सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पत्रकारिता के विविध पक्ष
- डॉ. एलोक शर्मा
शोध सार :
बीज शब्द : पत्रकारिता, विसंगतियाँ, लोकतंत्र, राजनीति
और समाज
मूल आलेख :
सर्वेश्वर दयाल
सक्सेना का व्यक्तित्व
गहन चिन्तन, विनम्र
एवं कर्म साधना
से परिपूर्ण था।
उनके स्वभाव के
विषय में कहा
गया कि स्वभाव
से न अच्छा, न
बुरा, बाहर से
गम्भीर, पर भीतर वैसा
नहीं, विपत्ति, संघर्ष, निराशाओं
से घनिष्ठ परिचय
के कारण जरूरत
पड़ने पर खरी
बात कहने में
सबसे आगे। ‘‘आकांक्षा
कुछ ऐसी करने
की, जिससे दुनिया
बदल सके’’ मन
का असंतोष और
मित्रों का सहयोग
उनकी सम्पत्ति थी।[1] इसलिए वह
किसी भी व्यक्ति
की कठिनाई से
उतने ही जुड़
जाते हैं जैसे
की कठिनाई दुःख
उनका ही हो, या
मानो दूसरों के
दुःखों को वह
अपने में समेट
लेना चाहते हैं।
स्पष्टवादिता, स्वाभिमान, निर्भयता, भावुकता उनके
व्यक्तित्व के खास
पहलू थे। सर्वेश्वर
स्वयं वह कहते
थे कि मेरे
तीन सबसे बड़े
साथी हैं - विपत्ति, संघर्ष
और निराशा। यह
साथी मेरे साथ
बचपन से रहे
हैं आगे भी
रह सकते हैं।
इनमें एक बात
मैंने सीखी है
खरी बात कहने
में सबसे आगे
रहना। अपने साहित्य
के माध्यम से
भी मैं खरी
बात ही करना
चाहता हूँ। क्या
कविता, क्या कहानी सब
में अभिव्यक्ति के
लिए व्यंग्य मेरा
सबसे बड़ा साथी
है। लोगों का
ख्याल है, रोजमर्रा
की जिन्दगी में
व्यंग्य अधिक बोलता
है इसलिए दोस्त
से अधिक दुश्मन
बनाता हूँ।[2]
सर्वेश्वर बनावटीपन
से दूर रहते
थे। वे जो
कुछ भी काम
करते थे सोच
समझकर करते ताकि
कभी पछताना ना
पड़े। ‘‘वह खुद
गलत काम नहीं
करते थे और
ना दूसरों की
गलत बात बर्दाश्त
करते।’’
सर्वेश्वर अपने
भीतर की अदम्यशक्ति
से कवि विद्रोही
बन गए, आरम्भ
से ही उनका
विश्वास रहा है
कि ‘‘जो सत्य
है, उसे चुपचाप
अपनाए रहने से
काम नहीं चलेगा
बल्कि जो असत्य
है उसका विरोध
करना पड़ेगा और
मुँह खोलकर कहना
पड़ेगा कि गलत
है।’’[3]
हालांकि सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना जी
कवि और साहित्यकार
के रूप में
ज्यादा प्रतिष्ठित रहे
इसलिए उनके पत्रकारीय
व्यक्तित्व का उचित
मूल्यांकन नहीं हो
पाया। साहित्य के
क्षेत्र में उनका
व्यक्तित्व इतना बड़ा
है कि उनका
पत्रकार व्यक्तित्व बहुत
छोटा सा लगता
है परन्तु अगर
विश्लेषण करें तो
उनका पत्रकारीय व्यक्तित्व
बहुत विशाल है
वह बहुआयामी व्यक्तित्व
के धनी थे।
कवि, नाटककार, कथाकार, बाल
साहित्यकार, चिंतक और पत्रकार
सब कुछ थे।
सर्वेश्वर जी ने एम.ए. करने के बाद ए.जी. ऑफिस में यू.डी.सी. के पद पर कार्य किया। सन् 1955 ई. में आकाशवाणी दिल्ली के समाचार विभाग में हिन्दी अनुवादक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। सन् 1960 ई. में उनका स्थानान्तरण लखनऊ में सहायक प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत हुए। सन् 1940 ई. में उनका स्थानान्तरण भोपाल में हुआ एवं सन् 1964 ई. में उन्हें आकाशवाणी की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। सितम्बर 1964 में अज्ञेय जी के आदेश से सर्वेश्वर जी ‘‘दिनमान’’ में उपसम्पादक के पद को ग्रहण किया एवं 1967 ई. में सम्पादक के पद को ग्रहण किया, अक्टूबर 1982 ई. में उन्होंने बाल पत्रिका ‘‘पराग’’ का सम्पादन किया, ‘‘दिनमान’’ के सम्पादक पद ग्रहण करने के पश्चात् ही सर्वेश्वर जी का पत्रकारीय व्यक्तित्व उभर कर सामने आया।
उन्होंने दिनमान
पत्रिका में प्रकाशित
अपने ‘‘चरचे और
चरखे’’ स्तंभ के
माध्यम से उन्होंने
तत्कालीन संदर्भ के
प्रति व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ लिखी
और साथ-साथ
में लेखों के
माध्यम से पत्रिकारिता
को नई दिशा
और नया मोड़
प्रदान किया। उन्होंने
समकालीन पत्रकारिता के
सामने उपस्थित चुनौतियों
को समझा, और
सामाजिक, राजनीतिक चेतना जगाने
में अपना योगदान
दिया।
सर्वेश्वर जी
के ‘‘चरचे और
चरखे’’ स्तम्भ में
100 से
अधिक लेख प्रकाशित
हुये जिनमें ‘‘जूते
और जवान की
जुगलबन्दी’’, ‘‘दशहरा और रावण’’, ‘‘अदृश्य
गाय’’, ‘‘अखिल भारतीय
बकरा यूनियन’’, ‘‘नैतिकता
की तलाश’’, ‘‘बन्दूक
के सामने एक
सपना’’, ‘‘रायल्टी का
घपला’’, ‘‘धमकियाँ और
चपत’’, ‘‘बलात्कार का
मुआवजा’’, ‘‘मण्डी गाँव का
हरिजन’’, ‘‘नंगा नाच’’, ‘‘पुर्जे
ढल रहे है’’, ‘‘आत्महत्याओं
की नींव पर
खड़ा समाज’’, ‘‘मंत्री
काव्य का व्यापार’’, ‘‘छब्बीस
जनवरी और सरपत
की आग’’, ‘‘आधा
तीतर आधा बटेर’’, ‘‘पश्चिम
की जूठन’’, ‘‘यह
कौन सा प्रशासन
है’’, ‘‘जनता होटल
की प्राथमिकता’’, ‘‘काम न
सही नाम बदला’’, ‘‘लाश
सड़ रही है’’, ‘‘गेहूँ
सड़ गया या
प्रशासन’’, ‘‘बाड़ और मिनिस्टिर
का लड़का’’, ‘‘आओ
नकल करे’’, ‘‘दाड़ी
की राजनीति’’, ‘‘सूखाग्रस्त क्षेत्र
में चुनाव भाषण’’, ‘‘जूते
का तर्क’’, ‘‘निर्दोष
की मौत’’, ‘‘औरत
के लिये यही
एक रास्ता है’’, ‘‘मौत
की मीनारे’’, ‘‘शोध
छात्र संघर्ष समिति’’, ‘‘किससे
शिकायत करे’’, ‘‘दिये
मत जलाओ’’, ‘‘मास्टर
जी की चिंता’’, ‘‘सुख
लो और अपमानित
करो’’, ‘‘लोकतन्त्र और
प्याज’’, ‘‘क्या मनोरंजन बिगाड़ता
है?’’, ‘‘आज का
हिन्दी कवि’’, ‘‘शुद्ध
घी का विचार’’, ‘‘जानवर
और चुनाव चिन्ह’’ आदि
लेखों में सर्वेश्वर
जी ने राजनीतिक, सामाजिक
में व्याप्त विसंगतियों, विद्रुपताओं, शिक्षा
की अव्यवस्था, शासन प्रशासन
में व्याप्त भ्रष्टाचार, शराबबन्दी, महंगाई, गरीबी, पाश्चात्य
प्रभाव, युवाओं में बढ़ते
असुरक्षा एवं आत्महत्या
के भावों के
कारणों को बेनकाब
करते दिखाई देते
हैं।
उनकी पत्रकारिता
की सबसे बड़ी
उपलब्धि है कि
वे अपने परिवेश
पर चौकस निगाहें
रखते थे। उन्होंने
राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं का भी
ध्यान रखा, वे
गाँधी, नेहरू, इंदिरा, लोहिया और विनोबा
भावे के देश
को भी देखते
थे और दुनिया
में घट रही
सभी घटनाओं पर
भी वह नजर
रखते थे। उन्होंने
लोकतंत्र को समझा, संसद
को भी समझा, उन्होंने
महंगाई के भूत
पिचास को भी
देखा और व्यवस्था
की धृष्टता को
भी उन्होंने अनुभव
किया। उनकी नजर
भूखे आदमी से
लेकर सत्ता के
भूखे भेडियों तक
रही वो देश
की समस्याओं और
मानचित्रों को नहीं
भूलते, उन्होंने युद्ध, राजनीति, समाज, लोकतंत्र, संसद, गरीबी, आम
आदमी, कला और
संस्कृति, साहित्य, शिक्षा, दलितों और बाल
मनोविज्ञान पर अपनी
लेखनी चलाई। ऐसा
पत्रकारिता का, ऐसा
कोई कोना नहीं
था जिसको उन्होंने
अपने कलम से
लेखनीबद्ध न किया
हो।
वर्तमान समय
में हमारी राजनीति
और समाज में
स्थिति ज्यों की
त्यों व्याप्त है
चाहे गरीबी हो, महंगाई, जांच
कमेटियों में निष्पक्षता, आदिवासी
समस्या, शिक्षा के स्तर
की समस्या, युवा
वर्ग में व्याप्त
कुंठा, बढ़ती बेरोजगारी, गांधी टोपी
पर राजनीति, हरिजन शोषण, आम
आदमी का शोषण, वोटों
पर राजनीति आदि
विसंगतियाँ ज्यों कि
त्यों हमारे समाज
और राजनीति में
व्याप्त है। इसी
संदर्भ में हम
सर्वेश्वर के लेख
शीर्षक ‘‘जांच कमेटी
बैठाओ और छुट्टी
पाओ।’’ का विश्लेषण
करें तो ऐसा
प्रतीत होता है
कि शीर्षक में
सर्वेश्वर जी ने
वर्तमान परिपेक्ष के
लिए लिखा हो।
‘‘जांच कमेटी बिठाओ
और छुटी पाओ’’ लेख
में सर्वेश्वर जी
समसामयिक राजनीतिक व्यवस्था
में व्याप्त विसंगति
पर टिप्पणी करते
हुये लिखते हैं
-
‘‘क्या शान
से बैठी हुई
है जांच कमेटी
क्या जान
के बैठी हुई
है जांच कमेटी
क्या मान
के बैठी है
जांच कमेटी
यह राज
कभी भी नहीं
तुम जान पाओगे
मरते रहोगे
यूं ही या
मारे जाओगे।’’[4]
प्रस्तुत शीर्षक
वर्तमान राजनीति की
भ्रष्ट व्यवस्था को
उजागर करता प्रतीत
होता है आज
पेपर लीक प्रकरण
हो, भ्रष्टाचार के
लिए जांच कमेटियाँ
हो या कोई
भी सामाजिक या
राजनीतिक मुद्दा हो
उस पर सरकार
द्वारा जांच कमेटियाँ
बिठा देना और
जांच किस स्तर
तक जाती है
यह प्रश्नवाचक है
जो कि आज
भी संदेह के
घेरे में हैं
उसी पर टिप्पणी
करते हुए सर्वेश्वर
जी व्यंग्य रूप
में लिखते हैं।
यह राज
कभी भी नहीं
तुम जान पाओगे
मरते रहोंगे
यूं ही या
मारे जाओगे।
प्रस्तुत शीर्षक
में वर्तमान राजनीति
एवं सरकारी नीतियों
एवं उन में
हो रहे भ्रष्टाचार
को उजागर करता
हुआ दिखाई देता
है।
इसी क्रम
में ‘‘जनता होटल
की प्राथमिकता’’, ‘‘बाड और
मिनिस्टर का लड़का’’, ‘‘यह
कौन सा प्रशासन
है’’, ‘‘लोकतंत्र का
लड्डू’’, ‘‘जूते का तर्क’’, ‘‘लोकतंत्र
और प्याज’’ लेखों
में राजनीति, समाज और
शासन प्रशासन में
व्याप्त विसंगतियों पर
तीखें व्यंग्य कर
लोगों को झकोरा।
इन लेखों में
सर्वेश्वर जी ने
व्यंग्य शैली में
सवाल उठाते है
और साथ ही
उसका विकल्प भी
देते है जिस
प्रश्न से वे
जूझ रहे है।
‘‘जनता होटल की
प्राथमिकता’’ लेख में पर्यटन
द्वारा बड़े-बड़े
होटल बनाने, सत्ताधारियों को लाभ पहुँचाने
एवं निम्न आय
वालों की स्थिति
को बयान करते
हुये राज्य एवं
केन्द्र सरकार की
नीतियों पर टिप्पणी
करते हुये कहते
हैं - ‘‘कि पर्यटन
विभाग मध्यम आय
वर्ग वालों का
ही ध्यान न
रखे। निम्न आय
वालों का भी
ध्यान रखे। धर्मशालाऐं, सराय, मुसाफिर
खाने भारी तादाद
में खुलावाऐं ये
ज्यादा जरूरी है....’’ राज्य सरकार और
केन्द्रीय सरकार इस
कार्य के लिये
कोष स्थापित करे
और पैसे वाले
बजाय खुद धर्मशाला
बनवाने के उस
कोष में धन
दें।’’[5]
‘‘काम न सही
नाम बदला’’ लेख
में विलिग्डन अस्पताल
का नाम लोहिया
अस्पताल रखने पर
आपत्ति करते हुये
दिखाई देते हैं।
वे मानते हैं
कि नाम बदलने
से संरचना एवं
कार्य में कोई
अन्तर नहीं आता
जिस अस्पताल में
गरीबों का इलाज
नहीं होता है
वहाँ लोहिया नाम
रखने से सुधार
नहीं आयेगा। वे
इस लेख में
सरकारी-प्रशासनिक व्यवस्थाओं
द्वारा किये जा
रहे नाम के
दुरुपयोग पर रोष
जताते है।
‘‘गेहूँ सड़ रहा
है या प्रशासन’’, ‘‘यह
कौन सा प्रशासन
है’’ लेखों में
न्याय व्यवस्था, प्रशासन की
विसंगतियों को उजागर
करते है तो
दूसरी ‘‘और आओ
नकल करे’’, ‘‘पुर्जे
ढ़ल रहे है’’ में
शिक्षा प्रणाली की
अव्यवस्था एवं बढ़ते
पाश्चात्य प्रभाव की
नकल के बारे
में कहते है
कि
‘‘सारा देश ही
नकल कर रहा
है। आजादी के
बाद सिवा नकल
के इस देश
ने किया क्या
है? यहाँ क्या
नकल नहीं? अंग्रेजी
शासन की नकल
पर ही क्या
हम अपना शासन
नहीं चला रहे
है? सारा संविधान, अदालतें, रहन-सहन, भाषा, आमोद-प्रमोद, पुलिस, नौकरशाही, सरकारी तंत्र, शिक्षा
पद्धति क्या नकल
नहीं है?’’[6]
समकालीन पत्रकारिता
पर टिप्पणी करते
हुये कहते है
कि - ‘‘वैसे भारतीय
पत्रकारिता भी नकल
ही है पश्चिम
की। सभी को
हिंसा, सेक्स, सनसनीखेज समाचारों और
तड़क-भड़क की
तलाश है, कुछ
कम कुछ ज्यादा।’’[7]
‘‘निर्दोष की मौत’’, ‘‘लाश
सड़ रही हैं’’ में
चिकित्सा विभाग की
खामियों, डॉक्टरों की हड़ताल, पुलिस
प्रशासन की निरंकुशता
को उधेडते नजर
आते है। ‘‘निर्दोष
की मौत’’ लेख
में सर्वेश्वर जी
ने चिकित्सा विभाग
में अपनी मांगों
के लिये हड़ताल
पर बैठे डॉक्टर
एवं उनकी अनुपस्थिति
में मर रहे
लोगों की दयनीय
स्थिति एवं उन
मौतों की जिम्मेदारी
पर सवाल उठाये।
‘‘आधा तीतर आधा
बटेर’’ में स्तम्भकार
के माध्यम से
शराबबन्दी एवं शराब
के दुष्प्रभावों के सम्बन्ध
में कहते है
- ‘‘वह
चाहता है कि
शराब की एक
बूंद देखने को
न मिले।’’ अतः
उसका निम्नलिखित सुझाव
है -
‘‘ऐसा साहित्य जो
शराब पीने को
उकसाता हो, उसे
जप्त कर लिया
जाये, कलाकारों की
कोई भी पेन्टिंग
जो शराब पीकर
बनायी गई हो
उसे न खरीदा
जाये।’’
इस प्रकार
सर्वेश्वर जी स्तम्भकार
के माध्यम से
सरकार के इस
सिलसिले में नियम
बनाने में मदद
करते दिखाई देते
हैं।
सर्वेश्वर जी
गांधी नाम के
हो रहे दुरुपयोग, वोटो
की राजनीति, आम जनता
के शोषण चक्र
आदि को देखकर
अपने आपको रोक
नहीं पाते, वे
लिखते हैं - ‘‘गाँधी
और गाँधीवाद के
नाम पर हर
एक का रोजगार
चमक रहा है।
उनकी समाधि पर
फूल चढ़ाकर, सब
अपनी फूलों की
सेज सजाते रहे
हैं। इस पर
ज्यादा कहना कोई
मायने नहीं रखता।
इस देश के
नेताओं का काम
गाँधी के बिना
नहीं चलता। यद्यपि
गाँधी से किसी
को कोई सरोकार
नहीं है। बल्कि
गाँधी के सिद्धान्तों
के विपरीत जो
कुछ है उसे
ही गरिमा प्रदान
करने की घटिया
कोशिश की जा
रही है।
सर्वेश्वर जी
ने दलित आदिवासी
हरिजनों की वर्ग
भेद, हरिजनों का
शोषण, अधिकार प्राप्ति
के लिए संषर्ष
के संबंध में
अपने लेख ‘‘मंडी
गाँव के हरिजन’’ में
हरिजनों के वर्ग
में शोषण के
प्रति अपना लोकप्रिय
पात्र के माध्यम
से कहलवाते है
‘‘कानून
तो ताकत वालों
के लिए है।
उस वर्ग के
लिए है, जिसने
इसे बनाया है।
इसलिए ताकतवाला कानून
तोड़ भी देता
है तो उसे
कुछ नहीं होता।’’ सामाजिक
न्याय की जरूरत
को ये गहरे
महसूसते हैं इसीलिए
उनके स्तम्भ के
लोकप्रिय पात्र शर्मा
जी कहते हैं
- ‘‘पूरा
समाज छोटे-छोटे
स्वार्थों में बांट
दिया गया है।
कहीं बड़े स्वार्थ
रहे नहीं, जिसके
लिए सब एकजुट
हो सकें... उम्मीद
की जानी चाहिए
कि इस देश
में कुछ बड़े
स्वार्थ भी कभी
होंगे, जिनके लिए सब
मिलकर लड़ेंगे। हरिजनों
के अस्तित्व की
लड़ाई को एक
बड़ा स्वार्थ बनाया
जाना चाहे और
इसके लिए सबको
लड़ना चाहिए।’’[8]
इसी प्रकार
सर्वेश्वर जी ने
अपने लेख ‘‘नंगा-नाच’’ एवं ‘‘आत्महत्याओं
की नींव पर
खड़ा समाज’’ में
युवाओं में बढ़ती
आत्महत्या की प्रवृत्ति, कुंठा
की प्रवृत्ति एवं
युवा वर्ग पर
बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव
को निशाना बनाते
है वे मानते
है कि आज
युवा पीढ़ी फैशन
या पाश्चात्य प्रभाव
के जाल में
फंसती जा रही
है और आत्महत्या, मानसिक
रोगों का शिकार
होती जा रही
है। वे अपने
लेख में सवाल
करते हैं और
युवाओं पर पड़
रहे प्रभाव का
कारण भी सोचते
हैं।
सर्वेश्वर शिक्षा
जगत में फैली
अव्यवस्थाओं और अराजकता
को ‘‘पुर्जे ढ़ल
रहे हैं’’, ‘‘शोध
संघर्ष समिति’’ लेख
में प्राध्यापक विद्यार्थी
के सम्बन्धों, कर्त्तव्यों, शोध के
गिरते स्तर, विश्वविद्यालयों में नियुक्ति प्रक्रिया
मं धांधली पर
चिंता व्यक्त करते
हैं। वे चाहते
थे कि शिक्षा
के बुनियादी स्तर
में बदलाव हो, युवाओं
को सही ढंग
से सोचने विचारने
का मौका दिया
जाये एवं युवाओं
की आत्महत्या की
बढ़ती प्रवृत्ति एवं
असुरक्षा बोध के
रोग की जड़ों
को सामाजिक एवं
राजनीतिक व्यवस्था में
तलाशते है।
अपने ‘‘पुर्जे
ढल रहे हैं’’ नामक
टिप्पणी में वे
अपने स्तम्भ के
पात्र शर्मा जी
से शिक्षा व्यवस्था
में फैली खामियों
को व्यक्त कराते
हैं - ‘‘यानी व्यवस्था
अपनी शर्तों पर
पढ़ाएगी, जो चाहेगी सो
पढ़ाएगी, अपनी शर्त पर
योग्यता जांचेगी। अपनी
शर्त पर जीविका
देगी। बेचारे विद्यार्थी
की कोई शर्त
नहीं रह गई
है।’’
इसी के
‘‘चलते
चरचे और चरखे’’ के
लोकप्रिय पात्र शर्मा
जी रास्ता बताते
हैं - ‘‘ऐसे स्कूल
खोले जाएं जहाँ
बिना सरकारी मदद
के सही शिक्षा
दी जाए। दो
घण्टे से ज्यादा
न पढ़ाया जाए।
छात्रों को समाज
परिवर्तन की ताकत
के रूप में
तैयार किया जाए, यथास्थिति
बनाए रखने के
पुर्जे के रूप
में न ढाला
जाए। सारे देश
में ऐसे सौ
स्कूल खुल जाएं
तो हवा बदलने
लगेगी।’’[9]
सर्वेश्वर एक
अच्छे बाल साहित्यकार
भी थे। उन्होंने
बच्चों के लिए
नाटक एवं बाल
कविताएँ ही नहीं
लिखीं, अपने समय की
यशस्वी बाल पत्रिका
‘‘पराग’’ के
संपादक भी रहे।
‘‘पराग’’ के
संपादन के काल
में उन्होंने ‘‘पराग’’ में
सर्वथा नए प्रयोग
किए। सर्वेश्वर मानते
थे ‘‘कि जिस
देश के पास
समृद्ध बाल साहित्य
नहीं है, उसका
भविष्य उज्ज्वल नहीं
रह सकता।’’ उन्होंने
अच्छे साहित्यकारों को बाल
साहित्य लिखने को
प्रेरित किया। नई
पीढ़ी के निर्माण
के संबंध में
वे बाल साहित्य
की जरूरत एवं
अर्थवत्ता को गंभीरता
से समझने वाले
पत्रकार थे।
उन्होंने ‘‘कल
भात आएगा’’, ‘‘हाथी
की पो, भो
भो’’, लाख के
नाक, बाल नाटक
और अपना दना, सफेद
गुड, जू चैट
आदि बाल कथाओं
को अपनी लेखनी
से पत्रकारिता जगत
में स्थापित किया, और
पत्रकारिता एवं साहित्य
में अंतर को
मिटाने का प्रयास
किया।
वे साहित्य
एवं साहित्यकार की
स्वायत्ता को अहम
मानते थे। साहित्य
और समाज के
सन्दर्भों पर जुड़े
सवालों को अलग
दृष्टि से देखते
थे एवं साहित्य
को आम लोगों
के सरोकार से
जोड़कर देखते थे।
सर्वेश्वर अपनी
राजनीतिक टिप्पणियों में
व्यंग्यात्मक लहजे में
राजनीति क्षेत्र में
व्याप्त विसंगतियों को
बेनकाब करते है।
राजनेताओं के बदलते
बयानों, दलबदल, गैर विचारात्मक गतिविधियों
को अपने लेखों
में रेखांकित करते
हैं। वे सिर्फ
संस्थाऐं नहीं बताते
अपने लेखों के
माध्यम से समस्या
का हल प्रस्तुत
करते भी दिखाई
देते हैं उनके
लेख अंधेरे में
मुक्ति की रास्ते
बताते है। वह
बताते हैं कि
दमन के खिलाफ
कैसे प्रतिरोध दर्ज
करवाऐ। सर्वेश्वर समाज
में जड़ता को
तोड़कर नये मूल्यों
की स्थापना करना
चाहते थे उनके
लेख राजनीति और
जनता के बीच
एक जवाबपूर्ण और
उत्तरदायित्यपूर्ण रिश्तों को
तलाशते हैं।
वस्तुतः सर्वेश्वर
साहित्य में किसी
प्रकार की अतिवादिता
या खेमेबन्धी के
खिलाफ थे। वे
अभिव्यक्ति के क्षेत्र
में कोई अवरोध
नहीं चाहते थे।
साहित्य की सहजता, निर्मलता
एवं प्रवाह को
वे सही अर्थों
में देखने के
पक्षधर थे। इसलिये
वे साहित्यकार के
लिये, कवि के
लिये किसी परिधि
या सीमा रेखा
में बांधने को
अनुचित मानते थे।
साहित्य में खेमेबंधी
के दौर सर्वेश्वर
को पसन्द न
था इस संदर्भ
में सर्वेश्वर जी
ने अपने लेख
‘‘जनवाद
का एगमार्क’’ में अपनी
लेखनी से व्यक्त
करते दिखाई देते
हैं। सर्वेश्वर उपेक्षित
साहित्यकारों के प्रति
सहानुभूति व्यक्त करते
हैं उन्होंने अपने
लेख ‘‘पेटियों में
बन्द साहित्य’’ में स्व.
विपिन जोशी की
साहित्यिक कतियों की
उपेक्षाओं की चर्चा
की, और मृत्योपरान्त उनके लेख का
प्रकाशन हुआ। ऐसे
कई लेख है
जिनमें सर्वेश्वर जी
ने साहित्यकारों, कवियों की
उपेक्षा के सवाल
को उठाया।
सर्वेश्वर ने
साहित्य में पड़
रहे राजनीति के
प्रभाव को अपने
लेखन में रेखांकित
किया वे साहित्य
की मर्यादा, मूल्यों और
स्वायत्तता के पक्षधर
थे। उन्होंने साहित्य
समारोह के उद्घाटन
मंत्रियों द्वारा करवाये
जाने पर आपत्ति
की उनका ‘‘मंत्री
शरणम गच्छामी’’ नामक टिप्पणी
में लिखते हैं
कि ‘‘दुनिया में
कहीं भी मंत्री
हर काम में
इस तरह नहीं
जोड़ा जाता जितना
इस देश में
जोड़ा जाता है।’’
वे साहित्य
में हास्य कविता
के पतन को
टिप्पणी करते हुये
कहते है कि
‘‘कुछ
दिनों पहले तक
कवि सम्मेलनों में
अच्छा हास्य सुनने
को मिलता था।
चोच, बेढब बनारसी, रमई
काका यहाँ तक
कि बेधड़क बनारसी
तक हास्य की
यह धारा निर्मल
बहती थी और
उसमें अवगाहन की
ताजगी आती थी।
अब इतना प्रदूषण
है कि लगता
है कीचड़ में
लोट आये हो।’’
सर्वेश्वर जी
ने अपने लेखों
में जनभाषा को
अपने लेखों की
भाषा बनायी। इसी
का प्रभाव है
कि उनकी पत्रकारी
भाषा में जीवन
और अनुभव का
खुलापन भी है
और आम आदमी
की भाषा उसमें
स्पष्ट रूप से
नजर आती है।
कहीं कहीं पर
उनकी भाषा आक्रमक
रूप धारण करती
है तो कहीं
कहीं पर उनकी
भाषा सीधे और
सरल रूप में
नजर आती है।
कहीं पर व्यंग्यात्मक रूप में नजर
आती है और
कहीं पर उनकी
महीन शैली नजर
आती है कहीं-कहीं पर वे
अपनी अभिव्यक्ति अलंकारिक
और सांकेतिक भाषा
में करते हैं।
उनके लेखों की
भाषा में संप्रेषण
का गुण ऐसा
है कि जैसे
भाषा को उन्होंने
अपनी मुट्ठी में
बांध रखा हो।
सर्वेश्वर जी
ने ‘‘दिनमान’’ में
अपने स्तम्भ ‘‘चरचे
और चरखे’’ में
लिखे लेखों में
पत्रकारिता का ऐसा
कोई ही कोना
बचा हो जिसे
उन्होंने नहीं तलाशा, उनका
लिखा पढ़कर चुप
रहना मुश्किल था।
उनकी लेखनी तिलमिलाने
वाली चोट करती
थी। राजनीति, साहित्य, शिक्षा, शासन-प्रशासन एवं समाज
में व्याप्त विसंगतियों
विद्रुपताओं को उन्होंने
अपनी लेखनी के
विषय बनाऐं। भीड़
का साधारण आदमी, रिक्शा
चालक, झुग्गी झोपड़ी
वाला, मजदूर, घटिया
राजनीति करने वाले
नेता, साहित्यकार, शिक्षक, युवा, प्रशासनिक
नीतियाँ, सरकारी तन्त्र की
विसंगतियाँ, अस्पताल, पंचायत, नगरपालिका, संसद, सर्वेश्वर की
कलम की जद
में थे। उनके
लेखों में विचार, संवेदनशीलता
एवं मध्यम वर्ग
की चेतना दिखाई
देतीहै। उनमें भावों
का उच्छलन मात्र
नहीं है। बौद्धिकता
की परिणिति दिखाई
देतीहै। उनका पत्रकारीय
लेखन पाठक के
मन में अंधेरों
एवं भयास्थितिवाद के खिलाफ
सामाजिक बदलाव की
चेतना जगाता है
और नये समाज
की रचना में
लोगों को सार्थक
भूमिका के लिये
तैयार करता है।
उनके समय-समय
पर लिखे लेख, टिप्पणियाँ
आज पत्रकारिता जगत
में आने वाले
पत्रकारों के लिये
ऊर्जा का स्त्रोत
है। आज वर्तमान
समय में भी
हमारे समाज, राजनीति, शिक्षा, साहित्य
में विसंगतियाँ विद्रुपताऐं, गरीबी, महंगाई
भ्रष्टाचार, वोटो की राजनीति, गांधी
के नाम का
दुरुपयोग, राजनीतिक साठ-गाठ, साहित्य
एवं शिक्षा के
क्षेत्र में आई
गिरावट ज्यों कि
त्यों हैं। उनके
लेखों को पढ़कर
ऐसा लगता है
कि उनके लेख
वर्तमान दशा को
व्यक्त कर रहे
हो वास्तव में
सर्वेश्वर पत्रकारिता के
क्षेत्र में ईमानदार
अभिव्यक्ति के प्रति
प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने
अपने पत्रकारीय लेखन
को सदैव लोक
से जोड़े रखा।
इन सन्दर्भों में
सर्वश्वर का पत्रकारीय
लेखन के स्वर
आज भी हमारे
लिये उपयोगी है
तथा भ्रम एवं
मोह भंग की
स्थिति में प्रेरणास्पद
है।
सन्दर्भ सूची :
[1] तीसरा सप्तक, पृ. 220
[2] सर्वेश्वर सम्पूर्ण हास्य गद्य रचनाऐं
खंड 3, पृ. 11
[3] तीसरा सप्तक, पृ. 222
[4] सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ग्रन्थावली, खण्ड-9 (चरचे और चरखे) पृ. 287, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2004
[5] सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ग्रन्थावली, खण्ड-9 (चरचे और चरखे) पृ. 26, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2004
[6] सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ग्रन्थावली, खण्ड-9 (चरचे और चरखे) पृ. 100, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2004
[7] सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ग्रन्थावली, खण्ड-9 (चरचे और चरखे) पृ. 101, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2004
[8] सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ग्रन्थावली, खण्ड-9 (चरचे और चरखे) पृ. 123, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2004
[9] http://sampadakji.blogspot.com/2007/01/blog-post8915.html?m=1
डॉ. एलोक शर्मा
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी (अतिथि)(विद्या संबल योजना)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, देवली
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )
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