यात्रा-साहित्य
की सैद्धांतिकी और अज्ञेय का चिंतन
- बृजेश कुमार यादव
शोध सार : अज्ञेय
हिंदी के एक महत्त्वपूर्ण साहित्यकार हैं। उनका लेखन कथ्य और शिल्प की दृष्टि से
वैविध्यपूर्ण रहा है । अज्ञेय ने हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास,निबंध, संस्मरण,
डायरी, रिपोर्ताज़ और यात्रा साहित्य जैसी विधाओं में उत्कृष्ट लेखन कार्य किया है। उनका लेखन कार्य परिपाटी से हटकर रहा है। यही कारण है कि उन्हें विभिन्न तरह के विशेषणों(प्रयोगवादी,
यायावर, नयी राहों का अन्वेषी आदि) से नवाजा जाता रहा है। अज्ञेय ने हिंदी साहित्य
में जिन भी विधाओं में लेखन कार्य किया, उसमें हमेशा कुछ नया करने का उनका प्रयास रहा
है। कविता में वर्षों से चले आ रहे पारंपरिक उपमानों के प्रयोग को नकार दिया और यह
बताया कि ये उपमान मैले व पुराने पड़ चुके हैं। अब हमें नये उपमान, प्रतीकों की खोज
करनी होगी। वैसे ही उपन्यास और कहानी में कथ्य और शिल्प को लेकर उनका प्रयोग दिखता
है। साहित्य की नयी विधाओं में भी उन्होंने लेखनी की है और अप्रत्याशित सफलता
प्राप्त की, इसका उन्हें अनुमान भी न था। उनका यात्रा-साहित्य लेखन एक ऐसा ही कार्य
है। इसमें उन्होंने न सिर्फ़ एक नयी परिपाटी विकसित की बल्कि यात्रा-साहित्य के
सैद्धांतिक पक्षों और उद्देश्यों पर भी विचार अभिव्यक्त किया। इस शोध आलेख के
केंद्र में उन्हीं विचारों पर विचार किया गया है।
बीज शब्द : यात्रा-साहित्य,
आधुनिक, विधा, यात्रा-वृत्तान्त, प्रयोगवाद, परंपरा, साहित्यालोचक, सिद्धांत, गद्य
विधा, कथेतर, संस्मरण, घुमक्कड़, शिल्प इत्यादि।
मूल आलेख : हीरानंद सच्चिदानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
हिंदी साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण साहित्यकार हैं। उनका साहित्यिक व्यक्तित्व
बहुआयामी है। अज्ञेय ने एक साथ साहित्य की कई विधाओं में लेखन कार्य किया। साहित्य
की जिन भी विधाओं में उन्होंने लिखा, उसमें अपनी अलग पहचान बनाई। वे लकीर के फ़क़ीर
नहीं बने, यही कारण है कि उनको
हम लीक पीटते हुए नहीं पाते। वे जितने सफल कवि हैं, उतने ही गंभीर उपन्यासकार। वह
जितने सुचिंतित-गंभीर निबंधकार-विचारक
हैं, उतने ही कुशल यात्रा–वृत्तान्तकार। वे जितने सफल और संवेदनशील कहानीकार हैं, उतने
ही दक्ष संस्मरणकार भी हैं। यानी उन्होंने जिस भी विधा में लेखन किया, वह हिंदी
साहित्य में प्रतिमान साबित हुआ। अज्ञेय का रचना संसार बहुआयामी था। उन्हें किसी
एक विधा के श्रेष्ठ साहित्यकार और दूसरी विधा के कमजोर रचनाकार के रूप में नहीं देखा
जा सकता! साहित्य में कथ्य और शिल्प के प्रयोग को लेकर अज्ञेय का प्रयोग भले
साहित्यालोचकों में विवाद का विषय रहा हो, लेकिन साहित्य के पारंपरिक ‘ढर्रे’ को
उन्होंने अस्वीकार किया तथा साहित्य की प्रचलित सभी नयी-पुरानी विधाओं में अपने
लिए नयी राह बनाई। अपने इन्हीं नये-नये साहित्यिक प्रयोगों के लिए उन्हें हिंदी
साहित्य में ‘प्रयोगवादी साहित्यकार’, ‘नयी राहों का अन्वेषी’, ‘यायावर’ जैसे
विशेषणों से अभिहित किया गया। उनका एक रूप घुमक्कड़ का भी है। यही वजह है कि उनके
पात्र, चाहे वह कहानी के हों, या उपन्यास के, सब घुमक्कड़ प्रवृत्ति के हैं। उनका
घुमक्कड़ी में मन रमता था।
एक यात्री और यात्रा-वृत्तान्तकार के
रूप में अज्ञेय का महत्त्व उल्लेखनीय है। उनके साहित्य लेखन में यात्राओं की
महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वह जब कभी किसी कारणवश यात्रा पर नहीं निकल पाते हैं तो
भी किसी न किसी यात्रा की योजना बना रहे होते हैं। उनको चैन नहीं – स्थायित्व नहीं!
इस सम्बन्ध में वह लिखते हैं, “होनहार बिरवान के होत चीकने पात” मैं कुछ होनहार
बिरवान तो नहीं था, पर नक्शों के बगदादी कालीन पर बैठकर हवाई यात्रा करने की इस
आदत से यह तो पता लग ही सकता था कि आगे चल कर भी कहीं टिक कर नहीं बैठूंगा। बात भी
ऐसी है, लगतार कुछ दिन भी एक जगह रहता हूँ तो कुछ अपनी इच्छा से नहीं, लाचारी से;
और उस लाचारी में बहुत से नक़्शे जुटाकर फिर अपने लिए हीला निकाल ही लेता हूँ। और
आप सच मानिए, जीने की कला सबसे पहले एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की कला है–
कम से कम आधुनिक काल में, जब मानव-जाति का इतना बड़ा अंश या तो प्रवासी है, या
शरणार्थी है, एक स्थान से दूसरे स्थान, एक पेशे से दूसरे पेशे में; एक घर से दूसरे
घर इत्यादि!”1 अज्ञेय ने मनुष्य जीवन, सभ्यता के विकास और प्रगति का जो
सम्बन्ध यहाँ ‘एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा को’ दिया है, वह ठीक ही है। क्योंकि
पूरी सभ्यता के विकास केंद्र में एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा रही है!
अज्ञेय ने यात्रा के दो तरीक़े बताये
हैं। सामान्यतया देखा यह गया है कि अधिकतर यात्री भी इन दोनों तरीकों का प्रयोग करते
हैं। एक तरीका तो पूरा व्यवस्थित यात्रा का है, जिसमें “आप यह सोच-विचार कर निश्चय
कर लें कि कहाँ जाना है, कब जाना है, कहाँ-कहाँ घूमना है, कितना ख़र्च होगा, फिर
उसी के अनुसार छुट्टी लीजिये, टिकट कटवाइए, सीट या बर्थ बुक कीजिये, होटल
डाक-बंगले को सूचना देकर रिजर्व कराइए या भावी अतिथियों को ख़बर दीजिये- और तब चल पड़िए।
बल्कि तरीका तो यही एक है– क्योंकि यह व्यवस्थित तरीका है और इसमें मज़ा बिलकुल
नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बहुत से लोग ऐसे यात्रा करते हैं और बड़े
उत्साह से भरे वापस आते हैं|”2 पर्यटन के लिए यह तरीका सबसे सुरक्षित
तरीका है । सामान्यतया मध्यवर्ग और परिवार के साथ यात्रा करने वाले यात्री इसी
तरीके को प्रयोग में लाते हैं|
अज्ञेय के अनुसार यात्रा पर जाने का
दूसरा तरीका है, “आप इरादा तो कीजिये कहीं और जाने का, छुट्टी भी लीजिये, इरादा और
पूरी योजना भी चाहे घोषित कर दीजिये, पर ऐन मौके पर चल दीजिये कहीं और को। जैसे
घोषित कर दीजिये कि आप बड़े दिनों की छुट्टियों में मुम्बई जा रहे हैं, लोगों को
ईर्ष्या से कहने दीजिये कि अमुक मुम्बई का सीजन देखने जा रहा है, मगर चुपके से पैक
कर लीजिये जबरदस्त गर्म कपड़े और जा निकलिए बर्फ़ से ढँके श्रीनगर में!”3 अज्ञेय
दूसरे तरीके के हिमायती हैं। राहुल सांकृत्यायन भी कुछ इसी तरह की यात्रा के
पक्षधर हैं। इन लोगों के अनुसार लोगों को बताया मुम्बई जा रहे और निकल गए नैनीताल!
नैनीताल के भीतरी प्रदेशों की यात्रा प्रारंभ की और जा निकले- शिलांग! अज्ञेय का
घूमने का यही तरीका है।
ऐसा अकसर कहा और सुना जाता है कि इस
संसार में स्थायी कुछ भी नहीं है। सब गतिशील और परिवर्तनशील है। बुद्ध ने भी कहा
है कि ‘करतल भिक्षा तरुतलवास!’ यानी जैसे नदी का पानी तालाब में ठहरता है वैसे ही
सड़ने लगता है; तो जीवन चलने यानी गति में ही है। अज्ञेय भी इसके हिमायती हैं,उनके
अनुसार जीवन का अर्थ चलते रहना है। स्थिर हुए कि जड़ बनते देर
नहीं लगेगी। उनका मानना है, “देवता भी जहाँ मंदिर में रुके कि शिला हो गए, और
प्राण-संचार के लिए पहली शर्त है गति, गति, गति!”4
अज्ञेय की यात्राएँ
बाह्य स्थलों की स्थूल दर्शन मात्र नहीं हैं। वह जितनी स्थूल थीं उतनी ही आंतरिक
भी। उनका मन यात्राओं की उड़ान भरता रहता था। बचपन से मानचित्र देखने और दुनिया
घूमने की उड़ान मन में बना रखी थी। इस सम्बन्ध में लिखते हैं “वास्तव में जितनी
यात्रायें स्थूल पैरों से करता हूँ, उससे ज्यादा कल्पना के चरणों से करता हूँ। लोग
कहते हैं कि मैंने अपने जीवन का कुछ नहीं बनाया, मगर मैं बहुत प्रसन्न हूँ, और
किसी से ईर्ष्या नहीं करता। आप भी इतने खुश हों तो ठीक- तो शायद आप पहले से मेरा
नुस्खा जानते हैं– नहीं तो मेरी आपको सलाह है, “जनाब, अपना बोरिया-बिस्तर समेटिये
और जरा चलते-फिरते नज़र आइये|” यह आपका अपमान नहीं है, एक जीवन दर्शन का निचोड़ है। ‘रमता
राम’ इसीलिए कहते हैं कि जो रमता नहीं, वह राम नहीं। टिकना तो मौत है|”5
अज्ञेय के लिए भौतिक संसाधनों को जुटाना और उनका भोग करना मात्र जीवन नहीं है। जीवन
दुनिया घूमने उसको जानने और समझने का नाम है।
हिंदी साहित्य में अज्ञेय की पहचान
एक कुशल यात्रा-वृत्तांतकार की है। उन्होंने अपने यात्रावृत्त ‘अरे यायावर रहेगा याद’
(1956) में स्वयं को ‘यायावर’ कहा है। जैसा कि हम जानते हैं हिंदी साहित्य में
अज्ञेय को ‘राहों का अन्वेषी’ और ‘यायावर’ भी कहा जाता है। ये विशेषण उनकी घुमक्कड़-मनोवृत्ति
को देखते हुए ठीक ही जान पड़ते हैं। यात्रा साहित्य उनके साहित्य संसार का
महत्त्वपूर्ण पड़ाव है लेकिन हम पाते हैं कि साहित्य जगत में उनके इस व्यक्तित्व व
कृतित्त्व की उपेक्षा ही की गयी है! लोग अकसर यात्रा साहित्य पर बातचीत के सिलसिले
में अज्ञेय का नाम तो लेते हैं लेकिन वह कभी उनके यात्रा सम्बन्धी विचारों, जो
यात्रा साहित्य की सैद्धांतिकी की निर्मिती में बड़े ही महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते
हैं और हुए हैं, को नज़रंदाज कर आगे बढ़ जाते हैं।
अज्ञेय के दो महत्त्वपूर्ण
यात्रा–वृत्तान्त हैं– एक, ‘अरे यायावर रहेगा याद’ (1956) और दूसरा, ‘एक बूँद सहसा
उछली’(1964)। अज्ञेय के ये दोनों यात्रा–वृत्तान्त हिंदी में लिखित आरंभिक
यात्रा–साहित्य की बुनियाद को न सिर्फ मजबूत आधार प्रदान करते हैं बल्कि उस विधा
की साहित्यिक गंभीरता, उसके महत्त्व और सैद्धांतिकी को भी निर्मित करने में मजबूत
आधार प्रदान करते हैं। हिंदी में यात्रा-साहित्य को प्रारंभ में गंभीर या
महत्त्वपूर्ण साहित्य की कोटि में नहीं रखा गया। इस नवीन विधा की उपेक्षा होती रही!
इसका एक उदहारण अज्ञेय स्वयं हैं। अज्ञेय का जब पहला यात्रा–वृत्तान्त ‘अरे!
यायावर रहेगा याद?’(1956) में प्रकाशित हुआ, तो लेखक को उसकी भूमिका तक लिखना
गवारा नहीं लगा! इसलिए हम पाते हैं कि ‘अरे! यायावर रहेगा याद’ का पहला संस्करण
बगैर भूमिका के ही प्रकाशित हुआ। लेकिन, इस यात्रा–वृत्तान्त को पाठकों ने हाथों-हाथ
लिया। यह वृत्तान्त इतना लोकप्रिय हुआ कि अज्ञेय को सुखद आश्चर्य में डाल दिया। सर्वथा
नयी विधा की पुस्तक पर मिली पाठकीय प्रतिक्रिया ने लेखक को विचार करने पर मजबूर
किया, साथ ही उत्साहित भी किया। उत्साहित अज्ञेय को अपने यात्रा–वृत्तान्त के
दूसरे संस्करण की भूमिका लिखनी पड़ी! यह भूमिका अज्ञेय के यायावरी व्यक्तित्व,
उनके यात्रा-वृत्तान्त की रचना-प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण
है ही, उतनी ही यात्रा-साहित्य को समझने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। इस भूमिका में
वे बताते हैं कि इस तरह की साहित्यिक कृतियाँ न सिर्फ लेखक द्वारा की गयी यात्राओं
का स्थूल विवरण हैं बल्कि यह लेखक की आंतरिक यात्रा भी रही है। इस तरह की कृति का
उपयोग पाठक ‘टूरिस्ट गाइड’ के तौर पर न याद कर, बल्कि इस तरह की पुस्तकें साहित्यिक-
सांस्कृतिक दृष्टिकोण के विस्तारक के रूप में याद की जायेंगी, यही इस तरह के
पुस्तकों की सार्थकता भी है- “स्पष्ट है कि ‘अरे! यायावर रहेगा याद’ जैसी पुस्तकों
को उनसे मिलने वाली भौगोलिक अथवा प्रादेशिक जानकारी के लिए नहीं पढ़ा जायेगा। ऐसे
यात्रा-संस्मरण ‘टूरिस्ट गाइड’ का स्थान लेने के लिए नहीं लिखे-पढ़े जाते। ऐसी
पुस्तकों में प्रस्तुत व्यौरा एक व्यक्ति की यात्रा का व्यौरा होता है, वह यात्रा
जितनी बाहरी होती है उतनी भीतरी भी। यात्रा का विवरण जितना स्थूल-भू विस्तार से
सम्बद्ध होता है उतना ही सूक्ष्म मानसिक भूगोल से भी। टूरिस्ट गाइड के सहारे अनेक
व्यक्ति एक ही यात्रा कर सकते हैं, यात्रा-संस्मरण के सहारे की गयी प्रत्येक
पाठकीय यात्रा भी उतनी ही विशिष्ट होती है जितनी लेखक की यात्रा रही। और प्रत्येक
के लिए संस्मरण लेखक के मानस में प्रवेश करना आवश्यक होता है। यही इस तरह के
यात्रा-संस्मरणों की रोचकता का आधार हो सकता है|”6 अर्थात् यात्रा
सिर्फ मन बहलाव की चीज़ नहीं है। वह यात्री के मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ जाती है। वह
व्यक्ति के मानसिक संकुचन का निषेध करती है और एक व्यापक दृष्टि का निर्माण करती
है। यानी कि व्यक्ति की संकुचित मानसिकता का विस्तार करना और उसे एक वैश्विक मानव
बनाना, वैश्विक दृष्टि का निर्माण करना यात्रा का एक उद्देश्य हो सकता है!
जिस अज्ञेय नेअपने यात्रा-संस्मरणको
बिना भूमिका के ही प्रकाशित कराया था उसी अज्ञेय को अपने यात्रा-संस्मरण के दूसरे
संस्करण में न सिर्फ भूमिका लिखनी पड़ी थी बल्कि यह लिखकर अपना हर्ष व्यक्त किया कि
उनकी इस पुस्तक की मांग और यह पुस्तक पाठकों के सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास
करने में विशेष रूप से मददगार साबित हो, ऐसी अपेक्षा है। अज्ञेय की अपेक्षाएं इसी
किताब के पांचवें संस्करण तक आते-आते लेखक की ‘अपार ख़ुशी’ में अभिव्यक्त होती हैं!
उल्लासित अज्ञेय लिखते हैं कि “अरे यायावर रहेगा याद’’ की बढ़ती हुई लोकप्रियता यदि
इस बात का संकेत है कि पाठकों में अपने देश को एक समग्र इकाई के रूप में पहचानने
की उत्सुकता बढ़ रही है तो वह मेरे लिए विशेष सुखद बात है। भ्रमण या देशाटन केवल दृश्य-परिवर्तन
या मनोरंजन न होकर सांस्कृतिक दृष्टि के विकास में भी योग दे, यही उसकी वास्तविक
सफलता होती है। अपने यात्रा संस्मरणों में मेरा यह प्रयत्न रहा है कि उन यात्राओं
के मेरी होने की बात उन्हें तात्कालिक अनुभव की प्रमाणिकता और टटकापन देने के लिए
सामने आये; नहीं तो वे वृत्तान्त एक समग्र दृष्टि को उभारने में ही योग दें जिससे
भविष्यत् यात्री अपने-अपने अनुभव को और समृद्ध बना सकें|”7
अज्ञेय यात्रियों और अपने पाठकों को आगाह
करने के अंदाज़ में यह संकेत देते हैं कि यात्रा-साहित्य की एक विशेषता सूचनात्मकता
हो सकती है लेकिन सिर्फ यात्री अपने यात्रा-वृत्तान्त में सूचनाओं तक केन्द्रित न
रखे। नहीं तो वह पुस्तक यात्रियों के लिए मात्र टूरिस्ट गाइड का कार्य करेगी। पाठकों
को भी ऐसी रचनाओं से बचना चाहिए। अज्ञेय ने अपनी यूरोप यात्रा अनुभव को ‘एक बूँद
सहसा उछली’ में दर्ज किया है। उन्होंने1960 के दशक में यूरोप की यात्रा की थी। उस
समय यूरोप भारतीय और एशिया महाद्वीप के लिए एक रहस्य की चीज़ बना हुआ था। उसको
जानना-समझना एक चुनौती थी। तत्कालीन समय में यूरोपीय वस्तुओं, विशेषकर टेक्नोलॉजी सम्बंधित,
का क्रेज था। लोग यह जानने के लिए किस शहर में कौन सी वस्तु सस्ती मिलेगी, इस
उद्देश्य से यूरोपीय यात्रियों के यात्रा-वृत्तान्त पढ़ते थे या पढ़ना चाहते थे। अज्ञेय
ऐसे लोगों को निराश करते हैं। वे अपनी पुस्तक ‘एक बूँद सहसा उछली’ मेंउसके बारे
में लिखते हैं, “यह पुस्तक मार्गदर्शिका नहीं है। इसके सहारे यूरोप की यात्रा करने
वाला यह जान लेना चाहे कि कैसे वह कहाँ से कहाँ जा सकेगा, या कैसे मौसम के लिए
कैसे कपड़े उसे ले जाने होंगे, या कि कहाँ कितने में उसका खर्चा चल सकेगा, तो उसे
निराशा होगी। जो यह जानना चाहते हों कि कहाँ से नायलान की साड़ियाँ या कैमरे, या
घड़ियाँ या सेंट, या ऐसी दूसरी चीजें जो कि भारतवासी विदेशों से उन कला वस्तुओं के
एवज में लाते हैं जो कि विदेशी यहाँ से ले जाते हैं– कहाँ से किफ़ायत में मिल
जायेगी, उनके भी काम की यह पुस्तक नहीं होगी|”8
अज्ञेय यात्रा-साहित्य के पाठकों से
उदार, संवेदनशील, अनुभव के प्रति खुला और जीवन से प्रेम करने की अपेक्षा करते हैं।
इसके बिना यात्रा-साहित्य का उद्देश्य ही पूरा न होगा, चाहे वह यात्री हो
यात्रा-साहित्य का पाठक। उनकी अपेक्षा है कि ‘पाठक संवेदनशील हो। क्योंकि बिना
इसके वह उसे नहीं अपना सकता जो मेरी संवेदना ने ग्रहण किया। जो स्वयं संवेदनशील
नहीं है वह यह नहीं पहचानता कि सबकी संवेदना अलग-अलग होती है– उसके निकट संवेदना
का भी एक बना-बनाया ढाँचा होता है। वह किसी अनुभव को तत्त्वत ग्रहण ही नहीं कर
सकता, केवल उसके टुकड़े करके अलग-अलग खाँचों में रख सकता है |’
अज्ञेय अपने यात्रा–वृत्तांत लेखन को
साहित्य में कोई अभिनव प्रयोग या नया प्रयास नहीं मानते। बल्कि वह पुराने रूप में
कुछ नया जोड़ने की कोशिश करते हैं। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं, “यात्रा-संस्मरणों में वृत्तान्त
प्रस्तुत करने का यह ढंग नया भी है और बहुत पुराना भी। पाठक के लिए भी यहाँ नयापन
और पुरानापन दोनों होंगे और स्वयं मेरे लिए भी हैं– पुरानेपन में भी नयापन इस
दृष्टि से है कि तीर्थयात्री की धर्म-भावना का स्थान मिथक के अन्वेषी की विस्मय
भावना ले लेती है। पाठक इसे अद्यतन पूर्वाग्रह का आरोप न मानें तो कहूं कि आज मैं
आराम-कुर्सी में बैठे-बैठे इन पुरानी यात्राओं को नयी कर ले सकता हूँ– ये पुरानी
यात्राएँ मिथक के सहारे दोहराई जाकर भूगोल के आयाम में ही नहीं, इतिहास के आयाम
में भी अग्रसरण कराती हैं– देश को ही नहीं नापतीं, काल को भी नापती चलती हैं|”9
अज्ञेय यायावरी को मानव जाति के विकास के साथ-साथ विकसित
होती सभ्यता और संस्कृति के साथ जोड़कर
देखते हैं। उनका मानना है कि अग्नि के बाद ‘चक्र’ का विकास हुआ और यह चक्र मानव विकास की आधारशिला बना। एक
टायर की राम कहानी को मानव सभ्यता के विकास में उसकी भूमिका को रेखांकित करते हुए वह
लिखते हैं, “स्वयं सुन्दर न होकर भी मैं संसार के अखिल सौन्दर्य की नींव हूँ, क्योंकि
मैं संस्कृति की नींव हूँ। संस्कृति और सभ्यता के विकास में अग्नि के अवतरण के बाद
जो दूसरी पीढ़ी मानव प्राणी चढ़ा, वह मैं हूँ; या यों कह लीजिए कि देवताओं के
समुद्र-मंथन से जैसे सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि अग्नि की हुई, उसी प्रकार मनरूपी-महासागर
के मंथन से जो श्रेष्ठ नवनीत प्राप्त हुआ, वह है चक्राकार की उद्भावना...|”10 जैसा कि हम जानते हैं आग और पहिये के
आविष्कार ने मानव सभ्यता के विकास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उसका
जीवन सुरक्षित, सरल और सुचारू होता गया।
अपने यात्रा-वृत्तान्त में वह जैसे अपने यात्रा की कहानी
टायर की जुबानी कहते हैं ठीक वैसे ही वह अपने यात्रानुभव को अपने पाठकों को भी
कराना चाहते हैं। वे आगे लिखते हैं, “अपने अनुभव को दूसरे के– अपने मालिक के–
इतिवृत्त के रूप में कहना ही तो मर्यादा-संगत है; वैष्णव भक्त जैसे राधा और कृष्ण
के जीवन में अपने राग-विराग ढाल देते थे, मैं अपने प्रतीक-पुरुष को ही आधार बनाता
हूँ|”11
अज्ञेय यायावरी से अघाने वाले यात्री नहीं हैं। उन्हें इस बात
का आभास है कि जीवन गतिशील है। वह तभी तक है जब तक चल रहा है। ठहराव तो मुर्दा
होने की निशानी है। उनकी दृष्टि में चलना-घूमना-फिरना ही जीवन है। कहीं रुके, स्थायी
हुए कि जड़ होते देर न लगेगी। जीवन और व्यक्तित्त्व का विकास ठहर जाएगा, इसलिए
उन्होंने यायावरी को प्राथमिकता दी। भले उसके लिए उनको कुछ मोल चुकाना पड़ा हो। वह
लिखते हैं, “यायावर को भटकते चालीस बरस हो चले, किन्तु इस बीच न तो वह ‘अपने पैरों
तले घास (यामॉस!) जमने दे सका है’ न कुछ ठाठ जमा सका है, न क्षितिज को कुछ निकट ला
सका है– उसके तारे छूने की तो बात ही क्या! कितने स्थल उसने देखे जहाँ बैठकर
ऋषियों ने देहों पर वल्मीक उगा लिए, जहाँ मुनि तपस्या करते-करते पाषाण हो गए, जहाँ देवता जमकर
पर्वत-शृंग बन गए, जहाँ मानवों ने ऐतिहासिक कक्षाओं-वासनाओं से मुक्ति पाई– किन्तु
यायावर ने समझा है कि देवता भी जहाँ मंदिर में रुके कि शिला हो गए, और प्राण संचार
के लिए पहली शर्त है गति, गति, गति!”12 अज्ञेयने अपने यात्रानुभावों से
यह सीख ग्रहण की कि जीवन का दूसरा नाम है ‘गति’। रुके, स्थाई हुए कि शिला होते विलम्ब
नहीं होगा। यही हजारों वर्षों का इतिहास सिखाता है|
अज्ञेय जैसे यायावर को यह ज्ञात है कि उसे अपना रास्ता
स्वयं बनाना है। उसे पारंपरिक तैयार रास्ते पर नहीं चलाना है। इसीलिए अज्ञेय को
राहों का ‘अन्वेषी’ भी कहा जाता है। वह उस चीनी कहावत को नहीं भूलते जिसमें कहा
गया है, ‘मैं क्यों चाहूँ कि मेरी अस्थियाँ भी मेरे पुरखों की अस्थियों के साथ एक
सुरक्षित समाधि-स्तूप में दबी रहें? जहाँ भी कोई चला जाए, वहीं कोई हरी-भरी पहाड़ी
मिल जाएगी|’ अज्ञेय इसी मायने में अपने समकालीनों से भिन्न हैं|
घुमक्कड़ी का का एक अघोषित नियम है। वह यह कि जहाँ भी भ्रमण
पर जाइए वहां सब कुछ नहीं घूम-देख लेना चाहिए। कुछ न कुछ महत्त्वपूर्ण चीज़ अवश्य
ही यात्री को छोड़ देनी चाहिए; ताकि उसके बहाने उसे उस स्थान पर पुनः आने का अवसर
मिले। यह बात लगभग सभी यात्रियों ने स्वीकार की है। अज्ञेय भी इस विचार के पक्षधर
जान पड़ते हैं। तभी तो वे उन स्थानों से वापस होते समय मुड़कर पीछे देखते हुए सोचते
हैं कि ‘देखो कब दुबारा आने का अवसर बनता है!’ इस मनःस्थिति में बहुत बार वह परिवेश से संवाद की मुद्रा में आ जाते हैं और वह
संवाद एक कविता के रूप में अभिव्यक्त होता है, “पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में/
डगर चढ़ती उमंगों-सी/ बिछी पैरों में नदी, ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों
में/ मैंने आँख-भर देखा। दिया मन को दिलासा : पुनः आऊँगा/ भले ही बरस दिन-अनगिन
युगों के बाद! क्षितिज ने पलक-सी खोली/ तमक कर दामिनी बोली : ‘अरे, यायावर रहेगा याद’
1) अरे यायावर रहेगा याद, अज्ञेय, राजकमल प्रकाशन, पृ.162
2) वहीं, पृ. 162
3) वहीं, पृ. 162
4) वहीं, पृ. 16
5) वहीं, पृ. 165
6) वहीं, पृ.10
7) वहीं, पृ.7
8) एक बूँद सहसा उछली, अज्ञेय, प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ, पृ.7
9) अरे यायावर रहेगा याद, अज्ञेय, राजकमल प्रकाशन, पृ.11
10) वहीं, पृ.15
11) वहीं, पृ.15
12) वहीं, पृ.16
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
यात्रा विधा को अज्ञेय ने कैसे देखा इसको समझने की अच्छी कोशिश की गई है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा लेख। इसमें प्रेरणा की गुंजाइश है। बहुत बहुत आभार।🙏
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