शोध आलेख : टूटती मान्यताएं एवं जीवन संघर्ष की कथा : थके पांव
शोध सार : भगवतीचरण वर्मा प्रेमचन्दोत्तर युग के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक मुद्दों पर मुखर रहने वाले कालजयी विचारकों, मूर्धन्य एवं सशक्त कथाकारों में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में ग्रामीण, नगरीय एवं महानगरीय जीवन से जुड़ी परिस्थितियों में मध्य वर्ग की विवशता, त्रास, कुण्ठा, दीनता और उससे जूझते पीड़ित व्यक्ति के संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है। वह विवाह और प्रेम, धर्म और धर्मान्धता, पाप और पुण्य, धर्मनिरपेक्षता के प्रति विश्वास आदि महत्वपूर्ण विषयों को विभिन्न रचनाओं में अनेक दृष्टिकोणोंसे उद्घाटित करते हैं। वे किसी ‘वाद’ में बंधकर रहने वालों में से नहीं हैं बल्कि दूसरों की मान्यताओं परखे बिना वे उनसे प्रभावित नहीं होते हैं। यही धारणा उनके उपन्यास ‘थके पांव’ में मुखरित होती है। उपन्यास में उन्होंने मध्यवर्गीय व्यक्ति की जिजीविषा, उसकी महत्वाकांक्षा, कटु-व्यवहार, पारिवारिक विघटन और हृदयहीनता के अतिरिक्त जीवन संघर्ष से उत्पन्न हुई कुंठा, असंतोष, हताशा और टूटती मान्यताओं को अत्यंत सजीवता एवं कुशलता से उजागर एवं उद्घाटित किया है। उन्होंने मध्य वर्गीय सोच की संकीर्णता, अवसरवादिता तथा स्वार्थ की परतों को उधेड़ने के साथ ही ‘अपनों’ के द्वारा तिरस्कृत और मानसिक पीड़ा झेलते ‘अपनों’ की दयनीय दशा का मार्मिक चित्र उभार मध्यवर्ग को बेनकाब किया है।
बीज शब्द : मध्य वर्ग, उपन्यास, धर्म, शोषण, उच्च वर्ग, समाज, विसंगतियां, भगवतीचरण, शोषित, पैसा, केशव, टूटती मान्यताएं, संघर्ष, जीवन।
मूल आलेख : प्रेमचन्द ने कथा साहित्य को अभिजात्य वर्ग की विलासता, तिलस्मी गुफाओं, भूत-प्रेत एवं पशु-पक्षियों की कहानियों से निकाल, उसे जन-मानस की मानवीय संवेदनाओं की रागात्मक अभिव्यक्ति का साध्य बना दिया है। दूसरे शब्दो में, वह कथा साहित्य को महलों से निकाल झोपड़ियों तक ले आए थे। प्रेमचन्द की इस परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कालजयी एवं मूर्धन्य कथाकारों में भगवतीचरण वर्मा का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। आकर्षक व्यक्तित्व, स्वभाव से मस्त, फक्कड़पन से भरपूर और बहुमुखी प्रतिभा के धनी भगवतीचरण वर्मा ने अपने साहित्य में ग्रामीण, नगरीय एवं महानगरीय जीवन से जुड़ी परिस्थितियों से जूझते पीड़ित व्यक्ति की विवशता, त्रास, कुण्ठा, दीनता आदि को वाणी दी है। वह समाज की उन मूलभूत विसंगतियों, अंतर्विरोधों और संबंधों से टकराते हैं जो व्यक्ति, समाज, संस्कृति और इतिहास के लिए चुनौतियां निर्धारित करते हैं। वर्माजी ने अपने अधिकांश उपन्यासों में संघर्षमयी मध्यवर्ग का विश्लेषण करते हुए निर्धारित रूढ़ियों को तोड़, उस परिधि से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करते हैं। वह विवाह और प्रेम, धर्म और धर्मान्धता, पाप और पुण्य, धर्मनिरपेक्षता के प्रति विश्वास आदि महत्वपूर्ण विषयों को विभिन्न उपन्यासों में अनेक दृष्टिकोणों से उद्घाटित करते हैं। धर्मवीर भारती के अनुसार “भगवतीचरण वर्मा, मेरी दृष्टि में, हिन्दी के अकेले कथाकार हैं जिन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से इस पूरी शताब्दी में भारतीय सामाजिक ढांचे के बाहरी और अंदरूनी ठहरावों और बदलावों का एक क्रमबद्ध चित्रण किया है, और न केवल सामाजिक और पारिवारिक टूटते-बनते सम्बन्धों का सजीव चित्रण किया है तथा आन्तरिक भावनात्मक धरातल की उथल-पुथल खूबी से आंकी है, .......।”1 समकालीन लेखकों की अपेक्षा मध्यवर्गीय आकांक्षाओं एवं महात्वाकांक्षाओं का वर्णन करने में भगवतीचरण वर्मा अधिक जागरूक और सार्थक सिद्ध होते हैं। इसी श्रृंखला में ‘थके पांव’ उपन्यास के माध्यम से भगवती चरण वर्मा मध्यवर्ग के बाहरी व भीतरी ठहरावों और बदलावों का चित्रण करते हुए उनकी टूटती मान्यताओं एवं जीवन संघर्षों का सम्पूर्ण संवेदना से वर्णन करते हैं।
‘थके पांव’ उपन्यास में पचास वर्षीय केशव के माध्यम से तीन पीढ़ियों की कथा का वर्णन करते हुए वर्माजी मध्यवर्गीय व्यक्ति की जीजिविषा, सोच की संकीर्णता, अवसरवादिता, स्वार्थपरता, कटु-व्यवहार, पारिवारिक विघटन और हृदयहीनता के अतिरिक्त जीवन संघर्ष से उत्पन्न हुई कुण्ठा, असंतोष, हताशा और टूटती मान्यताओं को अत्यंत सजीवता व कुशलता से उजागर करते हैं। “भारत में जिस मध्यवर्ग का विकास हुआ था उसकी मूल्य चेतना दुविधाग्रस्त थी। उसमें एक ओर परंपरा बनाम आधुनिकता का द्वन्द्व था तो दूसरी ओर आधुनिकता के नाम पर भ्रामक आधुनिकता की ओर झुकाव भी था।”2
उपन्यास का आरम्भ घर लौट रहे थके-हारे केशव से होता है। वह बीते हुए पचास वर्षों में अपनी तीन पीढ़ियों के जीवन का मूल्यांकन कर रहा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी उनके हालातों में कोई अंतर नहीं आया। मध्यस्तरीय परिवार में उत्पन्न केशव के पिता रामचन्द्र, केशव और केशव के पुत्र मोहन का जीवन एक जैसी परिस्थितियों में व्यतीत होता है। उपन्यास में वर्माजी ने पात्रों को कोई क्रांति या आंदोलन करते हुए नहीं दिखलाया है। न किसी के प्रति नफरत पैदा की है, न ही हमदर्दी बल्कि मध्य वर्ग को अपनी समस्याओं से जूझते वर्णन किया है, यहाँ मानवीय संवेदना भरपूर तरलता के साथ हिलोरे लेती नज़र आती है। “आदमी हंसता है, नाचता है, गाता है। असफलताओं, निराशाओं और यातनाओं में जीवित रहते हुए भी यह उत्सव मनाता है, राग - रंग में अपने को खो देता है। केशव की समझ में नहीं आ रहा कि यह सब क्यों होता है और कैसे हो सकता है, लेकिन यह कटु और कुरूप सत्य है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता।”3
मध्य वर्ग में परिस्थितियों को ले थोड़ी बहुत झुँझलाहट होती है लेकिन वह रोज कुआं खोद पानी पीने वाले, हालातों को भगवान या अन्य पर छोड़, आगे बढ़ते हैं। उनकी जिंदगी फिर उसी डगर पर आ जाती है।
उपन्यास में केशव स्मरण कर रहा है कि जब उसने थर्ड डिवीजन में बी. ए. पास किया था तो घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी। इस खुशी में घर सात-आठ लोगों की दावत रखी गई थी। केशव के लिए यह खुशी अधिक समय न ठहर सकी। चूंकि उसी दिन उसकी बहन सुधा का विवाह निश्चित हो गया था जिस के लिए चार हजार दहेज की मांग थी लेकिन घर के हालात इतना पैसा जुटा पाने में सक्षम नहीं थे। अपने अफसर बनने और पिता के अफसर बनाने के स्वप्न, उत्साह, और उमंग आदि को ताक पर रखकर केशव ने नौकरी के लिए दौड़ - धूप शुरु कर दी थी। वह क्लर्क बनने की तैयारी करने लगा क्योंकि उसका जन्म क्लर्क के घर हुआ था। समय रहते ही उसने अपने आप को परिवेश के अनुकूल डाल लिया। गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए ज़मीन तैयार कर रहा था। अब न उसमें कुण्ठा थी, न कोई अवसाद। उपन्यास में केशव और मोहन शिक्षा ग्रहण करके नौकरी द्वारा अपना जीवन निर्वाह करने का यत्न करते हैं। उनके पास पैतृक-सम्पति का अभाव रहता है। शिक्षा के प्रभाव के कारण वह अपने परिवेश की नवीनता को ग्रहण करने के लिए उत्सुक तो रहते हैं किन्तु उन्हें समाज के विरोध और उपहास का पात्र बनना पड़ता है। एक ओर केशव है जो अपनी संस्कारित मान्यताओं से जीवन बिताता है दूसरी ओर बाबू बांकेलाल और उसका परिवार है, यहां सुधा का विवाह होना निश्चित हुआ है, वह साम, दाम, दण्ड, भेद से ‘अपनी हैसियत’ बनाए हुए हैं। बांकेलाल तीस रुपए तनख्वाह पाकर सौ रुपए ‘ऊपर की आमदनी’ पाता है। उसका बेटा गोपीनाथ तीन साल लगातार फेल होने के बाद मुश्किल से इण्टरमीडिएट पास करता है। बांकेलाल उसे अपने रसूख से चुंगी में चालीस रुपए की नौकरी दिलवा देता है।“यह वर्ग उच्च तथा निम्नवर्ग की अपेक्षा अधिक व्यापक, संवेदनशील, प्रेरक तथा अपनी विशिष्ट दुर्बलताओं से ग्रस्त है।”4
अवसरवाद और लोभ-लाभ की प्रवृति ने मध्यवर्ग के बहुत बड़े तबके को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। उनकी इस कमजोरी का शोषक और समाज विरोधी तत्व खुलकर फायदा उठाते हैं। केशव ने कालेज में पढ़ते समय जीवन के कुछ आदर्श बनाए थें लेकिन पैसे की दौड़ में वे लगातार टूटते जा रहे थें। मध्यवर्गीय व्यक्ति की विडम्बना देखिए कि वह जीवन की सार्थकता छल, फरेब, बेईमानी से पैसे कमाने में ही समझ रहा है।
वर्माजी केशव एवं मोहन के माध्यम से अपने युग में फैली बेकारी की दारुण समस्या को अत्यंत मार्मिक शब्दों में चित्रित करते हैं। केशव और मोहन नौकरी पाने के लिए दरख्वास्त पर दरख्वास्त, इन्टरव्यू पर इन्टरव्यू देने के लिए एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर चक्कर काटते रहते हैं। अंत में निराशा ही हाथ लगती है। नौकरी पाने के लिए मध्यवर्ग काफी हैरान, परेशान है और सिफारिश का रास्ता भी अपना लेता है। हर साल हजारों लड़के बी. ए., एम. ए. पास करके नौकरी ढूँढ़ने में लग जाते हैं। धोखाधड़ी ने उनकी अवस्था को दयनीय बना दिया है। दर-दर की ठोंकरे खाना, विवशता के प्रति झुँझलाहट, निरादर, बेबसी आदि इस वर्ग के लिए कोई नयी बात नहीं है। अधिक से अधिक मेहनत करने पर भी यह वर्ग संतोषजनक जीवन बसर नहीं कर पाता। साधनहीन व्यक्ति आजीविका की खोज में दर-दर की ठोकरें खाता हुआ घूमता है। उसका जीवन निराशा से भर उठता है। समाज की नैतिक मान्यताओं के दबाव में मध्यवर्गीय व्यक्ति कुण्ठित होता रहता है। “जिस परम्परा और समाज में केशव पला था वहां काम-काज से मतलब नौकरी से ही लगाया जाता था, और वह नौकरी भी क्लर्की थी। उसके जितने नाते - रिश्तेदार थे वे सब के सब क्लर्क थे, छोटे, बड़े, मंझोले ....... तरह - तरह के क्लर्क। जो उस क्लर्की के पद से कुछ ऊपर उठकर अफसर बन गए थे, उन्होंने उस समाज से सम्बन्ध तोड़ने का क्रम आरम्भ कर दिया था, जो उस क्लर्की के पद को न पा सकने के कारण चपरासी बन गए या मेहनत - मजदूरी करने लग गए, उस समाज में वे तिरस्कृत होने लगे।”5 आर्थिक विषमता से उत्पन्न ‘बेकारी की समस्या’ हमारे राष्ट्र में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरती जा रही है। पर्याप्त शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद भी जब नवयुवक गुज़रबसर के लिए पर्याप्त धन नहीं जुटा पाते, तो वह कुण्ठा और निराशा की दलदल में ग्रस्त होने लगते हैं।
मध्यवर्ग का आदमी अकसर भीरू प्रकृति का होता है। अपनी प्रतिष्ठा तथा समाज के नियमों का भय, उसे सदा विचलित करता रहता है। मिथ्या सम्मान की भावना के कारण ही इस वर्ग में कायरता की प्रवृति जन्म ले रही है। समाज के अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार करने का साहस वह नहीं कर पाता है। इस कायरता के कारण अव्यवस्था और अस्थिरता आती है और उसका पारिवारिक जीवन कलह और अशान्ति से भर जाता है। “मध्यवर्ग का आदमी चीखता है, चिल्लाता है क्योंकि वह कायर है, सिवा चीखने - चिल्लाने के उसके पास और कुछ है नहीं। उस चीख और चिल्लाहट के अस्त्र से ही वह शासन कर सकता है।”6 मध्यवर्गीय व्यक्ति भीतर ही भीतर कुण्ठित हो अपनी झुँझलाहट पारिवारिक सदस्यों पर ही उतारता है। आर्थिक अभाव में वह उत्पीड़ित तो होता है समाज से, मगर जोर-जबरदस्ती अपना शासन परिवार पर चलाना चाहता है।
वर्तमान आर्थिक होड़ में संयुक्त परिवार के उत्तरदायित्व से मुक्त होकर ‘उच्चमध्यवर्ग’ के लोग अपना ‘विकास’ कर रहे हैं। मध्यवर्ग सामाजिक नैतिकता से आबद्ध होकर या तो निम्न मध्यवर्ग में तब्दील होता है या फिर समाज में अपनी झूठी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए अनेक संघर्षों एवं कष्टों को झेल कर अपने जीवन स्तर को बनाए रखने का प्रयत्न करता है। “उसका छोटा भाई रमेश ……. वह छोटा अफसर बन गया है, वह उसके समाज से, यानी क्लर्को के समाज से अलग होकर एक नवीन समाज की स्थापना कर रहा है जो उच्च-मध्य-वर्ग कहलाने लगा है रमेश दिल्ली में रहता है, वह केशव से कतराता है, केशव के परिवार से कतराता है।”7 उच्च मध्यवर्ग नवीन आदर्शों को अपना रहा है। परिवेश के साथ तेजी से बदल रहा है और उन्नति कर रहा है। यह उन्नति चाहे नैतिक पतन से ही क्यों न हो।
वर्माजी ने मध्यवर्ग की विषमताओं और खोखली मान्यताओं को उजागर करने का जीवन्त चित्रण ‘थके पांव’ उपन्यास में किया है। युग की बदलती हुई मान्यताओं, आवश्यकताओं और मंहगाई के झंझावात के समक्ष संयुक्त परिवार की मान्यताएं एवं ढांचा चरमरा उठा है। व्यक्ति विशेष आश्रितों की फौज़ का भार नहीं उठा सकता। केशव का बड़ा लड़का मोहन अपने पिता के नक्शे कदम और मध्यवर्ग की बनी बनाई परिपाटी पर चलते हुए संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियों को वहन करने वाला है, किन्तु किशन और माया समाज और परिवार की पुरानी मान्यताओं को तोड़ते हुए, नयी चेतना और नये युग के रास्ते पर चलने के लिए पैर बढ़ाते हैं। किशन रंगीन व फक्कड़ मिजाज का है। वह जीवन के प्रति अपने युगानुरूप नज़रिये से जीवन में आगे बढ़ता है और बम्बई जाकर अभिनेता बनता है। माया भी उसकी प्रेरणा से शादी करने से इनकार कर देती है। बिन बताए वह फिल्मों में काम करने चली जाती है। वह मध्यवर्गीय परिवार की दुर्दशा ग्रस्त ‘पत्नी’ की अपेक्षा स्वच्छन्द रूप में ‘एक्ट्रेस’ बनना बेहतर समझती है। “एक व्यक्ति उस समूह से जाता है, दूसरा आ जाता है। इस प्रकार समूह ज्यों का त्यों बना रहता है। यही नहीं, समूह बढ़ता ही जा रहा है। और इस बढ़ते हुए समूह के कारण दुनिया की यह हालत है, उसकी यह हालत है। इस समूह का भावनात्मक पहलू तो है लेकिन उस भावनात्मक पहलू से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण इस समूह का आर्थिक पहलू है। और केशव को लग रहा है कि यह आर्थिक पहलू ही सत्य है ...... भावनात्मक पहलू तो केवल भुलावा है। लेकिन यह जिन्दगी तो स्वयं ही भुलावा है, और यह भावनात्मक पहलू जिन्दगी का अनिवार्य और अविच्छिन्न अंग है।”8
भगवतीचरण वर्मा ने स्वतंत्रता के बाद भारतीय परिवारों के विश्रृंखल आर्थिक ढांचे और बदलती हुई मान्यताओं को ही 'थके पांव' उपन्यास का मेरूदण्ड बनाया है। मध्य वर्ग दुविधाओं से संत्रस्त हो उठा है। यह वर्ग अतीत की परम्पराओं को एका एक तोड़ने का साहस नहीं कर पा रहा। जबकि पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के प्रभाव से उसमें समाज की सड़ी-गली रूढ़ियों से छुटकारा पाने की आकांक्षा छिपी हुई है। “सामान्यतया उन्हें एक शिष्टोचित जीवन - मान बनाए रखना पड़ता है, जो बहुत करके उनकी शक्ति से परे होता है। यह अनवरत आर्थिक संघर्ष उनके जीवन की समस्त गति-विधि पर प्रभाव जमाए रहता है।”9
आर्थिक रूप से विपन्न होते हुए भी मिथ्या सम्मान ढ़ोने में यह वर्ग विकट कठिनाइयों का सामना करता रहा है।
जीवन के प्रति मध्य वर्ग की सामाजिक दृष्टिकोण से कुछ मान्यताएं हैं। जिससे वह समाज में रहते प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व की मान्यताओं को निर्धारित करता है। उस कसौटी को आधार बना व्यक्ति विशेष का समाज में महत्व निर्धारित करता है, गुण-दोष निर्धारित होते हैं, नैतिकता-अनैतिकता के मानदण्ड बनते हैं। लेकिन व्यक्ति को नापने के जिंदगी के अपने सिद्धान्त हैं। समय रहते समाज भी उसे प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष रूप में मान्यता देनी आरम्भ कर देता है। व्यक्ति और जीवन की इन मान्यताओं में व्यक्ति पिसता रहता है। सुशीला इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करती है - “वह किशन जो गैर जिम्मेदार है, जो आवारा है, जो झूठा है, वह सम्पन्न है, वह ठाठ के कपड़े पहनता है, मौज के साथ दुनिया में घुमता है, सीधा, सच्चा, मेहनती। दूसरों के लिए अपना जीवन अर्पित कर देनेवाला; और उसका पति (मोहन) अभावग्रस्त है, दुःखी है।”10
व्यक्ति और समाज की मान्यताओं के मध्य संघर्ष में परास्त होने पर व्यक्ति विशेष जहां दार्शनिक व सिद्धान्तवादी बन गए हैं।
मध्य वर्ग खुले आसमान में पक्षी की तरह उड़ान भरना चाहता है लेकिन अपने पैरों में बंधी परम्परा व रूढ़ियों की श्रृंखलाओं के भार से मुक्त नहीं होना चाहता। कुछ इन मान्यताओं से अपने आप को अलग कर लेते हैं तो वह खुले आसमान में उड़ते भी हैं और दूर तक जाते हैं। उपन्यास में अपने निरर्थक आदर्श बोझ के तले दबे हुए, खोखली मान्यताओं को ओढ़े हुए केशव संघर्षमय पचास वर्ष समाप्त करते हैं। अभाव एवं विपन्नता में व्यतीत जीवन की घटनाएं एका एक चित्रफलक की भांति उसके मानस पटल पर उभरती हैं। जीवन भर सहजता के प्रति आस्थावान केशव, अपने अभावों से त्रस्त हो, सिद्धान्तों तथा आदर्शो की बलि देकर एक हजार रुपए रिश्वत लेता हैं। जिस से मध्यवर्गीय आत्मा की शान्ति नष्ट हो जाती है। “जीवित रहने का संघर्ष ........ मानव का सबसे बड़ा संघर्ष है। जिसे लोग मध्य वर्ग कहते हैं उसमें यह जीवित रहने का संघर्ष भयानक है। इस मध्य वर्ग के पास विशिष्टता का ढोंग है, सम्पन्नता का दिखावा है। इसके पास सामाजिकता है, इसके पास नैतिकता है। इन सामाजिक और नैतिक मान्यताओं का निर्माता यह मध्य वर्ग ही तो है ........ ये मान्यताएं केवल इस मध्य वर्ग के सत्य है और मान्यताओं को वह अपने सिर पर लादे हुए है। इस मध्य वर्ग के पैर लड़खड़ा रहे हैं ......... लेकिन अपने सिर के बोझ को उतार फेंकने का उसके पास साहस नहीं है।”11 मध्य वर्ग के पात्र अपने वर्ग की निरर्थक मान्यताओं और मर्यादाओं में पिसते हुए अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं। किन्तु ऐसे मध्यवित्तीय परिवारों में एक ऐसा उभरता हुआ नवयुवक वर्ग है जो अपनी ‘वैयक्तिक नैतिकता’ का निर्माण करके, अपने वर्ग के सामान्य क्रम को तोड़ कर समर्थ बन रहा है, धनी बन रहा है। किशन ऐसे ही महत्वाकांक्षी मध्यवर्गीय व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। नवीन चेतना सम्पन्न किशन मध्यवर्ग द्वारा रूढ़िवादी परम्पराओं का पालन करना, झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा पर अपने को बलिदान करने पर कटाक्ष करता है। इस वर्ग के लिए आर्थिक अभाव में सम्पन्नता का दिखावा करना मात्र परेशानी का कारण ही बनता है। व्यर्थ के संघर्ष को जन्म देता है। परिवार की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ भागने वाले, सफलता के पथ पर बढ़ते गये और पारिवारिक मोह से बंधे, अभावों और विवशताओं में पिसते रहे। “इन अभावों और विवशताओं को वह दूर करना चाहता है, और इसके लिए उस मध्य वर्ग के कुछ लोगों ने समाजिक नैतिकता को छोड़कर वैयक्तिक नैतिकता के कुछ नियम बना लिए हैं जिन्हें वे अपने तक सीमित रखते हैं, धीरे - धीरे ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जाती है, ये लोग सम्पन्न बनते जाते हैं, और इन सम्पन्न व्यक्तियों का एक अलग वर्ग बनता जा रहा है।”12
नवचेतना से युक्त यह वर्ग समय की हवा के रूख को पहचान, मिथ्या सम्मान की भावना तथा व्यर्थ के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक आडम्बरों से विरक्त हो प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हो रहा है।
केशव का चरित्र पुरानी मान्यताओं, परम्पराओं व रूढ़ियों से ओत प्रोत है किन्तु उसकी अगली पीढ़ी इन सब मान्यताओं को कुचल देती है। मध्यवर्ग के प्रतीक केशव का व्यक्तित्व देखिए, वह अभाव में रह सकता है। सुशीला नौकरी करे, माया स्वावलंबी बनकर अविवाहित रहे, यह सहन कर पाना उन के लिए थोड़ा मुश्किल हैं। माधुरी और सुशीला के माध्यम से वर्माजी समाज की नारी के प्रति विकृत मनोदशा को व्यक्त करना चाहाते हैं चूंकि वर्माजी का यह प्रगतिवादी कदम प्रत्येक उपन्यास में परोक्ष रूप में ही आया है। प्रो. हुमायू कबीर के अनुसार - “सामाजिक असहिष्णुता जितनी मध्यवर्ग में पाई जाती है, उतनी अन्य वर्गों में शायद न मिले। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से डरता है और ईर्ष्यालु बना रहता है। व्यक्तिवादी मनोवृति पराकाष्ठा तक पहुँची रहती है और एक रोग की तरह इस वर्ग को दबाए रहती है।”13 माया और सुशीला आधुनिकता से ओत-प्रोत हैं और रूढ़ियों को तोड़ने के लिए संघर्षरत भी। ससुराल में पर्दा न करना तथा ननद को शिक्षा ग्रहण कर स्वावलम्बी बनने की प्रेरणा प्रदान करना, सुशीला के प्रगतिवादी विचारों को प्रदर्शित करता है। यह चेतना पुराने संस्कारों से जूझते हुए व्यक्ति को जीवन की समस्याओं का समाधान करने का साहस प्रदान करती है। “तुम समर्थ बनकर कोई काम करना। यह किसी दूसरे पर निर्भर रहना ही सबसे बड़ी गुलामी है अपमान, लांछन ...... सब कुछ इस गुलामी में बर्दाशत करना पड़ता है। दुनिया में जो कुछ है वह पैसा है ........ पैसा!”14 माया को चिरपरिचित भावुक पत्नी के स्थान पर आधुनिक उदार विचारों वाली विदूषी बनना मान्य है। विधुर व्यक्ति से विवाह तय कर देने पर विरोध करती है। माया जीवन के कटु सत्य से आँख नहीं मूंदती। वह समय और स्थिति को पहचानती है और पछड़ी व सड़ी-गली मान्यताओं को छोड़कर प्रगतिशील मार्ग पर अग्रसर होती है। “आपने मुझे पढ़ा-लिखाकर मनुष्य बनाया है तो मेरे साथ आप मनुष्यता का व्यवहार कीजिए। मैं जानवर नहीं हूं, जिसके साथ चाहा उसके साथ मुझे बांध दिया। मैं सम्पत्ति नहीं हूं कि जिसे चाहा उसे दे दिया। मुझमें भी भावना है, मुझमें भी व्यक्तित्व है। मैं अपना हित-अहित समझ सकती हूं।”15
माया ‘थके पांव’ की विद्रोहिणी नारी है। माया का विरोध आधुनिक नारी का विरोध है। वह अपने युग की आवश्यकताओं को पहचान कर प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाते हुए अपने अस्तित्व को बनाए रखती है। मोहन की पत्नी सुशीला भारतीय साहसशील पत्नी की तरह अपने सारे जेवरात बेचकर, मोहन के बीमार होने पर उसे इलाज़ के लिए पहाड़ों पर अकेली ले जाती है। “व्यक्तिगत स्वाधीनता और व्यक्तित्व को अद्वितीयता जैसी अवधारणाओं का विस्तार अब हमारे ढंग में केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं रह गया। उचित ही स्त्री भी अपने व्यक्तित्व और उसकी रक्षा तथा प्रतिष्ठा के प्रति सजग होती जा रही है।”16
समस्या आन पड़ने पर नारी क्या कुछ कर गुजरती है वर्माजी सुशीला के माध्यम से उजागर करते हैं। माया और सुशीला भारतीय नारी के साहसिक कार्यों का जीवन्त उदाहरण है।
वर्माजी कर्तव्य परायणता और दायित्व निर्वाह से ओत-प्रोत केशव के परिवार के माध्यम से मध्य वर्गीय परिवारों की संस्कारप्रियता, विकास की स्वप्निल आकांक्षा, समाज भीरुता की अधोमुखी प्रवृतियों के अतिरिक्त उसकी शक्ति और क्षमताओं को भी रेखांकित करते हैं। आधुनिक दौड़ में पारिवारिक विघटन मध्यवर्गीय जीवन की एक अहम समस्या है। “मध्यवर्ग का जीवन काफी खोखला होता है, उसमें तनावों, भ्रमों, मोहों, रोमांटिकता और बनावटीपन के लिए बहुत जगह होती है। ऐसे जीवन को उपन्यास में बदलना अपेक्षाकृत सरल हो सकता है।”17 आर्थिक अभाव में कलह-कलेश और आलोचना इत्यादि का आना तो स्वाभाविक है। इस आचरण से मध्यवर्गीय जीवन में ममता, दया और क्षमा आदि मानवीय गुणों का स्रोत शुष्क हो जाता है, ऐसा नहीं है। मार-पीट, गाली-गलौच और लांछन के बीच मध्यवर्गीय समाज में पारिवारिक प्रेम और ममता का अविरल प्रवाह भी गतिमान रहता है। उपन्यास में केशव, माधुरी, रमेश, मोहन, सुशीला, किशन, माया आदि के माध्यम से पारिवारिक रिश्तों के उतार-चढ़ाव का वर्णन हुआ है। मध्यवर्गीय व्यक्ति ‘कुछ पाने’ की चाहत में परिवार से चाहे कितना भी दूर ही क्यों न चला जाए लेकिन परिवार के प्रति एक कसक उसके दिलो-दिमाग में रहती है। जब भी परिवार पर कोई मुसीबत आन पड़ती है तो फिर ‘अपने’ ही मदद के लिए सामने आते हैं, चाहे कितना भी मन-मुटाव क्यों न हो। केशव के परिवार से ‘दूर’ जा चुका रमेश, माया के विवाह के लिए पैसे की मदद के लिए सामने आता है। मुम्बई जा चुके किशन और माया भी ‘अपने’ परिवार की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। मध्यवर्ग के सामाजिक जीवन में पारिवारिक रिस्ते-नातों की संवेदनाओं का महत्व अधिक होता है। वैश्वीकरण से उत्पन्न परिस्थितियों ने मानव जीवन के इन मूल्यों को हाशिये पर डाल दिया।
मध्यवर्ग का जीवन सदैव ही संघर्षमय रहा है। उसकी विडम्बना यह है कि वह स्वप्न देखता है उच्चवर्गीय समाज के एशो-आराम के, जिनके टूटकर विखरने की पूरी सम्भावना रहती है। उच्चवर्गीय स्तर को पाने की अभिलाषा तथा निम्न वर्ग को त्यागने की छटपटाहट ही इस वर्ग को परिवर्तनशील एवं सृजनशील बनाएं रखती है। यही कारण है कि एक तरफ मध्यवर्ग बौद्धिक क्रांति और सामाजिक परिवर्तन का नेतृत्व करता है तो दूसरी तरफ अपनी सुविधाओं, लाभ और सामाजिक पद-प्रतिष्ठा के प्रति सजग और सचेत भी रहता है। मध्यवर्गीय समाज का ‘अहं’ सर्वोपरि होता है। संघर्षों और समस्याओं से जूझते हुए भी वह अपने स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं करता। “तुम नौकरी करोगी, यह कैसे होगा? हमारे खानदान में कभी औरतें घर से बाहर नहीं निकली है, नौकरी करना तो दूर रहा।”18 मध्य वर्ग में पुरुषतत्व की प्रधानता हैं केशव और मोहन को सुशीला का नौकरी करना मान्य नहीं क्योंकि पारिवारिक प्रतिष्ठा आड़े आती है। पुरुषतत्व को ठेस पहुँचती है। किन्तु घर के बद से बदतर होते हालातों को देख केशव रिशवत ले सकता है।
भौतिकतावादी युग की प्रमुख प्रवृति उसकी द्वन्द्वात्मकता है। वर्तमान युग में वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति द्वन्द्व की स्थिति में रहता है किन्तु मध्यवर्गीय व्यक्ति की कल्पनाओं और वास्तविक स्थिति में अन्तर होने के कारण वह लगातार द्वन्द्वात्मक स्थितियों से जूझता रहता है। “किशन आगे बढ़ना चाहता है, उसमें उल्लास है, उसमें उमंग है, उसमें महत्त्वाकांक्षा
है। और वहीं किशन का बड़ा भाई मोहन भी तो है; दबा हुआ, टूटा हुआ, उत्साहहीन।
...... मोहन को परिस्थितियां अनुकूल नहीं मिलीं, वर्तमान परिस्थितियों से विद्रोह करने का साहस उसमें नहीं था; वह परम्पराओं का अनुयायी था ...... जो साहसी हैं ...... वे या तो बहुत ऊपर उठकर अपना एक अलग समाज बना लेते हैं और अपनी सम्पन्नता के बल पर मध्यवर्ग पर शासन करते हैं, या फिर वे तत्काल ही नष्ट हो जाते हैं। किशन दूसरी कोटि का साहसी व्यक्ति है। वह अपने जीवन की बाजी लगा सकता है, वह यथार्थ का सहारा छोड़कर कल्पना के वातावरण में रहने का दुःसाहस कर सकता है।”19 आधुनिक दिखने की चाह में मध्यवर्गीय व्यक्ति किस प्रकार प्रदर्शनप्रिय होता जा रहा है, उपन्यास में किशन के माध्यम से बखूबी वर्णन हुआ है। आधुनिक समाज में अर्थ का वर्चस्व इतना बढ़ गया है कि मनुष्य संबंधों की रागात्मकता व संवेदनाशीलता को भूलता जा रहा है। अनैतिक साधनों से सम्पत्ति एकत्रित करने की व्यापक प्रवृति का परिचय वर्माजी बांकेलाल, गोपीनाथ और केशव के माध्यम पाठक के सम्मुख व्यक्त करते हैं। मध्य वर्ग का व्यक्ति चाहे कितना भी आधुनिक होने की कोशिश करें फिर भी परम्परागत संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाता। बिरादरी, समाज, परमात्मा तथा पड़ोसी का डर उसके मन में हमेशा बना रहता है। रिश्वत के माध्यम से लिया ‘पाप का रुपया’ केशव अनाथालय में जमा करा प्रायश्चित करता है। भगवतीचरण वर्मा केशव के माध्यम से मध्यवर्गीय जीवन के समस्त वातावरण़, पात्रों के रहन-सहऩ, रीति-रिवाज, जीवन-पद्धति और उनकी प्रकृति के प्रत्येक बिन्दू का बाखूबी यथार्थ चित्रण करते हैं क्योंकि यह उनका भोगा हुआ यथार्थ है। श्री लाल शुक्ल के शब्दों में - “स्वयं मध्य-वित्त परिवार में उत्पन्न होकर, पारिवारिक बँटवारों और परिवार के कर्ताओं की असामाजिक मृत्यु से उत्पन्न विपन्नता तथा दूसरी कठिनाइयाँ झेलते हुए भी वे अपने मध्य-वित्त संस्कारों को यथावत् सुरक्षित रक्खे हुए थे, और उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति थी - किसी के समक्ष दीनता न दिखाना, किसी से सहानुभूति की भीख़ न माँगना, स्वयं आत्मदया से द्रवित न होना, बड़ी-से-बड़ी विपित्ति को मानव-समाज में घटनेवाली एक सामान्य घटना मानते हुए उससे कम-से-कम विक्षुब्ध होना और साहित्य के क्षेत्र में उनकी प्रवृत्ति उन्हें जिधर लिए जा रही थी उसे ओर अपने को स्वच्छंद छोड़ते हुए अपने विरूद्ध कोई मानसिक अवरोध न उत्पन्न होने देना। ऐसी स्थिति में एक प्रकार की लापरवाही, निर्भीकता, उलझनों के प्रति उदासीनता, यथार्थ के प्रति सिनिसिज़्म जैसी प्रवृत्तियाँ भी कभी-कभी पैदा होती है, जो अब तक भगवती बाबू के स्वभाव का अंग बन चुकी थीं।”20 भगवतीचरण वर्मा केशव के संघर्ष में अपने जीवन संघर्ष की झलक महसूस करते जान पड़ते हैं।
निष्कर्ष :
भगवतीचरण वर्मा का चिंतन और लेखन समाज-सापेक्ष है। उनके साहित्य में न केवल मध्यवर्गीय व्यक्ति और समाज के संघर्ष उभरते दिखलाई पड़ते हैं बल्कि व्यक्तिवादी चिंतन की अनुगूँज भी सुनाई पड़ती है। वह प्रायः रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से मनुष्य को उसके सपनों, तमाम सुख-दुख, हार जीत के संघर्षों और उनकी उपलब्धियों के साथ प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने मध्य वर्गीय सोच की संकीर्णता, हृदयहीनता, अवसरवादिता तथा स्वार्थपनता की परतों को उधेड़ने के साथ ही ‘अपनों’ के द्वारा तिरस्कृत और मानसिक पीड़ा झेलते ‘अपनों’ की दयनीय दशा को मार्मिकता के साथ उभारकर मध्यवर्ग को बेनकाब कर दिया है। ‘थके पांव’ उपन्यास मध्यवर्ग के आर्थिक व सांस्कृतिक अन्तर्द्वन्द्व को चित्रित करने की कथा है। यह कथा उस मध्यवर्ग के संघर्षों से निकली है जो अपनी आकांक्षाओं यानी उच्च वर्ग के प्रति आकर्षण भाव तथा निम्न एवं शोषित वर्ग के प्रति तिरस्कार भाव रखता है। आर्थिक उन्नति के बदले अपनी संस्कृति, रागात्मकता, परिवार और मानवीय संवेदनाओं से शून्य होता जा रहा है। अंत में वर्मा जी मध्यमवर्गीय समाज के अंदर व्याप्त स्वार्थ, लाचारी, आदर्श, परेशानी, मोहभंग, तंगी, दीनता और मनोवैज्ञानिक स्थितियों को जिस गंभीरता के साथ चित्रित करने में सफल हुए हैं, वैसे ही मानवीय संवेदनाओं से जुड़े व्यंग्य, पीड़ा, शोषण, निरीहता, कुटिलता, चालाकी और मूर्खता तथा गॅवारूपन जैसे रागात्मकता पहलुओं को उजागर करते दिखाई देते हैं।
संदर्भ :
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2
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3
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4
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5
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6
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7
वही, पृ. – 40
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वही, पृ. – 41
9
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10 भगवतीचरण वर्मा, थके पांव, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली,
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11 वही , पृ. – 66
13 हुमायूं कबीर, हमारी परम्परा, शोध साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद,
1972, पृ. – 101
14 भगवतीचरण वर्मा, थके पांव, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली,
2007, पृ. – 72
15 वही, पृ. – 88
16 नेमिचन्द्र जैन, आधूरे साक्षात्कार,वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,
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17 मैनेजर पांडेय, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, 2001 पृ. – 279
18 भगवतीचरण वर्मा, थके पांव, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली,
2007, पृ. - 109
19 वही, पृ. – 82
20 श्री लाल शुक्ल, भगवतीचरण वर्मा, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली,
1989 पृ.- 16 – 17
डॉ. कुलवंत सिंह
सहायक प्राध्यापक
एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक काँलेज, बुढलाडा, पंजाब - 151502
dr.kulwantsingh2428@gmail.com, 9815736540
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च 2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )
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