सोशल मीडिया और स्त्री
- प्रो. रमा
सोशल मीडिया ने व्यक्तित्व विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। हाशिए के समाज को भी नया माध्यम मिला जिससे वह अपनी बात समाज के बौद्धिक वर्ग तक पहुंचाने में सफल हुए। मीडिया ने अभिव्यक्ति के जिन माध्यमों का विकास किया, उसे इंटरनेट की सुविधा ने और सहज बना दिया। भाषा, संस्कृति और क्षेत्र की सीमाओं को तोड़कर लोग एक दूसरे से संवाद में सफल हुए तो उसमें केवल और केवल सोशल मीडिया की ही देन थी। समाज के उपेक्षित वर्ग दलित, आदिवासी, स्त्री के साथ थर्ड जेंडर को भी अपनी बात कहने का मौका मिला। इस माध्यम ने केवल साहित्य को नहीं, बल्कि अपने अन्दर की दबी भावना को स्वर दिया- “व्यक्तित्व विकास में मददगार सोशल मीडिया ने स्त्रियों के व्यक्तित्व को निखारने का भी काम किया है। घर बैठे आप देश, भाषा और संस्कृति के दायरों से परे जाकर किसी भी कम्युनिटी से जुड सकते हैं। आपको नए विचार मिलते हैं, नई बातें पता चलती हैं और अलग-अलग तरह के नज़रियों से आपका परिचय होता हैं। इस प्रक्रिया में आप अपने जीवन में भी नई चीजों के लिए ज्यादा खुलने लगते हैं बशर्ते आप दिमाग खुला रखें।”[4]
अपने नाम की परिभाषा में ‘सोशल मीडिया’ सीधे समाजिकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम पहलुओं से जुड़ जाता है। यह सच भी है कि आज दुनिया भर के लोगो को एक साथ जोड़ने का सबसे बड़ा माध्यम ये सोशल मीडिया बन चुका है। यह व्यवसायिक दुनिया है लिहाजा प्रतिस्पर्धा की भावना के लगातार नए माध्यमों का जन्म भी हो रहा है। सन 2005 के आस-पास ऑरकुट एक चमत्कारी सोशल मीडिया के रूप उभरता है और युवा पीढ़ी के जेहन मे अपनी जगह बना लेता है। लेकिन फेसबुक के आगमन ने ऑरकुट के जादुई भ्रम से सबको बाहर कर दिया। वर्तमान मे फेसबुक ने अपनी पकड़ विश्व के हर तीसरे व्यक्ति पर बना रखी है। आज कल वाट्सऐप भी तेजी से लोगो मे लोकप्रिय हो रहा है, ट्विटर अभी भी आम लोगो मे अपनी पकड़ नहीं बना पाया है। उसमे एक तरह की अभिजात्य प्रवित्ति है जो कुछ बौद्धिक लोगों तक ही सीमित है।
इस बात पर अनगिनत बहसें, संगोष्ठियाँ हो चुकी हैं कि इस पुरुषवादी समाज मे स्त्री अपनी सम्मान जनक स्थिति किस तरह से निर्मित करे। अपनी भावनाओं को किस तरह से उन लोगो तक पहुंचाए जो उसी की तरह बेचैन और हाशिए पर हैं। कुछ दिन पूर्व तक अभिव्यक्ति के साधन सीमित थे और जो थे, उन पर पुरुषों का वर्चस्व था। अख़बार, पत्रिकाएँ आदि की दुनिया बहुत सीमित और महंगी हो चुकी है जबकि यह सोशल मीडिया कम पैसे में अधिक लोगो द्वारा और अधिक माध्यमों तक प्रयोग मे लायी जा सकती है। आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता की दहलीज पर खड़े होने का दावा करने के बावजूद भी हमारा समाज महिलाओं को लेकर आज भी संकुचित और परंपरावादी है। अपनी जोरदार लेखनी से साहित्य की दुनिया मे अपनी सम्मानजनक स्थिति स्थापित करने बाद अब सोशल मीडिया मे भी अपनी स्थिति को बनाए हुई है। इसमे फेसबुक, ब्लॉग्स, वेबसाइट और वाट्सऐप की महत्त्वपूर्ण भूमिका देखी जा सकती है। सदियों से अपनी इच्छाओ और भावनाओं को दबाकर जीने पर विवश स्त्रियों को जब सोशल मीडिया का साथ मिला तो उनकी दमित भावनाएं कविता, कहानी, लेख आदि का रूप लेकर सामने आ गयी गई। अभिव्यक्ति की इसी स्वतंत्रता ने उन्हे सिर्फ साहित्यिक विधाओं तक ही सीमित नहीं किया, बल्कि तमाम विमर्शों से भी जोड़ दिया। फेसबुक और ब्लॉग्स आज विमर्शों का बढ़ाने के सबसे बड़े माध्यम है। महिलाओं ने अपने स्वयं के ब्लॉग्स अरम्भ कर अपनी लेखनी को अभिव्यक्ति देना आरंभ किया। सोशल मीडिया की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ कुछ भी निजी नहीं है (हालांकि कई मामलों मे निजीत्व के खो जाने का डर भी बना रहता है) सब कुछ लोकतान्त्रिक है। यहाँ आपकी किसी भी टिप्पणी पर होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही हो सकती है। कारण यही है कि सोशल मीडिया किसी के लिए प्रतिबंधित नहीं है। यहाँ आधुनिकता और परंपरा दोनों पर एक साथ बहसे होती हैं। दरअसल इन सोशल मीडिया मे प्रवेश करने वाली महिलाओं मे वही लोग हैं जो बौद्धिक है, बौद्धिक नहीं तो कम से कम शिक्षित हैं जो सामाजिक बिसंगतियों और अपने जीवन के उनमुक्त्तता के विरोध मे आने वाले अवरोधों को भली-भाँति पहचानती हैं। महिलाओं के लिए अभिव्यक्ति का लोकप्रिय माध्यम फेसबुक और ब्लॉग्स सिर्फ इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं हो जाता कि उसने उनकी लेखनी को व्यक्त करने का एक माध्यम दिया, बल्कि यह विश्वास भी दिया कि वे वह भी लिखें जिसे समाज परंपरा के नाम पर वर्जित करता आया है जबकि वह व्यक्त होना जरूरी था। हालांकि इसी के साथ यह सत्य भी जुड़ा हुआ है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ अतिबौद्धिक और उत्तर-आधुनिकता का दम भरने वाली महिलाओं ने इन सोशल माध्यमों का फायदा भी उठाया। फेसबुक पर ऐसे महिला संगठनों और व्यक्तिगत महिलाओं की कमी नहीं हैं जिन्होने यौनिकता को व्यापार की तरह प्रस्तुत किया है। जिस भारत मे आज भी रोटी, कपड़ा और मकान से बड़ी सच्चाई कुछ भी नहीं, वहाँ मात्र ‘लीव इन रिलेशन” और ‘उन्मुक्त जीवन शैली” की बात करना बहुत बड़ी बेईमानी होगी। भारत मे स्त्रियों की स्थिति कभी भी सम्मानजनक नहीं रही। अपने संघर्षों और व्यक्तिगत प्रयासों से अवश्य किचन से बाहर भी एक दुनिया बना ली है, पर वहाँ भी वह स्वतंत्र नहीं है, क्योंकि हमारी मानसिकता ने अभी भी उसे उस रूप मे स्वीकार करने की आदत नहीं डाली है। जिन महिलाओं को सोशल मीडिया का साथ मिला है वह यौनिकता और सेक्सुयलिटी से अधिक अस्मिता और अधिकार की बात करें तो बेहतर है। क्योंकि जैसे ही हम बौद्धिक समाज मे प्रवेश करके अपनी एक सम्मानित छवि का निर्माण करने मे सफल हो जाते हैं, हमारी जिम्मेदारी उन महिलाओं मे प्रति बढ़ जाती है जो आज भी किचन और घर के आँगन से बाहर नहीं निकाल पाती। सोशल मीडिया इसमे बहुत बड़ी भूमिका निभा सकता है। इस समाज को बनाए रखने के लिए पुरुषों ने जिस सामन्ती मानसिकता का प्रयोग किया है, उसका हमे नहीं करना है। प्रभा खेतान ने लिखा है- “यह दुनिया पुरुषों ने बनाई, पर स्त्रियों से पूछकर नहीं”[5] अर्थ यह है कि हमारी सफलता तभी सार्थक है जब हम वह गलती न करें जो पुरुषों ने की। हम अगर चाहते हैं कि आने वाला समय स्त्री के अधिकार और चेतना का समय हो तो यह दुनिया इस बार स्त्रियों से पूछकर बनानी होगी। खासकर उन स्त्रियों से जो “असली भारत” मतलब “गाँव” मे रहती हैं, क्योंकि अस्मिता, अधिकार और संबल की सबसे अधिक आवश्यकता उन्ही को है। अनामिका ने गाँव की उन्हीं महिलाओं के पक्ष मे लिखा है- “तकलीफ खतरनाक चीज होती है, उससे यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह अनन्त कल तक अंधेरे कोनों मे मुहँ लपेटे रहेगी”[6]
अनामिका जिन अंधेरों, तकलीफ़ों की बात कर रही हैं, उसे अगर सोशल मीडिया का प्रयोग कर हम कुछ कम कर सके तो हमारी बौद्धिकता और चेतनासंपन्नता का इससे बड़ा कोई और उदाहरण नहीं होगा।
यह सवाल बहुत बार उठाया जाता है, पर हर बार महत्त्वपूर्ण है कि-“स्त्री की मुक्ति किस चीज में है?” इसका उत्तर आज तक हमारे पास नहीं है, क्योंकि हम कभी भी इस पर एक साथ नहीं सोचते, बल्कि अपने-अपने सुविधा के अनुसार अपनी मुक्ति का मार्ग खोजते है। इस तरह तो सारी बहसें व्यक्तिगत हो कर रह जाएगी। अब जब अभिव्यक्ति के इतने साधन हमारे पास है तो हमे सबको साथ लेकर सोचना है और एक लंबी लड़ाई की बजाय सार्थक लड़ाई लड़ी जाए। सिमोन से बहुत ही सटीक लिखा है- “स्त्री कहीं भी झुंड बनाकर नहीं रहती। वह पूरी मानवता का आधा हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं है। गुलाम अपनी गुलामी से परिचित है, एक काला आदमी अपने रंग से, पर स्त्री घरों, अलग –अलग वर्गों और भिन्न-भिन्न जातियों मे फैली हुई है।”[7]
हमारी अस्मिता तभी बनेगी जब हमारा बिखरा व्यक्तित्व सिमट जाएगा, जब हम एक हो जाएँगी।
सोशल मीडिया ने एक तरफ जहाँ स्त्रियों के लिए अभिव्यक्ति और अस्मिता के हक मे एक सकारात्मक पहल की है, वहीं इसका नकारात्मक पक्ष यह भी है कि स्त्रियों के साथ जो घटनाए घट रही हैं या जो व्यक्तिगत संबंधों मे कड़वाहट आ रही है, वह भी इन सोशल मीडिया मे तेजी से अपलोड हो रही है। इस पर कोर्ट ने कई बार प्रतिबंध भी लगाया पर कोई परिणाम नहीं आ पाया। फेसबुक पर लड़कियों के नाम से तमाम फेक आईडी तो हैं ही, देह-व्यापार के भी कई संगठन सक्रिय हैं जो लड़कियों की अश्लील और नग्न तस्वीरें अपलोड करते हैं। विवाह कराने का दावा करने वाली कई संस्थाए देह-व्यापार मे लिप्त हैं। यौनिकता को लेकर कुछ महलाएँ इतनी उग्र हो जाती है कि अपने व्यक्तिगत जीवन को सार्वजनिक करके सोशल मीडिया के लोकतंत्र पर सवाल भी खड़े करती है। राखी सावंत जैसे व्यावसायिक चरित्र जब सोशल मीडिया पर यह लिखते हैं कि- “Rep is sir prize sex” या पूनम पांडे जैसी बाजारू मॉडल बार-बार अपने नग्न होने की सूचना देती है तो इससे पूरी स्त्री जाति की छवि खराब होती है। दिक्कत तब और अधिक हो जाती है जब कुछ संगठन और व्यक्ति इन लोगों के पक्ष मे खड़े होकर यह कहना शुरू करते हैं कि जब देह ही हमारी मुक्ति मे बाधक है तो उसका उपयोग ही क्यों न किया जाए? उपयोग से सीधा मतलब जिस्मफरोशी से ही है। तब सवाल उठता है कि फिर संबंधों का क्या करें? इन लोगो ने उसे भी बेचा। राखी सावंत का स्वयंवर किस तरह मीडिया ने भुनाया, वह किसी से छुपा नहीं है। ‘राखी का स्वयंवर’ एक तरह से देखें तो स्त्री मुक्ति के कुछ नए प्रश्नो को भी खड़ा करता है। अब तक तो यही रहा है कि विवाह जैसी संस्था पर पुरुषों का अधिकार रहा। उनकी मर्ज़ी से सब कुछ होता रहा। लड़की अपनी नियति मान कर उसे स्वीकार करती रही है, पर राखी सावंत ने पुरुष समाज को चुनौती दी। परंपरा को तोड़ा भी। परंतु सवाल यह है उसके पीछे मंशा क्या है? जाहिर है राखी का स्वयंवर मात्र एक ‘धारावाहिक’ की तरह था जिसने विज्ञापन और बाज़ार का उपभोग किया। सोशल मीडिया ने इस स्वयंवर को भुनाने के लिए अपना स्तर गिरा दिया था।
सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति का जो माध्यम दिया है, उसका कुछ नुकसान भी है। नुकसान यह है कि अभिव्यक्ति के नाम पर यहाँ लोग जो चाहते हैं, लिख देते हैं। इसकी शिकार महिलाएं अधिक होती हैं। एक तरफ जहाँ महिलाओं को अभिव्यक्ति का साधन मिला, वहीँ दूसरी ओर महिलाओं को कुत्सित मानसिकता का शिकार भी बनाया जाता है। समाज में जो हो होता है, सोशल मीडिया पर वही देखने को भी मिलता है- “जो समाज में है, उसी की प्रतिच्छवि सोशल मीडिया में दिख रही है। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। उदाहरण के लिए, घर और घर से बाहर महिलाओं को जिस तरह लांछित होना पड़ता है, सोशल मीडिया में भी उन्हें ठीक वैसी ही उपेक्षा मिलती है। सोशल मीडिया में अधिकतर पुरुष अपनी नारी विद्वेषी भावना बेहिचक प्रकट करते हैं। यह हमारे समय की भीषण सच्चाई है।”[8]
कुल मिलकर देखें तो सोशल मीडिया ने महिलाओं के एक नई दुनिया ईजाद की है। महिलाएं बिना किसी मनसिकता का शिकार हुए खुलकर लिख रही हैं। एक महिला दूसरे को जागरूक कर रही है जिसके अन्दर जो क्षमता है, उसे वह लोगों तक पहुंचा रही हैं। हुनर को दुनिया के सामने लाने में अब वह हिचक नहीं रही हैं। लिख रही हैं, गा रही हैं, नाच रही हैं, अभिनय कर रही हैं। उनके लिए सोशल मीडिया एक खुला असमान है- “सोशल मीडिया के मायने बाकी समाज के लिए चाहे जो भी हो, पर स्त्रियों के लिए यह एकदम अलग है। इसने स्त्रियों के लिए आजादी का आसमान और व्यापक कर दिया है। इस आजादी ने उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करते हुए एक ऐसा मंच दिया है जहाँ वह अपने हक की लड़ाई लड़ सकती हैं। सोशल मीडिया ने स्त्रियों की स्थिति में काफी बदलाव किया है।”[9]
सोशल मीडिया से स्त्री के संबंध की चर्चा छोड़ दें तो व्यवहारिक रूप में इसके नुकसान भी हैं। उसके अतिशय प्रयोग से लोग अवसाद और तनाव में डूब रहे हैं। लोगों के जीवन में तमाम बीमारियाँ प्रवेश कर चुकी हैं। तमाम तरह की लुभावनी वेबसाइट्स युवा पीढ़ी को भटका रही है। मनोचिकित्सक भी इसकी लत को बीमारी मानने लगे हैं- “कई चिकित्सकों का मानना है कि सोशल मीडिया लोगों में निराशा और चिंता पैदा करने वाला एक कारक है। ये बच्चों में खराब मानसिक विकास का भी कारण बनते जा रहा है। सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग निद्रा को प्रभावित करता हैं। साइबर बुलिंग, छवि खराब होना आदि जैसे कई अन्य नकारात्मक प्रभाव भी हैं। सोशल मीडिया की वजह से युवाओं में 'गुम हो जाने का भय' (एफओएमओ) अत्यधिक बढ़ गया है।”[10]
समग्रतः सोशल मीडिया ने जहाँ अभिव्यक्ति के माध्यमों का विस्तार किया, वहीँ समय की बर्बादी भी की। स्त्री जीवन की दृष्टि से देखें तो जो महिलाएँ इसका बेहतर उपयोग कर रही हैं, उनकी पहचान बनाने में सोशल मीडिया अहम् भूमिका निभा रहा है। महिलाओं की भागदारी समाज में तेजी से बढ़ी है। स्त्री ने सोशल मीडिया के कारण आज लेखन के साथ अपनी तमाम कलाओं का भी विस्तार किया। समाज की उपेक्षित महिलाएँ इस माध्यम से आगे आई और अपना नाम बनाने में सफल हुईं।
सन्दर्भ :
[1] अमितविश्वास,हिन्दी समय
[2] सूचना प्रौद्योगिकी और समाचार पत्र, रवीन्द्र शुक्ला, राधाकृष्ण प्रकाशन, पटना, पृ.34
[3] सोशल
मीडिया : वरदान
भी अभिशाप भी, अभिलेख यादव,
https://www.pravakta.com
[4] सोशल
मीडिया ने बदली तस्वीर,संगीता
सिंह, जागरण
डॉट कॉम, 4 दिसंबर
2016
[5] बोउआर, द सिमोन, स्त्री उपेक्षिता, प्रभा खेतान, हिन्द पाकेट बुक्स, पृष्ठ-19
[6] अनामिका, स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष, वाणी प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ-37
[7] बोउआर, द सिमोन,: स्त्री उपेक्षिता, डॉ॰प्रभा खेतान, हिन्द पाकेट बुक्स,
2002, पृष्ठ-19
[8] तसलीमा नसरीन https://www.amarujala.com/columns/opinion/women-in-social-meadia
[9] https://hindi.momspresso.com/parenting/jimdagi-ke-khubasurata-ramga/article/striyom-ka-naya-dosta
[10] हिंदी की दुनिया डॉट कॉम.
प्रो. रमा
प्राचार्य, हंसराज कॉलेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
9891172389
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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