शोध सार : आज संचार क्रान्ति के कारण हर कला और कलाकार को एक बड़ी आज़ादी मिली है। यह आज़ादी है खुद को विश्व के खुले मंच पर, दुनिया के सामने रखने की। आज हर वह व्यक्ति जिसके पास एक अदद स्मार्टफोन है, अपना चैनल बनाकर यूट्यूब या अन्य प्लेटफॉर्म्स पर अपने हुनर की अभिव्यक्ति दे सकता है। कहने वाले इसे लोकतान्त्रिक, जेंडर न्यूट्रल और सेकुलर मानते हैं। सदियों से मंचों की अपनी राजनीति रही है। किसको कितनी और कब जगह देनी है, इसे क़ला और साहित्य की दुनिया के सयाने-सरपंचों के इशारों पर ही तय किया जाता रहा है। लेकिन आज वे हदें टूट गयीं है। इसके अपने लाभ हानि प्रकट हो रहे हैं। एक तरफ़ एक नया वर्चुअल लोकतंत्र कायम हुआ दिखता है लेकिन दूसरी तरफ बाज़ार और अन्य बाजारू शक्तियां अपनी तरह से इसका दोहन करती मालूम होती हैं। ऐसे में साहित्य जैसी संवेदना की विधा सबसे ज्यादा खतरे में मालूम पड़ती है। पर आज इस मीडिया और न्यू मीडिया की नयी हवा के खिलाफ एक वही मज़बूती से खड़ी मालूम होती है।
किसी
महोत्सव,
किसी टीवी चैनल के कार्यक्रम की फेहरिश्त में भले ही आपको पीछे धकेल
दिया जाए मगर इन्टरनेट की दुनिया में अपना मंच सजाने के लिए आपको कोई न किराए की
ज़रूरत है न आकाओं की पैरवी की। इस संचार क्रान्ति में हदें टूटी हैं। लेकिन साथ ही
हदें बढ़ी भी हैं। आज कलाकार अपने वीडियोज और सोशल साइट्स पर अपने अकाउंट के ज़रिये
किसी दूसरे शहर जाने के किराए मात्र की कीमत पर, विज्ञापन
देकर अपनी कला और हुनर के विविध आयामों को हजारों हमख्याल लोगों तक पहुंचाकर उनकी
राय ले सकता है और मंचों की सीमा ये है वह एक समय सजते हैं और खामोश हो जाते हैं। मगर
संचार के सीने पर सवार ये ई-मंच कभी अपना शटर नहीं गिराते और हमेशा या जब तक आप
चाहें ये सारी दुनिया के लिए उपलब्ध रहते हैं। इससे कला और कलाकारों के अपने
प्रभाव क्षेत्र का दायरा न केवल बढ़ता है बल्कि उसमें निरंतर गुणात्मक परिवर्तन और
विस्तार होता रहता है। आज ये मीडिया एक अजब-गज़ब सी मिक्स्ड फीलिंग देता है। दुधारी
तलवार की तरह। जहां एक तरफ लगता है कि यह अभिव्यक्ति के तमाम बंधनों और जालों को
काटता चलता है वहीं दूसरी तरफ एक अनूठे जाल में बांधता भी चलता है।
बीज शब्द : मीडिया, सोशल साइट्स, संचार, भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद, फेसबुक, यूट्यूब, इन्स्टाग्राम, साइबर बिरादरी, वसुधैवकुटुम्बकम, तुरतावाद, कृत्रिम बौद्धिकता(आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस), रचनात्मकता, स्त्री अस्मिता, दलित विमर्श, संवेदनहीनता।
मूल
आलेख :
मीडिया को समाज में उसकी भूमिका को
लेकर होने वाली चर्चा में उसे नयी उम्मीद और लोकतंत्र को कायम करने वाला और चौथे
खम्भे के रूप में गिना जाता है। पर इसी चौथे खम्भे को आजकल चौथा धंधा[1] भी
कहा जाने लगा है। चौथा धंधा यानी पहले के तीन पाये उर्फ़ स्तम्भ भी इसी श्रेणी में
आ गये। इस चौथे धंधे अर्थात मीडिया ने पिछली आधी सदी में अजब गज़ब चोले बदले। और हर
चोले के साथ यह बदलता गया। प्रिंट, विजुअल से
इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक पहुँचते-पहुँचते जहां इसकी गति में परिवर्तन हुआ वहीं मूल
स्वरुप और उद्देश्य कहीं पीछे छूटते गए।
संचार-क्रान्ति के बाद मीडिया ने
पहला काम यहीं किया है कि हदें तोड़ दी हैं और दूसरा काम इसी के बराबर, वह है हदें बनाने का और उसके साथ ही बढ़ाने का। यह तीनों बातें परस्पर
विरोधाभासी हैं, मगर आज के दौर में तीनों एक बड़ा सच हैं,
जिसे लगभग हर विद्वान् स्वीकारता है।
मीडिया का एक और रूप है आज का सोशल
मीडिया या न्यू मीडिया है। इसने एक मायने में क्रान्ति भी की है और अटपटे हालत भी
पैदा कर दिए हैं। इसमें फेसबुक, यू ट्यूब, whatsapp, इन्स्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क
हैं जिन्होंने हर आम ओ ख़ास के लिए एक उन्मुक्त मंच प्रदान किया है। इस आज़ादी के
अपने मायने हैं। इसने बहुत सारे बीच के ज़रियों या कहें कि पुलों को तोड़कर लेखक को
सीधे पुलकित करने का काम किया है।
इसमें जहां एक तरफ सोशल मीडिया है
वहीं दूसरी तरफ वर्डप्रेस,
ब्लोग्सकी दुनिया है। गूगल पर न्यू मीडिया शब्द की एंट्री करते ही परिणाम
के रूप में About 18, 67, 00, 00, 000
results 0.59 seconds)यानि एक
सेकंड से कम समय में 18 अरब, 67 करोड़ परिणाम बताते हैं कि यह
आज के दौर में कोई नया शब्द नहीं है। इसमें इंटरनेट के माध्यम से प्रसारित सूचना
तंत्र के तमाम मंच है जहां जाकर पढ़ा भी जा सकता है और लिखा भी जा सकता है।
अपनी रचनाओं को अपनी शर्तों पर अपनी
तरह से प्रकाशित भी किया जा सकता है और बहुत सी जगह पहुंचाया भी जा सकता है। इस
जगत का नियंता व्यक्ति /लेखक स्वयं है यहाँ संपादक /प्रकाशक मंच की नहीं सिर्फ
अकाउंट होल्डर की मर्जी चलती है यहाँ एक अलग तरह का लोकतंत्र है जिसके अपने फायदे
नुकसान हैं।
इस दुनिया का नागरिक बनने के लिए
कोई विशेष योग्यता नहीं बस कुछ औपचारिकताएं होती हैं जिन्हें पूरा करना होता है और
इसके साथ ही आप सारी दुनिया के सम्मुख अपने आप को खोलकर रख सकते हैं। साहित्य की
निगाह से यह एक बेहद बड़ी क्रान्ति थी जहां रचनाकार की निर्भरता ख़त्म हो रही थी। लेखक
और पाठक के बीच की जितनी रुकावटें या बैरियर्स थे वह सब बेमानी हो गए। रचनाएं सहज
सरल रूप से सीधे कहीं भी पहुंचाईं जा सकतीं थीं और कमाल तो ये कि इसके लिए किसी
कीमत को चुकाने की आवश्यकता भी नहीं थी।
अगर इससे पूर्व के परिदृश्य पर गौर
करें तो अखबार हों या पत्रिकाएं अथवा टी.वी. लेकिन इनमें अपनी रचनाओं के प्रकाशन
प्रसारण के लिए एक प्रक्रिया से गुज़रना होता था। एक संपादक मंडल होता था उसके पास
अनगिनत रचनाएं आतीं थीं जहां अपने प्रिय अथवा प्रभावशाली लेखन के आधार पर रचनाओं
का चयन और प्रकाशन और प्रसारण होता था। इस प्रक्रिया में जितने लेखकों की रचनाएं
प्रकाशित होतीं थीं उससे कहीं ज़्यादा लेखको की रचनाओं को वापस लौटा दिया जाता था। इस
फेहरिश्त में बड़े बड़े लेखक भी शामिल है जिनकी रचनाओं को अस्वीकार कर दिया अथवा
लौटा दिया गया।
न्यू मीडिया किसी प्रकाशन की नहीं
पर अपनी वाल/ब्लॉग पर लिखने की आजादी देती है और आपके मित्रों-प्रशंसकों के सम्मुख
एक साथ रखने का अवसर देती है। पाठक अथवा लेखक समुदाय कहीं किसी देश में हो मगर
रचना ब्लॉग पर प्रकाशित होने के साथ ही कहीं भी देखी जा सकती है। इस आज़ादी ने लेखक
ही नहीं रचनाओं को भी एक खुला आसमान दिया। इस खुलेपन का सबसे ज्यादा फायदा उन तमाम
नवोदित लेखकों भी मिला जिन्हें अपने रचना कौशल को दिखलाने का मंच मिला। अब जो खुले
मंचों के जो नुकसान होते हैं यहाँ भी वह सारे अनर्गल रचनाकार सीना तानकर मंच पर आ
गए। इस लोकतंत्र में कई बार लगता है जनता ही जनार्दन है क्योंकि आखिर तो उसी की
पसंद राज़ करती है। लेकिन यहाँ भी हमारे लोकतंत्र जैसी ही स्थितियां है जहाँ लाइक्स, व्यूज सीन से आकलन होता है और यह मैनेज्ड होता है। साहित्यकारों की जमात
इसके काफी खिलाफ नज़र आती है ख़ास तौर पर वरिष्ठ और वयोवृद्ध पीढी। इंडिया टुडे का
15 वर्षों बाद जो साहित्य वार्षिकी प्रकाशित हुआ तो विमर्श का मुद्दा यही था कि इस
न्यू मीडिया और साहित्य का क्या रिश्ता है।
“भाषा का उपभोक्ता और लापरवाह रूप मीडिया
में हमें पढ़ने सुनने को मिलता है। कविता में अथवा साहित्य में हम उससे कुछ भिन्न
मंतव्य वाली भाषा पाना चाहते हैं लेकिन मीडिया की भाषा भी ज़रूरी है क्योंकि वह
मनुष्य समाज के दैनिक इतिहास से टकराती है। अखबार को मैं दैनिक इतिहास मानता हूँ। इस
तरह हमारी प्रत्येक तारीख इतिहास में जाने का उपक्रम रचती है। लेकिन मीडिया भाषा
का उत्पत्ति स्थल नहीं उपभोग स्थल है वह कविता कहाने नाटक और निबंध आदि सभी
रचनात्मक विधाओं का कबाड़खाना है। यहाँ साहित्य रचनात्मक भाषा का उत्पत्ति स्थल है।
इसलिए मीडिया कभी प्रतिमान नहीं बन सकता। वह सूचनाओं का शमशान और कब्रगाह भी नहीं है, बल्कि मीडिया समाज का दैनिक चेहराहै
कविता स्वयं में अभिव्यक्ति का साधन
भी है और साध्य भी। लक्ष्य भी है और उद्देश्य भी। आत्मा भी है और चेतना भी। कविता
अनुभूति भी है और अनुभव भी। कविता आत्म संवाद के साथ-साथ जीवन पद्धति की आतंरिक
खबर भी है। कविता खबर भी है और खबर का कारण भी। कविता के शिल्प और गल्प में बहुत
से मानवीय संवेदनात्मक आवेग गुंथे हुए हैं। जो किसी अभिज्ञान तक जाना चाहते हैं। वे
अभिज्ञान जो हमारी क्षीण होती अभिव्यक्तियों का नतीज़ा हैं।
“कविता
व्यक्ति को भी सामाज से कमतर नहीं आंकती। अच्छी कविता के लिए त्याज्य कुछ भी नहीं
है। अच्छी कविता अच्छाई के पीछे भी भागती है और बुराई का पीछा नहीं छोड़ती। अच्छी
कविता भाषा में से अभाषा और विभाषा को पकड़ने की कोशिश करती है। अच्छी कविता बने
बनाए समुद्र को संभालने की अपेक्षा बूंदों को संजोने और संभालने में ज़्यादा मशगूल
और तत्पर दिखाई देती है। अच्छी कविता के लिए हिमालय के मुकाबले ठीकरा भी त्याज्य
नहीं है।”[2] कहने की ज़रुरत नहीं कविता और समाज में बड़े के पैमाने अलग-अलग हैं। समाज
की निगाह में जो बड़ा है और साहित्य या कविता जिसे बड़ा मानती है उसमें बड़ा फरक है। दरअसल
दोनों की प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं और एक मायने में कविता समाज में संतुलन पैदा
करने की कोशिश करती है।
“....लेकिन
आजकल साहित्य में भी क्षेत्रवाद और जातिवाद की आधुनिकता के नाम पर रोपाई की जा रही
है। अभी तक मात्र मनुष्य जाति के आदर भाव की स्थापना नहीं की जा सकी है।” [3]
“पिष्टपेषित
ज़हरीली बहसों और तथ्यहीन पूर्वाग्रहों से उबार के तो देखिये, आपको लगेगा जैसे हर कोई आपके शब्दों में अर्थ भर रहा है, यानी कि अज्ञेय की बानी में जो अभी और रहा, वह कहा
नहीं गया की तलाश कर रहा है।” [4]
बदलते
समय के साथ “कह सकते है कि अभिव्यक्ति की नागरिकता का हमारे समय में अभूतपूर्व
विस्तार हुया है। यह भी याद करना चाहिए कि यह लोकतान्त्रिक विस्तार किसी नागरिक
प्रयत्न या अभियान से,
किसी राजनैतिक आन्दोलन से नहीं, तंत्र द्वारा
संभव हुआ है। यह विस्तार तंत्र यानी टेक्नोलॉजी का उपहार है। फिर भी उसका प्रसार
और मान्यता दोनों ही बढे हैं इसमें सन्देश नहीं किया जा सकता है। अगर मर्यादित न
हो तो हर व्यवस्था, जिसमें लोकतंत्र भी शामिल है, अराजक हो सकता है। सोशल मीडिया पर ऐसी अराजकता देखी और पायी जा सकती है। एक
तो सोशल मीडिया पर सोच-विचारकर कोई बाट ज़िम्मेदारी से कहने के बजाय आप दुनिया की
हर चीज़ पर अपनी राय दे सकते हैं। दूसरे का चरित्र हनन कर सकते हैं। लांछन और
अतार्किक अभियोग भी लगा सकते हैं। ट्रोलिंग कर घटिया स्तर की भदेश छीछालेदर कर
सकते हैं और यह उसका सबसे गर्हित और परेशान करने वाला पहलू है।” [5]
“सोशल
मीडिया पर महज़ भेड़चाल देखी जा सकती है। लोग या तो यहाँ दूसरों का कहा लाइक करते हैं
या उन्हें भद्दी गली गलौज का शिकार बनाते हैं। राजनीति हो, धर्म या स्त्री, अज्ञ से अज्ञ इंसान इन पर धड़ल्ले से
बहसबाजी करता है। बल्कि जो जितना कम जानता है उतना बढ़-चढ़कर बोलता है। लानत मलानत
फेसबुक और ट्विटर की ख़ास अदा है। इनमें अद्तारीन अपशब्द औरतों के लिए आरक्षित हैं।
औरत जो हो कवि, लेखक, समाजकर्मी वैज्ञानिक –मैनेजर, किसी को नहीं बख्शा जाता।” [6]
“कल रात फिर एक
शब्द मर गया
क्या किसी
ने उसके पानी के गिलास में ज़हर मिला दिया था
नहीं तो
फिर कौन है उसका हत्यारा
पुलिस भी
कैसे कर सकती है इस हत्या की जांच
लेकिन कल
शब्दकोश पलटते हुए मैंने पाया
कई शब्द
मरे पड़े हैं
तितलियों
की तरह किताबों में
लेकिन
शब्दों के मरने की कोई खबर नहीं है
किसी अखबार
में
टीवी से
क्या उम्मीद करें
कहीं कोई
शोकसभा भी नहीं
न कोई शोक
सन्देश
न कोई शव
यात्रा
न किसी की
आँखों में आंसू यह कैसा समय है
कि एक शब्द
के मरने पर पर सन्नाटा छागया है
किसी पर
कोई फर्क नहीं पड़ रहा है
सब निर्लिप्त
हैं
जबकि एक
शब्द मरता है
तो उसके
साथ एक अर्थ भी मरता है
एक सभ्यता
और संस्कृति भी मरती है
और उसके
पीछे छिपा इतिहास भी मरता है”[7]
“अब अभिव्यक्ति के सामने सम्पादक
नाम की दीवार कमज़ोर हो गयी है। बेशक सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति जबरदस्त अवसर
उपलब्ध कराये हैं। पढ़ने के नए तरीके विकसित हो रहे हैं, किताब या पत्रिका हो ज़रूरी नहीं कि भौतिक आकार में ही पढी जाए। आभासी पाठ
लगातार लोकप्रिय हो रहे हैं। बड़े बड़े स्थापित पत्र-पत्रिकाएं ऑनलाइन संस्करण निकाल
रहे हैं। कई तो ऐसे हैं जो सिर्फ ऑनलाइन ही उपलब्ध हैं। और खूब पढ़े जाते हैं। इस
तरह के प्रकाशनों में सम्पादक की सत्ता गायब नहीं हुयी है। उसने बस ऑनलाइन अवतार
ले लिया है। विभिन्न पोर्टल्स की अपनी नीतियाँ हैं, प्राथमिकताएं
हैं और वैसा ही पाठक वर्ग है।” [8]
निस्संदेह इस आज़ादी के अपने खतरे
हैं,
अपने लाभ और लोभ भी। इस दुनिया में झूठ को सच की तरह परोसने और सच
को झूठ बनाकर रखने के बेहद खतरनाक उदाहरण सामने आये हैं। यहाँ साहित्य या कला नहीं
इनसानियत नहीं बल्कि लक्ष्य एक वर्ग को निशाना बनाया जाना होता है। किसी एक वर्ग
का मखौल उड़ाया जाना होता है। इसमें अपने को साबित करने से ज़्यादा दूसरे को बेईज्ज़त
करने पर जोर रहता है।
यहीं यह
आज़ादी खतरनाक हो जाती है और यह स्वतंत्रता तक पहुँचने के बजाये राह भटक जाती है। और
तथाकथित लगामों के बावजूद आज भी खुलापन इतना है कि लगाम कहाँ-कहाँ लगे और आश्चय तो
ये कि कहीं कहीं लगामें ही बेलगाम होकर इन भेड़ों को हांकती नज़र आती हैं।
“सोशल
मीडिया सूचना और संवाद का सर्वसुलभ और मुक्त माध्यम है यह तो ठीक, लेकिन चिंता की बात ये है कि अपने सुलभ बल्कि लुभावने रूप के कारण यह एक
मात्र ऐसे अवतार का भी रूप धारण कर लेता है। स्मार्ट माध्यम के युग में पढ़ने की ही
नहीं परस्पर बात करने की आदत भी कम होती जा रही है। और यह संवादहीनता अकेली नहीं
है, समाज में तेज़ी से वायरल होती जा रही बुद्धिहीनता के साथ
इसकी सतत जुगलबंदी है।। यह बुद्धिहीनता, विचारहीनता भारत से
अमेरिका तक सायास रूप से रची गयी है।” [9]
“यहीं
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोकतंत्र की बुनियाद माना जाता है किन्तु लोकतंत्र का
मतलब सिर्फ संख्याओं तक सीमित नहीं होता है। लोकतंत्र संस्थाओं के बूते पर चलता है।
लोकतांत्रिक मिजाज़ केवल भावनाओं को नहीं विवेक को भी महत्त्व देता है। केवल अपने
को नहीं दूसरे के दुःख-सुख के बारे में भी सोचता है। इस लिहाज़ से सोचें तो किसी हद
तक सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का स्पेस रचा ज़रूर है लेकिन इस स्पेस
के भीतर जो हाल है उस पर फिलहाल तो यही पुरानी कहावत लागू होती है– अंधाधुंध के
राज में गधा पंजीरी खाए”[10]
सोशल मीडिया
की खूबी और खामी ये है कि ग्लोबल है। इसमें यही खूबी भी है और खामी भी कि यह किसी
एक पक्ष तक सीमित नहीं रहती। इसके अपने फायदे और संकट है फायदे यह कि यह एक
समन्वित राग है और संकट यह कि जिसे हम समन्वित कह या समझ रहे हैं असल में समन्वित
नहीं प्रायोजित है और उस संवेदनशीलता को भी तोड़ता है जिसकी साहित्य में सबसे
ज़्यादा दरकार होती है। साहित्यकार की निगाह में यह स्थिति अराजक है “सोशल मीडिया
भाषा का सबसे बड़ा ग्लोबल पब्लिक स्फीयर है। इसकी बहुस्वरता एक तरह की अराजकता का
एहसास कराती है। वह एक निर्बाध मंच है। वह मीडियम है और मैसेज भी। वहां हर आदमी एक
लेखक है। हिन्दी साहित्य का उत्सव देखना हो तो उन नए-पुराने अनेक हिन्दी लेखकों को
देखें जो फेसबुक पेज ब्लॉग,
वेबसाईट, इन्स्ताग्राम, लिंक्डइन
ट्विटर, व्हाट्सअप्प पर दिन-रात कुछ न कुछ लिखते रहते हैं। यहाँ
आबाल वृद्ध स्त्री-पुरुष और थर्ड जेंडर सब सक्रिय हैं।” [11]
“लेखकों की
यह नयी साइबर बिरादरी है। एकदम खिलंदड़ा, दो टूक कमेंटों और
बेलौस ओपिनियनों से सुसज्जित यह एक मनोहर संसार है जिसमें निवेदन है, अकाद है और सेल्फ का दर्पीला एहसास भी। यहाँ लेखन एक नित्य लीला है। बिरादरी
में होते हुए भी ये लेखक नित्य अकेला है। वह खुद ही लेखक, प्रकाशक,
मार्केटर और हॉकर है। वह चौबीसों घंटे का इंटरैक्टिव लेखक है।”
[12]
ज़ाहिर
है यहाँ बहुत सारे दवाबों के बीच लेखक लिख रहा है। दवाब ज़िंदगी के लिए कोई बड़ी चीज़
नहीं है। पहले भी होते थे,
होते रहेंगें मगर यहाँ जो दवाब है वह माध्यम के अपने दवाब है। मुक़ाबले
में वह चौबीसों घंटे लगा है। ज़्यादा से ज़्यादा लाइक्स सीन व्यूज और बेस्टसेलर की
होड़ उसे लगातार जगाये रखती है। यह जागरण कबीर का नहीं है।
ये
बाज़ार का जगराता है। यहां महफ़िल हर घड़ी सजी रहती है, 24X7। यह भी 21वीं सदी का और
ग्लोबलाइजेशन का ही मुहावरा है, अन्यथा आज से 25-30 साल पहले
किसी से बात की होती तो 24X7 कहने पर जानकार व्यक्ति सीधा 168 बोलता लेकिन आज हम
इसका मायने समझते हैं- अपलक, लगातार, बेरोकटोक, हर घड़ी और इसने लेखक को भी जगा रखा
है और वह दुनिया या जगत कल्याण के लिए नहीं करवटें बदलता रहता है उसका मकसद है
सोशल मीडिया के प्रतियोगी जगत में खुद को किसी भी हाल किसी भी कीमत पर विजयी बनाना
या साबित करना।
इस मुकाबले एक हद तक तो दौड़ा जा सकता है, मगर यह नहीं रुकता इसके लेवल बढ़ते जाते हैं। दौड़ जारी रहती है। इस जगत(सोशल
मीडिया) की निरर्थकता का बोध होते हुए भी यह लेखक को चैन से नहीं सोने देती। यहाँ
मुहावरा एक ही चलता है “तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे।” या
फिर ‘नेबर्स एनवी ऑनर्स प्राइड’। यह नए मूल्यों के प्रत्यारोपण का समय है। किसान
को लगता है मैं बो रहा हूँ, कवि को लगता है मैं बो रहा हूँ। पर
बुवाई उसकी होती है जिसका विज्ञापन सबसे ज़ोरदार होता है। यहाँ वोट काबिल को नहीं
मुकाबिल को दिया जाता है। कवियों की कविताओं को भी देखें तो वहां ज़माने की यह
चिंता और चिंतन छान-छानकर आता दिखाई भी देता है।
गीत
चतुर्वेदी अपने संग्रह ‘न्यूनतम मैं’ में इसे अपनी तरह से एहसास करवाते हैं -
मैं
अपनी नहीं,
किसी और की राजनीति हूँ
मैं
किसी और का गुप्त एजेंडा हूँ
मेरे
होने भर से कोई अपने हित साध लेगा
वह
मेरा ही अहित होगा
मैं
अपना नहीं किसी और का नाम हूँ
नरक
की नागरिकता के लिए मैंने आवेदन नहींदिया था
मुझे
किसी और के टिकट पर यहाँ भेजा गया। [13]
सोशल
मीडिया एक अलग लोक है। जैसा पहले कहा यहाँ 24X7 सब चलता है। लेकिन इस दुनिया की
बड़ी विडंबनाएँ हैं। यहाँ मेले भी बहुत हैं, ठेले भी बहुत और
झमेले भी बहुत। और इस जगत में मौलिकता बड़ी मुश्किल से मिलती है। व्हाट्सएप्प का
दूसरा नाम ‘ठेला-ठेली’ भी मान सकते हैं। यह एक ऐसी दुनिया जहां लोग खुद का कम
लिखते हैं दूसरे के भेजे को आगे सरका रहे हैं। मतलब मेरे पास जो 2 ने भेजा मैंने
3-4-5 को भेज दिया और 4 या 3 ने भेजा उसे 2 अन्य को ठेल दिया। यहाँ अपने विचार
व्यक्त करने की फुर्सत ही नहीं है क्यों दर्जनों ग्रुप्स और सैकड़ों कॉन्टेक्ट्स
में से ढेरों नोटिफिकेशन आपका दरवाज़ा खटखटा रहे होते हैं।
शब्दों की
जगह चिह्नों और प्रतीकों ने ले ली है। यहाँ तक कि भावनाओं के स्तर पर भी मरना (मृत्यु
)हो या परना (परिणय)या जन्मदिन या वर्षगाँठ, जीत या हार सबके
सिम्बल्स हैं। सुधीश पचौरी लिखते हैं– “सोशल मीडिया के लेखक की यात्रा ‘सेल्फ’ से
‘सेल्फी’ तक है। इस दुनिया का वाद है तुरतावाद। तुरंत लेखन, तुरंत
पोस्टिंग यानी प्रकाशन, तुरंत प्रतिक्रया, तुरंत प्रति-प्रतिक्रया और ट्रोल करने वाली खाप पंचायतें। यहाँ सेल्फ समाज
से बड़ा है। कड़ी आत्म समीक्षा, आत्म परीक्षा और कठोर
आत्मानुशासन कम ‘जोई सोई कछु गावै’का भाव प्रबल रहता है। यहाँ का पाठक सच होते हुए
भी फेक सा लगता है। यह साहित्य संचार की शोर सर्किटिंग है।” [14]
इस दौर में
बड़े पशोपेश में है उम्र के 5-6-7 दशक पार कर चुके साहित्यकार। अभी वह टीवी को लेकर
ही परेशान थे,
फेसबुक को लेकर ही चिढ़ते थे लेकिन अब व्हाट्सअप्प, इन्स्टा और ट्विटर के आगे वह चित्त हो गए मालूम पड़ते हैं। हिन्दी साहित्य
के किसी भी दौर में किसी साहित्यकार ने इतने रूपान्तरणों को इतने युगों को संभवतः
नहीं देखा होगा। विष्णु खरे मानते है– “नेट ने कविता ही नहीं सारे अक्षर और मुद्रण
को कागज़ की क़ैद से मुक्त कर दिया है। चीनी छापाखाना और गुटेनबर्ग ने धातु
प्रिंटिंग प्रेस के बाद लिखित शब्दों के विश्व में ये ऐसी महाक्रान्ति है कि जिसके
सारे आयाम समझना अभी हमारे यहाँ शुरू ही नहीं हुआ है, यद्यपि
हम संसार के दूसरे सबसे ज्यादा नेट इस्तेमाल करने वाले राष्ट्र है।” [15]
इसी तरह साहित्य
की एक-एक कविता आज भी प्रतिरोध की बानगी पेश करती है। और यह सिर्फ आज के प्रतिरोध
में खड़ी हो ऐसा नहीं है,
यह मानव जाती के पूरे इतिहास और समस्त मान्यताओं पर भी एक सिरे से
प्रश्न चिन्ह खड़े करती हैं। यह खुद को ही नहीं खुदा को भी अच्छी तरह जांचती परखती
है। रजनी अनुरागी की कविता ‘बुद्ध अगर तुम औरत होते’ बुद्ध के पूरे वजूद को जैसे
झकझोर देती है।
बुद्ध
अगर तुम औरत होते
तो
इतना आसान नहीं होता गृह त्याग
शाम
के ढलते ही तुम्हें हो जाना पड़ता
नज़रबंद
अपने ही घर और अपने ही भीतर
हज़ारों
की अवांछित नज़रों से बचने के लिए
और
वैसे भी मान अगर होते तुम
राहुल
का मासूम चेहरा तुम्हें रोक लेता
तुम्हारे
स्तनों से चुआने लगता दूध
फिर
कैसे भी कर पाते तुम
पार
कोई भेरे वीथी समाज की।
घने
जंगलों में प्रवेश करने
और तपस्या में तुम्हारे बैठने से पहले ही
शीलवान तुम्हें देखते ही स्खलित होने लगते
जंगली पशुओं से ज़्यादा सभ्यों से भय खाते तुम
ब्राह्मण तुम्हारी ही योनि में करते अनुष्ठान
और क्षत्रिय शस्त्रास्त्र को भी वहीं मिलता
स्थान
विषयों ने पानी की तरह बेचकर वैश्या बना दिया
होता तुम्हें
और ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं है मुझे
कि शूद्रों का भी तुम होते आसान शिकार
औरत के मामले में सब होते हैं पुरुष [16]
इसी कविता को जब आप इंडिया टुडे की
साहित्य वार्षिकी में पढ़ते हैं तब अलग बात होती है और जैसे ही वेबसाईट साहित्य-कुञ्ज पर जाते हैं तो चौंक जाते हैं। [17] चौंकने
की वजह, वे सारे विज्ञापन जो इस कविता के बीच-बीच में रास्ता
रोककर खड़े हैं। विज्ञापन- 1 दें पूरी रात पार्टनर का साथ, टाइमिंग
बूस्ट करने का सबसे आसान उपाय, इस दवा से जिस्म में जोश की
ऐसी आग लगेगी जो पूरी रात नहीं बुझेगी। विज्ञापन- 2 यही दोबारा, विज्ञापन- 3
दें पूरी रात पार्टनर का साथ, अगर जल्दी झड़ जाते हैं और
रोमांस का मज़ा नहीं ले पाते हैं तो अपनाएँ ये श्रेष्ठ उपचार एक युवती और युवक को
एक दूसरे को बांहों में लिए हुए हैं और लिखा है रात भर प्यार का भरपूर आनंद लेने
का तरीका।
और
ठीक इसी के नीचे लिखा है ये विशेषांक
उसके और नीचे– और विशेषांक सुषम
बेदी- श्रद्धांजलि और उनका रचना संसार
एक तरफ
स्त्री चेतना का उद्गोष करती कविता। साथ ही स्त्री को कामुकता का आयाम बताकर
मर्दवादी समाज के विज्ञापन और उसके बाद श्रद्धांजलि। ये बाज़ार अपनी तरह से कविता, साहित्य-साहित्यकार और पाठक सभी के लिए एक चुनौती बन गया है।
वेबसाईट के
विज्ञापनों की व्याख्या में ये समझना महत्त्वपूर्ण है कि आप जिस तरह का कंटेंट
देखते है या ढूढ़ते हैं गूगल या अन्य विज्ञापन एजेंसियां उन की वर्ड्स को पकड़कर
पाठक या दर्शकों के ठिकाने पहचान कर हमला विज्ञापनी धावा बोलती हैं। लेकिन जब
पड़ताल हुई तो पता चला कि इस आईडी से इस तरह के किसी सन्दर्भ की सर्च तो हुई नहीं, तो पता चला इस कविता में औरत, योनि, स्खलन जैसे शब्द हैं और इन्हीं को आधार बनाकर विज्ञापनों के ठेले इधर ठेल
दिए गए। यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कुछ ऐसे ही काम करता है। 1943-1956 के बीच
आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस पर काम करने वाले कम्पुटर वैज्ञानिक जॉन मैक कार्थी भी
मानते हैं कि इसके दुष्प्रभावों में एक सबसे बड़ा सम्वेदनशून्यता और रचनात्मकता का
खात्मा है।[18]
मतलब साफ़ है रचनात्मकता का मुकाबला सृजनहीनता और भावनाओं का मुकाबला
संवेदनहीनता से है। विडंबना ये है कि इस रचनात्मकता को अपना रास्ता इसी भूमंडलीय
बस्ती के बीच से बनाना है जहां इसकी परवाह किसी को नहीं है। यहाँ हर बाजे से बड़ा
बाज़ार है।
ये तो हुयी
इन्टरनेट की दुनिया। अगर प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रोनिक मीडिया को भी देखें तो
वहां भी स्थितियां बहुत अलग नहीं हैं। फरवरी 2000 के इंडिया टुडे के अंक में जहां
एक और महान तबलावादक उस्ताद अल्ला रक्खा खां को लेकर एक पेज की श्रद्धांजलि मय लेख
है वहीं दूसरे पेज पर के एस यानी कामसूत्र का विज्ञापन जिसमें पूजा बेदी अपने
कामुक रूप में पूजा बेदी लगभग नग्न अवस्था में अपने चरम सुख के दृश्य दे रही हैं। [19]
साहित्य और अन्य कलाओं की यही बानगी
आज के इस मीडिया प्राभावित दौर में भी कला और कलाकार का प्रतिरोध का काम कर रही है।
ऐसे दौर में कलाप्रेमियों के दो धड़े स्पष्ट रूप से सामने आ गए हैं। एक जिनके लिए कला
रोजी रोटी का ज़रिया है और व्यवसाय है और दूसरे वे जो कला को जीवन के लिए एक हथियार
के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
कला-प्रेमियों का दूसरा धड़ा आज भी
कबीराना अंदाज़ में बाज़ार के खिलाफ खड़ा है और विज्ञापन संस्कृति के खिलाफ सच को सच
कहने का साहस प्रदर्शित करता आया है। युवा कवि पंकज चतुर्वेदी की कविताओं में कवि
का वह तेवर साफ-साफ दिखाई देता है जहां वह सत्ता या वर्चस्ववादी वर्ग का विज्ञापन बनने
से साफ़ इनकार कर देता है। यहाँ भाषा को बहुत पारदर्शी रखना चाहता है -
हत्यारे को
हत्यारा ही
कहा जाना चाहिए
चाहे वह
प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति
या मुख्य
न्यायाधीश या सेना प्रमुख
हत्यारा
सिर्फ हत्यारा होता है
बाकी उसकी
पहचान हत्या के गुनाह को
छुपाने के
लिए होती हैं
हत्या कई
औजारों से की जाती है
इसमें कलम
की नोंक
विचार की
नोक शामिल है
हत्यारे
सड़क पर हैं और संसद में
वे हर
संस्थान में मौजूद हैं
इन सबसे हत्या
के गुनाह ख़त्म नहीं हो जाते
न हत्यारे
की शिनाख्त छुपती है
हत्यारे को
हत्यारा कहना
भाषा के
सही इस्तेमाल की पहली सीढी है। [20]
(भाषा
का सही इस्तेमाल– पंकज चतुर्वेदी)
इसी
तरह पंकज चतुर्वेदी अपनी एक और कविता में हमारे वक़्त की असहमतियों के बढ़ते स्वरूप
और तर्कहीनता के मायाजाल को बेपर्दा करते दिखाई देते हैं-
सुबह का वक़्त
था
वे चार थे
सियासत की
बात चली
मैंने कहा-
नफरत और हिंसा की आक्रामक राजनीति हो रही है
उनमें जो
सबसे बुजुर्ग था उसने मुझे डपटते हुए पूछा
हिंसा कहाँ
हो रही है
कहाँ है
नफरत?
मैंने जवाब
दिया
कहीं नहीं
चारोंतरफ
प्यार का माहौल है
इस पर वह
चीखते हुए बोला
माहौल खराब
कर रखा है साला [21]
निष्कर्ष : आज के दौर में जहां हमें विजुअल और प्रिंट मीडिया सत्ता के दबाव में काम करता प्रतीत होता है वहां और ज़्यादा मज़बूत शक्ति बनकर उभरे सोशल मीडिया या न्यू मीडिया ने जहां एक तरफ स्वतन्त्र आवाज़ को बेरोकटोक अपनी अभिव्यक्ति देने का मंच दिया है, वहीं न्यू मीडिया के इस दौर में इसमें तात्कालिकता और हल्कापन इसे कमज़ोर बनाता है। सत्ता और दबंग शक्तियां अपने तरह से इसका इस्तेमाल करती है। आज भी, समाज में यह साहित्य ही है जो मीडिया और बाज़ार की चुनौतियों के खिलाफ आमजन की आवाज़ बनकर खड़ा है। ऐसा नहीं है कि लेखक मीडिया से अप्रभावित रहा हो, पर प्रतिरोध का स्वर उसकी भाषा में साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। जहां उसका प्रभाव पड़ा है वहां उसकी भाषा-मूल्य-विषय और चिंताएं बदली हुई ज़रूर नज़र आती हैं लेकिन वहां भी उसकी एक अलग चेतना और चिंता के साथ चिंतन का कलेवर साथ दिखाई देता है। निस्संदेह साहित्य और कला की दुनिया में भी मीडिया के प्रभाव हैं लेकिन वहां भी वह उस प्रवाह में बहा नहीं जा रहा, बल्कि इस दौर में भी ऐसे बहुत से रचनाकार हैं, पत्रिकाएं हैं जो अपने पन्नों और कवर्स की बोलियाँ नहीं लगा रहे बल्कि जैसे-तैसे अपनी आवाज़ में जनता की बात उसके दर्द को ज़िंदा रखे हुए हैं, और इस अपसंस्कृति के दौर में भी डटकर खड़े हैं। मीडिया की अपनी संक्राति है। उसके अपने सामर्थ्य हैं, तो सीमाएं भी हैं। कला के बाज़ार और बाज़ारुपन के प्रतिरोध में खड़े होने की ज़िद ही उसे मीडिया के कला आयामों के बीच भी उसे एक अलग पहचान देती है।
[1]अयोध्या प्रसाद, चौथा धंधा, नोशन प्रेस, 2018
[8]डॉ.पुरुषोत्तम अग्रवाल, अंधाधुंध के राज़ में, साहित्य वार्षिकी इंडिया टुडे, 2017 संअंशुमान तिवारी, पृ. सं. 9
[17]रजनी अनुरागी, साहित्य कुञ्ज https://m.sahityakunj.net/blog/buddh-agar-tum-aurat-hote
[18]जॉन मैक कार्थीhttps://www.javatpoint.com/advantages-and-disadvantages-of-artificial-intelligence
[19]इंडिया टुडे, फरवरी 2003, सं. अरुण पुरी
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
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