- डॉ रंजना तिवारी व डॉ साधना श्रीवास्तव
शोध सार : पिछले लगभग एक सदी से मानव मस्तिष्क को प्रभावित करने वाला सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा रहा है। आज के इस डिजिटल और सोशल मीडिया के युग में भी इसका प्रभाव कम नहीं हुआ है, बल्कि नए माधयम के जरिये इसे नया विस्तार मिला है। रुपहला पर्दा सभी आयु व संस्कृति लोगो के विचारों और व्यवहारों पर गहरी छाप छोड़ता है। हिंदी, दुनिया में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं में से एक है। अतः प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य सिर्फ सिल्वर स्क्रीन द्वारा प्रसारित हो रहे मनोरोगों के लक्षणों का विश्लेषण करना है, क्योंकि फिल्मों में तथ्यों को रोचक बनाते बनाते भटकाव की स्थिति आ जाती है जिससे समाज में मानसिक बीमारियों से सम्बंधित कई तरह की भ्रांतियों फैल जाती है। आलेख के द्वारा मानसिक रोगों से सम्बंधित भ्रांतियों को दूर करना, मानसिक रोगों के लक्षणों का सही चित्रण करना और इस रोग के उपचार में मनोचिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों, मनोसामाजिक कार्यकर्तओं और नर्सों की उपयोगिता को समझाना है। आलेख में 1960 से लेकर 2020 तक की मानसिक रोगों से सम्बंधित फिल्मो का समाकलन है। इसमें सिर्फ वयस्क मनोरोग वाली फिल्मों को ही चुना गया है। व्यक्त्तिव विकार, विकासात्मक मनोरोगों और विरद्धावस्था के मनोरोगों वाली फिल्मो को शामिल नहीं किया गया है। फिल्मों को लोकप्रियता और दशक के अंतराल के आधार पर ही चयनित किया गया है।
बीज शब्द : हिंदी सिनेमा , मनोरोग, समाज , भ्रांतिया , व्यामोह ।
मूल आलेख : हमारे देश की जनसंख्या का लगभग दस प्रतिशत हिस्सा किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो भारत मानसिक बीमारियों, तंत्रकीय व नशे की समस्याओं के लिए विश्व स्तर पर पंद्रह प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। हमारे यहां लगभग - लगभग कुछ नहीं तो एक हजार में तैंतीस लोग दुश्चिंता व अवसादग्रस्त मिलेंगे[1]। इसमें आश्चर्य करनेवाली बात ये है कि भारत की जनसंख्या का सिर्फ 41 प्रतिशत युवा वर्ग इस बात को स्वीकार करता है कि मानसिक समस्याओं के लिए मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सकीय सहायता की आवश्यकता है जबकि यूनीसेफ सर्वे के अनुसार विश्व में इक्कीस ऐसे देश हैं जहां 83 प्रतिशत लोग मानसिक रोग में मनोचिकित्सा या मनोवैज्ञानिक सहायता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं[2]। यह आंकड़ा चीख-चीखकर कहना चाहता है कि आज भी हमारे देश में मनोरोग की गंभीरता की समझ और उसके उपचार की जागरुकता का स्तर अन्य देशों की तुलना में कम है जिसका सीधा प्रभाव हमारे जीवन की गुणवत्ता और देश के विकास पर पड़ता है। हमारे देश में युवा एक वरदान के रूप में हैं। वर्तमान स्थिति में भारत में नौजवानों का प्रतिशत 26.2 है जो कि यूएसए, इंडोनेशिया, ब्राजील और पाकिस्तान की कुल आबादी की तुलना से कहीं अधिक है। इस समय हमारे देश में 15 से 24 वर्ष की आयु के लोग 18.4 प्रतिशत की संख्या में हैं जिसका क्रम विश्व के दूसरे स्थान पर है[3,4]।
हम यह कह सकते हैं कि भारत में ‘युवा’ मानव संसाधन के रूप में एक वरदान हैं।
युवाओं के विचारों, व्यवहारों
और अभिवृत्तयों को सबसे अधिक गहराई से प्रभावित करने वाला संचार माध्यम फ़िल्म है।
हिन्दी सिनेमा ने हमारे युवाओं को कई पीढियों से प्रभावित किया है। खाली समय में
अधिकांश नौजवान किसी न किसी प्रकार का
सिनेमा देखना पसंद करते हैं[5]। वैज्ञानिकों की मानें तो सिनेमा देखने से
मानसिक तनाव में कमी आती है, क्योंकि उतनी देर हमारा ध्यान तनाव देने वाली
बातों से दूर फिल्म के कथानक, पात्र और उसमें अभिव्यक्त भावनाओं में व्यस्त रहता है। फिल्में भावनात्मक ऊर्जा
के माध्यम से हमें प्रेरित करती है, क्योंकि हम सभी के आत्म में एक हीरो छिपा होता
है और हम फिल्मों के नायक से इसे मानसिक तौर पर जोड़ने की कोशिश करते हैं जिसके
कारण हीरो जैसा डॉयलॉग बोलते हैं, कपड़े पहनते हैं, नाचते हैं, उनके जैसा व्यवहार करते हैं और उनके
जैसा दिखने का प्रयास भी करते हैं। अपने मन द्वारा रचित इन नायकों के कार्यों को
युवा हंसी-खुशी अपने जीवन में उतारते हैं। नौजवानों में होने वाले इस बदलाव को हम मॉडलिंग कहते
हैं[6]।
भारतीय सिनेमा में मनोरोग व
मनोरोगियों को लेकर कई फ़िल्में बनी हैं, उनका प्रभाव हमारे समाज की युवा पीढ़ी पर किस
प्रकार पड़ा है, यह
अध्यन का विषय है। परंतु प्रत्येक फिल्म की विवेचना एक ही आलेख में करना कठिन है। अत: इस आलेख में सिनेमा को एक-एक दशक
के अंतराल, उनकी लोकप्रियता और मनोरोग के प्रकार को ध्यान में
रखते हुए चयनित करने का प्रयास किया गया है।
यद्यपि भारत में कई भाषाओं में फिल्में
बनती हैं, किंतु
प्रस्तुत आलेख में हिन्दी फिल्मों को ही चुना गया है। फिल्मों में सक्रिय
मनोविकृति (Active Psychosis) सम्बंधित
वयस्क मनोरोगों वाली फिल्मों को ही चुना गया है। अर्थात विकासात्मक और
वृद्धावस्था के मनोरोग वाली फिल्मों को सम्मिलित नहीं किया गया है।
1960 के दशक की लोकप्रिय फिल्म ‘खामोशी’ थी[7] । इस फिल्म में मनोचिकित्सकों द्वारा मिस्टर अरुण चौधरी (राजेश खन्ना) को तीव्र उन्माद (Acute Mania)का मनोरोगी माना है जबकि लक्षणों को देखते हुए उनमें उन्माद जैसे लक्षण नहीं हैं। मेरे विचार से यह तीव्र मनोविकृति (Acute Psychosis) के रोगी हैं[8]। ‘खामोशी’ में मानसिक विकृति और उनके उपचार के तरीकों पर नाटकीय ढंग से प्रकाश डाला गया है। मिस्टर देव कुमार और अरुण चौधरी दोनों ही लोग तीव्र मनोविकृति से ग्रसित है और उपचार के लिए मानसिक अस्पताल में घरवालों के द्वारा भर्ती कराए जाते हैं। कथानक में प्रेम व भावनात्मक तरीके से मरीज के इलाज को उपयोगी बताया गया है जबकि दवाई और बिजली के झटकों से गंभीर मनोविकृति को ठीक करने की पद्धति से परहेज किया गया है। 1960 के दशक में जब मानसिक बीमारी को लोग एक सामाजिक कलंक [9] के रूप में समझते थे और इसे समाज से छुपाते थे। उस समय मानसिक रोगियों को अस्पताल में भर्ती करके, उनके उपचार को सही तरीके से दिखाना सामाजिक जागरुकता के लिए एक सराहनीय पहल थी।
जितना महत्त्वपूर्ण मनोचिकित्सकीय उपचार अर्थात दवाई और बिजली के झटके के द्वारा मानसिक स्थिति पर नियंत्रण करना है, उतना ही उपयोगी मनोवैज्ञानिक विधियों द्वारा किया गया उपचार भी है। इसे एक साइकेट्रिक नर्स ‘राधा’ (वहीदा रहमान) के द्वारा दिखाया गया है। तीव्र मनोविकृति (Acute Psychosis) में मरीज को कुछ ऐसी चीजें दिखाई और सुनाई देती हैं जो वास्तविकता में नहीं होती हैं। एक मानसिक विभ्रम(Hallucination )की स्थिति उत्पन्न होती है। जिससे रोगी हिंसात्मक होकर चीजों को तोड़ने फोड़ने लगता है, लोगों पर शक करता है, उसे लगता है कि लोग उसे जहर देकर मार डालेंगे या उसके खिलाफ षड्यंत्र रचेंगे [10]। इन सभी लक्षणों को अरुण चौधरी के द्वारा अच्छे ढंग से अभिनीत किया गया है। इसमें मनोवैज्ञानिक उपचार और सामाजिक सहयोग को मनो-औषधियों से अधिक उपयोगी दिखाने का प्रयास किया गया है जिससे समाज में लोग मनोवैज्ञानिक विधियों के उपचार और उसके महत्त्व के प्रति जागरूक हो सकें।
‘खामोशी’ फिल्म के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करना आवश्यक है। जैसा पहले बताया गया है कि राधा जो एक साइकेट्रिक नर्स है। उसने उपचार के दौरान धनात्मक प्रतिस्थानातरण (positive counter transference) करके स्वयं को ही मानसिक रोगी बना लिया। जबकि मनोचिकित्सकीय प्रशिक्षण में यह सिखाया जाता है कि आप मरीज पर अपनी व्यक्तिगत भावनाएं चाहे वे सकारात्मक हो या नकारात्मक, दोनों में से किसी का भी स्थानांतरण नहीं करेंगे[11]। उपचार के दौरान मनोरोगी के साथ किसी भी प्रकार के दोहरे संबंध अर्थात एक रोगी-डॉक्टर का संबंध दूसरा प्रेमी – प्रेमिका का संबंध स्थापित नहीं करेंगे। यह दोनों ही बातें आचार नीति (Ethics) के विरुद्ध मानी जाती हैं[12]। मानसिक उपचार के दौरान जैसा कि राधा के द्वारा दोहरे संबंध बनाने का प्रयास किया गया जो कि गलत था। एक पेशेवर मनोचिकित्सक अपनी भावनात्मक संवातित (emotional ventilation) के महत्त्व को समझता है। राधा जब खुद अवसाद (depression) में थी तो उसे स्वयं अपने मन की बात किसी को बतानी चाहिए थी, वह तो स्वयं कई सारे मनो- चिकित्सकों के बीच में ही रहती थी। उसने दूसरी बार आचार नीति का उल्लंघन तब किया जब वह पहले मनोरोगी मिस्टर देव कुमार के उपचार में प्रतिस्थानांतरण के चलते तनाव और अवसाद में थी। उस समय उसे अरुण चौधरी का केस नहीं लेना चाहिए था। बड़े डॉक्टरों द्वारा उसके ऊपर भावनात्मक दबाव डालना या मेट्रन के द्वारा व्यंग्य करके दबाव उत्पन्न करना भी आचार नीति के विरुद्ध था। मनोरोगियों का उपचार करने वाले प्रशिक्षित मनोचिकित्सकों की भावनाएं, विचार व व्यवहार बड़े ही दृढ़ होते हैं। अपनी इसी परिपक्वता के कारण वह मनोरोगियों के उपचार जैसा चुनौतीपूर्ण कार्य सफलतापूर्वक कर पाते हैं। यहां राधा का चित्र एक साधारण स्त्री के समान किया गया जबकि उसकी भूमिका एक साइकेट्रिक नर्स के रूप में थी।
1970 के दशक की लोकप्रिय फिल्म ‘खिलौना’ [13] में विजय कमल (संजीव कुमार) नाम का एक शायर है। जो एक धनी ठाकुर का बेटा है। विजय कमल की प्रेमिका का विवाह दूसरे पुरुष से हो जाता है जिसके कारण प्रेमिका आत्महत्या कर लेती है। यह पूरा घटनाक्रम नायक के समक्ष घटित होता है जिससे उसे मानसिक आघात पहुंचता है। इसे तीव्र मनोविकृति (Acute Psychosis) कहते हैं[10]। इस बीमारी में व्यक्ति को तरह तरह के विभ्रम(Hallucinations) उत्पन्न होते हैं। मनोरोगी के व्यवहार में अनेक तरह की विसंगतियां दिखाई देती हैं। ऐसे मनोरोगी स्वयं अपनी देखभाल भी नहीं कर पाते हैं। उनको कभी - कभी नियंत्रित करना कठिन हो जाता है, इसलिए उन्हें बांधकर या कमरे में बंद करके रखा जाता है। मनोरोगी को जिस वस्तु से मानसिक आघात उत्पन्न होता है, उससे वह डरने लगता है। विजय कमल ने अपनी प्रेमिका की मौत के समय पटाखे की तीव्र रोशनी देखी थी जिसके कारण तीव्र प्रकाश से टॉर्च की चमक या पटाखों की आवाज से वह डरता था। फिल्म ‘खिलौना’ के द्वारा मनोरोग के प्रति कुछ भ्रांतियां भी फैलाई गई हैं। कथानक में मरीज के चिकित्सा का पक्ष शून्य है जबकि दर्शायी गई मनोरोग की तीव्रता को देखते हुए दवाई अत्यंत आवश्यक हो जाती है। दूसरा ‘चांद’ (मुमताज) एक साधारण स्त्री है जिसको विजय कमल की देखभाल के लिए लाया गया था। देखभाल के दौरान नायक द्वारा उसका बलात्कार किया जाता है। इस तरह की दुर्घटना से बचने के लिए मनोरोगी को प्रशिक्षित मनोचिकित्सक या नर्स की आवश्यकता होती है। पूरी फिल्म में तीव्र मनोविकृति के लक्षणों को तो दिखाया गया, साथ ही यह भी दिखाया गया कि मनोरोगी बिना किसी दवा के स्वस्थ हो गया। जब मनोरोगी बिना किसी दवाई के ठीक भी हो गया तो स्मृति लोप के रूप में उसे सिर्फ चांद याद नहीं थी जबकि घर के बाकी सभी सदस्य और उनके द्वारा किया गया व्यवहार याद रहता है । चलचित्र में मानसिक आघात को स्मृतिलोप (Amnesia) से जोड़ने का प्रयास किया गया है। स्मृतलोपीय विकृतियां (amnestic disorder) दो तरह की होती है, पहला अग्रगामी स्मृतिलोप (antrograde amnesia) जिसमें रोगी को दुर्घटना के बाद का कुछ याद नहीं रहता है। दूसरा पश्चगामी स्मृतिलोप (retrograde amnesia) जिसमें रोगी को दुर्घटना के पहले यानी पुरानी बातें याद नहीं रहती हैं। इस तरह के रोग में रोगी की संज्ञानात्मक क्षमताओं में भी कमी आती है[14] लेकिन फिल्म में विजय कमल को पागलपन के दौरान पुरानी सारी बातें याद रहती है और ठीक होने के बाद वह सिर्फ चांद को ही भूलता है। दोनों में से किसी भी प्रकार की स्मृतिलोप विकृतियों में ये लक्षण नहीं पाए जाते हैं। सिर्फ मनोविच्छेदी स्मृतिलोप (Dissociative amnesia) में ही इस तरह के लक्षण दिखाई देते है। निर्देशक ने शायद फिल्म की कहानी को रोचक बनाने के लिए तीव्र मनोविकृति (acute Psychosis), स्मृतिलोपीय विकृतियों (amnestic disorders) और मनोविच्छेदी स्मृतिलोप (Dissociative amnesia) के मिश्रित लक्षणों को दिखाया है[15] जो कि मनोविकृति के नाम पर भांति फैलाना है।
1980 के दशक की फिल्म ‘सदमा’ [16] में स्नेहलता मल्होत्रा (श्रीदेवी समाज में) एक कार दुर्घटना में अपनी याददाश्त खो देती है। वास्तव में यह पश्चगामी स्मृतिलोप (Retrogative Amnasia) का लक्षण है। यह रोग मस्तिष्क कोशिकाओं की क्षति के कारण उत्पन्न होता है। इसमें रोगी के दिमाग में किसी प्रकार की चोट के कारण व्यक्ति अपने जीवन की पुरानी बातों को भूल जाता है। अगर रोगी का सही उपचार किया जाए और मनोवैज्ञानिक विधियों द्वारा पुरानी बातों या घटनाओं को याद दिलाने का बार-बार प्रयास किया जाए तो याददाश्त ठीक होने की संभावना होती है[14]। लेकिन सदमा में सोमू नाम का एक स्कूल शिक्षक (कमल हासन) व्यक्तिगत स्तर पर उसकी देखभाल करने लगता है। आयुर्वेदिक उपचार [17] के माध्यम से स्नेह लता ठीक तो हो जाती है, लेकिन हादसे के बाद की घटनाएं उसको याद नहीं रहती हैं। इस कारण वह सोमू को ही भूल जाती है। देखभाल के दौरान सोमू स्नेह लता से प्यार करने लगता है। वो स्नेह लता से बिछड़ने का आघात यानी एक्यूट स्ट्रेस सहन नहीं कर पाता है जिसके कारण वह स्वयं मनोरोगी बन जाता है। कथानक के माध्यम से रेट्रोग्रेड एमनेसिया [14] के लक्षणों को दिखाया गया है। इस फ़िल्म के माध्यम से यह जागरूकता फैलाने का प्रयास किया गया है कि मनो रोगियों को अत्यधिक कड़ी निगरानी (close supervision) की आवश्यकता होती है। अन्यथा उनके गुम हो जाने का डर या उनके साथ कोई भी अप्रिय घटना घटने की संभावना रहती है। किसी भी मनोरोगी को बिना चिकित्सकीय सलाह के नहीं रखना चाहिए। सोमू ने किसी भी प्रकार के मानसिक स्वास्थ्य कर्मी जैसा प्रशिक्षण नहीं लिया था जिसके कारण उसने स्नेह लता के प्रति धनात्मक प्रतिस्थानांतरण किया। साथ ही स्वयं मानसिक आघात का सामना करने में असक्षम रहा और मनोरोग से ग्रस्त हो गया। मनोरोगियों की चिकित्सा के लिए मनोचिकित्सकीय परामर्श की आवश्यकता होती है[18]। उचित निर्देशन के बिना यदि आम व्यक्ति मनोरोगियों के साथ रहता है तो उसके स्वयं के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ता है। मनोरोगी के परिवार वाले या उसकी देखभाल करने वाले व्यक्ति को हर क्षण अनगिनत समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मरीज के साथ रहने वाले के स्वयं के व्यवहार में नकारात्मक बदलाव आते हैं जैसे चिड़चिड़ापन, कभी-कभी वह स्वय ही इतना तनावग्रस्त हो जाता है कि स्वयं की भावनाओं पर नियंत्रण खो देता है। वह स्वयं भी दुश्चिंता, अवसाद या कुसमायोजन जैसी विसंगतियों या मनोरोग से ग्रस्त हो जाता है। मनोवैज्ञानिक भाषा में इसे साइकेट्रिक बॉर्डन केयर कहा जाता है[19]।
2000 के दशक की फिल्म ‘गजनी’ [20] में खलनायक गजनी ने लोहे की रॉड से संजय सिंघानिया (आमिर खान) के सिर पर तीव्र प्रहार किया था। इस हमले में संजय सिंघानिया के दिमाग के कुछ हिस्से में नुकसान हो जाने के कारण वह अपनी याददाश्त खो देता है। सिर में चोट लगने के बाद वह अपने मस्तिष्क में किसी भी तरह की घटना को 15 मिनट से ज्यादा याद नहीं रख पाता जिसे फिल्म में शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस बताया गया है। वास्तव में संजय सिंघानिया को अग्रगामी स्मृतिलोप (Antrograde Amnasia) हो जाता है[14]। इसमें मरीज हादसे के बाद किसी भी घटना को याद रख पाने में असमर्थ होता है। ‘गजनी’ में रोगी जीवन के दैनिक कार्यों को भी ठीक ढंग से नहीं कर पाता है। ऐसे रोगी को 24 घंटे सहायता की आवश्यकता होती है, धीरे-धीरे रोगी दुर्घटना से पहले की पुरानी बातें भी भूल जाता है। पुराने जीवन की कुछ घटनाएं याद रहती हैं और कुछ नहीं। इस तरह के लोगों को दवाइयों और मनोवैज्ञानिक संज्ञानात्मक तकनीकियों के द्वारा सहायता पहुंचाने का प्रयास किया जाता है[21] जिससे वह अपने जीवन के दैनिक कार्यों को कर सके। इस फिल्म में संज्ञानात्मक तकनीकियों जैसे चीजों को जगह-जगह लिखकर कार्य को करने के सहायता को निर्देशक ने बहुत ही नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया है।
2010 के दशक की फिल्म ‘डियर ज़िंदगी’ [22] में कायरा (आलिया भट्ट) अपने बचपन के भावनात्मक आघात (childhood emotional trauma) से ग्रसित थी जिसके कारण उसके जीवन के सभी पक्षों में कुसमायोजन उत्पन्न हो जाता है। बड़े होने पर उसके व्यक्तित्व में कई प्रकार की विसंगतियां दिखाई देती हैं, जैसे धैर्य में कमी(intolerant), आवेग पूर्ण व्यवहार (impulsive behavior) जिसमें रोगी बिना सोचे समझे जो मन में आता है, उस व्यवहार को कर देता है, आंतरिक संबंधों में अस्थिरता का होना आदि[23]। कायरा अपने परिवार के सभी व्यक्तियों से दूर रहना चाहती थी। बॉयफ्रेंड बदलने पर भी किसी के भी साथ उसके संबंधों में स्थिरता नहीं थी। दोस्तों के साथ प्रेम तो था, किंतु झगड़ा भी बहुत होता था। वो उनसे चिड़चिड़ा व्यवहार करती थी। ऐसे मनोरोगियों में नींद की कमी का होना, भूख कम लगना भी प्रमुख लक्षण माने जाते हैं। कायरा में ये सभी लक्षण थे। भावनात्मक आघात विश्वासपात्र व्यक्ति के द्वारा दिया गया धोखा या विश्वासपात्र की मृत्यु के कारण होता है। कायरा को धोखा उसकी मां के द्वारा झूठ बोलकर दिया गया था। इस तरह के भावनात्मक द्वंद्व को समय रहते पूर्ण मन से यदि नही सुलझाया जाए तो समय के साथ साथ यह जटिल मनोग्रंथि में बदल जाता है और कई प्रकार के मनोरोगों को जन्म देता है। कायरा ने अपनी मनोग्रंथि को मनोवैज्ञानिक जहांगीर खान (शाहरुख खान) की सहायता से सफलतापूर्वक सुलझाया है। इस फिल्म में जहांगीर खान ने परिमार्जित रूप से मनोवैज्ञानिकों के द्वारा चिकित्सा के दौरान पालन किए जाने वाले सभी नियमों को बड़ी सहजता से निभाया है। चिकित्सा के सेशन के समय की अवधि का ध्यान रखना, मनोरोगी के साथ दोहरा संबंध नहीं बनाना, धनात्मक या ऋणात्मक प्रतिस्थानांतरण करने से बचना इत्यादि का बारीकी से ख्याल रखा गया। चिकित्सा के दौरान जहांगीर खान ने कायरा के साथ संज्ञानात्मक मनोचिकित्सा (cognitive behavior therapy) का प्रयोग किया है जिसमें उसने रोगी के संज्ञानात्मक त्रुटि (cognitive error) को धीरे-धीरे खत्म कराया और साथ ही सकारात्मक और वास्तविकता उन्मुख विचारों को उत्पन्न कराया है[24]। मनोचिकित्सा के अंतिम चरण के पहले ही रोगी को सूचित करा दिया जाता है कि उसकी चिकित्सा अवधि समाप्त होने वाली है[25]। अंतिम चरण में कायरा को आत्मनिर्भरता के महत्त्व को समझाना इत्यादि भी मनोवैज्ञानिक भूमिका का एक सराहनीय उदाहरण था।
‘अतरंगी रे’ [26] साल बीस-बीस के बाद की फिल्म है। इसमें
मनोरोगी रिंकू (सारा अली खान) जो कि अपने माता पिता के साथ हो रहे सामाजिक
अत्याचार और उनकी दर्दनाक मृत्यु की साक्षी होती
है। इस मानसिक आघात के कारण वह मनोविदिलिता (schizophrenia) के रोग से ग्रसित हो जाती है। सज्जाद
अली (अक्षय कुमार) जो कि वास्तविकता में रिंकू का पिता होता है, रिंकू उसे अपना प्रेमी मानकर विभ्रम (Hallucination) के कारण 21 बार घर से भागती है। किंतु घरवाले
उसकी इस बीमारी को समझ नहीं पाते है और मनोरोग बचपन से लेकर 24 वर्ष की अवस्था तक बना रहता है। उसके
परिवारजन उसे इस अवांछित व्यवहार पर प्रताड़ित करते हैं। अंत में जबरदस्ती उसकी
शादी करा दी जाती है। उसका पति वीशु अपने मनोचिकित्सक (Psychiatrist) मित्र की सहायता से रिंकू की मानसिक
बीमारी का पता लगा लेता है कि सज्जाद अली एक विभ्रम है जिसमें कोई भी वस्तु या
व्यक्ति वास्तविकता में नहीं है, फिर भी मरीज को दिखाई व सुनाई देता है।
फिल्म के कथानक में सक्रिय मनोविकृति (Active Psychosis) का मनोऔषधियों (psychotropic
drugs) द्वारा
किए गए उपचार के महत्त्व को दिखाया गया है। ‘अतरंगी रे’ में रिंकू का उपचार दवाओं और वास्तविक
परीक्षण (reality testing) के द्वारा करना दिखाया गया है। इन दोनों
विधियों के निरंतर अनुकरण द्वारा मनोरोगी ठीक हो जाते है। फिल्म में इसे मनोरंजक ढंग से दिखाया भी गया है। इस तरह के मनोरोगों का प्रभाव, रोगी के संपूर्ण जीवन पर पड़ता है। जैसे भावनात्मक असंतुलन, भूख और सेक्स की इच्छा में बदलाव
स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। जबकि रिंकू
के अंदर ऐसा कोई भी लक्षण नहीं दिखाया गया। मानसिक रोगी के साथ रहने वाले व्यक्ति
जो उनकी देखभाल करते हैं, उनका जीवन भी तनावपूर्ण होता जाता है। साथ ही
साथ उनके व्यवहार में भी भावनात्मक आवेग उत्पन्न होने लगते हैं। विशु के द्वारा
अपने सर पर कई बार बोतल फोड़ना, अपने दोस्त को भला बुरा कहना, रिंकू को जबरदस्ती तलाक के कागज पर
हस्ताक्षर कराने के लिए ले जाना इत्यादि
लक्षणों को सिनेमा में दिखाया गया
है। इस फिल्म में दवाओं से संबंधित कुछ भ्रांतियां भी दिखाई गई हैं जैसे जब-जब
रिंकू को दवाई दी जाती थी, तब-तब उसका विभ्रम अर्थात सज्जाद अली खान को
तुरंत ही नुकसान होने लगता था। जबकि वास्तविकता में किसी भी मनोऔषधि का प्रभाव दो
सप्ताह के बाद ही मनोरोगी व उसके घर वालों को लक्षणों के सुधार के रूप में दिखाई देता है। यह फायदा
तुरंत नहीं समझ में आता है। फिल्म में दिखाए गए नाटकीय प्रक्रम के द्वारा निर्देशक
निश्चय ही यह संकेत करना चाहता होगा कि दवाइयों के द्वारा मनोरोग के लक्षण कमजोर
पड़ने लगते हैं, अर्थात
मस्तिष्क में रसायन के बदलाव के कारण मनोरोगी में सुधार होने लगता है।
निष्कर्ष : उपर्युक्त फिल्मों के विश्लेषण से नि:संदेह यह कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा ने मानसिक रोगों को लेकर हमारे सामाजिक परिवेश में जागरूकता फैलाने का प्रयास तो किया है, किन्तु आज भी हमारे समाज के अधिकांश हिस्सों में मानसिक बीमारी को छुपाया जाता है। लोग मानसिक रोग को एक शर्म की बात समझते है, उसे शारीरिक बीमारी की तरह स्वाभविक रूप में स्वीकार नहीं करते है। यहाँ तक कि कई बार अंध-विश्वास के चलते लोगों की मृत्यु भी हो जाती है जैसे ट्रांस पोस्सेशन विकृति (transe possession disorder) को भूत प्रेत का प्रभाव मान बैठते है। किसी भी मनोरोग का कारण सिर्फ मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन या मस्तिष्क कोशिकाओं की क्षति ही नहीं, बल्कि किसी भी प्रकार का सामाजिक, भावनात्मक, व्यावहारिक तनाव या सांस्कृतिक बदलाव भी मनोरोग को जन्म देता है। मनोरोग भी आम बीमारियों की तरह ही हमारे शरीर और जीवन से जुड़ा एक विकार है जिसे सही उपचार से ठीक किया जा सकता है। इससे जुड़े सामाजिक कलंक को हटाने के लिए आवश्यक है कि लोग खुलकर अपनी मानसिक बीमारियों के विषय में मनो-स्वाथ्य कर्मियों से बात करें और सही परामर्श से अपने जीवन की गुणवत्ता को बनाये रखें। फिल्मों में अब यह दिखाने की आवश्यकता अधिक है कि दवाओ की जरुरत पड़े, इससे पहले समय रहते लोग अपने विचारों, व्यवहारों भावनाओ में हो रहे नकारात्मक बदलाव को पहचानें और मनोचिकिसकों व मनोवैज्ञानिकों, पारिवारिक प्रेमी जनों और मित्रों की सहायता से अपने मानसिक स्वस्थ्य को सशक्त करें।
सन्दर्भ :
डॉ. रंजना तिवारी
असिस्टेंट प्रोफेसर,मनोविज्ञान विभाग, सी.एम.पी.,पी.जी.कॉलेज इलाहबाद विश्वविद्यालय,प्रयागराज
rt.psy1982@gmail.com, 9565138655
डॉ. साधना श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेसर, पत्रकारिता एवं जनसंचार उत्तर प्रदेश राजषि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय प्रयागराज
srivastava.sadhana1@gmail.com, 7525048150
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