शोध आलेख : तालिबान की सत्ता में वापसी पाकिस्तान के लिए अवसर या चुनौती
-डॉ. मोहन लाल जाखड़
शोध सार : अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय संबंध हमेशा से उतार-चढ़ाव भरे रहे है। दोनों पड़ोसियों के बीच विवाद की एक प्रमुख वजह औपनिवेशिक विरासत में खींची गई डूरंड लाइन है, जो पश्तून बहुल आदिवासी क्षेत्रों से होकर गुजरती है। इस रेखा के खींचने के बाद पश्तून आबादी दो देशों में बंट गई जिसे अफगानिस्तान ने कभी भी राजनीतिक रूप से स्वीकार नहीं किया है। अफगानिस्तान में पहले से ही अनिश्चित माहौल में तालिबान की सत्ता में वापसी के साथ ही दिसंबर, 2021 के अंतिम हफ्तों में यह तनाव और बढ़ गया है। तालिबान के मुताबिक पाकिस्तानी सेना डूरंड लाइन की फेंसिंग का कार्य कर रही थी, जबकि तालिबान डूरंड लाइन को स्वीकार नहीं करता है। इसके बाद दोनों के बीच डूरंड लाइन को लेकर तनाव उत्पन्न हो गया है।
बीज शब्द : तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टी.टी.पी.), भू-आबद्ध, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष(आईएमएफ), वित्तीय अनुशासन, पूंजी बाजार, डूरंड लाइन, पश्तून, आतंक के विरुद्ध युद्ध, फ्रंट लाइन स्टेट, क्वेटा शूरा, द ग्रेट गेम।
मूल आलेख : तालिबान की सत्ता में वापसी पाकिस्तान के लिए अवसर और चुनौती दोनों है। अवसर इसलिए कि पाकिस्तान को वो मिल गया जिसे वह काबुल में अपनी मनपसंद सरकार चाह रहा था, जिसके साथ भारत के संबंध मधुर नहीं हों और चुनौती इसलिए की पाकिस्तान यह समझने की भूल कर बैठा कि तालिबान को सत्ता मिलने के बाद डूरंड रेखा पर की जाने वाली फेंसिंग(Fencing) को स्वीकार कर लेगा। हालिया सात महीनों के घटनाक्रम को देखें तो दोनों ही मामलों में पाकिस्तान को तालिबान से मुंह की खानी पड़ी है। तालिबान सत्ता में आने के बाद पहले दिन से ही पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंधों की पहल कर रहा है तथा जम्मू कश्मीर को द्विपक्षीय और अंदरूनी मामला बताकर उससे पल्ला झाड़ लिया है, जिससे पाकिस्तान ठगा-सा महसूस कर रहा है।
तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद से दक्षिण एशिया क्षेत्र में नए हालात पैदा हो गए है। एक पड़ोसी देश होने के नाते पाकिस्तान अफगानिस्तान में हो रहे बदलावों से सीधे तौर पर प्रभावित होता है। दोनों देशों के बीच 2,640 किलोमीटर लम्बी सीमा है और पाकिस्तान में करीब 14 लाख अफगान शरणार्थियों का ठिकाना है।1 (Omrani, B. (2009). ‘The Durand
Line', Asian Affairs) इनमें से कई ऐसे है जिसके पास उचित दस्तावेज तक नहीं है। पाकिस्तान की इस मुश्किल का सीधा संबंध अफगानिस्तान की राजनीतिक अस्थिरता से है लेकिन फिलहाल पाकिस्तान अकेला ऐसा मुल्क है जो अफगानिस्तान में मौजूद तालिबान के करीब माना जा रहा है।
1990 के दशक की शुरूआत में तालिबान आन्दोलन ने उत्तरी पाकिस्तान से सिर उठाना शुरू किया था। शुरूआत में इस आंदोलन में जिन लोगों ने शिरकत की उनमें से अधिकांश की पढ़ाई पाकिस्तान के मदरसों में हुई थी।2(www.britannica.com)
तालिबान की मदद या समर्थन करने की बात से पाकिस्तान हमेशा से इनकार करता रहा है। लेकिन जिस वक्त अर्थात् वर्ष 1996 में अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार सत्ता में आई उस वक़्त जिन तीन देशों ने तालिबान सरकार को मान्यता दी थी उनमें पाकिस्तान भी एक था, अन्य दो देश सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात थे।3(theprint.in) इसके बाद अफगानिस्तान के साथ सबसे आखिर में अपने कूटनीतिक संबंध खत्म करने वाला देश पाकिस्तान ही था।
लंदन के रॉयल यूनाइटेड सर्विसेस इंस्टिट्यूट के विजिटिंग फेलो ओमर करीम कहते हैं कि “दोनों देशों के बीच बाद में रिश्तों में तनाव आना शुरू हो गया था लेकिन पाकिस्तान के राजनीतिक हलकों में आम धारणा यही है कि मौजूदा वक़्त में अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन से उसे फायदा होगा।” दुनिया को देखने का पाकिस्तान का नजरिया भारत के साथ उसके तनाव और प्रतिद्वंद्विता के साथ जुड़ा है। ऐसे में अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता का अर्थ उसके लिए वहाँ भारत के प्रभाव का कम होना है। पाकिस्तान की सीमा से सटे जलालाबाद और कंधार जैसे शहरों में भारत के वाणिज्यिक दूतावास का होना पाकिस्तान के लिए हमेशा से परेशानी का सबब रहा है।
पाकिस्तान का मानना है कि उत्तर में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टी.टी.पी.) और दक्षिण में बलूच विद्रोही गुटों जैसे पाकिस्तान विरोधी तत्त्वों का भारत समर्थन करता है। भारत अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल पाकिस्तान में चरमपंथ और अस्थिरता पैदा करने के लिए करता है। ऐसे में तालिबान की सरकार रही तो वो अफगानिस्तान में अपना प्रभाव एक बार फिर बढ़ा सकेगा। वहीं इस बात की संभावना कम ही है कि वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ने का खतरा झेल रही तालिबान सरकार पाकिस्तान के खिलाफ होगी।
पाकिस्तान पर अफगानिस्तान की निर्भरता :
अफगानिस्तान एक भू-आबद्ध देश है, व्यापारिक लेन-देन के लिए मुख्य रूप से पाकिस्तान पर निर्भर रहना पड़ता है। चावल-आटे और सब्जियों से लेकर सीमेन्ट और घर बनाने के सामान तक, अफगानिस्तान के साथ होने वाले व्यापार का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के रास्ते होकर गुजरता है। साथ ही पाकिस्तान चाहता है कि वो अफगानिस्तान से होते हुए मध्य एशियाई देशों तक “आर्थिक संबंध” स्थापित करे, जो उसके देश को मध्य एशियाई और यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था के साथ जोड़े। पाकिस्तान का उद्देश्य मध्य एशिया, अफगानिस्तान होते हुए उत्तर-दक्षिण गलियारे के साथ 'गवादर-कराची कनेक्टिविटी' को बढ़ाना भी है।4(www.mei.edu) ऐसी सूरत में अफगानिस्तान को न केवल अपनी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए पाकिस्तान के साथ बेहतर संपर्क रखना होगा बल्कि अन्य मसलों समेत सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों पर भी उसे पाकिस्तान के साथ समन्वय बनाए रखना होगा।
मैप संख्या 1 - अफगानिस्तान-पाकिस्तान ट्रेड रूट
हालात स्थिर करने के लिए संघर्ष कर रही पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था पिछले सत्तर सालों में सबसे खराब हालात से गुजर रही है। लेकिन 30 जून, 2021 को समाप्त हुए पिछले वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था कुछ हद तक स्थिर होती दिखी। एक तरफ जहाँ पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था आईएमएफ वित्तीय अनुशासन की शर्तों से बंधी हुई है। वहीं, दूसरी ओर विदेशी निवेशकों का रूझान भी बहुत कम रहा है। पाकिस्तान में जो निवेश शेयर बाजार और सरकारी प्रतिभूतियों में आता है उसमें पिछले कई हफ्तों से काफी गिरावट आई है। अकेले जुलाई माह के आंकड़ों पर नजर डालें तो जून में अफगानिस्तान में तालिबान के आगे बढ़ने और पूरे क्षेत्र पर इसके प्रभाव के कारण पाकिस्तान के निवेश बांड में कोई विदेशी निवेश नहीं हुआ है।
अफगानिस्तान में बदलती स्थिति को देख सभी निवेशकों ने ‘देखें और प्रतीक्षा करें’ का सुझाव देते हैं तथा पाकिस्तान के वित्तीय क्षेत्र और पूँजी बाजार ने तालिबान के काबुल पर तत्काल कब्जे को लेकर नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की है लेकिन तालिबान ने बिना किसी हिंसक रक्तपात के काबुल में प्रवेश किया, जो उसकी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है। इस प्रकार अफगानिस्तान के अंदर होने वाली उथल-पुथल प्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है।5(economictimes.indiatimes.com)
शरणार्थी समस्या :
शरणार्थियों की आमद पाकिस्तान के सामने सबसे बड़ी समस्या है। अफगानिस्तान में अस्थिरता होती है तो सीमा से सटे होने पर पाकिस्तान को भी शरणार्थी संकट से जूझना पड़ता है। हालांकि, अभी तक ऐसी स्थिति नहीं बनी है, अगर अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार नहीं बनती और देश में गृहयुद्ध का खतरा बढ़ता तो शरणार्थियों की संख्या पाकिस्तान और उसकी अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी समस्या बन जाती है।6(foreignpolicy.com)
पाकिस्तान की अफगानिस्तान के प्रति नीति :
पाकिस्तान द्वारा आज़ादी के बाद से अफगानिस्तान को लेकर अपनाई गई रणनीति का विश्लेषण करें तो कुछ तथ्य निकलकर सामने आते है जैसे पाकिस्तान ने कभी अफगानिस्तान में एक स्थिर सरकार नहीं चाही जिसके भारत के साथ अच्छे संबंध हो।7 (SarkarSujeet,
P. 27-28) मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि तालिबान के साथ जमीन पर लड़ने को पाकिस्तान ने अपने सैनिक और खुफिया एजेंसी के अधिकारी तक उतार दिए थे। पाकिस्तान-अफगानिस्तान में उतनी ही अस्थिरता चाहता है जितनी वह खुद संभाल सके। इससे सदैव अफगानिस्तान पर उसका प्रभुत्व बना रहे। अस्थिर और अविभाजित अफगानिस्तान पाकिस्तान के राष्ट्रीय हितों के लिए अच्छा है क्योंकि स्थिर और एकजुट अफगानिस्तान डूरंड लाइन को नहीं मानेगा जैसा कि तालिबान के सत्ता में आने के बाद तालिबान ने भी पाकिस्तान द्वारा लगाई जाने वाली तारबंदी को उखाड़ना शुरू कर दिया। इसलिए पाकिस्तान अन्तरराष्ट्रीय जगत और अफगानिस्तान के सामने अपने दोहरे चरित्र के साथ रिश्ते बनाना चाहता है जो मुझे नहीं लगता तालिबानी शासन में संभव हो पाएगा।
पाकिस्तान-तालिबान संबंध :
पाकिस्तान की तालिबान से गहरी दोस्ती के बारे में शायद ही किसी रणनीतिकार को शक-ओ-शुबह हो। निवर्तमान अफगान हुकूमत तो साफ़ तौर पर तालिबान को पाकिस्तान का प्रोक्सी बताता था। ये बात 15 अगस्त, 2021 तक शत-प्रतिशत सत्य थी। लेकिन तब से लेकर अब तक काबुल नदी में बहुत पानी बह चुका है। पाकिस्तान के मदरसों, अफगानिस्तान के ग्रामीण इलाकों और पश्तूनों के दबदबे वाले तालिबानी कभी लड़ाकों की एक टोली होते थे पर अब एक देश पर राज कर रहे है। एक विद्रोही गुट से बढ़कर वे अब सत्तासीन ताकत हैं और बराबरी के रिश्ते के ख्वाहिशमंद है। तालिबान के प्रारूप में आए बदलाव के बाद उसके पाकिस्तान के साथ रिश्तों के भी एक नई दिशा की और अग्रसर होने के कुछ शुरूआती संकेत सामने आ रहे है।
11 सितम्बर, 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के बाद तालिबान की पहली सरकार को अमेरिका ने उखाड़ फेंका था। अमेरिका और नाटो सेना के दबाव में तालिबान के लड़ाके और शीर्ष नेतृत्व तितर-बितर हो गया था, इनमें से कई पाकिस्तान पहुँचे। कहने को तो पाकिस्तान, ‘आतंक के विरुद्ध युद्ध’ में ‘फ्रंट लाइन स्टेट’ था8(Colin
I, Powell) अर्थात् अमेरिका का सहयोगी लेकिन ये कड़वा सच है कि तालिबान के लड़ाके और बड़े नेता बलूचिस्तान और वजीरिस्तान में रह रहे थे। तालिबान के हर फैसले को अमलीजामा पहनाने वाली ताकतवर क्वेटा शूरा भी बलूचिस्तान से ही काम कर रही थी। अफगानिस्तान की पिछली सरकार खुले तौर पर तालिबान के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की बात कहती थी। तालिबान के कई वरिष्ठ नेताओं ने कथित तौर पर पाकिस्तानी शहर क्वेटा में शरण ली थी, जहाँ से उन्होंने तालिबान का मार्गदर्शन किया। इसे “क्वेटा शूरा” कहा गया था, जबकि पाकिस्तान इसके अस्तित्व से इनकार करता रहा है।9(jamestown.org)
15 अगस्त, 2021 का दिन दक्षिण एशिया से लेकर अमेरिका तक एक ऐसी घटना के लिए याद रखा जाएगा जिसने एक सुपर पावर को असहाय-सा कर दिया था। काबुल एयरपोर्ट पर भीड़ हवाई जहाजों से लटकते, डरे-सहमे लोग और हवाई अड्डे की पहरेदारी करते लगभग बेबस से दिखते अमेरिका के विख्यात मरीन कमाण्डो।10(www.theguardian.com) यह दृश्य समूचे विश्व के लिए अकल्पनीय था। कई जानकारों ने इसे अमेरिका का एक और ‘वियतनाम मोमेंट’ करार दिया था। अमेरिकी सेना एक अनिर्णीत युद्ध को अधूरा छोड़कर आनन-फानन में निकलने जा रही थी। लेकिन ये लम्हा अमेरिका के लिए ही नहीं बल्कि अफगानिस्तान के पड़ोसी और तालिबान के हिमायती पाकिस्तान के लिए भी नई रणनीतिक चुनौतियाँ लेकर आ रहा था।
रिश्तों में तनाव :
पिछले कुछ दिनों में ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं जिनसे पाकिस्तान को ‘नए अफगानिस्तान’ से मिलने वाली चुनौतियों के बिलकुल शुरूआती संकेत मिलना शुरू हुए। ये संभव है कि ये घटनाएं महज अपवाद ही हों लेकिन देशों के बीच संबंध अक्सर मामूली-सी दिखने वाली घटनाओं के धीरे-धीरे विकराल रूप लेने से अनियंत्रित हो जाते हैं। 21 दिसम्बर, 2021
को पाकिस्तान आर्मी ने सीमा पर फेंसिंग का शेष कार्य पूरा करने की कोशिश की लेकिन उसे तालिबान के लड़ाकों का जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा।11(www.reuters.com/world)
न्यूज एजेन्सी रॉयटर्स के मुताबिक तालिबान की कथित स्पेशल फोर्सज ने पूर्वी नंगरहार प्रान्त के गुश्ता ज़िले में पाकिस्तान आर्मी द्वारा लगाई जाने वाली फेंसिंग(Fencing) को उखाड़ फेंका है। कंटीले तारों को उखाड़कर तालिबान के लड़ाके अपने साथ ले गए। खबर है कि तालिबान के साथ नंगरहार प्रान्त के जनरल डाइरेक्टरेट ऑफ इंटेलिजेंस के डॉक्टर बशीर इस अभियान की अगुवाई कर रहे थे। तालिबान के एक बड़े अधिकारी ने पाकिस्तानी सेना को धमकी दी कि अगली बार फेंसिंग की तो जंग होगी। दोनों तरफ़ से मोर्टार दागे जाने की खबर भी आ रही है। फिलहाल दोनों देशों के मिलट्री के हेलिकॉफ्टर इलाके में गश्त लगा रहे हैं।12(Taliban
Stop Pakistani Troops From Fencing Border)
तालिबान और पाकिस्तान में ये विवाद उस समय हुआ जब इस्लामाबाद में अफगान संकट पर ऑर्गनाइजेशन फॉर इस्लामिक कॉ-ऑपरेशन (ओ.आई.सी.) की बैठक चल रही थी।13(www.npr.org) पाकिस्तान प्रत्येक अन्तरराष्ट्रीय मंच पर तालिबान का समर्थन कर रहा है। इसके बावजूद तालिबान डूरंड लाइन के मसले पर पीछे हटने को तैयार नहीं। इससे जाहिर होता है कि वो डूरंड लाइन को लेकर अपने हितों से समझौता किसी भी कीमत पर बर्दाशत नहीं करेगा। तालिबान में पश्तून समुदाय की बहुतायत है इसलिए वो किसी भी कीमत पर डूरंड लाइन से छेड़छाड़ को स्वीकार नहीं करेंगे।14(Report
The Times Of India January 1, 2022)
9/11 की घटना के बाद तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया गया और उसके बाद बनी राष्ट्रीय सरकार के समय पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर घटित सैन्य झड़पों ने इस विवाद को और अधिक गहरा कर दिया था। अब अमेरिका की वापसी के बाद काबुल की सत्ता पर लौटे तालिबान ने भी डूरंड रेखा को लेकर सख्त रूख अपनाया है। ऐसे में पाकिस्तान के लिए तालिबान का सत्ता में आना थोड़ा असहज महसूस कर सकता है। पाकिस्तान की महत्त्वाकांक्षा के कारण अफगानिस्तान में आंतरिक राजनीतिक संतुलन बनाने में बाधा आती है। अगर अफगानिस्तान में तालिबान भविष्य में स्थिर और लोकतांत्रिक समावेशी सरकार बनाने की दिशा में आगे बढ़ता है तो यह पाकिस्तान के लिए खतरा होगा। क्योंकि तालिबान भी यह कभी नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान उसकी राष्ट्रीय सीमाओं के साथ कोई अतिक्रमण करे इसलिए स्थिर अफगानिस्तान पाकिस्तान के लिए खतरा होगा।
डूरंड लाइन का इतिहास और विवाद :
19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के शुरूआती दशक में अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत के क्षेत्र में ब्रिटिश प्रभाव सबसे प्रमुख था जब अंग्रेजों ने ब्रिटेन की शाही सदी के दौरान उपनिवेशीकरण के प्रयासों को फिर से स्थापित करने की मांग की। इस ब्रिटिश प्रयोग को ‘द ग्रेट गेम’ के रूप में जाना जाता था। यह अफगानिस्तान को ब्रिटिश भारत और रूस के बीच एक बफर जोन के रूप में स्थापित करने का एक विध्वसंक प्रयास था। ब्रिटिश साम्राज्य का उद्देश्य इस क्षेत्र में कट्टर स्वतंत्र पश्तून जनजातियों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास था।15 (Dogra Rajiv, 2017, P.
22-23) ब्रिटिश साम्राज्य की अफगानिस्तान में विफलताओं के आधार पर कुछ भू-भाग को अन्तरराष्ट्रीय वैधता प्रदान करने की माँग करके एक सीमा रेखा खींचना जो ब्रिटिश हितों को आदिवासी हितों से अलग कर सके। ये ब्रिटिश विदेश नीति के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।
डूरंड रेखा रूसी और ब्रिटिश साम्राज्यों के बीच 19वीं शताब्दी के ‘द ग्रेट गेम’ की विरासत है। वर्ष 1893 में ब्रिटिश सरकार के सचिव सर हेनरी मार्टिमर डूरंड और उस समय के अफगान शासक अमीर अब्दुर रहमान के बीच डूरंड रेखा के सीमांकन समझौते पर हस्ताक्षर किए।16 (Biswas, Arka, 2013, P. 9-10) डूरंड रेखा के परिणामस्वरूप स्थापित ब्रिटिश सीमांकन एक जानबूझकर रणनीति थी जिसे अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत के सीमावर्ती क्षेत्र के साथ पश्तून क्षेत्र को विभाजित करने के लिए डिजाइन किया गया था। विभाजन का समग्र उद्देश्य पश्तून जनजातियों में ब्रिटिश “फूट डालो और शासन करो” की रणनीति के हिस्से के रूप में अपने पड़ोसियों से अलग करना था।
मैप संख्या 2
डूरंड रेखा के पास दो प्रमुख जातीय समूह पंजाबी और पश्तून निवास करते है। इनमें अधिकांश पंजाबी और पश्तून सुन्नी मुसलमान है। पंजाबी पाकिस्तान में और पश्तून अफगानिस्तान में सबसे बड़ा जातीय समूह है। पाकिस्तान में पश्तून, पंजाबियों के बाद दूसरा सबसे बड़ा जातीय समूह है। ये खैबर पख्तूनख्वा और उत्तरी ब्लूचिस्तान में निवास करते है। डूरंड लाइन से पहले पश्तून पंजाबियों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए लड़ रहे थे, लेकिन जैसी ही लाइन खींची गई पश्तून दो हिस्सों में बंट गए। आधे अफगानिस्तान में और जो बच गए वो ब्रिटिश भारत और बाद में पाकिस्तान के अधीन आ गए, इससे उनकी नाराजगी बढ़ने लगी थी।17 (Dogra
Rajiv,2017, P. 167-168)
वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के साथ पाकिस्तान को डूरंड रेखा विरासत में मिली और अफगानिस्तान ने पाकिस्तान के साथ इस सीमांकन को मानने से इनकार कर दिया। अफगानिस्तान का कहना था कि ये दो भाइयों के बीच खड़ी नफरत की दीवार है। राकेश सूद भारतीय विदेश सेवा में रह चुके और वे 2005 से 2008 तक अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके है, उन्होंने बीबीसी हिन्दी को बताया, “काबुल की किसी भी सरकार ने डूरंड लाइन को स्वीकार नहीं किया है क्योंकि उनका कहना है कि ये सीमा रेखा अंग्रेजों ने जबर्दस्ती बनाई थी। 1923 में राजा अमानुल्ला से लेकर मौजूदा हुकूमत तक डूरंड लाइन के बारे में धारणा यही है। तालिबान ने ये कुछ नया नहीं किया है। पिछली बार जब तालिबान सत्ता में थे तब भी वे पाकिस्तानी समर्थन पर ही निर्भर थे। उस समय भी नवाज शरीफ सरकार ने डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय बार्डर बनाने की काफी कोशिश की थी लेकिन बात नहीं बनी।“
अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद हाल ही में तालिबान ने पाकिस्तान द्वारा डूरंड रेखा पर लगाई जाने वाली बाड़(Fence) का विरोध किया है। अफगानिस्तान के साथ लगने वाली 2,640 कि.मी. लम्बी सीमा पर बाड़ या घेराव का कार्य मार्च, 2017 में शुरू हुआ था, जब डूरंड लाइन के आस-पास आतंकी घटनाएं बढ़नी लगी तब पाकिस्तान ने सीमाबंदी करने का फैसला किया। पाकिस्तान ने योजना बनाई की डूरंड लाइन पर 13 फीट ऊँची फेंस लगाने, बार्डर पर एक हजार से ज्यादा वॉच टावर, सर्विलांस कैमरा और इन्फ्रारेड डिटेक्टर लगाने का प्लान बनाया गया। पाकिस्तान आर्मी द्वारा सीमा पर 4 अगस्त, 2021 तक तारबंदी करने का 90 प्रतिशत कार्य पूर्ण कर लिया गया। 15 अगस्त, 2021 को तालिबान सत्ता में आ गया। अंतरिम सरकार का गठन किया गया उसी वक्त तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद का डूरंड रेखा को लेकर भी बयान आया और कहा ‘फेंसिग से लोग और परिवार बंट गए हैं हम सीमा पर शांतिपूर्ण माहौल चाहते हैं, बैरियर की जरूरत नहीं है। हम इस फेंसिंग का विरोध करेंगे।’ यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि काबुल डूरंड रेखा को इस शर्त पर मान्यता प्रदान करने पर सहमत हुआ था कि पहले इस्लामाबाद को अपने सीमा क्षेत्र में रह रहे पश्तून लोगों को स्वायत्ता प्रदान करनी होगी क्योंकि पाकिस्तान के दूसरे सबसे बड़े जातीय समूह पश्तून लगातार अपनी सुरक्षा, नागरिक स्वतंत्रता और समान अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। तालिबान की वापसी के बाद पाकिस्तान को इस बात का डर है कि तालिबान पश्तून राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे सकता है इससे उसके हित प्रभावित हो सकते है। पाकिस्तान में पश्तून अलगाववादी आंदोलन लम्बे समय तक प्रमुख शक्ति के रूप में प्रभावी रहा है तथा पाकिस्तान में पश्तून का मुद्दा फिर से एक अलग राष्ट्र के रूप में सामने आ सकता है।18(Report
The Times of India January 1, 2022)
मैप संख्या 3
पश्तून दक्षिण एशिया में बसने वाली एक प्रमुख जनजाति है। ये मुख्य रूप से अफगानिस्तान में हिन्दूकुश पर्वत और पाकिस्तान में सिन्धु नदी के मध्य क्षेत्र में निवास करते है। हालांकि कुछ पश्तून जनजातियाँ अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के अन्य क्षेत्रों में भी निवास करती है। पश्तुन जनजाति अफगानिस्तान का सबसे बड़ा समुदाय है। पश्तूनों की आबादी अफगानिस्तान में लगभग 15 मिलियन और पाकिस्तान में 35 मिलियन होने का अनुमान है। पश्तून आबादी भौगोलिक रूप से अफगानिस्तान के दक्षिणी-पश्चिमी, पर्वी और कुछ उत्तरी और पश्चिमी जिलों में और पाकिस्तान में खैबर पख्तूनख्वा और उत्तरी बलूचिस्तान क्षेत्र में निवास करती है।
पाकिस्तान के समक्ष सुरक्षा चुनौती :
तहरीक-ए-तालिबान यानी पाकिस्तान तालिबान की स्थापना दिसम्बर, 2007 में 13 चरमपंथी गुटों ने मिलकर की थी।19(www.bbc.com) टीटीपी अपनी स्थापना के बाद से पाकिस्तानी सरकार के खिलाफ आक्रामक रवैया अपनाता आया है। इसने सरकार के साथ-साथ आम नागरिकों और सुरक्षा बलों को निशाना बनाया। टीटीपी का मकसद पाकिस्तान में शरिया पर आधारित एक कट्टरपंथी इस्लामी शासन कायम करना है। तहरीक-ए-तालिबान का पाकिस्तान की सेना से टकराव बना रहता है। साल 2014 में पेशावर में एक आर्मी स्कूल पर हुई गोलीबारी में करीब 200 लोगों की जान चली गई, जिनमें ज्यादात्तर बच्चे थे।20(The
Time Britannica December 17, 2014) इस घटना के लिए टीटीपी को जिम्मेदार बताया जाता है। इसके बाद से पाकिस्तानी सेना टीटीपी के ठिकानों को ध्वस्त करता रहा है और टीटीपी के नेताओं को अफगानिस्तान में धकेल दिया। वर्ष 2015 से टीटीपी वहीं से पाकिस्तान के खिलाफ हमले कर रहा है। पाकिस्तान अफगानिस्तान सीमावर्ती इलाकों में टीटीपी का खासा प्रभाव है। ये माना जाता है कि टीटीपी के ज्यादातर सदस्य अफगानिस्तान में है और वहीं से सीमा पार हमलों की योजना बनाते है।
अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान के चरमपंथी समूह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को लेकर तालिबान ने कहा है कि ‘यह पाकिस्तान का मुद्दा है और उसका अफगानिस्तान से कुछ लेना-देना नहीं है।’ तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्ला मुजाहिद ने पाकिस्तानी समाचार चैनल जियो न्यूज को दिए गए एक इंटरव्यू में यह बात कही है। मुजाहिद ने इसके साथ ही कहा कि ‘हम अपनी ज़मीन को किसी भी देश की शांति भंग करने के लिए इस्तेमाल नहीं होने देंगे।’
अमेरिका की वापसी से अफगानिस्तान में राजनीतिक तौर पर स्थिरता आ सकेगी लेकिन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान अब पाकिस्तान में एक समस्या बन गई है। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए कई अभियानों से प्रतिबंधित संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को काफी नुकसान हुआ और आतंकी घटनाओं में काफी गिरावट देखी गई थी। लेकिन पिछले कुछ महीनों में खासतौर से अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता में आया है, आतंकी घटनाओं में तेजी आई है।
अफगानिस्तान में तालिबान आने के बाद से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान सहित अन्य संगठनों के लिए वो एक ‘रोल मॉडल’ बन गया है और इससे यह संदेश भी जाता है, कि अगर अपने धार्मिक आंदोलन में राष्ट्रवाद को भी जोड़ लिया जाए तो सफलता की उम्मीद बढ़ जाती है। प्रतिबंधित तहरीक-ए-तालिबान के प्रमुख मुफ्ती नूर वली ने हाल ही में अपने एक इंटरव्यू में अपनी रणनीति में एक बड़े बदलाव का संकेत दिया है। उन्होंने वैश्विक स्तर के आंदोलन के बजाए अपने क्षेत्र, यानी कबायली इलाकों पर ध्यान देने की बात कही और इसे उनके राजनीतिक और धार्मिक विचारधारा में एक बड़े बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। इन इलाकों में हमले बढ़ने का यह भी एक कारण है।
टीटीपी मुख्यतः उत्तरी और दक्षिणी वजीरिस्तान अर्थात मुख्यतः अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर स्थित कबायली इलाकों में अपनी गतिविधियों को अंजाम देता है। लेकिन अब अफगान तालिबान काबुल की सत्ता में आने के बाद अपनी छवि को सुधारने के लिए शायद उसी तरह का कदम उठा सकता है जैसा उन्होंने अल-कायदा के खिलाफ अमेरिका के साथ समझौता किया है, उसी तरह पाकिस्तान की ओर से अफगान तालिबान पर दबाव होगा कि पाकिस्तानी तालिबान का समर्थन बंद कर दे ताकि पाकिस्तान उनके खिलाफ कार्रवाई कर सके। क्योंकि टीटीपी के अफगान तालिबान से गहरे रिश्ते बताए जाते हैं। अफगानिस्तान की अमेरिका के समर्थन वाली पूर्व सरकार से अफगान तालिबान के संघर्ष के दौरान टीटीपी ने उनका समर्थन और सहयोग किया था।
अच्छा तालिबान,
बुरा तालिबान :
ये सब मानते हैं कि पाकिस्तान की सरकार और अफगानी तालिबान के संबंध अतीत से मजबूत है। पाकिस्तान पूरी दुनिया से अफगानिस्तान की नई सरकार को मान्यता देने की अपील कर रहा है। लेकिन पिछले एक दशक में इसने पाकिस्तानी तालिबान के खिलाफ एक खूनी लड़ाई भी लड़ी है। इस लड़ाई में पाकिस्तान के भीतर हजारों नागरिक और सुरक्षा बल के जवान मारे गए है।
इसे अक्सर पाकिस्तान की ‘अच्छे और बुरे तालिबान’ की रणनीति के रूप में देखा जाता है। इस रणनीति के तहत अफगानी तालिबान को अच्छा और पाकिस्तानी तालिबान को बुरा बताया जाता है।21(www.france24.com)
सेना ने कबायली इलाकों से चरमपंथियों को खत्म करने के कई अभियान शुरू किए। इससे लाखों लोगों को मजबूरन विस्थापित होना पड़ा। पाकिस्तान की सरकार कई साल से पाकिस्तानी तालिबान के कई गुटों के साथ शांति समझौते के लिए बातचीत करने की भी इच्छुक रही है।
हालांकि कबायली इलाकों में ‘आईएस-के’ की मौजूदगी पाकिस्तानी अधिकारियों के लिए एक और सिरदर्द बनकर उभरी है। आईएस-केपी, के अफगानी तालिबान के साथ बड़े मतभेद है। वे अमेरिका-तालिबान समझौते पर तालिबान पर आरोप लगाते है कि उन्होंने जिहाद का अपना लक्ष्य छोड़ अमेरिका की गोद में जा बैठा है। इसी वजह से उन्हें निशाना बनाया जाना चाहिए। लेकिन आईएस-केपी के टीटीपी के साथ साम्प्रदायिक मतभेद है और दोनों का उद्देश्य भी अलग-अलग है।22(www.France24.Com)
ऐसे में अब काबुल पर तालिबान का नियंत्रण स्थापित होने के बाद अफगानिस्तान में ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान’ के कई चरमपंथियों को रिहा कर दिया गया है। पाकिस्तान के गृहमंत्री शेख रशीद अहमद ने बताया कि इमरान खान सरकार ने इसे लेकर अफगान तालिबान से संपर्क किया है और तालिबान ने भरोसा दिलाया है कि वो टीटीपी के चरमपंथियों को पाकिस्तान के खिलाफ अफगानिस्तान की ज़मीन इस्तेमाल नहीं करने देंगे। इसलिए पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में तालिबान के शासन को लेकर भले ही गर्मजोशी दिखाई हो लेकिन सत्ता बदलने के बाद से उसे टीटीपी की फ्रिक भी परेशान कर रही है। जो आने वाले समय में पाकिस्तान के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभरेगी।
निष्कर्षः सीमा पर फेंसिंग लगाने के विरोध में तालिबान के आक्रामक रवैये के चलते पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को काबुल की यात्रा रद्द करनी पड़ी। तालिबान का मानना है कि इससे सीमाओं पर लोगों के लिए जीवन कठिन हो जायेगा। परिवारों के बीच आवाजाही की आज़ादी को खत्म कर दिया जाऐगा जिसे तालिबान कभी स्वीकार नहीं करेगा। डूरंड लाईन पर की जाने वाली फेंसिंग को लेकर अफगान लोगों की भावनाएं उग्र हो सकती हैं। बावजूद इन संदर्भों को लेकर चिंता है लेकिन तालिबान के समक्ष अभी सबसे बड़ा आर्थिक एवं मानवीय संकट है जिससे निपटना तालिबान की प्राथमिक चुनौती है। तालिबान मौजुदा हालात में पाकिस्तान के साथ कोई सीधा टकराव नहीं चाहेगा क्योंकि अभी तालिबान को किसी भी देश द्वारा राजनीतिक वैधता नहीं मिली है। इसलिए अफगानिस्तान को मानवीय संकट से उबारने, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और राजनीतिक मान्यता के लिए तालिबान को पाकिस्तान की सहायता की आवश्यकता है।
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- Pakistan's 'Good Taliban-Bad Taliban' Strategy
Backfires, Posing Regional Risks, www.France24.Com/Https://Thediplomat.Com
Feb. 9, 2022
डॉ. मोहन लाल जाखड़
स्कॉलर, पोस्ट डॉक्टोरल फेलो, आई.सी.एस.एस.आर., नई दिल्ली, राजनीति विज्ञान विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
jakhar17@rediffmail.com, mohanjaakhar@gmail.com, 9782689846
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
पाकिस्तान और तालिबान के संदर्भ में लिखा गया लेख बहुत ही शोध से भरपूर है
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