- डॉ. उमेश चन्द्र
शोध सार : फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों के अध्ययन से यह तथ्य सामने आता है कि उच्चवर्गीय नारियों में कुछेक नारियाँ महिमामयी प्रकृति की हैं जबकि उच्चवर्गीय नारियाँ चालाक और शोषक प्रवृत्ति की हैं। रेणु अपने उपन्यासों में नारी-चित्रण करते ही हैं, इसके साथ नारी मन की भावनाओं और उसकी मनःस्थितियों का संश्लिष्ट चित्रण भी करते हैं। ‘परती: परिकथा’ उपन्यास द्वारा यह पता चलता है कि निम्नवर्गीय नारी बड़े घरों में जैसे जमींदार आदि की हवेलियों में झाड़ू आदि देकर जीवन-यापन किया करती थीं। संक्षेप में नारी की नियति या नारी चित्रण की परिणति उसके बाध्य स्वरूप में ही नहीं है। स्त्रियाँ घरों, गलियों, कस्बों और शहरों से ही आई हैं। पुरुष अगर स्त्री के साथ मिलकर घरों, दफ्तरों, कारखानों, सड़कों, गलियों को ज्यादा रहने, काम करने, घूमने-फिरने योग्य स्थान नहीं बना सकता तो स्त्रियों को अपना रास्ता अलग चुनने का फैसला करना ही पड़ेगा। नारी का आधार नारी मन की भावनाओं और मनःस्थिति पर निर्भर है। उसका अस्तित्व सिर्फ समाज और पुरुष वर्ग के लिए मिट जाने के लिए ही नहीं, वरन स्वयं कर्मक्षेत्र में उतरने के लिए है। एक स्वतंत्र बुद्धिमान और पूर्ण पुरुष की आवश्यकता भी यही है कि उसे स्वतंत्र, बुद्धिमती और पूर्ण महिला का संसर्ग प्राप्त हो, किसी देवी या दानवी, स्वामिनी या दासी, बुद्धिजीवि या कामिनी, पर्दे की रानी या निर्लज्जा का नहीं। सभ्यता के विकासरूपी वाहन की प्रक्रिया में नारी और पुरुष वास्तव में दो पहिए बनकर चलने चाहिए। रेणु की नारियाँ गोदान की धनियां हैं, तो मिस मालती भी हैं। रेणु ने अपने साहित्य में तत्कालीन सामाजिक समस्याओं चित्रण इतना सटीक किया है कि पढ़ते-पढ़ते तत्कालीन मानव-जीवन की दुर्दशा पर अनायास ही आँखों से आँसू छलकने लगते हैं। राजनीति की दृष्टि से यह समय भारतीय इतिहास में जन-जागृति का काल था।
बीज शब्द : नारी, परतंत्रता, वर्णव्यवस्था,
जाति, ग्राम्य-जीवन ।
मूल आलेख : साहित्यकार सबसे अधिक संवेदनशील प्राणी है। वह अपने समय की परिस्थितियों से प्रभावित होता है। साहित्यकार और युगीन परिस्थितियों के मध्य अन्योन्याश्रित संबंध हैं। किसी भी साहित्यकार के साहित्य का अध्ययन के लिए तत्कालीन परिस्थिति की आवश्यकता होती है। अतः रेणु की युगीन परिस्थितियों को समझना आवश्यक है। साहित्य समाज का दर्पण है और एक ओर साहित्य में जहाँ युगीन समाज प्रतिबिंबित होता है तो वहीं दूसरी ओर साहित्य समाज का पथ प्रदर्शक भी है। समाज में क्रांतिकारी जहाँ क्रांति के माध्यम से सुव्यवस्था स्थापित करना चाहता है, वहीं साहित्यकार अपने आसपास के वातावरण से प्राप्त अनुभवों में कल्पना रूपी रंग से साहित्य सृजित कर एक फलक स्थापित करता है। फणीश्वरनाथ रेणु का युग 20वीं सदी के दूसरे दशक की समाप्ति के बाद शुरू होता है जो कि इतिहास की दृष्टि से काफी उलझा हुआ काल है। इस समय भारतवर्ष अंग्रेजी सरकार के क्रूर शिकंजे में जकड़ा हुआ था। सभी भारतवासी परतंत्रता का दयनीय दंश झेल रहे थे। चारों तरफ अंग्रेजों के अत्याचारों से लोग हा-हाकार कर रहे थे तथा बहुत से भारतीय बहादुर नौजवान देश की आजादी के लिए खून की होली हंसते-हंसते खेल रहे थे। गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बन रही थीं तथा भारतीय जनमानस आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। ऐसे समय में जब रेणु जी युवा अवस्था में पहुँचे, तो आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। रेणु जी समसामयिक गतिविधियों एवं परिस्थितियों से इतने प्रभावित हुए कि एक ही साथ बौद्धिक के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय हिस्सेदारी के स्तर पर कार्यरत हुए। फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी साहित्य जगत के स्वयंभू थे। अंग्रेजीयत के विरोध का संस्कार उनके मनोमस्तिष्क में विद्यमान था। भारतवर्ष में अंग्रेजी साम्राज्य पहले से ही स्थापित था और अंग्रेज सरकार भारतीय जनता का शोषण कर रही थी। डॉ. उर्मिला शर्मा अपनी पुस्तक ‘भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन’ में लिखती हैं, ‘‘उन्होंने भारतवर्ष की स्थिति का अध्ययन कर यह परिणाम निकाला हुआ था कि भारतवर्ष सभी क्षेत्रों में पिछड़ा हुआ है। अतः वे भारतवर्ष पर अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति की छाप छोड़ते जा रहे थे।’’1 परिणामस्वरूप ईसाई धर्म का प्रभाव और अंग्रेजी संस्कृति का रंग बड़ी तेजी से चढ़ रहा था। भारतवर्ष में इस समय धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में पंडितों, पुरोहितों का पाखंड, बाल-विवाह, जाति-पाँति, भेदभाव आदि अनेक बुराइयाँ अपनी जड़ें मजबूत किए हुए थीं, ‘‘19वीं सदी में स्थापित समाज सुधार संस्थाओं जैसे ब्रह्म समाज, नवीन ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज व आर्य समाज आदि ने अथक परिश्रम कर सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करना चाहा परन्तु अब भी सामाजिक कुरीतियाँ लगभग ज्यों की त्यों बनी हुई थीं। वर्ण-भेद की सामाजिक बुराई अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई थीं। सामाजिक संगठन की वर्ण अर्थात जाति योजना का रूप ऐसा है कि इसका उपयोग भारतवर्ष के गाँव में कृषि उत्पादन के संगठन में विशेष रूप से पाया जाता है। प्राचीन समाज में मोटे तौर पर तीन ऐसे वर्ग मिलते हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उत्पादन के काम में लगे होते हैं और साथ ही प्रभुत्व तथा पराधीनता के संबंध के सूत्रों से एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। किसी भी समुदाय में सबसे ऊपर का वर्ग उन ऊँची जातियों से बना होता था जिनके सदस्य अपने को भू-स्वामी या जमींदार मानते थे। ऊँची जाति के इन जमींदारों में नीचे बहुत से मध्यवर्गीय आते थे जिन्हें किसी न किसी श्रेणी के पट्टेदार कहा जाता था, खेतीबाड़ी को वास्तव में ये ही करते थे। इन दो वर्गों के नीचे वे जातियां और थीं जिनके सदस्य कृषक, मजदूर या कृषिदास होते थे। वे जिस जमीन को बोत-जोतते थे, उन पर उनका कोई हक नहीं होता था। ग्रामीण समाज में सबसे निम्न स्थिति में पड़े हुए भूमिहीन लोग उन जातियों के होते थे जिनका चारों वर्णों में कोई स्थान नहीं होता था।’’2
भारतीय वर्णव्यवस्था की इकाई सवर्ण जाति अपने आपको उच्च समझती थीं। वे निम्न जाति से भेदभाव करती थीं। छूआछूत, भेदभाव निम्न जाति के होने के साथ सामाजिक समस्याएँ थीं। रेणु ने अपने साहित्य में तत्कालीन सामाजिक समस्याओं चित्रण इतना सटीक किया है कि पढ़ते-पढ़ते तत्कालीन मानव-जीवन की दुर्दशा पर अनायास ही आँखों से आँसू छलकने लगते हैं। राजनीति की दृष्टि से यह समय भारतीय इतिहास में जन-जागृति का काल था। देश लंबे अरसे से पराधीन था, पर मुक्ति की छटपटाहट और कसमसाहट से राष्ट्र अंगड़ाई लेकर अपने ऊपर आरोपित बोझ को उतार फेंकने की तैयारी कर रहा था। गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन चलाए। ‘अंग्रेज भारत छोड़ो’ आंदोलन ने अंग्रेजी सरकार की नींव हिला दी। इस आंदोलन से जनता के हौसले पूरी बुलंदी पर थे। लोगों ने गिरफ्तारियां दीं, मजदूरों ने हड़तालें कीं, छात्रों ने प्रदर्शन एवं जुलूस, जलसे किए जिससे अंग्रेजी सरकार तिलमिला उठी, परंतु 1857 की तरह ही सन् 1942 का यह पूर्ण स्वतंत्रता का आंदोलन भी एक बार फिर भारतीय सेना, पुलिस व अफसरों की तथा मुस्लिम नेताओं की सहायता अंग्रेजों के पक्ष में होने की वजह से असफल रहा, ‘‘मुस्लिम लीग के नेताओं, राजा,
नबाबों एवं जमींदारों, कम्युनिस्टों एवं अंग्रेज परस्त सिख नेताओं ने हमेशा की तरह ब्रिटिश सरकार का साथ दिया।’’3
डॉ. हरिशंकर दुबे अपनी पुस्तक ‘फणीश्वरनाथ रेणु का व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ में लिखते हैं कि इस आंदोलन के दौरान, ‘‘फणीश्वरनाथ रेणु ने राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी की और गिरफ्तार हो भागलपुर सेंट्रल जेल में पहुँचे। समाजवादी विचारधारा से प्रभावित रेणु आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल जी व श्री जयप्रकाश नारायण से पूर्व परिचित थे और जेल में वीपी सिन्हा के व्यक्तित्व से प्रभावित हुए।’’4 सन् 1935 तक हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य का जो बीज अंग्रेजों ने बोया था, वह 1942 के आंदोलन में पेड़ बन चुका था। ऊपर से भारतीय हिंदू समुदाय पर प्रत्यारोपण किया गया कि आंदोलन का लक्ष्य भारतीय स्वतंत्रता नहीं वरन भारत में हिंदू साम्राज्य के साथ-साथ भारतीय संस्कृति और संस्कारों की प्रतिष्ठा करना है।
रेणु की पहली औपन्यासिक कृति ‘मैला आँचल’ का प्रकाशन अगस्त, 1954 ई. में हुआ और इसके तीन वर्ष बाद ही सितंबर, 1957 में ‘परती: परिकथा’ का प्रकाशन हुआ। इन दोनों उपन्यासों ने न सिर्फ रेणु को हिंदी साहित्य में एक बड़े लेखक के रूप में प्रतिष्ठित किया, बल्कि हिंदी की उपन्यास विधा में एक युगांतर भी उपस्थित हुआ। मानवीय आस्था, राजनीतिक विश्वास की पहचान रेणु के कथा साहित्य में दृष्टिगोचर होती है। राजनीतिक पार्टियों के प्रति मोहभंग की उनकी मनःस्थिति प्रारंभ में ही बन गई थी। भारतीय राजनीति में जो आदर्श था, आजादी के बाद उसका अस्तित्व छिन्न-भिन्न हो गया। उनके उपन्यासों में निम्न वर्गीय नारी का चित्रण भी अधिक है। निम्नवर्गीय नारी जहाँ एक ओर शिक्षित होने के कारण शोषित है, तो वहीं दूसरी ओर गरीबी का दंश भी उसके शोषण में मूल आधार है। मध्यवर्गीय नारियों में कस्बे के वातावरण से संबंधित नारियां जैसे बेला गुप्ता, यूथिका, फातिमा,
सरस्वती देवी और आयसा आदि आती हैं। ये युवतियाँ अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उठ खड़ी होती हैं परंतु विद्रोह में सफल नहीं हो पातीं। उच्चवर्गीय नारी पात्रों में प्रमुख हैं- कमली जो कि तहसीलदार विश्वनाथ प्रताप सिंह की बेटी है। लछमी घासिन जो अब मठ की कोठारिन है। ताजमनी ‘परती: परिकथा’ उपन्यास की नारी पात्र है और जितेन्द्र की प्रेमिका है। ज्योत्स्ना आनंद ‘कलंक मुक्ति’ उपन्यास की वर्किंग विमेंस हॉस्टल की सेक्रेटरी तथा पहले श्रीमती महांती और बाद में श्रीमती आनंद बनी, यह ऐसी पात्र है जो बड़े पद और स्वार्थ के लिए किसी भी सीमा तक जा सकने में जरा भी संकोच नहीं करती। ‘पल्टू बाबू रोड’ की बिजली तथा कुंतल कुमारी उच्चवर्गीय नारी पात्रों के अंतर्गत आती हैं जो धन एवं ऐश्वर्य भोगने के लिए रूप, गुण और योग्यता को सीढ़ियां बनाकर काम में लेती हैं। राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रमुख कवि बालकृष्ण शर्मा नवीन ‘परती: परिकथा’ को आत्मकथा बताते हैं। वे लिखते हैं, ‘‘रेणु में निरीक्षण और स्थिति-चित्रण का अद्भुत सामथ्र्य है। भारतीय ग्राम्य-जीवन में जो कुछ कुत्सित, द्वेषपूर्ण, संकुचित,
कलहप्रिय, नीच-वृत्ति है, उसे आपने अत्यंत, अत्यंत सहानुभूतिपूर्वक व्यक्ति किया है। इस निम्न वृत्ति में आप खो नहीं गए हैं। भारत के गाँवों में आपने मानवत्व को देखा है। आप निराश नहीं हैं। आप पराजयवादी नहीं हैं। आपने आशावादिता को पंक से कमलवत् उत्थित, विकसित और पुष्पित किया है।... ‘परती परिकथा’ उपन्यास नहीं है, वह तो भारतीय जन की आत्मकथा है।’’5 ‘परती: परिकथा’ की स्त्रियों के उच्चवर्गीय स्तरों का मैं यहाँ सांगोपांग मीमांसा कर रहा हूँ।
‘परती: परिकथा’ उपन्यास द्वारा यह पता चलता है कि निम्नवर्गीय नारी बड़े घरों में जैसे जमींदार आदि की हवेलियों में झाड़ू आदि देकर जीवन-यापन किया करती थीं। परानपुर गाँव के जमींदार का पुत्र जितेन्द्रनाथ मिश्र फोटोग्राफी का शौकीन है। उसने अपनी बैठक में फ्रेंच युवतियों की रंगीन तस्वीरें लगा रखी हैं, उस संबंध में धौली की माँ कहती है, ‘‘जित्तन बाबू का परिवार पुराना है। परानपुर गाँव के उजड़े खण्डहर-जैसे मकान की एक कोठरी में बैठकर जित्तन बाबू यानी श्री जितेन्द्रनाथ मिश्रजी एकटक खिड़की से देख रहे हैं-पोखरे में सुपारी, नारियल, साबूदाना तथा युक्लिप्टस के वृक्षों की परछाइयों को। हल्की चाँदनी की चदरी धीरे-धीरे बिला रही है...। कमरे में हरिकेन का प्रकाश है। दीवार पर देगाँ की एक तस्वीर की कापी फ्रेम में लटकी है-आध दर्जन अर्धनग्न नर्तकियों की टोली-नृत्यरता नायिकाएँ ! स्वस्थ फ्रेंच युवतियों की इन रंगीन तस्वीरों की कृपा से जित्तन बाबू इधर काफी कुख्यात हो गए हैं, गाँव को।.....धौली की माँ ने गाँव-भर में प्रचार किया है, ‘हवेली में झाड़ू देने कौन जाये ? नहीं करती ऐसी नौकरी ! सारी कोठरी में मार नंगी मेम की छापी टाँगे हुए है। आँख मूँदकर कोई कैसे झाड़ू दे, कहो ?’’6
इससे इस तथ्य का पता चलता है कि निम्नवर्गीय नारी धौली की माँ परानपुर गाँव के जमींदार साहब की हवेली में झाड़ू देने का कार्य करती थी। परानपुर गाँव में नट्टिन की टोली की नारियों की यह प्रथा है कि वे प्रतिवर्ष दशहरे पर कटिहार में लाल बेगिया मेले में अपना-अपना तंबू लेकर पहुँचती हैं और देह व्यापार द्वारा इतना कमा लेती हैं कि साल भर बैठकर आराम से खा सकें। नट्टिनटोली की ताजमनी देह व्यापार के इस धंधे को अनैतिक समझती है। वह सभी नट्टिनटोली की महिलाओं से कहती है कि इस वर्ष मेले में वे धंधा करने के लिए न जाएँ। इस बात को लेकर नट्टिनटोली में कोहराम मच गया। नारियों के शारीरिक भूगोल को इतनी दयनीयता के सांचे में ढाला जाता रहा है, जिससे उनका अबला रूप खिड़कियों से झांकने लगता है। यह सच्चाई है कि रेणु जिस समाज व देश से आते हैं वो यथार्थ के धरातल पर जीता-जागता रूप है, जिसका वर्णन कलमकार साहित्य में करता है। जिस देश में स्त्रियों को ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ कहा जाता है, वहाँ के हालात निकृष्टतम कोटि में वर्णित हो रहे हैं। रेणु जी अपने ‘परती: परिकथा’ उपन्यास में लिखते हैं, ‘‘नट्टिनटोली में कुहराम मचा हुआ है। बहुत दिनों के बाद नट्टिनटोली में ऐसा लहरदार झगड़ा शुरू हुआ है। गंगा नट्टिन की आवाज फटे कनस्तर की तरह झनझना रही है-जो जात की बात काटेगी, जात भी उसको सहस्सर टुकड़ा काटेगी ! हाँ-हाँ, काटेगी !’’7
नट्टिनटोली में जब कभी झगड़ा सुलगता है, सभी टोले के लोग दम साधकर, कान लगाकर सुनते हैं, अगल-बगल, बाग-बगीचे के अंधकार में खड़े होकर नट्टिनटोली का झगड़ा सुनने का रोग भी बहुत लोगों को है। मुख्य झगड़े के अलावा खुदरे झगड़े चकनाचूर की तरह चुरमुरे लगते हैं। चुनमुनबाई महीन बोली बोलती है, सारंगी की तरह। बात पर लय चढ़ाकर कहती है, ‘‘हम मेला में कमाकर नहीं खाएँगी तो कहाँ खाएँगीं ? डिब्बा की मिठाई और सुडाबाटर हमें भी मिले तब तो ?’’8
यह सबसके जीवन की बड़ी समस्या है कि व्यक्ति कुछ काम-धंधा नहीं करेगा तो खएगा क्या ? इसी को लेकर सभी में कानाफूसी शुरू हुई। लल्लनबाई कहती है, ‘‘ज़रूर करेंगीं, मेले में कमाई ई-ई।’’9
अपने पुराने धंधे को कैसे बंद करें, इसको लेकर सब मंथन कर रहे थे। तभी दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘इह बड़ी आयी है, कमाय बन्द करने ! हमको भी क्या दुलारीदाय का कुण्डा मिला है। छलमल मछलिया वाला कुण्डा !’’10
समाज में कुछ लोगों को अगुआई करने की आदत होती है। लेकिन नट्टिनटोली इस पर सवाल खड़े करती है, ‘‘बड़ी आयी है जात की सरदारिन बनने ! चुराकर नथिया उतरवायी, नट्टिनटोली का परेवा-पंखी तक को नहीं मालूम !’’11
रेणु जी मानवीय संवेदना के रचनाकार तो हैं ही, वे अंचल विशेष की परिस्थितियों का वर्णन करने में भी सिद्धहस्त हैं। वे ‘परती: परिकथा’ में आगे लिखते हैं, ‘‘अब्ब मालूम होगा, अब्ब ! फल फालबे करेगा, लोग देखबे करेगा। हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीती ! छिनाल ! ऐं- हें, हँटो,
हँटो !’’12
नारी जब तक शांत रहती है, तब तक शोषण सहती है, लेकिन जब उसके अहम को चोट पहुँचती है तब वह दुर्गा बन जाती है। वे चर्चा करती हैं, ‘‘हमारी पूजा भेरस्ट हो जाएँगी ! वह गीत चुनमुनिया गाती है जो भला-सा-ना छुओ, ना छुओ मोरी गंगा-जमुनवाँ की धोई चुनरी ! ......बाभनी बनी है ! बड़ा हवेली का डर दिखाती है ! जित्तनबाबू अपने घर में बाबू हैं। अपनी नट्टिन को हवेली में रखें। नट्टिनटोली की पर-पंचायत में पड़ने की क्या ज़रूरत !’’13
देह व्यापार का यह व्यवसाय नट्टिन निर्धनता के कारण करती हैं। इसका उत्तर भी चुनमुनबाई यह कहकर देती है कि यदि हम मेले में नहीं जाएँगीं, कमाई नहीं करेंगीं तो खाएँगीं क्या ? नट्टिनटोली की महिलाएँ इस व्यवसाय में आर्थिक विवशता अर्थात गरीबी के कारण ही फँसी हुई हैं। मुफलिसी एक ऐसी जिंदगी है जो व्यक्ति से कुछ भी करा सकती है। दाने-दाने को मोहताज आदमी ही तमाम प्रकार की विसंगतियों, कुकृत्यों को अंजाम देता है। पुरुष और स्त्री दोनों अपने-अपने ढंग से अपने पेट को पालने के लिए घृणित काम करते हैं, पर कुकर्म से बचकर व्यक्ति को स्वाभिमान की रोटी खानी चाहिए। इस संबंध में रेणु एक नट्टिन के मुँह से कहलवाते हैं, ‘‘आप तो खूब निसाफ करते हैं लुत्तोबाबू ! मेला में तम्बुक लेकर नहीं जाएँगे तो खाएँगे क्या ? गाँव क्या वही गाँव है कि बबुआनटोली के एक-एक घर में चार-चार नट्टिनें गुजर करती थीं। ....अब तो बबुआनटोली का लड़का कब जवान होता है, नट्टिनटोली की परेवा-पंखी भी नहीं जानती।’’14
देह व्यापार देश में बहुत समय से चला आ रहा है। चाहते हुए भी इसे आज तक नहीं रोका जा सका। बिहार प्रांत के पूर्णिया जिले के परानपुर में तो नट्टिनों की बस्ती देह व्यापार के द्वारा ही जीवन निर्वाह करती है। निम्नवर्गीय नारी की नियति यह रही है कि अधिकांश को प्रायः अपनी इच्छा के विरुद्ध यौन शोषण का शिकार होना पड़ा है। चाहे युग राजा-महाराजा और सामंतों का हो और चाहे अंग्रेजों की पराधीनता का, स्टेट के अंदर अंग्रेजों का काम करने वाले कर्मचारियों की नववधुओं को गोने के बाद पहली रात अंग्रेज अधिकारी की कोठरी में बितानी पड़ती थी। ऐसा एक उदाहरण ‘परती: परिकथा’ में प्रस्तुत करते हुए रेणु लिखते हैं, ‘‘और, अन्तिम घटना नहीं सुनोगी ? ...वह दृश्य ! उस बार डाइनापो कैण्ट से कोई फौजी मेहमान आए थे, साहेब के यहाँ छुट्टी मनाने के लिए। हेड-ब्वॉय बैरागी ने साहब को बताया-टुराईदास गौना करके नयी बहू ले आया है। तुरत, सिपाहियों को हुक्म हुआ- सूर्जसिंग, बाकरमियाँ डोनों जाएगा। अब्बी ले आएगा...।’’15 ‘परती: परिकथा’ को हिंदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस संदर्भ में प्रख्यात आलोचक शिवदान सिंह चैहान ठीक ही लिखते हैं, ‘‘यह हिंदी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है, इसे सर्वश्रेष्ठ भारतीय उपन्यासों में रखा जा सकता है और पाश्चात्य साहित्य में इस बीच जो महत्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुए हैं, उनमें से किसी से भी यह टक्कर ले सकता है।.... यह हम सबके लिए गर्व का विषय है।’’17
निष्कर्ष : फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों के अध्ययन से यह तथ्य सामने आता है कि उच्चवर्गीय नारियों में कुछेक नारियाँ उदात्त एवं महिमामयी प्रकृति की हैं, जबकि उच्चवर्गीय नारियाँ चालाक और शोषक प्रवृत्ति की हैं। रेणु अपने उपन्यासों में नारी का चित्रण करते समय नारी की नियति या उसके बाह्या स्वरूप का वर्णन तो करते ही हैं, साथ ही साथ नारी मन की भावनाओं और उसकी मनःस्थितियों का संश्लिष्ट चित्रण करते हैं। संक्षेप में नारी की नियति या नारी चित्रण की परिणति उसके बाध्य स्वरूप में ही नहीं है। नारी का आधार नारी मन की भावनाओं और मनःस्थिति पर निर्भर है। उसका अस्तित्व सिर्फ समाज और पुरुष वर्ग के लिए मिट जाने के लिए ही नहीं वरन स्वयं कर्मक्षेत्र में उतरने के लिए है। एक स्वतंत्र बुद्धिमान और पूर्ण पुरुष की आवश्यकता भी यही है कि उसे स्वतंत्र, बुद्धिमती और पूर्ण महिला का संसर्ग प्राप्त हो, किसी देवी या दानवी, स्वामिनी या दासी, बुद्धिजीवि या कामिनी, पर्दे की रानी या निर्लज्जा का नहीं। सभ्यता के विकास रूपी वाहन की प्रक्रिया में नारी और पुरुष वास्तव में दो पहिए बनकर चलने चाहिए। रेणु की नारियाँ गोदान की धनियाँ हैं, तो मिस मालती भी हैं। जयशंकर प्रसाद की ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ हैं, तो निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर; देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर’ भी हैं। कुल मिलाकर रेणु की नारियाँ समन्वय और सांमजस्य की भावना से ओतप्रोत हैं।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
एक टिप्पणी भेजें