शोध आलेख : लोकप्रिय हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श / लक्ष्मी एवं प्रो. संजीव कुमार दुबे

शोध आलेख : लोकप्रिय हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श

-  लक्ष्मी एवं प्रो. संजीव कुमार दुबे


शोध सार : हिंदी की अकादमिक दुनिया में सिनेमा पर चर्चा बहुत कम होती है। हिंदी विभागों ने सिनेमा को जितना त्याज्य समझा है उतना शायद किसी भी दूसरे विभाग ने नहीं समझा होगा। सिनेमा हमारी संवेदना, जिसे साहित्यकारों ने अन्यान्य विधाओं में सृजित किया है, उसे जन-जन तक पहुँचाने का एक माध्यम है। सिनेमा साहित्य व गीत-संगीत का जनानुवाद है। साहित्य की तुलना में सिनेमा का संदेश अमूमन तनु होता है ताकि वह आम जन तक पहुँच सके और उन सरोकारों को जीवित कर सके जिनके लिए हमारी कला साधना प्रयासरत है। सिनेमा में दृश्य केवल देखे ही नहीं जाते बल्कि पढ़े भी जाते है। एक दृश्य के एक-एक फ्रेम में वर्षों की सोच सिमटी होती है जो कलात्मक उत्कर्ष को प्रदर्शित करती है। फ़िल्म के संदेश को दर्शक तक पहुँचाने के लिए सिनेकार अथक प्रयत्न करता है लेकिन इसके बावजूद ज़रूरी नहीं कि उस संदेश को समग्र दर्शक वर्ग ग्रहण करे ही। सिनेमा अँधेरे में काल्पनिक उजाले का भ्रम पैदा करता है। वह सिनेमा, जो अपने संदेश को बेहतर तरीके से दर्शक तक समझा पाता है, सार्थक सिनेमा कहलाता है। ऐसा सिनेमा हिंदी भाषा में पर्याप्त है। हिंदी सिनेमा अपने लगभग एक सौ दस वर्षों के इतिहास में सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन को सही दिशा देने और जाति, धर्म, लिंग एवं नस्ल आधारित जड़ता को तोड़ने का प्रयास करता रहा है। इस सत्य के बावजूद सिनेमा में स्त्री-चित्रण पर एक मत होना आसान बात नहीं। एक छोर पर नारीवादी सिनेमा लेखक लॉरा मल्वी, क्लेयर जोंस्टन के अतिवादी विचार हैं जो ‘मेल गेज़’ व ‘वायरिज्म’ की अवधारणा द्वारा सिनेमाई आख्यान में स्त्री को निष्क्रिय तत्त्व घोषित करते है।1इसके बरक्स कला इतिहासविद काजा सिल्वरमैन सिनेमा में स्त्री के दारुण चित्रण को विजुअल ट्रैक के बाहर ध्वनियों के स्तर पर भी देखने की हिमायती हैं।2 आशा कस्बेकर के अनुसार हिंदी सिनेमा ‘एक आदर्श नैतिक ब्रह्माण्ड रचता है जिसमें औपचारिक रूप से स्त्री की मर्यादा का उल्लंघन न हो किन्तु अनौपचारिक रूप से पुरुषों को शृंगारिक आनंद प्राप्त हो सके’।3 यानी कि सिनेमा में(चाहे वह हॉलीवुड का संदर्भ हो या बॉलीवुड का) स्त्री के वस्तुकरण के पक्ष में पर्याप्त साहित्य विद्यमान है। इसे झुठलाया भी नहीं जा सकता। इसके अतिरक्त एक और बात यह है कि अनेक फ़िल्म समीक्षक मानते हैं कि हिंदी लोकप्रिय सिनेमा जोड़-तोड़ से बनता है, जिस पर ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। माधव प्रसाद के मत में बॉलीवुड फ़िल्मों में कहानी, नृत्य, गीत, कामेडी, एक्शन का अलग-अलग कारीगरों द्वारा निर्माण किया जाता है जिन्हें बाद में उचित क्रम में जोड़ दिया जाता है, बिलकुल घड़ी के कलपुर्जों की तरह। ऐसे में फ़िल्म में एक समरूप अर्थ कैसे खोजा जा सकता है।4 लेकिन वहीं अरुण कुमार की मानें तो ‘शायद फ़िल्में नहीं होतीं तो स्त्रियाँ बुर्काधारी ही बनी रहतीं। उन्हें आजीवन पालकी ही नसीब होती’।5 इन विभिन्न और कुछ परस्पर विरोधी विचारों के बीच हिंदी लोकप्रिय सिनेमा में स्त्री विमर्श की खोज करना चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह शोधपत्र इसी खोज का परिणाम है।   

 

बीज शब्द : स्त्री, सिनेमा, कुरीतियाँ, गीत, विमर्श, नायिका, बलात्कार, वीका ट्रेडिशन आदि।

 

मूल आलेख : हिंदी सिनेमा की पहली बोलती फ़िल्म ‘आलमआरा’ थी। आलमआरा इस फ़िल्म की नायिका थी, जिसके नाम पर फ़िल्म का शीर्षक रखा गया था। वर्ष 1931 की यह पहली टॉकी, नायिका केंद्रित फ़िल्म की पूरी संभावना लेकर आई थी। इसी वर्ष प्रदर्शित फ़िल्मों में जे.जे. मदान की ‘शीरीं फरहाद’, अर्देशिर ईरानी की (इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी की) बड़े बजट की ‘द्रौपदी’ व ‘नूरजहाँ’, चंदूलाल शाह की ‘देवी देवयानी’ फ़िल्में भी स्त्री जीवन या मिथकीय स्त्री पात्रों पर आधारित थीं। इनमें स्त्रियों को ही मुख्य भूमिकाएं मिली। दो वर्ष पश्चात सन् 1933 में निर्देशक चंदूलाल शाह की फ़िल्म 'मिस' रिलीज हुई। इस फ़िल्म ने नारी स्वतंत्रता के विमर्श को सही मायने में बड़े परदे पर ले जाने का कार्य किया। वर्ष 1935 में प्रदर्शित मैरी इवांस नाडिया अभिनीत 'हंटरवाली' स्त्री विमर्श की दृष्टि से अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्म थी। नाडिया की अधिकतर फ़िल्में स्त्री केन्द्रित थीं, अपनी फ़िल्म में वह नायक भी थी और नायिका भी। मिस फ्रंटियर मेल के संदर्भ में लिखा गया है– ‘नाडिया की फ़िल्म 'मिस फ्रंटीयर मेल' (1936) अपने आप में एक मील का पत्थर है। फ़िल्म की नायिका विदेशी परिधान में यानी कि पतलून और जैकेट पहने, कटे हुए बॉब बाल लिए हुए सिगरेट पीती हुई, तलवारबाजी करती हुई एक रेलवे कम्पार्टमेंट की छत से दूसरे कम्पार्टमेंट पर छलांग भरती हुई दिखाई गई है। उसमें भारतीय नारी का कुछ भी पारम्परिक चित्र नहीं है। वह अबला नहीं है। वह साड़ी पहने, पाजेब और बिछुए छनकाती गर्दन झुकाए अपनी कुलमर्यादा और नारीतुल्य लज्जा ओढ़े दिखाई नहीं देती है। वह एक पाश्चात्य, आधुनिक नारी है और नारी के इस रूप को भारत की जनता ने उस वक्त खुले मन से स्वीकारा’।6  नाडिया को ‘मादा रॉबिनहुड’7 की उपाधि यूं ही नहीं मिली। इसी समय वी. शांताराम की ‘दुनिया न माने’ (1937) की शांता आप्टे ने बेमेल विवाह के खिलाफ व्यक्तिगत सत्याग्रह करती स्त्री का सशक्त किरदार निभाया।  फ़िल्म में नायिका द्वारा ‘लोंगफेलो’ की कविता ‘इन द वर्ल्डस’8 का गायन मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। इसी समय तलाक के विषय पर प्रथमेश बरुआ की बहुचर्चित फ़िल्म ‘मुक्ति’ (1937) रिलीज हुई। बरुआ की ‘देवदास’ (1935) की नायिका ‘पारो’ को भी समीक्षकों ने देवदास के मुकाबले सशक्त स्त्री पात्र कहा।9 इसी समय 'हम, तुम और वो' (1938) आई। ‘फ़िल्म (1938) की नायिका हठी और मनोवेग के अधीन कुछ भी कर सकती है। वह नायक के प्रति अपनी लालसा जाहिर करती और उससे बच्चे की आकांक्षा करती है। स्त्री का इन भावनाओं को बयान करना उस समय नहीं आज भी क्रान्तिकारी है। इस फ़िल्म ने अन्त में पैतृकसत्ता का प्रतिपादन करते हुए भी एक ऐसी स्त्री को रचा है जो अपनी इच्छाओं और अपनी लालसाओं और करनी पर कतई शर्मिन्दा नहीं’।10 1939 में महबूब खान ने ‘एक ही रास्ता’ फ़िल्म बनाई जिसमें बलात्कारी की हत्या करने को भी गलत नहीं माना गया। इस समय मिथकीय स्त्री चरित्रों जैसे द्रौपदी, अहिल्या बाई पर भी खूब फ़िल्में बनी। सिनेमा के इस आरंभिक दौर में स्त्रियों को सशक्त मुख्य भूमिकाएँ मिली। इस दौर में सिनेमा के साथ भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा की प्रगतिशील वैचारिकी का जुड़ाव रहा, जो भारत के नवजागरण से ऊर्जा ग्रहण करती थी। नवजागरण के बुनियादी मुद्दे सामाजिक सुधार, स्त्री शिक्षा का प्रचार-प्रसार, स्त्री संबंधी कुरीतियों पर प्रहार इस दौर के फ़िल्मकारों के लिए प्रेरणास्रोत बने। सिनेमा के शुरुआती दशक की इन फ़िल्मों में स्त्री से जुड़े मुद्दों को गंभीरता, गहन चेतना और शिद्दत के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास दिखाई देता है। विधवा विवाह के मुद्दे पर किशोर साहू ने ‘सिंदूर’ (1947) बनाई। दहेज़ समस्या पर वी. शांताराम की ‘दहेज़’ (1950) अच्छी फ़िल्म मानी गई।

 

         पचास व साठ के दशक में सुजाता (1959), बंदिनी (1963), अनुराधा (1960) फ़िल्मों में स्त्री से जुड़े मुद्दों को उठाया गया। अनुराधा (1960) में पति बलराज साहनी कर्नल साहब से अनुराधा का परिचय करवाता है- 'यह मेरी धर्मपत्नी... अनुराधा'। कर्नल साहब से जवाब मिलता है- 'गलत, बिलकुल गलत.. पहले अनुराधा... फिर तुम्हारी पत्नी।'11 लेकिन समय के साथ हिंदी फ़िल्मों में नायिका की स्थिति में निरंतर गिरावट देखी गई। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो साठ के दशक से लेकर बीसवीं सदी के लगभग अंतिम दशक तक नायिका प्रधान फ़िल्म एकदम हाशिए पर चली गई। सत्तर के दशक में जब अमिताभ बच्चन का एंग्री यंग मैनके रूप में पदार्पण होता है तब तो स्त्रियों के लिए कोई भूमिका ही नहीं रह गई। इस समय नायिकाओं को केवल शो-पीस बनाकर सिनेमा में प्रस्तुत किया जाने लगा। फरमाबरदार बीवी, गौरवान्वित माता, दरियादिल प्रेमिका का मानक इस दौर में स्थापित हुआ। निरूपा रॉय जैसी ममतामयी माँ, ललिता पंवार जैसी क्रूर सास, और नादिरा जैसी खलनायिका इस दौर की हर फ़िल्म में दिखने लगी। स्त्री-पात्र-चित्रण में एक फांक पैदा कर नायिका का वैम्प से कंट्रास्ट दिखाकर ‘अच्छी औरत’ और ‘चरित्रहीन औरत’ का फर्क दिखाया जाना आम हो गया। स्त्री का मानवीय रूप इन सांचों में कहीं विलुप्त हो गया। 

 

           इस दौर का फ़िल्मकार स्त्री मुद्दों के नाम पर बलात्कार का हॉट टॉपिक, जिसका विजुअल लोगों को बहुत आकर्षित करता है उसे भुनाने के लिए ही फ़िल्म बनाने में दिलचस्पी लेने लगा। जवरीमल पारख लिखते हैं ‘हिंसा और बलात्कार जुल्म को अधिक उत्तेजक, नाटकीय और प्रतिशोधक बनाते हैं। इनका दृश्यांकन दर्शकों को तत्काल अपनी गिरफ्त में ले लेता है। जुल्म के प्रतिशोध में नायक द्वारा किया गया कोई गैरकानूनी, अमानवीय और क्रूर कृत्य अपने आप न्यायोचित बन जाता है। बलात्कार खलनायक को तड़पा-तड़पाकर मारने का उचित कारण बन जाता है। साथ ही यह नारी देह के नग्न प्रदर्शन का अवसर भी देता है’।12 यह वही दौर है जिसमें रेप के दृश्यों को फ़िल्माने में निपुण कुछ अभिनेताओं का उभार होता है, जिन्हें बॉलीवुड में रेप स्पेशलिस्ट की संज्ञा तक दी जाने लगी थी।13 इस समय की फ़िल्मों के पोस्टर पर यदि गौर करें तो पाएंगे कि उनमें स्त्री के साथ या तो बलात्कार होता दिखता है या वह अर्धनग्न अवस्था में प्रदर्शित की जा रही है। अस्सी के दशक में प्रतिशोध लेती नायिकाओं पर काफ़ी फ़िल्में बनीं जैसे कि रेखा की 'फूल बने अंगारे' (1991), हेमामालिनी की 'अंधा कानून' (1986), डिम्पल कपाड़िया की 'जख्मी औरत' (1988), जीनत अमान की ‘डाकू हसीना’ आदि। बी. आर. चोपड़ा की इंसाफ का तराजू (1980) की नायिका भारती (जीनत अमान) एक नामी व्यवसायी रमेश से बलात्कार का बदला लेने के लिए उसकी हत्या कर देती है। जख्मी औरत (1988) की नायिका इंस्पेक्टर किरण दत्त (डिम्पल कपाडिया) कानून से नाउम्मीद होकर अंततः एक महिला गैंग बनाती है और बलात्कारियों को क़ानूनी दायरे से बाहर दंड देने का फैसला करती है। राजकुमार कोहली की इंतकाम (1988) में बिरजू अपनी बहन छाया के बलात्कारियों से बदला लेता है। दामिनी (1993) की नायिका अपनी घरेलू सहायिका उर्मिला के बलात्कार की साक्षी है जिसका यौन उत्पीड़न उसके देवर द्वारा किया गया है। वह अपने परिवार के खिलाफ जाकर उर्मिला को न्याय दिलाने के लिए लड़ती है। उपरोक्त सभी फिल्में घूम-फिरकर बलात्कार पर ही आधारित थी। इन फ़िल्मों में बलात्कार से पीड़ित एक अपमानित औरत का प्रतिशोध ही दिखाई देता है। कई फ़िल्मों में तो यह प्रतिशोध लेने वाली स्वयं स्त्री भी नहीं बल्कि नायिका के लिए यह कार्य भी फ़िल्म का नायक कर रहा था। इस दौर में फ़िल्मों में बलात्कार के दृश्य डालना बहुत आम होने लगा। हर दूसरी-तीसरी फ़िल्म में बलात्कार के प्रयास का कोई न कोई दृश्य दिख जाता था। हिंदी सिनेमा में बलात्कार के दृश्य हमेशा विवादों में रहे। बलात्कार के अधिकतर दृश्य रतिपरक बनाए जाते हैं।14  बलात्कार का चित्रण बॉलीवुड फ़िल्म में एक्शन और नारी के देह-प्रदर्शन से अधिक ऊपर नहीं उठ पाया।15  'इंसाफ का तराजू' का बलात्कार दृश्य यथार्थपरक होते हुए भी उत्तेजक है।16  

 

          इस समय डाकू हसीना (1987) शेरनी (1988) जैसी स्त्री-केन्द्रित डाकू फ़िल्मों की एक धारा चल पड़ी। जीनत अमान, रेखा, हेमा मालिनी, श्री देवी, हेलेन सहित उस समय की तमाम प्रसिद्ध अभिनेत्रियों ने डाकू की भूमिका निभाई। इन फ़िल्मों में भी बलात्कार और उसके बाद प्रतिशोध का प्रसंग डाला जाता था। ‘बलात्कार के प्रतिशोध में बनी अच्छी-बुरी फ़िल्मों में भी स्त्री के शरीर के उभार और घुमाव दिखाने से निर्देशक नहीं चूकते। प्रतिशोध लेती स्त्रियों का परिधान कुछ ऐसा हो जाता है कि उसमें शरीर के वक्र और उभार अधिक प्रदर्शित होते हैं। कसी हुई जिन्स, ऊँचे घुटनों तक आते बूट, वक्ष को उभारती चिपकी टी-शर्ट और कमर को उभारती कसी हुई चमड़े की कमरपट्टी, उसकी देहयष्टि को अति कामुक उभार देती है’।17  ये सभी फ़िल्में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के विरोध का कथानक तो रचती हैं लेकिन उसका कोई व्यवस्थित अध्ययन प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो पाती। ‘इन फ़िल्मों में बलात्कार की समस्या का कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया है’।18 स्त्री देह की पवित्रता पर भी प्रतिगामी संवाद देखने को मिलते हैं। ‘इंसाफ का तराजू’ में नायिका अदालत में भावुक एकालाप में कुछ इस तरह का बयान देती है- ‘जज साहब नारी का शरीर एक मंदिर है...आज फिर एक मासूम लड़की की ज़िन्दगी बर्बाद कर दी गई... एक और मंदिर तोड़ दिया गया’।19 जख्मी औरत में भी नायिका स्त्री की इज्जत की तुलना कांच जैसी नाजुक वस्तु से करती है। कमला भसीन सत्यमेव जयते में इसी ‘इज्जत’ की अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं।20 

 

       हिंदी सिनेमा में नब्बे का दशक एस्थेटिक अपील का युग था। इस दौर में फिल्मों का कथानक उच्च वर्ग तक सिमटकर रह गया। कामकाजी वर्ग का सिनेमा से विलोपन हो गया। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो सामाजिक मुद्दे उनमें कहीं नहीं थे। इसी समय आइटम सोंग का एक दौर आया जिसमें स्त्री को चिकनी चमेली’, ‘जलेबी बाई’, ‘तंदूरी मुर्गीजैसे नामों से बुलाया जाने लगा जैसे वह मनुष्य नहीं कोई वस्तु हो। आइटम सोंग इस समय की एक निराली खोज थी, जिसमें प्रमुख किरदार सामान्यतः सिनेमाई आख्यान का हिस्सा ही नहीं होता। वह सिर्फ चंद मिनटों के लिए ऊर्जामय प्रदर्शन के लिए और इसके माध्यम से दर्शकों की आदिम वासना जागृत करने के लिए पर्दे पर अवतरित होता है। खलनायक (1997) फिल्म के ‘चोली के पीछे क्या है’ गाने को सामान्यतः पहला आइटम नंबर माना जाता है।  ‘छैंया छैंया’ (दिल से) ‘छम्मा छम्मा’ (चाइना गेट), ‘इश्क कमीना’ (शक्ति) ‘कजरारे’ (बंटी और बबली), ‘मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने’ (शूल) खासे प्रसिद्ध हुए। क्या ऐसे आयटम नंबर से  को व्यवसायिक  फायदा होता है? ‘दर्शकों का आकर्षण सिर्फ आयटम और रैप गीत तक ही रहता है। फ़िल्म या सीरियल अपनी क्वालिटी के कारण चलते हैं। अगर आयटम गीत से फ़िल्में चलतीं तो 'शक्ति' फ्लॉप नहीं हुई होती। उसमें शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय ने 'इश्क कमीना' गीत पर कामुक नृत्य किया था21  हालाँकि वह दौर अब पतन की ओर अग्रसर है। कुछ गिने-चुने फ़िल्मकार ही अब इस फॉर्मूले पर फ़िल्में बना रहे हैं।

 

         हाल की फिल्मों को देखें तो फिल्मकार की दृष्टि में फिर से तब्दीली नजर आने लगी है। वह स्त्री के सम्मान, जिजीविषा, पारिवारिक-सामाजिक पटल पर संघर्ष को फिल्म का विषय बनाने लगा है। ‘पहले की फिल्में स्त्री जीवन की मुश्किलों और विडंबनाओं को व्यक्त करते हुए उनके साथ बराबरी और अधिक मनुष्योचित व्यवहार करने पर बल देती थी। जबकि इधर की फिल्मों में बराबरी और मानवीय व्यवहार के साथ-साथ उनके सबलीकरण पर अधिक बल है। इन फिल्मों में स्त्री जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं को उठाया गया है जो शायद इस तरह से इससे पहले इतने तीखे रूप में नहीं उठाया गया है’।22 इक्कीसवीं सदी के इस हालिया दशक में ऐसी फिल्में निर्मित हुई हैं जहाँ स्त्री, बलात्कार से न सिर्फ खुद को बचाने में सक्षम है बल्कि अपना प्रतिशोध भी स्वयं ले रही हैं। खुद पर हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए अब वह पुरुष पर निर्भर नहीं है। यह बदलाव 'पिंक' की नायिका मीनल अरोड़ा’, 'एन.एच. टेन' की मीरा’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’ की ‘शशि’ और 'गुलाब गैंग' की रज्जोमें स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। ये स्त्री पात्र लार्जर देन लाइफ नहीं बल्कि इहलौकिक प्रतीत होते हैं। जीते-जागते, जिनसे हम रोज मुलाकात करते हैं। अपने घर, पड़ोस अपने कार्यस्थल पर हम रोज इनमें से किसी न किसी से टकराते हैं। इनका प्रतिशोध भी काल्पनिक या अतिरंजित नहीं है। अब नायिका बलात्कार की शिकार नहीं होती बल्कि उससे पहले पलटवार करती है। जिस 'न के अधिकार' की रक्षा करने के लिए 'पिंक' का वकील दीपक सहगलमहीनों अदालत में जिरहबाजी करता है, उस न के अधिकारकी रक्षा मीनल अरोड़ा बलात्कार की कोशिश करने वाले पुरुष के सिर पर बोतल मारकर कर लेती है। यह दामिनी की परंपरा से बहुत आगे का सफ़र है जहाँ स्त्री घायल करके भाग रही है और पुरुष अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा है।

 

         जिस समाज में हम रहते हैं उसमें बेटे से माँ के दूध की लाज रखने की अपेक्षा की जाती है। उसकी रक्षा का दायित्व पुरुष को दिया गया है। पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थाविरे पुत्राः न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ।।23  अब इसके दिन पूरे हो गए हैं। अब स्त्री स्वयं इतनी सक्षम है कि वह अपनी लाज बचाने के लिए संघर्ष कर सकती है। इस वैचारिकी पर आधारित एन.एच. टेन, पिंक, थप्पड़ जैसी कई फिल्में इस समय देखने को मिल जाती हैं। बुलबुलवर्ष 2020 की एक उल्लेखनीय फिल्म है। फिल्म की कथा उन्नीसवीं सदी के बंगाल की उस पृष्ठभूमि पर रची गयी है जिसमें बाल विवाह जैसी कुप्रथा प्रचलित है। फ़िल्म की नायिका बुलबुलअत्याचार के प्रति अपना प्रतिरोध निर्मित करती है। वह अपने सहायक लोगों को संगठित कर अत्याचार का बदला लेती है। स्त्री कथानक केन्द्रित यह सुपरनेचुरल थ्रीलर फिल्म स्त्री से संबंधित पुरातन कथाओं पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है। स्त्री संबंधी मिथकों को चुनौती देती है। नारी विमर्श में अक्सर मिथकों में आए स्त्री प्रतिरूप को कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है। स्त्री विषयक दंतकथाओं पर गंभीर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। सिमोन दी बोवियर ने इस पर विस्तृत विवेचन किया है। उनके अनुसार पुरुष ने देखा कि स्त्री पर नियंत्रण रखने का सर्वोत्तम रास्ता उनके सम्बन्ध में दंतकथा की रचना करने में निहित है।24 वीका ट्रेडीशन में तो एक वैकल्पिक धर्म के रूप में विचक्राफ्ट को स्थापित करने की कोशिश की जाने लगी है। ‘देवी’ इसका धार्मिक चिह्न है। प्रसिद्ध नारीवादी विचारक ‘स्टारहॉक’ इसकी प्रबल समर्थक रही हैं जो ‘गोडस मूवमेंट’ से भी जुडी रही।

 

               'एन एच टेन' में अपनी पसंद के जीवनसाथी का चुनाव करने पर एक भाई की अपनी बहन के साथ बेरहमी, एक माँ की अपनी बेटी के साथ निर्ममता और एक मामा की अपनी भांजी के साथ क्रूरता दिखाई गई है। एक्शन और मारधाड़ अपनी जगह, लेकिन फिल्म यह दर्शाने में कामयाब होती है कि समाज में स्त्री को स्वतंत्रता देने की हिचक इस कदर बरकरार है कि उसे अपना प्रेमी चुनने जैसे मूलभूत अधिकार की आजादी तक नहीं है। फिल्म संदेश देती है कि जीवन के इस बेहद निजी फैसले में रूकावट डालने में गौत्र, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, गाँव व देश की दीवारों को तोड़ देने की ज़रूरत है और यह कार्य फिल्म में नायिका के हाथों संपन्न होता है। आज की फिल्में स्त्रियों से जुड़े कुछ ऐसे मुद्दे उठा रही हैं, जिनकी ओर पहले के फिल्मकारों ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। यह मुद्दे आम स्त्री की रोजमर्रा की जिंदगी से सीधे जुड़ते हैं। कुछ समय पूर्व एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें दिल्ली के हौज़ खास विलेज के बाहर रात के समय कई लड़के कुछ लड़कियों से उनके दाम पूछते देखे जा सकते हैं। वे लड़कियाँ वहाँ अपनी कैब के इंतज़ार में खड़ी थी।25  स्त्रियाँ पढाई या नौकरी के सिलसिले में घर से दूर बाहर अकेले रहने के दौरान जो दुश्वारियां और अविश्वास झेलती हैं, ‘पिंकजैसी फिल्में इस गंभीर मुद्दे पर बात करने का स्पेस देती हैं। फ़िल्म हमें विचारने पर विवश करती है कि इस माहौल की असल वजह कौन है? हम अपने पड़ोस में रहने वाली अकेली लड़की से क्यों इतना डरे हुए हैं? क्यों हम उसके प्रति अविश्वास करते हैं, उसके चरित्र पर संदेह करते हैं। पिंकफिल्म इस मुद्दे का अध्ययन प्रस्तुत करती है कि आखिर क्यों पूरी सोसाइटी में दीपक सहगल के अलावा सभी निवासी मीनल अरोड़ा, फलक अली और एंड्रिया इन तीन अकेली कामकाजी महिलाओं के चरित्र पर संदेह करते हैं। कहीं यह एक समाज के रूप में हमारी विफलता तो नहीं कि एक जेंडर को लेकर हमारा नजरिया इतना पक्षपातपूर्ण है।

 

         इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की फिल्मों में एक आम स्त्री कथा के केंद्र में आती है। ‘कहानी’ फिल्म की गर्भवती नायिका अपने दम पर पूरी फिल्म खींचती है। वह न सिर्फ पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में दखल देती है बल्कि पूरी व्यवस्था को झांसा देते हुए अपना बदला लेती है। इस दौर की नायिका स्टारडम से बाहर निकल आने को छटपटा रही है। विद्या बालन और मुखर्जी जैसी अभिनेत्रियों ने परंपरागत छरहरी नायिका की छवि पर प्रहार किया है। एक सामान्य स्कूल अध्यापिका या एक पुलिस अधिकारी के रोल में आखिर ग्लैमर का क्या तुक बनता है। एक दृश्य माध्यम होने के नाते सिनेमा के लिए स्त्री देह के सौंदर्य को भुनाने का लालच छोड़ पाना आसान नहीं है। इसी सन्दर्भ में ललित जोशी लिखते हैं ‘जिस समय सिनेमा का जन्म हुआ एक नई प्रकार की चाक्षुषता को पनपने का मौका मिला तथा जो परंपरागत कलाओं, कला रूपों- क्रोमोलीथोग्राफी, रंगमंच तथा फोटोग्राफी के अंतःसंवाद से एक विशिष्ट नैत्रिक क्षेत्र को तैयार कर रही थी’।26  लेकिन इसमें थोड़ी सी हलचल का नजर आना छोटी बात नहीं है। अब कम से कम कुछ फिल्में तो ऐसी आने लगी हैं जिसमें इस धारा से व्यपवर्तन (डायवर्जन) दिखता है। मसलन शेरनी (2021) की नायिका एक वन अधिकारी है। आत्मविश्वास, कर्तव्यधर्मिता, साहस और संवेदनशीलता उसके नायकोचित गुण हैं न कि सिर्फ आकर्षक शरीर, जो अब तक हिंदी सिनेमा में एक गुण के स्तर तक विराजमान हो चुका है। ऐसे अन्य उदाहरण ‘कहानी- भाग दो’ व ‘तुम्हारी सुलु’, ‘मर्दानी’ में देखे जा सकते हैं।

 

      आज का सिनेमा स्त्री के जीवन की जद्दोजहद और उसके व्यक्तित्व से जुड़े सवाल उठाता है। इंग्लिश-विंग्लिश की एक घरेलू महिला शशि भौतिक सुख-सुविधाओं से अधिक अपने आत्मसम्मान के बारे में सजग है। वह परिवार में खुद को प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्ष करती है। अंग्रेजी भाषा न जानने के कारण पति और बच्चों से मिले अपमान और तिरस्कार को वह अपनी नियति नहीं मानती बल्कि परिस्थिति से लड़कर उन्हें बदलने का हौसला रखती है। शशि के लिए प्रेम में विचलन उसकी जिंदगी की समस्या का हल नहीं है। वह समझ चुकी है कि केवल जीवनसाथी बदलने से उसका जीवन आसान नहीं होगा बल्कि उसका व्यक्तित्व ही उसकी मुक्ति का आश्रय है। वह स्वयं सशक्त होने की आकांक्षी है। इस हकीकत तक ‘क्वीन’ (2014) की ‘रानी’ भी पहुँचती है- फिल्म के आखिर में। ‘क्वीन’ एक यात्रा है रानी की मानसिक परिपक्वता की या कह सकते हैं एक स्त्री की सत्य की खोज की या ज्ञान-प्राप्ति की। एक पुरुष का साथ पाकर पूर्णता का अहसास एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है। संघर्ष तो भीतरी है- पुरुष के साथ से मुक्ति का नहीं बस उस पर निर्भरता से मुक्ति का। ‘रानी’ घर की चारदीवारी के भीतर की ‘सुरक्षा’ और बाहरी ‘क्रूर दुनिया’ का सच की तह तक जा पहुंची है। इस सच को ‘हाईवे’ में भी ईमानदारी और गहनता से दिखाया गया है। ‘हाईवे’ (2014) की नायिका ‘वीरा’ को घर की चारदीवारी वह सुरक्षा नहीं दे पाती जो उसे उसके अपहरणकर्ता महावीर भाटी के साहचर्य में प्राप्त होती है। इसका अर्थ है कि घर की दीवारों के भीतर भी उतनी सुरक्षा नहीं हैं, जितनी बतलायी जाती रही है और यह बाहरी दुनिया भी उतनी भयावह नहीं जितना इसका डर दिखाया जाता रहा। आज की फिल्मों की स्त्री एक सहज मनुष्य की तलाश में निकल पड़ी है। एक ‘स्त्री’ के दर्जे से परे एक मनुष्य के दर्जे की यह तलाश है।

 

            एक फिल्म का संदेश उसकी कथा, पटकथा, गीत, संवाद आदि हर भाग में होता है। पात्र भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते हैं। अछूत कन्या, मदर इंडिया, सुजाता से लेकर क्वीन, पिंक, गुलाब गैंग, थप्पड़ और बुलबुल तक हिंदी सिनेमा की यात्रा में कितने ही पात्र हमारी स्मृतियों में दर्ज होकर हमारे आदर्श बने। अनेक सिनेमाई पात्र चर्चा का विषय बने और अमर हो गए। यदि सिनेमा में स्त्री विमर्श की चर्चा करते हुए हम गीतों पर कोई चर्चा न करें तो एक बहुत महत्त्वपूर्ण आयाम हमारी पकड़ से छूट जाएगा। हिंदी सिनेमा में ऐसी अनेक फिल्में निर्मित हुई हैं, जिनके गीतों में स्त्री के दुख-दर्द के प्रति संवेदना व्यक्त की गई। साहिर लुधियानवी की कलम से निकला, मोहम्मद रफ़ी की आवाज में ‘प्यासा’ (1957) का गीत ये कूचे, ये नीलाम घर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवाँ ज़िंदगी के, कहाँ हैं कहाँ है मुहाफ़िज़ खुदी के, जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैंऔर साहिरद्वारा लिखे लता मंगेशकर की आवाज में साधना’ (1958) फिल्म का गीत औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया, जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दियापुरुषों और महिलाओं के लिए दोहरे मापदंड वाले एक पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की हकीकत को बयां करने में सक्षम बना। साहिर की कलम से कभी ऐसे गीत नहीं निकले जिसमें स्त्री ने अपने पति को देवता या रक्षक स्वीकार किया। जबकि इसी दौर में ‘तुम्ही मेरे मंदिर, तुम्ही मेरी पूजा, तुम्ही देवता हो’ (खानदान, 1965) जैसे गीत खूब चले। इसके विपरीत, साहिर तो स्त्री से अपनी कथित कमजोरी को दूर करने और खुद के लिए खड़े होने का आग्रह करते हैं। वासना (1968) में एक हल्के-फुल्के अंदाज में, नायक अपनी नायिका के लिए गाता है-‘इतनी नाज़ुक ना बनो’। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म रिपोर्टर राजू (1962) का गीत ‘तुम मर्द निकालोगे घूंघट’ एक स्टेज शो में छेड़छाड़ वाले गीत की तरह फिल्माया गया था। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं-‘तुम मर्द निकालोगे घूंघट जब राज हमारा आएगा / माथे पे तुम्हारे होगी बिंदिया और नाक में नथ लटका देंगे/ और नाक में नथ लटका देंगे हम शान से ऑफिस जाएंगे/ चौके में तुम्हें बिठला देंगे/ चौके में तुम्हें बिठला देंगे हाथों में तुम्हारे रोता हुआ एकएक बच्चा पकड़ा देंगे/ एक एक बच्चा पकड़ा देंगे/ बंद करके चार दिवारों में ऊपर ये बोर्ड लगा देंगे/ बुलबुलों मत रो यहां आँसू बहाना है मना/ लहराएगा सारी दुनिया में ये झंडा लाल चुनरिया का’। इस गीत में स्त्री पुरुष की भूमिका-परिवर्तन पर चुहलबाजी भले ही प्रतीत हो, पर है गंभीर चिंतन मनन की बात।

 

       हिंदी सिनेमा में ऐसे अनेक गीत हुए हैं जिन्होंने स्त्री विमर्श को बुनियाद देने की कोशिश की। गाइड (1965) की रोजी तो ‘काँटों से खींच के ये आँचल/ तोड़ के बंधन, बांधे पायल/ कोई न रोको, दिल की उड़ान को’ गाकर भारतीय स्त्री की स्वतंत्रता की घोषणा करती प्रतीत होती है। इंसाफ का तराजू (1980) का एक गीत बहुचर्चित हुआ- ‘लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं, रूह भी होती हैं उसमें, ये कहाँ सोचते हैं’। ‘आखिर क्यों’ (1985) का गीत ‘कोमल है कमज़ोर नहीं तू’ की चंद पंक्तियाँ ‘सतियों के नाम में तुझे जलाया/ मीरा के नाम पे जहर पिलाया/ सीता जैसी अग्नि परीक्षा/ जग में अब तक जारी है’। इक्कीसवीं सदी के फ़िल्मी गीतों में स्त्री के अबला रूप के प्रति चिंता के स्थान पर उसे एक सामान्य मनुष्य के रूप में देखने का आग्रह अधिक है। हाईवे (2014) फिल्म के गीत ‘पटाखा गुड्डी’ में जिस लड़की का जिक्र है, वह मीठा पान खा रही है और लाहौरी सूट पहन, बिल्ली के जैसी मस्ती कर रही है, पंक्तियाँ ‘ऐंवे लोक लाज कि सोच सोच के क्यूँ है आफत ता ली’ में समाज की चिंता छोड़ जीने का भाव है। क्वीन (2013) का गीत जुगनीकिनारे भी बहुत पसंद किए गए। जुगनीकी कुछ पंक्तियाँ- ‘(हे) उड़ी (हे) नए नए पर लिए, ओ पिंजरा खोल, ओ पिंजरा खोल में समाज के कड़े बंधनों से आज़ाद होने की छटपटाहट है। ‘किनारे’ गीत की पंक्तियाँ ‘गर माझी सारे साथ में/ गैर हो भी जायें/ तो खुद ही तो पतवार बन/ पार होंगे हम/ जो छोटी सी हर इक नहर/ सागर बन भी जाये/कोई तिनका लेके हाथ में/ ढूंढ लेंगे हम किनारे ...किनारे ...’ आत्मनिर्भरता की घोषणापत्र है। वेल डन अब्बा (2009) का गीत ‘ओ मेरी बन्नो होशियार/ साइकिल पे सवार/ चली जाती सिनेमा देखने को’, पारंपरिक शर्माती-सकुचाती दुल्हन के स्टीरियोटाइप को तोड़ने का प्रयास है। दंगल (2016) के गीत ‘धाकड़’ की पंक्तियाँ ‘तेरी अकड़ की रस्सी जल जाएगी/ पकड़ में इसकी आग है/ यो इंची टेप से नापेगी/ तेरी कितनी ऊँची नाक है’ स्त्री सबलीकरण का नया व्याकरण लिखने की कोशिश है।

 

निष्कर्ष : आज ज़रूरत है कि निर्देशक स्त्री से जुड़े मुद्दों को और गंभीरता से उठाएं। इसके लिए सिने-साक्षरता की दिशा में गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है, जिससे अच्छे सिनेमा को सराहा जा सके। जब तक अच्छी फिल्मों की समझ विकसित नहीं होगी तब तक अच्छी फिल्में नहीं बनेंगी। इस दिशा में हिंदी विभागों को अपनी भूमिका तलाशनी होगी। सिने साक्षरता में हिंदी विभागों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती थी लेकिन इस दिशा में अभी ठोस प्रयास करना शेष है। हिंदी के जो साहित्यकार सिनेमा की दुनिया से निराश होकर लौट आए, उन्हें समझना चाहिए था कि यह एक अलग माध्यम है। इसकी जरूरतें अलग है। पंडित प्रदीप, नरेंद्र शर्मा, नीरज, राही मासूम रजा, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित जैसे अनेक विद्वान है जिन्होंने सिनेमा की विशेषताओं को समझा और इस क्षेत्र में सफल रहे। ‘फ़िल्म निर्माण खर्चीला व्यवसाय है। यदि वह बाक्स ऑफ़िस पर पिट जाती है तो निर्देशक तथा सितारों से लेकर तकनीकी कर्मचारियों की प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाती है। इसलिए निर्माताओं का प्रथम लक्ष्य होता है स्त्री का यथासंभव प्रदर्शन ताकि पुरुष दर्शकों को कामासक्त आनंद की अनुभूति हो सके। लेकिन फ़िल्मकारों को अपने प्रतिबद्ध दर्शकों की नैतिक चिंताओं का ख्याल भी रखना है। अतएव वह स्त्री की मर्यादा और मान सम्मान को भी पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं करेगा। उसे कोई न कोई बीच का रास्ता निकालना पड़ेगा। बॉलीवुड ने इस गुत्थी से निकलने के लिए तमाशे तथा प्रदर्शन को जरिया चुना है। वह जानता है कि सिनेमा को वायरिजम से बचाया नहीं जा सकता किन्तु आख्यान के एक छोटे हिस्से तक सीमित रखा जा सकता है। बलात्कार, कैबरे, आइटम गीत तमाशे और प्रदर्शन को संकुचित रखने के उपाय हैं। इस प्रकार यौनिक निहार को वैधता प्रदान कर वह शेष आख्यान में अपने नैतिक दायित्वों का निर्वाह कर सकता है। फ़िल्म अध्ययन के लिए चुनौती यह है कि वह सिनेमा की उपरोक्त रणनीति की बारीकियों को समझने और उनकी व्याख्या के लिए उपयुक्त सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य तैयार करने की दिशा में सोचे’।27 आज जब हमारी फिल्में बहुत सिद्दत से स्त्रियों के मुद्दों का जनानुवाद करके जन-जन तक पहुँचाने की चेष्टा कर रही हैं हमें भी आगे बढ़कर अपने दायित्व को समझना होगा।

 

आधार फिल्में :

  1. अर्देशिर ईरानी, आलमआरा, 1931
  2. जे.जे. मदान, शीरीं फरहाद, 1931
  3. अर्देशिर ईरानी, द्रौपदी, 1931
  4. अर्देशिर ईरानी, नूरजहाँ, 1931
  5. चंदूलाल शाह, देवी-देवयानी, 1933
  6. चंदूलाल शाह, मिस, 1933
  7. होमी वाडिया, हंटरवाली, 1935
  8. होमी वाडिया, फ्रंटियर मेल, 1936
  9. वी. शांताराम, दुनिया न माने, 1937
  10. प्रथमेश चंद्र बरुआ, मुक्ति, 1937
  1. पी. सी. बरुआ, देवदास, 1935
  2. महबूब खान, हम तुम और वोह, 1938
  3. किशोर साहू, सिन्दूर, 1947
  4. वी. शांताराम, दहेज़, 1950
  5. गुरुदत, प्यासा, 1957
  6. बी. आर. चोपड़ा, साधना, 1958
  7. बिमल रॉय, सुजाता, 1959
  8. ऋषिकेश मुखर्जी, अनुराधा, 1960
  9. द्वारका खोसला, रिपोर्टर राजू, 1962
  10. बिमल रॉय, बंदिनी, 1963
  11. विजय आनंद एवं टेड डेनिएलवस्की, गाइड, 1965
  12. टी.प्रकाश राव, वासना, 1968
  13. बी.आर. चोपड़ा, इन्साफ का तराजू, 1980
  14. जे. ओम प्रकाश, आखिर क्यों, 1985
  15. अशोक रॉय, डाकू हसीना, 1987
  16. अवतार भोगल, जख्मी औरत, 1988
  17. राजकुमार कोहली, इंतकाम, 1988
  18. हर्मेश मल्होत्रा, शेरनी, 1988
  19. के.सी. बोकाड़िया, फूल बने अंगारे, 1991
  20. राजकुमार संतोषी, दामिनी, 1993
  21. श्याम बेनेगल, वेल डन अब्बा, 2009
  22. गौरी शिंदे, इंग्लिश-विन्ग्लिश, 2012
  23. सुजॉय घोष, कहानी, 2012
  24. सौमिक सेन, गुलाब गैंग, 2014
  25. प्रदीप सरकार, मर्दानी, 2014
  26. विकास बहल, क्वीन, 2014
  27. इम्तियाज़ अली, हाईवे, 2014
  28. नवदीप सिंह, एन.एच.टेन, 2015
  29. नितेश तिवारी, दंगल, 2016
  30. अनिरुद्ध रॉय चौधरी, पिंक, 2016
  31. सुरेश त्रिवेणी, तुम्हारी सुलु, 2017
  32. अन्विता दत्त दुप्तन, बुलबुल, 2020
  33. अमित. वी. वसुरकर, शेरनी, 2021

 

सन्दर्भ  :

  1. ललित जोशी, बॉलीवुड पाठ : विमर्श के सन्दर्भ, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ  93
  2. वही, पृष्ठ 94
  3. वही, पृष्ठ 95
  4. वही, पृष्ठ 49,50
  5. पर्दे पर औरत, अरुण कुमार, फिल्म का सौन्दर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा, संपादक प्रो. कमला प्रसाद, शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण 2010, पृष्ठ 210
  6. विजय रंचन, बॉलीवुड की नारीगाथा, शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण 2015, पेज 65, 66
  7. वही, पृष्ठ 67
  8. https://www.youtube.com/watch?v=2wqhfKNMPTs
  9. विजय रंचन, बॉलीवुड की नारीगाथा, शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण 2015, पृष्ठ 257 एवं 265
  10. वही, पृष्ठ 257
  11. https://www.youtube.com/watch?v=4JvtxuVwEKA (1:52:49)
  12. लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, जवरीमल पारख, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली, पृष्ठ 106
  13. https://jsnewstimes.com/entertainment/kannada/rajeet-whenever-there-is-a-rape-scene-he-calls-me-and-says-rape-specialist-actor-ranjeet-bollywood-villain-actor
  14. विजय रंचन, बॉलीवुड की नारीगाथा, शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण 2015, पृष्ठ 101
  15. वही, पेज 104
  16. संपादक प्रो. कमला प्रसाद  (संपादक), फिल्म का सौन्दर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा, शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण 2010, पृष्ठ 213 (अरुण कुमार का लेख ‘पर्दे पर औरत’)
  17. विजय रंचन, बॉलीवुड की नारीगाथा, शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण 2015, पेज 102
  18. वही, 104
  19. इंसाफ का तराजू https://www.youtube.com/watch?v=BFn8PovbsJI&t=3752s (2:03:06)
  20. सत्यमेव जयते, सीजन 3, एपिसोड 6, व्हेन मस्कुलिटी हार्म्स मैन, लव ऑफ पॉवर https://www.youtube.com/watch?v=aOLYIzJnKT4 (5:07/10:02)
  21. अजय ब्रह्मात्मज, सिनेमा-समकालीन सिनेमा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृष्ठ 204
  22. जवरीमल पारख, हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृष्ठ 191 
  23. मनु स्मृति.9.3
  24. डॉ गीता चावड़ा (मूल लेखक), डॉ रामगोपाल सिंह (अनुवादक), नारीवाद के विविध परिप्रेक्ष्य, शांति प्रकाशन, हरियाणा, पृष्ठ 100  
  25. https://www.indiatoday.in/cities/delhi/story/northeastern-girls-sexually-harassed-hauz-khas-dcw-police-fir-1831004-2021-07-22
  26. ललित जोशी, बॉलीवुड पाठ : विमर्श के सन्दर्भ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2012, पृष्ठ 90
  27. वही, पृष्ठ 100 

 

लक्ष्मी- पीएच.डी. शोधार्थी,

हिंदी अध्ययन केंद्र, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर 382030

laxmi190713002@cug.ac.in, 9667667483

प्रो. संजीव कुमार दुबे

प्रोफेसर, हिंदी अध्ययन केंद्र, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर 382030

sanjeev.dubey@cug.ac.in 


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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