कालिदासीय एवं आधुनिक समाज
में स्त्री
कृती भारद्वाज
शोध सार: महाकवि
कालिदास यद्यपि अपनी कृतियों में प्रयुक्त सभी पात्रों का समान रूप से प्रतिपादन करते हैं परन्तु उनके नाटकों व काव्यों में विशेष
रूप से स्त्री पात्रों की रमणीयता देखते ही बनते है| स्त्री पात्रों के चयन से लेकर उनके विवेचन तक, सौन्दर्यसे लेकर उनकी प्रकृति विशेष के वर्णन तक, सभी
प्रसंग अलौकिक प्रतीत होते हैं| कालिदास ने वस्तुत: ही सदैव स्त्री पात्रों को
स्वच्छंद व उन्मुक्त विचारों से युक्त दर्शायाहै| पुरुष और
स्त्री के प्रेम प्रसंगों आदि के वर्णन से यह ज्ञात होता है की कालिदासीय समाज में
एक पुरुष का सम्बन्ध विवाह उपरांत भी किसी परस्त्री से होना अनुचित नहीं था|
यद्यपि देखा जाए तो आधुनिक युग में यह अमान्य और आपराधिक है परन्तु कालिदासीय
समाज इन प्रसंगों को स्वीकार किये हुए था | नारी की स्थिति
तत्कालीन समाज में अन्य काल से कुछ सीमा तक शिष्ट थी|यदि
कालिदास के पूर्ववर्ती कवि भासकी कृति 'स्वप्नवासवदत्तम्'
पर दृष्टिपात करें तो यह ज्ञात होता है की तत्कालीन समाजमें नारी की
स्थिति कुछ विशेष सराहनीय नहीं थी| तब समाज में नायिका का
स्थान एक गणिका ने प्राप्त किया था न कि किसी राजकुमारी या श्रेष्ठ कुलोत्पन्न
स्त्री ने | अत: यह पताचलता है कि कालिदास से पूर्व समाज में
यत्किंचित अराजकता का प्रसारण था| परन्तु कालिदासीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में सुधार आने लगा| यद्यपि यहाँ भी राजाका संबंध अपनी पत्नी से
परे अन्यस्त्री के साथ रहा परन्तु यह सम्बन्ध प्रेम वश था, वैश्यावृति वश
नहीं| परस्त्री
रमण दोनों ही समाज में मान्य था परन्तु कालिदास ने अपने समाज में इस प्रवृत्ति को
प्रेम का स्थान दिया।
बीज शब्द – कालिदास, समाज, स्त्री ,रचना
यदि कालिदास के तीनों नाटकों के स्त्री पत्रों पर दृष्टिपात
किया जाए तो सर्वप्रथम अभिज्ञान शाकुंतलम् के
पात्रों पर दृष्टि जाती है।शकुंतला,गौतमी,अनसूया व प्रियंवदा- इन चारों स्त्रीपात्रों को कालिदास ने नवीन मंजरी रूप में चित्रित किया। भाँति शुद्ध वा स्वच्छन्द विचारों से युक्त
दिखलाया है। कालिदास ने नाटक कीनायिका शकुंतला को सुकोमल,
सुतनु, रूपवती व गुणवती स्त्री केहैं। एक ऐसी स्त्री जो रूपवती
होने के साथ ही पुत्री व पत्नी धर्म दोनों का ही सम्यक्तयापालन करना जानती हैं। शकुन्तला
और दुष्यंत के प्रेमप्रसंग का कालिदास ने अनुपम वर्णन किया है परन्तु साथ ही
शकुंतला का प्रकृति के साथ जो अनूठा सम्बन्ध दिखायाहै वह नितांत मानवीय और अलौकिक
है।
समाज में सदा ही लज्जा, शीलता, विनय आदि नारी के अलंकार स्वरुप माने गए हैं।यद्यपि दुष्यंत
को देख शकुंतला के मन में भी सामान्य स्त्रीजन की भांति कामविकारों का प्रस्फुटन
हुआ परन्तु तथापि पिता की आज्ञा व अपनी मार्यादा के विरुद्ध न जातेआत्मसमर्पण नहीं
किया|
यह उसकी लज्जाशीलता का ही उदाहरण है|
पंचम अंक में जब शकुन्तला गौतमी,
शागरव और शारद्वत के साथ दुष्यंत के समीप जाती है तो
दुष्यंत उसे दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण पहचानने में असमर्थ होता है,जब भी वह विनम्र स्वाभाव से अपनी शीलता का परिचय देते हुए
राजा की गरिमा कामान रखती है| पुन: अपनी शुचिता का प्रमाण देते हुए राजमहल से प्रस्थान
करते समयकहती है- “भगवति वसुधे ! देहि मे विवरम् |”ऐसा कहते ही एक दिव्य-ज्योति आकाश से अवतरित हो उसे अप्सरा तीर्थ की ओर ले जाती है|
कालिदास ने शकुंतला को वस्तुतः एक आदर्श नायिका के रूप में
प्रस्तुत किया है जोपति द्वारा अपमानित किये जाने पर भी उसे क्षमा करदेती है। यह
शकुंतला की क्षमाशीलता का परिचय है। न केवल शकुंतला अपितु सभी स्त्रियों के समीप यह क्षमा| रूपी
धन विद्यमानहोता है। स्त्रियों के विषय में कहा गया है कि उनका हृदय अत्यंत कोमला
होता है | शूल के सामान कटुवचन कहने वाले सामान्य अपरिचित व्यक्ति कोभी क्षण-भर
में क्षमा कर देती हैं तो फिर शकुंतला तो दुष्यंत की अर्धांगिनी थी। अपने स्वामीको
उसने शिष्टता के साथ क्षमा कर दिया और अपने पुत्र को लेकर पुनः राजमहल लौटी।
इसी प्रकार कवि ने गौतमी को भी एक आदर्श माता के रूप
में प्रस्तुत किया है। यद्यपिशकुन्तला ऋषि कण्व की पुत्री नहीं थी परन्तु उसे
आश्रम में पोषित करने के कारण वहउनकी दुहिता कह लायी। अतः माता गौतमी से भी
शकुंतला को अपार स्नेह मिला | शकुंतलाको पतिगृह ले जाते समय गौतमी अन्य दो
मुनिपुत्रों के साथ दुष्यंत केमें गयी। दुष्यंत द्वारा शकुंतला को उलाहना दिए जाने
पर व उसकी अवमाननाकरने पर एक माता की भांति कुपित होना, शकुंतला के प्रति उनके वात्सल्य का परिचायक है।
शकुंतला की दोनों सखियाँ अनसूया और प्रियंवदा
की भी इस नाटक में महत्वपूर्ण भूमिकाहै| शकुंतला की भांति वे भी स्वभाव में शील और कुछ चंचल हैं। स्त्रियों के
स्वभाव मेंही चपलता का संचार होता है| बाल्यावस्था हो या
युवावस्था, चपलता व मृदु वाणी के अभाव में स्त्रियों का
अस्तित्व मधु रहित क्षीर के समान प्रतीत होता है|शकुंतला का
जिस प्रकार का स्वाभाव कवि ने इस नाटक में प्रदर्शित किया है उससे यहनिश्चित ही
ज्ञात होता है कि कालिदासीय समाज भी सुव्यवस्थित व शिष्ट था| वे एकऐसे परिवेश में पोषित हुए जहाँ स्त्रियों को सम्मान की दृष्टि से
देखा जाता था | गन्धर्वविवाह समाज में प्रचलित था| न केवल यही, अपितु गन्धर्व विवाह की अनुमति होने
केभी अपने शील स्वाभाव के कारण कन्या माता-पिता व परिजनों से आज्ञा लेनाआवश्यक व
उचित समझती थी | सामाजिक कुप्रथा नामक रेणु भी सहृदय को नहीं
प्राप्तहोती है, तो स्त्रियों पर अत्याचार का तो प्रश्न ही
उत्पन्न नहीं होता |
इसी प्रकार ‘विक्रमोर्वशीयम्'में भी नायिका उर्वशी का स्वाभाव शांत,
मृदु, भीरुता वइसी प्रकारलज्जाशीलता से परिपूर्ण था। उर्वशी एक
अप्सरा थी, अतः
उसके लिए किसी भी पुरुषको अपने सौन्दर्य के वशीभूत कर लेना अत्यंत ही सरल था। जब
उसका मन पुरुरवा केप्रति आसक्त हुआ तो उसने बिना किसी छल कपट के उस दिव्य पुरुष को
भीरु स्वाभावप्रदर्शित करते हुए कुछ झिझकते हुए कही। उर्वशी ने अपनी दिव्य
शक्तियों का प्रयोगनकरते हुए स्वयं के निस्वार्थ प्रेम को प्रकट किया। तथापि यह
जानने के पश्चात् कि पुरुरवा के मन में भी उसी के अनुरूप विचार हैं उसने स्वार्थ
को परे रख पुरुरवा की पत्नी के विषय में भी विचार किया तथा उसे भी उतना सम्मान
प्रदान किया जितनाकिसी अग्रजा को दिया जाता है।
दूसरी ओर पुरुरवा की प्रिय अर्धांगिनी औशीनरी भी पुरुरवा से
प्रगाढ़ प्रेम करती थी |स्वामी के प्रति पूर्णतः समर्पित थी| यद्यपि स्त्रियों के स्वाभाव में ही कृतक कोप होताहै परन्तु
वे मन से सदैव अपने स्वामी व परिजनों का हित चाहती हैं। अत: औशीनरीभी
यद्यपि पुरुरवा से कुपित थी परन्तु स्वामी के प्रति आत्मसमर्पित व श्रद्धावान थी|
महाकवि कालिदास ने जिस प्रकार अपने काव्यों में स्त्री
पात्रों को चित्रित किया है, यहप्रतीत होता है कि निश्चय ही उनका पोषण करने वाली माता ही
उन्हें स्त्रियों के सम्मानके विषय में बतलाने का माध्यम रही होंगी। तथापि अपनी
कृतियों में दर्शाया गया पुरुषऔर स्त्री के मध्य प्रगाढ़ प्रेम की प्रेरणा निश्चय
ही उनकी अर्धांगिनी रही होंगी; क्योंकिकोई भी व्यक्ति सर्वप्रथम लोकाचरण अपने प्रियजनों से
ही सीखता है।
पुन: यदि हम औशीनरी के स्वभाव पर दृष्टिपात करें तो
यह ज्ञात होता है कि यद्यपिस्त्री अपने प्रियतम के साथ किसी परस्त्री को सहन करने
में असमर्थ होती है परन्तु यहउसका पत्नी धर्म ही था कि उस से अपने पति की कामपीड़ा
नहीं देखी गयी जो वहउर्वशी वियोग में सह रहा था। इसके फलस्वरूप वह पति की मनोकामना
पूर्ण करने हेतुव्रत करती है जिसका लक्ष्य पुरुरवा को उसका मनोरथ प्राप्त करवाना
होता है|
अत:इससे कवि सहृदय के समक्ष स्त्री के उस रूपको दर्शाते हैं
जिसमें वह स्वेच्छा न होते भी पूर्ण मन से अपने पति के मनोरथ को सफल करने हेतु अपने
मनोरथ का त्यागकरदेती है।प्रस्तुतत्रोटक में दोनों ही स्त्रियों का स्वाभाव मृदु व
शील दर्शाया गया है।
इसके पश्चात् कालिदास के अन्य नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्' में नायिका मालविकामंदहासी,
सुवपु, कृशांगी, प्रतिभावान्, अल्पभाषी तथा नृत्य-नाट्यकला में प्रवर होती है|यद्यपि राजा अग्निमित्र की पटरानी धारिणी मालविका के
सौन्दर्य को महाराज गोपनीयरखने काबहुत प्रयास करती है परन्तु अग्निमित्र की दृष्टि
से मलाविका का लावण्यनहीं छुप पाता और वे उसके मोहपाश में बंध जाते हैं। मालविका
भी अग्निमित्र के प्रतिपूर्ण रूप से समार्पित होअपना स्त्रीधर्म प्रकट करती है|
मालविका यद्यपि राजपुत्री थीतथापि अग्निमित्र के राज्य में
दासीकीपुत्री के वेश में रहती थी। अर्थात् बिना किसीबाह्य अलंकार के भी वह अप्सरा
की भांति कान्तियुक्त थी|
मालविका के शील स्वाभाव का परिचय तब मिलता है जब राजदुहिता
होने के पश्चात्भी वह रानी की दासी बनकर उनकी आज्ञा का पालन करती थी। धारिणी और
इरावतीद्वारा ईर्ष्यावश उसे हानि पहुँचाने के विचार को जानने के बाद भी उनके
विरुद्ध अपशब्दका प्रयोग न करते हुए उनकी अवमानना नहीं की|
कालिदास की अन्य दो कृतियों में प्रणय-प्रसंग को परिलक्ष्य
किया गया है परन्तु इसरचना में अंतःपुर पुर में रहने वाली स्त्रियों के परस्पर
स्वाभाविक ईर्ष्या व द्वेष कोचित्रित किया है|
इस प्रकार यदि समान्य रूप से देखा जाये तो कालिदास की
कृतियों में चित्रित स्त्रियाँव उनकी समाजिक स्थिति किसी सीमा तक आधुनिक भारत की
स्त्रियों को भी परिलक्षितकरती हैं। कालिदास ने तत्कालीन समाज में प्रचलित
स्त्रियों के अधिकारों को अधारशिलाबनाकर अपने नाटकों में नायिका व अन्य
स्त्रीपात्रों की कल्पना की। देखा जाये तो यहउचित भी है क्योंकि लौकिक जीवन में
समाज के माध्यम से ही साहित्य रचा जाता है।तथा साहित्य ही तो समाज का दर्पण है।
अत: समाज और साहित्य दोनों एक दूसरे केपूरक हैं। किसी भी साहित्य में तत्कालीन
समाज की झलक अवश्य ही मिलती है| कवि अपने ही सामाजिक परिवेश से प्रेरित होकर किसी भी
साहित्य की रचने में समर्थ होपाता है। उसके मानसपटल पर मूर्त या अमूर्त रूप में
समाज की एक झलक उमड़ रहीहोती है जिसे आधार बना कर वह अपने समाज को साहित्य का रूप
देता है। यह सत्यही है कि मनुष्य अपने परिवेश से ही सीखता है अतः कवि की कृति भी
निःसंदेह उसीसामाजिक परिवेश की देन है जिसमें वह स्वयं परिपोषित हुआ |
अतः यह ज्ञात होता है कि कालिदास के समय में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। उन्हेंसभी प्रकार के अधिकारों की प्राप्ति थी |
आधुनिक समाज में स्त्री
"भारत विविधताओं का देश है" यह कथन सम्पूर्ण भारत में
प्रसिद्ध है। परन्तु इसेविविधताओं का देश होने के साथ ही पुरुष प्रधान देश भी कहा
जाता है, जहाँ समाज में पुरुष को मुख्य स्थान प्राप्त है। परन्तु क्या यह प्रश्न
किसी के मानसपटल पर नहीं अवतरित हुआकि उस पुरुष को जन्म देने वाली स्त्री का
भारतीय समाज में क्या स्थानहै? क्यों उस स्त्री की आवाज़ को दबा दिया जाता है जो सदैव समाज
के हित में उठतीहै? क्यों उन अधिकारों को छीन लिया जाता है जो समाज के विकास के लिए आवश्यकहैं?
क्यों वो पुरुष की भांति घर से बाहर निकल आजीविका नहीं ला
सकती?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर हमें पुरा भारतीय समाज में जन्मी
उन कुरीतियों से मिलते हैं जहाँप्राय: स्त्री को सदैव एक गृहिणी के रूप में ही
देखा जाता है, जिसका
अपना कोई अस्तित्वनहीं है क्योंकि हमारे समाज ने इस देश को पुरुष प्रधान देश'
घोषित कर दिया था| स्त्रियोंके अधिकारों व पहचान को दबाते उन्हें पुरुष की
छाया मात्र बना दिया। घर में आर्थिक तंगीहो या कोई पुरुष कार्य करने में असमर्थ हो,
स्त्री को आजीविका कमाने की अनुमति नहींथी। इतना ही नहीं,
अपितु "सति-प्रथा', 'दहेज़ प्रथा', 'कन्या-भ्रूणहत्य' आदि जैसी कुप्रथाएंभी इसी समाज से उत्पन्न हुयीं।
परन्तु वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक स्त्रियों की
स्थिति किस प्रकार परिणत हुईहै यह दर्शनीय है| वैदिक काल में स्त्री और पुरुष को समान स्थान प्राप्त था|
पतंजलि औरकात्यायन के अनुसार स्त्रियों को वैदिक काल में
अध्यान की अनुमति थी | कवियों द्वाराकाव्यों में वर्णित 'स्वयम्वर' इसी तथ्य का द्योतक है कि स्त्रियों को अपने वर स्वयं
चयनितकरने की स्वतंत्रता थी| पुरुरवा - उर्वशी की भांति सहवास की भी अनुमति थी|
जिसके फलस्वरुप गन्धर्व विवाह पद्धति ने जन्म लिया |परन्तु ५०० ई.पू. समाज में स्त्रियों के अस्तित्व को लेकर
प्रनोपप्रश्न होने लगे। उन्हें अपनेभर्तृ (पति) की शुश्रूषा हेतु ही सीमित कर दिया
गया- "मुख्यो धर्मः स्मृतिषु विहितोभातृशुश्रुशानाम् हि"|
मनु ने 'मनुस्मृति' में तथा तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में परिलक्षित किया कि ढोल, पशुऔर नारी ताडना के पात्र कहलाते हैं। तत्पश्चात समाज में
स्त्रियों और शूद्र की स्थिति बदलतीही गयी। बाल-विवाह,
जौहर, पर्दा-प्रथा, देवदासी प्रथा आदि प्रथाएं प्रचलित होगई। इसकेबाद रज़िया
सुलतान,
चाँद बीबी, नूर जहाँ, जीजाबाई, ताराबाई जैसी स्त्रियों ने भारत केअपनेमौलिक अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकती?विभिन्न प्रदेशों पर शासन कर स्त्रियों के अस्तित्व का परचम
लहराया |
तत: अंग्रेजी शासनके पश्चात् अनेक भारतीय क्रांतिकारियों ने
भारत की समाजिक स्थिति में सुधर लाने काप्रयास किया |
पुरा भारत में जन्मी इन कुरीतियों का दमन करने हेतु भी कुछ
महान लोगों ने जन्म लिया वदेश से इन विकारों को नष्ट किया |
तत्फलस्वरूप आज भारत का जो स्वरूप हम देखते हैंवो बहुत
सुधरा हुआ रूप है। पहले के मुकाबले आज भारत में स्त्रियाँ कुछ हद तक स्वतंत्रहैं।
आधुनिक भारत की इस तस्वीर को देखा जाये तो यह कहना समुचित ही होगा कि स्त्रीके
अधिकारों को एक नया रूप मिला है। भारतीय प्रशासन ने स्त्रियों के मौलिक व
नैतिकअधिकारों को संविधान में सम्मलित पिछले कई दशकों से जो स्त्री की स्थिति चली
आ रहीथी वो आज बहुत बदल गयी है। भारतीय प्रशासन ने स्त्री और पुरुष को समान्य
अधिकारदेने का भरसक प्रयास किया है। स्त्रियों को अनेक आजीविका के साधन प्रदान
करवाये हैं।आधुनिक समाज में नारियों के अधिकार संविधान में सुरक्षित हैं -
मुख्यतया समानता, प्रतिष्ठाऔर भेद-भाव का निराकण | आज समाज में स्त्रियाँ औद्योगिक,
प्रशासनिक, शैक्षिक,राजनैतिक आदि क्षेत्रों हेतु सरकार द्वारा कुछ क़ानून बनाये
गए |
आगे बढ़ रही हैं। उनकीसुरक्षा को सुनिश्चित करने स्त्रियों
को शारीरिक एवं मानसिक शोषण, बाल-विवाह, घरेलू-हिंसा, दहेज प्रथा आदि से बचने हेतु निम्नलिखित कुछ नियम बनाये गए-
1.
Gaurdians & Wards Act, 1890
2.
Married Women's Property Act, 1872
3.
Workmen's Compensation Act, 1923
4.
Dowry Prohibition Act, 1961
5.
Commission of Sati (Prevention) Act, 1987
6.
Prevention of Children from Sexual Offences Act, 2012
इस प्रकार सरकार ने संविधान में अमूमन ३४ नियमों का
प्रावधान रखा है।
उपसंहार :
यद्यपि कालिदासीय समाज आधुनिक समाज से नितांत भिन्न है
परन्तु कुछ तथ्यों पर जबदृष्टि जाती तो यह दर्शनीय तथा शोचनीय हो जाता है कि सत्य
ही कालिदास के समय मेंस्त्रियों की जो स्थिति थी वही आज के युग में पुनः आ रही है।
यदि देखा जाये तो वैदिककाल के पश्चात् तथा आधुनिक काल से पहले का समय स्त्रीसमाज
के लिए संघर्षमय रहा हैपरन्तु कालिदास के समाजिक चित्रण से यदि सहृदय वर्तमान युग
को जोड़ेगा तो पायेगा किआज भी समाज में लगभग वही सब प्रथाएँ हैं जो कालिदास के समय
में थी जिन्हें उसनेअपनी कृतियों में चित्रित किया है |
कालिदास कालीन सामाजिक प्रथाएं यदि मध्यम युग केलोग समझने
का प्रयास करते तो भी नहीं कर पते क्योंकि उन्होंने अपने आसपास अनेक
सामाजिक कुरीतियाँ को एकत्रित किया हुआ था|
नारी को सामाजिक कुप्रथाओं के पाश नेइस तरह जकड़ा हुआ था कि
वो चाह कर भी स्वयं उससे स्वतन्त्र नहीं हो पाती। उसपरइस प्रकार से मतारोपण किया
जाता है कि वहा समाज की उस सीमा का उल्लंघन करें मेंस्वयं को सर्वथा असमर्थ पाती
है।
यदि हम कालिदास के युग की सामाजिक स्थिति की आधुनिक युग से
तुलना करें तो दोनोंयुगों में कुछ समानताएँ प्राप्त होती है –
· कालिदासीय समाज में नारी को स्वेच्छा से विहार करने की
स्वतंत्रता थी तथा आधुनिकसमाज में भी कन्याएँ, स्त्रियाँ स्वेच्छा से विहार करती हैं। उनपर किसी भी प्रकार
काअंकुश नहीं है।
· कालिदास के समय में कन्याओं को अपना वर स्वयं चुनने की स्वतन्त्रता
होती थी,
तथैवआधुनिक युग में भी स्त्री को समकक्ष अधिकार हैं। वह
जिसके साथ चाहे जीवनयापन कर सकती है परन्तु आज भी समाज में यह अधिकार प्रत्येक
स्त्री अथवा कन्याको नहीं मिला है। कतिपय प्रदेशों में आज भी कन्या का विवाह उनकी
इच्छा केविरुद्ध कार दिया जाता है।
· कालिदासीय समाज में नारी को अपने अपराधी को शापित करने का
अधिकार व वरप्राप्त था। जैसा कि कालिदास की रचनाओं में प्राप्त होता है कि अपनी
दिव्य शक्तियोंसे (तपस्वी) स्त्री या पुरुष अपराधी को शापित कर सकते थे;
उसी प्रकार आधुनिकयुग ने भी सरकार ने नारी को यह अधिकार
दिया है कि उसके मान-सम्मान कीअवहेलना करने वाले व्यक्ति को वह दण्डित कर सके।
· तत्कालीन समाज में स्त्री-पुरुष को विवाह से पूर्व सहवास की
अनुमति थी| उसकालमें
सामाजिकों को इस विषय में कोई भी आपत्ति नहीं थी। यद्यपि आधुनिक समाज मेंभी अब ऐसा
प्रचलन है क्योंकि प्रशासनिक स्तर पर इसे नहीं रोका गया है तथापिसमाज के कुछ वर्ग
को यह वैध प्रतीत होता है |
· कालिदास के समय में भी स्त्रियों को शिक्षा / विद्या
प्राप्त करने के अधिकार था|आधुनिक युग में भी स्त्रियों को विद्या प्राप्त करने का अधिकार है। आज समाज
मेंअधिकांश वर्ग की महिलाएँ प्रशासनिक, राजनैतिक, औद्योगिक, शैक्षिक आदि क्षेत्रोंमें अपने अस्तित्व को स्थापित कर रही
हैं या कर चुकी हैं।
अत: यह स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि दोनों ही युग में
स्त्रियों की स्थिति प्राय: समान है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
१.
त्रिपाठी
कृष्णमणि,
अभिज्ञान शाकुन्तलम्,चौखम्बा पब्लिशिंग हाउस,नयी दिल्ली,
२०१६
२.
शास्त्री
पं. रामतेज, विक्रमोर्वशीयम्,
चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी,२०१४
३.
त्रिपाठी
ब्रह्मानंद, मालविकाग्निमित्रम्,
चौखम्बा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली,२०१६
४.
शर्मा
प्रो. रामदत्त, संस्कृत
महाकाव्यों में समाजचित्रण, ऋतु प्रेस, नई
दिल्ली, २०१६
५.
(प्रो.)कुमार
कृष्ण,
चूड़ी बाज़ार में लड़की, राजकमल प्रकाशन, २०१४
६.
त्रिपाठी
ब्रह्मानंद, कालिदास
ग्रंथावली, चौखम्बा
सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, २०१६
७.
(प्रो.)
त्रिपाठी राधावल्लभ, संस्कृत साहित्य में स्वाधीन स्त्रियाँ, लेख प्रकाशित २०१६
कृती भारद्वाज
शोध छात्रा(संस्कृत)
एम.बी. पी. जी. महाविद्यालय
कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल
अद्भुत💐💐
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