ग्रामीण जीवन की तमाम सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक जटिलताओं को अपनी रचनाओं में समेट लेना युग प्रवर्तक रचनाकार की बौद्धिक चेतना का प्रमाण है। एक लेखक की रचनाएँ समाज में उसकी जीवंतता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं और संपूर्ण पाठक वर्ग की चेतना उन रचनाओं से अपना आत्मीय संबंध स्थापित करती हुई प्रिय लेखक को अपने समीप महसूस करती है। इसी समीपता का प्रमाण है- फणीश्वरनाथ रेणु पर प्रकाशित पुस्तक ‘रेणु का जनपद’। पुस्तक के संपादक सुप्रसिद्ध आलोचक गजेंद्र पाठक हैं। पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं, “रेणु अपने चरित्रों से कितना प्यार करते हैं इसका इलहाम जिसे हो वही रेणु की रचनाओं में भारत की धड़कन को महसूस कर सकता है।”1 निसंदेह, रेणु की रचनाधर्मिता में जिन अंतर्ध्वनियों की अनुगूंज सुनाई देती है, वे एक साथ पीड़ा, उल्लास, आशा, निराशा, त्रासदी और करूणा आदि से पाठक वर्ग को भीतर तक उद्वेलित कर देती है।
प्रस्तुत पुस्तक में रेणु के व्यक्तित्व और कृतित्व पर भिन्न-भिन्न विचारकों ने प्रकाश डाला है। यदि संपादक के शब्दों में कहें तो, “इस किताब में विद्वानों से लेकर युवतर आलोचकों ने रेणु के महत्त्व को आज के संदर्भ में समझने की गंभीर कोशिश की है। इन सभी लेखों से गुजरते हुए रेणु हमारे लिए और परिचित और विशिष्ट बनते चले जाते हैं।”2 पुस्तक में भूमिका के अलावा कुल 39 लेख सम्मिलित हैं। इन सभी लेखों में रेणु के लेखन के विविध आयामों पर विचार किया गया है। विदित हो कि इस पुस्तक में रेणु जन्मशताब्दी पर हुए आयोजन में सम्मिलित वक्तव्यों को लिपिबद्ध किया गया है। इसलिए यह पुस्तक और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। रेणु को उनकी समग्रता में समझने का जो प्रयास लेखों के माध्यम से में किया गया है, उसकी संक्षिप्त चर्चा इस पुस्तक समीक्षा में की जाएगी। इससे पाठक वर्ग न सिर्फ रेणु के विराट व्यक्तित्व से परिचित होंगे, बल्कि रेणु को जानने और समझने के नवीन रास्ते भी हमें मिलेंगे।
रेणु की रचनाओं में ग्रामीण अंचल की जो सुगंध हमें मिलती है, वह उनके गाँव से भावनात्मक और आत्मीय संबंध को तो उजागर करती ही है, साथ ही लोक संस्कृति को बचाए रखने का जो अथक प्रयास उनकी रचनाओं में दिखाई देता है, वह वास्तव में देशज प्रेम की एक अनूठी मिसाल है। इसकी एक झलक दिखाते हुए श्री हरिवंश कहते हैं, “बिरहा, बराती, सर्दल, फगुआ, बटगमल, बारहमासा, जोगीरा, नेपाली गीत, बांग्ला गीत, बाउल के अलावा लोरिक, बिजैभान, सदाबृज और बिदापत नाच ये सारी चीजें, जो बचपन में हम लोगों ने अलग-अलग परिवेश में सुनी थीं, जो आज सबसे परिचित हो गयी हैं, वे रेणु जी से बेहतर कोई नहीं जानता।”3 इसमें कोई संदेह नहीं कि हरिवंश जी जिन सुनी हुई चीजों की चर्चा कर रहे हैं, उन्हें समाज में जिलाए रखने का काम रेणु ने किया है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर रेणु की रचनाओं के महत्त्व को उद्घाटित करते हुए हरिवंश जी उनके स्वभाव में शामिल शालीनता के झीने परदे में छुपे संघर्षों और पीड़ाओं को भी उजागर करते हैं।
रेणु के उपन्यासों में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श की चर्चा भी प्रमुखता से की जाती है तथा अस्मिता को बचाए रखने के तमाम पहलू एक-एक कर स्पष्ट होने लगते हैं। रेणु के उपन्यासों पर विचार करते हुए, सत्यकाम जी कहते हैं, “रेणु के उपन्यासों में संवेदना और दलित संवेदना की अभिव्यक्ति है।”4 लेकिन रेणु जिस वंचित और शोषित समाज की व्यथा-कथा कह रहे थे, वह कुछ लोगों के लिए परेशानी का सबब बन रही थी। दरअसल,रेणु को अपनी रचनाओं के कारण जिस तेजी से प्रसिद्धि मिली, उतनी ही तेजी से आलोचनाएँ भी पनपने लगीं थीं। समाज में एक तबका ऐसा भी था, जो रेणु को स्वीकार करने में झिझक रहा था, या यूं कहें कि वह अस्वीकार की भावना से ही ओतप्रोत था, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। प्रसिद्धि और आलोचना का यह साहचर्य रेणु और उनकी लेखनी पर सोचने के लिए विवश करता रहा है। प्रस्तुत पुस्तक में जो सबसे महत्त्वपूर्ण और विचारणीय बिंदु दिखाई देता है, वह है- रेणु के रचना कर्म के विविध आयामी स्वरूप पर चिंतन। रेणु के कृतित्व के रेशे-रेशे को समझने की जो बुनियादी जरूरत है, उस पूरी संकल्पना का उचित विन्यास इस पुस्तक में दिखाई देता है। इसी क्रम में विद्या सिन्हा रेणु को अतिक्रमण करने वाला कथाकार स्वीकार करती हुई कहती हैं, “रेणु की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि वे अतिक्रमण करते हैं। वे अतिक्रमण करते हैं विचारों का, धारणाओं का, रूढ़ियों का, परिभाषाओं का। जो एक सेट फ्रेमवर्क है, वे उसमें नहीं रह पाते हैं। उन्होंने जितनी भी विधाओं में लिखा है, उन सारी विधाओं में उन्होंने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया है। उनके ‘उपन्यास’ उपन्यास नहीं लगते हैं, रिपोर्ताज पेंटिंग जैसे लगते हैं, कथाओं में संगीत के राग सुनाई देते हैं। कहीं उनकी रचना चित्रकला लगती है तो कहीं पर उसकी गंध परिभाषित होती है। सब जगह एक अजीब घालमेल है। एक-दूसरे में प्रवेश करती हुई विधाएँ और एक दूसरे में प्रवेश करते हुए विचार दिख जाते हैं। उनसे विचार की ऊर्जा फूटती रहती है। इतना कुछ लेकर के जो व्यक्ति लिख रहा था, उसके बारे में जानना बहुत जरूरी है।”5 रेणु भारतीय ग्रामीण समाज की वो नींव हैं जिस पर अनेकानेक स्तंभ टिके हुए हैं। यही कारण है कि कोई रेणु को जीवन के छंद और स्पंदन का कथाकार स्वीकार करने के पक्ष में है तो कोई उन्हें शब्द और कर्म की एकता का लेखक मानने का पक्षधर है।
इस पुस्तक के आकर्षण का केंद्र यही है कि जब इसकी अनुक्रमणिका पर दृष्टि डालते हैं तो रेणु अंचल विशेष से निकलकर एक अथाह समुद्र की भांति दिखाई देने लगते हैं, जहाँ अनगिनत लहरें हैं और हर लहर अपने एक विचार के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होती है जिसकी ध्वनि बराबर कानों में गूंजती रहती है। रेणु की वैचारिकी पर अपना मत रखते हुए जितेंद्र श्रीवास्तव कहते हैं, “स्वाधीनता के बाद जो हिंदी के क्षेत्र हैं उनके यथार्थ की स्वाभाविक गति को जिस कथाकार ने सबसे पहले पहचाना और बहुत सलीके से उसको प्रस्तुत किया वे रेणु थे। रेणु व्यक्ति मन और सामाजिक मन दोनों को ठीक से पहचानते थे। दोनों का जो छंद है वे उसको ठीक तरह से जानते थे, वे उसको अपनी रचनाओं में रेखांकित करते हैं।”6 रेणु की चिंतनशीलता में व्याप्त यह दुर्लभ संयोग ही उन्हें विशिष्ट बनाता है। यही कारण है कि निर्मल वर्मा रेणु की उपस्थिति को वरदान के रूप में देखते थे और उन्हें उस साधु संत की भांति मानते थे जिनके पास बैठकर असीम प्रसन्नता का एहसास होता है। एक ऐसा संत जो दलदल से कमल को अलग नहीं करता, बल्कि दोनों के बीच रहस्यमय और अनिवार्य रिश्ते को पहचानता है। इसी संदर्भ में रेणु की कहानियों पर चर्चा करते हुए पल्लव कहते हैं, “एक कहानी के अंदर किस तरह से दुनिया आती है और लाई जा सकती है, यह कहानीकार का बड़ा हुनर है। किस तरह से कहानीकार गंधों और स्पर्शों का इस्तेमाल करता है। इस लिहाज से अगर देखा जाए तो रेणु हिंदी कहानी को भी एक बड़ा और नया अर्थ देते हैं, उसका विस्तार करते हैं। अपने पात्रों के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक व्यवहार को देखने-समझने में भी रेणु कम नहीं है। पात्रों के आचरण, व्यक्तित्व और क्रियाओं को वे बहुत बारीकी से देखते हैं।”7
रेणु पर हुए तमाम शोध अक्सर यह यह दावा करते हैं कि रेणु ग्रामीण अंचल में रचे बसे कथाकार हैं लेकिन जैसा कि विद्या सिन्हा कहती हैं कि रेणु अतिक्रमण करने वाले कथाकार हैं तो उनका यह अतिक्रमण ग्रामीण परिवेश की सीमाओं से बाहर निकलकर व्यापक फलक पर जन जीवन की दुरूहता को व्याख्यायित करता है। रेणु की रचनाओं में इसी सामाजिकता के तत्त्व की खोज करते हुए सुविख्यात आलोचक नित्यानंद तिवारी प्रेमचंद और रेणु को सामाजिक परिवर्तन की किसी बड़ी घटना से निकला हुआ कथाकार मानते हैं जहाँ वे साहित्यिक कारणों को अस्वीकार करते हुए कहते हैं, “जब कोई भी युग प्रवर्तक रचनाकार रचना लिखता है तो वह कुछ बदले हुए आकार में, बदले हुए रूपाकार में, बदले हुए विषय में हमारे सामने आता है। उसका जो बदला हुआ रूप है वह किसी सामाजिक या किसी बड़े आंदोलन से निकला हुआ होता है। अगर बड़े आंदोलन से न निकला हो, बड़े सामाजिक घटना के परिवर्तन से न निकला हो तो वह युगांतकारी नहीं हो सकता। केवल साहित्यिक कारणों से कोई रचना बनी हो तो वह बड़ी रचना नहीं हो सकती।”8
रेणु का व्यक्तिगत जीवन राजनीतिक उथल-पुथल में बीता था। वे स्वाधीनता की लड़ाई देखते हुए बड़े हुए थे, कहीं-न-कहीं पारिवारिक वातावरण ने रेणु के अंतर्मन को राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कर दिया था। रेणु का यही राष्ट्रीय प्रेम देश में फैली विषमताओं को अनदेखा नहीं कर सका। यही कारण है कि रेणु जब अपनी लेखनी चलाते हैं, तो उन्हें फूल, शूल, धूल, गुलाब, कीचड़, चंदन, सुंदरता, कुरूपता सब दिखाई देते हैं। रेणु के साहित्य पर विचार करते हुए और उनकी रचनाओं में विषय की व्यापकता को दिखाते हुए धनंजय सिंह कहते हैं, “बेशक रेणु का साहित्य पूर्णिया जिले का है जितना पूर्णिया का है उतना मिथिलांचल का और उतना ही भारत का है। दरअसल रेणु ने अपने उपन्यास और कहानियों में जिस स्थानीयता और यथार्थवाद का चित्रण किया है वह यूरोपीय साहित्य की विशेषता रही है, बल्कि यह कहें कि यूरोप में स्थानीयता और यथार्थवादी लेखन की परंपरा बन चुकी है।”9 जिस समय रेणु साहित्य लेखन कर रहे थे वह स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद का दौर था। उन्होंने अपने लेखन में न सिर्फ राजनीतिक गतिविधियों को केंद्र बनाया, बल्कि प्रेम और आंदोलन भी उनकी लेखनी से उतरा है। प्राकृतिक आपदाओं और उससे उपजे संघर्ष को भी रेणु अपने लेखन में दिखाते हैं। लेखन शैली के इसी वैविध्य को दिखाते हुए डॉ.रविकांत कहते हैं, “रेणु जो इस्तेमाल करते हैं उसमें एक बेमिसाल वैविध्य है। इतनी विविधता बहुत कम लोगों में मिलती है।”10 स्वाधीनता आंदोलन, समाजवादी आंदोलन, नेपाल क्रांति आदि का चित्रण रेणु के लेखन के वैविध्य का ही प्रमाण है। उन्होंने जिसे समाज और साहित्य के लिए उपयोगी समझा उसे सहर्ष स्वीकार किया और जिसे समाज के लिए अनुपयोगी समझा उन तत्त्वों का खुलकर विरोध किया। रेणु के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनका संपूर्ण लेखन गाँव को केंद्र में रखकर लिखा गया, परंतु गाँव की परिधि में संपूर्ण भारत ही दिखाई देता है। रेणु ने अंचल विशेष को महत्त्व दिया, यही कारण है कि उनके यहाँ मगही, भोजपुरी, मैथिली आदि भाषाएँ जीवंत हो उठती हैं। निर्मल वर्मा बड़े सुंदर ढंग से रेणु को याद करते हुए कहते हैं कि कैसा है यह अजीब लेखक जो गरीबी की यातना के भीतर भी इतना रस, संगीत और आनंद भर सकता है। रेणु के इसी सौंदर्यबोधी दृष्टिकोण को गोपेश्वर सिंह इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं, “अपूर्व सौंदर्य को देख लेने की अपनी कलम से बांध लेने की आकांक्षा का नाम रेणु है...रेणु उस लोक संस्कृति के रचनाकार हैं, जहाँ एक पशु भी घर के सदस्य के रूप में गिना जाता है। उस लोक संस्कृति के कथाकार हैं जहाँ का कथानायक हीरामन पैरों की भाषा समझता है और बैलों से बातचीत करता है। ऐसा दृश्य और ऐसी आत्मीयता आपको शायद ही किसी दूसरे कथाकार में मिलेगी।”11 रेणु मानवीय जगत के साथ-साथ गैर मानवीय जगत की संवेदनाओं का भी उत्कृष्ट रूप अपनी रचनाओं में दिखाते हैं। उनकी रचनाएँ संवाद करती हुई नजर आती हैं। रेणु उपन्यास के साथ-साथ अपनी कहानियों, रेखाचित्रों में शिल्प का एक अनूठा प्रयोग करते हैं।
रेणु के जीवन पर मिखाइल शोलोखोव, बंगला के ताराशंकर बंधोपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी और प्रेमचंद का गहरा प्रभाव था। लेकिन साथ ही रेणु ने यह भी स्वीकार किया है कि हर कथाकार को अपना रास्ता स्वयं चुनना चाहिए। अर्थात उसे किसी के अनुकरण से बचना चाहिए। कुछ समय पूर्व समाचार पत्रों में यह खबर चर्चा में थी कि सीतानाथ भादुड़ी जिन्होंने साहित्य जगत को पूर्णिया से परिचित कराया उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनेगी और साहित्यिक योगदान के साथ-साथ आजादी की लड़ाई में भी उनके योगदान को याद किया जाएगा। ताकि युवा वर्ग देश के प्रति उनके समर्पण भाव को आत्मसात कर सके और ग्रामीण जीवन को जितनी बारीकी से उन्होंने अपने साहित्य लेखन में उतारा है उससे परिचित हो सकें। कैसी विडंबना है कि जिस रचनाकार ने अपना संपूर्ण जीवन देश और साहित्य लेखन को समर्पित कर दिया आज उसी जनमानस में विस्मृत हुईं उनकी स्मृति को जागृत करने का प्रयास किया जा रहा है। बहरहाल, ऐसे में अपने प्रिय लेखक और उसके साहित्यिक जनपद को जीवित रखने की एक पहल है- यह पुस्तक,जो बार-बार रेणु और उनके लेखन को समझने और जानने के लिए प्रेरित करती है। इसी साहित्यिक कड़ी में रेणु के उपन्यास मैला आंचल पर विचार करते हुए कृष्ण कुमार सिंह कहते हैं, “मैं समझता हूं कि मैला आंचल हिंदी में क्लासिक उपन्यास का दर्जा हासिल कर चुका है। लेखक ने गाँव की ताजी हवा में अपना फेफड़ा मजबूत किया है और सूरज की आंच में अपने अंगों को सेंका है वही इतनी सशक्त और विश्वसनीय रचना प्रस्तुत कर सकता है।”12 पुस्तक में आगे बढ़ते हुए आप पाएँगे कि मृत्युंजय पांडे गांधी, नेहरू और रेणु को एक साथ याद करते हैं तथा रेणु पर उनके प्रभाव की भी चर्चा करते हैं। रेणु ने जब गांधीजी को देखा था तो अनायास उन्होंने कुछ पंक्तियाँ लिख दी थीं,
चरखा हमार नाती
चरखा के बदौलत, मोरा द्वार झूले हाथी’
एक तरफ, देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए नेहरु विकास के जिस मॉडल पर कार्य कर रहे थे, वह औद्योगीकरण की नीति पर आधारित था। वहीं दूसरी तरफ, गांधी गाँव के विकास से संपूर्ण भारत की तस्वीर को बदलता हुआ देखना चाहते थे। प्रेमचंद पर गांधी के स्पष्ट प्रभाव को स्वीकारते हुए मृत्युंजय पांडे नेहरू और गांधी के प्रभाव की चर्चा करते हुए कहते हैं, “शुरू-शुरू में नेहरू के प्रति रेणु के मन में अगाध आस्था थी। उन्हें लगता था नेहरू गांधी के सपनों को आगे ले जाएँगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैला आंचल में हर जगह रेणु ने गांधी के साथ-साथ जवाहरलाल नेहरू को भी याद किया है। लेकिन धीरे-धीरे नेहरू जी से उनका मोहभंग हो जाता है और अब उन्हें गांधी याद आते हैं। जो पहने, सो काते ,जो काते, सो पहने अर्थात रेणु चाहते थे कि गाँव का विकास हो इसीलिए मेरीगंज जैसे देहात में चरखा सेंटर खुल जाते हैं।”13 रेणु की बदलती वैचारिकी पर रवि भूषण भी विचार करते हैं और रेणु के समय और समाज की चर्चा करते हुए विभिन्न परिस्थितियों से अवगत कराते हुए कहते हैं, “रेणु का महत्त्व मेरी दृष्टि में सबसे अधिक इसलिए है क्योंकि जवाहरलाल नेहरू ने स्वाधीन भारत में ब्रिटिश भारत की संरचना में कोई बदलाव नहीं किया था। रेणु ने उसका विरोध किया था। प्रेमचंद और उनके बाद से चली आती हुई जो उपन्यास की संरचना थी उस उपन्यास की संरचना को उन्होंने बदल दिया। यह अपने आप में क्रांतिकारी कदम है...रेणु की राजनीति बदल रही थी।”14 प्रस्तुत पुस्तक रेणु के सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक जीवन का पर्यवेक्षण करती हुई नजर आती है।
पुस्तक में सम्मिलित सभी लेख रेणु की वैचारिकी पर गंभीरता से विचार करते हुए नजर आते हैं, साथ ही रेणु के जीवन में प्रेम की महत्ता को उद्घाटित करते हुए कई संस्मरणों को भी संजोया गया है। पुस्तक में प्रमुख विचारक जैसे प्रेम कुमार मणि, ज्योतिष जोशी, आनंद कुमार, आर.एस.सर्राजु, निरंजन सहाय, जे.आत्माराम, किशन कालजयी, चितरंजन मिश्र, चंदन कुमार, सत्यकाम, नंद किशोर पांडे और श्यामराव राठोड़ आदि ने रेणु के कथा साहित्य से लेकर कथेतर गद्य पर प्रकाश डाला है। किशन कालजयी साक्षात्कार और पत्रों के माध्यम से रेणु के लेखकीय व्यक्तित्व पर विचार करते हैं। एक ओर प्रो.चंदन कुमार रेणु को ‘देशज प्रज्ञा का प्रतिनिधि रचनाकार मानते हैं’ तो प्रो. सत्यकाम ‘भारतीय आत्मा का कथाकार।’ वहीं रेणु के महत्त्व को उद्घाटित करते हुए प्रो. आर.एस. सर्राजु कहते हैं कि एक नया फ्रेमवर्क बन गया है और उसमें रेणु और प्रेमचंद को भारतीयता के संदर्भ में देखना शुरू हो गया है। दरअसल, रेणु को नए फ्रेमवर्क में देखना वास्तव में वर्तमान समय में रेणु की प्रासंगिकता को ही दर्शाता है। इस दृष्टि से नंद किशोर पांडे जी का यह मत विचारणीय है, “रेणु के पास ऐसी देशी शब्दावली है जिसे रेणु ने स्वत: ही कमाया था।”15 देशज भाषा पर ऐसा अधिकार रचनाकार की उस अखंड साधना का ही परिणाम है जिसे उसने जनमानस के अंतर्मन को छू कर पाया है।
पुस्तक के अन्य लेखों में रेणु को केंद्र में रखते हुए आदिवासी आंदोलन, उपन्यास की परंपरा आदि विषयों पर भी चिंतन-मनन किया गया है। कुल मिलाकर यह पुस्तक रेणु के व्यक्तित्व और उनके रचनाकर्म का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। पुस्तक में साहित्य अध्येताओं का आलोचनात्मक विवेक और उनकी तर्कशीलता का उन्मेष दिखाई देता है। जब वैश्विक महामारी से पूरी दुनिया परेशान थी उस विषम परिस्थिति में भी अपने प्रिय रचनाकार को आभासी मंच से साहित्य प्रेमियों ने न सिर्फ याद किया, बल्कि पूरी गंभीरता से अपनी उस जिम्मेदारी का निर्वहन भी किया, जिसकी मांग एक बुद्धिजीवी और साहित्य प्रेमी से होती है। वास्तव में रेणु जन्मशताब्दी के अवसर पर आभासी मंच पर हुए इस कार्यक्रम को पुस्तकाकार रूप देकर लेखक ने पाठकों को एक उपहार भेंट किया है।
सन्दर्भ :1. गजेन्द्र पाठक (संपा.) : रेणु का जनपद अंतिका प्रकाशन, दिल्ली,
2021, भूमिका से2. वही,
भूमिका से3. वही,
पृ. 204. वही,
पृ. 255. वही,
पृ. 39 6. वही,
पृ. 477. वही,
पृ. 638. वही,
पृ. 579. वही,
पृ. 7810. वही,
पृ. 6911. वही,
पृ. 8512. वही,
पृ. 8513. वही,
पृ. 9814. वही,
पृ. 10615. वही,
पृ. 16
समीक्षक - डॉ. भावनासहायक अध्यापक (अतिथि), हिंदी विभाग, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद bhawnakaushik9911@gmail.com, 9911554579
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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