आया हमें

इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फस्ले-बहार।[4]

 

क्रांतिकारी हिंदी ग़ज़लकार बल्ली सिंह चीमा राजनीति के चरित्र को बारीकी से समझते हैं। उनका मानना है कि राजनेता पत्रकारिता का अपने हित साधने और अपनी असफलता को दबाने के लिए एक औजार की तरह उपयोग करते हैं-

राजा  बोला कम बारिश ही जन

नी है महँगाई की

साथ मीडिया भी दे तो ये मनवाया जा सकता है।[5]

 

वैश्विक आँकड़ों के अनुसार आज़ादी के बाद लगभग सभी सरकारें विकास के मोर्चों पर फिसड्डी साबित हुई हैं, फिर भी हर सरकार मेंसूचना विभाग के पोस्टरों पर चारों ओर खुशहालीके नारे दिखाई देते हैं। जब सरकारों के चुनावी वायदों की पोल खुलने को होती है और अगली बार सत्ता में आने के सारे दरवाजे बंद होते दिखाई देते हैं तब मीडिया के प्रसार तंत्र का दुरुपयोग करते हुए भ्रामक प्रचार करवाया जाता है। प्रतिनिधि ग़ज़लकार विनय मिश्र लिखते हैं-

इस उदासी के समय को भी बताएगा बहार

झूठ का बाज़ार  लेकर  मीडिया  मौजूद  है।[6]

 

पत्रकारिता की दुनिया में इन दिनोंफेक न्यूज़का बोलबाला है। इसके अंतर्गत अप्रतिबद्ध या किसी राजनीतिक पक्ष के लोगों द्वारा राजनीतिक लाभ लेने या जातिगत-धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए अफवाहों को ख़बर की तरह से प्रस्तुत किया जाता है। कम पढ़े-लिखे लोग या विवेकहीन लोग फेक न्यूज़ को सच समझकर अनपेक्षित व्यवहार करते हैं अथवा किसी मॉब का हिस्सा बन जाते हैं, जिसके कालान्तर में गंभीर परिणाम देखने को मिलते हैं। ग़ज़लकार बल्ली सिंह चीमा फेक न्यूज़ के प्रति सचेत करते हुए लिखते हैं-

ख़बरें पढ़कर दुखी  न हो  तू ख़बरों  की सच्चाई जान

बातें सुन हर एक की लेकिन बातों की गहराई जान।[7]

 

मीडिया में बैठे लोग ये जानते हैं कि जिन लोगों तक वे ख़बरें पहुँचा रहे हैं उनमें से एक बड़ा भाग टी.वी. पर दिखाई जाने वाली हर एक ख़बर को सच मान लेता है और बिना किसी प्राथमिक जाँच-पड़ताल के उसी के अनुरूप व्यवहार करता है। इस तरह से भारतीय समाज की अशिक्षा और कमजोर नागरिकबोध का लाभ लेते हुए अक्सर मीडिया के माध्यम से ऐसी ख़बरें प्रचारित करवाई जाती हैं जिनके पीछे प्रामाणिक तथ्य कम और भ्रामक सूचनाएँ अधिक होती हैं। ग़ज़लकार महेश अग्रवाल कहते हैं-

चार अंगुल है हकीक़त हाथ भर अफ़वाह है

सच खड़ा है सामने पर आदमी गुमराह है।[8]

 

नई कविता के कवि रघुवीर सहाय एक समर्पित पत्रकार भी थे। उनकी एक कविताकैमरे में बंद अपाहिजमें दिखाया गया है कि पत्रकारिता की दुनिया अब संवेदनशून्य होती चली जा रही है। मीडिया चैनलों के एंकर अब न्यूज़ रूम में लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए अपने लिए टीआरपी कमाने की जुगत में लगे हैं। टी.वी. के परदे पर भावशून्य चेहरों के साथ विराजमान पत्रकार पीड़ितों के दुःख-दर्द को कमाई का जरिया बनाने लगे हैं। पत्रकारिता में उभरती हुई इसी प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए ग़ज़लकार ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं-

पेश करते हैं दुःख को शगल की तरह

चैनलों को न जाने ये क्या हो गया।[9]

 

पत्रकारिता के राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित होने का जो दुष्परिणाम सामने आता है, वह है- पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतनिष्पक्षतासे समझौता करना। ऐसी स्थिति में वह पत्रकारिता न रहकर शोषण और अन्याय का तंत्र बन जाती है। कई बार किसी एक खबर को एक पक्षीय तरीके से प्रस्तुत करने पर समाज के विविध पक्षों में कटुता और वैमनस्य भी बढ़ने लगता है जिसकी परिणति जातिगत या धार्मिक उन्माद और दंगों में होती है। ग़ज़लकार महेश कटारेसुगमराजनेताओं की उन्माद से भरी अखबारी भाषा को लक्ष्य करते हुए कहते हैं-

जिसे  पढ़कर  हुए  दंगे  मुसलमाँ  और हिन्दू  में

समझ में आ गया भाषा वो अखबारी तुम्हारी थी।[10]

 

राजनीति और पूँजीवाद के रिश्तों ने जिन नए मीडिया घरानों को स्थापित कर दिया है वे सत्ता निर्माण का एक बड़ा तंत्र बन कर उभरने लगे हैं। मीडिया अब केवल उतना ही सच दिखाने लगा है जितना सत्ता में आने के लिए दिखाया जाना चाहिए। रवीश कुमार अपनी चर्चित पुस्तकबोलना ही हैमें लिखते हैं- “प्रेस की गुणवत्ता का अब एक ही मानक है कि वह सत्ता पक्ष का गुणगान कितना अच्छा करता है।[11] पत्रकारिता से गुणवत्ता की कल्पना तब तक नहीं की जा सकती जब तक वह उसके मूलभूत सिद्धान्तों की कसौटी पर खरी न उतरे। ग़ज़लकार महेश कटारेसुगमने अपनी एक ग़ज़ल में कहा है-

राजा  ने   संकेत  दे  दिया  सत्ता  का  गुणगान  करें

दौलत जितनी माँगें दे दो टी.वी. और अख़बारों को।[12]

 

देश में अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, दलित जातियों व स्त्रियों के शोषण की ख़बरें अब स्क्रीन पर स्थान नहीं पातीं बल्कि बॉलीवुड के सितारों और छोटे पर्दे के सास-बहू धारावाहिकों की रोचक ख़बरें दिखाकर पत्रकारिता को मनोरंजन का माध्यम बना दिया गया है। टी.आर.पी. बढ़ाने और अपने परिचितों को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिए के लिए मीडिया में न केवल तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है बल्कि खबरों को मसालेदार बनाकर इस तरह प्रस्तुत किया जाता है, जिससे जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों और यथार्थ समस्याओं से भटकाया जा सके। वरिष्ठ ग़ज़लकार-आलोचक हरेराम समीप का कहना है-

तू भूख, प्यास, ज़ुल्म की न बात कर अभी

टेलीविज़न  पे  ठहरी है  मेरी नज़र अभी।[13]

xxxx

यहाँ तो प्यास भर पानी भी अब सस्ता नहीं आता

मगर  अखबार  में  इस बात का चर्चा नहीं आता।[14]

 

भारतीय मीडिया का तटस्थ होकर मूल्यांकन करने पर यह स्पष्ट दिखाई देता है कि उस पर बाज़ारवाद का गहरा प्रभाव पड़ा है। अब मीडिया घरानों का टर्न-ओवर करोड़ों में होता है। भारतेंदुयुगीन सम्पादक प्रतापनारायण मिश्र की तरह अब कोई टी.वी. चैनल या अखबारआठ मास बीते जजमान, अब तो करो दच्छिना दानकी गुहार नहीं लगाता। न्यूज़ रूम में बैठे हुए पत्रकार की प्रतिबद्धता अब आम जन के प्रति नहीं रह गई है। पूंजीवादी व्यवस्था और राजनीतिक स्वार्थ ने पत्रकार और सम्पादक को कोरे विक्रेता के रूप में ढाल दिया है। न्यूज़ रूम की चिंता अब ख़बरों को बेहतर कीमत में बेचने तक सिमट कर रह गई है। हरीश अरोड़ा लिखते हैं- “पत्रकारिता अब मिशन नहीं प्रोफेशन बन गई है इसलिए जनसंचार की सामाजिक उपयोगिता जितनी अधिक सकारात्मक है बाज़ार के कारण वह उतनी अधिक नकारात्मक भी होती जा रही है।[15] मीडिया एंकरों का ग्लैमर और ख़बरों के प्रस्तुतीकरण का उनका फैशनेबुल अंदाज़ दर्शकों को अपने मायाजाल में फंसाने के लिए पर्याप्त है। गजलकार बल्लीसिंह चीमा अखबारों की इस बाजारवादी नीति को चीह्नते हुए कहते हैं-

वो सच्ची हो कि झूठी, हर ख़बर को बेच लेता है

बड़ा शातिर हमारे दौर का अखबार है प्यारे।[16]

 

इन दिनों पत्रकारिता मेंपेड-न्यूज़जैसे शब्द आम हो चले हैं। चुनावों से ठीक पहले या किसी बड़े घटनाक्रम के बाद किसी पक्ष को लाभ पहुँचाने के लिए ख़बरों के स्वरूप को बदल दिया जाता है अथवा किसी नेता के बयान के केवल कुछ ऐसे अंशों पर ही फोकस किया जाता है जिससे किसी सामान्य बात को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया जा सके, वहीं जब किसी मुद्दे पर सरकार को अपने घिरने की आशंका होती है तब सरकार के समाचार-मित्र किसी ख़बर को बड़ी चतुराई से दबा जाते हैं। प्रख्यात ग़ज़लकार राममेश्राम ने मीडिया की इस प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए कहा है-

सच नहीं छापते इस देश के अखबार

जो भूख से मरते हैं वे भूखे नहीं होते।[17]

 

महात्मा गाँधी ने नवजीवन, यंगइंडिया, हरिजन आदि पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पत्रकारिता में सत्य, ईमानदारी और दायित्वबोध के जो मानदंड स्थापित किए थे आज वे मानदंड धराशाही होते नज़र आते हैं। हिंदी ग़ज़ल में ग़ज़लकारों ने ये अनुभव किया है कि जिस अखबार की जितनी अधिक प्रतियाँ वितरित होती हैं उस पर ख़बरों में हेर-फेर करने का उतना ही अधिक दबाव भी रहता है। समाचार-पत्रों और न्यूज़ चैनलों से जुड़े मीडिया समूहों पर आए दिन होने वाली आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की कार्यवाही इसी ओर संकेत करती है। ऐसे माहौल में ग़ज़लकार शेरजंग ने ख़बरों के आधे-अधूरे ढंग से प्रकाशित होने की शंका व्यक्त करते हुए कहा है-

बड़ी शानो-शौक़त से अखबार निकले

कि   आधे-अधूरे   समाचार   निकले।[18]

 

हिंदी ग़ज़ल ने पत्रकारिता को केवल विरोध या प्रतिकार के चश्में से ही नहीं देखा है। पत्रकारिता में विकसित होते नए मूल्यों के मूल्यांकन के बाद हिंदी ग़ज़ल में पत्रकारिता से जुड़े लोगों पर पड़ने वाले मानसिक दबाव की भी नोटिस ली गई है। पत्रकारिता में टी.आर.पी. आश्रित वेतन व पदोन्नति व्यवस्था ने इस पेशे से जुड़े लोगों को जहाँ एक ओर अत्यधिक महत्वाकांक्षी बना दिया है वहीं दूसरी ओर आजीविका चलाने की लाचारी भी उनकी ईमानदारी और सिद्धांतों के आड़े आती है। पत्रकारिता की इस समस्या पर विचार करते हुए जनवादी ग़ज़लकार महेश कटारेसुगमलिखते हैं -

दौरे    हालात   में  दुश्वारियों  को  देखा  है

ख़बरनवीस   की   लाचारियों  को  देखा  है

सच न लिखने की हिदायत उन्हें देता मालिक

झूठ    लिखने  की  खुद्दारियों  को  देखा है।[19]

 

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जहाँ पत्रकारिता पूँजीवाद और राजनीति से अप्रभावित रहते हुए पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता नहीं करती है, वहाँ वह सामाजिक परिवर्तन का एक बड़ा कारक सिद्ध होती है। अख़बार के कॉलम में छपने वाली खबरें किसी एक मुद्दे का राष्ट्रीयकरण भी कर सकती हैं और उसे संसद में चर्चा के विषय के रूप में स्थापित भी कर सकती हैं, वहीं अपने हक़ के लिए लड़ने वाले लोग भी पत्रकारिता की ओर आशा भरी नज़रों से देखते हैं। पत्रकारिता की इसी ताकत को पहचानते हुए कमल किशोर श्रमिक लिखते हैं-

पिछले  कुछ  दिनों  से  संसद  में  यह  बहस  है

क्यूँ  भूख  उग  आई  है  अखबार  के  कालम  में

कुछ  लोग हक़ के ख़ातिर मिल कर के लड़ रहे हैं

बन्दूक  उठाई    है   अखबार   के   कालम   में।[20]

 

जहाँ एक ओर पत्रकारिता पर पक्षपात करने का आरोप लगता है वहाँ यह भी हकीक़त है कि देश की समस्याओं और आम जन की दुश्वारियों को जानने का एकमात्र विश्वसनीय माध्यम भी पत्रकारिता ही है। आज़ादी के 75 वर्ष के बाद भी अगर देश के किसी हिस्से में गरीबी और भूख से किसी की मौत होती है तो उसकी सूचना भी हमें समाचार-पत्रों और टेलीविजन से ही मिलती है। समाचार-पत्रों में छपने वाली ऐसी ख़बरें ही हमें भारत के भविष्य के संकेत प्रदान करती हैं। प्रतिनिधि ग़ज़लकार शिवओम अम्बर अखबार में प्रकाशित भूख और बदहाली की तस्वीरों में सत्ता के प्रति आक्रोश की अग्नि को सुलगते हुए देखते हैं-

पल  रही है  झोपड़ी  की  कोख  में लपटें

कह रही है हर सुबह अखबार की भाषा।[21]

 

पत्रकारिता को लोकतंत्र की तीनों संस्थाओं पर निगरानी रखने और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित करने के लिएलोकतंत्र का चौथा स्तम्भकहा गया था, लेकिन आज के हालात इस ओर संकेत कर रहे हैं कि इस चौथे स्तम्भ की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए भी अब किसी नई संस्था की आवश्यकता है। न्यूज़-रूमों में चीखते-चिल्लाते और गाली-गलौज पर उतारू एंकर और सत्ता के अनुचर या वैतालिक बन चुके अखबार किसी स्वस्थ लोकतंत्र के प्रहरी होने की योग्यता खो चुके हैं। शशि थरूर ने दैनिक भास्कर में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा है- “प्रतिस्पर्द्धा ने दर्शक और विज्ञापन राजस्व पाने की दौड़ शुरू कर दी है, जिससे धीरे-धीरे भारतीय पत्रकारिता की गुणवत्ता गिर रही है। जहाँ चौथे स्तम्भ को सम्पादन के उच्च मानकों और पत्रकारिता के मूल्यों के लिए जाना जाता था, वहीं अब यह सनसनीखेज-वाद और मानहानि का कुरूप प्लेटफ़ॉर्म बन गया है।[22] ऐसे में समकालीन हिंदी ग़ज़ल पत्रकारिता से जुड़ी अनेक विसंगतियों पर कठोर प्रहार करते हुए न सिर्फ़ उसकी कमियाँ गिना रही है बल्कि इस पेशे से जुड़े लोगों को अपना कर्त्तव्य याद दिला कर पत्रकारिता की शुचिता बनाए रखने की सकारात्मक प्रेरणा प्रदान कर रही है।

 

सन्दर्भ :


[1] दुर्गाप्रसाद अग्रवाल : ‘मीडिया: उदास रात और टूटे हुए दीये’, राष्ट्रदूत, (जयपुर), 24 जनवरी, 2022, पृ. 2

[4] दुष्यंत कुमार : साये में धूप, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, चौंसठवाँ संस्करण, 2016, पृ. 63

[5] बल्ली सिंह चीमा : उजालों को खबर कर दो, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृ. 56

[6] विनय मिश्र : तेरा होना तलाशूँ, शिल्पायन, दिल्ली, 2018, पृ. 117

[7] बल्ली सिंह चीमा : उजालों को खबर कर दो, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृ. 75

[8] महेश अग्रवाल : जो कहूँगा सच कहूँगा, उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, 2009, पृ. 21

[9] ज्ञानप्रकाश विवेक : गुफ़्तगू अवाम से है, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृ. 74

[10] महेश कटारेसुगम’ : सारी खींचतान में फ़रेब ही फ़रेब है, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2018, पृ. 72

[11] रवीश कुमार : बोलना ही है, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, द्वतीय संस्करण, 2020, पृ. 13

[12] महेश कटारेसुगम’ : दुआएँ दो दरख्तों को, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2018, पृ. 78

[13] हरेराम समीप : इस समय हम, शब्दालोक, दिल्ली, 2011, पृ. 16

[14] हरेराम समीप : इस समय हम, शब्दालोक, दिल्ली, 2011, पृ. 45

[15] हरीश अरोड़ा : जनसंचार, युवा साहित्य चेतना मंडल, दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण, 2016, पृ. 22

[16] बल्ली सिंह चीमा : हादसा क्या चीज़ है, समय साक्ष्य, देहरादून, द्वितीय संस्करण, 2019, पृ. 104

[17] राम मेश्राम : शोलों के फूल, मेधा बुक्स, दिल्ली, 2006, पृ. 44

[18] शेरजंग गर्ग : हिन्दुस्तानी ग़ज़लें (सं. कमलेश्वर), राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ. 108

[19] महेश कटारेसुगम’ : प्रतिरोधों के पर्व, बुक्स क्लिनिक, बिलासपुर, 2021, पृ. 82

[20] कमल किशोर श्रमिक : श्रमिक की ग़ज़लें, युगप्रभा प्रकाशन, कानपुर, 2001, पृ. 87

[21] शिवओम अम्बर : विष पीना विस्मय मत करना, पांचाल प्रकाशन, फर्रूखाबाद, 2018, पृ. 37

[22] https://www.bhaskar.com/opinion/news/demands-on-democracy-arise-due-to-attacks-on-freedom-of-press-128420971.html

 

दीपक कुमार, शोधार्थी

मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान

9950885242


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च  2022 UGC Care Listed Issue

अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )

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