- कु. मोनिका दुबे
शोध सार : हिंदी साहित्य में आंचलिकता के जनक फणीश्वरनाथ रेणु देशज दुनिया मे बसे देशज समाज की अग्रणी पंक्ति में रहे है। इनकी रचनाओं में देशज समाज की असमानता, असंगतियाँ, सामाजिक-राजनीतिक चेतना, ग्रामीण जीवन से जुड़े सवाल, जन-संस्कृति और जन आंदोलन सभी जनभाषा में जीवंत हुए हैं। रेणु पैदाइशी किसान थे। वे फसलों की तरह और एक जीवंत किसान की तरह ही साहित्य दुनिया रचते थे। परती परिकथा का पात्र जित्तन ट्रेक्टर से परती तोड़ता है रेणु असल जिंदगी में कलम से सख्ती तोड़ते हैं। मैला आँचल’ ? वही उपन्यास जिसमे हिंदी का एक भी शुद्ध वाक्य नहीं है? जिसे पढ़कर लगता है कि कथानक की भूमि में सती-सावित्री के चरण चिन्हों पर चलने वाली एक भी आदर्श भारतीय नारी नहीं है? मद्य-निषेध के दिनों में जिसमे ताड़ी और महुए के रस की इतनी प्रशस्ति गाई गई है कि लेखक जैसे नशे का ही प्रचारक हो, सरकार ऐसी पुस्तकों को प्रचारित ही कैसे होने देती है जी ! फणीश्वरनाथ रेणु कविता से कहानी और उपन्यास लेखन में आये। लेकिन मरने के पूर्व भी इमरजेंसी पर उन्होंने अपनी अंतिम कविता लिखी। जो इस बात का प्रतीक बनी कि अपने अंतिम दिनों में विस्तर पर कराहते हुए भी वह आपातकाल के विरोध करते हुए आजादी के लिए लड़ रहे थे। रेणु ने अपनी कहानी, उपन्यासों में स्वयं को पात्रों के मध्य रखा है। रेणु जी के कथा साहित्य और सभी भागीदारी से इन्हें "हिंदी का हीरामन" की उपाधि देना ही उचित होगा।
बीज शब्द : अस्मिता, अहंभाव, अभिमान, अंग-प्रत्यंग, पुरइन, कोका, ताड़ी का रस, प्रतिबध्दता, कचराही बोली,
अद्वेत, फगुआ गीत, महुए, सेतु, आंचलिकता, तन्मयता।
शोध आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु 4 मार्च 1911 को जन्में और 11 अप्रैल 1977 को स्वर्ग सिधार गए। इन्हें गाँव में फुलेश्वर के नाम से जाना जाता था। दादी ने प्यार से इन्हें रेनुआ नाम दिया था। जो आगे चलकर अमर शब्द शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु बन गया। इनके पिता इन्हें वकील बनाना चाहते थे और यह स्वयं स्टेशन मास्टर बनना चाहते थे पर न तो यह स्टेशन मास्टर बने और न ही वकील बल्कि शब्दो को सुंदरता के धागे में पिरोकर लिखने वाले एक लेखक बन गए। रेणु का जीवन
किसी उपन्यास से कम नही था। वे एक साहसी और आकर्षक व्यक्तित्व के उदार और बेफिक्र थे। रेणु को प्रेमचन्द के बाद दूसरा लोकप्रिय कथाकार कहा जाता था। इनकी भाषा, शिल्प ने पाठको पर इतना गहरा असर डाला कि आम आदमी से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती जैसे महान लेखक भी इनके मुरीद बन गए।
रेणु की आंचलिकता और किसानी जीवन - हिंदी साहित्य में आंचलिकता के जनक फणीश्वरनाथ रेणु देशज दुनिया मे बसे देशज समाज की अग्रणी पंक्ति में रहे है। इनकी रचनाओं में देशज समाज की असमानता, असंगतियाँ, सामाजिक-राजनीतिक चेतना, ग्रामीण जीवन से जुड़े सवाल, जन-संस्कृति और जन आंदोलन सभी जनभाषा में जीवंत हुए हैं। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी रचना में पूर्णिया जिले के ऐसे चित्र उकेरे है कि कोसी की माटी, रेणु की माटी के पर्याय रूप में देखी गयी। इसे हम दूसरे शब्दों में कहे तो "देशज जीवन से देशज माटी और देशज संस्कृति के गहरे रागात्मक रिश्तों का गद्यात्मक शैली में लिखा गया जीवन गीत है"(1) यहां मैं बात करूँगी की अंचिकलता का अर्थ क्या है? आंचलिकता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 'वॉल्टर स्कॉट' ने किया था। जब उन्होंने अपने आस-पास के वातावरण व आम-जन की कहानियों को उन्ही की भाषा मे उन्ही के शब्दों में लिखा। आंचलिकता के उड़ीसा के तीन उपन्यासकार फकीरचन्द, सेनापति, कालिंदीचरण पाणिनि और गोपीनाथ मन्तंगी बाद में बंगाली भाषा में विभूतिचरण, बंधोपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी का नाम सामने आया। प्रेमचन्द से पूर्व 1926 में शिवपूजन सहाय 'देहाती दुनिया' नामक उपन्यास अंचल विशेष पर लिख चुके थे। शायद विहारी अस्मिता और भोजपुरी भाषा को हिंदी में स्थापित करने की सफल कोशिश की जा रही थी।
राजेन्द्र यादव जी ने कहा था"रेणु के पहले भी आंचलिकता पर बहुत काम हुआ है,
बंगाल में जो बंगाली भाषा के प्रयोग हुए हैं और जो तरलता वहां दिखती है वह बहुत बाद में हिंदी में आई और इसमें रेणु का लेखन सफल हुआ है"। (2) आंचलिकता का अर्थ व्यापक मानना गलत है। आंचलिकता में क्षेत्र विशेष की भाषा व समाज को ही लेखक सामने लाता है। उसे ही आंचलिकता कहा जाता है। आंचलिकता प्रेमचन्द के कथासाहित्य में भी देखी गयी थी परंतु रेणु और प्रेमचन्द की आंचलिकता में और पात्रों में अंतर है। गांधी का प्रभाव रेणु और गांधी दोनो पर ही देखा गया है। रेणु के गांधी की विशेषता अलग देखी गयी है। 'परती परिकथा' उपन्यास में गांधी के मरने के बाद पूरा गांव वहां मुंडन कराता है। यह बात प्रेमचन्द के पात्रों में नही दिखी। 1942 में रेणु ने आजादी के आंदोलनों को देखा और उनमें हिस्सा भी लिया। इन्होंने अपना पहला उपन्यास 1954 में 'मैला आँचल' नाम से निकाला। जिसे आंचलिकता की पृष्ठभूमि कहा गया। जिसमे 69 परिच्छेद और 275 पात्र थे। मैला आँचल को कोई नहीं छाप रहा था। तब रेणु ने अपनी बीबी के गहने गिरवी रख प्रेस खोला और उसमें मैला आँचल को प्रकाशित किया। लेकिन प्रकाशन के 1 वर्ष तक ये गोदाम में ही पड़ा रहा। लेकिन नलिन विलोचन शर्मा जी की समीक्षा इसके लिए मील का पत्थर साबित हुई, जिससे इनको अधिक ख्याति प्राप्त हुई। यह कहानी मेरीगंज गाँव की है इस कहानी का नायक कोई एक व्यक्ति नही बल्कि सम्पूर्ण गाँव है। यह बिहार के क्षेत्र विशेष में रह कर वहां के जनजीवन को आधार बना कर लिख रहे थे। इसलिए उनके साहित्य को तुरंत ही अंचल का साहित्यकार कह दिया और रेणु को आंचलिकता का नायक बना दिया। हिंदी में एक रिवाज चल गया था कि हम उपन्यासों, कहानियों, कविताओं को एक खांचे में बंद कर देते थे। जैसे इन्हें पुराना, समकालीन, समांतर, दलित, बामपंथी, दक्षिण या स्त्री विमर्श के खांचे में शायद यह इसलिए भी हो सकता है क्यों कि यह आम-जन के साथ कदम से कदम मिला कर चले थे। गांधी जी का कहना था कि "भारत की आत्मा में गाँव निवास करता है"(3) क्यों कि भारत जब आजाद हुआ उस समय चार ही बड़े बड़े शहर थे, 70% हिस्सा ग्रामीण था। रेणु के साथ-साथ नागार्जुन ने भी विहार की पृष्ठभूमि पर रतिनाथ की चाची, बलचनामा, बाबा वटेश्वरनाथ जैसे उपन्यासों में आम-जनता के बारे में लिखा था। इसी के साथ भिखारी ठाकुर भी धीरे-धीरे बहुत प्रचलित होते जा रहे थे।
रेणु पैदाइशी किसान थे। वे फसलों की तरह और एक जीवंत किसान की तरह ही साहित्य दुनिया रचते थे। "परती परिकथा का पात्र जित्तन ट्रेक्टर से परती तोड़ता है रेणु असल जिंदगी में कलम से सख्ती तोड़ते हैं। जित्तन परती को प्राणपुर में अपनी कीमती आंखों से देखता है"। (4)किसान के पास इतनी कीमती आंखे नही है फिर भी वह बहुत कीमती है। यह किसान कोई ओर नही है अपने रेणु ही है। रेणु अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी से एक वातावरण गढ़ते है। वे अपने व्योरे और नोटस को नाटकीय तब्दील देते थे। उस समय उनमें सहजता और आत्मीयता नजर आती थी। रेणु के भीतर गाँव हमेशा से जीवित रहा है। वे कहते हैं "मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर अपने गाँव चला जाता हूँ। जहाँ मैं घुटने से भीतर धोती या तहमद उठा कर फ़टी गंजी पहने गाँव की गलियों में खेतों-मैदानों में घूमता रहता हूँ। मुखोटा उतारकर ताजा हवा अपने रोग ग्रस्त फेफड़ों में भरता हूँ। सूरज की आंच में अंग-प्रत्यंग को सेंकता हूँ। झमाझम वरखा में दौड़ -दौड़कर नहाता हूँ। कमर भर कीचड़ में घुसकर पुरइन और कोका के फल लोढ़ता हूँ"। (5) इन्हें अपनी स्मृतियों से बेहद लगाव था। साहित्य लिखने में जब थकावट महसूस करते थे तो लोकगीतों को गुनगुनाने लगते थे। इनके व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण था जो पीढ़ियों के भेद को समाप्त कर देता था। वे तीन पीढ़ियों को जोड़ने वाले सेतु थे। रेणु का एक ऐसा चरित्र उभरकर सामने आता है। जिसका जीवन खेत की तरह उपजाऊ है। जिसे केवल फसल पैदा करना आता है.. बिना किसी स्वार्थ के। फणीश्वरनाथ रेणु ने एक बार कहा था कि" एक एकड़ धरती में धान उपजाना, उपन्यास लिखने जैसा है। लेखन का आनन्द मिलेगा खेती करने में"(6) कोविड के दौरान सबसे ज्यादा मजदूर विहार से पलायन हुए थे। आज की राजनीति और रेणु की राजनीति के दौर के हालात कुछ ज्यादा बदले हुए नही थे। साहित्य के दौर में देखे तो गौरीनाथ के उपन्यास या पुष्यमित्र की पुस्तकों में उपलब्ध विहार में कोई खास बदलाव नही दिखता।
मिथलेश्वर कुमार राय की कविताओं में आंचलिकता की सीधी खुशबू आती है। पर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि "कहानी-कहानी है,
कविता-कविता है और उपन्यास-उपन्यास"(7) प्रेमचन्द और रेणु की तुलना करके हिंदी को खांचों में देख रहे हैं जो कि गलत है। यह भी जानने की आवश्यकता है क्या शिवमूर्ति, संजीव, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, अमृतलाल नागर, अजय नावरिया, ममता कालिया, मन्नू भंडारी, मैयत्री पुष्पा, पंकज भिष्ट, उदय प्रकाश, ओमप्रकाश बाल्मकि, नासिरा शर्मा से लेकर मराठी और अनेक भारतीय भाषाओं में देशज शब्दों के माध्यम से अपने अंचल को लगातार लिख रहें हैं। यह कहना बिल्कुल गलत होगा कि रेणु ही आंचलिकता के पर्याय है क्यों कि आदिवासियों को लेकर जितना काम पुन्नी सिंह ने किया उतना किसी ओर ने नही किया। सत्यनारायण पटेल के उपन्यासों में जिस तरह गाँव भीतर गाँव बदल रहा है वहां आंचलिकता भरपूर मात्रा में दिखती है है। मामेरा या गो-गो-गो जैसी मनीष वैध की कहानियां हो जिनमें आंचलिकता की भाषा और परम्परा की बात की गई है। इसलिए सिर्फ रेणु के ही आंचलिकता को लोकप्रिय या रेणु को ही आंचलिकता का पर्याय कहना बिल्कुल गलत होगा। रेणु ने स्वयं मैला आँचल पर एक विज्ञापन लिखा जो "प्रकाशन समाचार" में 1957 जनवरी में प्रकशित हुआ था।
"मैला आँचल’ ? वही उपन्यास जिसमे हिंदी का एक भी शुद्ध वाक्य नहीं है ? जिसे पढ़कर लगता है कि कथानक की भूमि में सती-सावित्री के चरण चिन्हों पर चलने वाली एक भी आदर्श भारतीय नारी नहीं है ? मद्य-निषेध के दिनों में जिसमे ताड़ी और महुए के रस की इतनी प्रशस्ति गाई गई है कि लेखक जैसे नशे का ही प्रचारक हो. सरकार ऐसी पुस्तकों को प्रचारित ही कैसे होने देती है जी !
वही ‘मैला आँचल’ न जिसमे लेखक ने न जाने लोक गीतों के किस संग्रह से गीतों के टुकड़े चुराकर जहाँ-तहाँ चस्पा कर दिए हैं ? क्यों जी, इन्हें तो उपन्यास लिखने के बाद ही इधर-उधर भरा गया होगा? मैला आँचल’ ! हैरत है उन पाठकों और समीक्षकों की अक्ल पर जो इसकी तुलना ‘गोदान’ से करने का साहस कर बैठे ! उछालइये साहब, उछालिये ! जिसे चाहे प्रेमचंद बना दीजिये, रविंद्रनाथ बना दीजिये, गोर्की बना दीजिये ! ज़माना ही डुग्गी पीटने का है !
तुमने तो पढ़ा है न ‘मैला आँचल’ ? कहानी बताओगे ? कह सकते हो उसके हीरो का नाम ? कोई घटना-सूत्र ? नहीं न ! कहता ही था. न कहानी है, न कोई चरित्र ही पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक छा सका है. सिर्फ ढोल-मृदंग बजाकर ‘इंकिलास ज़िंदाबाग’ जरूर किया गया है. ‘पार्टी’ और ‘कलस्टर’ और ‘संघर्क’ और ‘जकसैन’ – भोंडे शब्द भरकर हिंदी को भ्रष्ट करने का कुप्रयास खूब सफल हुआ है. मुझे तो लगता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में या यूँ कहूँ कि हिंदी-साहित्यिकों की आँखों में, ऐसी धुल-झोंकाई इससे पहले कभी नहीं हुई. ‘मैला आँचल’, ‘मैला आँचल’ सुनते-सुनते कान पक गए. धूल-भरा मैला-सा आँचल ! लेखक ने इस धूल की बात तो स्वयं भूमिका में कबूल कर ली है एक तरह से !! फिर भी …
अरे,
हमने तो यहाँ तक सुना है, ‘मैला आँचल’ नकल है किसी बंगला पुस्तक की और बंगला पुस्तक के मूल लेखक जाने किस लाज से कह रहे हैं, ‘नहीं ‘मैला आँचल’ अद्वितीय मौलिक कृति है.’ एक दूसरे समीक्षक ने यह भी कह दिया, जाने कैसे, कि यदि कोई कृतियाँ एक ही पृष्ठभूमि पर लिखी गयी विभिन्न हो सकती है तो ये है !
पत्थर पड़े हैं उन कुन्द जेहन आलोचकों के और तारीफ़ के पुल बंधने वालों के जो इसे ग्रेट नावल कह रहे हैं. ग्रेट नावल की तो एक ही परख हमे मालूम है,
उसका अनुवाद कर देखिये ! कीजिये तो ‘मैला आँचल’ का अनुवाद अंग्रेजी में, फिर देखिये उसका थोथापन !
अरे भाई,
उस मूरख, गंवार लेखक ने न केवल समीक्षाकों को ही भरमाया है, पाठकों पर भी लद बैठा है. देखते-देखते, सुनते हैं, समूचा एडिशन ही बिक गया – न्यूज़प्रिंट के सस्ता कागज़ पर छपा. एक कॉपी भी नहीं मिलती कई महीनों से!"(8)
कहानीकार रेणु - साहित्य की लगभग सभी विधाओं में रेणु ने अपनी कलम चलाई। जितनी तेजी से वे कहानियों को बहार लेकर आते हैं उतनी ही तेजी से नई कहानियां उनके भीतर समा जाती है। रेणु हमें रागों-रंगों की सच्चाई से जोड़ते हैं जिसके बिना हमारी ये दुनिया ही अधूरी है, अधुरे हम रह जाते अधूरा हमारा ख्वाब रह जाता। रेणु की दुनिया मे जिस तरह डॉ प्रशांत है वही जित्तन जैसे पात्र भी है, ठीक गुलजार के चांद की तरह। रेणु की कहानी जीवन उपन्यासकार के जीवन से अलग ही है। प्रेमचन्द के बाद कोई ऐसा लेखक नही हुआ जिसने ग्रामीण छवियां उकेरी हो। जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल सभी ने स्वयं को ग्रामीण परिवेश से अलग रखा ऐसे में फणीश्वरनाथ रेणु ने ठेठ ग्रामीण परिवेश और आंचलिकता को हिंदी कहानी के परिदृश्य पर उभारा। रेणु के पात्र हिंदी कहानी में अधिक विश्वसनीय है जो हमें अपनी आंचलिकता में बांध लेते हैं। रेणु जब अपनी दुनिया मे चित्र बनाते हैं तब इतनी तन्मयता के साथ बनाते हैं कि उनके चित्र, शब्द और चेतना मिलकर एकाकार हो जाते हैं। इनके पात्रों को हम न तो प्रगतिशील कह सकते हैं, न मार्क्सवादी और न ही किसी पार्टी विशेष से सम्बंधित उनके पात्र अपनी जगह स्वयं बनाते हैं। परिवेश जितना रेणु की कहानियों में जीवित हुआ उतना किसी अन्य कहानीकार ने नही किया। पात्र और परिवेश के द्वेत को वह निर्मित नही करते बल्कि दोनो का अद्वेत गढ़ते है। यही रेणु की खूबी है। रेणु जी ने तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम, रसप्रिया, ठेस, आत्मासाक्षी, लाल पान की बेगम जैसी अविस्मरणीय कहानियाँ हिंदी साहित्य को दी। लेकिन यंहा मैं एक बात कहना चाहूंगी कि उन्होंने और कुछ न लिख कर सिर्फ ‘तीसरी कसम’ भी लिखी होती तब भी वे गुलेरी जी की तरह हिंदी जगत में प्रसिद्ध व अमर होते। रेणु ने कुल 63 कहानियाँ लिखी। पहली कहानी विश्वमित्र में 27 अगस्त 1944 को प्रकाशित हुई और अंतिम कहानी अग्निखोर साप्ताहिक पत्रिका हिंदुस्तान के 5-12 नबम्बर 1972 के अंक में नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी। इनकी अन्य कहानियां अलग-अलग पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। धर्मवीर भारती के सम्पादन में निकलने वाली 'निकष' पत्रिका में 'रसप्रिया' 1955 में छपी, 1956 में श्रीपतराय की पत्रिका 'कहानी 'में 'लाल पान की बेगम' प्रकाशित हुई, नर्मेदेश्वर प्रसाद के सम्पादन में 'अपरम्परा' में उनकी कहानी 'तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम' प्रकाशित हुई। इनका पहला कहानी संग्रह ठुमरी शीर्षक से 1959 में निकला जिसमें नौ कहानियाँ संकलित थी। रसप्रिया, तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम, लाल पान की बेगम, पंचलाइट, सिरपंचमी का सगुन, तीर्थोदक, तीन बिंदियां, ठेस और नित्यलीला। इन सब ने रेणु को एक नए कहानीकार के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया। 1955-1959 तक की अवधि इनकी कहानियों का स्वर्णकाल था।
रेणु के कथा लेखन के तीन पड़ाव थे, पहला 1954 में जब "मैला आँचल" प्रकाशित हुआ। जिससे इन्हें खूब ख्याति मिली। दूसरा 1955 में जब ‘रसप्रिया’ प्रकाशित हुई और तीसरा 1966 में जब ‘तीसरी कसम’ पर फ़िल्म बनी और जिसे खूब प्रसिद्धि मिली। जिसने रेणु को एक किवदंती पुरूष बना दिया था। अब उनके लेखन से पत्रिकाओं की मर्यादा बढ़ जाती थी। इन्होंने कभी नही सोचा होगा कि एक दिन उनकी रचनाओ के देश-विदेश में अनुवाद होंगे और उस पर फ़िल्म भी बनेगी, नाटक होंगे और इन्हें प्रेमचंद के बाद दूसरा लोकप्रिय कथाकार कहा जाने लगेगा। रेणु ने औचित्यपूर्ण कहानियाँ लिखी जो अपनी ओर आकर्षित करती थी। रेणु के कहानियों के सम्बंध में महत्वपूर्ण कथन है-"रेणु कहानियाँ लिखते नहीं, बुनते हैं, जैसे कबीर चादर बुनते थे और उसी तर्ज पर अपनी कविता भी. कबीर ने चादर बुनने की प्रक्रिया अपने एक पद में बतलायी है. ठोंक-ठोंक के बीनी चदरिया. वह चादर ठोंक-ठोंक कर बुनते हैं, ढीले-ढाले ढंग से नहीं. उनकी बुनावट का यह कसाव ही उनकी कला और कविता का उत्कर्ष है. मजाल नहीं कि एक शब्द या एक सूत का बेज़ा इस्तेमाल हो जाय. इस मायने में रेणु के आदर्श कबीर ही हैं. वह भी ठोंक-ठोंक कर अपनी कहानियाँ रचते हैं. शब्दों के महत्त्व अपनी जगह सुरक्षित हैं, लेकिन उनकी कहानियाँ पढ़ते समय शब्द अदृश्य होने लगते हैं और पाठक के मन में परिवेश मूर्तमान हो उभरने लगते हैं, जिसमें राग भी है, अनुराग भी. गीतात्मकता उनके उपन्यासों में भी है, लेकिन उसका सर्वांग रूप उनकी कहानियों में ही उभरता है. उपन्यासों में गीतात्मकता को पूरी तरह सुरक्षित रखना उसके धज अथवा कैनवास के कारण मुश्किल भी था. कहानियों में इसे सुरक्षित रखना रेणु के लिए संभव था. इसमें वह सफल भी दिखते हैं"(9)
रेणु सच्चे अर्थों में ग्रामीण जीवन के गाते हुए कलाकार हैं। जैसा कि रेणु ने लोकगीत के बारे में कहा है-" हर मौसम में मेरे मन के कोने-कोने में उस ऋतु के लोकगीत गूंजने लगते हैं"(10) लेखन की प्रतिबद्धता के बाद भी रेणु सामाजिक सांस्कृतिक जीवन से अलग नही हुए। रेणु के कथा साहित्य में - ‘"फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरुपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। ….रेणु के कथन का ये हिस्सा जिसमें वो क़हते हैं कि किसी से दामन बचा कर नहीं निकल पाया .... (11) रेणु की प्रतिबद्धता को दर्शाता हैं। “वे कहते हैं –‘’मैं प्रतिबद्धता का केवल एक हीं अर्थ समझता हूँ –आदमी के प्रति प्रतिबद्धता, बाकी सब बकवास है। कारण यही है कि रेणु के कथा साहित्य में जीवन और आम आदमी का सूक्ष्त्म व्यापार मौजूद है। शिवदयाल के शब्दों में कहें तो –“प्रेमचंद के यहाँ यदि यथार्थ का बेस स्ट्रक्चर है तो रेणु के यहाँ सुपर स्ट्रक्चर मौजूद है। रेणु के साहित्य में सत्य और मानुष को कोशिश करके खोजना नहीं पड़ता है बल्कि वो हर तरफ बिखरे मिल जाते हैं। यदि प्रेमचंद अपने कथा साहित्य में पहली बार साधारण व्यक्ति को स्थापित करते हैं तो रेणु पहली बार उनकी राजनैतिक चेतना और जातीय अंतर्विरोध को अभिव्यक्ति देते हैं। रेणु ने प्रेमचंद की तरह गाँव को अपना विषय बनाया लेकिन रेणु के गाँव प्रेमचंद के गाँव से भिन्न है और उनके पात्र घीसू, माधव से आगे के मनुष्य। रेणु का साहित्य सिर्फ लोक-जीवन का मुग्ध –चित्रण नही है बल्कि यह बृहत्तर भारतीय यथार्थ का प्रतिनिधित्व करता है। रेणु ने अपने जीवन और रचना, दोनों में मानव जीवन को ऊंचा स्थान दिया है। आधुनिक भूमि –सुधारो से उत्पन्न नई परिस्थ्तियो ने ग्राम जीवन को नया संस्कार दिया है जिससे ग्राम चरित्रों में मानसिक धरातल पर एक परिवर्तन हुआ।
रेणु का साहित्य केवल मेरीगंज और परानपुर तक ही सीमित नही था बल्कि नेपाल में भी शब्दों का गहरा सम्बन्ध था। 'नेपाल मेरी सोनोआमा' रेणु की भावात्मक अभिव्यक्ति का प्रमाण है। भारत भूमि पर तो फणीश्वरनाथ मंडल या फनेशरा या रिनवा का जन्म हुआ था। इन्हें रेणु नाम इनके 'दोस्तबाप" नेपाल निवासी कृष्णा प्रसाद ने दिया था। रेणु की भीतर की चिंगारियों ने उन्हें क्रांतिदूत बना दिया था। परती ; परिकथा में रेणु ने आज़ादी के कारण उत्पन्न हुये इस हलचल के बारे में लिखा है –“परानपुर ही नहीं, सभी गाँव के परिवार टूट रहे हैं, व्यक्ति टूट रहा है-रोज –रोज काँच के बर्तनों की तरह। ....नहीं !...निर्माण भी हो रहा है। ...नया गाँव, नए परिवार और नए लोग"। (12) इसी बनने बिगड़ने को रेणु अपने कथा साहित्य में साधने का प्रयत्न करते हैं। उपन्यास का मुख्य कार्य मानवीय अनुभवों को निष्ठापूर्वक ईमानदारी से व्यक्त करना है। उपन्यास में रूपात्मक रूढ़ियों का अभाव इसमे यथार्थवादी विलक्षणता के कारण है। आशाओं–आकांक्षाओं को व्यक्त करना और उसकी तूफानी दुनिया को चित्रित करना रेणु की विशेषता है। भारत की राजनीति के प्रति उनका इतना ज्यादा मोहभंग हो गया था कि उन्होंने ‘दिनमान’ पत्रिका में लिखा था" मैंने आजादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नही लड़ी. अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता हूँ कि यह कब खत्म हो अपने सपनो को साकार करने के लिए जनसंघर्ष में सक्रिय हो गया हूँ"। (13)
इस तरह निष्कर्ष है कि फणीश्वरनाथ रेणु कविता से कहानी और उपन्यास लेखन में आये। लेकिन मरने के पूर्व भी इमरजेंसी पर उन्होंने अपनी अंतिम कविता लिखी। जो इस बात का प्रतीक बनी कि अपने अंतिम दिनों में विस्तर पर कराहते हुए भी वह आपातकाल के विरोध करते हुए आजादी के लिए लड़ रहे थे। रेणु ने अपनी कहानी, उपन्यासों में स्वयं को पात्रों के मध्य रखा है, रेणु जी के कथासाहित्य और सभी भागीदारी से इन्हें "हिंदी का हीरामन" की उपाधि देना ही उचित होगा। रेणु ने लिखा है – ‘‘हीराबाई से बात करने से पहले हीरामन के मन में सवाल उभरता है कि – ‘कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता है, दिल खोलकर गप तो गांव की बोली में ही की जा सकती है। (14) रेणु का ये कथन अपने आप में स्पष्ट है कि साहित्य रचने के लिए विशिष्टता नही सहजता की जरूरत होती है। रेणु अपने साहित्य और रचना प्रक्रिया में उतने ही सहज और गंवई है, जितने उनके पात्र हीरामन। उन्होंने हीरामन की सी सहजता से अपने साहित्य को रचा है वो अपनी रचनाओं में हीरामन की तरह गाते है, गपियाते हैं, और लोक धुनों पर नाचते हैं। रेणु सिर्फ कलमकार नहीं बल्कि ग्राम्य जीवन के कलाकार भी हैं। रेणु फगुआ, होली, चैता, बारहमासा, जैसे कई तरह के लोकगीतों के जानकार थे। रेणु के हीरामन की चर्चा हिंदी जगत में जितनी हुई उतनी शायद ही किसी पात्र की हुई होगी। प्रसिद्ध कथाकार रॉबिन शॉ पुष्प ने रेणु की याद में एक पुस्तक में लिखी थी, उसका नाम ही था – "उड़ गया सोने का हीरामन- फणीश्वरनाथ रेणु"। (15)
1.अनन्त : रेणु साहित्य : द्विज अस्मिता के विपरीत शोषितों-पीड़ितों की अस्मिता,
2. संदीप नाइक : फणीश्वरनाथ रेणु और आंचलिकता (बनासजन पत्रिका-सं पल्लव), रेणु
विशेषांक -2022) shorturl.at/HKRT2
4. गिरीन्द्र नाथ झा : फ़णीश्वरनाथ रेणु की दुनिया जिसके बिना हम अधूरे है, (गांव कनेक्शन समाचार पत्र में प्रकशित-2015)-
5.वही, https://www.gaonconnection.com/samvad/fanishwar-nath-renu-writer-literature-farmers-village-chanka-bihar-50481
6.वही, https://www.gaonconnection.com/samvad/fanishwar-nath-renu-writer-literature-farmers-village-chanka-bihar-50481
7. संदीप नाइक : फणीश्वरनाथ रेणु और आंचलिकता (बनासजन पत्रिका-सं पल्लव), रेणु
विशेषांक -2022) shorturl.at/izOQ5
8. विमल कुमार : रेणु जन्मशती वर्ष: हिंदी का हीरामन,
9. प्रेमकुमार मणि : कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु, समालोचन- https://samalochan.blogspot.com/2020/05/blog-post_29.html?m=1
10. अनन्त : रेणु साहित्य : द्विज अस्मिता के विपरीत शोषितों-पीड़ितों की अस्मिता,
11. फणीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1954, मुख्य भूमिका
12. फणीश्वरनाथ रेणु : परती परिकथा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1957, पृ.सं-34
14. भारत यायावर(सम्पादक) : रेणु रचनावली-भाग-1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,पृ. सं-141
(4मार्च 1921-11अप्रैल 1977) रेणु की सौंवी जयंती पर विशेष -- https://www.forwardpress.in/2021/03/remembering-renu-on-his-100th-birth-anniversary-hindi/
16.हैंसन कैथरीन : द राइटिंग्स ऑफ फणीश्वरनाथ रेणु, जर्नल ऑफ साउथ एशियन लिटरेचर,
2011, जानकी पुल, 2 मार्च-23 अप्रैल 2020 को प्राप्त हुआ- https://www.jankipul.com/2011/03/blog-post-8.html
18.फणीश्वरनाथ रेणु : डायलॉग विथ लौठार लुत्से:अंग्रेजी में पाए जातें है लौठार लुत्से, हिंदी राइटिंग्स इन पोस्ट कोओनिअल इंडिया : जयपुर : मनोहर 121-129, 23 अप्रैल 2020 को प्राप्त हुआ-लाठोर लुत्से- https://web.archive.org/web/20080516094010/ http://www.museindia.com/showcont.asp?id=247
शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
monikadubey381@gmail.com, 9810668990
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
एक टिप्पणी भेजें