समीक्षा : डॉ. स्नेह लता
नेगी के साहित्य में आदिवासी स्त्री चिंतन के स्वर
- त्रिपुरेश गोंड
हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में परम्परागत रचना प्रक्रिया से इतर विमर्शों और हस्तक्षेपों का दौर शुरू हुआ, जिसमें समाज के उन वर्गों की आवाज को स्थान मिला जिनको अभी तक ‘स्वानुभूति‘ व्यक्त करने का मौका नहीं मिला था जबकि उनकी अनुभूति दर्दनाक थी, यही कारण है किवह दलित, आदिवासी व स्त्री समाज केv द्वारा आत्मकथात्मक साहित्य क रूप में आक्रोश के साथ व्यक्त की गई। साहित्य में इन शोषित वर्गों द्वारा एक आन्दोलन के रूप में कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, संस्मरण जैसी विधाओं में रचना कर्म शुरू किया गया जो ‘साहित्यिक न्याय‘ के लिए जरूरी थी क्योंकि इससे साहित्य में हाशिए के वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित होने लगी। वर्तमान समय में हिन्दी साहित्य में मुख्य रूप से तीन-चार प्रकार के विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श और किन्नर विमर्श पर आधारित कथा-साहित्य देखा जा सकता है, जिसमें डॉ० स्नेह लता नेगी के सम्पादकीय पुस्तक ‘आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ‘ सन् 2020 में प्रकाशित हुआ। मोटे तौर पर देखा जाए तो यह एक 19 लेखों का संग्रह है, जिसमें आदिवासी स्त्रियों के संघर्षों को बयान करता है लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए यह पुस्तक उस पूरे समुदाय की संघर्ष-गाथा है जिसे तथाकथित ‘लोकतांत्रिक आधुनिकता अपने अन्दर समाहित कर रही है। डॉ० स्नेह लता नेगी ने बहुत कौशल के साथ इस पुस्तक में ‘आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ में कथा की देशकाल बद्धता को कायम रखते हुए इसे एक वैश्विक आयाम दिया है जो क्रमशः पूरे ”इतिहास” में स्त्री पाठ संचारित दिखाई देता है।
आदिवासी समाज मुख्यधारा के लिए सभ्य
समाज की गिनती में कभी नहीं रहा। यदि हम आदिवासी समाज की स्वायत्तता पूर्ण
सांस्कृतिक व्यवस्था को देखें तो किसी भी सभ्य समाज की सभ्यता से कम नहीं है।
लेकिन दुनिया को देखने का सभ्य दृष्टिकोण पूरे विश्व में आधुनिक और गैर आधुनिक
असभ्य श्रेणी में रखें गए हैं और देश दुनिया को देखने का यही प्रचलित मानसिकता
हमारे देश में भी रही। किसी भी आदिवासी समाज को जब आज करीब से जानने समझने की
कोशिश करेंगे तो आप यह पाएगें कि कितनी संतोषी, शांतिप्रिय और सहजीवी समाज हैं ऐसे में
एक तरफ सभ्य समाज दुनिया में शांति कायम करने का संदेश देता है।
आदिवासी समाज के सामाजिक सांस्कृतिक
व्यवस्था को समझे बिना किसी बाहरी व्यक्ति का उनके बहुपक्षीय आयाम और आदिवासी
स्त्री की अस्मिता से जुड़े मुद्दों के साथ संवाद करना संभव नहीं होगा। जिस तरह का
व्यापक विमर्श पूरे विश्व में यह चला उसमें आदिवासी स्त्री के मुद्दों और समस्याओं
को कितनी प्राथमिकता दी गई जमीनी हकीकत को देखने की जरूरत है। आदिवासी स्त्री समाज
जो दूसरों से कई रूपों में अद्वितीय है उससे अभी तक उस रूप में संवाद नहीं किया
गया जैसा कि वह मांग करता है। स्त्री आन्दोलन में आदिवासी स्त्री मुद्दों को
व्यापकता और सहजीविता के भाव के साथ उठाने की आवश्यकता है।
ऐसा प्रायः कम ही होता है कि कोइ
व्यक्ति (लेखिका) एक सफल कवि और कहानीकार होने के साथ ही एक सजग सम्पादक भी हो
किन्तु डॉ० नेगी में एक सफल और सजग सम्पादक का रूप साफ-साफ दिखाई देता है उनके सफल
सम्पादक कर्म का एक महत्वपूर्ण अंश ‘आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ‘ है, जिसपर यहाँ विस्तार से चर्चा की जा रही
है। यह एक ऐसी पुस्तक है जो केवल सम्पादक कर्म को ही नहीं, अपितु लेखकों के लेखन कर्म, भाषा की बुनावट के साथ कथाकार की
संवेदना को भी बुनती है, उसे एक रूप प्रदान करती है। सम्पादक को देखना उसी प्रकार
अलग होता है, जैसे
कोई सामान्य व्यक्ति किसी घटना को देखें और स्थिति को बयाँ करें तो निश्चित ही
दोनों के दृष्टिकोण में बहुत अन्तर होगा। सम्पादक में किसी को सम्यक रूप से देखना
होता है तो साथ ही उसकी शक्ति और सीमा को भी दृष्टि मेंरखकर व्याख्या करनी होती
है।
सम्पादक इस पुस्तक में आदिवासी स्त्रियों के विविध विषयों के
द्वारा एक ऐसी संवेदनशील विषय, एक ऐसा विजन का परिचय देती है, जिसके माध्यम से वह साहित्यिक दृष्टि को
भी एक दृष्टि प्रदान करता दिखाई देता है। जिसमें आदिवासी समाज से लेकर स्त्रियों
की स्थिति को बड़े फलक तक तथा विविध आयामों को विवेचित करता है। इसमें लेखिका
(सम्पादक) ने बड़ी कुशलता से बहुत बारीक किन्तु अतिआवश्यक अनछुऐ बिन्दुओं को उठायी हैं जिससे कई गम्भीर आदिवासी
स्त्रियों के मुद्दों को सामने लाती हैं। वास्तव में यह सृजन उनकी पैनीदृष्टि का
परिचायक है।
हिन्दी की आदिवासी कथा लेखिकाओं में
लेखिका डॉ० सावित्री बड़ाईक ने अपने इस लेख में आदिवासी महिला कथाकारों के बारे में
बताती हैं वह कहती हैं कि झारखण्ड और
नार्थ-ईस्ट, इन दो
क्षेत्रों से ही कोई पहला आदिवासी लेखिका होगी। उनका यह मानना ज्यादा है क्योंकि
अस्मिता और आत्मनिर्णय यानि जल, जंगल, जमीन पर मालिकाना हक की लड़ाई इन्हीं इलाकों में सबसे पहले
शुरू हुई। डॉ० बड़ाईक बताती हैं कि मूलतः हिन्दी में लिखने वाली एलिस एक्का पहली
पीढ़ी की तथा रोज केरकेट्टा दूसरी पीढ़ी की प्रमुख आदिवासी महिला कथाकार हैं। तीसरी
पीढ़ी में फ्रांसिस्का कुजूर और नयी पीढ़ी में लकड़ा हिन्दी में उभरती हुई आदिवासी
महिला कथाकार हैं।”1
आदिवासी समाज की जिजीविषा, जीवन्ततः, सहृदयता, सहिष्णुता, श्रमशील जीवन, प्रकृति से लगाव-जुड़ाव अपने हक के लिए
स्त्रियों का आवाज उठाना आदि महिला आदिवासी कथाकार अपने कथा, कविताओं से समाज के सामने ला रही हैं।
आदिवासी साहित्य में स्त्री अस्मिता की
खोज- इस लेख में निवेदिता जी ने लिखा है कि उत्तर-आधुनिकता युग में हम यह कह सकते
हैं कि भारतीय समाज संघर्षशील अस्मिताओं के दौर से गुजर रहा है। समकालीन
परिस्थितियों में अस्मिता का प्रश्न ‘सार्वभौमिक प्रश्न‘ बनता नजर आ रहा है। प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र ‘अस्मिता‘ के लिए संघर्षरत है। आज स्त्री समाज
अपनी अस्मिता को लेकर सजग हुआ है इसमें सभी स्त्रियाँ आती हैं। समतामूलक समाज की
स्थापना नारीवादी आलोचना का लक्ष्य है।
इस लेख में स्त्रियों की खुद की सोच है ”ठीक इसी प्रकार स्त्रिों की स्वंय की
सोच थी मोटा-मोटी तीन तरह है, खासकर यौन-स्वतंत्रता, स्त्री देह अथवा घर-परिवार के दायरे को
लेकर सीमित हो जाती है। इस लेख में हम देखते हैं कि आदिवासी साहित्य में स्त्री के
तनावों, दुःखों, भावनाओं और इन सबों के बीच उनकी
जिजीविषा का संघर्ष और अस्मिता बोध का वर्णन बहुत मार्मिक ढंग से हुआ है।”2
रमणिका
गुप्ता अपने ‘आदिवासी
संस्कृति में स्त्री का दर्जा‘लेख में आदिवासी स्त्रियों के प्रश्नों को पाठक के सामने
लाती दिखाई देती हैं। ”वह कहती हैं कि उनके समाज में भी कुछ ऐसे कठोर नियम और
मापदंड हैं जो स्त्री को पुरूष से कमतर बनाने व आंकने के लिए गढ़े गए हैं।3
”भाषा साहित्य और आदिवासी स्त्रियाँ‘ भाषा समाज के सभी वर्गों के प्रति तटस्थ
रूप नहीं अपनाते। इस लेख में वंदना टेटे लिखती हैं” हम भाषा का अपने हक में इस्तेमाल करने
के उद्देश्य से अपनी विशेष शब्दावली और अभिव्यक्ति आरोपित करते हैं। आदिवासी
स्त्रियाँ सभी विषयों एवं विधाओं में आदिवासी स्त्रियों को लेकर घोटुलदृष्टि और
उत्सुकता ही प्रमुख रही है। आदिवासी स्त्रियाँ हर वक्त, हर किसी के साथ सहवास के लिए तत्पर रहती
हैं। क्योंकि उनका समाज यौन वर्जना से मुक्त समाज है। आदिवासी जिस भाषा को जानते
और समझते हैं, मैं
खुद को उसी भाषा में अपने आपको अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम होती है, यानी कि हम लोगों की मातृभाषा खड़िया, झारखण्ड की संपर्क भाषा नागपुरी और
राष्ट्रªभाषा हिन्दी
है।”4
आदिवासी चिंतन परंपरा और भारत की पहली
आदिवासी स्त्री कथाकार लेख में डॉ० स्नेहलता नेगी ने पहली आदिवासी लेखिका एलिस
एक्का को प्रथम स्त्री कथाकार मानी है। जो एक सही एवं तर्क पूर्ण लगता है। इस लेख
से मालूम चलता है कि एलिस एक्का पचास के दशक से लिखना शुरू कर दी थी। इस बात की
पुष्टि वन्दना टेटे भी करती हैं वह कहती हैं कि इनकी पहली कहानी जनवरी 1962 में छपी थी अगर देखा जाए तो प्रेमचन्द
के बाद यह हिन्दी की पहली दलित कहानी है। डॉ० नेगी ‘जुगनू और अंबा गाछ‘ कहानी के बारे में कहती हैं कि यह कहानी
सबसे मार्मिक कहानी है। जिस प्रकार जुगनू को पकड़ते ही वह अपनी चमक खो देता है उसी
प्रकार आदिवासी समाज में भी जब विकास अपने साथ वंचना, गरीबी और कई तरह के बीमारियाँ भी साथ
लाती है तो वह समाज भी उस जुगनू की तरह अपनी चमक खो देता है जहाँ की वन संपदा, खनिज, पर्यावरण आदि सभी जब विकास की बली चढ़
जाती हैं तो आदिवासियों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ने लगता है।
डॉ० नेगी ‘दुर्गी के बच्चे और एल्मा की कल्पनाएँ
कहानी का जिक्र करते हुए कहती हैं कि ”ये कहानी अपने आप में विशिष्ट कहानी है। बच्चे ‘दुर्गी‘ नामक दलित स्त्री की है और उनके बारे में
सोचने वाली ‘एल्मा‘ आदिवासी स्त्री है। कहानी दोनों
स्त्रियों के इर्द-गिर्द घूमती और दोनों एक दूसरे का सुख-दुःख साझा करती और एक
दूसरे के साथ खड़ी होती हैं।” इस कहानी में आदिवासी स्त्री का निश्छल प्रेम प्रकट होता
है। एलिस एक्का को कहानियाँ व्यक्ति के भीतर आशा का गहरा स्त्रोत प्रवाहित करती
हैं।”5
निर्मला पुतुल आदिवासी
स्त्री-संघर्ष के विभिन्न आयामों को
परत-दर-परत उघाड़ती हैं, कहीं कोई कृत्रिमता या छद्म नहीं, वरन् सीधे-सीधे अनुभव के ताप को अनुभूत
किया जा सकता है। ‘आदिवासी साहित्य में आदिवासी स्त्री चिंतन के स्वर‘ आदिवासी स्त्री साहित्य आदिवासी स्त्री
द्वारा भोगे हुए खुरदुरे यथार्थ की सच्चाई को बिना किसी लाग-लपेट के बयान करने
वाला साहित्य है। आदिवासी साहित्य स्त्री अस्मिता की खोज एवं शोषण के विविध रूपों
से उद्घाटित और उनके खिलाफ हो रहे अन्याय के प्रतिरोध का साहित्य है।
‘विस्थापन और पलायन से जूझती आदिवासी
स्त्री‘ अस्तित्व
और अस्मिता तथा आत्मसम्मान उनके लिए अनिवार्य हैं। अस्मिता की रक्षा के लिए उनकी
भाषा और संस्कृति का जिंदा रहना जरूरी है तो अस्तित्व के लिए जरूरी है जल, जंगल, जमीन का होना। आदिवासी चाहता है स्वनिर्णय, स्वायत्तता प्राकृतिक संसाधनों पर अपना
अधिकार। वह अपनी व्यवस्था चलाना चाहता है, अपनी मातृभूमि के माध्यम से अपना
विकास।-लैसन डुंगडुग
आदिवासी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता
रमणिका गुप्ता भी ”यही मानती हैं जो खुलापन आदिवासी स्त्री को मिला है वह किसी और
धर्म की स्त्री को नहीं। इसलिए आदिवासी साहित्य में स्त्री पात्रों की अलग समस्या
दिखाई पड़ती है। आदिवासी स्त्रियाँ ही कल की बुनियाद रखेंगी। ये आदिवासी कहानियाँ
और इनके माध्यम से उभरे चरित्र जो वास्तविक जीवन के हैं, ऐसा भरोसा जगाते हैं।”6
‘आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ‘ पुस्तक में आदिवासी स्त्री के विमर्श की
बात करता है इसमे जो भी लेखों का सग्रंह किया गया है। उसमें आदिवासी समाज के
संघर्ष के साथ स्त्रियों के संघर्ष को दिखाया गया है। आदिवासी स्त्रियों का डायन
करार देकर मौत के घाट उतारा जाता है। वैश्वीकरण के दौर में आदिवासी लेखन विविध
पक्षों को उजागर करती हैं चाहे वह अपने दैहिक शोषण का या पूँजीवादी समाज से
विद्रोह का बहुत अच्छे ढंग से विश्लेषण किया गया।
निष्कर्ष
: कहा
जा सकता है कि ‘आदिवासी
साहित्य का स्त्री पाठ‘ में आदिवासी समाज के भीतर की दुनिया में भी स्त्री की
स्थिति शोचनीय है। आदिवासी स्त्री तथाकथित परम्पराओं, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों की शोषणकारी
व्यवस्था में जकड़ी हुई है। आदिवासी स्त्री का जीवन संघर्ष उनके लिखे कहानी कविताओं
में बखूबी उभर कर सामने आता है। इसलिए उनको अस्मिता संरक्षण के नाम पर आधुनिक
लोकतांत्रिक मूल्यों से वंचित नहीं रखा जा सकता है। इस पुस्तक में डॉ० नेगी
आदिवासी स्त्रियों की समस्याओं का गहन अध्ययन किया है। इन्हीं सब पहलुओं को
मद्देनजर रखते हुए इस पुस्तक में आदिवासी स्त्री की उपस्थिति का विश्लेषण किया गया
है जो अनेक नवीन किन्तु महत्वपूर्ण पहलू सभी लेखों में मिलता है। जो भारतीय
संस्कृति की सतरंगी विशेषताओं के साथ स्याह पक्ष को भी उभारती है।
सन्दर्भ
:
1- आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ, सं० स्नेहलता नेगी, पृ० सं० 12
2- आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ, सं० स्नेहलता नेगी, लेख-आदिवासी साहित्य में स्त्री अस्मिता
की खोज-निवेदिता, पृ० सं० 21
3- आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ, सं० स्नेहलता नेगी, लेख-आदिवासी संस्कृति में स्त्री का
दर्जा, रमणिका
गुप्ता, पृ०
सं० 30
4- आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ, सं० स्नेहलता नेगी, लेख-भाषा, साहित्य, और आदिवासी स्त्रियाँ, वंदना टेटे, पृ० सं० 39
5- आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ, सं० स्नेहलता नेगी, पृ० सं० 52
6- युद्धरत आम आदमी सं० रमणिका गुप्ता, वर्ष 3, पूर्णांक27, विशेषांक 2015, पृ० सं०137
समीक्षक : त्रिपुरेश गोंड,
B-232-233 थर्ड फ्लोर, नेहरु विहार, तिमारपुर-110054
tripureshond123@gmail.com, 7701905702
लेखिका : डॉ. स्नेह लता नेगी,
एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली
विश्वविद्यालय, दिल्ली
8586066430
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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