शोध सार : ‘मैला आँचल’ हिंदी का प्रतिनिधि आँचलिक उपन्यास है और इस कारण इसके कथ्य में प्रायः वे सारी विशेषताएँ मिलती हैं जो किसी भी आँचलिक उपन्यास में पाई जाती हैं। आँचलिक उपन्यास में जो परिवेश लिया जाता है, वह समय और स्थान में सीमित होता है किंतु उस सीमित समय और स्थान में जीवन के जितने पक्ष हो सकते हैं, उन पक्षों के जितने चेहरे हो सकते हैं, वे सब उसमें पूरे विस्तार के साथ विद्यमान होते हैं। मैला आँचल भी ऐसे ही कथ्य को धारण करता है। यद्यपि 'मैला आँचल' की अधिक चर्चा एक आँचलिक उपन्यास के रूप में हुई है क्योंकि आँचलिकता तो इसके रूप में अधिक है अन्यथा विषय वस्तु के स्तर पर उपन्यास में राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष व्यापक और राष्ट्रीय स्तर पर अधिक प्रबल रूप से चित्रित हुए हैं। यह आँचलिक उपन्यास अंचल के समस्त यथार्थ को उभारता है; यथार्थ का चयनात्मक प्रक्षेपण नहीं करता बल्कि उसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक सभी पक्षों के बराबर महत्त्व को भी रेखांकित करता है। रेणु ने मेरीगंज की दुनिया के हर पक्ष को बखूबी चित्रित किया है। सामाजिक पक्ष के अंतर्गत उन्होंने जातिवाद, अशिक्षा, अंधविश्वास और धार्मिक भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे उठाए हैं, आर्थिक पक्ष में किसानों की गरीबी व जमींदारों का शोषण दिखाया है तो राजनीतिक पक्ष में उस समय के सभी दलों जैसे कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ आदि के आंतरिक स्वरूप को उभार कर रख दिया है।
बीज शब्द : गाँव, अंचल, समाजवाद,सोशलिस्ट,कांग्रेस,दल, पार्टी, टोली, कार्यकर्ता,
आर्थिक, सामाजिक,राजनितिक,धर्म, मठ, मूल्य, सौंदर्य, यथार्थ आदि।
मूल आलेख : भौगोलिक पक्ष :यद्यपि समग्रता के लिए आँचलिक उपन्यासकार को
जीवन के सभी पक्षों की प्रस्तुति करनी होती है, लेकिन मूल रूप से भौगोलिक और सांस्कृतिक वर्णन इस उपन्यास
में प्रमुख होते हैं। यह प्रमुखता इस रूप में नहीं होती है कि इन पक्षों का
विस्तार सबसे अधिक हो बल्कि इस रूप में होती है कि यही दो पक्ष आँचलिक उपन्यास को
आँचलिकता प्रदान करते हैं। इस उपन्यास में इन दोनों बिंदुओं पर पर्याप्त ध्यान
देते हुए रचनाकार ने जीवन के सारे पहलुओं को, चाहे वे सामाजिक हो, राजनीतिक हो या आर्थिक हो यथोचित स्थान दिया है।
रेणु ने सबसे पहले अंचल का सामान्य भौगोलिक वर्णन किया है
ताकि पाठक उस अंचल तक पहुँच सके जिसके सारे जीवन को आगे महसूस करने वाला है।
उपन्यास की शुरुआत में ही वे भौगोलिक परिचय देते हैं-
“ऐसा ही एक गाँव है मेरीगंज। रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब,
बूढ़ी कोशी को पार करके जाना होता है। बूढ़ी कोशी
के किनारे-किनारे बहुत दूर तक ताड़ और खजूर के पेड़ों से भरा हुआ जंगल है। इस अंचल
के लोग इसे 'नवाबी तड़बन्ना' कहते हैं। तड़बन्ना के बाद ही एक बड़ा मैदान है,
जो नेपाल की तराई से शुरू होकर गंगा जी के
किनारे खत्म हुआ है। लाखों एकड़ जमीन! वंध्या धरती का विशाल अंचल। इसमें दूब भी
नहीं पनपती है। बीच-बीच में बालूचर और कहीं-कहीं बेर की झाड़ियाँ। कोस-भर मैदान पार
करने के बाद,पूरब की ओर काला जंगल
दिखाई पड़ता है; वही है मेरीगंज
कोठी।”[1]
बाहरी भूगोल का वर्णन करने के बाद रचनाकार गाँव के भीतरी
भूगोल पर दृष्टि डालता है ताकि अंचल की एक आंतरिक पहचान भी पाठक को हो सके।
उपन्यासकार लिखता है –“मेरीगंज एक बड़ा गाँव है; बारहो बरन के लोग रहते हैं। गाँव के पूरब एक धारा है जिसे
कमला नदी कहते हैं। बरसात में कमला भर जाती है, बाकी मौसम में बड़े-बड़े गढ़ों में पानी जमा रहता है।”[2]
भौगोलिक परिचय देने के बाद रेणु अंचल के समग्र जीवन का अंकन
करना शुरू करते हैं। इसमें सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पक्ष अपने हर रूप-रंग में व्यक्त होते चलते हैं और
धीरे-धीरे पाठक खुद को उस गाँव में ही महसूस करने लगता है।
सामाजिक जीवन -
जाति व्यवस्था : जाति व्यवस्था भारत के किसी भी सामान्य गाँव के सामाजिक जीवन की धुरी के रूप
में काम करती है। मेरीगंज का पूरा समाज जाति के आधार पर वर्गीकृत है और जातीय
किस्म के झगड़े होना वहाँ सामान्य सी बात है। जातियों के बीच का शक्ति संतुलन भी
गाँव की सामाजिक संरचना निर्धारित करता है। उपन्यासकार उपन्यास के आरंभ में इस
संरचना को स्पष्ट करते हुए कहता है – “अब गाँव में तीन प्रमुख दल हैं, कायस्थ, राजपूत और यादव। ब्राम्हण लोग अभी भी तृतीय शक्ति हैं। गाँव
के अन्य जाति के लोग भी सुविधानुसार इन्हीं तीनों दलों में बँटे हुए हैं।”[3]
ये जातियाँ न केवल शक्ति संतुलन का आधार हैं बल्कि इनमें एक
दूसरे के प्रति गहरी घृणा भी विद्यमान है। यद्यपि उपन्यासकार ने जातीय घृणा के
प्रसंगों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी है तथापि कुछ-एक प्रसंगों में घृणा की यहभावना
स्पष्ट रूप से दिखती है। ऐसे में एक प्रसंग में जोतखी जी की राय है, “यादव लोग बार-बार लाठी भाला दिखाते हैं;
राजपूतों के लिए यह डूब मरने की बात है। …
अकेले यादवों की बात रहती तो कोई बात नहीं थी, इसमें कायस्त समाया हुआ है। मरा हुआ कायस्त भी बिसाता है।”[4]
नारी का स्थान : यद्यपि मैला आँचल में नारी की सामाजिक स्थिति पर विशेष रूप से रचनाकार ने
ध्यान नहीं दिया है, फिर भी कई
प्रसंगों में चलते-चलते ऐसी टिप्पणियाँ की हैं जो नारी की परतंत्र व निम्न स्थिति
को व्यक्त करती हैं। किसी भी घर में यदि आर्थिक अभाव हो तो पुत्र और पुत्री में से
पुत्र पर ही धन खर्च करने को ठीक समझा जाता है। उपन्यास में एक प्रसंग ऐसा है जहाँ
एक रोग ग्रस्त युवती के पिता इस अंतर को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- “हुजूर,
लड़की की जात बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती
है!” इस पर डॉक्टर प्रशांत सोचते हैं- “… लड़की की जात बिना दवा-दारू के ही आराम
हो जाती है! लेकिन बेचारे बूढ़े का इसमें कोई दोष नहीं। सभ्य कहलाने वाले समाज में
भी लड़कियाँ बला की पैदाइश समझी जाती हैं।”[5]
सामाजिक मान्यताएँ ऐसी हैं कि नारी को प्रायः विश्वसनीय
नहीं माना जाता। किसी भी तरीके से नारी पर नियंत्रण बनाए रखना ही परंपरागत सामाजिक
संरचना की आवश्यकता है। एक स्थान पर शास्त्र का उद्धरण देते हुए कहा गया है-
“सास्तर में कहा है,'जोरू जमीन जोर का,
नहीं तो किसी और का।”[6] उपन्यासकार ने एक और प्रसंग की चर्चा विशेष रूप से की है।
नारीवादी चिंतकों ने कई बार दावा किया है कि किसी भी अराजक स्थिति में अत्याचार की
सबसे बड़ी शिकार महिलाएँ ही होती हैं। समाज में दो वर्गों या दो अलग-अलग समाजों में
जब भी सीधा संघर्ष होता है, उसमें सबसे अधिक
नुकसान दोनों पक्षों की, विशेष रूप से
पराजित पक्ष की महिलाओं को उठाना पड़ता है क्योंकि विजय की मानसिकता नारी पर
शारीरिक विजय से भी जुड़ी हुई है। रेणुने गाँव वालों तथा संथालों के संघर्ष में
ऐसे ही प्रसंग का वर्णन किया है। इस प्रसंग में सामाजिक लड़ाई जो है, सो है; गाँव वालों के लिए महत्वपूर्ण है कि संथालिनों का सामूहिक बलात्कार होना
चाहिए। इस प्रसंग को रेणु ने बेहद प्रतीकात्मक शब्दों से इस प्रकार व्यक्त किया
है- “आजादी है, जो जी में आवे
करो ! बूढ़ी, जवान,बच्ची,जो मिले। आजादी है। पाट का खेत है। कोई परवाह नहीं है। ….. फाँसी हो या कालापानी,
छोड़ो मत। ….. संथालिनें दुहरे दर्द से कराह रही
हैं। …..”[7]
इस प्रकार रेणु ने अलग-अलग संदर्भों में दिखाया है कि समाज
में जिस प्रकार जाति संरचना शोषण और दमन पर आधारित है, वैसे ही नारी-पुरुष के संबंध भी।
धार्मिक विकृतियाँ : मेरीगंज का एक विशेष पक्ष उसका धार्मिक जीवन है जिसका संबंध
वहाँ के मठ से है। प्राचीन व मध्यकाल में धर्म को प्रायः निवृत्तिमूलक बनाने पर बल
दिया गया जिससे धर्म से जुड़े व्यक्ति हमेशा एक कुंठित जीवन व्यतीत करते रहे। मैला
आँचल में इसी समस्या को एक खास कोण से दिखाया गया है। महंत साहब धर्म के प्रतिनिधि
हैं अतः माया से मुक्त रहना उनके लिए आवश्यक है। यदि वे विवाह करते हैं तो सुविधा
भरी महंती हाथ से निकलती है और विवाह नहीं करते तो भौतिक सुविधाओं के बावजूद
कुंठित जीवन जीने को अभिशप्त हैं। वे यह समाधान निकालते हैं कि मठ के पुराने सेवक
की बेटी लक्ष्मी को कानूनी लड़ाई के बाद अपने मठ पर ले आते हैं। यह रास्ता महंत
साहब के जीवन में भले ही प्रसन्नता लाने वाला हो पर अबोध बालिका का जीवन बर्बाद हो
रहा है। यादवटोली का किसनू कहता है- “महन्थ जब लछमी दासिन को मठ पर लाया था तो वह
एकदम अबोध थी, एकदम नादान। एक
ही कपड़ा पहनती थी। कहाँ वह बच्ची और कहाँ पचास बरस का बूढ़ा गिद्ध! रोज रात में
लछमी रोती थी- ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाए।”[8]
इस प्रकार की विकृति के बावजूद दोष लक्ष्मी का ही है कि
उसने माया बनकर महंत साहब के धर्म भ्रष्ट कर दिया। इस प्रसंग पर रेणु ने व्यंग्य की भाषा में लिखा
है-"चढ़ती जवानी में, सतगुरु साहेब की
दया से माया को जीतकर ब्रम्हचारी रहे। बुढ़ौती में तो आदमी की इन्द्रियाँ शिथिल हो
जाति हैं, माया के प्रबल घात को
नहीं सँभाल सकती हैं। … यह तो महन्थ साहब का दोख नहीं। उसका भाग ही ख़राब है। यदि वह नहीं होती तो
महन्थ साहेब सतगुरु के रास्ते से नहीं डिगते। यह ध्रुव सत्त है। दोख तो लछमी का
है। एक ब्रम्हचारी का धरम भ्रष्ट करने का पाप उसके माथे है।"[9]
यौन भ्रष्टाचार के साथ-साथ मठ के जीवन में सत्ता संघर्ष पर
भी रेणु ने विशेष ध्यान दिया है। जो व्यक्ति वास्तविक रूप में महन्थ बनने वाला था,
वह अफीम और गाँजे की तस्करी के आरोप में जेल
में बंद है। नागा बाबा धर्म के नाम पर जैसी भाषा का इस्तेमाल करता है, वह निहायत ही हल्की है जो धर्म की इस
व्यावहारिक पक्ष पर कालिख पोतने के लिए पर्याप्त है।
अंधविश्वासों की मानसिकता : रेणु ने मेरीगंज में सामाजिक रूप से प्रचलित अंधविश्वासों
पर भी टिप्पणी की है। यह स्वाभाविक सी बात है कि जिस क्षेत्र का आर्थिक विकास कम
हुआ होगा, आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा
का प्रसार नहीं हुआ होगा, वहाँ सामाजिक
जीवन में अंधविश्वासों की प्रमुख भूमिका होगी। उपन्यासकार ने बार-बार दिखाया है कि
अंधविश्वासों के कारण विकास कैसे रुक जाता है। डॉक्टर प्रशांत गाँव को बचाना चाहते
हैं किंतु गाँव के ही जोतखी काका अंधविश्वासों के कारण उनका सक्रिय विरोध करते
हैं। उनका कहना है-"डॉक्टर लोग ही रोग फैलाते हैं,सुई भोंककर देह में जहर दे देते हैं, आदमी हमेशा के लिए कमजोर हो जाता है; हैजा के समय कूपों में दवा डाल देते हैं, गाँव-का-गाँव हैजा से समाप्त हो जाता
है।"[10]
अंधविश्वासों के खतरनाक परिणाम क्या होते हैं, यह रेणु ने कमली और पारबती की माँ के माध्यम से
दिखाया है। कमली को इसलिए बीमारी हो गई है कि तीन बार उसका रिश्ता टूट गया है तथा
लोग उसे अपशकुनी मानने लगे हैं। यदि सारा समाज किसी व्यक्ति को अपशकुनी मानने लगे
तो वह व्यक्ति मनोरोगी हो ही जाएगा। यही स्थिति कमली की है। पारबती की माँ का जीवन
ही अंधविश्वासों ने ले लिया है। रेणु ने विशेष रूप से बताया कि पारबती की माँ
स्नेह, करुणा, वात्सल्य के भावों की प्रतिमूर्ति है किंतु
समाज उसे डायन घोषित करके उसकी हत्या कर देता है।
आर्थिक जीवन : उपन्यास में
यद्यपि मेरीगंज का संपूर्ण जीवन अंकित हुआ है किंतु जिस समस्या को उपन्यासकार ने
सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना, यह आर्थिक ही है।
रेणु समाजवाद से जुड़े रहे हैं और समाजवादी विचारों के अनुकूल आर्थिक जीवन को सबसे
महत्वपूर्ण मानते हैं। यह रचना आरंभ में भौगोलिक व सांस्कृतिक वर्णन अधिक करती है
पर धीरे-धीरे मेरीगंज की समस्याओं तक पहुँचती है और वहाँ महसूस होता है कि जब तक
गरीबी व जहालत ख़त्म न हों तब तक यह अंचल मैला ही रहेगा।
डॉक्टर प्रशांत के चरित्र के माध्यम से रेणु ने यह समस्या
विशेष रूप से स्पष्ट की है। डॉक्टर प्रशांत गाँव इसलिए आया है कि उसे ज्यादा से
ज्यादा रोगियों से पैसा वसूल कर अमीर बनना चिकित्सक धर्म के खिलाफ लगता है। उसकी
इच्छा काला-आजार के निदान के लिए रामबाण औषधि खोजना है। पर, एक बिंदु पर वह महसूस करता है कि जिस आदमी के लिए जीवन का
अर्थ भूख और बेबसी है, उसके लिए यह दवाई
किसी काम की नहीं है। उसके लिए बेहतर यही है कि अब भूख और बेबसी के स्थान पर
मलेरिया से बेहोश होकर शांतिपूर्ण मृत्यु प्राप्त कर सके। वहसोचता है-"आम से
लदे हुए पेड़ों को देखने के पहले उसकी आँखें इंसान के उन टिकोलों पर पड़ती हैं,
जिन्हें आमों की गुठलियों के सूखे गूदे की रोटी
पर जिन्दा रहना है। [11] …वह नए संसार के
लिए इंसान को स्वच्छ और सुन्दर बनाना चाहता था। यहाँ इंसान हैंकहाँ? … अभी पहला काम है, जानवर को इंसान बनाना ![12] … मान लिया कि उसने कालाआजार कि एक रामबाण औषधि का अनुसन्धान
कर लिया; किन्तु इसके बाद? इसके बाद जो होता आया है, होगा। … और यहाँ का आदमी जीकर करेगा क्या?
ऐसे जिंदगी? पशु से भी सीधे हैं ये इंसान। पशु से भी ज्यादा खूँखार हैं
ये। … पेट ! यही इनकी बड़ी कमजोरी है।
मौजूदा सामाजिक न्याय-विधान ने इन्हें अपने सैकड़ों बाजुओं में जकड़कर ऐसा
लाचार कर रखा है कि ये चूँ तक नहीं कर सकते।"[13]
डॉक्टर प्रशांत अपने सारे वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद किसी
निष्कर्ष पर पहुँचता है कि मूल समस्या आर्थिक है और एक आर्थिक रूप से पिछड़े समाज
में स्वास्थ्य की कोई संभावना नहीं है। इस नाटकीय बिंदु पर उपन्यासकार लिखता
है-"डॉक्टर ने रोग कि जड़ पकड़ ली है …। गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणु
हैं।"[14]
मेरीगंज की आर्थिक समस्याएँ कुछ और पक्षों से भी संबंधित
हैं। रेणु ने न केवल गरीबी को मूल समस्या के रूप में पहचाना है बल्कि यह भी बताया
है कि गरीबी के कारण कौन से हैं। यह गरीबी उत्पादकता की कमी से नहीं अपितु वितरण
की विषमताओं से पैदा हुई है। ऐसा एक चित्र रेणु ने खम्हार के प्रसंग में खींचा है
जो गोदान के खलिहान से मिलता-जुलता है-"खम्हार! साल-भर की कमाई का लेखा-जोखा
तो खम्हार में ही होता है। दो महीने की कटनी, एक महीना मड़नी, फिर साल-भर की खटनी। दबनी-मड़नी करके जमा करो, साल-भर के खाये हुए कर्ज का हिसाब करके चुकाओ। बाकी यदि रह
जाये तो फिर सादा कागज पर अँगूठे की टीप लगाओ। … फिर कर्ज खाओ। खम्हार का चक्र
चलता रहता है।"[15]
रेणु ने आर्थिक समस्या को एक बेहद खूबसूरत नजरिए से प्रस्तुत
किया है। साहित्य तथा अन्य कलाओं में इस प्रश्न पर अक्सर विवाद होता है कि सौंदर्य 'वस्तुगत' धारणा है या 'व्यक्तिगत'। समाजवाद के समर्थक सौंदर्य को वस्तुगत मानते हैं। उनकी
राय में सुंदरता परिस्थितियों से पैदा होती है। डॉक्टर प्रशांत भी महसूस करता है
कि सुंदरता सचमुच अनुकूल परिस्थितियों से पैदा होती है। मेरीगंज में भी सुंदरता हो
सकती थी पर परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि सुंदरता विकसित होने से पहले ही झुलस जाती है।
वह सोचता है -"उसने देखा है … गरीबी, गंदगी और जहालत से भरी हुई दुनिया में भी सुंदरता जन्म लेती है। किशोर-किशोरियों
और युवतियों के चेहरे पर एक विशेषता देखी है उसने। कमला नदी के गड्ढों में खिले
हुए कमल के फूलों की तरह जिंदगी के भोर में वे बड़े लुभावने, बड़े मनोहर और सुंदर दिखाई पड़ते हैं, किंतु ज्यों ही सूरज की गर्मी तेज हुई, वे कुम्हला जाते हैं।"[16]
राजनीतिक पक्ष : मैला आँचल के कथानक का कालखंड वहाँ से आरंभ होता है जब आजादी मिलने वाली थी
और यह वहाँ खत्म होता है जहाँ आजादी बस मिली ही थी। भारत में लोकतांत्रिक पद्धति
का विकास आजादी से लगभग एक दशक पहले ही शुरू हो गया था। शुरुआती किस्म का लोकतंत्र
किस प्रकार का था, किस तरह के दल
लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा में लगे हुए थे और अशिक्षा तथा गरीबी से त्रस्त समाज में
लोकतंत्र का कैसा स्वरूप सामने आ रहा था- इन सभी पक्षों को रेणु ने पर्याप्त
विस्तार के साथ व्यक्त किया है।
उपन्यास में विशेष रूप से दो राजनीतिक दलों की
चर्चा है- काँग्रेस तथा सोशलिस्ट पार्टी। इस बात की पूरी संभावना थी कि अपने
समाजवादी विचारों के कारण रेणु काँग्रेस की कमियों तथा सोशलिस्ट पार्टी की खूबियों
पर विशेष ध्यान देते किंतु ‘आंचलिकता’ का पूरी तरह निर्वाह करते हुए उन्होंने
तटस्थता बनाए रखी है जिससे वे काग्रेस की खूबियाँ भी देख सके हैं और तत्कालीन
समाजवाद की विसंगतियाँ भी।
काँग्रेस उस समय की सबसे अधिक प्रचलित पार्टी है। यही
पार्टी स्वाधीनता संग्राम की मूल शक्ति रही है। इस पार्टी में बावनदास जैसे
समर्पित कार्यकर्ता इस बात से परेशान हैं कि- "भारथमाता अब भी रो रही हैं?"[17]
धीरे-धीरे जाति राजनीतिक जीवन की धुरी बनने लगी
है और काँग्रेस में भी जातिवाद फैलने लगा है। ऐसी स्थिति में बावनदास क्षुब्ध होकर
सोचता है "अब तो लोगों को चाहिए कि अपनी-अपनी टोपी पर लिखवा लें -भूमिहार,
राजपूत, कायस्थ, यादव, हरिजन ! …"[18] रचनाकार यह भी दिखाता है कि कांग्रेस पार्टी का मूल चरित्र
ऐसा है कि वह भूमिपतियों, जमीदारों और
पूंजीपतियों की पार्टी बनकर रह गई है। बावनदास जैसा समर्पित कार्यकर्ता पार्टी के
चरित्र परिवर्तन से क्षुब्ध है वह सोचता है- "जमींदारी प्रथा खत्म हो जाएगी?
तब ये काँग्रेसी जमींदार लोग क्या करेंगे?
सब मिल खोलेंगे शायद। इसीलिए प्रायः हरेक
छोटे-बड़े लीडर के साथ एक मारवाड़ी घूमता है।"[19]
काँग्रेस ऐसी पार्टी है जिसके पास अहिंसा सत्याग्रह जैसे
आदर्शवादी मूल्य हैं किंतु उन्हें आम आदमी समझ नहीं पाता। गांधी जी के ये मूल्य
साधारण कार्यकर्ता के हाथों में पहुँचकर कैसे मजाक का विषय बन जाते हैं, इस पक्ष को रेणु ने बालदेव के चरित्र के माध्यम
से व्यक्त किया है। बालदेव का हर बात में 'हिंसाबाद' को सूंघना,
बात-बात पर अनशन पर बैठ जाना और अपनी कायरता को
अहिंसा कहना वे अभिव्यक्तियाँ हैं जो इन मूल्यों को मजाक बनाती हैं। अंतिम रूप में
यह दिखाया गया है कि आजादी के बाद काँग्रेस पर भ्रष्ट और अपराधी तत्वों का
नियंत्रण स्थापित हो गया है। जुआ कंपनी चलाने वाला तथा नेपाली लड़कियों की तस्करी
करने वाला दुलारचंद कापरा अब कटहा थाना काँग्रेस का सेक्रेटरी है जो दारू, गाँजा जैसे अवैध पदार्थों की तस्करी करता है।
उपन्यासकार ने दुलारचंद कापरा द्वारा बावनदास की हत्या कराकर प्रकारांतर से संदेश
दिया है कि अब गांधी जी के असली मूल्य इतनी खतरनाक मौत मरने को अभिशप्त हैं। यह भी
संयोग नहीं है कि उपन्यासकार ने यह हत्या ठीक उसी दिन कराई है जिस दिन सारा देश
गांधी जी के श्राद्ध का आयोजन कर रहा है। उस दिन गांधीजी के मूल्यों की मौत
काँग्रेस के नए और डरावने चेहरे को पूरी सफलता के साथ व्यक्त करती है।
गाँव का दूसरा महत्वपूर्ण दल सोशलिस्ट दल है। यह स्वाभाविक
था कि रेणु इस दल के प्रति सहानुभूति रखें। ऐसा इस उपन्यास में थोड़ा बहुत प्रतीत
भी होता है पर यह सहानुभूति एक तो थोपी हुई नहीं लगती; दूसरे यह एकपक्षीय नहीं है क्योंकि उन्होंने इस दल में
उभरने वाली विसंगतियों का चित्रण भी किया है। कालीचरन को सोशलिस्ट पार्टी का नेता
बनाकर उन्होंने वे बातें कही हैं जिन्हें सुनकर आम आदमी गहरी शांति महसूस करता है।
उपन्यासकार लिखता है- "युगों से पीड़ित, दलित और अपेक्षित लोगों को कालीचरन की बातें बड़ी अच्छी
लगती हैं। ऐसा लगता है, कोई घाव पर ठंडा
लेप कर रहा हो। लेकिन कालीचरन कहता है- मैं आप लोगों के दिल में आग लगाना चाहता
हूँ। सोए हुए को जगाना चाहता हूँ। … मैं आप लोगों को मीठी बातों में भुलाना नहीं
चाहता। वह काँगरेसी का काम है। मैं आग लगाना चाहता हूँ।"[20]
समाजवादियों की मान्यता है कि समाज का विभाजन मूलतः आर्थिक
आधार पर होता है, सामाजिक आधार पर
नहीं। इसी मान्यता को तकनीकी शब्दावली में कहें तो वे सामाजिक संघर्ष को जातीय
नहीं, वर्गीय संघर्ष मानते हैं।
मैला आँचल का कालीचरन ऐसा ही प्रयास करता है और जातीय प्रतीत होने वाले संघर्ष की
वर्गीय व्याख्या करता है-"कालीचरन ने चमारटोली में भात खा लिया? जात क्या है ! जात दो ही हैं, एक गरीब और दूसरी अमीर। खेलावन को देखा,
यादवों की ही जमीन हड़प रहा है। … देख लो आँख
खोलकर गाँव में सिरिफ दो जात हैं। अमीर-गरीब !"[21]
सोशलिस्ट पार्टी के बेहतरीन सिद्धांतों को व्यक्त करने के
बाद उपन्यासकार उसकी विसंगतियों को स्पष्ट करता है। पहली विसंगति यह है कि जाति का
विरोध करने वाला यह दल अपने नेतृत्व को जातीय आधार पर ही निर्धारित करता है।
वासुदेव को मेरीगंज की कमान इसलिए दी जाती है कि वे यादव जाति के हैं। प्रबंधक
कहते हैं - "मेरीगंज में सबसे ज्यादा
यादवों की आबादी है। वहाँ आपका जाना ही ठीक होगा।"[22]
सोशलिस्ट पार्टी की दूसरी विसंगति यह है कि लोकहित की बात
करते-करते यह स्वहित को लोकहित से ऊपर रखने लगी है। यदि दफा 40 की अर्जी मंजूर हो जाती तो यह आम आदमी के हित
में होता किंतु कालीचरन इसके मंजूर न होने से खुश है - "यदि रैयत की दरखास
मंजूर हो जाती तो सभी लोग कँगरेस में चले
जाते। अब संघर्ष में सभी सोशलिस्ट पार्टी में ही रहेंगे।"[23]
तीसरी विसंगति यह है कि संघर्ष के नाम पर इसमें डकैतों,
खूनियों का प्रवेश होने लगा है। सोमा जाट और
चलित्तर कर्मकार जैसे लोग घोषित अपराधी हैं किंतु समाजवादी दल से इनका गहरा संबंध
है। कम्युनिस्ट पार्टी तो नामी डाकू चलित्तर कर्मकार को किसानों मजदूरों का प्यारा
नेता घोषित करती है और उस पर से वारंट हटाने के लिए परचा निकालती है। इस प्रकार
रेणु ने समाजवादी दल की विसंगतियों का भी खुला चित्रण किया है।
उपन्यास में मूलतः यही दो राजनीतिक दल हैं पर थोड़ी बहुत
चर्चा आर.एस.एस. तथा हिंदू महासभा जैसे दलों की भी हुई है। उपन्यासकार ने बहुत कम
प्रसंगों में इस दल पर भी कड़ी टिप्पणी की है। इस दल में अनुशासन ऐसा है कि
कार्यकर्ता स्वतंत्र रूप से सोचने को भी स्वतंत्र नहीं हैं और भ्रष्टाचार भी
विकसित होने लगा है।
सांस्कृतिक पक्ष : आँचलिक उपन्यास में सांस्कृतिक पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। आर्थिक,
राजनीतिक और सामाजिक स्थितियाँ आमतौर पर विविध
क्षेत्रों में एक सी हो सकती हैं, अतः उनका
साधारणीकरण आसानी से हो जाता है। किसी स्थान के भौगोलिक और सांस्कृतिक वर्णन ही
उसकी विशिष्टता स्थापित करते हैं क्योंकि
सामान्यतः इन दोनों पक्षों का साधारणीकरण नहीं हो पाता है। आँचलिकता की इस
प्रवृत्ति का निर्वाह करते हुए रेणु ने उपन्यास में मेरीगंज की लोकसंस्कृति के कई
सुंदर चित्र खींचे हैं। यहाँ जो गाँव दिखाया गया है, उसमें किसी भी उत्सवधर्मी भारतीय गाँव की तरह बात-बात पर
सांस्कृतिक आयोजन होते हैं। इसमें कहीं गाड़ी हाँकते हुए गाड़ीवानों द्वारा भउजिया
के गीत गाए जाते हैं -
“चढ़ली जवानी मोरा अंग अंग फड़के से
कब होइहैं गवना हमर रे भउजिया !
हथवा रँगाये सैयाँ देहरी बैठाई गइले
फिरहू न लिहले उदेश रे भउजिया !"[24]
कभी खम्हार खुलने पर बिदापत के नृत्य-गीत होते हैं, कभी वर्षा न होने पर इंद्र देवता को खुश करने
के लिए महिलाएँ जाट-जट्टिन का खेल खेलती हैं -
"नायक जी हो नायक हो,
खोले देहो किवड़िया हो नायक जी,
ढूँढे देहो जटिनियाँ हो नायक जी …'[25]
ऐसे सभी प्रसंगों को पूरी काव्यात्मकता के साथ रेणु ने
वर्णित किया है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित पंक्तियों में ध्वन्यात्मक सौंदर्य पूरी
लोक- संस्कृति के साथ विद्यमान है-
"धिन्ना धिन्ना धिन्ना निन्ना निन्ना !
धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना !"[26]
अतः हम देखते हैं कि 'मैला आँचल' में मेरीगंज नामक
गाँव के जीवन के सारे पक्षों तथा रूपों का वर्णन हुआ है। इस प्रकार देखें तो
मेरीगंज भारतीय गाँव का प्रतीक है। वास्तव में मेरीगंज के आँचलिक जीवन की समस्याएँ
केवल स्थानीय समस्याएँ नहीं हैं बल्कि देशव्यापी समस्याएँ हैं। इस विवेचन से यह
स्पष्ट हो जाता है कि रेणु ने समस्याओं को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है,
जो भी समाधान दिए हैं वे कुछ अर्थों में
आदर्शवादी कहे जा सकते हैं। मूलतः ‘मैला आँचल’ यथार्थ भवभूमि पर अधिष्ठित है। इसे
हम समाजवादी यथार्थ का उपन्यास कह सकते हैं। कुछ विचारकों का आरोप है कि यह रचना
किसी यथार्थवादी उद्देश्य को हासिल नहीं करती व यथार्थ के प्रति नॉस्टैल्जिक
नजरिया अपना कर चलती है। ये सभी विचार कुछ हद तक सही हो सकते हैं पर मूल बात यह है
कि रचनाकार ने इस रचना को किसी सामाजिक उद्देश्य से प्रेरित रचना के रूप में नहीं
लिखा है। उन्होंने अपने अंचल के यथार्थ के प्रत्येक अंश को संपूर्णता में प्रस्तुत
करने का प्रयास किया है। यही कारण है कि किसी भी विचारधारा के आईने में इस रचना की
सम्यक समीक्षा नहीं हो सकती। इसके कथ्य के बारे में अंतिम रूप से यही कहा जा सकता
है जो भूमिका में स्वयं लेखक ने कहा है - "इसमें फूल भी हैं शूल भी; धूल भी है, गुलाब भी; कीचड़ भी है,
चंदन भी; सुंदरता भी है, कुरूपता भी-मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।"
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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