शोध आलेख : असमीया पत्रकारिता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं तत्कालीन प्रमुख पत्र-पत्रिकाएँ
- प्रियंका कलिता
शोध-सार : मानव जीवन में पत्रकारिता का महत्वपूर्ण स्थान है, यह कहना गलत नहीं होगा कि पत्र-पत्रिकाएँ मनुष्य के ज्ञान का प्रमुख आधार रही हैं। भारत की अन्य भाषाओं की भांति असमीया भाषा में भी पत्रकारिता का एक समृद्ध इतिहास रहा है। असमीया पत्र-पत्रिकाओं ने असमीया साहित्य-संस्कृति के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। इस क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों का अवदान उल्लेखनीय है। भले ही ईसाई मिशनरी असम में धर्म प्रचार हेतु आए थे, लेकिन उन्होंने धर्म विस्तार के लिए असमीया भाषा को प्रमुखता दी, फलस्वरूप असमीया भाषा एवं साहित्य लाभान्वित हुआ। असमीया जाति के लिए ईसाई मिशनरियों का महत्वपूर्ण योगदान ‘अरुनोदइ’ (1846 ई.) अखबार है। जिसके माध्यम से असमीया लोगों को बाहरी दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों की ज्ञानराशि से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ तथा असमीया भाषा, साहित्य, समाज के साथ-साथ पाठक वर्ग के मन में आधुनिक भावबोध का संचार हुआ। अरुनोदइ के अतिरिक्त तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में ‘आसाम बिलासिनी’, ‘आसाम-बंधु’ एवं ‘जोनाकी’ प्रमुख हैं।
बीज-शब्द : असमीया, पत्रकारिता,इतिहास,अरुनोदइ,जातीयता।
मूल आलेख : समाचार पत्र या पत्रिकाएँ समाज की
गतिशीलता का परिचायक हैं। इन पत्र-पत्रिकाओं में मनुष्य
चिंतन-परंपरा एवं प्रज्ञा की विभिन्न दिशाएँ सन्निविष्ट हैं।
इसलिए पत्र-पत्रिकाओं को समय तथा समाज की गतिशीलता के मूल
स्त्रोत के साथ-साथ सभ्यता और विकास का साक्षी भी कहा जाता
है। असमीया भाषा, साहित्य एवं सांस्कृतिक इतिहास के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाएँ विशेष रूप से जुड़ी हुई हैं।
असमीया भाषा के विकास में पत्रकारिता की महती भूमिका रही है। इन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से तत्कालीन आर्थिक ,सामाजिक
एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का प्रतिफलन दिखाई देता है। असमीया भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के इतिहास को जानने हेतु पत्र-पत्रिकाओं
का अध्ययन करना अत्यंत आवश्यक है। साहित्य के विकास में पत्र-पत्रिकाओं की विशेष भूमिका होती है। असमीया साहित्य में विविध प्रकार की नई धाराओं का आरंभ एवं विकास पत्र-पत्रिकाओं के
माध्यम से ही हुआ। इन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही असमीया
साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकारों का जन्म हुआ।
प्रिंटिंग
प्रेस सर्वप्रथम सोलहवीं सदी में भारत के गोवा में पुर्तगाली धर्म-प्रचारक लाये थे। अंग्रेजी-भाषी प्रेस भारत में लंबे समय तक विकास नहीं कर पाया था, यद्यपि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सत्रहवीं
सदी के अंत तक छापेखाने का आयात शुरू कर दिया था। जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने सन् 1778 ई. को
कलकत्ता में पहली बार छापेखाने की स्थापना की। उन्होंने सन् 1780 ई. से ‘बंगाल गज़ट’ या Calcutta General Advertiser नामक
एक साप्ताहिक समाचार पत्र का सम्पादन शुरू किया।
यह समाचार पत्र केवल दो पृष्ठों का था । इस पत्र के उद्देश्यों के बारे में इस
प्रकार लिखा गया है –
“कारोद्वारा
प्रभाबित नोहोवा सकलोलैके मुकलि एखन राजनैतिक आरु बाणिज्यिक बिषयर साप्ताहिक
काकत। (A weekly politician and commercial paper open to all
parties, but influenced by none)”1 |
(भावार्थ - सभी के लिए खुला एक राजनीतिक और वाणिज्यिक विषय संबंधी एक साप्ताहिक अखबार
जो किसी के द्वारा प्रभावित नहीं है।)
परिवर्तित
समय के साथ-साथ समाज में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है,
तथा साहित्य में भी यह परिवर्तन स्वतः देखा जा सकता है। वैश्विक पटल
पर सन् 1939 ई. यानी
द्वितीय महायुद्ध का समय मानवीय इतिहास का
प्रलयकारी समय था। यह इतिहास का सबसे बड़ा संघर्ष था जो लगभग छह साल तक चला । युद्ध
की भयावहता ने लोगों को आतंकित कर दिया। इसके साथ ही लोगों की मानसिकता ,मूल्यबोध और जिज्ञासा में बदलाव दिखाई देने लगा। फलस्वरूप साहित्य में भी
यह परिवर्तन प्रतिफलित हुआ। असमीया समाज में भी द्वितीय महायुद्ध का प्रभाव
प्रत्यक्ष रूप से पड़ा था। इसलिए युद्ध के पश्चात परिवर्तित विचारधारा को असमीया
समाज और साहित्य के मध्य प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। असमीया साहित्य में
पत्र-पत्रिकाओं के योगदान के संदर्भ में प्रसिद्ध साहित्यकार
चंद्रप्रसाद शइकीया ने कहा है -
“असमीया
भाषा-साहित्यर लगते समाजखनर बिकाशत बार्तालोचनीसमूहे
शृखलाबद्धभावे आरु समाजर बिभिन्न दिशर समसामयिक घटनार परिपेक्षितत युक्तिनिष्ट , बलिष्ठ पदक्षेपेरे एतिहासिक भूमिका पालन करि गैछे । असमीया
बार्तालोचनीसमूहर पाततेइ असमीया जातीय जीवनर इतिहासर प्रथम खचरा प्रस्तुत हैछे
बुलि कॅले बर बेछि बढ़ाइ कोवा नहय । इयार अजस्र बातरि ,प्रबंध आरु आलोचनार माजर पराइ असमर इतिहासे लाहे लाहे गढ़ लैछे।“2 |
(भावार्थ - असमीया भाषा के साहित्य एवं समाज आदि विभिन्न क्षेत्रों के विकास में पत्र-पत्रिकाओं ने ऐतिहासिक भूमिका का निर्वहन किया है। यह कहना अतिशयोक्ति
नहीं होगी कि असमीया पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों में ही
असमीया जातीय जीवन के इतिहास का प्रथम दस्तावेज प्रस्तुत हुआ था। यहाँ प्रकाशित
विभिन्न खबरों, प्रबंधों और आलोचनाओं के माध्यम से ही
असमीया इतिहास को क्रमशः विकसित स्वरूप प्राप्त होता गया।)
उन्नीसवीं
शताब्दी के पूर्वाध में असम से पत्रिकाओं का प्रकाशन नहीं हुआ था। इसका प्रमुख
कारण यह था कि उस समय असम में छापेखाने की सुविधा नहीं थी। तत्कालीन समय में
असमीया पाठकों ने बंगला पत्र-पत्रिकाओं की
सहायता ली थी। इस कारण बंग्ला पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने वाले पाठक-वर्ग का निर्माण हुआ था।
उन्नीसवीं सदी में कलकत्ता से प्रकाशित विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ ,जैसे-समाचार दर्पण ,समाचार
चन्द्रिका, संजीवनी आदि समाचार पत्रों में असमीया
लेखकों के लेख प्रकाशित हुए थे। केवल यही नहीं बंगला समाचारपत्रों के अंतर्गत ‘समाचारदर्पण’ और ‘समाचारचंद्रिका’ में असम की विभिन्न खबरें प्रकाशित हुई
थीं। इन समाचारपत्रों में तत्कालीन समय की राजनीतिक परिस्थितियों के विषय में भी
चर्चा हुई थी।
अतः यह कहा
जा सकता है कि उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध से ही असमीया पाठकों का संबंध पत्र-पत्रिकाओं से रहा है तथा यह संपर्क बंगला पत्र-पत्रिकाओं
के माध्यम से संभव हो पाया । बंगला समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में जिन लेखकों की
लेखनी प्रकाशित हुई थी उनमें यादुराम डेका बरुवा अन्यतम थे। साधारणतः परिवर्तन या नयेपन के अंतराल में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अन्योन्याश्रित
संबंध होता है। इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट होता
है कि जब किसी देश में कोई नयी शासन व्यवस्था या
राजनीतिक परिवर्तन होता है तब साहित्य, समाज, संस्कृति तथा जनजीवन में परिवर्तन का प्रभाव परिलक्षित होता है।असम में भी
इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पड़ा था। आहोमों ने असम में छः सौ साल तक शासन किया
था। लेकिन बीच-बीच में आहोम साम्राज्य में भी उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। इसके विपरीत असम में एक अन्य राजशक्ति थी- कोच साम्राज्य। विशेष रूप से असम के पश्चिमी भाग में उन्होंने शासन किया
था। प्रमुखतः इन दो राजशक्तियों का प्रभाव असम में रहा है यद्यपि असम में आहोम
शासन का प्रभाव मुख्य रूप से अधिक परिलक्षित होता है।
आहोम
शासन की समाप्ति के साथ-साथ असम में
शासन व्यवस्था से लेकर सामाजिक तथा अन्य दिशाओं में परिवर्तन होने लगा। इसके साथ
ही असम में राजवंश या राजा की शासन व्यवस्था का भी अंत हुआ। आहोम लोगों के बीच
गृहयुद्ध के कारण बर्मा ( म्यांमार ) की सेना ने असम पर आक्रमण किया तथा
असमीया लोगों के ऊपर अमानवीय अत्याचार किया। इस परिस्थिति का लाभ उठाते हुए
अंग्रेजों ने असम में प्रवेश किया । इसके पश्चात् असमीया समाज में युगांतकारी
परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। सन् 1826 ई. में अंग्रेजों ने बर्मी सेनाओं को युद्ध में
परास्त कर दिया तथा इस कारण यांदबू की संधि हुई ।
इस संधि ने बर्मी शासन का अंत तथा ब्रिटिश शासन का मार्ग प्रशस्त किया। बर्मी
सेनाओं के आक्रमण से पीड़ित असमीया जनता ने बिना विरोध किये अंग्रेजों का शासन
स्वीकार कर लिया। इस संधि के कारण असमीया समाज केवल पराधीन ही नहीं हुआ बल्कि, उसकी भाषा, साहित्य
और संस्कृति भी संक्रमित हुई।
अंग्रेजों के शासन के फलस्वरूप असम में आधुनिकता का आरंभ हुआ। इन्होंने
असम में नई शिक्षा का प्रवर्तन किया। इस संदर्भ में ‘आसाम बंधु’ नामक
पत्रिका में इस प्रकार उल्लेख है –
“नतुन
प्रशासनीय ब्यवस्था असमर जनसाधारण आरु पुरणि बा-बिषयासकलर
कारणे आछिल आछहुवा। पुरणि बा-बिषयासकलर संतुष्ट करिबलै , बिशेषकै 1828 ख्रीष्टाब्दत गनधर कोँवरर
नेतृत्वत होवा आरु 1830 ख्रीष्टाब्दत धनंजय
बरगोँहाइ आरु पियलि फुकनर नेतृत्वत होवा बिद्रोहर पिछ्त , नतुन प्रशासनीय बिषया-बाब दि नियुक्त करार पाछत चरकारे तेओँबिलाकक अकामिला आरु दक्षताहीन
बिबेचना करि प्रशासने सकलो स्तरलैके बेंगलर परा मानुह आनिले ।“3 |
( भावार्थ- नयी प्रशासनिक व्यवस्था असम के जनसाधारण
और पुराने कर्मचारियों के लिए अपरिचित थी। पुराने
कर्मचारियों को संतुष्ट करने के लिए विशेष रूप से सन् 1828 ई. को गनधर कोँवर और सन् 1830 ई. को धननंजय बरगोँहाइ ने अंग्रेजी शासन
व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया था। फलतः अंग्रेजी सरकार ने असमीया लोगों को
प्रशासनिक व्यवस्था में नियुक्ति दी लेकिन बाद में उनको दक्षताविहीन कहकर सभी
प्रशासनिक कार्यों के लिए बंगाल से लोगों को भर्ती किया गया ) इन परिस्थितियों के मध्य ही असमीया लोगों ने परिवर्तन को स्वीकार किया।
असम में औपनिवेशिक और पूंजीवादी शासन व्यवस्था प्रवर्तन होने के कारण असमीया समाज
के सभी क्षेत्रों में बदलाव होना प्रारम्भ हो गया। इस समयावधि में कुछ घटनाओं ने
असमीया लोगों के मन एवं मस्तिष्क को प्रभावित किया। फलतः असमीया लोगों के मन में
जातीय चेतना और आधुनिकता का संचार हुआ।
अंग्रेजों के आने के पश्चात् असम में राजनीतिक, आर्थिक और शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा। प्राचीन
विनिमय प्रथा के विपरीत मुद्रा का प्रचलन तथा पुरानी शिक्षा व्यवस्था के स्थान पर
आधुनिक शिक्षा ने ले लिया। असमीया की सामाजिक- व्यवस्था में बदलाव के कारण मध्य वर्ग का जन्म हुआ। इस मध्य वर्ग ने ही
आधुनिक असमीया जाति के निर्माण के साथ-साथ भाषा , साहित्य एवं राजनीति आदि सभी
क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाई। असम में बंगला भाषा
के प्रचलित होने के कारण असमीया लोगों की चेतना को गंभीर रूप से झकझोर दिया। असम
के विद्यालयों और अदालतों से बंगला भाषा को हटाने के लिए एक बौद्धिक आंदोलन का आरंभ हुआ। असमीया भाषा को केंद्र में रखकर यह
आंदोलन शुरू हुआ जो बाद में असमीया जातीय चेतना के रूप में विकसित हुई।
असम में ईसाई मिशनरियों का आगमन होना उल्लेख योग्य है। वे असम में ईसाई
धर्म का प्रचार करने के लिए आए थे लेकिन उन्होंने धर्म प्रचार की सुविधा हेतु असमीया भाषा-साहित्य का
अध्ययन किया। फलतः असमीया भाषा-साहित्य लाभान्वित हुआ।
मिशनरियों ने असम के विद्यालयों और अदालतों में असमीया भाषा की पुनः प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्न किया।
मिशनरियों के असमीया भाषा अध्ययन के कारण असमीया भाषा में समाचार पत्र तथा
पत्रिकाओं का आरंभ हुआ। भले ही असमीया भाषा को ईसाई मिशनरियों ने धर्म प्रचार की
सुविधा के लिए प्रयोग किया था परंतु इस पहल के कारण असमीया भाषा का पुनः उद्धार
संभव हो पाया। मिशनरियों के प्रयास के फलस्वरूप शिवसागर
मिशनरी प्रेस से सन् 1846 ई. में ‘अरुनोदइ’ का
प्रकाशन हुआ। अरुनोदइ से जयंती तक सौ वर्षों की पत्रिकाओं के अध्ययन से यह बात
स्पष्ट होती है कि इस कालावधि में असमीया समाचार
पत्र एवं पत्रिकाओं का जन्म तथा विकास ही नहीं बल्कि इस समय आधुनिकता और असमीया आधुनिक भाषा-साहित्य का
पूर्णतया विकसित एवं पल्लवित रूप देखने को मिला।
आधुनिक भाषा-साहित्य के जन्म और विकास में मिशनरियों का अवदान अत्यंत उल्लेखनीय है। असमीया भाषा का प्रथम समाचार पत्र अरुनोदइ के प्रकाशन से साथ-साथ असमीया लोगों के मन में एक नयी चेतना का संचार हुआ। जिसकी वजह से असमीया लोग अपनी भाषा के प्रति सजग और जातीय भावनाओं से प्रेरित हुए। नगेन शइकीया के अनुसार -
“असमत यदि केवल ख्रीष्टान धर्म प्रचार करिबलै
अहाहेँतेन तेओँलोकर नाम असमर साहित्य और भाषार बुरंजीत केतियाउ युगमीया है
नाथाकिलेहेँतेन । तेओँलोके असमीया भाषा-साहित्य जन्म आरु
बिकाशर बाबे अरिहणा योगोवा
लगते भाषा भित्तिक जातीय चेतनार जागरण सृष्टि करिले । तेओँलोके सेइ जातीय चेतनाक
असमीयार मनर माजत प्रतिष्ठा करार बाबे तेओँलोके असमीया जातिर इतिहासत स्मरणीय
होवार लगते तेओँबिलाकर नाम मचिब नोवराकै मुद्रित है रॅल ।“4 |
( भावार्थ – ईसाई मिशनरी यदि असम में केवल ईसाई धर्म प्रचार करने के लिए आए होते तो
उनका नाम असमीया साहित्य और भाषा के इतिहास में चिरस्मरणीय नहीं होता । उन्होंने असमीया
भाषा-साहित्य के जन्म और विकास में योगदान दिया । जातीय
चेतना को असमीया लोगों के मन में स्थापित करने के कारण उनको असमीया जाति के इतिहास में सदैव स्मरण किया जाएगा )
मिशनरियों ने सर्वप्रथम असम के शदिया में प्रवेश किया
और परवर्ती समय में असम के विभिन्न स्थानों में गए। उन्होंने पहले धर्म प्रचार न
करके असम में ईसाई धर्म प्रचार करने हेतु एक परिवेश सृजित करने पर ध्यान दिया।
उनके सामाजिक कार्यों के अंतर्गत असम में विद्यालय की स्थापना, असम की प्रचलित भाषा अर्थात् असमीया भाषा में समाचार पत्र का प्रकाशन, विद्यालयों के लिए उपयोगी पाठ्य-पुस्तक प्रस्तुत
करना और ईसाई धर्म का प्रचार करना आदि शामिल है।
असमीया जाति के लिए मिशनरियों का सर्वश्रेष्ठ अवदान ‘अरुनोदइ’ है। सन् 1846 ई. से सन् 1882 ई. तक यह अखबार शिवसागर के मिशनरी प्रेस से प्रकाशित हुआ। अरुनोदइ सन् 1846 ई. से सन् 1867 ई. तक नियमित रूप से प्रकाशित हुआ तथा सन् 1882 ई. में सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित होना बंद हो गया। इस पत्र के छत्तीस साल की अवधि में संपादक रहे हैं - नाथन ब्राउन, ए.एच. डेनफोर्थ, माईल्स ब्रैनसन, डब्ल्यू वार्ड आदि । इस अखबार प्रकाशन का
मूल उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था परंतु, यहाँ अनेक
देशों की खबरें, विभिन्न एतिहासिक समाचार एवं घटनाओं का
परिचय, बाइबिल की कहानियों का अनुवाद, प्रकृति अध्ययन, नैतिक शिक्षा, पौराणिक असम के इतिहासों की कहानियाँ, तत्कालीन
असम के विभिन्न स्थानों में घटित सामाजिक घटनाओं का विवरण, भूगोल विषयक ज्ञान, वैज्ञानिक आविष्कार संबंधी
तथ्य, असम की जन-जातियों का परिचय आदि विषय के रूप में प्रकाशित हुए थे। इस अखबार में ही
धारावाहिक रूप से देउधाइ असम बुरंजी, पुरणि असम बुरंजी और कामरूप बुरंजी नामक इतिहास प्रकाशित हुए।
अरुनोदइ के प्रकाशन काल के संबंध में मतभेद देखने को मिलते हैं। चन्द्र
प्रसाद शइकीया के अनुसार, –
“बेनुधर
शर्मार मते 1880/83 लैके, महेश्वर नेउगे 1882/83 लैके, सत्यनाथ शर्माइ 1882 ख्रीष्टाब्दलै, डिंबेश्वर नेउगे 1882/83 ख्रीष्टाब्दलै
बुलि मंतब्य करिछे । 1882 सनत आमेरिकान
मिछ्नेरिसकले छ्पाशालटो बिक्री करि दिये आरु 1880 सनतेइ अरुनोदइर प्रकाश बंध हय । S.R. Ward र 1884 खृष्टाब्दत प्रकाशित A
Glimpse of assam नामर ग्रंथखनत एइ कथा सदरि करिछे । परवर्ती
समयत एइ कथार सत्यताक बहुते मानि चला देखा याय ।"5 |
( भावार्थ- अरुनोदइ अखबार के प्रकाशन की समयावधि को विभिन्न विद्वानों ने इस प्रकार माना है -बेनुधर शर्मा के अनुसार 1880/83 तक , महेश्वर नेउग के अनुसार 1882/83 तक, डिंबेश्वर नेउग ने 1882/83 तक का समय माना
है। सन् 1882 ई. को
ईसाई मिशनरियों ने छापेखाने का विक्रय कर दिया और सन् 1880 ई. को ही अरुनोदइ का प्रकाशन बंद हो गया। सन् 1884 ई. में
प्रकाशित एस.आर. वार्ड का ग्रंथ A Glimpse of assam में
इस बात का उल्लेख है। परवर्ती समय में इस बात की सत्यता को अधिकांश लोगों ने
स्वीकार किया है )
अरुनोदइ
के प्रकाशन के साथ-साथ असमीया
पाठकों के मन में आधुनिक भावधारा का संचार हुआ । इस अखबार के जरिए असमीया लोगों की
मानसिकता में विस्तार आया । ग्रीस, मिस्र, चीन आदि देशों का इतिहास एवं राजनीति, रूस, मेक्सिको ,ग्वाटेमाला आदि देशों के भूगोल का
विवरण, भारत का इतिहास और तत्कालीन राजनीतिक घटनाएँ
इसमें प्रकाशित होती थीं। इसके माध्यम से असमीया पाठक वर्गों को विदेशों और भारत
के अन्य प्रान्तों के अज्ञात तथ्यों से परिचित होने का मौका मिला।
असमीया समाज के प्रति अरुनोदइ के अवदानों को नगेन शइकीया ने दस भागों में
विभक्त किया है। जो निम्नलिखित हैं-
“असमीया
भाषार संवादपत्रर इतिहासर आरंभण, असमीया मानुहर चिंता-चेतनार दुवार मुकलि करा, मातृभाषा संपर्के
सचेतनता बृद्धि करा आरु भाषार जरियते जातीयता सृष्टि करा, असमीया जातीय चेतनाक असमीया प्राणत सिँचि दिया, आधुनिक असमीया गद्यशैली गढ़ि तोला, ऐतिह्यर
प्रति श्रद्धाशील होवार मनोभाब जगाइ तोला आरु असमीया भाषाक आधुनिक रूप दान करा
आदियेइ प्रधान ।“6
|
( भावार्थ - असमीया भाषा में पत्रकारिता की शुरुआत, असमीया
लोगों के मन में चेतना विकसित करना, मातृभाषा के संबंध
में जागरूकता वृद्धि के जरिये जातीयता जागृत करना, असमीया
जातीय-चेतना को असमीया के हृदय में सिंचित करना, आधुनिक असमीया गद्यशैली को प्रस्तुत करना, एतिहासिकता
के प्रति श्रद्धाशील होने का मनोभाव जागृत करना और असमीया भाषा को आधुनिक रूप
प्रदान करना आदि प्रधान है ) असमीया पत्रकारिता के
इतिहास में अरुनोदइ के पश्चात प्रकाशित ‘आसाम बिलासिनी’ द्वितीय अखबार है । सन् 1871 ई. में यह श्री श्रीदत्तदेव गोस्वामी के संपादकत्व में माजुली के आउनीयाटी
सत्र से प्रकाशित हुआ था । यह सन् 1871ई. से सन् 1883 ई. तक प्रकाशित हुआ था तथा इस अखबार की एक भी प्रति असम में उपलब्ध नहीं है
लेकिन एक अंक ब्रिटिश संग्रहालय में सरंक्षित है । असमीया वैष्णव धर्म की ऐतिहासिक मिलनभूमि माजुली से प्रकाशित इस अखबार का प्रमुख उद्देश्य असम
में ईसाई धर्म के प्रभाव को नष्ट करना था। इस
अखबार के माध्यम से वैष्णव धर्म संबंधी विभिन्न निबंध प्रकाशित हुए थे।
19 वीं
शताब्दी के समय असम में उच्च शिक्षा के लिए विशेष सुविधा न होने के कारण असमीया
विद्यार्थी अध्ययन हेतु कलकत्ता जाते थे। ये विद्यार्थी बंगला भाषा-साहित्य के शक्तिशाली स्वरूप से प्रेरित होकर सन् 1888 ई. में प्रवासी असमिया छात्रों ने मिलकर असमीया
भाषा उन्नति साधिनी सभा तथा संक्षिप्त में अ.भा.उ. सा. का गठन किया
। सन् 1889 ई. में इस सभा के मुखपत्र के रूप में ‘जोनाकी’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। असमीया
भाषा को उन्नति के पथ पर लेकर जाना ही इस पत्रिका का प्रमुख उद्देश्य था। असमीया
भाषा-साहित्य, समाज, संस्कृति, विज्ञान आदि विषय पर इस पत्रिका में
चर्चा हुई थी परंतु, राजनीति संबंधी विषय को इस पत्रिका में
स्थान नहीं दिया गया था। सन् 1889 ई. से सन् 1904 ई. तक
यह पत्रिका प्रकाशित हुई थी। इस पंद्रह वर्ष की अवधी में चंद्रकुमार आगरवाला , हेमचन्द्र गोस्वामी और लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा संपादक के रूप में रहे थे।
जोनाकी
के माध्यम से असमीया भाषा-साहित्य में
नवजागरण की शुरुआत हुई। इस पत्रिका के जरिए चंद्रकुमार आगरवाला द्वारा रचित प्रथम
असमीया स्वच्छंदतावादी कविता ‘बन कुँवरी’ तथा हेमचन्द्र गोस्वामी द्वारा रचित असमीया प्रथम सॉनेट ‘प्रियतमार चिठी’ प्रकाशित हुआ था । अतः यह कहना
अत्यंत तर्कसंगत होगा कि असमीया साहित्य में इस पत्रिका के माध्यम से बौद्धिक
आंदोलन का उदय हुआ ।
निष्कर्ष : असमीया
पत्रकारिता का इतिहास युगांतकारी रहा है। आधुनिक असमीया भाषा-साहित्य की स्थापना का इतिहास इन पत्र-पत्रिकाओं के
माध्यम से संभव हो पाया है। अरुनोदइ ने आधुनिक
असमीया भाषा-साहित्य के विकास में महती भूमिका निभाई है तथा
इसके माध्यम से असमीया साहित्य को एक मंच मिला। अरुनोदइ के माध्यम से असमीया भाषा
ने जो भाषा-चेतना प्राप्त की वह परवर्ती काल में असमीया
जातीय चेतना के रूप में रूपांतरित हुई । अरुनोदइ का अनुसरण करके ‘आसाम बिलासिनी’( 1871-83),
‘आसाम मिहिर’ ( 1872-73 ), ‘आसाम दर्पण’
( 1874-75 ) आदि अखबार प्रकाशित हुए, जिन्होंने असमीया साहित्य की उन्नति एवं विस्तार में सहयोगिता प्रदान की। इस प्रकार
असमीया पत्रकारिता के दीर्घ इतिहास का आरंभ हुआ ।
संदर्भ :
1. शइकीया, चंद्रप्रसाद, असमर बातरि काकत आलोचनीर डेरश बछरीया इतिहास.गुवाहाटी,असमर बातरि काकत
डेरश बछरीया जयंती उदयापन समिति,गुवाहाटी-1998, पृ.012
2. वही, पृ. 013
3. शइकीया, नगेन (सं.),आसाम बंधु,असम प्रकाशन परिषद,गुवाहाटी-1984,पृ.02
4. शइकीया, नगेन, अरुनोदइ परा जोनाकीलै, कौस्तभ प्रकाशन,डिब्रुगढ़- 2011, पृ.9
5. वही,पृ.11
6.वही,पृ.12
टिप्पणी : हिन्दी भाषा के ‘य’ वर्ण के लिए असमीया भाषा में दो वर्ण प्रयोग
में हैं- एक का उच्चारण ‘य’ ही है और दूसरे का उच्चारण ‘ज’ जैसा होता है। असमीया ‘य’ के लिए हिन्दी में भी ‘य’ रखा गया है, पर
असमीया ‘य’ के ‘ज’ वाले उच्चारण के लिए लिप्यंतरण में ‘य’ का प्रयोग किया गया है।
प्रियंका कलिता
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, गौहाटी विश्वविद्यालय,असम
Priyanka2016kalita@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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