लीलाधर मंडलोई
का काव्य संसार : बाज़ारवाद और पर्यावरणीय चेतना
- विकास कुमार यादव
शोध-सार : लीलाधर मंडलोई के काव्य संसार के विश्लेषण और विवेचन के आधार पर
यह कहा जा सकता है कि उनके काव्य संसार में भरपूर मात्रा में बाजारवाद का विरोध और
पर्यावरणीय चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। कवि मंडलोई विकास और पर्यावरण को विरोधी
नहीं बल्कि पूरक मानते हैं। लीलाधर मंडलोई विज्ञान को पारिस्थितिकी विज्ञान की ओर
मोड़ने की वकालत करते हैं। उनकी कविताएँ प्रकृति चित्रण से प्रकृत नियोजन की बात
करती हैं। वे पर्यावरणीय सुरक्षा के नवजागरण में लोगों का आह्वान करके पर्यावरणीय
लोकतंत्र को मजबूत करने का काम कर रही हैं। अतः एक तरह से वे लोकतंत्र को ही मजबूत
बना रही हैं। आज बाजारवाद विकास के नाम पर बहुत सारे ऐसे कार्य करे जा रहा है जिससे
कि प्राकृतिक पर्यावरण को बहुत क्षति पहुंच रही है। मंडलोई जी की कविताएँ इस समस्या
से निपटने के लिए ‘सामूहिक प्रयास और सतत विकास’ की पहल करती हैं।
बीज शब्द :
समकालीन हिंदी कविता, भूमंडलीकरण,
बाज़ारवाद, वृद्धि, सतत विकास पर्यावरण, पारिस्थितिकी, जैव-विविधता।
मूल आलेख : बाज़ार
वस्तुओं के क्रय-विक्रय का स्थल है किंतु बाज़ारवाद एक मुनाफा केंद्रित विचारधारा
है। यह हर वस्तु, व्यक्ति और विचार को बिकाऊ बना देना चाहता है। इसमें जीवन से
संबंधित हर चीज का मूल्यांकन व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से किया जाता है। आज
बाज़ारवाद की नीति के चलते विकास के नाम पर विनाश की पटकथा लिखी जा रही है। भूमंडलीकरण
के नकाब में बाज़ारवाद भौतिक संसाधनों को हड़पने के लिए पश्चिम की एक कुटिल नीति
है। आज भौतिक ही नहीं जैविक घटक भी इसकी जद में है। इसकी गिद्ध दृष्टि के चलते
सृष्टि का पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है। परिणामस्वरूप पारिस्थितिक तंत्र
प्रभावित हो रहा है, जिसके कारण जैव-विविधता खतरे में है। जंतुओं और वनस्पतियों की
अनेक प्रजातियां विलुप्त हो गई है तो कुछ विलुप्त होने की कगार पर है। जबकि ‘‘जैव
विविधता पृथ्वी पर सभी जीवन का आधार है। प्रजातियों के बिना सांस लेने के लिए हवा
नहीं होगी, खाने के लिए भोजन नहीं होगा, पीने के लिए पानी नहीं होगा। मानव समाज तो होगा ही नहीं।... कई देशों की गरीब आबादी तो जीवित रहने के लिए सीधे प्रकृति पर निर्भर हैं।’’[1]यानी
यदि जैव-विविधता नहीं होगी, पर्यावरण नहीं होगा तो जीवन भी संभव नहीं होगा। अतः एक
तरह से कह सकते हैं बाज़ारवाद वृद्धि को ही विकास बताकर विनाश की जो पटकथा लिखते
जा रहा है उसके कारण आज खुद मानव समाज का अस्तित्व खतरे में है।
अतः बाज़ारवाद की कुटिल दृष्टि के चलते आज की सबसे बड़ी समस्या
है पर्यावरण संकट। पर्यावरण संकट अब एक वैश्विक विमर्श बन चुका है। दुनिया में हो
रहे इससे संबंधित सम्मेलनों और बन रहे संगठनों से इस बात का सत्यापन हो जाता है।इसलिए
आज सभी अनुशासनों में यही सबसे बड़ी चिंता है कि सबसे पहले हमें पृथ्वी को बचाना है
अन्यथा मानवीय ज्ञान और विज्ञान की सारी उपलब्धियां धरी की धरी रह जाएंगी। इस दृष्टि
से एक साहित्यकार इस संवेदनशील मुद्दे पर क्या सोचता है, सृष्टि को बचाए और बनाए
रखने के लिए वह इस समस्या की अभिव्यक्ति कैसे कर रहा है; यह देखना ज़रूरी
हो जाता है। लीलाधर मंडलोई एक महत्वपूर्ण समकालीन हिंदी कवि है और समकालीन समय में यह चुनौती भी
व्यापक हो चुकी है, ऐसे में उनके साहित्य में इस विषय की अभिव्यक्ति की दिशा और
दशा क्या है; का अध्ययन करने की आवश्यकता है।
डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था कि ‘मैं किसी समाज की प्रगति उस समाज
में प्राप्त महिलाओं के अधिकार से आँकता हूं।’ ठीक उसी तरह यह कहना ग़लत नहीं होगा
कि यदि किसी देश के प्रगति को जानना है तो उस देश में पर्यावरण की दशा क्या है उसे
जांचना होगा और तभी यह बताया जा सकता है कि वह समाज विकसित है या नहीं। यदि किसी
समाज या देश में वहाँ की जैव विविधता संकट में हो, मछलियां मर रही
हों, पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हों, नदियां सूख रही हों; तब उसे कैसे एक विकसित देश कहा जा सकता है? अतः बाज़ारवाद; जो वृद्धि के चकाचौंध को ही विकास बता रहा है उसके
तिलिस्म को तोड़ना जरूरी हो जाता है। समकालीन हिंदी कविता में यह चेतना दिखाई देती
है। समकालीन हिंदी कवि दिनेश कुमार शुक्ल बाज़ारवाद के इस तिलिस्म को अपने कविता
संग्रह ‘नया अनहद’ में संग्रहित ‘तिलिस्म
और मालगाड़ी’ शीर्षक कविता में बेनकाब करते हैं। उसमें वह दिखाते हैं कि कैसे
डायनासोर जो कभी जंगलों में रहते थे और जो उस समय समाज के लिए एक बहुत बड़ा खतरा हुआ
करते थे। आज ना उस तरह के जंगल है और न तो डायनासोर है लेकिन खतरा और बढ़ गया है।
आज आकार में डायनासोर से छोटे होते हुए भी मानव उससे भी अधिक घातक हो चुका है। आज
वह पर्यावरण के विभिन्न घटकों का अत्यधिक दोहन करने के साथ हमारी भावनाओं को भी कुंद
कररहा है-
‘‘धमकती जा रही है
मालगाड़ी
मालगाड़ी पर लदा
कोयला
...
और यह कोयला कभी जो
था घना जंगल
जहाँ पर बिचरते थे
डायनासोर
कि जिनसे बच के
जिन्दा बने रहना
तब नहीं इतना असंभव
था
कि जितना आज
आज उनकी देह छोटी
हो गई है
भूख लेकिन बढ़ गई
है
सोख लेते वे नदी-नद
झील-सागर
चर गये सब खेत-जंगल
पी गये सारी हवायें
भावना की भूमि तक
में
घुस गये हैं डायनासोर...।’’[2]
पर्यावरण के संवर्धन और संरक्षण की चिंता लीलाधर मंडलोई के काव्य
संसार का एक प्रमुख प्रश्न है। वे दुनिया को इस नव औपनिवेशिक दौर में नव-उदारवाद के
नाम पर ईश्वर के भरोसे नहीं छोड़ना चाहते हैं क्योंकि उनको मालूम है कि चोरों को
एक होने में देर नहीं लगती और इमानदार कभी एक नहीं होते हैं। इसलिए वे अपनी ‘चोर’
शीर्षक कविता में कहते हैं कि-
‘‘यह दुनिया छोड़
दी हमने
चोरों के भरोसे
क्योंकि चोरों को
एक होने में
समय नहीं लगता
और ईमानदार कभी
एक नहीं होते’’[3]
वास्तव में सुरक्षा शब्द को जिस तरह से परिभाषित किया गया है वह
मात्र एक प्रपंच के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि व्यापक मायने में पर्यावरणीय
सुरक्षा और संवर्धन के बिना सुरक्षा की बात करना अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। यह
विडंबना ही है कि एक तरफ तो पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक सम्मेलन हो रहे हैं तमाम
संगठन बन रहे हैं तो दूसरी ओर बाज़ारवादी गिद्ध पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन भी कर
रहे हैं। दुनिया के तमाम देश सुरक्षा के नाम पर आयुधों का आयात-निर्यात करने में
लगे हुए हैं जबकि पर्यावरण के संरक्षण के नाम पर वे रुपये की दमड़ी भी लगाने को
तैयार नहीं हैं। आयुध संस्कृति पर सवार होकर दुनिया पर्यावरणीय संकट को ही बढ़ा
रही है। अभी तो धरती प्लास्टिक को ही नहीं पचा पा रही है और हम परमाणु कचरे के
स्वागत में व्यग्र हैं। जबकि यह जानते हुए कि परमाणु बम पर्यावरण के लिए कितना
बड़ा संकट है। इससे प्रभावित क्षेत्र धूल और धुएँ से भर जाता है और वहाँ की मानवता
सिसकियां भर रही होती है। ऐसे में पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध कवि मंडलोई ने
लोगों की सुरक्षा और पर्यावरण के महत्त्व को समझते हुए ठीक ही लिखा है कि-
‘‘अगर रेगिस्तान
में बहे लहू का दरिया
अगर समुद्र में मरे
अनगिनत जल-जीव
अगर जल उठें पेड़, पौधे, पत्तियाँ
अगर हवा में घुले ज़हर
ओर-छोर
और कोई अगर चाहे
करना इस धरती को नेस्तनाबूद
मुझे आपत्ति है,सख्त
आपत्ति’’[4]
आज मानव अपने सुख,
सुविधा और विकास के नाम पर जिस पर्यावरण का निर्माण कर रहा है, जिसे हम मानवीय
पर्यावरण कहते हैं। उसके कारण आज जलवायु इतनी दूषित हो चुकी है कि रोगों की बाढ़-सी
आ गई है। अभी कोरोना के कहर को दुनिया झेल ही रही है। इस वैश्विक महामारी के चलते आज
अनेक लोग ऑक्सीजन की कमी के कारण अपने प्राण खो चुके हैं। एक तरफ मानवजनित जलवायु परिवर्तन
है जिसमें लोग खाँसते-खाँसते बेदम हो जा रहे हैं और दूसरी तरफ प्रकृति का एक अपना
प्राकृतिक पर्यावरण है जिसकी गोद में खाँसने वाला व्यक्ति भी स्वस्थ हो जाता है।
उदाहरण के लिए लीलाधर मंडलोई की ‘कि नमक रोटियों में’ शीर्षक कविता को देखा जा सकता
है-
‘‘सुबह-शाम समुद्र
से उठता है
सफ़ेद झक्क धुआँ
फिर भी समुद्र से
नहीं आतीं
खाँसते-खाँसते बेदम
होने वाली आवाजें
...
इस बार कहूँगा माँ से
चली चल मेरे साथ
और पकाकर देखें
समुद्र पर रोटियाँ
जहाँ धुआँ होता है
अत्यधिक
लेकिन नहीं होती
भीतर तक हिला देने वाली खाँसी’’[5]
उदारवादी नीति के चलते आज हमने लघु, कुटीर और मध्यम उद्योगों को
लगभग नजरंदाज कर दिया है। नवीन तकनीक से लैस बाजारवादी संस्कृति इन अधिक रोजगारपरक
उद्योगों को नेस्तनाबूद कर रही है। परिणामस्वरूप बाजार में मल्टीनेशनल नामक नए बनियों
का हुजूम है। भूमंडलीकरण के चलते उदारवादी नीति के नाम पर हमने अपने पारंपरिक
उद्योग-धंधों को छोड़कर जो इस बाजारवादी संस्कृति को अपना लिया है उसके चलते आज
हमें तोहफे में आसमान में अतिक्रमण करती धूल-धक्कड़ का गंदा अंबार मिल रहा है और
साथ ही मोटर वाहनों द्वारा उत्सर्जित जीवन भक्षक ग्रीन हाउस गैसें भी;जो पृथ्वी के तापमान को बढ़ा रही हैं। जिससे चलते
समुद्र तट से लगे शहरों के साथ-साथ जलीय जीवों पर भी खतरे का बादल मंडरा रहा है। उदाहरण
के लिए लीलाधर मंडलोई के काव्यसंग्रह ‘रात बिरात’ में संकलित ‘घोड़ानक्कास’ और ‘तोड़ल,
बच्चे और दुकान’ शीर्षक कविताओं को देख सकते हैं।
हमारे पारंपरिक उद्योग-धंधे ‘इकोफ्रेंडली’ थे क्योंकि उनका उस
भारतीय दृष्टि से अटूट संबंध था जो यह मानती है कि मानव प्रकृति का एक हिस्सा है उसका मालिक नहीं। पर्यावरण में
प्रत्येक जीव एक दूसरे पर आश्रित हैं। इसे हम खाद्य शृंखला से ऊर्जा के सतत प्रवाह
के द्वारा हम समझ सकते हैं। जबकि बाजारवादी संस्कृति पर आधारित उद्योग और
बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ पश्चिम की प्रकृत और मानवता विरोधी दृष्टि पर आधारित हैं; जो यह मानती हैं कि प्रकृति ने पहले सृष्टि का
निर्माण किया फिर उसके उपभोग के लिए मानव का निर्माण किया।भारतीय लघु, कुटीर और
मध्यम उद्योग इसलिए महत्त्वपूर्ण थे और हैं क्योंकि वह इस सिद्धांत पर आधारित हैं
कि प्रकृति और विकास दो विरोधी चीजें नहीं है बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। बिना
पर्यावरण के कैसा विकास? मात्र टेक्नोलॉजी के विकास को ही विकास
नहीं कहा जा सकता है। हमने जिस व्यग्रता से अपने प्रकृति रक्षक इन उद्योग-धंधों को
तगाफुल कर बाजारवादी संस्कृति को आत्मसात किया है;उसके
परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। आज पारंपरिक खाद्य वस्तुएँ लुप्त होती जा रही हैं
और उनकी जगह अनेक ऐसी चीजों ने ले ली है जो हमारे पर्यावरण और स्वास्थ्य की दृष्टि
से हानिकारक है। उदाहरण के लिए लीलाधर मंडलोई की ‘तोड़ल, बच्चे और दुकान’ शीर्षक
कविता के निम्न काव्यांश को देखा जा सकता है-
‘‘ग़ायब होने लगे
क़लम-दवात, गोली-पीपरमेंट, मौसमी-फल
उनकी जगह शोकेस में
आ धमके
कैडबरी, किटकैट, पर्क, क्रंच-मंच, इत्यादी
और प्लास्टिक के
जाली सींकों में
अंकलचिप्स, रफेल्स, लहर के खिलखिलाते पैकेट
मरफी को लतिया के
फिलिप्सटी.वी. घेर चुका था जगह
ठीक उसी दलाल की
तरह जो कुर्सी पर था...
(और) तोड़ल एक नौकर
की तरह...
एक मृत सभ्यता के
मानो भग्नावशेष’’[6]
आज के समय में किसी देश पर आक्रमण कर उसे उपनिवेश बनाना आसान
नहीं है। इसलिए नव-औपनिवेशिक दौर की ये बाजारवादी शक्तियां गरीब देशों को ऋण के
मकड़जाल में फँसाती हैं। बाज़ारवाद ‘तथाकथित विकास’ का झांसा देकर पहले तो इन मुल्कों
को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से ऋण लेने के लिए राजी कराते
हैं और फिर उसकी गारंटी के तौर पर उनसे हस्ताक्षर करवाकर उन्हें इतना मजबूर कर
देती हैं कि ये बाजारवादी गिद्ध उनके जल, जंगल और जमीन जैसे संसाधनों का दोहन करते
रहते हैंऔर वे विरोध भी नहीं कर पाते हैं। इसीलिए तो लीलाधर मंडलोई ने बाज़ारवाद के
इन गिद्धों को ‘आधुनिक द्रोणाचार्य’ कहा है। इतना ही नहीं वे भूमंडलीकरण के नाम पर
उनकी नीति निर्माण की प्रक्रिया को भी निजीकरण केपक्ष में प्रभावित कर देते हैं;जिसके कारण वहां के संसाधनों पर डाका डालना आसान
हो जाता है। वे यहां के कच्चे माल और पुश्तैनी नुस्खों को अपने यहाँ ले जाते हैं और फिर
वहाँ उसी माल और ज्ञानसे निर्मित वस्तुओं को सस्ता, अच्छा, मौलिक और पैटन्टिड(patented) बताते हुए तथा भूमंडलीकरण की आड़ में वापस इन्हीं देशों में उन
वस्तुओं को महंगे दाम पर बेचकर अपने व्यापार का विस्तार करते हैं।
अतः प्राकृतिक संसाधनों को हाइजैक करने की इस प्रणाली को बायोपायरेसी
(biopiracy)[7]कहना गलत
नहीं होगा क्योंकि बाज़ारवादी शक्तियाँ इन गरीब देशों के पुश्तैनी नुस्खों, धंधों तथा
प्राकृतिक संसाधनों को बिना उनके अनुमोदन और क्षतिपूरक भुगतान के उपयोग कर रही
हैं।इससे पहले कि इस डाके की पोल खुले औरइन गरीब देशों की जनता इसके खिलाफ विद्रोह कर
दे और उनके लूट के साम्राज्य को ढहा दे; इससे बचने के लिए ये
शक्तियाँ उससे भी पहले अपने विज्ञापन रूपी रामबाण का इस्तेमाल कर चुकी होती हैं। इन विज्ञापनों
में वे अपनी वस्तुओं का ऐसा लोक-लुभावन प्रचार करते हैं कि इन देशों की जनता
अपनी ही सांस्कृतिक परंपराओं, पुश्तैनी धंधों व वस्तुओं को तुच्छ, घटिया और हीन समझने
लगती है और धीरे-धीरे उनको भूल जाती है। यानी बाजारवादी शक्तियां अपने विज्ञापन रूपी
रामबाण के इस्तेमाल से ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ जैसी कहावत को चरितार्थ
करती हैं। यही कारण है कि इन देशों की जनता इनकी क्रूरता और लूट के खिलाफ न तो
विद्रोह करती है और न ही इनकी महँगी वस्तुओं को लेने से परहेज करती है क्योंकि
विज्ञापन रूपी बाण के प्रभाव के कारण वह शोषण को महसूस ही नहीं कर पाती हैऔर दौड़
पड़ती है बाजार के मोहक संसार में। इस तरह उन्होंने हमें हमारे पुश्तैनी धंधों से
बेदखल करते हुए हमारे हुनर का अपहरण कर लिया। आज वे बाटा, पूमा, लिबर्टी और एडिडास
सहित कई अन्य नामों से तथाकथित शानदार व चमकदार जूते बना रहे हैं किंतु अब उन्हें
कोई अछूत और चमार नहीं कहता है। इसी के परिणामस्वरूप बाज़ारवाद ‘दिन दूना, रात
चौगुना’ फल-फूल रहा है तो ये देश अपने ही पुरखों के ज्ञान और पारंपरिक वस्तुओं को हीन
और घटिया समझकर उतनी ही तेजी से गरीब होते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए कवि मंडलोई
की ‘प्रायोजित माँया दादी के तंत्र में’ शीर्षक लंबी कविता के निम्नलिखित काव्यांश
को देखा जा सकता है-
‘‘उदाहरण के लिए
इसी बारहमासी
और बहुवर्षायु
पुदीने को लें
माँ के बाद इसे
हमें चाहिए था जानना...
जानता रहा उसे
बनिया
और बहुराष्ट्रीय
सेठ भी ख़ूब
इधर माँ सरीखी एक
औरत टी.वी. पर
बताती ‘100% आयुर्वेदिक नोसाइडइफेक्ट्स’
और हम भूलते माँ को
दौड़ पड़ते बाज़ार
के मोहक संसार में
इस तरह हम भूले
कितना कुछ दुर्लभ’’[8]
बाज़ारवाद के विज्ञापन के झांसे के चलते इन गरीब देशों के लोग
पहले तो अपने पुरखों के ज्ञान और अपनी वस्तुओं को हेय समझकर भूल गए। जिसके चलते अब
उन्हें महंगी वस्तुएं खरीदनी पड़ रही है परिमाणस्वरूप ये देश और गरीब होते जा रहे
हैं। दूसरे,बाजारवादी शक्तियों ने इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
करते-करते उन्हें इस हद तक दूषित कर दिया है कि अब इस देश की जनता का जीवन की
मूलभूत संसाधनों तक पहुंच मुश्किल हो गई है। जैसे कि, स्वच्छ वायु और स्वच्छ जल भी
अब इनकी पहुंच से दूर होते जा रहे हैं। मुनाफा केंद्रित संस्कृति पहले तो विकास
नाम पर इनके प्राकृतिक संसाधनों को दूषित करती है फिर शुद्धता के विज्ञापन के नाम
पर अपने व्यापार का विस्तार करती है।जैसे कि जल संसाधन; जिसमें औद्योगिक कूड़ा, गंदी नालियों के पानी
इत्यादि को प्रवाहित करके पहले तो उसे गंदा किया जा रहा है और फिर शुद्धता के नाम
परबोतल-बंद पानी को बेचा जा रहा है। अब इस समस्या से प्रभावित तो गरीब लोग होते
हैं क्योंकि गंदा पानी पी नहीं सकते और बिना पानी जी नहीं सकते। इसलिए मजबूर होकर
उन्हें भी प्लास्टिक की बोतल में बंद तथाकथित शुद्ध पानी को महंगे दाम पर खरीदना
पड़ रहा है। तो बाज़ारवाद के चलते जल जैसी सर्वसुलभ और सार्वजनिक चीज भी अब कैसे
गरीबों की पहुँच से धीरे-धीरे बाहर होती जा रही है इसका भी पर्दाफाश कवि
मंडलोई करते हैं। उदाहरण के लिए इनकी ‘हत्यारे उतर चुके हैं क्षीर सागर में’ शीर्षक
गद्य कविता की निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है;जिसमें कवि
ने बाज़ारवाद के मुनाफा केंद्रित संस्कृति की भयावहता को महसूस कराने के लिए भारतीय
मिथक परंपरा में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान बैकुंठ में स्थित क्षीरसागर का जहाँ
भगवान विष्णु विराजते हैं; का प्रयोग किया है। कवि मंडलोई भगवान विष्णु से कहते हैं कि हे प्रभु आप भी अपनी जान बचाकर भाग
जाइए क्योंकि कभी भी ये बाजारवादी शक्तियां अपने व्यापार के विस्तार के लिए यहाँ आ
सकती हैं-
‘‘हम धर्मप्राण हत्यारे हैं। हमारे निशाने पर अवतार भर नहीं वरन्
साक्षात् विष्णु भगवान हैं। हम परमाणु बमों से लैस किसी भी समय युद्ध को तैयार। हम
पानी के दुश्मन। हमें बस पैसे चाहिए।... पैसा हमारा उसूल। हम ईश्वर के पंचभूतों की
तिजारत में लिप्त। हम अपराधी हैं लेकिन सजा से परे।... हे विष्णु, हम तुम्हारे
भक्त! तुम दयावान माफ करना हमें। कि हमारे बेरहम निशाने पर हो तुम! हम सरेआम कर
रहे हैं तुम्हारी हत्या! पानी के बाहर हो कोई सुरक्षित जगह। तो भाग जाओ... हमारे
भीतर कुछ शेष नहीं, दया, ममता, करुणा, सहानुभूति आदि। सब कुछ खरीद लिया गया।... एक दिन
तुम भी मार दिए जाओगे। हमें नहीं लगता हत्याओं का पाप। जघन्य अपराधी हैं हम। हमें
किसी भी कीमत पर चाहिए पानी। फिर उसके लिए तुम्हारी हत्या सही। भगवन् भागो!
हत्यारे उतर चुके हैं ‘क्षीरसागर’में...।’’[9]
यह कविता जल संकट के माध्यम से हमें प्राकृतिक संसाधनों के आवश्यकता
और संरक्षण का संदेश देती है क्योंकि इनके अभाव में जीवन संभव नहीं है। कहा भी
जाता है कि— ‘जल है तो कल है।’ अतः प्राकृतिक संसाधन और खासकर जैव-विविधता किसी भी
राष्ट्र के लिए बहुत अनिवार्य होती है। क्योंकि जो गरीब और निर्धन लोग हैं या जो
समाज में निचले स्तर पर रहते हैं; उनके पास संसाधन कम होते हैं। उसकी पूर्ति वे प्रकृति से करते हैं। अतः कह
सकते हैं कि किसी राष्ट्र की जैव-विविधता उस राष्ट्र में निर्धनता के स्तर को कम
करती है। वह राष्ट्र में सब के लिए आवश्यक संसाधन की उपलब्धता बनाए रखती है। इसलिए
उसका संरक्षण आवश्यक है।
दैनिक जीवन के अनेक प्रसंग जिन्हें हम सामान्य समझ कर नजरंदाज कर
देते हैं उनको कवि मंडलोई जब हमारे सम्मुख प्रस्तुत करते हैं तब हम उसके पीछे छूपी भयावहता
से रूबरू हो पाते हैं। उदाहरण के लिए डॉ. वर्गीजकुरियन के अथक परिश्रम से श्वेत
क्रांति के आ जाने से भारत ने दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान
प्राप्त किया है किंतु इन मवेशियों के साथ हो रही क्रूरता उससे कहीं ज्यादा है।
जैसे कि अत्यधिक दूध उत्पादन के लिए हार्मोन के हमले और ऑक्सीटॉसिन के निर्मम प्रयोग
इत्यादि। क्रूरता का यह सिलसिला यहीं नहीं थमता बल्कि इतना ही नहीं बाज़ारवादी
संस्कृति के पुजारी जिनके लिए पैसा ही धर्म और ईमान है; इन पशुओं के नवजात बछड़ों को मात्र दो-तीन दिन
में ही उन्हें उनकी माताओं से दूर करके बूचड़खाने भेज दिया जाता है जहां उन्हें
असमय मृत्यु का ग्रास बनने को विवश होना पड़ता है। इस करुण दृश्य का साक्षात्कार
करने के कारण ही तो कवि मंडलोई कहते हैं कि-
‘‘मुझे हो उठी है
बेइंतहा नफ़रत
सुबह-सुबह दौड़ती उन गाड़ियों से
जिनसे उतरते हैं
पोलीपैक, दूध की बोतलें
घी-मक्खन, श्रीखंड और चीज़ पनीर
मुझे इन सब के पिछे
हो रही बर्बरताएँ
दिख पड़ती है एकदम
साफ़
सामने हो रही
क्रूरताएँ
हारमोन के हमले
ऑक्जीटोसिन के
निर्मम प्रयोग मैं
पूछना चाहता हूँ
डॉ. कुरियन
क्या आपको दिखता है
यह सब?
अतः कवि लीलाधर मंडलोई मात्र स्थिति की भयावहता को ही उजागर नहीं
करते बल्कि उससे निकले की राह भी बताते हैं। अज्ञेय ने भी कहा है कि—‘‘जिस साहित्य
में रास्ते की पहचान का संकेत मिलेगा वह साहित्य टिकेगा ।’’[11]मंडलोई
जी न केवल तथाकथित विकास की चकाचौंध के पीछे छुपे बाज़ारवाद के मुखौटे का अनावरण
करते हैं बल्कि इस मुखौटे के आड़ में छुपे ढोंगी और डकैत चरित्र से समाज को सतर्क
और सुरक्षित रहने के लिए आगाह भी करते हैं-
‘‘बाज़ार हिंसा के स्थल हैं
यहाँ से शुरू होता है आपका वध
और आपको अपनी मृत्यु का बोध नहीं होता’’[12]
संदर्भ :
[3]ओम निश्चल (सं), हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में (लीलाधरमंडलोई
की कविताएँ), साहित्य भंडार पृ. 282
[4]लीलाधर मंडलोई, रात बिरात, आधार प्रकाशन, हरियाण, 1995, पृ. 79
[9]समकालीन भारतीय साहित्य (साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका),जुलाई-अगस्त,2011,पृ.
49
[10]लीलाधर मंडलोई, 2004, पृ. 92-92
[11]नंदकिशोर आचार्य (संपादक),लेखक का दायित्व/साहित्यिक निबंध
/अज्ञेय (लेखक और परिवेश से),वीकानेर: वाग्देवी प्रकाशन, 2013, पृ. 31
विकास कुमार यादव
शोधार्थी
भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू, नई दिल्ली- 110067
vkyadavjnu@gmail.com, 9871532075
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
एक टिप्पणी भेजें